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________________ ५६० ] Dear fri [ १, अध उवसमसेटिं चढिय पुणोदिण्णा चेव मज्झिम सुक्कलेस्साए परिणदा संता जदि कालं करेंति तो उवसमसम्मत्तेण सह आणद-पाणद-आरणच्चद-णवगेव ज्जविमाणवासियदेवेसुपति। पुणो ते चेव उक्कस्स सुक्कलेस्सं परिणमिय जदि कालं करेंति तो उवसमसम्मत्तेण सह णवाणुदिस- पंचाणुत्तरविमाणदेवेसुप्पजंति । तेण सोधम्मादि-उवरिम- सव्वदेवा संजदसम्माइट्ठी मपजत्तकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि ति । सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1 9155 एवमित्थि पुरिसत्रेदाणमोघालाको समत्तो । एवं चैव पुरिसवेद - देवाणमालावो वत्तव्यो । गवरि जत्थ दो वेदा वृत्ता तत्थ पुरिसंवेदो एक्को चैव वत्तत्र । एवं सोधम्मीसाणदेवीणं पि वत्तव्यं । णवरि जत्थ सहस्त्रार कल्पवासी देवों में उत्पन्न होते हैं । तथा, उपशमश्रेणी पर चढ़ करके और पुनः उतर करके मध्यम शुललेश्यासे परिणत होते हुए यदि मरण करते हैं तो उपशमसम्यक्त्व के साथ आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नौ ग्रैवेयकविमानवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं । तथा, पूर्वोक्त उपशमसम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ललेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो उपशमसम्यक्त्वके साथ नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर-विमानवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं । इसकारण सौधर्म स्वर्गसे लेकर ऊपरके सभी असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्तकालमें औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है । सम्यक्त्व आलापके आगे-संशी, आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं । इसप्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भेद न करके सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवों के सामान्य आलाप समाप्त हुए । सौधर्म ऐशान कपके देवोंके सामान्य आलापोंके समान ही पुरुषवेदी देवोंके आलाप कहना चाहिये । विशेषता यह है कि सामान्य आलाप कहते समय जहां पर पहले स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दो वेद कहे गये हैं, वहां पर केवल एक पुरुषवेद ही कहना चाहिये । इसीप्रकार सौधर्म ऐशान स्वर्गकी देवियोंके आलाप कहना चाहिये । विशेषता यह है कि नं. १७६ गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. शा. ७ ४ १ १ १ २ १ अवि. सं.अ. असंयत सम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्त आलाप. संय. द. स. शि. आ. उ. ले. भ. १ द्र. २ ३ १ ३ ३ १ २ २ मति. असं. के. द. का. भ. औप सं. आहा साका. बिना. शु. क्षा. अना. अना. भा. १ क्षायो. तेज. Jain Education International १ ४ दे. पं. स. वै.मि. पु. कार्म. श्रुत. अव. For Private & Personal Use Only ܕ www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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