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१, १.] संत-पखवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७९१ तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अट्ट णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि अत्थि, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, देव-मणुसगदि त्ति दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, पुरिसवेद अवगदवेदो वि अत्थि,
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके तेरह गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चार प्राण: चारों संशाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी होता है, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पर्याप्तकालसंबन्धी ग्यारह योग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी होता है, चारों कषाय, तथा अकषायस्थान भी होता है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संशिक और असंक्षिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तविरत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान; एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण और दो प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है। देवगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचन्द्रियजाति, त्रसकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी चारों योग, पुरुषवेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा
नं.४५५
शुक्ललेश्यावाले जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. | जी. प.प्रा | सं. ग. | ई. का. यो. । वे क. ना. | संय. द. | ले. भ. स. संझि, आ. | उ. । अयो. सं. प. ४ ति. पंचे. त्र. व.४
भा.१ भ. सं. आहा. साका विना
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शु. अ. अनु. अना.
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