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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं [६२१ वणप्फइ-मंगो। तेसिं चेव सुहुमाणं सभेदाणं साधारणसरीरसुहुमवणप्फइकाइय-भंगो । णवरि चउगदिणिगोदो त्ति वत्तव्वं । एवं णिचणिगोदाणं पि, णवरि एत्थ णिचणिगोदो त्ति वत्तव्वं । तसकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि चोदस गुणट्ठाणाणि, दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण दो पाण एग पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, वेइंदियादी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, पण्णारह जोग अजोगो वि अत्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, स्पतिकायिक जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। उन्हीं बादर चतुर्गति निगोद वनस्पतिकायिक जीवोंके आलाप बादर साधारणशरीर वनस्पतिकायके आलापोंके समान होते हैं । सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त भेदसहित उन्हीं सूक्ष्म चतुर्गति निगोद जीवों के आलाप साधारणशरीर सक्षम वनस्पतिकायिक जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि साधारण शरीरके साथमें 'चतुर्गति निगोद' इतना और कहना चाहिए। इसीप्रकार नित्यनिगोद साधारणशरीरवनस्पतिकायिक जीवोंके भी आलाप होते हैं। विशेष बात यह है कि यहां पर 'नित्यनिगोट, इस पदको कहना चाहिए। __ त्रसकायिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दश जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, दो प्राण; एक प्राण; चारों संज्ञाएं, तथा क्षीणसंशास्थान भी है, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, त्रसकाय, योग तथा अयोगस्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों शान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों नं. २३४ त्रसकायिक जीवोंके सामान्य आलाप. । गु जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । १४१०६ प. १०,७|४४ ४ ११५ ३ ४८७ ४ द्र.६ २६ २ । २ । २ ६ अ. द्वी. स. अयोग. भा. ६ म. सं. आहा- साका. प, ८,६ अलेश्य.अ. असं. अना. अना. चतु. अनु. यु.उ. पंचे. 8 अपग.Me अकषा. क्षीणस. जी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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