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________________ १,१.] संत पररवणाणुयोगहारे गदि-आलाववण्णणे [४८१ सम्मत्तं । मणुस्मा पुयबद्ध-तिरिक्खयुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण दंसणाहणीयं खविय खइयसम्माइट्ठी होदण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जति ण अण्णत्थ, तेण भोगभूमि-तिरिक्खेसुप्पज्जमाणं पेक्खिऊण असंजदसम्माइट्ठि'-अपज्जत्तकाले खइयसम्मत्तं लब्भदि । तत्थ उप्पज्जमाण-कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि। एवं तिरिक्खअसंजदसम्माइटिस अपज्जत्तकाले दो सम्मत्ताणि हवंति । सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुखजुत्ता वा । तिरिक्ख-संजदासजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण पूर्वोक्त दो सम्यक्त्वोंके होनेका यह कारण है कि जिन मनुष्योंने सम्यग्दर्शन होनेके पहले तिर्यंच आयुको बांध लिया है वे पीछे सम्यक्त्वको ग्रहण कर और दर्शनमोहनीयको क्षपण करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमिके तिर्यंचोंमें ही उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमिके तिर्यंचों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षासे असंयतसम्यग्दृष्टिके अपर्याप्तकालमें शायिकसम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्हीं भोगभूमिके तिथचों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके कृतकृत्यवेदककी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्व भी पाया जाता है । इसप्रकार तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालमें दो सम्यक्त्व होते हैं। सम्यक्त्व आलापके आगे संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। सामान्य तिर्यंच संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, ऐक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचोन्द्रयजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्वके १ प्रतिषु हिप्पहुडि ' इति पाठः । नं. ७१ सामान्य तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. (गु. जी. प. प्रा. सं | ग. इं.का. । यो. वे. क. ज्ञा. | संय.। द. । ले. भ. स. ।संक्षि. आ.। उ. ११ ! ६ ७ ४|१११! २ १ ४ ३ | १ ३ । द्र.२ १ २ १ | २ २ स.अ. त. स. आ.मि. पु. मति. असं. के. द का. भ. क्षा. सं. आहा. साका. | कार्म. श्रुत. विना शु. क्षायो अना. अना. भा.१ । का. आत्र. अव. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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