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________________ १,१.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं णिवत्तिद-सपाणसण्णा-संजुत्तसत्तीणं कवाडगद-केवलिम्हि अभावादो। अहवा तेसिं कारणभूद-पज्जत्तीओ अस्थि त्ति पुणो उवरिम-छट्ठसमयप्पहुडिं वचि-उस्सासपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवंति। खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, स्वप्राण संक्षाओंसे अर्थात् मन, वचन और श्वासोच्छ्वास प्राणोंसे संयुक्त शक्तियोंका कपाट समुद्धात-गत केवलीमें अभाव पाया जाता है। अथवा, समुद्धातगत-केवलीके वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणोंकी कारणभूत वचन और आनापान पर्याप्तियां पाई जाती हैं, इसलिये लोकपूरणसमुद्धातके अनन्तर होनेवाले प्रतरसमुद्धातके पश्चात् उपरिम छठे समयसे लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणोंका सद्भाव हो जाता है, इसलिये सयोगिकेवलीके आहारमिश्रकाययोगमें चार प्राण भी होते हैं। विशेषार्थ-समुद्धातगत केवलीके अपर्याप्त अवस्थामें आयु और काय ये दो प्राण होते हैं शेष आठ प्राण नहीं होते हैं। उनमेंसे पांचों इन्द्रिय प्राण तो इसलिये नहीं होते हैं कि उनके शानावरण कर्मका क्षयोपशम नहीं पाया जाता है। कदाचित् यह कहा जा सकता है कि केवलीके पांचों द्रव्येन्द्रियां पाई जाती हैं इसलिये द्रव्येन्द्रियोंकी अपेक्षा उनके पांच प्राण मान लेना चाहिये । परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि, इन्द्रिय प्राणों में द्रव्येन्द्रियोंका उपचारसे ही ग्रहण किया है, मुख्यतासे नहीं। यदि इन्द्रिय प्राणोंमें द्रव्येन्द्रियोंका मुख्यतासे ग्रहण करना स्वीकार किया जावे तो अपर्याप्तकालमें पांच इन्द्रिय प्राणोंका सद्भाव नहीं बन सकता है। परंतु अपर्याप्तकालमें पांचों इन्द्रियप्राण होते हैं ऐसा आगमवचन है, इसलिये यह सिद्ध हुआ कि इन्द्रिय प्राणोंमें मुख्यतासे पांच भाषेन्द्रियोंका ही ग्रहण किया गया है और वे भावन्द्रियां केवली होती नहीं है, इसलिये उनके पांचों इन्द्रिय प्राण नहीं होते हैं। उसीप्रकार केवलीके अपर्याप्त अवस्थामें मनोबल, वचनबल और श्वासोच्छ्वास ये तीन प्राण भी नहीं होते हैं, क्योंकि, इन तीनों प्राणोंकी कारणभूत मन, वचन और आनापान ये तीन पर्याप्तियां है। परंतु अपर्याप्त अवस्थामें ये तीनों पर्याप्तियां होती नहीं हैं, इसलिये पर्याप्तियोंके अभावमें उनके उक्त तीनों प्राण भी नहीं पाये जाते हैं। इसप्रकार इन आठ प्राणों के अतिरिक्त केवलीके अपर्याप्त अवस्थामें शेष दो प्राण पाये जाते हैं। अथवा, केवलीके विद्यमान शरीरकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्राणों की कारणभूत पर्याप्तियां रहती ही हैं, इसलिये छठे समयसे वचनबल और श्वासोच्छवास ये दो प्राण और माने जा सकते है। इसप्रकार पूर्वोक्त दोनों प्राणों में इन दोनों प्राणों के मिला देने पर केवलीके औदारिकमिश्रकाययोगमें चार प्राण भी कहे जा सकते हैं। मनःपर्याप्तिके रहने पर भी केवलोके मनःप्राण नहीं माना है, इसका कारण यह है कि मनःप्राणमें भावमन और मनःपर्याप्ति ये दोनों कारण हैं, इसलिये इनमेंसे जहां केवल एक कारण होता है वहां मनःप्राण नहीं कहा गया है। केवलीके भावमन नहीं पाया जाता है, इसलिये मनःपर्याप्तिके रहने पर भी मनःप्राण नहीं कहा गया है और शेष संशी जीवोंके अपर्याप्त अवस्थामें भावमनका अस्तित्व होते हुए भी मनःपर्याप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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