SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगहारे लेस्सा-आलाववण्णणं [.७१ णाण, तिणि संजम', तिणि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा: भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारवजुत्ता होंति अगागारुघजुत्ता वा। तेउलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगईए विणा तिणि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियमिस्सेण विणा बारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुघजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजअसंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संशिक, आहारक. अनाहारक; साकारोपयोगी और अमाकारोपयोगी तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र और आहारककाययोगद्विकके विना शेष बारह योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यले छहों लेन्याएं, भावले तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारका साका. रोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक १ प्रतिषु ' असजमो' इति पाठः । नं. ४२५ तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रासं. ग.) ईक'. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. म. स.संलि. गा. उ. मि. म. प. ६अ.. सं.अ. ति त्र. म.४ । xx अज्ञा. असं. चक्षु. भा. १ भ. मि. सं. आहा. साका. अच. ते. अ. अना. अना. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy