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________________ ५६४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १. काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमा पम्मलेस्सा । एत्तियमेत्तो चेव विसेसो । सदारसहस्सारकप्पदेवाणं बम्हलोग-भंगो । णवरि सामण्णेण भण्णमाणे दब्वेण काउ-सुक्कउक्कस्सपम्म-जहण्णसुक्कलेस्साओ, भावेण उक्कस्सपम्म-जहण्णसुक्कलेस्साओ । पज्जत्तकाले दव-भावेहि उक्कस्सपम्म-जहण्णसुक्कलेस्साओ। अपज्जत्तकाले दबेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण उक्कस्सपम्म-जहण्णसुक्कलेस्साओ । आणद-पाणद-आरणच्चुद. सुदंसण-अमोघ-सुप्पबुद्ध-जसोधर-सुबुद्धे-सुविसाल-सुमण-सउमणस-पीर्दिकरमिदि एदेसिंचदुणव-कप्पाणं सदार-सहस्सार-भंगो । णवरि सामण्णेण भण्णमाणे दव्वेण काउ-सुक्कमज्झिमसुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमा सुक्कलेस्सा । पज्जत्तकाले दव्व-भावेहि मज्झिमा सुक्कलेस्सा। अपज्जत्तकाले दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमा सुक्कलेस्सा । 'अच्चि-अच्चिमालिणी-वइर-वइरोयण-सोम-सोमरूव-अंक-फलिह-आइच्च--विजय उन्हींके अपर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्या तथा भावसे मध्यम पद्मलेश्या होती है। इतनीमात्र ही विशेषता है। शतार और सहस्रार कल्पवासी देवोंके आलाप ब्रह्मलोकके आलापोंके समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि उनके सामान्यसे आलाप कहने पर-द्रव्यसे कापोत, शुक्ल, उत्कृष्ट पंन और जघन्य शुक्ल लेश्याएं होती हैं, तथा भावसे उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्याएं होती होती हैं। उन्हीं देवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्य और भावसे उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्याएं होती हैं। उन्हींके अपर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं होती हैं, तथा भावसे उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्याएं होती हैं। ... आनत-प्राणत, आरण-अच्युत तथासुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुबुद्ध, सुविशाल, सुमनस् , सौमनस और प्रीतिंकर इन चार और नौ इस प्रकार तेरह कल्पोंके आलाप शतार-सहसार देवोंके आलापोंके समान समझना चाहिए । विशेषता यह है कि सामान्यसे आलाप कहने पर-द्रव्यसे कापोत, शुक्ल और मध्यम शुक्ल लेश्याएं होती हैं, तथा भावसे मध्यम शुक्ललेश्या होती है। उन्हीं देवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्य और भावसे मध्यम शुक्ललेश्या होती है। उन्हींके अपर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं तथा भावसे मध्यम शुक्ललेश्या होती है। अर्चि, अर्चिमालिनी, वज्र, वैरोचन, सौम्य, सौम्यरूप, अंक, स्फटिक, आदित्य, इन १ 'सुभद्र' इति पाठः । त. रा. वा. पृ. १६७. २ अच्ची य अच्चिमालिणि वहरे वइरोयणा अणुद्दिसगा। सोमो य सोमरूवे अंके फलिके य आइच्चे ॥ त्रि. सा. ४५६. तत्रानुदिशविमानानि येवेक एवाऽऽदित्यो नाम विमानप्रस्तारः। तत्र दिक्षु विदिक्षु चत्वारि चत्वारि श्रेणिविमानानि । प्राच्यां दिशि अचिर्विमानं, अपाच्यामार्चिमाली, प्रतीच्या वैरोचनं, उदीच्या प्रभासं, मध्ये आदित्याख्यं । विदिक्षु पुष्पप्रकीर्णकानि चत्वारि । पूर्वदक्षिणस्यामचिप्रभं । दक्षिणापरस्यां अर्चिमध्यं । अपरोत्तरस्या अचिंरावर्त । उत्तरपूर्वस्यामचि विशिष्टं । त. रा. वा पृ. १६७. श्वेताम्बरग्रंथेषु अनुदिशविमानानामुल्लेखो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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