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________________ १, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं [१९५ जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणीओ असण्णिणीओ, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुवजुत्ता होति अणागारुबजुत्ता वा । पजत्तपंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पञ्जत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, समास, संक्षिनीके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंशिन के पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; संशिनीके दशों प्राण, सात प्राण; असंज्ञिनीके नौ प्राण, सात प्राणः चारों संक्षाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककायययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिनी, असंशिनी; आहारिणी, अनाहारिणी; साकारो. पयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं। उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि योनिमतियोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और असंज्ञी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, और असंज्ञीके पांच पर्याप्तियां; संज्ञीके दशों प्राण, और असंशोके नौ प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक नं.९० पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्याष्टिके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स.संज्ञि. आ. उ. । १। ४ ६५. १०४ १११ ११ १ ४ ३ । १ २ द्र.६ २र२ २ २ मि. सं.प. ६अ. ति पं. स. म. ४ स्त्री. अज्ञा. असे. चक्षु. भा.६ म. मि. सं. आहा. साका. सं.अ. ५५. ९ ।। व. ४ अच. अ. असं. अना. अना, असं.प. ५अ. ७ औ.२ असं.अ. का. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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