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________________ " १६ षट्खंडागमकी प्रस्तावना है । इनमें से चार खंडों के सम्बधमें तो कोई मतभेद नहीं है, किन्तु वेदना और वर्गणा खंडकी सीमाओंके सम्बंध में एक शंका उत्पन्न की गई है जो यह है कि " धवलप्रंथ वेदना खंडके साथ ही समाप्त हो जाता है- वर्गणाखंड उसके साथमें लगा हुआ नहीं है "। इस मतकी पुष्टिमें जो युक्तियां दी गई हैं वे संक्षेपतः निम्न प्रकार हैं १. जिस कम्मपयडिपाहुडके चौवीस अधिकारोंका पुष्पदन्त - भूतबलिने उद्धार किया है उसका दूसरा नाम ' वेयणकसिणपाहुड ' भी है जिससे उन २४ अधिकारोंका ' वेदनाखंड ' के ही अर्न्तगत होना सिद्ध होता है । २. चौवीस अनुयोगद्वारों में वर्गणा नामका कोई अनुयोगद्वार भी नहीं है । एक अवान्तर अनुयोगद्वारके भी अवान्तर भेदान्तर्गत संक्षिप्त वर्गणा प्ररूपणाको ' वर्गणाखंड ' कैसे कहा जा सकता है ! ३. वेदनाखंडके आदिके मंगलसूत्रों की टीकामें वीरसेनाचार्यने उन सूत्रोंको ऊपर कहे हुए वेदना, बंधसामित्तविचय और खुदाबंधका मंगलाचरण बतलाया है और यह स्पष्ट सूचना की है कि वर्गणाखंडके आदिमें तथा महाबंध खंडके आदिमें पृथक् मंगलाचरण किया गया है उपलब्ध धवला के शेष भागमें सूत्रकारकृत कोई दूसरा मंगलाचरण नहीं देखा जाता, इससे वह वर्गणाखंड की कल्पना गलत है । ४. धवलामें जो ' वेयणाखंड समत्ता ' पद पाया जाता है वह अशुद्ध है । उसमें पड़ा हुआ ' खंड ' शब्द असंगत है जिसके प्रक्षिप्त होने में कोई सन्देह मालूम नहीं होता । ५. इन्द्रनन्दि व विबुधश्रीधर जैसे प्रथकारोंने जो कुछ लिखा है वह प्रायः किंवदन्तियें अथवा सुने सुनाये आधारपर लिखा जान पड़ता है। उनके सामने मूल ग्रंथ नहीं थे, अतएव उनकी साक्षीको कोई महत्व नहीं दिया जा सकता । ६. यदि वर्गणाखंड धवला के अन्तर्गत था तो यह भी हो सकता है कि लिपिकारने शीघ्रता वंश उसकी कापी न की हो और अधूरी प्रतिपर पुरस्कार न मिल सकने की आशंकासे उसने ग्रंथकी अन्तिम प्रशस्तिको जोड़कर ग्रंथको पूरा प्रकट कर दिया हो । x अब हम इन युक्तियों पर क्रमशः विचार कर ठीक निष्कर्ष पर पहुंचनेका प्रयत्न करेंगे । १. वेयणकसिणपाहुड और वेदनाखंड एक नहीं हैं । यह बात सत्य है कि कम्मपय डिपाहुडका दूसरा नाम वेयणकसिणपाहुड भी है और यह गुण नाम भी है, क्योंकि वेदना कर्मोंके उदयको कहते हैं और उसका निरवशेषरूपसे जो वर्णन x जैन सिद्धान्त भास्कर ६, १ पृ. ४२; अनेकान्त ३, १ पृ. ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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