Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 30 Aavashyak Mool evam Vrutti Part 3
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज आ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमःामा भाग 3 सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि आगम ४० "आवश्यक" मूलं एवं वृत्ति: [३] आजमा आजम । मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब । अभिनव संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा AT EMARALI PM OSTEOSTE OSIE OFLEOAAOANROF SingarohARINirala ~ ~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम ! आज आजम आगम आजम नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक जन पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम आजम SISTE SHURIS आजस अभिनव संकलनकर्ता ~3~ SUJEI आगम आगम आगम STONE वागम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि ] Excel प्रत- प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a वाचना शताब्दी वर्ष रामराज अनावरागम Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-३०] श्री आवश्यक सूत्रम् (मूलसूत्रम्-१/३) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: "आवश्यक" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + भाष्यं + हरिभद्रसूरि रचिता-वृत्तिः] भाग-३०, नियुक्ति:- (९५२ से १२७३.अपूर्ण) + (अध्ययन १ से ४.अपूर्ण) [शेष नियुक्ति-१२७३ एवं शेष अध्ययन-४ भाग-३१स्य आरंभे वर्तते] [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-३० श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | . सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - .. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान- तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे | ••• ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष}दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | • रटण बारबार चालु हो गया- "अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण" इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | मुनि दीपरत्नसागर.... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुई | पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य सहाय की प्राप्ति हुई | शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर है, जो शत्रुंजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है । वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण ं के शास्त्र वर्णन अनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है | ~7~ *** मुनि दीपरत्नसागर .... Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। - मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: आगमोदयसमितिसिद्धान्तसंग्रहे अङ्कः १. श्रीमदाचार्यवर्यभद्रबाहुततनियुक्तियुतं पूर्वधराचार्यविहितभाष्यभूषितं श्रीमद्भवविरहहरिभद्रसूरिसूत्रितवृत्त्यलङ्कृतं श्रीमदावश्यकसूत्रम् ( प्रथमो विभागः) प्रकाशक: जव्हरी चुनीलाल पन्नालालदत्तकिश्चिदधिकार्यद्रव्यसाहायेन शाह-वेणीचन्दसूरचन्द अस्सैका कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं मुम्पय्यां निर्णयसागरमुद्रणास्पदे कोलभाटचीथ्या २३ तमे गृहे रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । वीरसंपत्. २४४२. विक्रमसंवत्. १९७२. क्राइष्टस्य. १९१६. वेतनं सपादरूप्यकत्रयम् । For Pare n t आवश्यकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~9~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: ५०+२१ आवश्यक मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ९२ पृष्ठांक मूलांक: अध्ययन ०१-०२ | १-सामायिक ११-३६ | ४-प्रतिक्रमणं ०४१ ११४ । २३३ । मूलांक: । अध्ययनं पृष्ठांक: मुलाक: अध्ययनं पृष्ठांक: ०३-०९ | २-चतुर्विंशतिस्तव: ३-वंदन १५४ ३७-६२ | ५-कायोत्सर्ग | --- ।। ६३-९२ । ६-प्रत्याख्यानं --- आवश्यक सटीक (संक्षिप्त) विषयानुक्रम नि./भा. अध्ययनं-१- सामायिक | --- || मूलांक अध्ययनं-४- प्रतिक्रमणं । २३७ । ८९० नमस्कार-व्याख्या ०१२ ०११ नमस्कार व सामायिक-सूत्र २७५ ९१९ | अर्हत्, सिद्धादेः नियुक्ति: ०१२ ०१३ | चत्वारः लोकोतम-मङ्गल एवं રાક૬ ९६० सिद्धशिला वर्णनं | ०२१ । । ०१४।। --------------शरणभूत पदार्था: રાક૬ | आचार्य-आदीनाम निक्षेपाः | ०३२ | संक्षिप्त व ईर्यापथ प्रतिक्रमण ૨૮૨ अ०१,मू.१ । सामायिक- व्याख्या, स्वरुपम् | ०४५ ०१७ | शयन संबंधी प्रतिक्रमणं ૨૮૪ उद्देश-वाचना-अनुज्ञा आदिः ०१८ | भिक्षाचर्याया: प्रतिक्रमणं सूत्र स्पर्श भगा: ०१९ स्वाध्याय, उपकरणप्रतिलेखन २८९ सामायिक-उपसंहारः ०२० असंयम आदि ३३-आशातना २९० अ०२ | अध्ययनं-२- चतुर्विंशतिस्तव: । सूत्रोच्चारणे मिथ्यादुष्कृतम् मूलं-३ | सूत्रपाठः, कीर्तनं, प्रतिज्ञा, १२४ प्रवचनस्तुति, वंदना, क्षमापना नि०१०७६ |-अर्हत: विशेषणं, १३६ | अ०५ | अध्ययनं-५- कायोत्सर्ग: मूलं ४-६ -ऋषभादि नामानि, प्रार्थनादि १३९ सूत्रपाठः, कायोत्सर्गस्थापना अ०३ | अध्ययनं-३- वन्दनं १५८ श्रुतस्तव, सिद्धस्तवादि पाठः मुलं-१० -गुरुवन्दन सूत्रपाठः २२८ अ०६ | अध्ययनं-५- प्रत्याख्यानं -मितावग्रह प्रवेशयाचना २३० सम्यक्त्व व श्रावकव्रतप्रतिज्ञा --क्षमापना, प्रतिक्रमण-आदिः २३१ विविध प्रत्याख्यानादिः नियुक्ति | पीठिका " [भाष्य --मंगलं ००१ --ज्ञानस्य पञ्चप्रकारा: ०१३ --उपक्रम-आदिः ०८० |--उपोद्घात-नियुक्ति: ०८१ --वीरआदिजिनवक्तव्यता ३४३ --भरतचक्री-कथानक भा.०३९ --बलदेव-वासुदेव कथानक ५४३ |--समवसरण वक्तव्यता ૧૮૮ --गणधर वक्तव्यता ६६६ --दशधा सामाचारी --निक्षेप, नय, प्रमाणादि ७७८ --निनव वक्तव्यता ७८९ ॥ --सामायिकस्वरुपम् ८१२ |--गति आदि दवाराणि । ૨૮૬ b9y पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आवश्यक- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा यह प्रत सबसे पहले “आवश्यक सूत्र” के नामसे सन १९९६ (विक्रम संवत १९७२ ) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक| महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाड़ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी आवश्यक सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुनः संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है। और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है । * हमारा ये प्रयास क्यों ? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन--मूलसूत्र - निर्युक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, निर्युक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके । बार्थी तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है । शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म०सा० की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम- सुत्ताणि भाग-३० का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है । ~11~ ..मुनि दीपरत्नसागर. -----.. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५२], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक न किलम्मइ जो तवसा सो तवसिद्धो दढप्पहारिव । सो कम्मकूखयसिद्धो जो सव्वक्खीणकम्मंसो ॥१५॥ । व्याख्या-'न क्लामति' न लमं गच्छति यः सत्वस्तपसा-बाह्याभ्यन्तरेण स एवंभूतस्तपःसिद्धः, अग्लानित्वाद्, दृढप्रहारिवदिति गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एगो धिज्जाइयओ दुईतो अविणयं करेइ, सो ताओ थाणाओ नीणिओ हिंडतो चोरपलिमल्लिणो, सेणावइणा पुत्तो गहिओ, संमि मयंमि सोचेव सेणावई जाओ, निकिवं |पहणइत्ति दढप्पहारी से णाम कयं । सो अन्नया सेणाए समं एगं गाम हंतुं गओ, तत्थ य एगो दरिद्दो, तेण पुत्तभंडाण मगंताणं दुद्धं जाएत्ता पायसो सिद्धो, सो य हाइड गओ, चोरा य तत्थ पडिया, एगेण सो तस्स पायसो दिहो, छुहियत्ति तंगहाय पहाविओ, ताणि खुड्डगरुवाणि रोवंताणि पिउमूलं गयाणि, हिओ पायसोत्ति, सो रोसेणं मारेमित्ति पहाविओ, महिला अवयासेउं अच्छइ, तहवि जाइ जहिं सो चेव चोरसेणावई गाममज्झे अच्छइ, तेण गंतूण महासंगामो कओ.2 | सेणावइणा चिंतियं-एएण मम चोरा परिभविजन्ति, तओ असिं गहाय नियं छिण्णो, महिला से भणइ-हा णिकिव ! _ एको धिग्जातीयो दुर्दान्तोऽविनयं करोति, स ततः स्थानात् निष्काशितो हिन्डमान चौरपहीमाश्रितः, सेनापतिना पुत्रो गृहीतः, तस्मिन् मृते स है एव सेनापतिजांतः, निष्कर्ष प्रहन्तीति दृढप्रहारी तस्य नाम कृतं । सोऽन्यदा सेनया समं एक ग्रामं हन्तुं गतः, तत्र चैको दरिद्रः, तेन पुत्रपौत्रेभ्यो मार्गयङ्ग्यः दुग्धं याचिरवा पायसं साधितं, स च नानुं गतः, चौराश्च तन्त्र पतिताः, एकेन तस्य तत्पायसं दृष्टं, क्षुधाः इति तद्गृहीत्वा प्रधावितः, तानि क्षुहरूपाणि रुदन्ति । पितृमूलं गतानि, हृतं पायसमिति, स रोपेण मारवामीति प्रभावितः, महिला निवारयितुं तिष्टति, तथापि याति यत्र स एव चौरसेनापत्तिाममध्ये तिष्ठति, तेन गत्वा महासंमामः कृतः, सेनापतिना चिन्तितं-एतेन मम चौराः परिभूयन्ते, ततोऽसिं गृहीत्वा निर्दयं छिना, महिला तस्य भगति-हा निष्कृप! अनुक्रम [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यकहारिभद्रीया ॥४३८ ॥ Educat [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [–], मूलं [१/ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९५२], भाष्यं [१५१...] किमेयं कयंति, पच्छा सावि मारिया, गन्भोऽवि दोभाए कओ फुरुफुरेह, तस्स किवा जाया-अहम्मो कओ, चेडरुवेहिंतो दरिद्दत्ति पत्ती उवलद्धा, दढयरं निधेयं गओ को उवाओत्ति, साहू दिडा, पुच्छिया यऽणेण भगवं । को एत्थ उवाओ ?, तेहिं धम्मो कहिओ, सो य से उबगओ, पच्छा चारितं पडिवज्जिय कम्माण समुग्धायणढाए घोरं खंतिअभिगहं गिण्हिय तत्थेव विहरइ, तओ हीलिज्जइ हम्मति य, सो समं अहियासेइ, घोराकारं च कायकिलेस करेइ, असणाइ व अलभतो सम्म अहियासेइ, जावऽणेण कम्मं निग्धाइयं, केवलं से उप्पण्णं, पच्छा सो सिद्धत्ति ॥ उक्तस्तपः सिद्धः, साम्प्रतं कर्मक्षयसिद्धप्रतिपादनाय गाथाचरमदलमाह-'सो कम्म' इत्यादि, स कर्मक्षयसिद्धः, यः किंविशिष्ट इत्यत आह'सर्वक्षीणकर्मश:' सर्वे - निरवशेषाः क्षीणाः कर्माशाः कर्मभेदा यस्य स तथाविध इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं कर्मक्षयसिद्धमेव प्रपञ्चतो निरुक्तविधिना प्रतिपादयन्नाह - दीहकालरयं जं तु कम्मं से सिअमहा । सिअं तंति सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजाय ॥ ९५३ ॥ व्याख्या - दीर्घः सन्तानापेक्षयाऽनादित्वात् स्थितिबन्धकालो यस्य तद्दीर्घकालं, निसर्गनिर्मलजीवानुरञ्जनाच्च कर्मैव १ किमेतत्कृतमिति पश्चात्साऽपि मारिता, गर्भोऽपि द्विधाकृतः स्फुरति तस्य कृपा जाता-अधर्मः कृतः, वेटरूपेभ्यो दरिद्र इति प्रवृत्तिरुपलब्धा, दृढतरं निर्वेदं गतः क उपाय इति साधवो दृष्टाः पृष्टाश्चानेन भगवन् ! कोऽत्रोपायः ?, तैर्धर्मः कथितः, स च तस्योपगतः पश्चाच्चारित्रं प्रतिपय कर्मणां समुद्धा तनार्थाय पोरं क्षान्यनिग्रहं गृहीत्वा तत्रैव विहरति, ततो हील्यते हन्यते च स सम्यक् अध्यासयति घोराकारं च कायक्लेशं करोति, अशनादि वाऽलभमानः सम्यगध्यास्ते, यावदनेन कर्म निर्धातितं ( निहतं ), केवलं तस्योपसं, पचास सिद्ध इति ॥ For Parna Peny नमस्कार ० वि० १ ~13~ ॥४३८॥ www.pincibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः अथ कर्मक्षयसिद्धस्य स्वरुपम् वर्णयति Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [–], मूलं [१/गाथा - ], निर्युक्ति: [ ९५३], भाष्यं [१५१...] भण्यते ततश्च दीर्घकालं च तद्रजश्चेति दीर्घकालरजः, यच्छन्दः सर्वनामत्वादुद्देशवचनः, यत्कर्मेत्थंप्रकारं, तुशब्दो भव्यकर्मविशेषणार्थः, यतो नाभव्यकर्म सर्वथा ध्मायत इति, ततश्च यद्भव्यकर्मेति 'शेषितम्' इति शेषं कृतं शेषितं स्थित्यादिभिः प्रभूतं सत् स्थितिसङ्ख्यानुभावापेक्षयैवानाभोगसद्दर्शन ज्ञानचरणाद्युपायतः शेषम् - अल्पं कृतमिति भावः, प्राकू किंभूतं सच्छेषितम् ? इत्याह- 'अष्टधा सितम्' अष्टप्रकारं ज्ञानावरणादिभेदेन सितं 'सित वर्णबन्धनयो 'रिति वचनात् सितं| बद्धमुच्यते । इदानीं निरुक्तिमुपदर्शयति तच्छेषितं सितं कर्म धमातं, 'धमा शब्दाग्निसंयोगयोरिति वचनात् ध्यानानलेन दग्धं महाग्निना लोहमलवदस्येति सिद्ध इति, एवं कर्मदहनानन्तरं सिद्धस्यैव सतः किं ? - सिद्धत्वमुपजायते, नासिद्धस्य, 'अध्योऽसिद्धो न सिध्यतीति वचनादू, उपजायत इत्यपि तदात्मनः स्वाभाविकमेव सदनादिकर्मावृतं तदावरणविगमेनाऽऽविर्भवति तत्त्वतः तथाऽपि लौकिकवाचोयुक्त्या व्यवहारदेशनयोपजायत इत्युच्यते, अथवा सिद्धस्य सिद्धत्वं भावरूपमुपजायते, न तु प्रदीपनिर्वाणकल्पमभावरूपमिति नयमतान्तरव्यवच्छेदार्थमेतत्, तथा चाऽऽहुरेके- 'दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ १ ॥ इत्यादि, एवंविधसिद्धत्वभावे दीक्षादिप्रयासवैयर्थ्यात् निरन्वयक्षणभङ्गस्य चायुज्यमानत्वात्, प्रदीपदृष्टान्तस्याव्यसिद्धत्वात्, तथाहि तत्र त एव पुद्गला भास्वरं रूपं परित्यज्य तामसं रूपान्तरमासादयन्तीत्यलं विस्तरेण, अथवाऽन्यथा व्याख्यायते 'दीर्घकालरयं' इति रयः- वेगः चेष्टाऽनुभवः फलमित्यनर्थान्तरं ततश्च दीर्घकालो रयोऽस्येति १ भवे संसारे भवो भव्यः अभव्य इत्यर्थः Education intimational For Farina Pen पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यकहारिभ द्वीया ॥४३९ ॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा-], निर्युक्ति: [ ९५३ ], भाष्यं [ १५१...] दीर्घकालरयं, सन्तानोपभोग्यत्वादिति भावनां, यद्भव्यकर्म 'सेसित' मिति श्लेषितमिति संश्लिष्टं लेश्यानुभावात् अष्टधा सितमित्यादि पूर्ववत्, अथवाऽन्यथा व्याख्यायते दीर्घकालरज इति, तत्र रज इव रजः सूक्ष्मतया स्नेहबन्धनयोग्यत्वाद्वा रज इस्युच्यते, यद्भव्यकर्मेति च नैवं व्याख्यायते, साक्षात्कर्माभिधानेन सर्वनाम्नो निरर्थकत्वात्, प्रकरणादेव भव्यस्यावगम्यमानत्वाद् अभव्यस्व सिद्धत्वानुपपत्तेः, ततश्च जन्तुकर्म इति व्याख्यायते जन्तुः - जीवस्तस्य कर्म जन्तुकर्म, अनेनावकर्मव्यवच्छेदमाह तच्च' से' तस्य जन्तोः 'असितम्' असितमिति कृष्णमशुभं संसारानुबन्धित्वात् एवंविधस्यैव च क्षयः श्रेयानिति, न तु शुभस्य स्वरूपस्येति भावना, अष्टधा सितमिति पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ प्रथमव्याख्यापक्षमधि| कृत्य सम्बन्धमाह-तत्कर्मशेषं तस्य समस्थित्यसमस्थिति वा स्यात् ?, न तावत् समस्थिति विषमनिबन्धनत्वात्, नाप्यसमस्थिति चरमसमये युगपत् क्षयासम्भवादिति, एतदयुक्तम् उभयथाऽप्यदोषात्, तथाहि - विषमनिबन्धनत्वे सत्यपि विचित्रक्षयसम्भवात् कालतः समस्थितित्वाविरोध एव, चरमपक्षेऽपि समुद्घातगमनेन समस्थितिकरणभावाददोषः, न चैतत् स्वमनीषिकयैवोच्यते, यत आह नियुक्तिकारः नाण अणि अबहुअं आउअं च धोवागं । गंतूण समुग्धायं खवंति कम्मं निरवसेसं ॥ ९५४ ॥ व्याख्या- 'ज्ञात्वा' केवलेनावगम्य, किं ? - वेदनीयं कर्म, किंभूतं ?--'अतिबहु' शेषभवोपग्राहि कर्मापेक्षयाऽतिप्रभूतमित्यर्थः, तथाssयुष्कं च कर्म 'स्तोकम्' अल्पं, तदपेक्षयैव ज्ञात्वेति वर्तते, अत्रान्तरे 'गत्वा' प्राप्य 'समुद्घातम्' इति सम्यगअपुनर्भावेनोत् प्रावस्येन कर्मणो हननं घातः- प्रलयो यस्मिन् प्रयत्नविशेषेऽसौ समुद्घात इति तम्, 'क्षपयन्ति' विनाश Education national For First Use Only नमस्कार० वि० १ ~15~ ॥४३९॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः 'समुद्घातः, तस्य व्याख्या एवं स्वरुपम् इत्यादि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] Jus Educa [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [१/गाथा -], निर्युक्ति: [ ९५४], भाष्यं [१५१...] यन्ति 'कर्म' वेदनीयादि 'निरवशेषम्' इति निरवशेषमिव निरवशेषं प्रभूततमज्ञपणाच्छेषस्य चान्तर्मुहूर्त्तमात्रकालावधित्वात्, किश्चिच्छेषत्वादसत्कल्पनेति भावना, अत्राऽऽह - 'ज्ञात्वा वेदनीयमतिवह्नि त्यत्र को नियमः ? येन तदेव बह | ( ग्रं० ११००० ) तथाऽऽयुष्कमेवाल्पमिति, अत्रोच्यते, वेदनीयस्य सर्वकर्मभ्यो बन्धकालबहुत्वात् केवलिनोऽपि तद्बन्धकत्वादायुष्कस्य चाल्पत्वात् उक्तं च- 'जाव णं अयं जीवे एवइ वेयइ चलइ फंदर ताव णं अविहबंध वा fair ar aair वा एगविहबंध वा णो णं अबंधए' आयुष्कस्य स्वान्तर्मुहूर्तिक एव बन्धकाल इति, उक्तं च- "सियं तिभागे सिय तिभागतिभागे” इत्याद्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ ९५४ ॥ इदानीं समुद्घातादिस्वरूपप्रतिपादनायैवाऽऽ--- दंड कवाडे मंतरे अ साहरणया सरीरत्थे । भासा जोगनिरोहे सेलेसी सिज्झणा चेव ॥ ९५५ ॥ व्याख्या - इह समुद्घातं प्रारभमाणः प्रथममेवावर्जी करणमभ्येति, आन्तमौहूर्तिक मुदीरणावलिकायां कर्मपुद्गलप्रक्षेपव्यापाररूपमित्यर्थः, ततः समुद्घातं गच्छति, तस्य चार्य क्रमः - इह प्रथमसमय एव स्वदेहविष्कम्भतुल्यविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चाssयतमुभयतोऽपि लोकान्तगामिनं जीवप्रदेशसङ्घातं दण्डं दण्डस्थानीयं केवली ज्ञानाभोगतः करोति, द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापर दिग्द्वयप्रसारणात् पार्श्वतो लोकान्तगामिनं कपाटमिव कपाटं करोति, तृतीयसमये तदेव कपाटं दक्षिणोत्तर १ यावदयं जीव पुजते ब्बेजते चलति स्पन्दते तावदष्टविधबन्धको वा सप्तविधबन्धको वा विधवन्धको वा एकविधबन्धको वा नान्धकः । २ स्वा विभागे स्वान्निभागविभागे For Funny पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~16~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५५], भाष्यं [१५१...] हारिभद्रीया प्रत ॥४४॥ SC- सूत्रांक दिग्द्वयप्रसारणान्मन्धसदृशं मन्यानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव, एवं च लोकस्य प्रायो बहु परिपूरितं भवति, मन्थान्त- नमस्कार. राण्यपूरितानि भवन्ति, अनुश्रेणिगमनात् , चतुर्थे तु समये तान्यपि मन्थान्तराणि सह लोकनिष्कुटैः पूरयति, ततश्च वि०१ सकलो लोकः पूरितो भवतीति, तदनन्तरमेव पञ्चमे समये यथोक्कक्रमात् प्रतिलोम मन्थान्तराणि संहरति-जीवप्रदेशान् सकर्मकान् सङ्कोचयति, षष्ठे समये मन्थानमुपसंहरति धनतरसङ्कोचात् , सप्तमे समये कपाटमुपसंहरति दण्डात्मनि सङ्कोचात्, अष्टमसमये दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवति । अमुमवार्थं चेतसि निधायोक्तं दण्डकपाट मन्थान्तराणि संहरणता प्रतिलोममिति गम्यते, शरीरस्थ इति वचनात् , न चैतत् स्वमनीषिकाव्याख्यानं, यत उक्तम्-प्रथमे समये दण्डं कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे। सप्तमके तु कपाट संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥२॥” इति । तस्येदानी समुद्घातगतस्य योगव्यापारश्चिन्त्यते-योगाश्चमनोवाकायाः, अत्रैषां कः कदा व्याप्रियते ?, तत्र हि मनोवाग्योगयोरव्यापार एव, प्रयोजनाभावात् , काययोगस्यैव केवलस्य व्यापारः, तत्रापि प्रथमाष्टमसमययोरौदारिककायप्राधान्यादौदारिकयोग एव, द्वितीयषष्ठसप्तमे समये पुनरौदारिके तस्माच्च बहिः कार्मणे वीर्यपरिस्पन्दादौदारिककार्मणमिश्रः, त्रिचतुर्थपञ्चमेषु तु बहिरेवौदारिकात् बहुतरप्रदेशव्यापारादसहायः कार्मणयोग एव, तन्मात्रचेष्टनादिति, अन्यत्राप्युक्तम्-"औदारिकप्रयोका प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः। मिश्रौदारिकयोका सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥१॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पश्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भव-18४४०॥ त्यनाहारको नियमाद् ॥२॥” इति, कृतं प्रसङ्गेन । भाषायोगनिरोध इति, कोऽर्थः १-परित्यक्तसमुद्घातः कारणवशाद् अनुक्रम SERCES पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा-], निर्युक्ति: [ ९५५], भाष्यं [ १५१...] योगत्रयमपि व्यापारयेत्, तदर्थे मध्यवर्तिनं योगमाह - भाषेति, अत्रान्तरेऽनुत्तरसुरपृष्टो मनोयोगं सत्यं वाऽसत्यामृपं वा प्रयुङ्क्ते, एवमामन्त्रणादी वाग्योगमपि, नेतरौ द्वौ भेदौ द्वयोरपि, काययोगमप्यौदारिकं फलकप्रत्यर्पणादाविति, ततोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेणैव कालेन योगनिरोधं करोति, अत्र केचिद् व्याचक्षते - जघन्येनैतावता कालेन उत्कृष्टतस्तु षड्निमासैरिति, एतच्चायुक्तं, 'क्षपयन्ति कर्म निरवशेष' मिति वचनात् फलकादीनां च प्रज्ञापनायां प्रत्यर्पणस्यैवोक्तत्वात् एवं च सति ग्रहणमपि स्याद्, अलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः स हि योगनिरोधं कुर्वन् प्रथममेव याऽसौ प्रथममेव शरीरप्रदेशसम्बद्धा मनःपर्याप्तिनिर्वृत्तिर्यया पूर्व मनोद्रव्यग्रहणं कृत्वा भावमनः प्रयुक्तवान् तत्कर्मसंयोगविघटनाय मन्त्रसामर्थ्येन विषमिव स भगवाननुत्तरेणाचिन्त्येन निरावरणेन करणवीर्येण तद्व्यापारं निरुध्य च 'पेज्जत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाई जहन्नजोगिस्स । होंति मणोदवाई तबावारो य जम्मत्तो १ ॥ तदसंखगुणविहीणं समए २ निरंभमाणो सो । मणसो सबनिरोहं करेज्जsसंखेज्जसमएहिं ॥ २ ॥ पज्जत्तमेत्तर्वेदिय जहन्नवयजोगपज्जया जे य । तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंतो ॥ ३ ॥ सबब जोगरोहं संखाईएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो य सुहुमपणगस्स पढमसमयोववञ्चस्स ॥ ४ ॥ जो किर जोगो तदसंखेज्जगुणहीणमेकिके समय निरंभमाणो देहतिभागं च मुचतो ॥ ५ ॥ रुभइ स कायजोगं संखाईएहि चैव समएहिं 1 पर्याप्तमात्रसहितो यावन्ति जघन्ययोगस्य । भवन्ति मनोद्रव्याणि तद्वयापारश्च यावन्मात्रः ॥ ३ ॥ वदसंख्यगुणविद्दीनं समये समये निरुन्धन् सः । मनसः सर्वनिरोधं कुर्यादसल्येयमयैः ॥ २ ॥ पर्यासमात्रद्वीन्द्रियस्य जघन्यवचः पर्यवा यावन्तः । तदसङ्ख्येयगुणविहीनान् समये समये निरुन्धन् ॥ ३ ॥ सर्ववचोयोगरोधं संख्यातीतः करोति समयैः । ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोत्पन्नस्य ॥ ४ ॥ यः किल जम्यो योगस्तद्येयगुणद्दीनमेकैकस्मिन् । समये निरुन्धन् देह त्रिभागं च सुधन् ॥ ५ ॥ रुणद्धि स काययोगं संख्यातीतैरेव समयैः । For Parts at Le Only nirg पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचिता वृत्तिः ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५५], भाष्यं [१५१...] CRETS भावश्यक- तो कयजोगनिरोहो सेलेसी भावणामेइ ॥ ६॥ त्ति' ततः शैलेशी प्रतिपद्यते, तत्र शिलाभिनिवृत्तः शिलानां वाऽय नमस्कार हारिभ- मित्यण शैल:-पर्वतस्तेषामीश:-प्रभुः शैलेशः, स च मेरुः, तस्येवेयं स्थिरतासाम्यादवस्थेति शैलेशी, अथवा-अशैलेशः। वि०१ मन्त्रमततद्धाबालेशवदाचरति शैलेशीभवतीत्यध्याहारः, अथवा सर्वसंवरः शीलं तस्येशः शीलेशः तस्येयं योगनिरोधा-12 १४४१॥ विस्थेति शैलेशी, इयं च मध्यमप्रतिपत्त्या इस्वपञ्चाक्षरोद्गिरणमात्रं कालं भवति, स च काययोगनिरोधारम्भात् प्रभृति ध्यायति सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्तिध्यानं, ततः सर्वनिरोधं कृत्वा शैलेश्यवस्थायां व्युच्छिन्नक्रियमप्रतिपातीति, ततो भवोपनाहिकर्मजालं क्षपयित्वा ऋजुश्रेणिप्रतिपन्नः अस्पृशद्गत्या सिध्यतीति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥ ९५५ ॥ अनन्तरगाथोपन्यस्तसमुद्घातमात्रापेक्षा संबन्धः । आह-समुद्घातगतानां विशिष्टकर्मक्षयो भवतीति काऽत्रोपपत्तिरितिी, उच्यते, प्रयत्नविशेषः, किं निदर्शनम्' इत्यत आह जह उल्ला साडीआ आसुसुक्का विरल्लिआ संती। तह कम्मलहुअ समए वच्चंति जिणा समुग्धायं ॥९५६॥ व्याख्या-'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः, आर्द्रा शाटिका, जलेनेति गम्यते, 'आशु' शीघ्रं 'शुष्यति' शोषमुपयाति, 'विरलिता विस्तारिता सती भवति, तथा तेऽपि प्रयत्नविशेषात् कर्मोदकमधिकृत्य शुष्यन्तीति शेषः, यतश्चैवमतः 'कर्मलघुतासमये ब्रजन्ति जिनाः समुद्घात मिति तत्र कर्मण-आयुष्कस्य लघुता कर्मलघुता, लघोर्भावो लघुता-स्तोकतेत्यर्थः, M ॥४४॥ तस्याः समय:-कालः कर्मलघुतासमयः, स च भिन्नमुहूर्तप्रमाणस्तस्मिन् , अथवा कर्मभिलघुता कर्मलघुता, जीवस्येति १ ततः कृतयोगनिरोध; शैलेशीभावनामेति ॥ ६॥ storary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५६], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक हृदयं, सा च समुद्घातानन्तरभाविन्येव भूतोपचारं कृत्वाऽनागतैव गृह्यते, तस्याः समयस्तस्मिन्, भिन्नमहर्त एवेत्यर्थः वजन्ति-च्छन्ति जिना:-केवलिनः 'समुद्घात' प्राक्प्ररूपितस्वरूपमिति गाथार्थः ॥९५६ ॥ साम्प्रतं यदुक्तं शैलेशी। का प्रतिपद्यते सिध्यति 'ति, तत्रासावेकसमयेन लोकान्ते सिध्यतीत्यागमः, इह च कर्ममुक्तस्य तदेशनियमेन गतिनोपपद्यते । ट्र इति मा भूदव्युत्पन्नविभ्रम इत्यतस्तन्निरासेनेष्टार्थसियर्थमिदमाहMI लाउअ एरंडफले अग्गी घूमे उसू धणुविमुक्के । गइपुब्वपओगेणं एवं सिद्धाणवि गईओ ॥ ९५७ ॥ व्याख्या-अलाबु एरण्डफलम् , अग्निधूमी, इषुधेनुर्विमुक्तः, अमीषां यथा तथा गमनकाले स्वभावतस्तन्निवन्धनाभावेऽपि देशादिनिवतैव गतिः पूर्वप्रयोगेण प्रवतेते, एवमेव व्यवहिततुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् सिद्धानामपि गतिरित्यक्षरार्थः ॥ ९५७ ॥ अधुना भावार्थः प्रयोगैर्निदश्यते-तत्र कर्मविमुक्तो जीवः सकृदू मेवाऽऽलोकाद्गच्छति, असङ्गत्वेन तथाविधपरिणामत्वादष्टमृत्तिकालेपलिताधोनिमग्नक्रमापनीतमृत्तिकालेपजलतलमर्यादोर्ध्वगामितथाविधालाबुवत् तथा छिन्नबन्धनत्वेन तथाविधपरिणतेस्तद्विधैरण्डफलवत तथा स्वाभाविकपरिणामत्वादग्निधूमवत् तथा पूर्वप्रयुक्ततक्रियातथाविधसामर्थ्यानुप्रयत्लेरितेषुवद्, इषुः-शर इति गाथार्थः ॥ ९५७ ॥ एवं प्रतिपादिते सत्याह कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइडिया । कहिं बोंदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झई ॥९५८ ॥ व्याख्या-कप्रतिहता'क्व प्रतिस्खलिता इत्यर्थः 'सिद्धा'मुक्काः, तथा 'क्क सिद्धाः प्रतिष्ठिताः'क्व व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा 'क बोन्दि त्यक्त्वा' क तर्नु परित्यज्येत्यर्थः, इह बोन्दिः तनुः शरीरमित्यनर्थान्तरं, तथा व मत्वा 'सिध्यन्ति' निष्ठितार्था अनुक्रम Patangibrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | सिद्ध-जीवानाम् गति, स्थिति, स्थान आदिनाम् वर्णनं -~-20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक हारिभ द्वीया ॥४४२ ॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [–], मूलं [१/ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९५८], भाष्यं [१५१...] भवन्ति इत्यनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, अथवैकवचनतोऽप्येवमुपन्यासः सूत्रशैल्याऽविरुद्ध एव यतोऽन्यत्रापि प्रयोगः- ॐ नमस्का • 'वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जेण भुंजंति ण से चाइति बुच्चई ॥ १ ॥ इत्यादि गाथार्थः वि० १ ॥ ९५८ ॥ इत्थं चोदकपक्षमधिकृत्याऽऽह- अलोए पहिया सिडा, लोअग्गे अ पट्टिभ । इहं बोंदिं वहता णं, तत्थ मंतॄण सिज्झई ॥ ९५९ ॥ व्याख्या- 'अलोके' केवलाकाशास्तिकाये 'प्रतिहताः' प्रतिस्खलिताः सिद्धा इति, इह च तत्र धर्मास्तिकायाद्यभावात् तदानन्तर्यवृत्तिरेव प्रतिस्खलनं, न तु सम्बन्धिविधातः, प्रदेशानां निष्प्रदेशत्वादिति सूक्ष्मधिया भावनीयं, तथा 'लोकाग्रे च' पञ्चास्तिकायात्मक लोकमूर्धनि च प्रतिष्ठिताः, अपुनरागत्या व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा 'इह' अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तः 'बोन्दि' तनुं 'त्यक्त्वा' परित्यज्य सर्वथा किम् ? ' तत्र' लोकार्थं 'गत्वा' अस्पृशद्गत्या समयप्रदेशान्तरमस्पृशन्नित्यर्थः, 'सिध्यन्ति' निष्ठितार्था भवन्ति सिद्ध्यति वेति गाथार्थः ॥ ९५९ ॥ तत्र 'लोकाम्रे च प्रतिष्ठिता' इति यदुक्तं तदङ्गीकृत्याssहक पुनर्लोकान्त इत्यत्रान्तरमाह ईसीप भाराए सीआए जोअणमि लोगंतो । बारसहिं जोअणेहिं सिद्धी सब्बहसिद्धाओ ।। ९६० ॥ व्याख्या – ईषत्प्राग्भारा-सिद्धिभूमिस्तस्याः 'सीताया' इति द्वितीयं भूमेर्नामधेयं योजने लोकान्त ऊर्ध्वमिति गम्यते, अध १] [लोकान्ता लोकायोः संगतत्वात् सिद्धानां च लोकान्तावस्थाननियमात् अलोकप्रदेशेष्वंशेन गत्वा निवर्त्तनरूपं स्खलनं प्रदेशानां निष्प्रदेशत्वाच संगतम्, अमे तु धर्माद्यभावाच खादेव गमनं * संबन्धे विधातः For Funny ॥४४२॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः सिद्धशीलायाः वर्णनं ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९६०], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्रांक स्तिर्यक् चैतावति क्षेत्रे तदसम्भवात् , तथा चाऽऽह-द्वादशभिर्योजनैः सिद्धिः ऊर्ध्वं भवति, कुतः सर्वार्थसिद्धाद् । विमानवरात्, अन्ये तु 'सिद्धि' लोकान्तक्षेत्रलक्षणामेव व्याचक्षते, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति गाथार्थः ॥ ९६० ॥1 साम्प्रतमस्या एव स्वरूपव्यावर्णनायाहनिम्मलदगरयवण्णा तुसारगोखीरहारसरिवन्ना । उत्ताणयछत्सयसंठिआ य भणिया जिणवरेहिं ॥ ९६१॥ __ व्याख्या-निर्मलदगरजोवर्णाः, तत्र दगरजः-इलक्ष्णोदककणिकाः, तुषारगोक्षीरहारतुल्यवर्णाः, तुषारः-हिम, गोक्षी-13 रादयः प्रकटार्थाः । संस्थानमुपदर्शयन्नाह-उत्तानच्छत्रसंस्थिता च भणिता जिनवरैरिति, उत्तानच्छत्रवत् संस्थितेति | गाधार्थः ॥ ९६१ ॥ अधुना परिधिप्रतिपादनेनास्या एवोपायतः प्रमाणमभिधित्सुराहएगा जोअणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई। तीसं चेव सहस्सा दो चेव सया अउणवन्ना ॥ ९६२ ।। व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरं पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणक्षेत्रस्याल्पमन्यत् परिध्याधिक्यं प्रज्ञापनातोऽवसेयम्, इहौधत इदमिति ॥९६२॥ इदानीमस्या एव बाहुल्य प्रतिपादयन्नाहबहुमज्झदेसभागे अद्वेव य जोअणाणि बाहल्लं । चरमंतेसु अ तणुई अंगुलऽसंखिजईभागं ॥ ९६३ ।। व्याख्या-मध्यदेशभाग एव बहुमध्यदेशभागस्तस्मिन्नष्टैव योजनानि बाहुल्यम्-उच्चैस्त्वं 'चरिमान्तेषु' पश्चिमान्तेषु तन्वी, कियता तनुत्वेन ? इत्यत्राह-अङ्गुलासययभार्ग यावत् तन्वीति गाथार्थः ॥ ९६३ ॥ सा पुनरनेन क्रमेणेत्थं । तन्वीति दर्शयति अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-1, मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९६४], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार वि०१ द्रीया ཟླ 564 आवश्यक- गंतण जोअणं जोअणं तु परिहाइ अंगुलपुहत्तं । तीसेविअ परंता मच्छिअपत्ताउ तणुअयरा ॥ ९६४॥ हारिभ-8 Pा व्याख्या-गत्वा योजनं योजनं तु वीप्सा परिहायईत्ति परिहीयते 'अङ्गुलपृथक्त्वं' पृथक्त्वं पूर्ववत्, 'एवम्' अनेन प्रकारेण हानिभावे सति तस्या अपि च पर्यन्ताः, किं-मक्षिकापत्रात् तनुतरा घृतपूर्णतथाविधकरोटिकाकारेति माथार्थः ॥९॥ ॥४४॥ स्थापना चेयं । अस्थाश्चोपरि योजनचतुर्विशतिभागे सिद्धा भवन्तीति ।। अत एवाऽऽह ईसीपन्भाराए सीआए जोअणमि जो कोसो। कोसस्स य छन्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिआ॥ ९६५ ॥ व्याख्या-ईषत्प्रारभारायाः सीताया इति पूर्ववत्, 'योजने' उपरिवर्तिनि यः क्रोश उपरिवत्येव, क्रोशस्य च तस्य पडूभागे' उपरिवर्तिन्येव सिद्धानामवगाहना भणिता, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता इति वचनाद्, अयं माथार्थः ॥ ९६५॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्नाहतिनि सया तित्तीसा धणुत्तिभामो अ कोसछम्भाओ। परमोगाहोऽयं तो ते कोसस्स छभाए ॥९६६ ॥ व्याख्या-त्रीणि शतानि धनुषां त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुस्त्रिभागश्च क्रोशषडूभागो वर्तते 'यत्' यस्मात् परमावगाहोऽयं सिद्धानामिति वर्तते, ततस्ते कोशस्य षड्भाग इति गाथार्थः ॥ ९६६ ॥ अथ कथं पुनस्तत्र तेषामुपपातोऽव गाहना वेत्यत्रोच्यतेदाउत्ताणउच्च पासिल्लउच्च अहवा निसन्नओ चेव । जो जह करेइ कालं सो तह उववजए सिहो ॥९३७॥ व्याख्या-उत्तानको वा पृष्ठतो वा अर्धावनतादिस्थानतः पार्थस्थितो वा तिर्यस्थितो वा, अथवा निष्पन्न(पण्ण)कश्चैव བ བྷཾ ༔ G ॥४४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९६७], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक इति प्रकटार्थ, किंबहुना !, यो 'यथा' येन प्रकारेणावस्थितः सन् करोति कालं स 'तथा' तेन प्रकारेणोपपद्यते सिद्ध इति गाथार्थः ॥९६७ ॥ किमित्येतदेवम् ! इत्यत आह इहभवभिन्नागारो कम्मवसाओ भवंतरे होइ । न य तं सिद्धस्स जओ तंमी तो सो तयागारो॥९६८ ॥ का व्याख्या-बहभवभिन्नाकारः 'कमेवशात्' कमेवशेन 'भवान्तरे' स्वगोंदी भवति, तदाकारभेदस्य कर्मनिवन्धनत्वात, न च कर्म सिद्धस्य, यतः तस्मिन्' अपवर्गे ततोऽसौ सिद्धः तदाकार' पूर्वभवाकार इति गाथार्थः ॥९६८॥ तथा किंच जं संठाणं तु इह भवं चयंतस्स चरमसमयंमि । आसी अपएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥९६९॥ व्याख्या-यत् संस्थानमव 'भवं' संसारं मनुष्यभवं वा त्यजतः सतश्चरमसमये आसीत् प्रदेशघनं तदेव संस्थान तत्र तस्य भवति, विभागेन रन्धापूरणादिति गाथार्थः ॥ ९९९ ॥ तथा चाऽऽहदीहं वा हस्सं वाजं चरमभवे हविज संठाणं । तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिआ ॥ ९७०॥ व्याख्या-दीर्घ वा' पञ्चधनु शतप्रमाणं 'इस्वं वा' हस्तद्वयप्रमाण, वाशब्दात् मध्यम वा विचित्रं यत् 'चरमभवे' पश्चिमभवे भवेत् संस्थानं 'ततः तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना, कुतः-त्रिभागेन शुषिरपूरणात् , सिद्धानामवगाहना, अवगाहन्तेऽस्यामवस्थायामित्यवगाहना-स्वावस्थैवेति भावः, 'भणिता' उक्का तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः ॥ ९७०॥ साम्प्रतमुत्कृष्टादिभेदभिन्नामवगाहनामभिधित्सुराहतिनि सया तित्तीसा घणुत्तिभागो अहोइ बोद्धव्यो । एसा खलु सिद्धार्ण उक्कोसोगाहणा भणिआ॥९७१॥ अनुक्रम DActorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९७१], भाष्यं [१५१...] ཟླ प्रत सूत्रांक आवश्यक-चत्तारि अ रयणीओ रयणितिभागूणिआ य बोद्धव्वा । एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिआ॥९७२॥ नमस्कार हारिभ- जाएगा य होइ रयणी अहेव य अंगुलाइ साहीआ। एसा खलु सिद्धाणं जहन्नओगाहणा भणिआ ॥ ९७३ ॥ वि०१ द्रीया व्याख्या-एतास्तिस्रोऽपि निगदसिद्धाः, नवरमाक्षेपपरिहारौ भाष्यकृतोती, ती चेमी-'किह मरुदेवीमाणं? नाभीओ ॥४४॥ जेण किंचिदूणा सा । तो किर पंचसयं चिय अहवा संकोयओ सिद्धा॥१॥ सत्तूसिएसु सिद्धी जहन्नओ किहमिहं बिह त्थेसु । सा किर तित्थकरेसुं सेसाणं सिज्ममाणाणं ॥२॥ ते पुण होज बिहत्था कुम्मापुत्तादओ जहन्ने] । अन्ने संवट्टियसत्तहत्थसिद्धस्स हीणत्ति ॥३॥ बाहुल्लतो य सुत्तमि सत्त पंच य जहन्नमुक्कोस । इहरा हीणन्भहियं होजंगुलधणुपु-18 हुत्तेहिं ॥४॥ अच्छेरयाइ किंचिवि सामन्नसुए ण देसियं सर्व । होज व अणिबद्धं चिय पंचसयादेसवयणं व ॥५॥ इत्यादि कृतं प्रसङ्गेन । साम्प्रतमुक्तानुवादेनैव संस्थानलक्षणं सिद्धानामभिधातुकाम आह ओगाहणाइ सिद्धा भवतिभागेण हुँति परिहीणा । संठाणमणित्वंत्थं जरामरणविप्पमुक्काणं ॥ ९७४ ॥ अनुक्रम [१] ॥४४४॥ कथं मरुदेवीमानं ?, नाभितो येन किजिदूना सा । ततः किल पञ्चशतमेव अथवा संकोचतः सिद्धा ॥१॥ सप्लोटितेषु सिद्धिः जयन्यतः कथमिड | द्विवसेषु । सा किन तीर्थकराणां शेषाणां सिध्यताम् ॥ २॥ ते पुनर्भवेयुर्विदस्ताः कर्मापुत्रादयो जघन्वेन । अन्ये संवर्तितसप्तहस्तसिदा हीनेति ॥ ३ ॥ बाहुल्यतश्च सूत्रे सप्त पञ्च (भतानि) जघन्या उस्कृष्टा (प) इतरया हीनमभ्यधिक (क्रमशः) भवेदखलधनुःषक्तवैः ।। ॥ आत्रादि (मानयतया) किश्चिदपि सामान्धभुते न देशितं सर्वम् । भवेद्वाऽनियमेव पञ्चशतानादेववचनवत् ॥ ५॥ ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: -~-25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९७४], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरम् 'अनित्धंस्थम्' इतीदंप्रकारमापन्नमित्वम् इथं तिष्ठतीति इत्थस्थं न इत्थस्थं अनिस्थस्थमिति केनचित् प्रकारेण लौकिकेनास्थितमित्यर्थः ॥ ९७४॥ आह-ओषत एते किं देशभेदेन स्थिता ? उत नेति !, नेत्याह-कुत इति ?, अत्रोच्यते, यस्मात् जस्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अन्नन्नसमोगाढा पुड्डा सब्वे अ लोगते ॥ ९७५॥ व्याख्या-यत्रैव देशे चशब्दस्यैवकारार्थत्वात् एकः 'सिद्धः निर्वृतः, तत्रानन्ताः किं ?,-'भवक्षयविमुक्ता' इति भवक्षयेण विमुक्काः भवक्षयविमुक्काः, अनेन पुनः खेच्छया भवावतरणशक्तिमसिद्धव्यवच्छेदमाह, अन्योऽन्यसमवगाढा, तथाविधाचिन्त्यपरिणामवत्त्वात्, धर्मास्तिकायादिवत् , 'पुडा सबे य लोगते'त्ति स्पृष्टाः-लग्नाः सर्वे च लोकान्ते, अथवा स्पृष्टः सर्वैश्च लोकान्त इति, लोकाने च प्रतिष्ठिता इति वचनाद्, अयं गाथार्थः ॥ ९७५ ॥ तथाफुसइ अणंते सिद्धे सब्बपएसेहि निअमसो सिद्धो। तेऽवि असंखिजगुणा देसपएसेहिं जे पुठा ॥ ९७६ ॥ व्याख्या-स्पृशत्यनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेशैः आत्मसम्बन्धिभिः 'नियमात्' नियमेन सिद्ध इति, तथा तेऽप्यसअमेयगुणा वर्तन्ते देशप्रदेशैर्ये स्पृष्टाः, तेभ्यः सर्वदेशप्रदेशस्पृष्टेभ्यः, कथं :-सर्वात्मप्रदेशैरनन्ताः स्पृष्टाः, तथैकैकप्रदेशेना[प्यनन्ता एव, स चासङ्ख्येयप्रदेशात्मकः, ततश्च मूलानन्तकं सकलजीवप्रदेशासोयानन्सकैर्गुणितं यथोक्तमेव भवतीति गावाः ॥ ९७६ ॥ स्थापना चेयं साम्प्रतं सिद्धानेव लक्षणतः प्रतिपादयशाह अनुक्रम JAMERatun international पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९७७], भाष्यं [१५१...] आवश्यक हारिभद्रीया | वि०१ ॥४४५|| CASSESSAGE असरीरा जीवघणा उवउत्ता दसणे अ नाणे । सागारमणागारं लक्खणमेअं तु सिद्धाणं ॥ ९७७ ॥ नमस्कार | व्याख्या-अविद्यमानशरीराः, औदारिकादिपञ्चविधशरीररहिता इत्यर्थः, जीवाश्चेति धनाश्चेति विग्रहः, घनग्रहणं | 2 शुपिरापूरणाद्, उपयुक्ताः, क?, 'दर्शने च' केवलदर्शने 'ज्ञाने च' केवल एवेति, इह च सामान्यसिद्धलक्षणमेतदिति ज्ञापनार्थं सामान्यालम्बनदर्शनाभिधानमादावदुष्टमिति, तथा च सामान्यविषयं दर्शनं विशेषविषयं ज्ञानमिति, ततश्च साकारानाकारं सामान्यविशेषरूपमित्यर्थः, 'लक्षणं' तदन्यव्यावृत्तं स्वरूपमित्यर्थः 'एतद् अनन्तरोत, तुशब्दो वक्ष्यमाणनिरुपमसुखविशेषणार्थः, 'सिद्धानां' निष्ठितार्थानामिति गाथार्थः ॥ ९७७ ॥ साम्प्रतं केवलज्ञानदर्शनयोरशेषविषयतामुपदर्शयति|केवलनाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवल दिहीहिणताहि ॥ ९७८ ॥ व्याख्या-केवलज्ञानेनोपयुक्ताः केवलज्ञानोपयुक्ताः न त्वन्तःकरणेन, तदभावादिति,किं ?, 'जानन्ति' अवगच्छन्ति सर्व|भावगुणभावान्' सर्वपदार्थगुणपर्यायानित्यर्थः, प्रथमो भावशब्दः पदार्थवचनः द्वितीयः पर्यायवचन इति, गुणपर्यायभेदस्तु सहवर्तिनो गुणाः क्रमवर्तिनः पर्याया इति, तथा 'पश्यन्ति सर्वतः खलु' खलुशन्दस्यावधारणार्थत्वात् सर्वत एव, केवलदृष्टिभिरनन्ताभिः' केवलदर्शनैरनन्तैरित्यर्थः, अनन्तत्वात सिद्धानामिति, इह चाऽऽदौ ज्ञानग्रहणं प्रथमतया ॥४४॥ तदुपयोगस्थाः सिद्धान्तीति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ९७८॥ आह-किमेते युगपज्जानन्ति पश्यन्ति च ? इत्याहोश्विदयुगपदिति, अत्रोच्यते, अयुगपत् , कथमवसीयते ?, यत आह पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९७९], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक नाणंमि दसणमि अ इत्तो एगयरयंमि उवउत्ता । सव्यस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा ॥९७९ ॥ CI व्याख्या-ज्ञाने दर्शने च एत्तोत्ति अनयोरेकतरस्मिन्नुपयुक्ताः,किमिति !, यतः सर्वस्य केवलिनः सत्त्वस्य 'युगपद्' एकPस्मिन् काले द्वौ न स्तः उपयोगी, तत्स्वाभाव्यात्, क्षायोपशमिकसंवेदने तथादर्शनात् , अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥९७९ ॥ साम्पतं निरुपमसुखभाजश्च त इत्येतदुपदर्शयन्नाहनवि अत्थि माणुसाणं तं सुक्खं नेव सब्बदेवाणं । सिहाणं सुक्खं अब्बाबाहं उचगयाणं ॥९८० ॥ व्याख्या नैवास्ति 'मानुषाणां' चक्रवर्त्यादीनामपि तत् सौख्य, नैव 'सर्वदेवानाम्' अनुत्तरसुरपर्यन्तानामपि, यत् सिद्धानां सौख्यम् , 'अव्याबाधामुपगताना मिति तत्र विविधा आबाधा व्याबाधा न व्याबाधा अव्याबाधा तामुपसामीप्येन गतानां प्राप्तानामिति गाथार्थः ॥ ९८० ॥ यथा नास्ति तथा भङ्गयोपदर्शयति सुरगणसुहं समत्तं सब्बद्धापिंडिअं अर्णतगुणं । न य पावइ मुत्तिसुहंऽणताहिवि वग्गवरगर्हि ॥ ९८१ ॥ व्याख्या-'सुरगणसुखं' देवसङ्घातसुखं 'समस्त' सम्पूर्णम् अतीतानागतवर्तमानकालोद्भवमित्यर्थः, पुनश्च 'सबद्धा-| पिंडिअं' सर्वकालसमयगुणितं, तथाऽनन्तगुणमिति, तदेवंप्रमाणं किलासद्भावकल्पनयैकैकाकाशप्रदेशे स्थाप्यते, इत्येवं | सकललोकालोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणेनानन्तं भवति, न च प्रामोति तथाप्रकर्षगतमपि 'मुक्तिसुखं' सिद्धिसुखम् , अन|न्तैरपि वर्गवगैर्गितमिति गाथार्थः ॥ ९८१॥ तथा चैतदभिहितार्थानुवाद्येवाऽऽह ग्रन्थकार:सिद्धस्स सुहो रासी सम्बद्धापिंडिओ जब हविजा । सोऽणतबग्गभइओ सव्वागासे न माइजा ॥ ९८२॥ अनुक्रम JamEairatna पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१ / गाथा -], निर्युक्तिः [९८२ ], भाष्यं [१५१...] आवश्यक- ४४ नमस्कार० द्वीया ॥४४६ ।। व्याख्या– सिद्धस्य सम्बन्धिभूतः सुखराशिः, सुखसङ्गात इत्यर्थः, 'सर्वाद्धापिण्डितः' सर्वकालसमय गुणितः यदि हारिभ- ॐ भवेदित्यनेन कल्पनामात्रतामाह, सः 'अनन्तवर्गभक्तः' अनन्तवर्गापवर्गितः सन् समीभूत एवेति भावार्थ:, 'सर्वाकाशे' वि० १ 1) लोकालोकाकाशे न मायात्, अयमत्र भावार्थ:-इह किल विशिष्टाह्रादरूपं सुखं गृह्यते, ततश्च यत आरभ्य शिष्टानां ४ सुखशब्दप्रवृत्तिः तमाह्लादमवधीकृत्यैकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावदसावाहादो विशेष्यते यावदनन्तगुणवृद्ध्या निरतिशयगुणनिष्ठां गतः, ततश्चासावत्यन्तोपमाती तै कान्तौत्सुक्य विनिवृत्तिस्तिमिततमकल्पश्चरमाह्लाद एव सदा सिद्धानामिति, तस्मां| चारतः प्रथमाच्चोर्ध्वमपान्तरालवर्तिनो ये गुणतारतम्येनाह्लादविशेषास्ते सर्वाकाशप्रदेशादिभ्योऽपि भूयांस इत्यतः किलोकं 'सुवागासे ण माएज' तीत्यादि, अन्यथा नियतदेशावस्थितिः तेषां कथमिति सूरयोऽभिदधतीति, तथा चैतत्संवाद्यार्षवेदेऽप्युक्तम्, इत्यलं व्यासङ्गेनेति गाथार्थः ॥ ९८२ ॥ साम्प्रतमस्यैवं भावस्यापि सतः निरुपमतां प्रतिपादयन्नाह - |जह नाम कोई मिच्छो नगरगुणे बहुविहे विआणतो । न चएइ परिकहेउं उवमाइ तहिं असंतीए ॥ ९८३ ॥ व्याख्या -- यथा नाम कश्चित् म्लेच्छः 'नगरगुणान्' सगृहनिवासादीन् 'बहुविधान्' अनेकप्रकारान् विजानन्नरण्यगतः सन्नन्यम्लेच्छेभ्यो न शक्नोति परिकथयितुं, कुतो निमित्तात् ?, इत्यत आह-उपमायां तत्रासत्यामिति गाथाक्षरार्थः ॥ ९८३ ॥ भावार्थः कथानकावसेयः तच्चेदम्- ऐगो महारण्णवासी मिच्छो रण्णे चिट्ठइ, इओ य एगो राया आसेण अवहरिवं तं अडविं पवेसिओ, तेण दिट्ठो, सकारेऊण जणवयं णीओ, रण्णावि सो जयरं, पच्छा उवयारिति गाढमुवचरिओ एको महारण्यवासी म्लेच्छोरण्ये तिष्ठति, इतबैको राजाऽश्वेनापहत्य वामटवी प्रवेशितः, तेन दृष्ट, सरकार्य जनपदं नीतः, राज्ञाऽपि स नगरं, पञ्चादुपकारीति गाढमुपचरितः, For Farina Pts at Use Only ।।४४६ ॥ ~29~ abray org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९८३], भाष्यं [१५१...] *** S प्रत सूत्रांक जहा राया तहा चिहइ धवलघराईभोगेणं, विभासा,कालेण रणं सरिउमारद्धो, रण्णा विसजिओ गओ, रण्णिगा पुच्छंतिकेरिसं णयरंति !, सो विआणतोऽवि तत्थोवमाऽभावा ण सक्कइणयरगुणे परिकहिउँ । एस दिहतो, अयमत्थोवणओत्ति इअ सिद्धाणं सुक्खं अणोवम नत्थि तस्स ओवम्म। किंचि विसेसेणित्तोसारिक्खमिणं सुणह वुच्छं ॥९८४॥ व्याख्या-'इय' एवं सिद्धानां सौख्यमनुपमं वर्तते, किमित्यत आह-यतो नास्ति तस्यौपम्यमिति, तथाऽपि बालजनप्रतिपत्तये किश्चिद्विशेषेण 'एत्तो'त्ति आर्षत्वादस्य सादृश्यमिदं वक्ष्यमाणलक्षणं शृणुत, वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ जह सब्चकामगुणिअं पुरिसो भोत्तूण भोअणं कोइ । तोहाबुहाविमुक्को अच्छिज्ज जहा अमिअतित्तो॥९८५॥ व्याख्या-'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः 'सर्वकामगुणितं' सकलसौन्दर्यसंस्कृतं पुरुषो भुक्त्वा भोजनं कश्चित्, भुज्यत इति भोजन, तक्षुद्विमुक्तः सन् आसीत यथाऽमृततृप्तः, अबाधारहितत्वाद्, इह च रसनेन्द्रियमेवाधिकृत्येष्टविषयप्राप्त्यौत्सुक्यविनिवृत्त्या सुखप्रदर्शनं सकलेन्द्रियार्थावाप्याऽशेषौत्सुक्यनिवृत्त्युपलक्षणार्थम्, अन्यथा वाधान्तरसम्भवात् सुखाभाव इति, उक्तं च-"वेणुवीणामृदङ्गादिनादयुक्तेन हारिणा । श्लाघ्यस्मरकथाबद्धगीतेन स्तिमितः सदा ॥१॥ कुट्टिमादौ विचित्राणि, रष्टा रूपाण्यनुत्सुकः । लोचनानन्ददायीनि, लीलावन्ति स्वकानि हि ॥२॥ अम्बरागुरुकपूरधूपगन्धानि-त तस्ततः। पटवासादिगन्धांश्च, व्यक्तमाघ्राय निःस्पृहः॥३॥ नानारससमायुक्तं, भुक्त्वाऽनमिह मात्रया। पीत्वोदकं च १ यथा राजा तथा तिष्ठति धवलगृहाविभोगेन, विभाषा, कालेनारण्यं समारब्धः, राज्ञा विसृष्टो गतः, भारण्यकाः पृच्छन्ति-कीदर्श नगरमिति, स विजानमपि तत्रोपमाऽभावान शनोति नगरगुणान् परिकवयितुं । एष ष्टान्ता, भयमत्रोपमय इति । ICAISESSARAS अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक तृप्तात्मा स्वादयन् स्वादिमं शुभम् ॥ ४ ॥ मृदुतूलीसमाक्रान्तदिव्यपर्यङ्कसंस्थितः । सहसाऽम्भोदसंशब्दश्रुतेर्भयघनं हारिभ- * भृशम् ॥ ५ ॥ इष्टभार्यापरिष्वक्तैस्तद्रतान्तेऽथवा नरः । सर्वेन्द्रियार्थसम्प्राध्या, सर्ववाधानिवृत्तिअम् ॥ ६ ॥ यद्वेदयति द्रीया 2 शं हृद्यं, प्रशान्तेनान्तरात्मना । मुक्तात्मनस्ततोऽनन्तं सुखमाहुर्मनीषिणः ॥ ७ ॥” इति गाथार्थः ॥ ९८५ ॥ ||४४७ ॥ ४ इअ सव्वकालतित्ता अडलं निव्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमव्याबाहं चिर्हति सुही सुहं पत्ता ॥ ९८३ ॥ Jus Educa [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [–], मूलं [१/ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९८५], भाष्यं [१५१...] व्याख्या- 'इअ' एवं सर्वकाल तृप्ताः स्वस्वभावावस्थितत्वात्, अतुलं निर्वाणमुपगताः सिद्धाः, सर्वदा सकलौत्सुक्यविनिवृत्तेः, यतश्चैवमतः 'शाश्वतं ' सर्वकालभावि 'अब्याबाधं' व्यावाधापरिवर्जितं सुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तस्तिष्ठन्तीति योगः । सुखं प्राप्ता इत्युक्ते सुखिन इत्यनर्थकं, न, दुःखाभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तवसुखप्रतिपादनार्थत्वादस्य, तथाहि-अशेषदोषक्षयतः शाश्वतमव्याबाधं सुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तस्तिष्ठन्ति न तु दुःखाभावमात्रान्विता एवेति गाथार्थः ॥ ९८६ ॥ साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपर्याय शब्दान् प्रतिपादयन्नाह सिद्धत्ति अ बुद्धत्ति अ पारगयत्ति अ परंपरगयत्ति । उम्मुककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥ ९८७ ॥ व्याख्या- 'सिद्धा इति च' कृतकृत्यत्वात् 'बुद्धा इति च' केवलेन विश्वावगमात् 'पारगता इति च' भवार्णवपारगमनात् 'परम्परागता इति च' पुण्यवीजसम्यक्त्वज्ञान चरणक्रमप्रतिपत्त्युपायमुक्तत्वात् परम्परया गताः परम्परागता उच्यन्ते, * परिव्यक० + प्रतिपत्योपाय • मार्च For Parts Only नमस्कार० वि० १ ~31~ ॥४४७॥ bray org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९८७], भाष्यं [१५१...] SAGAR प्रत सूत्रांक उन्मुक्तकर्मकवचाः सकलकर्मवियुक्तत्वात् , तथा अजरा वयसोऽभावात् , अमरा आयुषोऽभावात् , असङ्गाश्च सकलले. | शाभावादिति गाथार्थः ॥ ९८७ ॥ साम्प्रतमुपसंहरन्नाहनिच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अव्वाबाहं सुक्खं अणुहुंती सासर्य सिद्धा ॥९८८ ॥ व्याख्या-वस्तुतो व्याख्यातैवेति न प्रतन्यते ॥ सिद्धाण नमोकारो जीवं० ॥ ९८९ ।। सिद्धाण नमुक्कारो धन्नाण०॥९९०॥सिद्धाण नमुक्कारो एवं० ॥ ९९१॥ सिद्धाण नमुक्कारो सव. विइ होइ मंगलं ॥९९२ ॥ ___ गाथासमूहः सामान्यतोऽर्हन्नमस्कारवदवसेयः, विशेषतस्तु सुगम एवेति ॥ उक्तः सिद्धनमस्काराधिकारः, साम्प्रतमाचार्यनमस्कारः, तत्राचार्य इति कः शब्दार्थः, उच्यते,-'चर गतिभक्षणयोः' इत्यस्य ( चरेः) आङि वा गुरा (पा० ३१-१०० वार्तिके ) विति ण्यति आचार्य इति भवति, आचर्यतेऽसावित्याचार्यः, कार्यार्थिभिः सेव्यत इत्यर्थः, अयं च नामादिभेदाच्चतुर्विधः, तथा चाऽऽहनामंठवणादविए भावमि चउव्विहो उ आयरिओ। दबंमि एगभविआई लोइए सिप्पसस्थाई ॥९९३ ॥ व्याख्या नामाचार्यः स्थापनाचार्यः द्रव्याचार्यो भावाचार्य इति, तत्र नामस्थापनाचायौं सुगमौ, द्रव्याचार्यमागमनोआगमादिभेदं प्रायः सर्वत्र तुल्यविचारत्वादनादृत्य ज्ञशरीरादिव्यतिरिक्त द्रव्याचार्यमभिधातुकाम आह|'द्रव्य' इति द्रव्याचार्यः, 'एकभविकादिः' एकभविकः बद्धायुष्कः अभिमुखनामगोत्रश्चेति, अथवा आदिशब्दाद् अनुक्रम JamEaiau पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'आचार्य' अर्थ, चतुर्विध-भेदाः, स्वरुपम्, तस्य नमस्कारस्य फ़लम् ~32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९९३], भाष्यं [१५१...] नमस्कार. वि०१ प्रत सूत्रांक आवश्यक- द्रव्यभूत आचार्य द्रव्याचार्यः, भूतशब्द उपमावाची, द्रव्यनिमित्तं वा य आचारवानित्यादि, भावाचार्यः-लौकिको हारिभ-18/लोकोत्तरश्च, तत्र लौकिक: शिल्पशास्त्रादिः, तत्परिज्ञानात् तदभेदोपचारेणैवमुच्यते, अन्यथा शिल्पादिग्राहको द्रीया गृह्यते, अन्ये त्वेवं भेदमकृत्वौषत एवैनमपि द्रव्याचार्य ब्याचक्षत इति गाथार्थः ॥ ९९३ ।। अधुना लोकोत्तरान् भावा चार्यान् प्रतिपादयन्नाह॥४४॥ पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पभासंता। आयारं दंसंता आयरिया तेण बुचंति ॥ ९९४ ॥ व्याख्या-'पञ्चविध' पञ्चप्रकार-ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यभेदात्, 'आचार' मिति आइमर्यादायां चरणं चारःमर्यादया कालनियमादिलक्षणया चार आचार इति, उक्तं च-काले विणए बहुमाणे इत्यादि, तमाचरन्तः सन्तः अनुछानरूपेण, तथा प्रभाषमाणाः अर्थादू व्याख्यानेन, तथाऽऽचारं दर्शयन्तः सन्तः प्रत्युपेक्षणादिक्रियाद्वारेण, मुमुक्षुभिः सेव्यन्ते येन कारणेनाचार्यास्तेनोच्यन्त इति गाथार्थः ॥ ९९४ ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह आयारो नाणाई तस्सायरणा पभासणाओ वा । जे ते भावायरिया भावायारोवउत्ता य ॥ ९९५ ।। व्याख्या-आचारः' पूर्ववत् ज्ञानादिपञ्चप्रकारः, तस्य आचारस्याऽऽचरणात् प्रभाषणाद्वा, वाशब्दादू दर्शनाद्वा हेतोयें मुमुक्षुभिर्गुणैर्वा ज्ञानादिभिराचर्यन्ते ते भावाचार्या उच्यन्ते, एतच्चाऽऽचरणाद्यनुपयोगतोऽपि सम्भवति यतः अत आह-| भावाचारोपयुक्ताश्च भावार्थमाचारो भावाचारः तदुपयुक्ताश्चेति गाथार्थः ॥ ९९५ ॥ आयरियणमोकारो इत्यादिगाथाप्रपश्चः सामान्येनाहन्नमस्कारवदवसेयः विशेषतस्तु सुगम एवेति ।। अनुक्रम [१] ॥४॥ antarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९९५], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक उक्त आचार्यनमस्काराधिकारः ॥ साम्प्रतमुपाध्यायनमस्काराधिकारः, तत्रोपाध्याय इति कः शब्दार्थ; ?, उच्यते-'इङ् अध्ययने' इत्यस्य 'इडश्चेति (पा० ३-३-२१) पञ् उपाध्यायः, उपेत्याधीयतेऽस्मात् साधवः सूत्रमित्युपाध्यायः, सच नामादिभेदाच्चतुर्विध इति, आह चIM नामंठवणादविए भावंमि चउव्विहो उवज्झाओ । वे लोइअ सिप्पाइ निण्हगा वा इमे भावे ॥ ९९६ ॥ | व्याख्या-इयं हि तत्त्वत आचार्यगाथातुल्ययोगक्षेमेवेति न प्रतन्यते, नवरं निहवा वेति यदुक्तं तत्र ते घभिनिवेशदोषेणैकमपि पदार्थमन्यथा प्ररूपयन्तो मिथ्यादृष्टय एव इत्यतो द्रव्योपाध्याया इति ॥ | बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहेहिं । तं उवइसंति जम्हा उवझाया तेण वुचंति ॥ ९९७ ॥ व्याख्या-द्वादशाङ्ग आचारादिभेदात् 'जिनाख्यातः' अर्हत्प्रणीतः स्वाध्यायः वाचनानिवन्धनत्वात् इह सूत्रमेव गृह्यते, कथितः 'बुधैः गणधरादिभिः, य इति गम्यते, 'त' स्वाध्यायमुपदिशन्ति वाचनारूपेण यस्मात् कारणादुपाध्यायास्तेनोच्यन्ते, उपेत्याधीयतेऽस्मादित्यन्वर्थोपपत्तेरिति गाथार्थः ॥ ९९७ ॥ साम्प्रतमागमशैल्याऽक्षरार्थमधिकृत्योपाध्यायशब्दार्थ निरूपयन्नाहउत्ति उपओगकरणे ज्झत्ति अ झाणस्स होइ निद्देसे । एएण हुँति उज्झा एसो अन्नोऽवि पजाओ ॥ ९९८ ॥ । व्याख्या-उ इत्येतदक्षरं उपयोगकरणे वर्तते, ज्झ इति चेदं ध्यानस्य भवति निर्देशे, ततश्च प्राकृतशैल्या एतेन कार-| णेन भवति उज्झा, उपयोगपुरस्सरं ध्यानकर्तार इत्यर्थः, एषोऽन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः ॥ ९९८॥ अथवा अनुक्रम Siwaniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'उपाध्याय- अर्थ, विविध-व्याख्या:, चतुर्विध-भेदाः, इत्यादि ~34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९९९], भाष्यं [१५१...] आवश्यक RS हारिभ द्रीया प्रत ॥४४९॥ सूत्रांक उत्ति उवओगकरणे वत्तिा पावपरिवजणे होइ । झत्ति अ झाणस्स कए उत्ति अ ओसरणा कम्मे ॥ ९९९ ॥ नमस्कार वि०१ __व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरमुपयोगपूर्वकं पापपरिवर्जनतो ध्यानारोहणेन कर्माण्यपनयन्तीत्युपाध्याया इत्यक्षरार्थः, अक्षरार्थाभावे च पदाथाभावप्रसङ्गात्पदस्थ तत्समुदायरूपत्वादक्षरार्थः प्रतिपत्तव्य इत्यलं विस्तरेण ||९९९॥'उपज्झायनमोकारों' ४ इत्यादिगाधापूगः सामान्येनाहन्नमस्कारवदवसेयः, विशेषस्तु सुगम एवेति ॥ | उक्त उपाध्यायनमस्काराधिकारः ॥ साम्प्रतं साधुनमस्काराधिकारः, तत्र 'राध साध संसिद्धा' वित्यस्य उणूप्रत्ययान्तस्य | साधुरिति भवति, अभिलषितमर्थ साधयतीति साधुः, स च नामादिभेदतः, तथा चाऽऽहनामं १ ठवणासाहू २ दश्वसाहू अ ३ भावसाहू अ ४। व्बंमि लोइआई भावंमि अ संजओ साहू ॥१०००॥ व्याख्या-वस्तुतो गताथैवेति न विवियते ।। द्रव्यसाधून प्रतिपादयन्नाहघडपडरहमाईणि उ साहंता हुँति दब्बसाहुत्ति । अहवावि ब्वमूआ ते हुंती व्वसाहुत्ति ॥१००१॥ व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरमथवाऽपि 'द्रव्यभूता' इति भावपर्यायशून्याः ।। भावसाधून प्रतिपादयन्नाहनिव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहति साहुणो । समा य सब्बभूएमु, तम्हा ते भावसाहुणो ॥१००२ ॥ ॥४४९॥ व्याख्या-निर्वाणसाधकान् 'योगान्' सम्यग्दर्शनादिप्रधानव्यापारान् यस्मात् साधयन्ति साधवः विहितानुष्ठानपर-14 त्वात् , तथा समाश्च सर्वभूतेष्विति योगप्राधान्यख्यापनार्थमेतत् , तस्मात्ते भावसाधव इति गाथार्थः ॥ १००२ ।। अनुक्रम CRORS JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | 'साधु'- अर्थ, विविध-व्याख्या:, चतुर्विध-भेदाः, इत्यादि ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१००३], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्रांक किं पिच्छसि साणं तवं व निअम व संजमगुणं वा । तो वंदसि साहणं? एअं मे पुच्छिओ साह ॥१००३ ॥ व्याख्या-निगदसिद्धा॥ विसयसुहनिअत्ताणं विसुद्धचारित्तनिअमजुत्ताणं । तच्चगुणसाहयाणं सदीयकिचजयाण नमो॥१००४॥ व्याख्या-निगदसिद्धैव, असहाइ सहायत्तं करंति मे संजर्म करितस्स । एएण कारणेणं नमामिऽहं सव्वसाहणं ॥१००५॥ व्याख्या-परमार्थसाधनप्रवृत्तौ सत्यां जगत्यसहाये सति प्राकृतशैल्या वाऽसहायस्य सहायत्वं कुर्वन्ति मम संयम ४ कुर्वतः सतः, अनेन प्रकारेण नमाम्यहं सर्वसाधुभ्य इति गाथार्थः ।। १००५ ॥ 'साहूण नमोकारो४ इत्यादिगाथाविस्तरः सामान्येनाहन्नमस्कारवदवसेयः, विशेषस्तु सुखोन्नेय इति कृतं प्रसङ्गेन । उक्तं वस्तुद्वारम् , अधुनाऽऽक्षेपद्वारावयवार्थप्रचिकटिषयेदमाह नेवि संखेवो व वित्थारु संखेवो दुविहु सिद्धसाहूणं । वित्थारओऽणेगविहो पंचविहो न जुज्जई तम्हा ॥१००६॥ व्याख्या-इहास्या गाथाया अंशकक्रमनियमाच्छन्दोविचितौ लक्षणमनेन पाठेन विरुध्यते 'न संखेवो' इत्यादिना, यत इहाद्य एव पञ्चमानोऽशकः इत्यतोऽपपाठोऽयमिति, ततश्चापिशब्द एवात्र विद्यमानार्थों द्रष्टव्यः, 'णवि संखेवो' इत्यादि, इह किल सूत्रं संक्षेपविस्तरद्वयमतीत्य न वर्तते, तत्र संक्षेपवत् सामायिकसूत्रं, विस्तरवञ्चतुर्दश पूर्वाणि, इदं १ सय २ साहण. ३ इतः प्राक् एसो पंचममुकारो' इत्यादिश्लोकः पुस्तकादशेषु, न च वृती व्याख्याता पूचितो वा सः। अनुक्रम JABERatinintinuation पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥४५०॥ Ja Educat [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [१/गाथा - ], निर्युक्ति: [१००६], भाष्यं [१५१...] पुनर्नमस्कार सूत्रमुभयातीतं यतोऽत्र न संक्षेपो नापि विस्तर इत्यपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, 'संक्षेपो द्विविध' इति यद्ययं संक्षेपः स्यात् ततस्तस्मिन् सति द्विविध इति द्विविध एव नमस्कारो भवेत्, सिद्धसाधुभ्यामिति कथं १, परिनिर्वृतार्हदादीनां सिद्धशब्देन ग्रहणात् संसारिणां च साधुशब्देनेति, तथा च नैते संसारिणः सर्व एव साधुत्वमतिलक्ष्य वर्तन्त इति, तदभावे शेषगुणाभावात्, अतस्तन्नमस्कार एवेतर नमस्कारभावात्, अथायं विस्तरः इत्येतदप्यचारु, यस्माद् विस्तरतोऽनेकविधः प्राप्नोति, तथा च- ऋषभाजितसम्भवाभिनन्दनसुमतिपद्मप्रभसुपार्श्वचन्द्रप्रभेत्यादिमहावीरवर्द्धमानस्वामिपर्यन्तेभ्यश्चतुर्विंशत्यर्हद्भयः, तथा सिद्धेभ्योऽपि विस्तरेण- अनन्तरसिद्धेभ्यः परम्परसिद्धेभ्यः प्रथमसमयसिद्धेभ्यः द्वितीयतृतीयसमयादिसङ्ख्या सङ्ख्येयानन्तसमयसिद्धेभ्यः, तथा तीर्थलिङ्गचारित्रप्रत्येकबुद्धादिविशेषणविशिष्टेभ्यः तीर्थकर - सिद्धेभ्यः अतीर्थकर सिद्धेभ्यः तीर्थसिद्धेभ्यः इत्येवमादिरनन्तशो विस्तरः, यतश्चैवमत आह-पक्षद्वयमप्यङ्गीकृत्य पञ्चविधः पञ्चप्रकारो न युज्यते यस्मान्नमस्कार इति गाथार्थः ॥ १००६ ॥ गतमाक्षेपेद्वारम् अधुना प्रसिद्धिद्वारावयवार्थ उच्यते तत्र यत्तावदुक्तं 'न संक्षेप' इति, तन्न, संक्षेपात्मकत्वात्, ननु स कारणवशात् कृतार्थाकृतार्थापरिग्रहेण सिद्धसाधुमात्रक एवोक्तः, सत्यमुक्तोऽयुक्तस्त्वसौ, कारणान्तरस्यापि भावात्, तन्त्रोक्तमेव, अथवा वक्ष्यामः 'हेतुनिमित्त'मित्यादिना, सति च द्वैविध्ये सकलगुणनमस्कारासम्भवादेकपक्षस्य व्यभिचारित्वात्, तथा चाऽऽह अरहंताई निअमा साहू साहू अ तेसु भइ अब्वा । तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो ॥ १००७/ व्याख्या - इहाईदादयो नियमात् साधवः, तद्गुणानामपि तत्र भावात् साधवस्तु 'तेषु' अर्हदादिषु 'भक्तव्याः' विकल्प For Parts Only नमस्कार० वि० १ ~37~ ॥४५०॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१००७], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक SHAXSISSCHIESS नीयाः, यतस्ते न सर्वेऽहंदादयः, किं तर्हि १, केचिदहन्त एव ये केवलिनः, केचिदाचार्याः सम्यक् सूत्रार्थविदः, केचिदुपाध्यायाः सूत्रविद एव, केचिदेतव्यतिरिकाः शिष्यकाः साधव एव, नार्हदादय इति, ततश्चैकपदव्यभिचारान्न तुल्याभिधानता, तन्नमस्करणे च नेतरनमस्कारफलमिति, प्रयोगश्च-साधुमात्रनमस्कारो विशिष्टाहदादिगुणनमस्कृतिफलप्राप-10 णसमर्थो न भवति, तत्सामान्याभिधाननमस्कारत्वात्, मनुष्यमात्रनमस्कारवत् जीवमात्रनमस्कारवद्वेति, तस्मात् पश्च-18 विध एव नमस्कारः, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, विस्तरेण च व्यक्त्यपेक्षया कर्तुमशक्यत्वात्, तथा-हेतुनिमित्त भवति सिद्ध' इति, तत्र हेतुर्नमस्कारार्हत्वे य उक्तः 'मग्गे अविप्पणासो'त्ति इत्यादि तन्निमित्तं चोपाधिभेदाद्भवति सिद्धः पश्चविध इति गाथार्थः ॥ १००७ ॥ गतं प्रसिद्धिद्वारम् , अधुना क्रमद्वारावयवार्थे प्रतिपादयन्नाहपुव्वाणुपुब्बि न कमो नेव य पच्छाणुपुब्वि एस भवे । सिद्धाईआ पढमा बीआए साहुणो आई ॥१००८ ॥ व्याख्या-इह क्रमस्तावद् द्विविधः-पूर्वानुपूर्वी च पश्चानुपूर्वी चेति, अनानुपूर्वी तु क्रम एव न भवति, असमञ्जसत्वात्, तत्रायमहँदादिक्रमः पूर्वानुपूर्वी न भवति, सिद्धाद्यनभिधानादू, एकान्तकृतकृत्यत्वेनाहन्नमस्कार्यत्वेन च सिद्धानां प्रधानत्वात्, प्रधानस्य चाभ्यर्हितत्वेन पूर्वाभिधानादिति भावार्थः, तथा नैव च पश्चानुपूर्येष क्रमो भवेत, साध्याद्यनभिधानात्, इह सर्वपाश्चात्याः अप्रधानत्वात् साधवः, ततश्च तानभिधाय यदि पर्यन्ते सिद्धाभिधानं स्यात् स्यात् पश्चानुपूवीति, तथा चामुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह-सिद्धाद्या प्रथमा-पूर्वानुपूर्वी, भावना प्रतिपादितैव, 'द्वितीयायां' पश्चानुपूया साधव आदी, युक्तिः पुनरप्यत्राभिहितैवेति गाथार्थः ॥ १००८ ॥ साम्प्रतं पूर्वानुपूर्वीत्वमेव प्रतिपादयन्नाह : - अनुक्रम Jaiorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१००९], भाष्यं [१५१...] (४०) वि०१ आवश्यक हारिभ द्रीया ॥४५॥ ཁ ༔ ༔ བློ अरहंतुवएसेणं सिडा नजंति तेण अरिहाई । नवि कोई परिसाए पणमित्ता पणमई रण्णो ॥ १००९॥ नमस्कार व्याख्या-इह 'अहंदुपदेशेन' आगमेन सिद्धाः 'ज्ञायन्ते' अवगम्यन्ते प्रत्यक्षादिगोचरातिक्रान्ताः सन्तो यतस्तेनाहेदा-IPI दिपूर्वानुपूर्वी क्रम इति गम्यते, अत एव चाहतामभ्यर्हितत्वं, कृतकृत्यत्वं चाल्पकालव्यवहितत्वात् प्रायः समानमेव, तथा अहंन्नमस्कार्यत्वमप्यसाधनम् , अर्हन्नमस्कारपूर्वकसिद्धत्वयोगेनार्हतामपि वस्तुतः सिद्धनमस्कार्यत्वात् प्रधानत्वादिति भावना, आह-यद्येवमाचार्यादिस्तहि क्रमः प्राप्तः, अर्हतामपि तदुपदेशेन संवित्तेरिति, अत्रोच्यते, न, इहाइसिद्धयोरेवाय वस्तुतस्तुल्यबलयोर्विचारः श्रेयान, परमनायकभूतत्वाद, आचार्यास्त तत्परिपत्कल्पा वर्तन्ते, नापि कश्चित् परिषद 'प्रणम्य' प्रणामं कृत्वा ततः प्रणमति राज्ञ इत्यतोऽचोद्यमेतदिति गाथार्थः ॥ १००९ ॥ उक्तं क्रमद्वारम्, अधुना प्रयोजनफलप्रदर्शनायेदमाहइत्थ य पोअणमिणं कम्मखओ मंगलागमो चेव । इहलोअपारलोइअ दुविह फलं तस्य दिटुंता ॥ १.१०॥ ___ व्याख्या-'अत्र च' नमस्कारकरणे प्रयोजनमिदं-यदुत करणकाल एवाक्षेपण 'कर्मक्षयः' ज्ञानावरणीयादिकमोप|गमः, अनन्तपुद्गलापगममन्तरेण भावतो नकारमात्रस्याप्यप्राप्तेरित्यादि भावितं, तथा मङ्गलागमश्चैव यःकरणकालभावीति, तथा कालान्तरभावि पुनरैहलौकिकपारलौकिकभेदभिन्नं 'द्विविध फलं' द्विप्रकारं फलं, 'तत्र दृष्टान्ताः' वक्ष्यमाणल-15॥५१॥ क्षणा इति गाथार्थः ॥ १०१०॥ इह लोइ अत्थकामारआरुग्गंअभिरई अनिष्फत्तीपा सिद्धी असग्गसुकुलप्पञ्चायाई८अ परलोए॥१०११॥ 511S - 2004C0 JAmEajatnix Satarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] न प्रत सूत्रांक MI व्याख्या-इह लोकेऽर्थकामौ भवतः, तथाऽऽरोग्यं भवति नीरुजत्वमित्यर्थः, एते चार्थादयः शुभविपाकिनोऽस्य भवन्ति, तथा चाह-अभिरतिश्च भवति, आभिमुख्येन रतिः-अभिरतिः इह लोकेऽर्थादिभ्यो भवति, परलोके च तेभ्य एवं शुभानुबन्धित्वान्निष्पत्तिः, पुण्यस्येति गम्यते, अथवाऽभिरतेश्च निष्पत्तिरित्येकवाक्यतैव, तथा 'सिद्धिश्च' मुक्तिश्च, तथा स्वर्गःसुकुलप्रत्यायातिश्च परलोक इत्यामुष्मिकं फलं ॥ इह च सिद्धिश्चेत्यादिक्रमः प्रधानफलापेक्ष्युपायख्यापनश्च (नार्थः), तथाहि-विरला एवैकभवेन सिद्धिमासादयन्ति, अनासादयन्तश्चाविराधकाः स्वर्गसुकुलोत्पत्तिमन्तरेण नावस्थान्तरमनुभवन्तीति गाथार्थः ॥१०११॥ साम्प्रतं यथाक्रममेवादीनधिकृत्योदाहरणानि प्रतिपादयन्नाह इहलोगंमि तिदंडी सादिव्वं २ माउलिंगवण ३ मेव । परलोइ चंडपिंगल ४ इंडिअ जकखो ५ अदिता।१०१२।। FI व्याख्या-अक्षरगमनिका सुज्ञेया, भावार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि चामूनि नमोकारो अस्थावहो, कहति?, उदा-18/ हरणं-जहा एगस्स सावगस्स पुत्तो धर्म न लएइ, सोऽवि सावओ कालगओ, सो विवहाराहओ एवं चेव बिहरह अन्नया तोसें घरसमीवे परिवायओ आवासिओ, सो तेण सम मित्तिं करेइ, अन्नया भणइ-आणेहि निरुवयं अणाहम-IN Cडयं जओ ते ईसरं करेमि, तेण मग्गिओ लद्धो उबद्धओ मणुस्सो, सो मसाणं णीओ, जं च तत्थ पाउग्गं । सो य दारओ। अनुक्रम नमस्कारोऽर्थावहः, कथमिति !, उदाहरणम्-यथैकस्य श्रावकस्य पुत्रो धर्म नाश्रयति, सोऽपि श्रावकः कालगतः, स व्यवहाराइत एवमेव विहरति । अन्यदा तेषां (श्रावकजनानां) गृहसमीपे परिवाजक आवासितः, स तेन समं मैत्री करोति, अन्यदा भणति-भानष निरुपहतं अनाथमृतक यतस्यां ईश्वर करोति, तेन मार्गितं लब्ध उददो मनुष्यः, स श्मशानं नीतः, यच तत्र प्रायोग्यं । स च दारक: * .ऽवि बाहिराहओ (व्यसनोपहतः)। JAmEastatinA wanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक आवश्यक- पियरिं नमोकार सिक्खाविओ, भणिओ य-जाहे बीहेजसि ताहे एवं पढिजसि, विजा एसा, सो तस्स मयगस्स पुरओ नमस्कार हारिभ- ठविओ, तस्स य मयगस्स हत्थे असी दिन्नो, परिवायओ विजं परियत्तेइ, उडिउमारद्धो वेयालो, सो दारओ भीओ हियएला वि०१ द्रीया नमोक्कारं परियट्टेइ, सो वेयालोपडिओ, पुणोऽवि जवेइ, पुणोवि उडिओ, सुडतरार्ग परियट्टेइ, पुणोऽवि पडिओ,तिदंडी भणइ॥४५२॥ [किंचि जाणसि!, भणइ-नत्थि, पुणोऽवि जवइ, ततियवारा, पुणोऽवि पुच्छिओ, पुणो णवकारं करेइ, ताहे वाणमंतरण रुसिएण तं खम्गं गहाय सो तिदंडी दो खंडीकओ, सुवन्नकोडी जाओ, अंगोवंगाणि य से जुत्तजुत्ताणि काउं सवरतिंबूढ़ इसरो जाओ नमोक्कारफलेणं, जइ ण होन्तो नमोकारो तो वेयालेण मारिजंतो, सो सुवन्नं होतो॥ कामनिष्फत्ती,-कह ! एगा साविगा तीसे भत्ता मिच्छादिही अन्नं भर्ज आणे मग्गइ, तीसे तणएणन लहह से सवत्तगति, चिंतेइ-किह मारेमि?, अण्णया कण्हसप्पो घडए छुभित्ता आणीओ, संगोविओ, जिमिओ भणइ-आणेहि पुष्पाणि अमुगे घडए ठवियाणि, सा पित्रा शिक्षितो नमस्कार, भणितब-यदा बिभीवास्तदैनं पठेः, विद्यैषा, स तस्य मृतकस्य पुरतः स्थापितः, तस्य च मृतकस्य हस्तेऽसिदत्तः, परिमाजको विद्या परिवर्तयति, स्थातुमारब्धो वैतालः, स दारको भीतो हदि नमस्कार परावर्तयति, स वैताल पतितः, पुनरपि जपति, पुनरप्युत्थितः, सुष्टुतरं परिवर्तयति. पुनरपि पतितः, त्रिदण्डी भणति-कित्रित् जानीये?, भणति-न, पुनरपि जपति, तृतीयवारं, पुनरपि पृष्टः, पुनर्नमस्कारं करोति (परावर्तयति), तदा व्यन्तरेण रुष्टेन संखङ्गं गृहीत्वा स त्रिदण्दी द्विस्खण्डीकृतः, सुवर्णकोटिकः (सुवर्णपुरुषः) जातः, भङ्गोपाङ्गानि च तस्य युक्तयुक्तानि (पृथक पृथक) करवा सर्वरात्रौ न्यूड ईश्वरो | जातो नमस्कारफलेन, यदि नाभविष्यनमस्कारस्तदा वैवालेनामारिष्यत् स (च) सौवर्णोऽभविष्यत् ॥ कामनिष्पतिः, कथम् !, एका भाविका तस्या भर्ता | | मिष्याष्टिरन्यां भायौं आनेतुं मार्गयति, तस्याः सम्बन्धेन न कभते तस्याः सापत्न्यामिति, चिन्तयति-कथं मास्यामि , अन्यदा कृष्णसो घटे क्षित्वाऽनीतः, ॥४५२॥ | संगोपित्तः, जिभितो भणति-भानव पुष्पाणि अमुकमिन् घटे स्थापितानि, सा* बोडी + जाया । छई अनुक्रम andiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक |विवा, अंधकारति नमोकार करेइ, जइवि मे कोइ खाएजा तोवि मे मरतीए नमोकारो ण नस्सहिति, हत्थो छूढो, सप्पो देवयाए अवहिओ, पुष्पमाला कया, सा गहिया, दिना य से, सो संभतो चिंतेइ-अन्नाणि, कहियं, गओ पेच्छइ घडगं पुप्फगंधं च, णवि इत्थ कोइ सप्पो, आउट्टो पायपडिओ सर्व कहेइ खामेइ य, पच्छा सा चेव घरसामिणी जाया, 18 एवं कामावहो ॥ आरोग्गाभिरई-एगं णयरं, णईए तडे खरकम्मिएण सरीरचिंताए निग्गएणं णईए वुझंतं माउलिंग दिई, हरायाए उवणीयं, सूयस्स हत्थे दिन्नं, जिमियस्स उवणीयं, पमाणणं अइरित्तं वन्नेण गंधेणं अइरितं, तस्स मणुसस्स तुट्ठो, भोगो दिण्णो, राया भणइ-अणुणईए मग्गह, जाव लद्धं, पत्थयणं गहाय पुरिसा गया, दिडो वणसंडो, जो गेण्हइ फलाणि सो मरइ, रणो कहियं, भणइ-अवस्सं आणेयवाणि, अक्खपडिया वच्चंतु, एवं गया आणेन्ति, एगो पविडो सो बाहिं दि उच्छुन्भइ, अन्ने आणति, सो मरइ, एवं काले वच्चंते सावगस्स परिवाडी जाया, गओ तत्थ, चिंतेइ-मा विराहियसामन्नो | प्रविष्टा, अन्धकारमिति नमस्कार करोति (गुणयति), यद्यपि मां कोऽपि खादेव नापि मम नियमाणाया नमस्कारो न नक्ष्यतीति, हस्तः क्षिप्त, सपों देवतयापहृतः, पुष्पमाला कृता, सा गृहीता, दत्ता च तम, स संभ्रान्तश्चिन्तयति-अन्यानि, कथितं, गतः पश्यति घटं पुष्पगन्धं च, नैवात्र कोऽपि सर्पः, भावजिंतः पादपतितः सर्व कथयति क्षमयति च, पश्चात्सैव गृहस्वामिनी जाता, एवं कामावहः ॥ आरोग्याभिरति:-एकं नगर, नद्यास्तीरे खरकर्मिकेण करीरचिन्तायै | निर्गतेन नचामुडमानं बीजपूरकं दृष्ट, राज अपनीतं, सूदस्य हस्ते दस, जिमत उपनीतं, प्रमाणेनातिरिकं वर्णेन गन्धेनातिरिक्तं तसै मनुष्याय तुष्टः, भोयो दत्तः, | राजा भणति-अनुनदि मार्गयत पावलम्ब (भवति), पध्वदनं गृहीत्वा पुरुषा गताः, दृष्टो वनखण्डः, यो गृहाति फलानि स म्रियते, राज्ञे कथितं, भणतिअवश्यमानेतव्यानि, अक्षपतिताः (अक्षपातनिकषा)बजन्तु, एवं गता आनयन्ति, एकः प्रविष्टः स बहिनिक्षिपति, मन्ये भारयन्ति, सनियते, एवं काले मजति वाचकस्य परिपाटी जाता, गतस्तत्र, चिन्तयति-मा विराधितश्रामण्यः अनुक्रम JAMERahale पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] (४०) द्रीया आवश्यक- कोइ होजत्ति निसीहिया नमोकारं च करेंतो दुक्कइ, वाणमंतरस्स चिंता, संबुद्धो, वंदइ, भणइ-अहं तत्थेव साहरामि, नमस्कार हारिभ-गिओ, रण्णो कहियं, संपूइओ, तस्स ओसीसे दिणे दिणे ठवेइ, एवं तेण अभिरई भोगा य लद्धा, जीवयाओ य, किं अन्नं| वि०१ | आरोग्गं ?, रायावि तुह्रो ॥ परलोए नमोकारफलं-वसंतपुरे णयरे जियसत्तू राया, तस्स गणिया साविया, सा चंडपिंगलेण ॥४५॥ चोरेण समं वसइ । अन्नया कयाइ तेण रण्णो घरं हय, हारोणीणिओ, भीएहिं संगोविजइ । अन्नया उज्जाणियागमणं, सबाओ [विभूसियाओ गणियाओ वच्चंति, तीए सबाओ अइसयामित्ति सो हारो आविद्धो, जीसे देवीए सो हारो तीसे दासीए |सो नाओ, कहियं रण्णो, सा केण समं वसइ ?, कहिए चंडपिंगलो गहिओ, सूले भिन्नो, तीए चिंतियं-मम दोसेण मारि ओत्ति सा से नमोकार देइ, भणइ य-नीयाण करेहि जहा-एयस्स रणो पुत्तो आयामित्ति, कयं, अग्गमहिसीए उदरे उव-13 वण्णो, दारओ जाओ, सा साविया कीलावणधावीया जाया । अन्नया चिंतेइ-कालो समो गम्भस्स य मरणस्स यार कश्चित् भूदिति नैषेधिकी नमस्कारं च कुर्वन् गच्छति, व्यन्तरस्य चिन्ता, संबुद्धः, वन्दते, भणति-मई तत्रैवानेण्ये, गतः, राज्ञः कथितं, संपूजितः | तस्य अच्छी दिने दिने स्थापयति, एवं तेनाभिरति गाव लब्धाः, जीवितांच, किमन्यद् आरोग्य, राजापि तुष्टः ॥ परलोके नमस्कारफलं-वसन्तपुरे मगरे जितशत्रू राजा, तस गणिका श्राविका, सापण्डपिकलेन चौरेण सम वसति । अन्यदा कदाचित् तेन राशो गृहं बत, हार मानीता, भीताभ्यां संगोप्यते । अन्यदोजानिकागमनं, सर्वा विभूषिता गणिका प्रजन्ति, तया सर्वाभ्योऽतिशायिनी स्वामिति (सर्वा अतिशये इति)स हार भाविद्यः यस्या देव्याः स हारसवा दास्या स ज्ञातः, कधितं राज्ञे, साकेन समं वसति !, कथिते चण्डपिङ्गलो गृहीतः, झूले भिन्नः, तथा चिन्तितं-मम दोषेण मारित इति सा तम | नमस्कार ददाति, भणति च-निदानं कुरु यथा-एतस्य राज्ञः पुत्र उत्पद्य इति, कृतं, अनमहिप्या उदरे उत्पन्नः, दारको जातः, साश्राविका कीढनधात्री जाता। [अम्यदा चिम्तयति-काला समो गर्भस्य च मरणस्य च, ॥४५॥ JAMERatoline पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्रांक होजे कयाइ, रमावती भणइ-मा रोव चंडपिंगलत्ति, संबुद्धो, राया मओ, सो राया जाओ, सुचिरेण कालेण दोवि पधइयाणि, एवं सुकुलपच्चायाई तम्मूलागं च सिद्धिगमणं ॥ अहवा बितियं उदाहरणं-महुराए णयरीए जिणदत्तो सावओ, तत्थ हुंडिओ चोरो, णयरं मुसइ, सो कयाइ गहिओ सूले भिन्नो, पडिचरह वितिज्जयाबि से नजिहिति, मणूसा पडिचरंति, सो सावओ तस्स नाइदूरेण वीईवयइ, सो भणइ-सावय ! तुमंसि अणुकंपओ तिसाइओऽहं, देह मम पाणियं जा मरामि, सावओ भणइ-इम नमोकारं पढ जा ते आणेमि पाणियं, जइ विस्सारेहिसि तो आणीयपि ण देमि, सो ताए लोलयाए पढइ, सावओवि पाणियं गहाय आगओ, एबेलं पाहामोत्ति नमोक्कारं घोसंतस्सेव निग्गओ जीवो, जक्खो आयाओ। सावओ तेहिं माणुस्सेहिं गहिओ चोरभत्तदायगोत्ति, रण्णो निवेइयं, भणइ-एयपि सूले भिंदह, आघायणं निजइ, जक्खो ओहिं पउंजइ, पेच्छा सावयं, अप्पणो य सरीरयं, पवयं उप्पाडेऊण णयरस्स उवरिं ठाऊण भणइ-सावयं भट्टारयं न भदेकदाचित, रमयन्ती भगति-मा रोदीः चण्डापिङ्गल इति, संबुद्धो, राजा मृतः, स राजा जातः, सुचिरेण काम द्वावपि प्रमजिती । एवं मुकुलप्रत्यायातिः तन्मूलं च सिद्विगमनं ॥ अथवा द्वितीयमुदाहरणं-मथुरायां नगर्यो जिनदत्तः श्रावकः, तत्र हुण्डिकऔरः, नगरं मुष्णाति, स कदाचित् गृहीतः शूले भिना, प्रतिचरत सहाया अपि तख ज्ञायत इति मनुष्याः प्रतिचरन्ति, स श्रावकस्तस्य नातिदूरेण व्यतिब्रजति, स भणति-धावक ! त्वमसि अनुकम्पकः तृषितोऽई देहि मह्यं पानीयं यन्निये, श्रावको भणति-दमं नमस्कारं पठ यावत्तम्यमानयामि पानीयं, यदि विस्मरिष्यसि तदानीतमपि न दास्यामि, स तया लोलुपतया | पठति श्रावकोऽपि पानीयं गृहीत्वाऽगतः, अधुना पास्वामीति नमस्कार घोषयत एवं निर्गतो जीवः, यक्ष आषातः । श्रावकसैर्मनुष्यगृहीतचौरभक्तदायक | इति, राजे निवेदितं, भणति-एनमपि शूले भिन्त, आघात नीयते, यक्षोऽवधि प्रयुक्ते, पश्यति श्रावकमात्मनश्च शारीरक, पर्वतमुपाय नगरस्योपरि स्थित्वा भणति-श्रावक भट्टारकं न अनुक्रम [१] JAMERIAL पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१३], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार वि०१ प्रत सूत्रांक आवश्यक- यांणेह ?, खामेह, मा भे सवे चूरेहामि, देवणिम्मियस्स पुषेण से आययणं कयं, एवं फलं लब्भइ नमोकारेणेति गाथार्थः॥ हारिभ-15॥१०१२॥ उक्ता नमस्कारनियुक्तिः, साम्पतं सूत्रोपन्यासार्थ प्रत्यासत्तियोगाद् वस्तुतः सूत्रस्पर्शनियुक्तिगतामेव माथामाहद्रीया xनंदिअणुओगदारं विहिवदुग्धाइयं च नाऊणं । काऊण पंचमंगल आरंभो होइ सुत्तस्स ॥१०१३॥ ॥४५॥ व्याख्या-नन्दिश्चानुयोगद्वाराणि चेत्येकवद्भावाद् नन्दिअनुयोगद्वारं, 'विधिवद्' यथावद् 'उपोद्घातं च उद्देसे इत्यादिलक्षणं 'ज्ञात्वा' विज्ञाय, भणित्वेति वा पाठान्तरं, तथा कृत्वा 'पञ्चमङ्गलानि' नमस्कारमित्यर्थः, किम् ?, आरम्भो भवति सूत्रस्य, इह च पुनर्नन्द्याद्युपन्यासः किल विधिनियमख्यापनार्थः, नन्द्यादि ज्ञात्वैव भणित्वैव वा, नान्यथेति, उपोद्घातभेदोपन्यासोऽपि सकलप्रवचनसाधारणत्वेन तस्य प्रधानत्वात्, प्रधानस्य च सामान्यग्रहणेऽपि भेदेनाभिधानदर्शनाद्, यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्टोऽष्यायात इति, कृतं चसूर्येति गाथार्थः ॥ १०१३ ॥ सम्बन्धान्तरप्रतिपादनायैवाऽऽहकयपंचनमुकारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहिओ। सामाइअंगमेव य ज सो सेसं तओ बुच्छं ॥१०१४॥ ब्याख्या-कृतः पञ्चनमस्कारो येन स तथाविधः शिष्यः सामायिकं करोतीत्यागमः, सोऽभिहितः पञ्चनमस्कारः, सामायिकाङ्गमेव च यदसौ, सामायिकाङ्गता च प्रागुक्ता, 'शेष' सूत्रं ततः' तस्माद्वक्ष्यत इति गाथार्थः ॥१०१४॥ तच्चेदम्करेमि भंते! सामाइयं, सव्वं सावजं जोगं पचक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं,मणेणं वायाएकाएणं न करेमि न कारवेमि करतपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भन्ते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि १ जानीया, सामयत, मा भवतः सर्वांचचुर, देवनिर्मितेन (तात् चैत्यात ) पूर्वस्यां तस्यायतनं कृतं । एवं फलं लभ्यते नमस्कारेणेति । * भयरस्स. ॐॐॐॐASS अनुक्रम ॥४५४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... अत्र अध्ययनं -१- 'सामायिक' आरभ्यते ... ~45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] Eaura [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [१०१४...], भाष्यं [ १५१...] इह च सूत्रानुगम एव (सूत्र) अहीनाक्षरादिगुणोपेतमुच्चारणीयं तद्यथा-अहीनाक्षरमन त्यक्षरमव्याविद्धाक्षरमस्खलितममिलितमव्यत्यास्म्रेडितं प्रतिपूर्ण परिपूर्णघोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं वाचनोपगतम्, इत्यमूनि प्रागू व्याख्यातत्वान्न व्याख्यायन्ते, ततस्तस्मिन्नुञ्चरिते सति केषाञ्चिद्भगवतां साधूनां केचनार्थाधिकारा अधिगता भवन्ति केचन त्वनधिगताः, ततश्चानधिगताधिगमनाय व्याख्या प्रवर्तत इति, तलक्षणं चेदं 'संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा ॥ १ ॥ इति, तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता, अथवा-परः सन्निकर्षः संहिता, यथा करेमि | भंते! सामाइयमित्यादि जाव वोसिरामित्ति । पदं च पञ्चधा, तद्यथा-नामिकं नैपातिकम् औपसर्गिकम् आख्यातिकं मिश्र चेति, तत्र अश्व इति नामिकं खल्विति नैपातिकं परीत्यौपसर्गिकं धावतीत्याख्यातिकं संयत इति मिश्रम्, अथवा सुबन्तं तिङन्तं च 'सुप्तिङ्न्तं पद' ( पा० १-४ -१४ ) मिति वचनात् तत्र करोमि भयान्त । सामायिकं, सर्व सावधं योगं प्रत्याख्यामि यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यम्यं न समनुजाने, तस्य भयान्त ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्हामि आत्मानं व्युत्सृजामीति पदानि । अधुना पदार्थ:- स च चतुर्विधः, तद्यथा - कारक विषयः समासविषयस्तद्धितविषयो निरुक्तिविषयश्च तत्र कारकविषयः पचतीति पाचकः, समासविषय:राज्ञः पुरुषो राजपुरुष इति, तद्धितविषयः - वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः, निरुक्तिविषयः - भ्रमति चरौति च भ्रमरः, अत्रापि, 'डुकृञ् करण' इत्यस्य लट्प्रत्ययान्तस्य 'तनादिकृञ्भ्य उ ( पा० ३-१-७९) रिति उच्चे गुणे रपरत्वे च कृते करोमीति भवति अभ्युपगमश्चास्यार्थः, एवं प्रकृतिप्रत्ययविभागः सर्वत्र वक्तव्यः, इह तु ग्रन्थविस्तरभयान्नोक इति, भयं प्रतीतं, तथा For Patina Peny bray org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः अथ 'करेमि भंते' सूत्रस्य विशद् व्याख्या आरभ्यते ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१४...], भाष्यं [१५१...] आवश्यकहारिभ. द्रीया ॥४५५॥ वक्ष्यामश्वोपरिष्टादिति, अन्तो-विनाशः, भयस्यान्त इत्ययमेव पदविग्रहः, पदपृथक्करण पदविग्रह इति, सामायिकपदार्थः सूत्रस्पर्श पूर्ववत्, सर्वमित्यपरिशेषवाची शब्दः, अवयं-पापं सहावद्येन सावद्यः-सपाप इत्यर्थः, युज्यत इति योगः च्यापारस्तं, वि०१ प्रत्याख्यामीति, प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङ्क आभिमुख्ये ख्या प्रकथने, ततश्च प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं सावद्ययोगस्य करोमि। प्रत्याख्यामीति, अथवा प्रत्याचक्ष इति 'चक्षिा व्यक्तायां वाचि' अस्य प्रत्यापूर्वस्यायमर्थः प्रतिषेधस्यादरेणाभिधानं करोमि प्रत्याचक्षे, 'यावज्जीवये त्यत्र यावच्छन्दः परिमाणमर्यादावधारणवचनः, तत्र परिमाणे यावत् मम जीवनपरिमाणं तावत् प्रत्याख्यामीति, मर्यादायां यावज्जीवनमिति, मरणमर्यादाया आरान्न मरणकालमात्र एवेति, अवधारणे यावजीवनमेव तावत् प्रत्याख्यामि, न तस्मात् परत इत्यर्थः, जीवनं जीवेत्ययं क्रियाशब्दः परिगृह्यते तया, अथवा प्रत्याख्यानक्रिया गृह्यते, यावज्जीवो यस्यां सा यावजीवा तया, 'त्रिविध मिति तिस्रो विधा यस्य सावद्ययोगस्य स त्रिविधा, स च प्रत्याख्येयत्वेन कर्म संपद्यते, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः, अतस्तं त्रिविधं योग-मनोवाक्कायव्यापारलक्षणं, 'कायवाङानः कर्मयोगः' (तत्वा० अ०६सू०१) इति वचनात, त्रिविधेनेति करणे तृतीया, 'मनसा वाचा कायेन' तत्र |'मन ज्ञाने' मननं मन्यते वाऽनेनेति असुनप्रत्यये मनः, तच्चतुर्की-नामस्थापनाद्रव्यभावः, द्रव्यमनस्तद्योग्यपुद्गलमयं, भावमनो मन्ता जीव एव, 'वच परिभाषणे वचनम् उच्यते वाऽनयेति वाक्, साऽपि चतुर्विधैव नामादिभिः, तत्र द्रव्यवाकू शब्दपरिणामयोग्यपुद्गला जीवपरिगृहीता भाववाकू पुनस्त एव पुद्गलाः शब्दपरिणाममापन्नाः, 'चिञ् चयने' चयनं ५ चीयते वाऽनेनेति "निवासचितिशरीरोपसमाधानेष्वादेश्च कः" (पा०३-३-४१) इति कायः, जीवस्य निवासात् पुग JABERam Ajanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] Ju Educant %%%% [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [१०१४...], भाष्यं [ १५१...] लानां चितेः पुद्गलानामेव केषाश्चित् शरणात् तेषामेवावययसमाधानात् कायः शरीरं सोऽपि चतुर्द्धा नामादिभिः, तत्र द्रव्यकायो ये शरीरत्वयोग्याः अगृहीतास्तत्स्वामिना च जीवेन ये मुक्ता यावत्तं परिणामं न मुञ्चन्ति तावद् द्रव्यकायः, भावकायस्तु तत्परिणामपरिणता जीववद्धा जीवसम्प्रयुक्ताश्च, अनेन त्रिविधेन करणभूतेन, त्रिविधं पूर्वाधिकृतं सावयं योगं न | करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि नानुमन्येऽहमिति, तस्येत्यधिकृतो योगः संबध्यते, भयान्त इति पूर्ववत्, प्रतिक्रमामि - निवर्तेऽहमित्युक्तं भवति, निन्दामीति जुगुप्से इत्यर्थः, गर्हामीति च स एवार्थः, किन्त्वात्मसाक्षिकी निन्दा गुरुसाक्षिकी गर्हति, किं जगुप्से ?- 'आत्मानम्' अतीतसावद्ययोगकारिणं, 'व्युत्सृजामी'ति विविधार्थी विशेषार्थो वा विशब्दः उच्छन्दो भृशार्थः सृजामि त्यजामीत्यर्थः, विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामि, एवं तावत्पदार्थपदविग्रही यथासम्भवमुक्तौ, अधुना चालनाप्रत्यवस्थाने वक्तव्ये, तदत्रान्तरे सूत्रस्पर्शनियुक्तिरुच्यते, स्वस्थानत्वात्, | आह च नियुक्तिकार:-- | अक्खलिअसंहिआई वक्खाणचक्कए दरिसिअंमि । सुप्तप्फासिअनिज्जुन्तिवित्थरस्थो इमो होइ ॥ १०१५ ॥ व्याख्या- 'अक्खलिआइ'ति अस्खलितादौ सूत्र उच्चरिते, तथा संहितादौ व्याख्यानचतुष्टये दर्शिते सति, किं ?सूत्रस्पर्श निर्युक्तिविस्तरार्थः अयं भवतीति गाथार्थः ॥ १०१५ ॥ करणे १ भए अ २ अंते ३ सामाइअ ४ सव्वए अ ५ बजे अ ६ । जोगे ७ पञ्चकखाणे ८ जावजीवाइ ९ तिविहेणं १० ।। १०९६ ॥ For Fans at Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६], भाष्यं [१५२] (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक- व्याख्या-करणं भयं च अन्तः सामायिक सर्व च वर्ज च योगः प्रत्याख्यानं यावजीवया त्रिविधेनेति पदानि, सूत्रस्पर्श हारिभ- पदार्थ तु भाष्यगाथाभिर्यक्षेण प्रतिपादयिष्यतीति गाथासमासार्थः ॥ १०१६ ॥ साम्प्रतं करणनिक्षेपं प्रदर्शयन्नाह- वि०१ द्रीया नामं १ ठवणा २ दबिए ३ खित्ते ४ काले ५ तहेव भावे अ६। ॥४५६॥ एसो खलु करणस्सा निक्खेवो छब्विहो होइ ॥ १५२॥ (भा०) व्याख्या-अक्षरगतं पदार्थमात्रमधिकृत्य निगदसिद्धा, साम्प्रतं द्रव्यकरणप्रतिपादनायाऽऽहजाणगभविअहरितं सन्ना नोसन्नओ भवे करणं । सन्ना कडकरणाई नोसन्ना वीससपओगे ॥ १५३ ॥ (भा०) व्याख्या-इह यथासम्भवं द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये वा करणं द्रव्यकरणं, तच्च नोआगमतो ज्ञभव्यातिरिक्तं संज्ञा नोसंज्ञातो भवेत् करणं, एतदुक्तं भवति-ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यकरणं द्विधा-संज्ञाकरणं नोसंज्ञाकरणं च, तत्र संज्ञाकरणं कटकरणादि, आदिशब्दात् पेलुकरणादिपरिग्रहः, पेलुशब्देन रुतपूणिकोच्यते, अयमत्र भावार्थः-कटनिर्वर्तकमयोमयं चित्रसंदास्थानं पोल्लकादि तथा रुतपूणिकानिवर्तकं शलाकाशल्यकाङ्गरुहादि संज्ञाद्रव्यकरणमन्वर्थोपपत्तेरिति, आह-इदं नाम-14 करणमेव पर्यायमात्रतः संज्ञाकरणमिति न कश्चिद्विशेष इति, उच्यते, इह नामकरणमभिधानमात्रं गृह्यते, संज्ञाकरणं त्वन्व-|| ||४५६॥ थेतः संज्ञायाः करणं २, द्रव्यस्य संज्ञया निर्दिश्यमानत्वात् , तथा च भाष्यकारेणाप्येतदेवाभ्यधायि-"सन्ना णामति मई **EASISAASAASAASA अनुक्रम 5645 संज्ञा नामेति मतिः। + नियुकिगाथा इत्यपि * पाइछकादिः । | पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: करण द्वार, कारणस्य षड् निक्षेपा: ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१५३] प्रत सूत्रांक SSCROSSSC तणो णाम जमभिधाणं ॥१॥ वा तदत्वविकले कीरइ दर्ष तु दवणपरिणाम | पेलुक्करणाइ न हि तं तयत्थसुण्णं ण वा सद्दो ॥ २॥ जइ ण तदत्थविहीणं तो किं दबकरणं । जओ तेणं । दवं कीरइ सण्णाकरणति य करणरूढिओ ॥३॥" 'नोसंज्ञेति नोसंज्ञाद्रव्यकरणं, तच्च द्विधा-प्रयोगतो विश्रसातश्च, अत एवाह-वीससपओगेत्ति गाथार्थः ॥ तत्र विश्रसाकरणं द्विप्रकार-साधनादिभेदात् , अत एवाह'अन्धकारः-. चीससकरणमणाई धम्माईण परपच्चयाजो(यजो)गा।साई चक्खुप्फासिअमम्भाइमचक्खुमणुमाई॥१५४॥ भा० | व्याख्या-विश्रसा स्वभावो भण्यते तेन करणं विश्नसाकरणम् , इह च 'कृत्यलुटो बहुल' (पा० ३-३-११३) मिति वचनात् करणादिषु यथाप्रयोगमनुरूपार्थः करणशब्दोऽवसेय इति, 'अनादि' आदिरहितं 'धर्मादीना'मिति धर्माधर्माका शास्तिकायानामन्योऽन्यसमाधानं करणमिति गम्यते, आह-करणशब्दस्तावदपूर्वप्रादुर्भावे वर्तते, ततश्च करणं चानादि x|चेति विरुद्धम्, उच्यते, नावश्यमपूर्वप्रादुर्भाव एव, किं तर्हि !, अन्योऽन्यसमाधानेऽपीति न दोषः, अथवा 'परप्रत्यययो-12 गादिति परवस्तुप्रत्ययभावाद्धर्मास्तिकायादीनां तथा तथा योग्यताकरणमिति, एवमप्यनादित्वं विरुध्यत इति चेत्, न, अनन्तशक्तिप्रचितद्रव्यपर्यायोभयरूपत्वे सति वस्तुनो द्रव्यादेशेनाविरोधादित्यत्र बह वक्तव्यं तत्त नोच्यते, गमनिकामा-1 त्रित्वात् प्रारम्भस्येति, अथवा परप्रत्यययोगात् तत्तत्पर्यायभवनं सायेव करणं, देवदत्तादिसंयोगाद्धर्मादीनां विशिष्ट-13 तमो नाम यदभिधानम् ॥१॥ यद्वा तदर्थ विकले क्रियते इयं तु द्रवणपरिणामः । पेलुकरणादि न हि तत्तदर्थशून्यं न वा शब्दः ॥२॥ यदि न तदर्थविहीनं तदा दिव्यकरणं । यतस्तेन । द्रव्यं क्रियते संज्ञाकरणमिति च करणरूढः ॥३॥ अनुक्रम 1960-62 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१५४] (४०) सूत्रस्पर्शक वि०१ प्रत सूत्रांक आवश्यक पर्याय इत्यर्थः, एवमरूपिद्रव्याण्यधिकृत्योक्तं साद्यमनायं च विश्रसाकरणम् , अधुना रूपिद्रव्याण्यधिकृत्य साद्येव चाक्षु- हारिभ- तरभेदमाह-सादि चक्षुःस्पर्श चाक्षुषमित्यर्थः, अभ्रादि, आदिशब्दात शक्रचापादिपरिग्रहः, 'अचक्षुत्ति अचाक्षुषम- द्रीया दिवादि, आदिशब्दात् व्यणुकादिपरिग्रहः, करणता चेह कृतिः करणमितिकृत्वा, अन्यथा वा स्वयं बुद्ध्या योजनीयेति गाथार्थः ॥ चाक्षुषाचाक्षुषभेदमेव विशेषेण प्रतिपादयन्नाह॥४५७॥ संघायमेतदुभयकरणं इंदाउहाइ पञ्चक्खं । दुअअणुमाईणं पुण छउमत्थाईणऽपच्चक्खं ॥१५५ ॥ (भा.) 6 व्याख्या-सङ्घातभेदतदुभयैः करणं संघातभेदतदुभयकरणम् इन्द्रायुधादिस्थूलमनन्तपुद्गलात्मकं प्रत्यक्षं, चाक्षुषमित्यर्थः, व्यणुकादीनाम्, आदिशब्दात्तथाविधानन्ताणुकान्तानां पुनः करणमिति वर्तते, किं ?, छद्मस्थादीनाम् ? आदिशब्दः स्वगतानेकभेदप्रतिपादनार्थ इति, अप्रत्यक्षम्-अचाक्षुषमिति गाथार्थः ॥ उक्तं विश्रसाकरणम्, अधुना| प्रयोगकरणं प्रतिपादयन्नाहजीवमजीवे पाओगिअंच चरमं कुसुंभरागाई । जीवप्पओगकरणं मूले तह उत्तरगुणे अ॥ १५६ ॥ (भा०) | व्याख्या-यह प्रायोगिकं द्वधा-जीवप्रायोगिकमजीवप्रायोगिकंच, प्रयोगेन निर्वृत्तं प्रायोगिकं, चरमम्-अजीवप्रयो|गकरणं कुसुम्भरागादि, आदिशब्दाच्छेषवर्णादिपरिग्रहः ॥ एवं तावदल्पवक्तव्यत्वादभिहितमोघतोऽजीवप्रयोगकरणमिति, अधुना जीवप्रयोगकरणमाह-जीवप्रयोगकरणं द्विप्रकार-'मूल' इति मूलगुणकरणं, तथा 'उत्तरगुणे तिच' उत्तरगुणकरणं करणता २ छमस्वगताना RSSCk CON अनुक्रम X ॥४५७॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१५६] प्रत सूत्रांक चेति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थ तु ग्रन्थकार एव वक्ष्यति, तत्राल्पवक्तव्यत्वादेवाजीवप्रयोगकरणमादावेवाभिधित्सुराह18 निजीवाणं कीरइ जीवप्पओगओ तं तं । वन्नाइ रूवकम्माइ वावि अज्जीवकरणं तु ॥ १५७ ॥ (भा०) | व्याख्या-यद् यन्निजीवानां पदार्थानां क्रियते-निर्वत्यते 'जीवप्रयोगतो' जीवप्रयोगेण तत्तद्वर्णादि कुसुम्भादेः रूप-17 कर्मादि वा कुट्टिमादौ अजीवविषयत्वात्तदजीवकरणमिति गाथार्थः ॥ जीवप्पओगकरणं दुविहं मूलप्पओगकरणं च । उत्तरपओगकरणं पंच सरीराई पढमंमि ॥ १५८ ॥ (भा०)। | व्याख्या-जीवप्रयोगकरणं 'द्विविधं' द्विप्रकार-मूलप्रयोगकरणमुत्तरप्रयोगकरणं च, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, पञ्च शरीराणि 'प्रथम' मूलप्रयोगकरणमिति गाथार्थः ॥ ओरालियाइआई ओहेणिभरं पओगओ जमिह । निष्फण्णा निष्फजइ आइल्लाणं च तं तिण्हं ॥१५९॥ (भा): व्याख्या-औदारिकादीनि, आदिशब्दाद्वैक्रियाहारकतैजसकार्मणशरीरपरिग्रहः, 'ओधेन' इति सामान्येन, 'इतरत्' उत्तरप्रयोगकरणं गृह्यते, तल्लक्षणं चेदं-'प्रयोगतः' प्रयोगेणैव यद् ‘इह' लोके निष्पन्नाः, मूलप्रयोगेण निष्पद्यत इति 'तद्' उत्तरकरणं, आद्यानां च तत् त्रयाणाम् , एतदुक्तं (ग्रं ११५०० ) भवति-पश्चानामौदारिकादिशरीराणामाचं सङ्घातकरणं मूलप्रयोगकरणमुच्यते, अङ्गोपाङ्गादिकरणं तूत्तरकरणमौदारिकादीनां त्रयाणां, न तु तैजसकार्मणयोः, तदसम्भवादिति गाथार्थः ॥ १५९ ॥ तत्रौदारिकादीनामष्टाङ्गानि मूलकरणानि, तानि चामूनि अनुक्रम JAMERStumha पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] ে आवश्यक हारिभद्वीया x ॥४५८॥ Jus Educato [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६०] सीस १ मुरो २ अर ३ पिट्ठी ४ दो बाहू ६ ऊरुआ य ८ अहंगा । अंगुलिमाई उवंगा अंगोवंगाणि सेसाणि ॥ १६० ॥ ( भाष्यम्) व्याख्या - निगदसिद्धा, नवरमङ्गोपाङ्गानि 'शेषाणि' करपादादीनि गृह्यन्ते ॥ किञ्च - केसाईडवरयणं उराल विउब्धि उत्तरं करणं । ओरालिए विसेसो कन्नाइविणसंठवणं ॥ १६१ ॥ ( भा० ) व्याख्या- 'केशासुपरचनं' केशादिनिर्माण संस्कारी, आदिशब्दान्नखदन्त तद्रागादिपरिग्रहः औदारिकवैक्रिययोरुत्तरकरणं, यथासम्भवं चेह योजना कार्येति, तथौदारिके विशेष उत्तरकरणे इति, कर्णादिविनष्टसंस्थापनं, नेदं वैक्रियादी, विनाशाभावाद, विनष्टस्य च सर्वथा विनाशेन संस्थापनाभावादिति गाथार्थः ॥ इत्थंभूतमुत्तरकरणमाहारके नास्ति, गमनागमनादि तु भवति, अथवेदमन्याद्दक् त्रिविधं करणं, तद्यथा सङ्घातकरणं परिशाटकरणं सङ्घातपरिशाटकरणं च, तत्राऽऽद्यानां शरीराणां तेजसकार्मणरहितानां त्रिविधमप्यस्ति, द्वयोस्तु चरमद्वयमेवेति, आह चआइल्लाणं तिन्हं संघाओ साडणं तदुभयं च । तेआकम्मे संघायसाडणं साढणं वावि ।। १६२ ॥ ( भा० ) व्याख्या - वस्तुतो व्याख्यातैवेति न व्याख्यायते ॥ साम्प्रतमौदारिकमधिकृत्य सङ्घातादिकालमानमभिधित्सुराह संघायमेगसमयं तव परिसाडणं उरालंमि । संघायणपरिसाडण खुड्डागभवं तिसमऊणं ॥ १६३ ॥ ( भा० ) • व्याख्या- 'सङ्घातम्' इति सर्वसङ्घातकरणमेकसमयं भवति, एकान्तादानस्यैक सामयिकत्वात्, घृतपूपद्दष्टान्तोऽत्र, यथा-घृतपूर्णप्रतष्ठायां तापिकायां सम्पानकप्रक्षेपात् स पूपः प्रथमसमय एवैकान्तेन स्नेहपुद्गलानां ग्रहणमेव करोति, For Final Prs at Use Only सूत्रस्पर्श० वि० १ ~53~ ॥४५८॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६३] प्रत सूत्रांक न त्यागम् , अभावाद्, द्वितीयादिषु तु ग्रहणमोक्षी, तथाविधसामर्थ्ययुक्तत्वात् , पुद्गलानां च सङ्घातभेदधर्मत्वात् , एवं जीवोऽपि तत्प्रथमतयोत्पद्यमानः सन्नाद्यसमये औदारिकशरीरप्रायोग्याणां द्रव्याणां ग्रहणमेव करोति, न तु मुञ्चति, अभावाद्, द्वितीयादिषु तु ग्रहणमोक्षी, युक्तिः पूर्ववत्, अतः सङ्घातमेकसमयमिति स्थितं, तथैव 'परिशाटन मिति परिशाटनाकरणमेकसमयमिति वर्तते, सर्वपरिशाटस्याप्येकसामयिकत्वादेवेति, औदारिक' इत्यौदारिकशरीरे 'संघायणपरिसाडणत्ति सङ्घातनपरिशाटनकरणं तु क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, तत् पुनरेवं भावनीयं-जघन्यकालस्य प्रतिपादयितुमभिप्रेतत्वात् विग्रहेणोत्पाद्यते, ततश्च द्वौ विग्रहसमयावेकः सङ्घातसमय इति, तैyनं, तथा चोक्तम्-'दो विग्गहमि समया समयो संघायणाएं तेहूणं । खुडागभवग्गहणं सबजहन्नो ठिई कालो ॥१॥ इह च सर्वजघन्यमायुष्कं क्षुल्लकभ-18 है वग्रहणं प्राणापानकालस्यैकस्य सप्तदशभाग इति, उक्तं च भाष्यकारेण-'खुड्डागभवग्गहणा सत्तरस हवंति आण पाचूंमि'त्ति गाथार्थः॥ दाण्यं जहन्नमुक्कोसयं तु पलिअत्तिअं तु समऊणं । विरहो अंतरकालो ओराले तस्सिमो होइ ॥ १६४ ॥ (भा०) | व्याख्या-इदं जघन्य सङ्घातादिकालमानम् उत्कृष्टं तु सङ्घातपरिशाटकरणकालमानमौदारिकमाश्रित्य पल्योपमत्रितय| मेव समयोनम् , इयमत्र भावना-इहोत्कृष्ट कालस्य प्रतिपाद्यत्वादयमविग्रहसमापन्नः इह भवात् परभवं गच्छन्निहभवशरीरशादं कृत्वा परभवायुषत्रिपल्योपमकालस्य प्रथमसमये शरीरसहनतं करोति, ततो द्वितीयसमयादारभ्य सङ्घातपरि द्वौ विग्रहे समयौ समयञ्च संघातनायाः तैरूनम् । शुकभवप्रहणं सर्वजधन्यः स्थितिकालः ॥ १२ क्षुलकभवग्रहणालि सप्तदश भवन्ति आनप्राणे । अनुक्रम JABERatunintamational andiDrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६४] (४०) आवश्यकहारिभ- द्रीया ॥४५९॥ शाटोभयकाल इति, तेन सनातनासमयेन ऊनं पस्योपमत्रयमिति, उक्तं च-"उकोसो समऊणो जो सो संघातणासम- सस्पर्श यहीणो । चोयग-किह न दुसमयविहूणो साडणसमएऽवणीयंमि ॥१॥ भण्णइ भवचरिमंमिवि समये संघातसाडणाला वि०१ |चेव । परभवपढमे साडणमओ तदूणो ण कालोत्ति ॥२॥ चो०-जइ परपढमे साडो णिविग्गहदो य तंमि संघातो। णणु सबसाडसंघातणाओं समए विरुद्धाओ ॥ ३॥ आ०-जम्हा विगच्छमाणं विगयं उपजमाणमुप्पण्णं । तो परभवाइ-18 समए मोक्खादाणाणमविरोहो ॥४॥ चुइसमए णेहभवो इहदेहविमोक्खओ जहातीए । जइ परभवोवि ण तहिं तो सो को होउ संसारी॥५॥णणु जह विग्गहकाले देहाभावेऽवि परभवग्गहणं। तह देहाभामिवि होजेहभवोऽवि को दोसो ॥६॥ आ०-जंचिय विग्गहकालो देहाभावेवि तो परभवो सो। चुइसमएऽवि ण देहो न विग्गहो जइ स को होइ? " एवमौदारिके जघन्येतरभेदः सङ्घातपरिशाटकाल उक्तः। सङ्घातपरिशाटयोस्त्येक एव (समयः), द्वितीयस्यासम्भवाद, 4%95%2550%%25% 80-% उत्कृष्टः समयोनो यः स संघातनासमयहीनः । चोदकः-कथं न द्विसमयविहीनः शाटनसमयेअनीते ? ॥ १॥ भण्यते भवचरमेऽपि समयं संघातशाटने एव । परभवप्रथमे शाटनमतस्तदूनो न काल इति ॥ २॥ चोदका-यदि परभवप्रथमे शाटो निर्चिग्रहतश्च तस्मिन् संघातः । ननु सर्वशाटसंघातने समये | | विरुवे ॥३॥ आचार्यः-यस्माद्विगच्छत् विगतमुस्पद्यमानमुत्पन्नम् । ततः परभवादिसमये मोक्षादानयोनं विरोधः ॥ ४॥ च्युतिसमये नेहमव इहदेह-18 विमोक्षतो यथाऽतीते । यदि परभवोऽपि न तत्र तदा स को भवतु संसारी ? ॥ ५॥ ननु यथा विग्रहकाले देहाभावेऽपि परभवप्रहणम् । तथा देहामावेऽपि भवेदिह मवोऽपि को दोषः। ॥६॥ २ आ-यसादेव विग्रहकालो देहाभावेऽपि ततः (एष) परभवः सः । च्युतिसमयेऽपि न देहो न विग्रहो | यदि स को भवेत् ॥७॥ ॥४५९॥ JAmEaja storary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६४] 4GROGRAM प्रत सूत्रांक अधुना सङ्घातादिविरहो जघन्येतरभेदोऽभिधीयते, तथा चाऽऽह-विरहः कः?, उच्यते, अन्तरकालः, औदारिके तस्य सङ्घातादेरयं भवतीति गाथार्थः॥ जातिसमयहीणं खुर्यु होइ भवं सब्यबंधसाडाणं । उक्कोस पुब्बकोडी समओ उअही अतित्तीसं ॥१६॥ (भा०) | व्याख्या-त्रिसमयहीन भुलं भवति, 'भवम्' इति भवग्रहणं, सर्वबन्धशाटयोरन्तरकाल इति, तत्र बिसमयहीनं सर्वतबन्धस्य क्षुलं तु सम्पूर्ण सर्वशाटस्येति, उत्कृष्टः पूर्वकोटिसमयः, तथा 'उदधीनि च (धयश्च) सागरोपमाणि च त्रयस्त्रिंशत् सर्वबन्धस्य, समयोनस्त्वयमेव शाटस्येति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु भाष्यगाथाभ्योऽवसेयस्ताश्चेमा:-"संघायंतरकालो जहन्नओ खुड्यं तिसमऊणं । दो विग्गमि समया तइओ संघायणासमओ ॥१॥ तेहणं खुड्भवं धरिउ परभवमविग्गहेणेव । गंतूण पढमसमए संघाययओस विण्णेओ॥२॥ उक्कोस तेत्तीसं समयाहियपुवकोडिअहिआई। सो सागरोवमाई अविग्गहेणेह संघायं ॥३॥ काऊण पुवकोडिं धरि सुरजेठमाउयं तत्तो। भोत्तूण इहं तइए समए संघाययंतस्स ॥४॥ इदं पुनः सर्वशाटान्तरं जघन्यं क्षुल्लकभवमानं, कथम् !, इहानन्तरातीतभवचरमसमये कश्चिदौदारिकशरीरी सर्वशाट कृत्वा वनस्पतिप्वागत्य सर्वजघन्य क्षुल्लकभवग्रहणायुष्कमनुपाल्य पर्यन्ते सर्वशाटं करोति, ततश्च क्षुलकभवग्रहणमेव भवति, संघातान्तरकालो जघन्यतः क्षुलकभवग्रहणं त्रिसमयोनम् । द्वौ विग्रहे समयौ तृतीयः संघातनासमयः ॥1॥ तैरूनं क्षुलकभवं घरवा परभवमविग्रहेणैव । गत्या प्रथमसमये संघातयतः स विज्ञेयः ॥२॥ उत्कृष्टः अयविंशत् समयाधिकपूर्वकोटवधिकानि । स सागरोपमाणि अविग्रहेणेह संघातम् ॥ ३॥ कृत्वा पूर्वकोटी इवा सुरज्येष्ठमायुष्कं ततः । भुक्त्वा इह तृतीये समये संघातयतः ॥५॥ अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६५] प्रत सूत्रांक आवश्यक- उत्कृष्टं तु त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणे पूर्वकोट्याऽधिकानि, कथम् ?, इह कश्चित् संयतमनुष्य औदारिकसर्वशाट कृत्वा- सूत्रस्पर्श. हारिभ- 1नुत्तरसुरेषु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यतिवाह्य पुनर्मनुष्येष्वौदारिकसर्वसङ्घातं कृत्वा पूर्वकोट्यन्ते औदारिकसर्वशाट करो-IX वि०१ द्रीया | तीति, उक्तं च भाष्यकारेण-"खुड्डागभवग्गहणं जहन्नमुक्कोसयं च तित्तीसं। तं सागरोवमाई संपुन्ना पुषकोडी उ ॥ १॥ II गुरवस्तु ब्याचक्षते-तदारम्भसमयस्य पूर्वभवशाटेनावरुद्धत्वात् समयहीनं क्षुल्लकभवग्रहणं जघन्यं शाटान्तरमिति, तथा|2 ॥४६॥ |च किलेवमक्षराणि नीयन्ते-त्रिसमयहीन क्षुल्लकमित्येतदपि न्याय्यमेवास्माकं प्रतिभाति, किन्त्वतिगम्भीरधिया भाष्यकृता सह विरुध्यत इति गाथार्थः ॥ इदानीं सङ्घातपरिशाटान्तरमुभयरूपमष्यभिधित्सुराहअंतरमेगं समयं जहन्नमोरालगहणसाउस्स । सतिसमया उक्कोसं तित्तीसं सागरा हुंति ॥ १६६ ॥ (भा०) ___ व्याख्या-'अन्तरम्' अन्तरालम् , कं समयं 'जघन्य' सर्वस्तोकम् औदारिकग्रहणशाटयोरिति, सत्रिसमयान्युत्कृष्टं त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि भवन्तीति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु भाष्यगाथाभ्यामवसेयः, ते चेमे-"उभयंतरं जहणं समओ निविग्गहेण संघाए । परमं सतिसमयाई तित्तीसं उदहिनामाई ॥१॥ अणुभवि देवाइसु तेत्तीसमिहा-18 गयस्स तइयंमी । समए संघायतओ नेयाई समयकुसलेहिं ॥२॥” उक्तौदारिकमधिकृत्य सर्वसङ्घातादिवक्तव्यता, साम्प्रतं का॥४६० विक्रियमधिकृत्योच्यते, तत्रेयं गाथा शुलकभवमहणं जघन्यमुस्कृष्टं च वनिशत् । तत् सागरोपमाणि संपूर्णानि पूर्वकोटीत ॥२ त्रिभिरून सर्वबन्धस्य समयोनं सर्वशाटोति भावार्थः । ३ उभयान्तर जघन्य समयो विधिप्रहेण संचाते । परमं सत्रिसमयानि त्रयस्त्रिंशत् अदधिनामानि ॥२॥ अनुभूप देवादिषु प्रयधिशतमिहागतस्य तृतीये । समये संघातयत एवं सेवानि समयकुशलैः ॥ २॥* संवाययओ दुविहं साढत्तरं योच्छ (इति वि. भा.) 583%ABAR अनुक्रम JABERatunintamatana Swjanmorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६७] %95% प्रत 4 सूत्रांक वेउबिअसंघाओ जहन्नु समओउदुसमउकोसो। साड़ो पुण समयं चिअ विउवणाए विणिदिडो॥१६७॥(भा०) । अस्या व्याख्या-वैक्रियसनातः कालतो 'जघन्यः' सर्वस्तोकः समय एव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वादू, अयं चौदारिकशरीरिणां क्रियलब्धिमतां विकुर्वणारम्भे देवनारकाणां च तत्प्रथमतया शरीरग्रहण इति, तथा 'द्विसमय' इति द्विसमयमान उत्कृष्टः वैक्रियसङ्घात इति वर्तते कालश्चेति गम्यते, स पुनरौदारिकशरीरिणो वैक्रियलब्धिमतस्तद्विकुर्वाणारम्भ एव वैक्रियसङ्घातं समयेन कृत्वाऽऽयुष्कक्षयात् मृतस्याविग्रहगत्या देवेषूपपद्यमानस्य वैक्रियमेव सङ्घातयतोऽवसेय इति भावना, शाटः पुनः समयमेव कालतः 'विकुर्वणायां' वैक्रियशरीरविषयो विनिर्दिष्ट इति गाथाक्षराङ्कः । अधुना सङ्घातपरिशाटकालमानमभिधित्सुराहसंघायणपरिसाडो जहन्नओ एगसमइओ होइ । उक्कोसं तित्तीसं सायरणामाई समऊणा ॥ १६८ ॥ ( भा०) - व्याख्या-इह वैक्रियस्यैव सङ्घातपरिशाटः खलूभयरूपः कालतो जघन्य एकसामयिको भवति, उत्कृष्टस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि सागरनामानि समयोनानीति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्त्वयम्--उभयं जहण्ण समओ सो पुण दुसमयविउबियमयस्स । परमतराई संघातसमयहीणाई तेत्तीसं ॥१॥ इदानीं वैक्रियमेवाधिकृत्य सङ्घाताद्यन्तरमभिधित्सुराहसव्वग्गहोभयाणं साडस्स य अंतरं विउविस्स । समओ अंतमुहुत्तं उक्कोसं रुक्खकालीअं॥१६९॥(भा०)15 भवखिन् जघन्यः समयः स पुनर्दिसमयक्रियमृतस्य । परमतराणि संधाससमयदीनानि प्रयस्त्रिंशत् ॥ १॥ 964 * अनुक्रम 5-456-4-95-45 Kantibrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक हारिभ या ॥४६१॥ Jus Educato [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०१६...], भाष्यं [१६९] व्याख्या – इह 'सर्वग्रहोभययोः' सङ्घातसंघातपरिशादयोरित्यर्थः, शाटस्य च 'अन्तरं' विरहकालः 'वैक्रियस्य' वैक्रियशरीरसम्बन्धिनः समयः सङ्घातस्योभयस्य च, अन्तर्मुहूर्त शादस्य, इदं तावज्जघन्यं त्रयाणामपि कथं ज्ञायत इति चेत् ? यत - उत्कृष्टं 'वृक्षकालिक' वृक्षकालेनानन्तेन निर्वृत्तं वृक्षकालिकमिति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्वयं- 'संघातंतर समयो दुसमय विउब्वियमयस्स तइयंमि । सो दिवि संघातयतो तइए व मयस्स तइयंमि ॥ १ ॥' अविग्रहेण सङ्घातयतः द्वितीयसङ्घातपरिशाटस्य समय एवान्तरमिति, 'उभयस्स चिरविउचियमयस्स देवे सविग्गह गयस्स । साडस्तोमुहुत्तं तिहवि तरुकालमुकोसं ॥ १ ॥ उक्ता वैक्रियशरीरमधिकृत्य सङ्घातादिवक्तव्यता, साम्प्रतमाहारकमधिकृत्यैनां प्रतिपादयन्नाह आहारे संघाओ परिसाडो अ समयं समं होइ । उभयं जहन्नमुकोसयं च अंतोमुहुत्तं तु ॥ १७० ॥ ( भा० ) व्याख्या- 'आहार' इत्याहारकशरीरे सङ्घातः - प्राथमिको ग्रहः परिशाटश्च पर्यन्ते मोक्षश्च, कालतः 'समर्थ' कालविशेषं 'समं' तुल्यं भवति, सङ्घातोऽपि समयं शाटोऽपि समयमित्यर्थः, 'उभयं' सङ्घातपरिशाटोभयं गृह्यते, तज्जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तमेव भवतीति वर्तते, अन्तर्मुहूर्तमात्र कालावस्थायित्वादस्येति गर्भार्थः, उत्कृष्टात्तु जघन्यो लघुतरो वेदितव्य इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमाहारकमेवाधिकृत्य सङ्घाताद्यन्तरमभिधातुकाम आह साडुभाणं जहन्नमतोमुहुशमंतरणं । उक्कोसेण अवद्धं पुग्गलपरिअदेसृणं ॥ १७१ ॥ ( भा० ) १ संधातान्तरं समयो द्विसमयवैक्रियमृतस्य तृतीये । स दिवि संघातयतः तृतीये या मृतस्य तृतीये ॥ १ ॥ २ उभयस्य चिरविकुर्वितत्तस्य देवे सविअहं गतस्य शास्यान्तर्मुहूर्त्त त्रयाणामपि तरकालमुत्कृष्टम् ॥ १ ॥ For Pain Pe सूत्रस्पर्श० करणस्व० वि० १ ~59~ ॥४६१॥ Maincibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१७१] (४०) प्रत सूत्रांक [१] व्याख्या-बन्धन-सहगतः शाटः-शाट एव उभयं सनातशाटी अमीषा बन्धनशाटोभयानां 'जघन्यं सर्वस्तोकम् |'अन्तर्मुहर्तमन्तरणम्' अन्तर्मुहूर्तविरहकालः, सकृत्परित्यागानन्तरमन्तर्मुहुर्तेनैव तदारम्भादिति भावना, उत्कर्षतः | अर्द्धपुद्गलपरावर्तों देशोनोऽन्तरमिति, सम्यग्दृष्टिकालस्योत्कृष्टस्याप्येतावत्परिमाणत्वादिति गाधार्थः । उक्ताऽऽहारकश|रीरमधिकृत्य सङ्घातादिवक्तव्यता, इदानीं तैजसकार्मणे अधिकृत्याऽऽह|तेआकम्माणं पुण संताणाणाइओ न संघाओ। भब्वाण हुज साडो सेलेसीचरमसमयंमि ॥ १७२॥ (भा०) LI व्याख्या-तैजसकार्मणयोः पुनयोः शरीरयोः सन्तानानादितः कारणात् , किं ?, न सातः-न तत्प्रथमतया ग्रहण, प्रागेव सिद्धिप्रसङ्गात् , भव्यानां भवेत् शाटः केपाञ्चित् , कदेति ?, अत आह-शैलेशीचरमसमये, स चैकसामायिक एवेति गाथार्थः ॥ उभयं अणाइनिहणं संतं भव्वाण हुन्ज केसिंचि । अंतरमणाइभावा अचंतविओगओ नेसिं ॥ १७३ ॥ (भा०) HI व्याख्या-उभयम्' इति सङ्घातपरिशाटोभयं प्रवाहमङ्गीकृत्य सामान्येन 'अनाद्यनिधनम्' अनाद्यपर्यवसितमित्यर्थः, ला'सान्तं' सपर्यवसानमुभयं भव्यानां भवेत केषाञ्चित, न तु सर्वेषामिति, अन्तरमनादिभावादत्यन्तवियोगतश्च नानयोरितिर गाथार्थः ॥ १७३ ॥ अथवेदमन्यजीवप्रयोगनिवृत्तं चतुर्विध करणमिति, आह चअहवासंघाओ?