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________________ संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलावण्ण [ ५१९ पत्त-मणुसिणी - सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णत्र जोग, इत्थवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धियाओ, सासणसम्मत्तं, सण्णिणी, आहारिणी, सागारुजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा । 225 १, १. ] अपज्जत - मणु सिणी- सासणसम्माहट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, दो जोग, इत्यिवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्त्रेण काउ सुक्कलेस्सा, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मतं, पर्याप्त सासादनसम्यग्दष्टि मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहीं पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, लसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिक काययोग नो योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं । अपर्याप्त सासादनसम्यग्दा मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, वसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिनी, आहारिणी, अनाहारिणी; साकारोप नं. १२१ ग. | ܀ १ जी. प | प्रा. | संग. ) इं. का. यो. १ ६ १ सा. सं.प. Jain Education International सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यनियोंके पर्याप्त आलाप. संय. द. י १ म. पंचे. २०१ म. ste on o व. ४ वे ९ म. ४ स्त्री. १ क ज्ञा ४ ३ १ अज्ञा. असं ले. भ. स.) संज्ञि. आ. 3. For Private & Personal Use Only २ चक्षु. भा. ६.भ. अच. 2 द्र. ६ १ ~ 1818 १ १ १ सं. आहा. साका. अना. www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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