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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं पुरिसवेदो वुत्तो तत्थ इत्थिवेदो चेव वत्तव्यो। असंजदसम्माइडिस्स इथिवेदम्हि उप्पत्ती णत्थि त्ति तस्स पजत्तालावो एक्को चेव वत्तव्यो । पजत्तालाचे उच्चमाणे वि खइयसम्म णत्थि त्ति वत्तव्यं, देवेसु दंसणमोहणीयस्स खवणाभावादो । एत्तिओ चेव विसेसो। सणक्कुमार-माहिंददेवाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणहाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्येण काउ-सुक्क उक्कस्सतेउ-जहण्णपम्मलेस्साओ, भावण उक्कस्सतेउजहण्णपम्मलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा। पुरुषवेदी देवोंके आलापोंमें जहां पुरुषवेद कहा गया है वहां केवल स्त्रीवेद ही कहना चाहिए। यहां इतना और समझना चाहिये कि असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी स्त्रीवेदमें उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिये स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टिका एक पर्याप्त-आलाप ही कहना चाहिए । और पर्याप्त-आलाप कहते समय भी शायिक सम्यक्त्व नहीं होता है, अर्थात् स्त्रीवेदी पर्याप्तोंके (देवियोंके) दो ही सम्यक्त्व होते हैं, ऐसा कहना चाहिए क्योंकि, देवोंमें दर्शनमोहनीय कर्मके क्षपणका अभाव है। सौधर्म और ऐशानके पुरुषवेदी और स्त्रीवेदी आलापोंमें उनके सामान्य आलापोंसे इतनी ही विशेषता है। सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गाके देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, संझी पर्याप्त और संक्षी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योगः पुरुषवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे अपर्याप्तकालमें कापोत और शुक्ल लेश्याएं तथा पर्याप्तकालमें उत्कृष्ट पीत और जघन्य पद्मलेश्या, भावसे उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पमलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। १ प्रतिषु ' उक्कस्सतेउ ' इति पाठो नास्ति नं. १७७ सानत्कुमार माहेन्द्र देवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. । वे. क. बा. सय. द. ले. भ. स. । संक्षि. आ. उ. । |४२ ६१० ११ ११ १४६ १३ द.४का. २६ । १ २२ मि. सं.प. प. पु. ज्ञा.३ असं. के.द.शु.ते.प. |सं. आहा. साका. सा.सं.अ. ६ अज्ञा. विना. भा.२ अ. अना. अना. पचे. प.ज.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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