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________________ ४९२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १,१. विणा दो सम्मतं, सणिणो, आहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । पंचिदियतिरिक्खपज्जत्ताणं भण्णमाणे मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा चि पंचिदियतिरिक्ख-भंगो | णवरि विसेसो पुरिस- बुंसयवेदा दो चेव भवति, इत्थिवेदो णत्थि । अथवा तिण्णि वेदा भवंति । पंचिदियतिरिक्खजोणिणीणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण व पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, इत्थवेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहिं संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंके आलाप कहने पर - मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच सामान्यके आलापोंके समान ही आलाप समझना चाहिये । विशेष बात यह है कि इनके वेद स्थानपर पुरुष और नपुंसक ये दो ही वेद होते हैं, स्त्रीवेद नहीं होता है । अथवा तीनों ही वेद होते हैं । विशेषार्थ - पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंके दो ही वेद बतलानेका यह अभिप्राय है कि योनिमती जीवोंका पर्याप्तक भेद में अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि, योनिमतियोंका स्वतंत्र भेद गिनाया है । अथवा पर्याप्त और योनिमती तिर्यंच इन दोनों भेदोंको गौण करके पर्याप्त शब्द के द्वारा सभी पर्याप्तकों का ग्रहण किया जावे तो पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंके आलापमें तीनों वेदों का भी सद्भाव सिद्ध हो जाता है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके आलाप कहने पर - आदिके पांच गुणस्थान, संक्षी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त, असंज्ञी-पर्याप्त, असंज्ञी - अपर्याप्त ये चार जीवसमासः संज्ञीके छह पर्याप्तियां और छह अपर्याप्तियां, असंज्ञीके पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां; संज्ञीके दशों प्राण, सात प्राण, असंज्ञीके नौ प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, लसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिथकाययोय और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम और देशसंयम ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भाव से नं. ८६ गु. जी. प. प्रा. सं. ग.] इं. का. यो. १ १ ६ १०४ १ १ १ ति. ९ म. ४ देश. व. ४ सं. प. पंचेन्द्रिय तिर्यच संयतासंयत जीवों के आलाप. संय. द. ले. वे. क. ज्ञा. ३ | ४ ३ १ ३ मति. देश. द्र. ६ के. द. भा. ३. विना. शुभ. Jain Education International श्रुत. अव. For Private & Personal Use Only भ. स. । संज्ञि. आ. उ. १ १ २ सं. आहा. साका. अना. १ ર भ. औप. क्षायो. www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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