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________________ ६२०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १. तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, बादरणिगोदवणप्फइकाओ, वे जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। एवं साधारणसरीरवादरवणप्फईणं पजत्तणामकम्मोदयाणं तिण्णि आलावा वत्तव्या। लद्धि-अपज्जत्ताणं पि एगो अपज्जत्तालावो वत्तव्यो । सवसाधारणसरीरसुहुमाणं सुहुमपुढवि-भंगो । णवरि चत्तारि जीवसमासा, सुहुमसाहारणसरीरवणप्फइकाओ त्ति वत्तव्यो । चउगदिणिगोदाणं साधारणसरीरवणप्फइकाइय-भंगो । तेसिं बादराणं बादरसाधारणसरीर. उन्हीं बादर साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादर नित्यनिगोद-अपर्याप्त और बादर चतुर्गतिनिगोद-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चार अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, बादर निगोद वनस्पतिकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। इसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। लब्ध्यपर्याप्तक साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीवोंका भी एक अपर्याप्त आलाप कहना चाहिए सभी सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीवोंके आलाप सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंको आलापोंके समान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि जीवसमास आलाप कहते समय 'चार जीवसमास' और काय आलाप कहते समय 'सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकाय' ऐसा कहना चाहिए । चतुर्गति निगोद वनस्पतिकायिक जीवोंके आलाप साधारणशरीर वननं. २३३ बादर साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. | यो. वे.क. | ज्ञा. संय. द. । ले. भ. स. |संज्ञि. आ. | उ. | १ २ ४ ३ ४ ११ १ २ १/४ २ १ | १ द्र.२/२ १ १ २ २ ति...: वन. औ.मि... कुम. असं. अच. का. भ. मि. असं. आहा. साका. कार्म.. कुश्रु. अना. अना. भा.३ अशु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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