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षट्खंडागमको प्रस्तावना पर तो भी तीन प्रतियोंके मिलानसे ही पूरा और ठीक पाठ बैठा लेना संभव हो जाता है। इससे ज्ञात होता है कि जो स्खलन इन आगेकी प्रतियोंमें पाये जाते हैं वे उस कनाडी प्रतिलिपिमें नहीं हैं। यद्यपि कुछ स्थल इन सब प्रतियोंके मिलानसे भी पूर्ण या निस्सन्देह निर्णीत नहीं हो पाते और इसलिये संभव है वे स्खलन उसी प्रथम प्रतिलिपिकार द्वारा हुए हों, पर इस ग्रंथकी लिपि, भाषा
और विषय संबंधी कठिनाइयोंको देखते हुए हमें आश्चर्य इस बातका नहीं है कि वे स्खलन हैं, किन्तु आश्चर्य इस बातका है कि वे बहुत ही थोड़े और मामूली हैं, जो किसी में लेखकके द्वारा अपनी शक्तिभर सावधानी रखनेपर भी, हो सकते हैं । जो लेखक एक खंडके खंडको छोड़कर प्रशस्ति आदि मिलाकर ग्रंथको पूरा प्रकट करनेका दुःसाहस कर सकता है, उसके द्वारा शेष लिखाई भी ईमानदारीके साथ किये जानेकी आशा नहीं की जा सकती। पर उक्त लेखकका अभी तक हम जो परिचय धवलापर परिश्रम करके प्राप्त कर सके हैं, उसपरसे हम दृढ़ताके साथ कह सकते हैं कि उसने अपना कार्य भरसक ईमानदारी और परिश्रमसे किया है । उसपरसे उसके द्वारा एक खंडको छोड़कर ग्रंथको पूरा प्रकट कर देने जैसे छल-कपट किये जानेकी शंका करनेको हमारा जी बिलकुल नहीं चाहता।
पर यदि ऐसा छल कपट हुआ है तो धवलाकी जांच द्वारा उसका पता लगाना भी कठिन नहीं होना चाहिये । धवलाकी कुल टीकाका प्रमाण इन्द्रनन्दिने बहत्तर हजार और ब्रह्महेमने सत्तर हजार बतलाया है। हमारे सन्मुख धवलाकी तीन प्रतियां मौजूद हैं, जिनकी श्लोक संख्याकी हमने पूरी कठोरतासे जांच की। अमरावतीकी प्रतिमें १४६५ पत्र अर्थात् २९३० पृष्ठ हैं और प्रत्येक पृष्ठपर १२ पंक्तियां लिखी गई हैं । प्रत्येक पंक्तिमें ६२ से ६८ तक अक्षर पाये जाते हैं जिससे औसत ६५ अक्षरोंकी ली जा सकती है। तदनुसार कुल ग्रंथमें २९३०x १२ x ६५४ = २२८५४०० अक्षर पाये जाते हैं जिनकी श्लोकसंख्या ३२ का भाग देकर ७१,४१५ आई । इसे सामान्य लेखेमें चाहे आप सत्तर हजार कहिये, चाहे बहत्तर हजार । कारंजा व आराकी प्रतियोंकी भी उक्त प्रकारसे जांच द्वारा प्रायः यही निष्कर्ष निकलता है। इससे तो अनुमान होता है कि प्रतियोंमेंसे एक खंडका खंड गायब होना असंभवसा है, क्योंकि उस खंडका प्रमाण और सब खंडोंको देखते हुए कमसे कम पांच सात हजार तो अवश्य रहा होगा । यह कर्मा प्रस्तुत प्रतियोंमें दिखाई दिये विना नहीं रह सकती थी।
विषयके तारतम्यकी दृष्टिसे भी धवला अपने प्रस्तुत रूपमें अपूर्ण कहीं नज़र नहीं आती। प्रथम तीन खंड तो पूरे हैं ही । चौथे वेदना खंडके आदिसे कृति आदि अनुयोगद्वार प्रारम्भ हो जाते हैं । इनमें प्रथम छह कृति, वेदना, फास, कम्म, पयडि और बंधन स्वयं भगवान् भूतबलिद्वारा प्ररूपित हैं। इनके अन्तमें धवलाकारने कहा है
'भूदबलिभडारएण जेणेदं सुत्त देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सूचिद-सेस-भट्ठारस-अणिपोगहाराणं किंचि संवेण पकवणं कस्सामो (अवटा प. पत्र १९१२).
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