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________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना लोकाम्बिकाके पुत्र तथा यदुवंशी राजा नारसिंहके मंत्री कहे गए हैं। इन यादव व होय्सलवंशीय राजा नारसिंह तथा उनके मंत्री हुल्लराज या हुल्लपका उल्लेख अन्य अनेक शिलालेखोंमें भी पाया जाता है, जिनसे उनकी जैनधर्म में श्रद्धाका अच्छा परिचय मिलता है। (देखो जैन शिलालेख संग्रह, भू. पृ. ९४ आदि) । पर उक्त विषय पर प्रकाश डालनेवाला शिलालेख नं० ३९ है जिसमें देवकीर्तिकी प्रशस्तिके अतिरिक्त उनके स्वर्गवासका समय शक १०८५ सुभानु संवत्सर आषाढ़ शुक्ल ९ बुधवार सूर्योदयकाल बतलाया गया है, और कहा गया है कि उनके शिष्य लक्खनंदि, माधवचन्द्र और त्रिभुवनमल्लने गुरुभक्तिसे उनकी निषद्याकी प्रतिष्ठा कराई । देवकीर्ति पद्मनन्दिसे पांच पीढी, कुलभूषणसे चार और कुलचन्द्रसे तीन पीढी पश्चात् हुए हैं । अतः इन आचायोंको उक्त समयसे १००-१२५ वर्ष अर्थात् शक ९५० के लगभग हुए मानना अनुचित न होगा । न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावनाके विद्वान् लेखकने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक उस ग्रन्यके कर्ता प्रभाचन्द्र के समयकी सीमा ईस्वी सन ९५० और १०२३ अर्थात् शक ८७२ और ९४५ के बीच निर्धारित की है । और, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, ये प्रभाचन्द्र वे ही प्रतीत होते हैं जो लेख नं० ४० में पद्मनन्दिके शिष्य और कुलभूषणके सधर्म कहे गए हैं। इससे भी उपर्युक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है। उक्त आचार्योंके कालनिर्णयमें सहायक एक और प्रमाण मिलता है । कुलचन्द्रमुनि के उत्तराधिकारी माघनन्दि कोल्लापुरीय कहे गये हैं। उनके एक गृहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्त का उल्लेख मिलता है जो शिलाहार नरेश गंडरादित्यदेवके एक सामन्त थे। शिलाहार गंडरादित्यदेवके उल्लेख शक सं. १०३० से १०५८ तक के लेखों में पाये जाते हैं । इससे भी पूर्वोक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है। पद्मनन्दि आदि आचार्योंकी प्रशस्तिके सम्बन्धमें अब केवल एक ही प्रश्न रह जाता है, और वह यह कि उसका धवलाकी प्रतिमें दिये जानेका अभिप्राय क्या है ? इसमें तो संदेह नहीं कि वे पद्य मुडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रतिमें हैं और उन्हींपरसे प्रचलित प्रतिलिपियोंमें आये हैं। पर वे धवलाके मूल अंश या धवलाकारके लिखे हुए तो हो ही नहीं सकते। अतः यही अनुमान होता है कि वे उस ताड़पत्रवाली प्रतिके लिखे जानेके समय या उससे भी पूर्वकी जिस प्रति परसे वह लिखी गई होगी उसके लिखनेके समय प्रक्षिप्त किये गये होंगे । संभवतः कुलभूषण या कुलचन्द्र सिद्धान्तमुनिकी देख-रेखमें ही वह प्रतिलिपि की गई होगी। यदि विद्यमान ताडपत्र की प्रति लिखनेके समय ही वे पद्य डाले गये हों, तो कहना पड़ेगा कि वह प्रति शककी दशवीं १. जैन शिलालेखसंग्रह, लेख में. ४. 2. Sukrabara Basti Inscription of Kolhapur, in Graham's Statistical Report on Kolhapur. न्यायकुमुदचन्द्र, भूमिका पृ. ११४ आदि. Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelit www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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