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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं [१५९ संपहि पढम-पुढवि-मिच्छाइट्टीण भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णवंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण कालाकालाभास-काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" । तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण अब प्रथम-पृथिवी-गत मिथ्यादृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कालाकालाभास लेश्या तथा अपर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे जघन्य कापोत लेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। __उन्हीं प्रथम-पृथिवी-गत मिथ्यादृष्टि नारकोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, नं. ४२ प्रथमपृथिवी-नारक मिथ्यादृष्टि आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. |१ २६ १०४ १११ ११ १ ४ ३ | १ २ द्र ३ | २१ १ २ - २ मि.सं प.प. ७ न. म.४ . अज्ञा. असं. च. कृ. भ. मि. सं. आहा. साका. सं.अ.६ अच. का. अभ. अना. अना. वै.२। पंचे. .. त्रस. . व.४ " का. का. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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