SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १,१. स्सिया सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं । केण कारणेण उवसमसम्मत्तं णत्थि ? बुच्चदे - तत्थ द्विदा देवा ण ताव उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंति, तत्थ मिच्छाइट्ठीणमभावादो | भवदु णाम मिच्छाइडीणमभावो, उवसमसम्मत्तं पि तत्थ द्विदा देवा पडिवज्जंति को तत्थ विरोधो ? इदि ण, ' अनंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं ' इदि अणेण पाहुडसुतेण सह विरोहादो । ण तत्थ द्विद-वेदसम्माद्विणो उवसमसम्मत्तं पडिवअंति, मणुसगदि-चंदिरित्तण्णगदीसु वेदगसम्माइट्टिजीवाणं दंसणमोहुवसमणहेदुपरि - णामाभावाद । ण य वेदगसम्माइट्टित्तं पडि मणुस्सेहिंतो विसेसाभावादो मणुस्साणं च सम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व होते हैं । 1 शंका- नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानों के पर्याप्तकालमें औपशमिक सम्यक्त्व किस कारण से नहीं होता है ? समाधान - नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानोंमें विद्यमान देव तो औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त होते नहीं है, क्योंकि, वहां पर मिथ्यादृष्टि जीवोंका अभाव है । शंका- भले ही वहां मिथ्यादृष्टि जीवों का अभाव रहा आवे, किन्तु यदि वहां रहनेवाले देव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करें, तो इसमें क्या विरोध है ? समाधान - ऐसा कहना भी युक्ति-युक्त नहीं है, क्योंकि, औपशमिक सम्यक्त्वके अनन्तर ही औपशमिकसम्यक्त्वका पुनः ग्रहण करना स्वीकार करने पर 'अनादि मिध्यादृष्टि जीवके प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके अनन्तर पश्चात् अवस्था में ही मिथ्यात्वका उदय नियमसे होता है । किन्तु जिसके द्वितीय, तृतीयादि वार उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई है, उसके औपशमिक सम्यक्त्वके अनन्तर पश्चात् अवस्थामें मिथ्यात्वका उदय भाज्य है, अर्थात् कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकरके वेदकसम्यक्त्व या उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है, कदाचित् सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकरके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है इत्यादि । इस कषायप्राभृतके गाथासूत्र के साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है। यदि कहा जाय कि अनुदिश और अनुतर विमानों में रहनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि देव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं, सो भी बात नहीं है; क्योंकि, मनुष्यगतिके सिवाय अन्य तीन गतियोंमें रहनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके दर्शनमोहनीयके उपशमन करनेके कारणभूत परिणामका अभाव है। यदि कहा जाय कि वेदकसम्यग्दृष्टिके प्रति मनुष्योंसे अनुदिशादि विमानवासी देवोंके कोई विशेषता नहीं है, अतएव जो दर्शनमोहनीयके उपशमन योग्य परिणाम मनुष्योंके पाये जाते हैं वे १ सम्मत्तपदमलंमस्साणंतरं पच्छदो य मिच्छतं । लभस्स अपदमस्त दु भजियव्त्रो पच्छदो होदि ॥ ( कसायपाहुड ) सम्मत्तस्स जो पढमलंभो अणादियमिच्छाइ डिविसओ तस्ताणतरं पच्छदो अनंतरपच्छिमावस्था मिच्छतमेव हो । तत्थ जाव पढमद्विदिचरिमसमओ चितात्र मिच्छतोदर्य मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । लंभस्स अपढमस्स दुजो खलु अपमो सम्मत पडिलमो तस्स पच्कदो मिच्छतोदयो भजियत्रो होइ । जयध. अ. पु. ९६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy