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________________ १, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं [६२३ अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा। "तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, पंच जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णा खीणसण्णा वा, चत्तारि गदीओ, वेइंदियादी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, तिण्णि जोग चत्तारि वा, तिण्णि वेद अवेदो वा, चत्तारि कसाय अकसाओ है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार अनाकार उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं । विशेषार्थ -- त्रसकायिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलापोंका वर्णन करते समय उन्हें अनाहारक भी कहनेका कारण यह है कि सयोगकेवली गुणस्थानमें केवलिसमुद्धातके प्रतर और लोकपूरणरूप अवस्थाओंमें नोकर्म वर्गणाओंके नहीं आनेके कारण जीव अनाहारक तो होता है परंतु उस समय पर्याप्त नामकर्मका उदय और वर्तमान शरीरके पूर्ण होनेके कारण वह पर्याप्त भी है, इसलिये इस अपेक्षासे पर्याप्त अवस्थामें भी अनाहारकता बन जाती है। इन्द्रिय मार्गणामें पंचेन्द्रिय मार्गणाके आलापोंका कथन करते हुए पर्याप्त आलापोंका कथन करते समय इसीप्रकार अनाहारक कहा है। वहां पर भी अनाहारक कहमेका ऊपर कहा हुआ कारण जान लेना । इसीप्रकार दूसरे स्थलोंमें भी जानना चाहिए । उन्हीं त्रसकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये पांच गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंही और संशी पंचेन्द्रिय जीवोंसंबन्धी पांच अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और दो प्राण; चारों संशाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, सकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी तीन योग अथवा चार योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, विभंगावधि नं.२३६ , गु. जी. प. प्रा. सं. असकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. ग. ई.का. यो. वे. क.| ज्ञा. । संय. द. ले. भ. | स. संलि. आ. | उ.। मि.वी.अ.५, सा.त्री., अ.च. प्र.अ., त्रस. . क्षीणसं. 99ur r»r my 'leble अकषा. आ.मि. कार्म. विभं असं. | मनः सामा विना. छेदो। यथा. का. म.मि. सं. आहा. साका. शु. अ. सा. असं. अनौ. | अना. भा.६ औप. अनु. अनु. यु.उ. क्षा. क्षायो. सि.सं... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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