SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, १. चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिणि संजम, तिण्णि दसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" । ___अपुव्यकरणाणमोघालावे भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाण, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, ज्झाणिमपुव्यकरणाणं भवदु णाम वचिबलस्स अत्थित्तं भासापजत्ति-सण्णिदपोग्गलखंध-जणिद-सत्ति-सब्भावादो। ण पुण वचिजोगो कायजोगो वा इदि ? न, अन्तर्जल्पप्रयत्नस्य कायगतसूक्ष्मप्रयत्नस्य च तत्र सत्त्वात् । तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाग, परिहारसुद्धिसंजमेण विणा दो संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्ताओ, विना चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं और भावसे तेज पद्म और शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशामक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीवोंके ओघालाप कहनेपर-एक आठवां गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएंमनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग, एक औदारिक, काययोग ये नौ योग होते हैं। शंका-ध्यानमें लीन अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीवोंके वचनबलका सद्भाव भले ही रहा आवे, क्योंकि, भाषापर्याप्तिनामक पौद्गलिक स्कन्धोंसे उत्पन्न हुई शक्तिका उनके सद्भाव पाया जाता है किन्तु उनके वचनयोग या काययोगका सद्भाव नहीं मानना चाहिए? समाधान-नहीं, क्योंकि, ध्यान-अवस्थामें भी अन्तर्जल्पके लिये प्रयत्नरूप वचनयोग और कायगत-सूक्ष्म-प्रयत्नरूप काययोगका सत्त्व अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीवोंके पाया ही जाता है इसलिये वहां वचनयोग और काययोग भी संभव है। ___ योगोंके आंगे तीनों वेद, चारों कषायें, केवल ज्ञानके विना शेष चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे नं. १५ अप्रमत्तसंयतोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. । वे. क. ज्ञा. 'संय. द. । ले. | म. स. संक्षि आ| उ. | १ १ ६१० ३ १ १ १ ९ ३ ४ ४ ३ ३ । ६ १ ३ । १ १ २ अप्र..प. आहा. म.पं. स. म.४ के. सा. के. द्र. भ. आ. सं. : साका. विना. विना. छे. विना. ३ । क्षा.! क्षाया. 5. ll व.४ अना. आ. परि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy