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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं [ ४८५ पंचिंदियतिरिक्ख-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अगाहारिगो, सागावजुत्ता होति अगागारुखजुत्ता वा । तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, पंचेन्द्रिय तिर्थच मिथ्या दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, संज्ञी-अपर्याप्त, असंज्ञी-पर्याप्त और असंज्ञी-अपर्याप्त ये चार जीव. समास, संजीकेव्ही पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां असंज्ञीके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; संज्ञीके दशों प्राण, सात प्राणः असंझीके नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाथ, चारों महोदोग, चारी वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग स्थारह योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असयम, बसु और अचच येक्षे दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिकाआहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं पंचेन्द्रिय तिथंच मिथ्यादष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संज्ञा-पर्याप्त और असंशी पर्याप्त ये दो जीवसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, असंशोके पांच पर्याप्तियां संशोक दशों प्राण, असंज्ञीके नौ प्राण; चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नो योग; तीनों घेद, चारों कपाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो नं. ७६ पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीयोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.| ई. का यो. वे क . शा. । संय. द. | ले. भ. स. संसि. आ. उ. । 10४१1१, ११ ३४ ३ १ २ द६२१, २ २ । २ मि सं. प. ४ असा. असं. चक्षु. भा ६ भ. मि. सं. आहा. साका. अच. अ. असं. अना. अना. असं.प. ५अ. ७ , अ. पंचे. - ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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