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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णण
[४५३ सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णवंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण तिहिं अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजम, दो दंसण, दवण कालाकालाभासलेस्ता, भावेण किण्ह-णील काउलेस्साओ; भवसिद्धिया,
नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहनेपर-एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैफ्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास लेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यात्य गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचे. न्द्रियजाति, सकाय चारों मनोयोग, चारों ववनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुं. सकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास लेट्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक
नं. ३४
नारकसामान्य-सासादन आलाय.
|गु जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि.
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सा सं. प..
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अज्ञा. असं. च. कृ. भ. सासा सं. आहा. साका.
। अना. अच. भा ३
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