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________________ ६१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १. मट्टियाए संजोगेण जलस्स बहुवण्ण-ववहार-दंसणादो । आऊणं सहाववण्णो पुण धवलो चेत्र । __ एवं चेव बादरआउकायस्स वि तिण्णि आलावा वत्तव्या । णवरि पजत्तकाले दव्वेण फलिहलेस्सा एक्का चेव । णत्थि अण्णत्थ विसेसो । बादरआउकाइयणिव्यत्तिपञ्जत्ताणं पि तिण्णि आलावा एवं चेव वत्तव्या। बादरआउलद्धिअपज्जत्ताणं बादरआउणिव्यत्तिअपज्जत्त-भंगो । सुहुमआउकाइयाणं सुहुमपुढविकाइय-भंगो। सुहुमआउकाइयणिव्यत्तिपञ्जत्तापजत्ताणं सुहुमआउकाइयलद्धिअपज्जत्ताणं च सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-भंगी। तेउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरतेउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापञ्जत्ताणं च पज्जत्त-णामकम्मोदयतेउकाइयाणं' तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरतेउलद्धिअपजत्ताणं च, आउकाइयाणं तेसिं चेत्र पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरआउकाइयाणं तेर्सि चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं पञ्जत्तणामकम्मोदयआउकाइयाणं तेसिं चेव पजत्तापजत्ताणं कहना युक्ति-संगत नहीं है। क्योंकि, आधारके होने पर मट्टीके संयोगसे जल अनेक वर्णवाला हो जाता है ऐसा व्यवहार देखा जाता है। किन्तु जलका स्वाभाविक वर्ण धवल ही है। इसप्रकार बादर अप्कायिक जीवोंके भी सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि उनके पर्याप्तकालमें द्रव्यसे एक स्फटिक वर्णवाली शुक्ल लेश्या ही होती है, इसके सिवाय अन्य पृथिवीकायिकके आलापोंसे अप्कायिकके अन्य आलापोंमें और कोई विशेषता नहीं है। इसीप्रकार बादर अप्कायिक निवृत्तिपर्याप्तक जीवोंके उक्त तीन आलाप कहना चाहिए। बादर अप्कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप अप्कायिक निवृत्यपर्याप्तक जीवोंके आलापोंके समान समझना चाहिए। सूक्ष्म अप्कायिक जीवोंके आलाप सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। सूक्ष्म अप्कायिक निवृत्तिपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक निर्वृत्यपर्याप्तक और सूक्ष्म अप्कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त आलापोंके समान जानना चाहिए। तेजस्कायिक जीवोंके और उन्हीं पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवोंके, बादरतैजस्कायिक जीवोंके और उन्हीं बादरतैजस्कायिक पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवोंके, पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले तैजस्कायिक जीवोंके और उन्हींके पर्याप्त अपर्याप्त भेदोंके तथा बादर तैजस्कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप अपकायिक जीवोंके और उन्हींके पर्याप्तक अपर्याप्तक भेटोंके. बादर अप्कायिक जीवोंके और उन्हींके पर्याप्तक अपर्याप्तक भेदोंके, पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले अप्कायिक जीवोंके और उन्हींके पर्याप्तक अपर्याप्तक भेदोंके, तथा बादर अप्कायिक १ प्रतिषु पञ्जतापज्जतणामकम्मोदयाणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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