________________
ग्रंथका विषय किन्तु इस विशेष प्ररूपणमें उन्होंने गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति आदि वीस प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी परीक्षा की है। यह वीस प्ररूपणाओंका विभाग पूर्वोक्त सत्प्ररूपणाके सूत्रोंमें नहीं पाया जाता, और इसीलिये टीकाकारने एक शंका उठाकर यह बतला दिया है कि सूत्रोंमें स्पष्टतः उल्लिखित न होने पर भी इन पीस प्ररूपणाओंका सूत्रकारकृत गुणस्थान और मार्गणास्थानोंके भेदोमें अन्तर्भाव हो जाता है, अतः ये .रूपणाएं सूत्रोक्त नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता (पृ. ४१४)।
'सूत्रेण सूचितार्थानां स्पष्टीकरणा) विंशतिविधानेन प्ररूपणोच्यते ' | 'न पौनरुक्तयमपि कथंचित्तेभ्यो भेदात् ' । (पृ. ४१५)
इससे यह तो स्पष्ट है कि यह वीस प्ररूपणारूप विभाग पुष्पदन्ताचार्यकृत नहीं है । वह स्वयं धवलाकारकृत भी नहीं है, क्योंकि उन्होंने उन प्ररूपणाओंका नामनिर्देश करनेवाली एक प्राचीन गाथाको · उक्तं च ' रूपसे उद्धृत किया है । इस विभागका प्राचीनतम निरूपण हमें यतिवृषभाचार्य कृत तिलोयपण्णत्तिों मिलता है । यथा
गुण-जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गगा कमसो । उवजोगा कहिदव्या णारइयाणं जहाजोगं ॥२७३॥
गुग-जीवा पज्जती पाणा सण्णा य मग्गणा कमसो। उवजोगा कहिदव्या एदाण कुमारदेवाणं ॥१८३॥
आदि. किन्तु यह अभी निश्चयतः नहीं कहा जा सकता कि इस वीस प्ररूपणारूप विभागका आदिकर्ता कौन है ? यह विषय अन्वेषणीय है।
गुणस्थानों व मार्गणास्थानके अनेक भेद प्रभेदोंका विशिष्ट जीवोंकी अपेक्षासे सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त रूप प्ररूपण करनेसे आलापोंकी संख्या कई सौ पर पहुंच जाती है। इस आलाप विभागका परिचय विषय-सूचीको देखनेसे मिल सकता है । अतः उस सम्बंधमें यहां विशेष कथनकी आवश्यकता नहीं है। प्रथम भागकी भूमिकामें गुणस्थानों और मार्गणाओंका सामान्य परिचय देकर यह सूचित किया गया था कि अगले खंडमें विषयका विशेष विवेचन किया जायगा । किन्तु इस भागका कलेवर अपेक्षासे अधिक बढ़ गया है और प्रस्तावना भी अन्य उपयोगी विषयोंकी चर्चासे यथेष्ट विस्तृत हो चुकी है। अतः हम उक्त विषयके विशेष विवेचन करनेकी आकांक्षाका अभी फिर भी नियंत्रण करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org