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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगहारे सम्मत्त-आलाववण्णणं [८२३ परिहारसंजमं पडिवज्जति; अइट्ठ-उवसमसम्मत्तकालभतरे तदुप्पत्तिणिमित्तगुणाणं संभवाभावादो । णो उवसमसेढिं चढमाणा; तत्थ पुव्वमेवमंतोमुहुत्तमत्थि ति उवसंहरिदविहारादो । ण तत्तो ओदिण्णाणं पि तस्स संभवो; णटे उवसमसम्मत्तेण विहारस्सासंभवादो । तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तिण्णि सुहलेस्साओ; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । ___उवसमसम्माइट्ठि-अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, परिहारसंजमो प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालके भीतर परिहारविशुद्धिसंयमकी उत्पत्तिके निमित्तभूत विशिष्टसंयम, तीर्थकर-चरणमूल-वसति, प्रत्याख्यानपूर्व-महार्णवपठन आदि गुणोंके होनेकी संभावनाका अभाव है। और न उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके भी परिहारविशुद्धिसंयमकी संभावना है। क्योंकि, उपशमश्रेणिपर चढ़नेके पूर्व ही जब अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहता है तभी परिहारविशुद्धिसंयमी अपने गमनागमनादि विहारको उपसंहरित अर्थात् संकुचित या बन्द कर लेता है। और उपशमश्रेणीसे उतरे हुए भी द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि संयत जीवोंके परिहारविशुद्धिसंयमकी संभावना नहीं है। क्योंकि, श्रेणि चढ़नेके पूर्व में ही परिहारविशुद्धिसंयमके नष्ट हो जानेपर उपशमसम्यक्त्वके साथ परिहारविशुद्धिसंयमीका विहार संभव नहीं है। संयम आलापके आगे आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं भावसे तीन शुभ लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संशाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं, किन्तु, परिहारविशुद्धिसंयम नहीं होता है। नं. ४९९ उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. । गु. जी. प. प्रा. ग. ग.) ई. का. यो. वे. क. ना. । संय. द. ले. म. स. संशि. आ. , उ.. ११०४|१११ प्रम. सं.प. म. पं. त्र. मति. सामा. के.द. मा. ३ भ. औप. | सं. आहा. साका. श्रुत. छेदो. विना. शुभ अना. अव. मनः, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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