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संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं [७९३ चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दब्बेण काउ-सुक्कलेस्साओ, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यासद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर--एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास; छंहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये दो योग; पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और
नं. ४५८ शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा.सं.) ग. ई. ) का./ यो. वे. क. बा. । संय. द. ले. (म. स. संहि. आ. | उ. |
सं.प.
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ति.पं. त्र.म.४
व. ४
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. म. मि | सं. आहा. साका.
| अच. शु. अ.]
अमा.
औ.१
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