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________________ सत्प्ररूपणाके अन्तकी प्रशस्ति शिष्य कुलभूषण और उनके शिष्य कुलचन्दका भी उल्लेख पाया जाता है। वह उल्लेख इसप्रकार हैं अविद्धकर्णादिकपद्मनन्दी सैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके । कौमारदेवव्रतिताप्रसिद्धिर्जीयात्त सो ज्ञाननिधिः सधीरः ॥ तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारनिधिस्सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रंथकारः प्रभाचन्द्राख्यो मुनिराजपंडितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः॥ तस्य श्रीकुलभूषगाख्यसुमुनेश्शिष्यो विनेयस्तुत स्सद्वृत्तः कुलचन्द्रदेवमुनिपस्सिद्धान्तविद्यानिधिः । यहां पद्मनन्दि, कलभूषण और कुलचन्द्र के बीच गुरु शिष्य-परम्पराका स्पष्ट उल्लेख है । पद्मनन्दिको सैद्धान्तिक ज्ञाननिधि और सधीर कहा है। कुलभूषणको चारित्रवारांनिधिः और सिद्धान्ताम्बुधिपारग, तथा कुलचन्द्रको विनेय, सद्वृत्त और सिद्धान्तविद्यानिधि कहा है। इस परम्परा और इन विशेषणोंसे उनके धवला-प्रतिके अन्तर्गत प्रशस्तिमें उल्लिखित मुनियोंसे अभिन होनेमें कोई सन्देह नहीं रहता। शिलालेखद्वारा पद्मनन्दिके गुणोंमें इतना और विशेष जाना जाता है कि वे अविद्धकर्ण थे अर्थात् कर्णच्छेदन संस्कार होनेसे पूर्व ही बहुत बालपनमें वे दीक्षित होगये थे और इसलिए कौमारदेवव्रती भी कहलाते थे । तथा यह भी जाना जाता है कि उनके एक और शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जो शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथित तर्कग्रन्थकार थे। इसी शिलालेखसे इन मुनियोंके संघ व गण तथा आगे पीछेकी कुछ और गुरु-परम्पराको भी ज्ञान हो जाता है । लेखों गौतमादि, भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्तके पश्चात् उसी अन्वयमें हुए पद्मनन्दि, कुन्दकुन्द, उमास्वाति गृद्धपिच्छ, उनके शिष्य बलाकपिच्छ, उसी आचार्य परम्परामें समन्तभद्र, फिर देवनन्दि जिनेन्द्रबुद्धि पूज्यपाद और फिर अकलंकके उल्लेखके पश्चात् कहा गया है कि उक्त मुनीन्द्र सन्ततिके उत्पन्न करनेवाले मूलसंघमें फिर नन्दिगण और उसमें देशीगण नामका प्रभेद हो गया। इस गणमें गोल्लाचार्य नामके प्रसिद्ध मुनि हुए । ये गोल्लदेशके अधिपति थे । किन्तु, किसी कारण वश संसारसे भयभीत होकर उन्होंने दीक्षा धारण करली थी। उनके शिष्य श्रीमत् त्रैकाल्ययोगी हुए और उनके शिष्य हुए उपर्युक्त अविद्धकर्ण पमनन्दि सैदान्तिक कौमारदेव, जो इसप्रकार मूलसंघ नन्दिगणान्तर्गत देशीगणके सिद्ध होते हैं। लेखमें पद्मनन्दि, कुलभूषण और कुलचन्द्रसे आगेकी परम्पराका वर्णन इसप्रकार दिया गया है: कुलचन्द्रदेवके शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंने कोल्लापुर (कोल्हापुर) में तीर्थ स्थापित किया। वे भी राद्धान्तार्णवपारगामी और चारित्नचक्रेश्वर थे, तथा उनके श्रावक शिष्य थे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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