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________________ १, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं [ ६२७ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति मूलोघ-भंगो। अकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि अदीदगुणहाणाणि, अदीदजीवसमासा, अदीदपजत्तीओ, अदीदपाणा, खीणसण्णा, चद्गदिमदीदो, अणिदिओ, अकाओ, अजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं, णेव संजमो णेव असंजमो णेव संजमासंजमो, केवलदसण, दव्व-भावेहि अलेस्सा, णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, णेव सणिणो णेव असण्णिणो, अणाहारिणो, सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा होति । ___ एवं तसकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति मूलोघ-भंगो। तसकाइय-लद्धि-अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, पंच जीवसमासा, छ अपजत्तीओ पंच अपजत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छप्पाण पंच पाण चत्तारि पाण, त्रसकायिक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंसे लेकर अयोगिकेवली जिन तकके आलाप मूल ओघालापके समान जानना चाहिए। अकायिक जीवोंके आलाप कहने पर-अतीत गुणस्थान, अतीत जीवसमास, अतीत पर्याप्ति, अतीत प्राण, क्षीणसंज्ञा, अतीत चतुर्गात, अतीन्द्रिय, अकाय, अयोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, संयम, असंयम और संयमासंयम इन तीनों विकल्पोंसे विमुक्त, लदर्शन, द्रव्य और भावसे अलेश्य , भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित, क्षायिकसम्यक्त्व, संक्षिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे अतीत, अनाहारक, साकार और अनाकार उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं। इसीप्रकार त्रसकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके आलाप मूल ओघालापोंके समान जानना चाहिए । त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संशी और असंही पंचन्द्रिय संबन्धी पांच अपर्याप्त जीवसमास, संशी पंचेन्द्रियोंके छहों अपर्याप्तियां, असंझी पंचेन्द्रिय और विकलन्द्रियोंके पांच अपर्याप्तियां, संशी पंचेन्द्रियसे लेकर द्वीन्द्रियतक क्रमसे सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, नं. २४० अकायिक जीवोंके आलाप. का. | यो. | वे. क. ज्ञा. | संय.| द. ले. संज्ञि. आ. | उ. | अतीतगु. 4 अतीतजी. अतीतप. 18 अतीतप्रा. क्षीणसं. A अतीतग. अर्तीन्द्रिय. अकाय. अयोग. अपग. अकषा, अतीतसं. अलेश्य. अतीत. भ. अ. अतीत संनि.असं. साका. अना. यु.उ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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