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________________ ६०४] छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १. मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अकाया त्ति मूलोघ-भंगो। णवरि मिच्छाइटिस्स तिविहस्स वि कायाणुवाद-मूलोघभुत्तजीवसमासा वत्तव्वा । णत्थि अणत्थ विसेसो। "पुढयिकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, चत्तारि जीवसमासा, चत्तारि पजत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पुढविकाओ, तिण्णि जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउ हैं। पर्याप्त जीवसमासके उन्नीस विकल्पों में भी यही क्रम जान लेना चाहिये । गोम्मटसार जीवकाण्डमें जीवसमासोंको बतलाते हुए तीन पंक्तियां कर दी हैं। पहली पंक्तिमें एक, दो, आदि उनीसतक जीवसमास लिये हैं और यह कथन सामान्यकी अपेक्षा किया है। दूसरी पंक्तिमें दो, चार आदि अड़तीसतक जीवसमास लिये हैं और यह कथन पर्याप्त और अपर्याप्त इन दो भेदोंकी अपेक्षा किया है। तथा तीसरी पंक्तिमें तीन, छह आदि सत्तावनतक जीवसमास लिये हैं और यह कथन पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त इन तीन भेदोंकी अपेक्षा किया है। सामान्य षट्कायिक जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अकायिक अर्थात् सिद्ध जीवों तकके आलाप मूल ओघालापके समान ही जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त इन तीनों ही प्रकारके मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहते समय कायानुवादके मूलोघालापमें कहे गये सभी जीवसमास कहना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्यत्र अन्य कोई विशेषता नहीं है। पृथिवीकायिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बांदरपृथिवीकायिक-पर्याप्त, बादरपृथिवीकायिक-अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक-पर्याप्त और सूक्ष्मपृथिवीकायिक-अपर्याप्त ये चार जीवसमास; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, पृथिवीकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण नं. २१६ पृथिवीकायिक जीवोंके सामान्य आलाप. | यो. के.क., ज्ञा. संय. द. ले. म. स.संज्ञि. आ. | उ. ए. जी. | प. प्रा. - KARA मि.ना.प.प. प. ति. , पृ. | औ.... पृ. | औ.२ कुम. असं. | अच. भा. ३ भ. मि. असं. आहा. साका. कुथु, | अशु, अ. अना. | अना. सू.प. अ. अ. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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