SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय ५१ जयधवलामें यह भी बतलाया गया है कि एक एक पाहुडके अन्तर्गत पुनः चौवीस चौवीस अनुयोगद्वार थे । यथा एदेसु अस्थाहियारेसु एकेकस्स अस्थाहियारस्स वा पाहुडसण्णिदा वीस वीस अस्थाहियारा । तेसिं पि अत्याहियाराणं एकेकस्स अत्याहियारस्स चउवीसं चउवीसं अणिओगद्दाराणि सण्णिदा अत्याहियारा । इससे स्पष्ट है कि पूर्वोके अन्तर्गत वस्तु अधिकार थे, जिनकी संख्या किसी विशेष नियमसे नहीं निश्चित थी। किन्तु प्रत्येक वस्तुके अवान्तर अधिकार पाहुड कहलाते थे और उनकी संख्या प्रत्येक वस्तुके भीतर नियमतः वीस वीस रहती थी और फिर एक एक पाहुडके भीतर चौवीस चौवीस अनुयोगद्वार थे । यह विभाग अब हमारे लिये केवल पूर्वोकी विशालता मात्रका द्योतक है क्योंकि उन वत्थुओं और उनके अन्तर्गत पाहुडोंके अब नाम तक भी उपलब्ध नहीं हैं । पर इन्हीं ३९०० पाहुडोंमेंसे केवल दो पाहुडोंका उद्धार पटखंडागम और कसायपाहुड (धवला और जयधवला ) में पाया जाता है जैसा कि आगे चलकर बतलाया जायगा। उनसे और उनकी उपलब्ध टीकाओंसे इस साहित्यकी रचनाशैली व कथनोपकथन पद्धतिका बहुत कुछ परिचय मिलता है। चौदह पूर्वोका विषय व परिमाण चौदह पूर्वोका विषय व पदसंख्या १ उप्पादपुर-तत्र च सर्वव्याणां पर्यत्राणां १ उप्पादपुव्वं जीव-काल-पोग्गलाणमुप्पादचोत्पादभावमंगीकृत्य प्रज्ञापना कृता । वय-धुवत्तं वण्णेइ । (१०००००००) (१०००००००) २ अग्गेणीयं-तत्रापि सर्वेषां द्रव्याणां पर्य- २ अग्गेणियं अंगाणमग्गं वण्णेइ । अंगाणमग्गंवाणां जीवविशेषाणां चामं परिमाणं वर्ण्यते। पदं वण्णेदि त्ति अग्गेणियं गुणणामं । (९६०००००) (९६०००००) ३ वीरियं-तत्राप्यजीवानां जीवानां च सकर्मे- ३ वीरियाणुपवादं अप्पविरियं परविरियं उभतराणां वीर्य प्रोच्यते । (७००००००) यविरियं खेत्तविरियं भवविरियं तवविरियं वण्णेइ। (७००००००) ४ अत्थिणत्थिपवाद-यघल्लोके यथास्ति यथा ४ अत्थिणत्थिपवादं जीवाजीवाणं अस्थि वा नास्ति, अथवा स्याद्वादाभिप्रायतः तदे- णत्थित्तं वण्णेदि। (६००००००) वास्ति तदेव नास्तीत्येवं प्रवदति । (६००००००) ५ णाणपवाद-तस्मिन् मतिज्ञानादिपंचकस्य ५ णाणपवादं पंच णाणाणि तिणि अण्णाभेदप्ररूपणा यस्मात्कृता तस्मात् ज्ञानप्रवादं। णाणि वण्णेदि। (९९९९९९९) (९९९९९९९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy