________________
५८० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १ पंच अपज्जत्तीओ, अट्ठ पाण छप्पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, चरिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, णबुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं. एओ जीवसमासो, पंच पज्जसीओ, अट्ठ पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, चउरिदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दब्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो,
न्द्रिय-पर्याप्त और चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, मनःपर्याप्तिके विना पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां पर्याप्तकालमें स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, कायबल, वचनबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये आठ प्राण, अपर्याप्तकालमें उक्त आठ प्राणोंमेसे वचनबल और श्वासोच्छ्वासके विना शेष छह प्राण; चारों संक्षाएं, तिर्यंचगति, चतुरिन्द्रियजाति, त्रसकाय, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं चतुरिन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त जीवसमास, पूर्वोक्त पांच पर्याप्तियां, पूर्वोक्त आठ प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, चतुरिन्द्रियजाति, सकाय, अनुभयवचनयोग और औदारिककाययोग ये दो योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अना'
नं. १९८
चतुरिन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. | यो. । वे. क. ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. स. | सजि. आ. उ. | मि च.प.प. प. ति.
कुम | असं. | चक्षु. भा. ३ म. मि. असं. आहा. साका. अच. अशु, अ.
अना. अना.
च.जा.
नपुं. -
औ.२
का.१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org