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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
भूलोकचैत्यालयचैत्यपूजाब्यापारकृत्यादरतोऽवतीर्णा । स्वर्गात्सुरस्त्रीति विलोक्यमाना पुण्येन लावण्यगणेन यात्र ॥६॥
आहारशास्त्राभयभेषजानां दायिन्यलं वर्णचतुष्टयाय । पश्चात्समाधिक्रियया मृदन्ते स्वस्थानवत्स्वः प्रविवेश योच्चैः ॥७॥
सद्धर्मशत्रु कलिकालराज जित्वा व्यवस्थापितधर्मवृत्या।
तस्या जयस्तम्भनिभं शिलाया स्तम्भं व्यवस्थापयति स्म लक्ष्मीः॥८॥ लेखके अन्तमें उनके संन्यासविधिसे देहत्यागका उल्लेख इसप्रकार है
श्री मूलसंघद देशिगगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्रसिद्धान्तदेवर् गुड्डि सक वर्ष १०४२ नेय विकारि संवत्सरद फाल्गुण ब. ११ बृहबार दन्दु संन्यासन विधियि देमियक मुडिपिदल ।
____ अर्थात् मूलसंघ, देशीगण, पुस्तकगच्छके शुभचन्द्रदेवकी शिष्या देमियक्कने शक १०४२ विकारिसंवत्सर फाल्गुन ब. ११ वृहस्पतिबारको संन्यासविधिसे शरीरत्याग किया।
उक्त परिचय परसे संभव तो यही जान पड़ता है कि धवलाकी प्रतिका दान करनेवाली धर्मिष्ठा साध्वी देमियक ये ही होंगी, जिन्होंने शक १०४२ में समाधिमरण किया। तथा उनके भतीजे भुजबलिX गंगाडिदेव जिनका धवलाकी प्रशस्तिमें उल्लेख है उनके भ्राता बूचिराजके ही सुपुत्र हों तो आश्चर्य नहीं । उस व्रतोद्यापनके समय बूचिराजका स्वर्गवास हो चुका होगा, इससे उनके पुत्रका उल्लेख किया गया है। यदि यह अनुमान ठीक हो तो धवलाकी प्रति जो संभवतः मूडबिद्रीकी वर्तमान ताडपत्रीय प्रति ही हो और जो शक ९५० के लगभग लिखाई गई थी, बूचिराजके स्वर्गवासके पश्चात् और देमियक्कके स्वर्गवासके पूर्व अर्थात् शक १०३७
और १०४२ के बीच शुभचन्द्रदेवके सुपुर्द की गई, ऐसा निष्कर्ष निकलता है। पर यह भी संभव है कि श्रीमती देमियक्कने पुरानी प्रतिकी नवीन लिपि कराकर शुभचंद्रको प्रदान की और उसमें पूर्व प्रतिके बीच-बीचके पद्य भी लेखकने कापी कर लिये हों।
प्रशस्तिके अन्तिम भागमें तीन कनाडीके पध हैं जिनमेंसे प्रथम पद्य 'श्री कुपणं' आदिमें कोपण नामके प्रसिद्ध पुरकी कीर्ति और शेष दो पद्यों में जिन्न नामके किसी श्रावकके यशका वर्णन किया गया है। कोपण प्राचीन कालमें जैनियोंका एक बड़ा तीर्थस्थान रहा है।
- भुजबलवीर होयसल नरेशोंकी उपाधि पाई जाती है। देखो शिलालेख नं० १३८, १४३, ४९१, ४९४,४९७.
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