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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं [ ४६३ तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ पजनीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्मा, भावेण जहण्णिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सन पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णमयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्वेण काउमुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो उन्हीं प्रथम-पृथिवी-गत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेद्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं प्रथम-पृथिवी-गत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, सकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे जघन्य कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, उपशमसम्यत्वके विना क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक नं. ४८ प्रथमपृथिवी-नारक असंयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्त आलाप. गु | जी. प. प्रा सं. ग. इं. का, यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. उ. अवि. - न.....म. ४ न.। GE.४ । मति. असं. के. द. कृ. भ. श्रुत. विना. भा. १ का. औ. सं. आहा. साका. क्षा. अना. क्षायो. अव. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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