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________________ वर्गणाखंड-विचार उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं? तिण्णं खंडाणं । xxx कधं वेयणाए आदीए उत्तं मंगलं सेस-दो-खंडाण होदि? ण, कदीए आदिम्हि उत्तस्स एदस्स मंगलस्स सेस-तेवीस-अणि योगद्दारेसु पउत्ति-दसणादो । ऐसी अवस्थामें णमोकार मंत्ररूप मंगलाचरणके सत्प्ररूपणाके आदिमें होते हुए भी उसके समस्त जीवस्थानके मंगलाचरण समझे जानेमें कोई आपत्ति तो नहीं होना चाहिये ।। २. यथार्थतः तो वह मंगलाचरण सत्प्ररूपणाका ही है । आचार्य पुष्पदन्तने उस मंगलाचरणको आदि लेकर सत्प्ररूपणा मात्रके ही सूत्रोंकी तो रचना की है। यदि हम इसे भूतबलि आचार्यकी आगेकी रचनासे पृथक् कर लें तो पुष्पदन्तकी रचना उस मंगलसूत्र सहित सत्प्ररूपणा ही तो कहलायगी । जीवस्थानका प्रथम अंश यही सत्प्ररूपणा ही तो है । ३. यदि इस अंशको सत्प्ररूपणा न कह कर जीवस्थानका प्रथम अंश कहते तो पाठक उससे क्या समझते ? इस नामसे उसके विषय पर क्या प्रकाश पड़ता ? वह एक अज्ञात कुलशील और निरुपयोगी शीर्षक सिद्ध होता। ४. हमने जो ग्रंथका विषय-विभाग किया है वह मूलग्रन्थ पुप्पदन्त और भूतबलिकृत षट्खंडागमकी अपेक्षासे है, और उसमें सत्प्ररूपणासे पूर्व किसी और विषयविभागके लिये स्थान नहीं है । मंगलाचरणके पश्चात् छह सात सूत्रोंमें सत्प्ररूपणाका यथोचित स्थान और कार्य बतलानेके लिये चौदह जीवसमासों और आठ अनुयोगद्वारोंका उल्लेखमात्र करके सत्प्ररूपणाका विवेचन प्रारम्भ कर दिया गया है। धवलाटीकाके कर्ताने उन सूत्रोंकी व्याख्याके प्रसंगसे जीवस्थानकी उत्थानिकाका कुछ विस्तारसे वर्णन कर डाला तो इससे क्या उस विभागको सत्प्ररूपणासे अलग निर्दिष्ट करनेके लिये एक नये शीर्षककी आवश्यकता उत्पन्न होगई ? ऐसा हमें जान नहीं पड़ता । षट्खंडागमके भीतर जो सूत्रकारद्वारा निर्दिष्ट विषय विभाग हैं उन्हींके अनुसार विभाग रखना हमने उचित समझा है। धवलाकारने भी आदिसे लगाकर १७७ सत्रोंकी क्रमसंख्या लगातार रखी है और उनकी एक ही सिलसिलेसे टीका की है जिसे उन्होंने 'संतसुत्तविवरण ' कहा है जैसा कि प्रस्तुत भागके प्रारंभिक वाक्यसे स्पष्ट है । यथा'संपहि संत-सुत्त-विवरण-समत्ताणंतरं तेसिं परूवणं भणिस्सामो' । ३. वर्गणाखंड-विचार षट्खंडागमके छह खंडोंका परिचय प्रथम जिल्दकी भूमिकामें कराया जा चुका है। वहां यह बतलाया गया है कि उन छह खंडोंमें से प्रथम पांच अर्थात् जीवट्ठाण, खुदाबंध, बंधसामित्तविचय, वेदणा और वग्गणा उपलब्ध धवलाकी प्रतियोंमें निबद्ध हैं तथा शेष छठवां अर्थात् महाबंध स्वतंत्र पुस्तकारूढ़ है, जिसकी प्रतिलिपि अभीतक मूडविद्री मठके बाहर उपलब्ध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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