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________________ ६५४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १,१. सम्माइट्ठीणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टंताणं सरीरस्स काउलेस्सा चेव हवदि; छब्वण्णोरालियपरमाणूणं धवल- विस्ससोपचय सहिद - छव्वण्णकम्मपरमाणूहि सह मिलिदाणं कावोदaणुपत्तदो । कवाडगद - सजोगिकेवलिस्स वि सरीरस्स काउलेस्सा चैव हवदि । एत्थ वि कारणं पुत्रं व वत्तव्यं । सजोगिकेवलिस्स पुव्विल्ल सरीरं छव्वण्णं जदि वि हवदि तो वि तण्ण घेप्पदिः कवाडगद - केवलिस्स अपज्जत्तजोगे वट्टमाणस्य पुच्चिल्ल- सरीरेण सह संबंधाभावादो | अहवा पुव्विल्ल छन्वण्ण- सरीरमस्सिऊण उवयारेण दव्वदो सजोगिकेवलस्स छ लेस्साओ हवंति । । भावेण छ लेस्साओ । किं कारणं ? मिच्छा इट्ठि- सासणसम्माइट्ठीणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणाणं किण्हणील-काउलेस्सा चेव हवंति, कवाडगद-सजोगिकेवलिस्स सुक्कलेस्सा चेव भवदि, किंतु देव - रइय सम्माइट्ठीणं म सगदी उप्पण्णाणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणाणं अविणट्ठ-पुव्विल्ल-भावलेस्ताणं भावेण छ लेस्साओ लब्भंति त्ति । भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, उवसमसम्मत्त समाधान - औदारिकमिश्रकाययोगमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके शरीरकी कापोतलेश्या ही होती है; क्योंकि, धवलवित्र सोपचय सहित छहों वर्णोंके कर्म-परमाणुओंके साथ मिले हुए छहों वर्णवाले औदारिकशरीरके परमाणुओंके कापोत वर्णकी उत्पत्ति बन जाती है, इसलिए औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों के द्रव्य से एक कापोतलेश्या ही होती है । कपाटसमुद्घातगत सयोगिकेवलीके शरीरकी भी कापोतलेश्या ही होती है। यहां पर भी पूर्वके समान ही कारण कहना चाहिए । यद्यपि सयोगिकेवलीके पहलेका शरीर छहों वर्णोंवाला होता है, तथापि वह यहां नहीं ग्रहण किया गया है; क्योंकि अपर्याप्तयोग में वर्तमान कपाटसमुद्धात-गत सयोगिकेवलीका पहलेके शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता है । अथवा, पहले के षड्वर्णवाले शरीरका आश्रय लेकर उपचारसे द्रव्यकी अपेक्षा सयोगिकेवलीके छहों लेश्याएं होती हैं । औदारिकमिश्रकाय योगियोंके भावसे छहों लेश्याएं होती हैं। शंका- औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके भावसे छहों लेश्याएं होने का क्या कारण है ? समाधान - औदारिकमिश्रकाययोगमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके भावसे कृष्ण, नील और कापोतलेश्याएं ही होती हैं । और कपाटसमुद्घातगत औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली के एक शुक्ललेश्या ही होती है । किन्तु जो देव और नारकी मनुष्यगति में उत्पन्न हुए हैं, औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान हैं और जिनकी पूर्वभवसम्बन्धी भावलेश्याएं अभीतक नष्ट नहीं हुई है, ऐसे जीवोंके भावसे छहों लेश्याएं पाई जातीं हैं; इसलिए औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके छहों लेश्याएं कहीं गई हैं । लेश्या आलापके आगे भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः उपशमसम्यक्त्व और सम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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