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१, १.] संत-परूषणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ५३७ . देव-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो,
मिथ्यादृष्टि देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशीपर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
- उन्हीं मिथ्यादृष्टि देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक,
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नं. १४३
मिथ्यादृष्टि देवोंके सामान्य आलाप. | गु | जी. प. प्रा. सं. ग. | इं. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. | उ. | १२.६ १०४ १ १ १ ११ २ ४ ३ १ २ द्र. ६२ १ १ २ २ मि. सं. प.प. ७ दे. पंचे. प्रस. म. ४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ भ. मि. सं. आहा. साका. सं.अ.६
व.४ पु. अच.
अना. अना.
का.
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