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________________ १४ षट्खंडागमकी प्रस्तावना जाते हैं । इस स्थानपर व उसके आसपास कोई दस बीस कोसकी इर्दगिर्दमें अशोकके कालसे लगाकर इस तरफके अनेक लेख व अन्य प्राचीन स्मारक पाये जाते हैं । __कोपणके समीप ही पाल्कीगुण्डु नामक पहाड़ी पर, अशोकके शिलालेखके पास वरांगचरितके कर्ता जटासिंहनन्दि के चरणचिन्ह भी, पुरानी कन्नडमें लेखसहित, अंकित हैं। (वरांगचरित, भूमिका पृ. १७ आदि) इसप्रकार यह स्थान बड़ा प्राचीन, इतिहास प्रसिद्ध और जैनधर्म के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है । २. सत्प्ररूपणा विभाग षट्खंडागमकी पूर्व प्रकाशित प्रथम पुस्तक तथा अब प्रकाशित होनेवाली द्वितीय पुस्तकको हमने 'सत्प्ररूपणा' के नामसे प्रकट किया है। प्रथम जिल्दके प्रकाशित होनेपर शंका उठाई गई है कि उस ग्रंथको सत्प्ररूपणा न कहकर 'जीवस्थान-प्रथम अंश' ऐसा लिखना चाहिये था। इसके उन्होंने दो कारण बतलाये हैं । एक तो यह कि इस विभागके भीतर जो मंगलाचरण है वह केवल सत्प्ररूपणाका नहीं है बल्कि समस्त जीवस्थान खंडका है और दसरे यह कि इसके आदिमें जो विषय-विवरण पाया जाता है वह सत्प्ररूपणाके बाहरका है. सत्प्ररूपणाका अंग नहीं ४ । इन दोनों आपत्तियोंपर विचार करके भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हमने जो इस विभागको 'जीवस्थानका प्रथम अंश' न कहकर 'सत्प्ररूपणा' कहा है वही ठीक है । इसके कारण निम्न प्रकार हैं १. यह बात ठीक है कि आदिका मंगलाचरण केवल सत्प्ररूपणाका ही नहीं, किन्तु समस्त जीवस्थानका है । पर, अवान्तर विभागोंकी दृष्टिसे सत्प्ररूपणाके भीतर उसे लेनेसे भी यह समस्त जीवस्थानका बना रहता है । सब ग्रंथोंमें मंगलाचरणकी यही व्यवस्था पायी जाती है कि वह ग्रंथके आदिमें किया जाता है और जो भी खंड, स्कंध, सर्ग, अध्याय व विषयविभाग आदिमें हो उसीके अन्तर्गत किये जाने पर भी वह समस्त ग्रंथका समझा जाता है । समस्त ग्रंथपर उसका अधिकार प्रकट करनेके लिये उसका एक स्वतंत्र विभाग नहीं बनाया जाता । अतएव जीवस्थान ही क्यों, जहांतक ग्रन्थमें सूत्रकारकृत दूसरा मंगलाचरण न पाया जावे वहांतक उसी मंगलाचरणका अधिकार समझना चाहिये, चाहे विषयकी दृष्टि से ग्रंथमें कितने ही विभाग क्यों न पड़ गये हों। स्वयं धवलाकारने आगे वेदनाखंड व कृति अनुयोगद्वारके आदिमें आये हुए मंगलाचरणको शेष दोनों खंडों व तेवीस अधिकारोंका भी मंगलाचरण कहा है। यथा * देखो जैनसि. भा. ५,२ पृ. ११० .x अनेकान्त, वर्ष २, किरण ३, पृ. २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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