________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे कसाय-बालाववण्णणं
[७०९ कोधकसाय-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाय, तिणि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि देसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
कोधकसाय-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, (मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाओं,) चत्तारि णाण, तिणि संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भव
क्रोधकषायी संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके तीन शान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
क्रोधकषायी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, संक्षी. पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण, सात प्राण; चारों संक्षाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं,
१ प्रतिषु कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्ति । नं. ३४५
शोधकषायी संयतासंयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प.प्रा.सं.) ग. ई.का. यो. के. क.| झा. । संय. द. ले. (म. | स. संलि.
आ.
..
सं.प.
पंचे. वस. -
म.४
औप.
स. आहा.साकार
को. मति. देश.के.द. भा.३ भ.
विना. शुभ. अव.
श्रुत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org