SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ षट्खंडागमकी प्रस्तावना २४ अप्पाबहुग- अप्पाबहुगाणिओगदार २४ अल्पबहुत्व-अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार अदीदसव्वाणिओगद्दारेसु . अप्पाबहुगं अतीत संपूर्ण अनुयोगद्वारोंमें अल्पबहुत्वका पख्वेदि । प्रतिपादन करता है। इन चौवीस अधिकारोंके विषयका प्रतिपादन पुष्पदन्त और भूतबलिने कुछ अपने स्वतंत्र विभाग से किया है जिसके कारण उनकी कृति षट्खंडागम कहलाती है । उक्त चौवीस अधिकारोंमें पांचवां बंधन विषयकी दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। इसीके कुछ अवान्तर अधिकारोंको लेकर प्रथम तीन खंडों अर्थात् जीवट्ठाण, खुद्दाबंध और बंधसामित्तविचयकी रचना हुई है । इन तीन खंडोंमें समानता यह है कि उनमें जीवका बंधककी प्रधानतासे प्रतिपादन किया गया है। उनका मंगलाचरण भी एक है । इन्हीं तीन खंडोंपर कुन्दकुन्दद्वारा परिकर्म नामक टीका लिखी कही गयी है। इन्हीं तीन खंडोंके पारंगत होनेसे अनुमानतः त्रैविद्यदेवकी उपाधि प्राप्त होती थी। इन्हीं तीन खंडोंका संक्षेप सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रकृत गोम्मटसारके प्रथम विभाग जीवकांडमें पाया जाता है। इन तीन खंडोंके पश्चात् उक्त चौवीस अधिकारोंका प्ररूपण कृति वेदनादि क्रमसे किया गया है और प्रथम छह अर्थात् बंधन तकके प्ररूपणको अधिकार व अवान्तर अधिकारकी प्रधानतानुसार अगले तीन खंडों वेदणा, वग्गणा और महाबंधमें विभाजित कर दिया गया है। इन तीन खंडोंके विषय-विवेचनकी समानता यह है कि यहां बंधनीय कर्मकी प्रधानतासे विवेचन किया गया है। इनमें अन्तिम महाबंध सबसे बड़ा है और स्वतंत्र पुस्तकारूढ है। जो उपर्युक्त तीन खंडोंके अतिरिक्त इन तीनोंमें भी पारंगत हो जाते थे, वे सिद्धान्तचक्रवर्ती पदके अधिकारी होते थे । सि. च. नेमिचन्द्रने इनका संक्षेप गोम्मटसार कर्मकांडमें किया है। भूतबलि रचित सूत्रग्रंथ छठवें बंधन अधिकारके साथही समाप्त हो जाता है। शेष निबन्धनादि अठारह अधिकारोंका प्ररूपण धवला टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यकृत है, जिसे उन्होंने चूलिका कहकर पृथक् निर्देश कर दिया है। उपर्युक्त खंडविभागादिका परिचय प्रथम जिल्दकी भूमिकामें दिये हुए मानचित्रोंसे स्पष्टतया समझमें आजाता है। उन चित्रोंमें बतलायी हुई जीवट्ठाणकी नवमीं चूलिका गति-आगतिकी उत्पत्तिके विषयमें एक सूचना कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। वह चूलिका धवलामें वियाहपण्णत्ति से उत्पन्न हुई कही गयी है। मानचित्रमें व्याख्याप्रज्ञप्तिके आगे (पांचवां अंग ) ऐसा लिख दिया गया है, क्योंकि यह नाम पांचवें अंगका पाया जाता है। किन्तु दृष्टिवादके प्रथम विभाग परिकर्मके पांच भेदोंमें भी पांचवां भेद वियाहपण्णत्ति नामका पाया जाता है । अतएव संभव है कि गति-आगति चूलिकाकी उत्पादक वियाहपण्णत्तिसे इसीका अभिप्राय हो ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy