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________________ बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय ५९ अनन्तर एक सर्वार्थसिद्धिको गया। फिर चौदह लाख निरन्तर मोक्षको गये और पश्चात् एक फिर सर्वार्थसिद्धिको गया । इसीप्रकार क्रमसे वे मोक्ष और सर्वार्थसिद्धिको तबतक जाते रहे जबतक कि सर्वार्थसिद्धिमें एक एक करके असंख्य होगये। इसके पश्चात् पुनः निरंतर चौदह चौदह लाख मोक्षको और दो दो सर्वार्थसिद्धिको तबतक गये जबतक कि ये दो दो भी सर्वार्थसिद्धिमें असंख्य होगये । इसीप्रकार क्रमसे फिर चौदह लाख मोक्षगामियोंके अनन्तर तीन तीन, फिर चार चार करके पचास पचास तक सर्वार्थसिद्धिको गये और सभी असंख्य होते गये। इसके पश्चात् क्रम बदल गया और चौदह लाख सर्वार्थसिद्धिको जाने के पश्चात् एक एक मोक्षको जाने लगा और पूर्वोक्त प्रकारसे दो दो फिर तीन तीन करके पचास तक गये और सब असंख्य होते गये। फिर दो लाख निर्वाणको, फिर दो लाख सर्वार्थसिद्धिको, फिर तीन तीन लाख । इस प्रकारसे दोनों ओर यह संख्या भी असंख्य तक पहुंच गई। यह सब चित्रान्तरगंडिकामें दिखाया गया था। उसके आगे चार प्रकारकी और चित्रान्तरगंडिकायें थीं-एकादिका एकोत्तरा, एकादिका द्वयुत्तरा, एकादिका त्र्युत्तरा और त्र्यादिका द्वयादिविषयोत्तरा, जिनमें भी और और प्रकारसे मोक्ष और सर्वार्थसिद्धिको जानेवालोंकी संख्याएं बतायीं गई थीं। जान पड़ता है, इन सब संख्याओंका उपयोग अनुयोगके विषयकी अपेक्षा गणितकी भिन्नभिन्न धाराओंके समझाने में ही अधिक होता होगा । चूलिका पांच चूलिकाओंके अन्तर्गत विषय प्रथम चार पूर्वोकी चलिकाएं ही इसके अन्त- १ जलगया-जलगमण--जलत्थंभण--कारणर्गत हैं । उन चलिकाओंकी संख्या ४+१२+ मंत-तंत-तपच्छरणाणि वण्णेदि । ८+१०-३. है २ थलगया- भूमिगमणकारण-मंत-तंत-तव छरणाणि वत्थुविजं भूमिसंबंधमण्णं पि महासुहकारणं वण्णेदि। ३ मायागया-इंदजालं वण्णेदि ४ रूवगया-सीह-हय-हरिणादि--रूवायारेण. परिणमणहेदु-मंत-तंत-तवच्छरणाणि चित्त कह-लेप्प-लेणकम्मादि-लक्खणं च वण्णेदि । ५ आयासगया- आगासगमणणिमित्त--मंत तंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि । श्वेताम्बर ग्रंथोंमें यद्यपि चूलिका नामका दृष्टिवादका पांचवां भेद गिना गया है, किन्तु उसके भीतर न तो कोई ग्रंथ बताये गये और न कोई विषय, केवल इतना कह दिया गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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