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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय आलाववण्णणं [ ५९७ समासा तेरस लद्धिअपज्जत्तजीवसमासा एवमेदे सच्चे घेतूण एगूणचालीस जीवसमासा हवंति । छब्बीसहं मज्झे वणप्फइकाइयाणं चत्तारि जीवसमासे अवणिय वण फइकाइया दुविहा पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा, पत्तेयसरीरा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, साधारणसरीरा दुविहा बादरा सुहुमा, ते दुबिहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि एदे छ जीवसमासे पक्खित्ते अट्ठावीस जीवसमासा हवंति । चोद्दस णिव्वत्तिपज्जतजीवसमासा चोद्दस णिव्यत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा चोइस लद्धि- अपज्जत्तजीवसमासा एवमेदे बायालीस जीवसमासा | अट्ठावीसहं मज्झे पत्तेयसरीर-पज्जत्तापज्जत्ता दो जीवसमासे अवणिय पत्तेयसरी दुविहा बादरणिगोयजोणिणो तेसिमजोणिणो चेदि, तेवि सव्वे दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि एदे चत्तारि भंगे पक्खित्ते तीस जविसमासा हवंति । णिव्वत्तिपज्जत्तजीवसमासा पण्णारस, णिव्यत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा पण्णारस, लद्धि- अपज्जत्तजीव सूक्ष्मके भेदले दश भेद तथा विकलेन्द्रिय, असमनस्क पंचेन्द्रिय और समनस्क पंचेन्द्रिय इन तेरह प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा तेरह निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, तेरह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और तेरह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार ये सब मिलाकर उनतालीस जीवसमास होते हैं । छब्बीस जीवसमासोंमेंसे वनस्पतिकायिक जीवोंके चार जीवसमास निकाल कर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर । प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक । साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं बादर और सूक्ष्म । ये दोनों प्रकारके जीव भी दो दो प्रकारके होते हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक । ये छह जीवसमास मिला देने पर अट्ठावीस जीवसमास होते हैं । पृथिर्व (कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और साधारणवनस्पतिकायिक जीवोंके बादर और सूक्ष्मके भेद से दश भेद, प्रत्येकवनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, समनस्कपंचेन्द्रिय और अमनस्कपंचेन्द्रिय इन चौदद्दों प्रकारके जीवों की अपेक्षा चौदह निर्वृत्तिपर्याप्त जीवसमास, चौदह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और चौदह लब्ध्यपर्याप्त जीवसमास इसप्रकार ये सब मिलाकर व्यालीस जीवसमास होते हैं । पूर्वोक्त अट्ठावीस जीवसमासोंमेंसे प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास निकाल कर प्रत्येकशरीर जीव दो प्रकारके होते हैं, बादरनिगोदयोनिक और बादरनिगोद अयोनिक। वे भी सब दो दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इस प्रकार ये चार भंग मिला देने पर तीस जीवसमास होते हैं । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अनिकायिक, वायुकायिक और साधारणशरीर इनके बादर और सूक्ष्म के भेदसे दश भेद तथा सप्रतिष्ठित-प्रत्येक वनस्पति और अप्रतिष्ठित - प्रत्येकवनस्पति, विकलेन्द्रिय, अमनस्कपंचेन्द्रिय और समनस्क पंचेन्द्रिय इसप्रकार इन पन्द्रह प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा पन्द्रह निर्वृतिपर्याप्तक जीवसमास, पन्द्रह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और पन्द्रह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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