SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं [६०९ काओ, दो जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिडिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा। एवं पादरपुढविणिव्वत्तिपज्जत्तस्स तिण्णि आलावा वत्तब्वा। बादरपुढविलद्धिअपज्जत्तस्स बादरेइंदिय-अपज्जत्त-भंगो । सुहुमपुढवीए सुहुमेइंदिय-भंगो । णवरि सुहुमपुढविकाइओ त्ति वत्तव्वं । आउकाइयाणं पुढवि-भंगो । णवरि सामण्णालावे भण्णमाणे आउकाइओ, दव्वेण काउ-सुक्क-फलिहवण्ण-लेस्साओ वत्तव्याओ । तेसिं चेव पज्जत्तकाले दव्वेण सुहुमआऊणं काउलेस्सा वा बादरआऊणं फलिहवण्णलेस्सा । कुदो ? घणोदधि-घणवलयागासपदिद-पाणीयाणं धवलवण्ण-दसणादो । धवल-किसण-णील-पीयल-रत्ताब-पाणीय-दसणादो ण धवलवण्णमेव पाणीयमिदि के वि भणंति, तण्ण घडदे । कुदो ? आयारभावे और कार्मणकाययोग ये दो योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्नुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। इसीप्रकार बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिये। बादर पृथिवीकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आलापोंके समान जानना चाहिए। सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके आलाप सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके आलापोंके समान जानना चाहिए । विशेषता यह है कि 'सूक्ष्म एकेन्द्रिय' के स्थानपर 'सूक्ष्म पृथिवीकायिक' ऐसा आलाप कहना चाहिए। ___ अप्कायिक जीवोंके आलाप पृथिवीकायिक जीवोंके आलापोंके समान समझना चाहिए । विशेष बात यह है कि सामान्य आलाप कहते समय 'पृथिवीकायिक' के स्थानपर 'अप्कायिक' और लेश्या आलाप कहते समय द्रव्यसे अपर्याप्तकालमें कापोत और शुक्ल लेश्याएं और पर्याप्तकालमें स्फटिकवर्णवाली अर्थात् शुक्ल लेश्या कहना चाहिए। उन्हीं सूक्ष्म अप्कायिक जीवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत लेश्या कहना चाहिए। तथा बादरकायिक जीवोंके स्फटिकवर्णवाली शुक्ल लेश्या कहना चाहिए, क्योंकि, घनोदधिवात और घनवलयवात द्वारा आकाशसे गिरे हुए पानीका धवलवर्ण देखा जाता है। यहां पर कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि, धवल, कृष्ण, नील, पीत, रक्त और आताम्र वर्णका पानी देखा जानेसे पानी धवलवर्ण ही होता है, ऐसा कहना नहीं बनता है ? परंतु उनका यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy