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________________ ४३० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, १. तेसिं चेव अपजत्ताणमोघपरूवणे भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, इथिवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; णिरयादो आगंतूण मणुस्सेसुप्पण्ण-असंजदसम्माइट्ठीणमपजत्तकाले किण्ह-णील-काउलेस्साओ लम्भंति । भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मचाणि, अणादिय-मिच्छाइट्टी वा सादियमिच्छाइट्टी वा चदुसु वि गदीसु उवसमसम्मत्तं घेतूण विदजीवा ण कालं करेंति । तं कथं णव्यदि त्ति वुत्ते आइरिय-वयणादो वक्खाणदो य णव्यदि । चारित्तमोह उवसामगा मदा देवेसु उववज्जंति ते अस्सिदण अपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्तं लभदि। वेदगसम्मत्तं पुण देव-मणुस्सेसु अपञ्जत्तकाले लब्भदि, वेदगसम्मत्तेण सह गद-देव-मणुस्साणमण्णोण्णगमणागमण-विरोहाभावादो । कदकरणिजं पडुच वेदगसम्मत्तं तिरिक्ख-णेरइयाणमपजत्तकाले लब्भदि । खड्यसम्मत्तं पि चदुसु वि गदीसु पुवायु-वंधं पञ्च अपजत्तकाले उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त कालसंबन्धी ओघालाप कहने पर एक चौथा गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, मनोबल, वचनबल और आनापानके विना सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र. वैक्रियकमिश्र और कार्मण ये तीन योग, स्त्रीवेदके विना दो वेद', चारों कषाय, मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु, अवक्षु और अवधि ये तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्या, भावसे छहों लेश्याएं होती हैं । छहों लेश्याएं होनेका यह कारण है कि नरकगतिसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले असंयत-सम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त कालमें कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याएं पायीं जाती हैं। लेश्याओंके आगे भव्यसिद्धिक, तीनों सम्यक्त्व होते हैं, क्योंकि, अनादि मिथ्यादृष्टि अथवा सादि मिथ्यादृष्टि जीव चारों ही गतियों में उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके पाये जाते हैं, किन्तु मरणको प्राप्त नहीं होते हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि, उपशम-सम्यग्दृष्टि जीव मरण नहीं करते हैं ? समाधान-आचार्योंके वचनसे और (सूत्र) व्याख्यानसे जाना जाता है कि उपशम. सम्यग्दृष्टि जीव मरते नहीं है। किन्तु चारित्रमोहके उपशम करने वाले जीव मरते हैं और देवों में उत्पन्न होते हैं, अतः उनकी अपेक्षा अपर्याप्तकाल में उपशमसम्यक्त्व पाया जाता है । वेदकसम्यक्त्व तो देव और मनुष्योंके अपर्याप्तकालमें पाया ही जाता है, क्योंकि, वेदकसम्यक्त्वके साथ मरणको प्राप्त हुए देव और मनुष्यों के परस्पर गमनागमनमें कोई विरोध नहीं पाया जाता है। कृतकृत्यवेदककी अपेक्षा तो वेदकसम्यक्त्व तिर्यंच और नारकी जीवेंकि अपर्याप्त कालमें भी पाया जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व भी सम्यग्दर्शनके पहले बांधी गई आयुके बंधकी अपेक्षासे चारों ही गतियोंके अपर्याप्तकालमें पाया जाता है, इसलिये असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके अपर्याप्तकालमें तीनों ही सम्यक्त्व होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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