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५८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१.१. - तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, वे जीवसमासा, छ अपञ्जत्तीओ पंच अपज्जतीओ, सत्त पाण सत्त पाण दो पाण, चत्तारि सण्णा खीणसण्णा वा, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, तिणि वेद अवगदंवेदो वा, चत्तारि कसाय अकसाओ वा, छ णाण, चत्तारि संजम, चत्तारि देसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सण्णिणो असणिणो अणुभया वा, आहारिणो आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुयजुत्ता वा तदुभया वा ।
पंचिंदिय-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, चत्तारि जीवसमासा, छ
उन्हीं पंचेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये पांच. गुणस्थान, संक्षी-अपर्याप्त और असंशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां सात प्राण, सात प्राण, तथा सयोगकेवलि समुद्धातके अपर्याप्तकालमें दो प्राण, चारों संशाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है। चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। विभंगावधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके विना छह शान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना
और यथाख्यात ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं; भावसे छहों लेश्याएं. भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक तथा अनुभयस्थान भी है। आहारक, अनाहारक; साकारोपयो कारोपयोगी और दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, पूर्वोक्त चार जीवसमास, संत्री पंचेन्द्रियोंके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंशी पंचे.
भं. २०३
पंधेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप, गु.| जी. प. प्रा.से. ग. ई.का. यो. वे. क.। ज्ञा. संय. द. | ले.
स. संज्ञि. आ.
.
साका.
मि.सं, अ. ५ अ. सा. असं.अ.
क्षीणसं. <
स.
औ मि... वै.मि, आ.मि.
विमं. असं. मनः सामा. विना. छेदो.
यथा.
भा.६
सा. असं. अना. अना. औप. अनु. यु.उ.
कार्म,
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