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________________ पट्खंडागमकी प्रस्तावना ७. रचना और भाषाशैली प्रस्तुत ग्रंथविभागमें सूत्र नहीं हैं। सत्प्ररूपणाका जो विषय ओघ और आदेश अर्थात् गुणस्थान और मार्गणास्थानोंद्वारा प्रथम १७७ सूत्रोंमें प्रतिपादित हो चुका है उसीका यहां वीस प्ररूपणाओं द्वारा निर्देश किया गया है। इस वीस प्रकारको प्ररूपणाके आदिमें टीकाकारने 'ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी० सिद्धा चेदि' इस प्रकारसे सूत्र दिया है और उसे ओघसूत्र कहा है। हमारी अ. प्रतिमें इसपर ७४, आ. में १७४, तथा स. में १७२ की संख्या पायी जाती है जो उन प्रतियों की पूर्व सूत्रगणनाके क्रमसे है। पर स्पष्टतः वह सूत्र पृथक् नहीं है, धवलाकारने पूर्वोक्त ९ से २३ तकके ओघ सूत्रोंका प्रकृत विषयकी वहांसे उत्पत्ति बतलाने के लिये समष्टिरूपसे उल्लेख मात्र किया है। इस भागमें गाथाएं भी बहुत थोड़ी पायी जाती है, जिसका कारण यहां प्रतिपादित विषयकी विशेषता है। अवतरण गाथाओंकी संख्या यहां केवल १३ है जिनमें से एक ( नं २२० ) कुंदकुंदके बोधपाहुडमें और दो (२२३, २२४ ) प्राकृत पंचसंग्रहमें * भी पायी जाती हैं । गाथा नं.(२२८) ' उत्तं च पिंडियाए' ऐसा कहकर उद्धृत की गई है। हमने इस गाथाकी खोज कराई, पर वीरसेवामंदिरके पं. परमानन्दजी शास्त्रीने हमें सूचित किया कि यह गाथा न तो प्राकृत पंचसंग्रह में है न तिलोयपण्णत्तिों और न श्वेताम्बरीय कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, जीवसमास विशेषावश्यक आदि ग्रन्थों में है । जान पड़ता है 'पिंडिका' नामका कोई प्राचीन ग्रंथ रहा है जो अबतक अज्ञात है। इन तीन गाथाओंको छोड़कर शेष सब कहीं जैसी की तैसी और कहीं किंचित् पाठभेद को लिये हुए गोम्मटसार जीवकांडमें भी संगृहीत हैं। इस विभागमें संस्कृत केवल प्रारंभमें थोड़ी सी पायी जाती है। शेष समस्त रचना प्राकृतमें ही है । पर यहां विषयकी विशेषता ऐसी है कि उसमें प्रतिपादन और विवेचनकी गुंजाइश कम है। अतएव जैसी साहित्यिक वाक्यशैली प्रथम विभागमें पायी जाती है वैसी यहां बहुत कम है। जहां कहीं शंका-समाधानका प्रसंग आ गया है, वहीं साहित्यिक शैली पायी जाती है। ऐसे शंका समाधान इस विभागमें ३३ पाये जाते हैं। शेष भागमें तो गुणस्थान और मार्गणास्थानकी अपेक्षा जीवविशेषोंमें गुणस्थान आदि वीस प्ररूपणाओंकी संख्या मात्र गिनायी गयी है, जिसमें वाक्य रचनाकी व्याकरणात्मक शुद्धिपर ध्यान नहीं दिया गया। पद कहीं सविभक्तिक हैं और कहीं विभक्ति-रहित अपनेप्राति पदिक रूपमें । समास-बंधन भी शिथिलसा पाया जाता है, उदाहरणार्थ ' आहारभयमेहुणसण्णा चेदि ' (पृ. ४१३ )। चेदि से पूर्वके पद समास ___* यह ग्रंथ अभी अभी 'वीरसेवा मन्दिर सरसावा ' द्वारा प्रकाशमें लाया जा रहा है। उसमें उक्त गाथाओंके होनेकी सूचना हमें वहाँके पं. परमानन्दजी शास्त्री द्वारा मिली । ......... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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