साडणं च२उभयं३ तहोभयनिसेहो ४ापड़ १ संखर सगड २थूणा ४ जीवपओगे जहासंखं १७४ | अनुक्रम KAR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१७४] (४०) सूत्रस्पर्श करणस्व० वि०१ प्रत सूत्रांक 254458 आवश्यक- व्याख्या-अथवाशब्दः प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः, 'सङ्घात' इति सङ्घातकरणं, 'सातनं च' शातनकरणं च 'उभयं' सवाहारिभ-1 तशातनकरणं 'तथोभयनिषेध' इति सहातपरिशाटशून्यम् । अमीपामेवोदाहरणानि दर्शयन्नाह-पटः शब्दः शकटं स्थूणा, द्रीया ‘जीवप्रयोग' इति जीवप्रयोगकरणे तत्कायव्यापारमाश्रित्य यथासङ्ख्यमेतान्युदाहरणानि समवसेयानि, तथाहि-पटस्तन्तु४६२॥ सङ्घातात्मकत्वात् सङ्घातकरणं शङ्खस्त्वेकान्तसाटकरणादेव शाटकरणं शकटं तक्षणकीलिकादियोगादुभयकरणं स्थूणा पुनरूधतियकरणयोगात् संघातशाटविरहादुभयशून्या इति गाथार्थः॥ उक्तं जीवप्रयोगकरणम् , आह-जंजं निज्जीवाणं कीरइ |जीवप्पओगओ तं ते इत्यादिनाऽस्याजीवकरणतैव युक्तियुक्तेति, अत्रोच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानाद्, इहादावेवाथवा| शब्दप्रयोगतःप्रकारान्तरमात्रप्रदर्शनार्थमेतदुक्तं, ततश्चात्र व्युत्पत्तिभेदमात्रमाश्रीयते, जीवप्रयोगात् करणं जीवप्रयोग करणमिति, ज्यायांश्चान्यर्थ इत्यलं प्रसङ्गेन । उक्तं द्रव्यकरणं, साम्प्रतं क्षेत्रकरणस्यावसरः, तत्रेयं नियुक्तिगाथाहाखित्तस्स नत्थि करणं आगासं जं अकित्तिमो भावो। वंजणपरिआवन्नं तहावि पुण उच्छुकरणाई॥१०१७ ॥ | अस्या व्याख्या-इह 'क्षेत्रस्य' नभसः 'नास्ति करणं' निर्वृत्तिकारणाभावान्न विद्यते करणं मुख्यवृत्त्या 'आकाश' क्षेत्रं कायद्' यस्मात् 'अकृत्रिमो भावः' अकृतकः पदार्थः, अकृतकस्य च सतो नित्यत्वात् करणानुपपत्तिरिति भावः । आह-I यद्येवं किमिति नियुक्तिकारेण निक्षेपगाथायामुपन्यस्तमिति !, अत्रोच्यते, व्यञ्जनपर्यायापन्नं तथापि पुनरिक्षुकरणाद्यरत्येवेति, इह व्यञ्जनशब्देन क्षेत्राभिव्यञ्जकत्वात् पुद्गलाः गृह्यन्ते, तत्सम्बन्धात् पर्यायः कथञ्चित् प्रागवस्थापरित्यागेनावस्थान्तरापत्तिरित्यर्थः, तमापन्नं पुनस्तथाऽपि यदा विवक्ष्यते तदा पर्यायो द्रव्यादनन्य इति पर्यायद्वारेण क्षेत्रकरण अनुक्रम Jaintain पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~614 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१७], भाष्यं [१७४...] -0-39-45-450-456 प्रत सूत्रांक मस्तीति सभावार्थाऽक्षरगमनिका ॥ उपचारमात्राद्वेक्षुकरणादि, यथेषुक्षेत्रकरणं शालिक्षेत्रकरणम् , अथवाऽऽदिशब्दाद् । यत्र प्ररूप्यते क्रियते वेति गाथार्थः॥ १०१७ ॥ उक्त क्षेत्रकरणम् , इदानीं कालकरणस्यावसरः, तत्रेयं गाधाकालेवि नत्थि करणं तहावि पुण वंजणप्पमाणेणं । बवबालवाइकरणेहिंऽणेगहा होइ ववहारो॥१०१८ ॥ अस्या व्याख्या-कलनं कालः कलासमूहो वा कालस्तस्मिन् कालेऽपि, न केवलं क्षेत्रस्य, किं ?, नास्ति करणंन विद्यते कृतिः, कुतः ?-तस्य वर्तनादिरूपत्वाद्, वर्तनादीनां च स्वयमेव भावात् , समयाद्यपेक्षायां च परोपादानत्वा दिति भावना, आह-यद्येवं किमिति नियुक्तिकृतोपन्यस्तमिति ?, अत्रोच्यते, तथाऽपि पुनर्व्यञ्जनप्रमाणेन भवतीति शेषः, दाइह व्यञ्जनशब्देन विवक्षया वर्तनाद्यभिव्यञ्जकत्वाद् द्रव्याणि गृह्यन्ते, तत्प्रमाणेन-तन्त्रीत्या तद्वलेन भवतीति, तथाहि-1 वर्तनादयस्तद्वतां कथञ्चिदभिन्ना एव, ततश्च तद्वता करणे तेषामपि करणमेवेति भावना, समयादिकालापेक्षायामपि व्यवहारनयादस्ति कालकरणमिति, आह च-बक्वालवादिकरणैरनेकधा भवति व्यवहार इति, अत्रादिशब्दात् कौलवादीनि गृह्यन्ते, उक्तं च-'बवं च बालवं चेव, कोलवं थीविलोयणं । गराइ वणियं चेव, विही भवइ सत्तमा ॥१॥ एयाणि सत्त करणाणि चलाणि बटुंति, अवराणि सउणिमाईणि चत्तारि थिराणि, उक्तं च-सउणि चउप्पय गागं किंछुग्धं च करणं ४ थिरं चउहा । बहुलचउद्दसिरत्ती सउणी सेसं तियं कमसो॥१॥ एस एस्थ भावणा-बहुलचउद्दसिराईए सउणी हवति, बब च बालवं चैव कौलवं स्त्रीविलोचनम् । गरादि पणिक् चैव विधिर्भवति सप्तमी ॥॥ एतानि सप्त करणानि चलानि वर्तन्ते, अपराणि शकुन्यादीनि | चत्वारि स्थिराणि,-शकुनिश्चतुष्पदं नागः किंस्तुमं च करणानि स्थिराणि चतुधी । कृष्णचतुर्दशीरात्रौ शकुनिः दोषं त्रिकं क्रमशः ॥ १॥ एषाऽन्न भावना-कृष्णचतुदशीरात्रौ शकुनिर्भवति अनुक्रम XRE JAMERaut पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१८], भाष्यं [१७४...] (४०) आवश्यक हारिभ सूत्रस्पर्श करणस्व० वि०१ ट्रीया ॥४६॥ RDERRORRORS 'सेसं तियं चउप्पयाई करणं अमावासाए दिया राओ य तो पडिवयदियाय, तओ सुद्धपडिवयणिसादौ बवाईणि हवंति, एएसिं च परिजाणणोवाओ-पक्खतिहओ दुगुणिया दुरूवहीणा य सुक्कपक्खमि । सत्तहिए देवसियं तं चिय रूवाधियं रति ॥१॥ एसेत्थ भावणा-अहिगयदिणंमि करणजाणणत्थं पक्खतिहिओ दुगुणियत्ति-अहिंगयतिहिं पडुच्च अइगआ। दुगुणा कजति, जहा सुद्धचउत्थीए दुगुणा अह हवंति 'दुरूवहीण'त्ति तओ दोणि रूवाणि पाडिति, सेसाणि छ सत्तहिं भागे देवसियं करणं भवइ, एत्थ य भागाभावा छच्चेव, तओ बवाइकमेण चादुप्पहरिगकरणभोगेणं चउत्थीए दिवसओ वणियं हवइ, 'तं चिय रूवाहियं रत्ति'ति रत्तीए विठ्ठी, कण्हपक्खे पुणो दो रूवा ण पाडिजंति, एवं सवत्थ भावणा कायवा, भणियं च-'किण्हनिसि तइय दसमी सत्तमी चाउद्दसीय अह विट्ठी । सुक्कचउत्थेकारसि निसि अट्ठमि पुन्निमा य दिवा 8/॥१॥ सुद्धस्स पडिवयनिसि पंचमिदिण अहमीए रत्तिं तु । दिवसस्स बारसी पुन्निमा य रत्तिं बर्व होइ ॥२॥ 8. शेषं वर्ष चतुष्पदादिकरणं अमावास्याचा दिवा राम्रौ च ततः प्रतिपदिवसे च, ततः शुचप्रतिपनिशादी बवादीनि भवन्ति, एतेषां च परिज्ञानोपायः-पक्षतिथयो द्विगुणिता द्विरूपहीनाब शुक्रपक्षे । सप्तहते देवसिकं तदेव रूपाधिक रात्रौ ॥१॥ एषाश्च भावना-अधिकृतदिने करणज्ञानाथै पक्षतिथयो द्विगुणिता इति अधिकृततिथि प्रतीख अतिगता द्विगुणाः क्रियन्ते, यथा शुकचतुथ्यों द्विगुणा अष्ट भवन्ति, द्विरूपहीना इति ततो दे रूप पायेते, शेषाणि पद सप्तभिर्भागे। देवसिकं करणं भवति, मनसभागाभावात् पदेव, ततो बवादिक्रमेण चातुमाहरिककरणभोगेन चतुया दिवसे वणिक भवति, तदेव रूपाधि रात्रा' विति। रात्री विधिः, कृष्णपक्षे पुन रूपे न पायेते, एवं सर्वत्र भावना कर्तव्या, भणितं च-कृष्णे निशि तृतीयायां दशम्यां सप्तम्यां चतुर्दश्यां अति विष्टिः । शुझे चतुया एकादश्यां निशि अष्टम्यां पूर्णिमायां च दिवा ॥ ॥ शुक्ल प्रतिपनिशि पञ्चमी दिने अष्टम्या रात्री तु द्वादश्या दिवसे पूर्णिमायाश्च रात्रौ बर्व भवति ॥ २॥ ॥४६॥ dainainrayom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~634 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [ गाथा- ], निर्युक्तिः [१०१८], भाष्यं [ १७४...] बहुलस्स चउत्थीए दिवा य तह सत्तमीइ रर्त्तिमि । एक्कारसीय उ दिवा बवकरणं होइ नायवं ॥ ३ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ १०१८ ॥ उक्तं कालकरणम्, अधुना भावकरणमभिधीयते, तत्र भावः पर्याय उच्यते, तस्य च जीवाजीवोपाधिभेदेन द्विभेदत्वात् तत्करणमप्योघतो द्विविधमेवेति, अत आह— | जीवमजीवे भावे अजीवकरणं तु तत्थ बन्नाई। जीवकरणं तु दुविहं सुअकरणं नो अ सुअकरणं ॥ १०१९ ॥ व्याख्या -- इहानुस्वारस्यालाक्षणिकत्वाज्जीवाजीवयोः सम्बन्धि 'भाव' इति भावविषयं करणमवसेयमिति, अल्पवक्तव्यत्वादजीवभावकरणमेवादावुपदर्शयति-'अजीवकरणं तु' तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादजीवभावकरणं परिगृह्यते, 'तत्र' तयोर्मध्ये वर्णादि, इह परप्रयोगमन्तरेणाभ्रादेर्नानावर्णान्तरगमनं तदजीवभावकरणम्, आदिशब्दाद् गन्धादिपरिग्रहः, तत्राऽऽह- ननु च द्रव्यकरणमपि विश्रसाविषयमित्थंप्रकारमेवोकं, को न्वत्र भावकरणे विशेष इति ?, उच्यते, इह भावाधिकारात् पर्यायप्राधान्यमाश्रीयते तत्र तु द्रव्यप्राधान्यमिति विशेषः, जीवकरणं तु पुनः 'द्विविधं' द्विप्रकारं श्रुतकरणं नोश्रुतकरणं च श्रुतकरणमिति श्रुतस्य जीवभावत्वाच्छ्रुतभावकरणं, नोश्रुतभावकरणं च गुणकरणादि, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्ध इति गाथार्थः ॥ १०१९ ॥ साम्प्रतं जीवभावकरणेनाधिकार इति तदेव यथोद्दिष्टं तथैव भेदतः प्रतिपिपादयिषुराह— बद्धमबद्धं तु सुअं बद्धं तु दुबालसंग निद्दिहं । तव्चिवरीअमबद्धं निसीहमनिसीह बद्धं तु ॥ १०२० ॥ १ कृष्णस्य चतुर्थ्या दिवसे च तथा सप्तम्यां रात्रौ । एकादश्यास्तु दिवसे यवकरणं भवति ज्ञातव्यम् ॥ ३ Education intimational For Falste cibrary org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२०], भाष्यं [१७४...] G हारिभ RASA सूत्रस्पर्श. करणस्व० वि०१ आवश्यक-IG __ व्याख्या-इह बद्धमबद्धं तु श्रुतं, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि !-लौकिकलोकोत्तरभेदमिदमेवमिति, तत्र पद्य- गद्यबन्धनाद् बर्द्ध शास्त्रोपदेशवत् , अत एवाह-बद्धं तु द्वादशाङ्गम्-आचारादि गणिपिटकं निर्दिष्टं, तुशब्दस्य विशे- द्रीया पणार्थत्वालोकोत्तरमिदं, लौकिकं तु भारतादि विज्ञेयमिति, तद्विपरीतमबद्धम् लौकिकलोकोत्तरभेदमेवावसेयमिति, ॥४६॥ | निसीहमनिसीह बद्धं तु'त्ति इह बद्धश्रुतं निषीथमनिषीथं च, तुशब्दः पूर्ववत्, तत्र रहस्ये पाठाद् रहस्योपदेशाच्च प्रच्छन्नं निपीथमुच्यते, प्रकाशपाठात् प्रकाशोपदेशत्वाचानिपीथमिति गाथार्थः ॥ १०२० ॥ साम्प्रतमनिषीयनिषीथयोरेव स्वरूपप्रतिपादनायाह भूआपरिणयविगए सद्दकरणं तहेव न निसीहं । पच्छन्नं तु निसीहं निसीहनामं जहऽज्झयणं ॥१०२१ ॥ व्याख्या-भूतम्-उत्पन्नम् अपरिणत-नित्यं विगत-विनष्टं, ततश्च भूतापरिणतविगतानि, एतदुक्तं भवति-'उप्पण्णे इ वा विगए इवा धुवे इ वा' इत्यादि, शब्दकरणमित्यनेनोक्तिमाह, तथा चोक्तम्-'उत्ती तु सद्दकरणे' इत्यादि, तदेवं भूतादिशब्दकरणं 'न निषीय'मिति निषीथं न भवति, प्रकाशपाठात् प्रकाशोपदेशत्वाच्च, प्रच्छन्नं तु निषीथं रहस्यपाठाद् रहस्योपदेशाच्च निपीथनाम यथाऽध्ययनमिति गाथार्थः ॥ १०२१ ॥ अथवा निषीथं गुप्तार्थमुच्यते, “जहा-अग्गाणीए विरिए अधिनस्थिप्पवायपुबे य पाठो-जत्थेगो दीवायणो भुजइ तत्थ दीवायणसयं भुंजइ जत्थ दीवायणसयं भुंजइ तत्थ EXECU ॥४६॥ भक्तिस्तु शब्दकरणे ३ यथाऽप्रायणीये वीर्य अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वे च पाठा-पत्रको द्वीपरायनो भुक्के तन द्वीपायन शतं भुले, यत्र द्वीपाचनशतं भुक्ते तत्रैको AIMERamana पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२१], भाष्यं [१७४...] (४०) प्रत सूत्रांक CAGAR ४) एगो दीवायणो भुजइ, एवं हम्मइ वि जाव जत्थ दीवायणसयं हम्मइ तत्थेगो दीवायणो हम्मइ," तथा चामुमेवार्थमभिधातुकाम आह-- अग्गेणीअंमि य जहा दीवायण जत्थ एग तत्थ सयं । जत्थ सयं तत्थेगो हम्मइ वा धुंजए वावि ॥१०२२ ॥ व्याख्या-सम्पदायाभावान्न प्रतन्यत इति ॥ एवं बद्धमबद्धं आएसाणं हवंति पंचसया । जह एगा मरुदेवी अञ्चंतत्थावरा सिद्धा ॥ १०२३ ॥ व्याख्या-'एवम्' इत्यनन्तरोक्तप्रकारं 'बद्धं' लोकोत्तरं, लौकिकं त्वत्रारण्यकादि द्रष्टव्यम् , अबद्धं पुनरादेशानां भवन्ति पञ्च शतानि, किम्भूतानि ?, अत आह-यथैका-तस्मिन् समयेऽद्वितीया 'मरुदेवी ऋषभजननी 'अत्यन्तस्थावरा' ४ इत्यनादिवनस्पतिकायादुत्त्य 'सिद्धा' निष्ठितार्था सञ्जातेति,उपलक्षणमेतदन्येषामपि स्वयम्भूरमणजलधिमत्स्यपद्मपत्राणां वलयव्यतिरिक्तसकलसंस्थानसम्भवादीनामिति, लौकिक्रमप्यड्डिकाप्रत्यड्डिकादिकरणं ग्रन्थानिवद्धं वेदितव्यमिति गाथार्थः P॥१०२३ ॥ अत्र वृद्धसम्प्रदाया-आरुहए पवयणे पंच आएससयाणि जाणि अणिबद्धाणि, तत्थेग मरुदेवा णवि अंगे ण| उबंगे पाठो अस्थि जहा-अञ्चंत थावरा होइऊण सिद्धत्ति, विइयं सयंभुरमणे समुद्दे मच्छाणं पउमपत्ताण य सबसंठाणाणि दीपायनो भुंके, एवं हन्यतेऽपि यावत् यत्र द्वीपायनशतं हन्यते तत्रैको द्वीपायनो हन्यते २ आईते प्रवचने पञ्चादेशशतानि यान्यनिषदानि, तत्रैक Mमरुदेवा नैवाने नोपाङ्गे पाठोऽस्ति यथा-अत्यन्त स्थावरा (९) भूत्वा (अनादिवनस्पतेरागत्य) सिद्धेति, द्विती वं खयम्भूरमणे समुझे मत्स्यानां पनपत्राणां च सर्वसंस्थानानि अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | मरुदेवी मातरः कथानक ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०२३], भाष्यं [१७४...] (४०) सूत्रस्पर्श करणस्व० दीया वि०१ प्रत 18 अस्थि वलयसंठाणं मोत्तुं, तइयं विण्हुस्स सातिरेगजोयणसयसहस्सविउवणं, चउत्थं करडओकुरुडा *दोसष्ट्रियरुवझाया, हारिभ कुणालाणयरीए निद्धमणमूले वसही, वरिसासु देवयाणुकंपणं, नागरेहि निच्छुहणं, करडेणरूसिपण वुत्तं 'वरिस देव! कुणा लाए,' उकुरुडेण भणियं-'दस दिवसाणि पंच य' पुणरवि करडेण भणियं-'मुहिमेत्ताहिं धाराहिं' उकुरुडेण भणियं॥४६५॥ 'जहा रत्विं तहा दिवं' एवं वोत्तूणमवकता, कुणालाएवि पण्णरसदिवसअणुबद्धवरिसणेणं सजाणवया (सा) जलेण उर्फता तओ ते तइयवरिसे साएए णयरे दोऽवि कालं काऊण अहे सत्तमाए पुढवीए काले णरगे बावीससागरोवमहिईआणेरइया संवुत्ता । कुणालाणयरीविणासकालाओ तेरसमे वरिसे महावीरस्स केवलणाणसमुप्पत्ती । एवं अनिबर्द्ध, एवमाइ |पंचाएससयाणि अबद्धाणि ॥ एवं लोइयं अबद्धकरणं बत्तीसं अड्डियाओ बत्तीस पञ्चड्डियाओ सोलस करणाणि, लोगप्पवाहे पंचट्ठाणाणि तंजहा-आलीढं पच्चालीढं वइसाहं मंडल समपयं, तत्थालीढं दाहिणं पार्य अग्गओहत्तं का? सूत्रांक अनुक्रम सन्ति बलयसंस्थानं मुक्त्वा, तृतीयं विष्णोः सातिरेकयोजनातसहस्रं वैक्रिय, चतुथै कुटो कुटी दोषाःतरोपाध्यायौ कुणालायां नगर्यो। | निधमन (जलनिर्गमनमार्ग) मूले वसतिः (तयोः), वर्षासु (वर्षावासे) देवतानुकम्पनं, नागरैर्निष्काशनं, करटेन रुष्टेनोक्त-वर्ष देव! कुणालायां,' उत्कुरटेन माणितं-'दशा दिवसान् पञ्चच' पुनरपि करटेन भणितं-मुष्टिमात्राभिर्धाराभिः' उत्कुरुटेन भणितं-'यथा रानी तथा दिवा' एवमुक्त्वाऽपक्रान्ती, कुणालायामपि पत्रदशदिवसानुबद्धवर्षणेन सजनपदा (कुणाला) जलेनापकान्ता, ततस्तौ तृतीय वर्षे साकेते नगरे दावपि कालं कृत्वाऽधः सप्तम्यां पृथिव्यां काले नरके द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिको नैरयिको संवृत्तौ । कुणालानगरीविनाशकालात्रयोदशे वर्षे महावीरस्य केवलज्ञानसमुत्पत्तिः । एतदनिववं, एवमादीनि पञ्चादेशशतानि भबद्धानि । एवं लौकिकमबद्धकरण द्वात्रिंधादडिकाः द्वात्रिंशत्प्रत्याड्किाः पोडश करणानि, होकप्रवाहे पञ्च स्थानानि, तयथा-भालीई प्रत्या। लीढं वैशास्त्र मण्डलं समपाद, तत्रालीढं दक्षिणं पादमप्रतीभूतं कृत्वा * दोसढियहव० ॥४६५॥ JAMEairammam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [ गाथा- ], निर्युक्तिः [१०२३], भाष्यं [ १७४...] वामपायं पच्छओहुतं ओसारेइ, अंतरं दोहवि पायाणं पंचपाया, एवं चेव विवरीयं पञ्चालीढं, वइसाहं पण्हीओ अभितराहुत्तीओ समसेढीए करेइ, अग्गिमयलो बहिराहुत्तो, मंडल दोवि पाए दाहिणवामहुत्ता ओसारेत्ता ऊरुणोवि आउंटावेइ जहा मंडलं भवइ, अंतरं चत्तारि पया, समपायं दोवि पाए समं निरंतरं ठवेइ, एयाणि पंचद्वाणाणि, लोगप्पवाए (है) सयणकरणं छठ्ठ ठाणं, इत्यलं विस्तरेण ॥ उक्तं श्रुतकरणम् अधुना नोश्रुतकरणमभिधित्सुराहनोसुअकरणं दुविहं गुणकरणं तह य जुंजणाकरणं । गुणकरणं पुण दुविहं तवकरणे संजमे अ तहा ||१०२४|| व्याख्या - श्रुतकरणं न भवतीति नोश्रुतकरणम्, 'अमानोनाः प्रतिषेधवाचका' इति वचनात्, 'द्विविधं' द्विप्रकारं 'गुणकरणम्' इति गुणानां करणं गुणकरणं, गुणानां कृतिरित्यर्थः, 'तथा' इति निर्देशे 'चः' समुच्चये व्यवहितश्चास्य योगः, कथं ?, 'योजनाकरणं च' मनःप्रभृतीनां व्यापारकृतिश्चेत्यर्थः, गुणकरणं पुनः 'द्विविधं' द्विप्रकारं कथं ?, 'तपकरणम्' इति तपसः अनशनादेर्वाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नस्य करणं तपःकरणं, तपःकृतिरिति हृदयं, तथा 'संजमे अत्ति संयमविषयं चपञ्चाश्रवविरमणादिकरणमिति भाव इत्ययं गाथार्थः ॥ १०२४ ॥ इदानीं योजना करणं व्याचिख्यासुराह--- जुंजणकरणं तिविहं मण १ वयश्काए अश्मणसि सच्चाई। सहाणि तेसि भेओ चउ१ चउहा२सत्तहा ३ चैव १०२५ वामपादं पश्चात्कृत्यापसारयति, अन्तरं द्वयोरपि पादयोः पञ्च पादाः एवमेव विपरीतं प्राली, वैशाखं पार्थी अभ्यन्तरे समश्रेण्या करोति, अप्रतली बाह्यतः मण्डलं द्वावपि पादौ दक्षिणवामतः अपसार्थ करू अपि आकुञ्जति यथा मण्डलं भवति, अन्तरं चत्वारः पादाः, समपादं द्वावपि पादौ समं निरन्तरं स्थापयति, एतानि पञ्च स्थानामि, लोकप्रवादे (हे) शयनकरणं पष्ठं स्थानम् । Education intentional For Parts Only abray org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२५], भाष्यं [१७४...] आवश्यक द्रीया ॥४६६॥ व्याख्या-योजनाकरण 'त्रिविधं त्रिप्रकारं 'मणवइकाए यत्ति मनोवाकायविषय, तत्र 'मनसि सत्यादि' मनोविषय सूत्रस्पर्श सत्यादियोजनाकरणं तद्यथा-सत्यमनोयोजनाकरणम् , असत्यमनोयोजनाकरणं, सत्यमृषामनोयोजनाकरणम् , असत्या-14 करणस्व० मृषामनोयोजनाकरणमिति, 'स्वस्थाने प्रत्येकं मनोवाकायलक्षणे 'तेषां' योजनाकरणानां 'भेदः' विभागः 'चउ चउहा सत्तहा। वि०१ चेवत्ति अयमत्र भावार्थ:-मनोयोजनाकरणं चतुर्भेदं सत्यमनोयोजनाकरणादि दर्शितमेव, एवं वाम्योजनाकरणमपि चतुर्भेदमेव द्रष्टव्यं, काययोजनाकरणं तु सप्तभेदं, तद्यथा-औदारिककाययोजनाकरणम् , एवमौदारिकमित्रम् , एवं वक्रियकायः एवं क्रियमिश्रम्, एवमाहारककायः एवमाहारकमिश्रम् , एवं कार्मणकाययोजनाकरणमिति गाथार्थः । १०२५ ॥ इत्थं तावद् व्यावर्णितं यथोद्दिष्टं करणम् , अधुनाऽत्र येनाधिकार इति तद्दर्शनायाऽऽहभावसुअसद्दकरणे अहिगारो इत्थ होइ कायब्यो । नोमुअकरणे गुणझुंजणे अ जहसंभव होइ ॥ १०२६ ॥ व्याख्या-भावश्रुतशब्दकरणे 'अधिकारः' अवतारो भवति कर्तव्यः श्रुतसामायिकस्य, न तु चारित्रसामायिकस्य, तस्य अन्ते यथासम्भवाभिधानाद्, इह चभावश्श्रुतं सामाविकोपयोग एव, शब्दकरणमप्यत्र तच्छब्दविशिष्टः श्रुतभाव एव विवक्षितो न तु द्रव्यश्रुतमिति, तत्र वस्तुतोऽस्यानवतारात्, तथा नोश्रुतकरणमधिकृत्य 'गुणझुंजणे यत्ति गुणकरणे योजनाकरणे च यथासम्भवं भवति, अधिकरणमिति गम्यते, तत्र यथासम्भवमिति गुणकरणे चारित्रसामायिकस्यावतारः, तपःसंयमगुणात्मकत्वाचारित्रस्य, योजनाकरणे च मनोवाग्योजनायां सत्यासत्यामृषाद्धये द्वयस्यापि भावनीयः, काययोज पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२६], भाष्यं [१७४...] नायामपि द्वयस्यायस्यैवेति गाथार्थः ॥ १०२६ ॥ साम्प्रतं सामायिककरणमेवाव्युत्पन्नविनेयवर्गव्युत्पादनार्थ सप्तभिरनु-भा योगद्वारैः कृताकृतादिभिः निरूपयन्नाह कयाकयं १ केण कयं २ केसु अव्वेसु कीरई वावि ३ । काहे व कारओ ४ नयओ ५ करणं कहविहं ६ (च) कहं ७१ ॥ १०२७ ॥ व्याख्या-'कयाकर्य'ति सामायिकस्य करणमिति क्रियां श्रुत्वा चोदक आक्षिपति-एतत्सामायिकमस्याः क्रियायाः प्राक् किं कृतं क्रियते ? आहोश्विदकृतमिति, उभयथाऽपि दोषः, कृतपक्षे भावादेव करणानुपपत्तेः, अकृतपक्षेऽपि वान्ध्येयादेरिव करणानुपपत्तिरेवेति, अत्र निर्वचनं, कृतं चाकृतं च कृताकृत, नयमतभेदेन भावना कार्या, केन कृतमिति वक्तव्यं, तथा केषु द्रव्येष्विष्टादिषु क्रियते !, कदा वा कारकोऽस्य भवतीति वक्तव्यं, 'नयत' इति केनालोचनादिना नयेनेति, तथा करणं 'कइविहं' कतिभेदं 'कथं' केन प्रकारेण लभ्यत इति वक्तव्यमयं गाथासमासाथैः ॥१०२७ ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वार भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहउप्पन्नाणुप्पन्नं कयाकयं इत्थ जह नमुक्कारे। दा०१केणंति अत्यओतं जिणेहिं सुत्तंगणहरेहि॥१७॥(दा०२)भा० व्याख्या-इहोत्पन्नानुत्पन्न कृताकृतमभिधीयते, सर्वमेव च वस्तूत्पन्नानुत्पन्न क्रियते, द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वावस्तुन इति, अत्र नैगमादिनयैर्भावना कार्येति, अत एवाऽऽह-अत्र यथा नमस्कारे नयभावना कृता तथैव कर्तव्येति गम्यते, न JAMEairatam natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: सामायिककारणस्य सप्त अनुयोगद्वारैः निरूपणं ~70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक हारिभ द्वीया ॥४६७॥ [भाग-३०] “आवश्यक - मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०२७], भाष्यं [१७५] सा पुनर्नमस्कारानुसारेणैव भावनीयेति द्वारम् । सा पुण भावणा - इह केइ उप्पन्नं इच्छंति, केइ अणुत्पन्नं इच्छंति, ते य णेगमाई सत्त मूलणया, तत्थ णेगमोऽणेगविहो, तत्थाइणेगमस्स अणुष्पन्नं कीरइ णो उप्पण्णं, ५ कम्हा १, जहा पंच अत्थिकाया णिच्चा एवं सामाईयंपि ण कयाइ णासि ण कयाइ ण भवदि ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवइ अ भविस्सइ, धुवे णिइए अक्खए अबए अवट्ठिए णिच्चे ण एस भावे केणइ उप्पाइएत्तिकट्टु, जदाचि भरहेरवएहिं वासेहिं बोच्छिज्जइ तयावि महाविदेहे वासे अधोच्छिती तम्हा अणुष्पन्नं । सेसाणं णेगमाणं छण्ह य संगहाईण नयाणं उत्पन्नं कीरइ, जेणं पण्णरससुवि कम्मभूमीस पुरिसं पडुच्च उप्पजइ, जइ उत्पन्नं कहं उप्पन्नं १, तिविहेण सामित्तेण उप्पत्ती भवइ, तंजहा-समुट्ठाणेणं वायणाए लद्धीए, तत्थ को णओ कं उप्पत्तिं इच्छइ ?, तत्थ जे पढमवजा णेगमा संगहववहारा य ते तिविहंपि उप्पत्तिं इच्छंति, समुद्राणेणं जहा तित्थगरस्स सएणं उवद्वाणेणं, वायणाए वायणायरियणिस्साए जहा भगवया गोयमसामी वाइओ, लद्धीए वा अभवियरस १ सा पुनभवना-इह केचिदुत्पन्नमिच्छन्ति केचिदनुत्पन्नमिच्छन्ति, ते च नैगमादयः सप्त मूलमयाः, तत्र नैगमोऽनेकविधः सन्नादिनैगमल्यानुत्पन्नं क्रियते नोत्पन्नं कस्मात्?, यथा पञ्चास्तिकाया नित्या एवं सामायिकमपि न कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति न कदाचिन्न भविष्यति, भूतं च भवति च भविध्यति, ध्रुवं नैत्विकं अक्षयमव्ययं अवस्थितं नित्यं नैष भावः केनचिदुत्पादित इति कृत्वा, पदापि भरतैरवत्तेषु वर्षेषु व्युच्छियते तदाऽपि महा विदेहेषु वर्षेषु अव्यवच्छित्तिः तस्मादनुत्पन्नं । शेषाणां नैगमानां पण्णां च संग्रहादीनां नयानामुत्पन्नं क्रियते, यतः पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु पुरुषं प्रतीत्योत्पयते, यद्युत्पन्नं कथमुत्पन्नं?, त्रिविधेन स्वामित्वेनोत्पत्तिर्भवति, तद्यथा समुत्थानेन वाचनया च्या तत्र को नयः कामुत्पत्तिमिच्छति ?, तत्र वे प्रथमव नैगमाः संग्रहम्यवहारौ च ते त्रिविधामप्युत्पतिमिच्छन्ति, ससुत्थानेन यथा तीर्थंकरस्य स्वकेनोत्थानेन, वाचनया वाचनाचार्य निश्रया यथा भगवता गौतमस्वामी वाचितः या वाऽभव्यस्व Forsy सूत्रस्पर्श० करणस्व० वि० १ ~71~ ४ ॥४३७॥ ancibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१७५] प्रत स्थि, भवियस्स पुण उवएसगमंतरेणावि पडिमाइ दणं सामाइयावरणिजाण कम्माण खओवसमेणं सामाइयलद्धी समुप्पज्जा, जहा सयंभूरमणे समुद्दे पडिमासंठिया य मच्छा पउमपत्तावि पडिमासंठिदा साहुसंठिया य, सवाणि किर तत्थ संठाणाणि अस्थि मोत्तूण वलयसंठाणं, एरिसं णस्थि जीवसंठाणंति, ताणि संठाणाणि दळूण कस्सइ संमत्तसुयचरित्ताचरित्तसामाइयाइ उप्पजेजा । उजुसुओ पढम समुठ्ठाणेणं नेच्छइ, किं कारणं !, भगवं चेव उहाणं, स एव वायणायरिओ गोयमप्पभिईणं, तेण दुविह-वायणासामित्तं लद्धिसामित्तं च, जं भणियं-बायणायरियणिस्साए सामाइयलद्धी जस्स उप्पजइ, तिण्णि सद्दणया लद्धिमिच्छंति, जेण उठाणे वायणायरिए य विजमाणेवि अभवियस्स ण उप्पजइ, लब्धेरभावात् , एवं उप्यण्णं अणुप्पण्णं वा सामाइयं कजइ, कयाकयंति दारं गतं, अधुना द्वितीयद्वारमधिकृत्याऽऽह-'केन' इति, केन कृतमित्यत्र निर्वचनम्, 'अर्थतः' अर्थमङ्गीकृत्य 'तत् सामायिक सूत्रांक GAS* [१] अनुक्रम नास्ति, भम्यस्य पुनरुपदेशकमन्तरेणापि प्रतिमादि दृष्ट्वा सामायिकावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन सामायिकलब्धिः समुत्पद्यते, यथा स्वयम्भूरमणे समुद्र प्रतिमासंस्थिताश्च मत्स्याः पद्मपत्राण्यपि प्रतिमासंस्थितानि साधुसंस्थितानि च, सर्वाणि किल तत्र संस्थानानि सन्ति मुक्त्वा वलपसंस्थानं, ईदशं 8 नास्ति जीवसंस्थानमिति, तानि संस्थानानि दृष्ट्वा कस्यचित्सम्यक्त्वश्रुतचारित्राचारित्रसामायिकाविरुपयेत । जुसूत्रः प्रथमा समुत्थानेन (इति) नेच्छति, किं कारण ?, भगवानेवोत्थाम, स एव वाचनाचार्यों गौतमप्रभृतीना, तेन द्विविधं वाचनास्वामित्वं लब्धिस्वामिरवं च, याणित-याचनाचार्यनिश्रया सामायिकलब्धिय॑स्योत्पयते, त्रयः शब्दनया लब्धिमिच्छन्ति, येन उत्थाने वाचनाचार्य च विद्यमानेऽपि अभव्यस्य मोत्पद्यते, एवमुत्पन अनुत्पन्नं वा सामायिक कियते, कृताकृतमिति द्वारं गतं । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१७५] प्रत सूत्रांक आवश्यक- जिनैः' तीर्थकरैः, सूत्रं त्वङ्गीकृत्य गणधरैरिति, व्यवहारमतमेतत् , निश्चयमतं तु व्यक्त्यपेक्षया यो यत्स्वामी तत्तेनै- सूत्रस्पशे० हारिभवेति, व्यक्त्यपेक्षश्चेह तीर्थकरगणधरयोरुपन्यासो वेदितव्यः, प्रधानव्यक्तित्वादू, अन्यथा पुनरुक्तदोषप्रसङ्ग इति, उक्तं च । करणस्व० द्रीया वि०१ भाष्यकारेण-णणु णिग्गमे गयं चिय केण कयंति त्ति का पुणो पुच्छा! । भण्णइ स बज्झकत्ता इहंतरंगो विसेसोऽयं ॥१॥" ॥४६८॥ बाह्यकर्ता सामान्येनान्तरङ्गस्तु व्यक्त्यपेक्षयेति भावना, अयं गाथार्थः । साम्प्रतं केषु द्रव्येषु क्रियत इत्येतद् विवृण्वन्नाह-18 हत केसु कीरई तत्थ नेगमो भणइ इहव्वेसु । सेसाण सव्वव्वेसु पज्जवेगुं न सव्वेसुं ॥१७६॥ (दा० ३)(भा०) व्याख्या-तत्' सामायिक 'केषु' द्रव्येषु स्थितस्य सतः क्रियते' निर्वर्त्यत इति द्रव्येषु प्रश्नः, नयप्रविभागेनेह निर्वचनं तत्र 'णेगमो भणई नैगमनयोभाषते-'इष्टद्रव्येषु' इति मनोज्ञपरिणामकारणत्वान्मनोज्ञेष्वेव शयनाशनादिद्रव्येष्विति, तधाहि-मणुण्णं भोयणं भोच्चा, मणुण्णं सयणासणं । मणुण्णंसि अगारंसि, मणुण्णं झायए मुणी ॥१॥ इत्यागमः, 'शेषाणां' सङ्घहादीनां सर्वगन्येषु, शेषनया हि परिणामविशेषात् कस्यचित् किश्चिन्मनोज्ञमिति व्यभिचारात् , सर्वद्रव्येषु स्थितस्य क्रियते यत्र मनोज्ञः परिणाम इति मन्यन्ते, पर्यायेषु न सर्वेष्ववस्थानाभावात्, तथाहि-यो यत्र निषद्यादौ स्थितः न ॥४६८॥ स तत्र तत्सर्वपर्यायेषु, एकभाग एव स्थितत्वात्, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा पुनरुक्तदोषप्रसङ्गः, तथा चोक मनु निर्गमे गतमेव केन कृतमितीति का पुनः पृच्छा ? । भण्यते स बायको इहान्तरको विशेषोऽयम् ॥१॥२ मनोहं भोजनं भुक्त्वा मनोशं | शयनासनम् । मनोजेगारे मनोज्ञं ध्यायति मुनिः ॥३॥ अनुक्रम Jaintain पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१७६] प्रत सूत्रांक CALCDCHADUCACCOCC भाष्यकारेण-"णणु भणियमुवग्धाए केसुत्ति इहं कओ पुणो पुच्छा ? । केसुत्ति तत्थ विसओ इह केसु ठियस्स तल्लाहो ॥१॥ तो किह सबद्दबावत्थाणं? णणु जाइमेत्तवयणाओ। धम्माइसबदबाहारो सबो जणोऽवस्सं ॥२॥" अथवोपोद्घाते सर्वद्रव्याणि विषयः सामायिकस्य, इह तान्येव सर्वव्याणि सामायिकस्य हेतुः, श्रद्धेयज्ञेयक्रियानिवन्धनत्वात् , अथवाऽन्यथा पुनरुक्तपरिहारः-कृताकृतादिगाथायां कृतमकृतं वा सामायिक कार्य कर्म, कर्तु रीप्सिततमत्वात्, केन कृतमिति कतुः प्रश्नः, केषु द्रव्येष्विति साधकतमकरणप्रश्नः, प्राकृते तृतीयाबहुवचनं सप्तमीबहुवचनतुल्यं तृतीयार्थे वा सप्तमी कृत्वा निर्देशः, न चैतदपि स्वमनीषिकाव्याख्यान, यतो भाष्यकारेणाप्यभ्यधायि-"विसओवि उवग्घाए केसुत्तीहं स एव ४ हेउत्ति । सद्धेयणेयकिरियाणिबंधणं जेण सामइयं ॥१॥' अहवा कयाकयाइसु कर्ज केण व कयं च कत्तत्ति । केसुत्ति करणभावो ततियत्थे सत्तमी कार्ड ॥२॥ इत्यलं प्रसङ्ग्रेनेति गाथार्थः ॥ १७६ ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं कदा कारकोऽस्य भवतीत्येतन्नयैर्निरूपयन्नाहकाहु ! उदिखे नेगम उवहिए संगहो अ ववहारो। उजुसुओ अकमंते सद्दु समत्तमि उवउत्तो॥१७७॥(दा०४/भा०) व्याख्या-कदाऽसौ सामायिकस्य कारको भवतीति प्रश्नः, इह नयनिर्वचनं 'उहिले णेगम'त्ति उहिष्टे सति नैगमो मनु भणितमुपोदवाते के विसीह कृतः पुनः पृच्छा । केविति तत्र विषय हह केषु खितस्य तामः ॥1॥ तदा कथं सर्वव्यावस्थानं । ननु हाजातिमात्रवचनात् । धर्मादिसर्वदन्याधार सों जनोऽवश्यम् ॥२॥२ विषयोऽप्यु (यो वो) पोद्घाते केवितीद स एव हेतुरिति । अयज्ञेयक्रियानिवन्धनं येन सामायिकम् ॥ १॥ अथवा कृताकृतादिषु कार्य केन वा कृते च कति । केष्विति करणभावः तृतीषार्थे सप्तमी कृत्वा ॥२॥ अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१७७] (४०) आवश्यक हारिभ द्रीया ॥४६९॥ प्रत सूत्रांक मन्यते, इयमत्र भावना-सामान्यग्राहिणो नैगमनयस्योद्दिष्टमात्र एव सामायिके गुरुणा शिष्योऽनधीयानोऽपि तक्रि- सूत्रस्पर्श याऽननुष्ठायी सन् सामायिकस्य कर्ता वनगमनपस्थितप्रस्थककर्तृवत् , यस्मादुद्देशोऽपि तस्य कारणं सामायिकस्य, तस्मिंश्च । करणस्व० कारणे कार्योपचारः, 'उवहिए संगहो य यवहारो'त्ति सङ्घहो व्यवहारश्च मन्यते-उपस्थितः सन् कारको भवतीति, इय- वि०१ मत्र भावना-इहोद्देशानन्तरं वाचनाप्रार्थनाय यदा वन्दनं दत्त्वोपस्थितो भवति तदा प्रत्यासन्नतरकारणत्वात् सङ्ग्रहव्यवहारयोः कारक इति, ऋजुसूत्र आक्रामन् कारको भवतीति मन्यते, एतदुक्कं भवति-उद्देशानन्तरं गुरुपादमूले वन्दित्वोपस्थितः-सामायिकं पठितुमारब्धः कारकः, वृद्धास्तु व्याचक्षते-न पठन्नेव, किन्तु समाप्तेः कारक इति सामायिकक्रियां वा प्रतिपद्यमानस्तदुपयोगरहितोऽपि कारकः, यस्मात् सामायिकार्थस्य सामायिकशब्दक्रिये असाधारण कारणम्, असाधारणकारणेन च व्यपदेश इति, 'स? समत्तमि उघउत्तोत्ति शब्दादयो नया मन्यन्ते-समाप्ते सत्युपयुक्त एव कारको भवति, त्रयाणां च शब्दादीनां नयानां शब्दक्रियावियुक्तोऽपि सामायिकोपयुक्तः कारकः, मनोज्ञतथापरिणामरूपत्वात् सामायिकस्येति भावना, अयं गाथार्थः ॥१७७ ॥ कदा कारक इति गतं, नयतो-नयप्रपञ्चत इत्यर्थः, अथवा कदा |कारक इत्येतावद् द्वारं गतं, नयत इत्येतत्तु द्वारान्तरमेव, अतस्तदभिधित्सयाऽऽहआलोअणा य१विणए २खित्त ३ दिसाऽभिग्गहे अ ४ काले ५। ॥४६९॥ रिक्ख ६ गुणसंपया वि अ ७ अभिवाहारे अ ८ अहमए ॥ १७८ ॥ (दा०५) (भा०) व्याख्या-इहाऽऽभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाशनम्-आलोचनानयः, तथा विनयश्च पदधावनानुरागादिः, तथा| 456 अनुक्रम ब JABERanbi पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] Educa [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [ गाथा- ], निर्युक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१७८] 'क्षेत्रम्' इक्षुक्षेत्रादि, तथा दिगभिग्रहश्च वक्ष्यमाणलक्षणः, कालश्चाहरादिः, तथा रिक्षसम्पत्-नक्षत्रसंपत् गुणसंपञ्च गुणाः- प्रियधर्मादयः, अभिव्याहरणम् अभिव्याहारश्चाष्टमो नय इति गाथासमासार्थः ॥ १७८ ॥ व्यासार्थं तु प्रतिपदं भाष्यकार एवं सम्यग् न्यक्षेण वक्ष्यति, तथा चाऽऽयद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह फबजाए जुग्गं तावइ आलोअणं गिहत्थेसुं । उवसंपयाइ साहुसु सुत्ते अत्थे तदुभए अ ॥ १७९॥ (१०१ ) ( भा० ) व्याख्या—प्रत्रज्यायाः- निष्क्रमणस्य यत् प्राणिजातं स्त्रीपुरुषनपुंसकभेदं 'योग्यम्' अनुरूपं तदन्वेषणं यदिति वाक्यशेषः, तावत्येवाऽऽलोचनाऽवलोकना वा, केषु ? - 'गृहस्थेषु' गृहस्थविषय इति एतदुक्तं भवति-योग्यं हि सर्वोपाधिशुद्धमेव भवति, ततश्च तदन्वेषणेन सर्वस्यैव विधेः कस्त्वं ? को वा ते निर्वेदः ? इत्यादिप्रश्नादेराक्षेप इति ततश्च प्रयुक्ता| लोचनस्य योग्यताऽवधारणानन्तरं सामायिकं दद्यात्, न शेषाणां प्रतिषिद्धदीक्षाणामिति नयः । एवं तावद् गृहस्थस्या| कृतसामायिकस्य सामायिकार्थमालोचनोचा, साम्प्रतं कृतसामायिकस्य यतेः प्रतिपादयन्नाह - उपसम्पदि साधुषु आलोचनेति वर्तते, सूत्रे अर्थे तदुभये च, इयमत्र भावना - सामायिकसूत्राद्यर्थं यदा कश्चिदुपसम्पदं प्रयच्छति यतिस्तदाऽसावालोचनां ददाति, अत्र विधिः सामाचार्यामुक्त एव, आह- अल्पं सामायिकसूत्रं, तत्कथं तदर्थमपि यतेरुपसम्पत्?, तदभावे वा कथं यतिः ? कथं वा प्रतिक्रमणमन्तरेण शुद्धिरिति ?, अत्रोच्यते, मन्दग्लानादिव्याघाताद् विस्मृतसूत्रस्य ४ यतेः सूत्रार्थमप्युपसम्पदविरुद्धैव, एष्यत्कालं वा दुष्पमान्तमा लो क्यानागतामर्षकं सूत्रमिति, तदभावेऽपि च तदा चारित्रपरि For Party पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक - हारिभ द्वीया ॥४७० ॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [ गाथा- ], निर्युक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१७९] णामोपेतत्वादसौ यतिरेव शुद्धिश्चास्य यावत् सूत्रमधीतं तावत् तेनैव प्रतिक्रमणं कुर्वत इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ॥ १७९ ॥ द्वारम् ॥ अधुनैकगाथयैव विनयादिद्वारत्रयं व्याचिख्यासुराह- आलोइए विणीअस्स दिए तं ( पडि २) पसत्थखित्तंमि । ( प० ३ ) अभिग दो दिसाओ चरंतिअं वा जहाकमसो ॥ १८० ॥ ( प० ४ ) ( भा०) व्याख्या-आलोचिते सति विनीतस्य, पादधावनानुरागादिविनयवत इत्यर्थः, उक्तं च भाष्यकारेण - 'अणुरत्तो भत्तिगओ अमुई अणुयत्तओ विसेसण्णू । उज्जुत्तगऽपरितंतो इच्छियमत्थं लहइ साहू ॥ १ ॥' दीयते 'तत्' सामायिकं, तस्यापि न यत्र तत्र कचित् किं तर्हि ?, 'प्रशस्तक्षेत्रे' इक्षुक्षेत्रादाविति, अत्राप्युक्तं- 'उच्छुवणे सालिवणे पउमसरे कुसुमिए य वणसंडे । गंभीरसाणुणाए पयाहिणजले जिणघरे वा ॥ १ ॥ देज ण उ भग्गझामियसुसाणसुण्णासु सैण्णगेहेसु । छारंगारकथारामेज्झाईदधदुडे वा ॥ २ ॥ ' तथा 'अभिगृह्य' अङ्गीकृत्य द्वे 'दिशा' पूर्वा वोत्तरां वा दीयत इति वर्तते, तथा चरन्तीं वा, तत्र चरन्ती नाम यस्यां दिशि तीर्थकरकेवलिमनःपर्यायज्ञाम्यवधिज्ञानि चतुर्दशपूर्वधरादयो यावद् युगप्रधाना इति विहरन्ति, यथाक्रमश इति गुणापेक्षया तासु दिक्षु यथाक्रमेण दीयत इति, उक्तं च- पुद्याभिमुहो उत्तरमुहो व देज्जाऽहवा पडिच्छिना । १ अनुरक्तो भक्तिगतोऽमोची अनुवर्त्तको विशेषज्ञः । उद्यतकोऽपरितान्त इष्टमर्थं लभते साधुः ॥ १ ॥ २ इवने शालीवने पद्मसरसि कुसुमिते च वनखण्डे । गम्भीरसानुनादे प्रदक्षिणजले जिनगृहे वा ॥ १ ॥ दद्यात् न तु भनध्यामितश्मशानशून्येषु संज्ञागदेषु क्षाराङ्गारकचवरामेध्यादिव्यदुष्टे वा ॥ २ ॥ ३ पूर्वाभिमुख उत्तरमुखो वा दद्यादथवा प्रतीच्छेत्। ष्णामगुण्ण० प्र. For Patna Prsteny सूत्रस्पर्श करणस्व० वि० १ ~77 ~ ॥४७०॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१८०] प्रत सूत्रांक जाएं जिणादओ वा दिसाएँ जिणचेइयाई वा ॥१॥ इति गाथार्थः ॥१८०॥ द्वारत्रयं गतम् , अधुना कालादिद्वा-1 रत्रयमेकगाथयैवाभिधित्सुराह पडिकुछदिणे वजिअ रिक्खेसु अ मिगसिराइभणिएसुं। पियधम्माई गुणसंपयासुतं होइ दायव्वं॥१८॥भा०) XI व्याख्या-प्रतिष्टानि-प्रतिषिद्धानि दिनानि-वासराः, प्रतिष्टानि च तानि दिनानि चेति विग्रहः, तानि चतुर्ददश्यादीनि वर्जयित्वाऽप्रतिकुष्टेष्वेव पञ्चम्यादिषु दातव्यमिति योगः, उक्तं च-"चाउद्देसिं पण्णरसिं वजेज्जा अमिं च नवमिं च । छडिं च चउत्थिं बारसिं च दोण्हपि पक्खाणं ॥१॥" एतेष्वपि दिनेषु प्रशस्तेषु मुहूर्तेषु दीयते, नाप्रशस्तेषु, तथा 'ऋक्षेषु' नक्षत्रेषु च मृगशिरादिषु, 'उक्तेषु' ग्रन्धान्तराभिहितेषु, न तु प्रतिषिद्धेषु, उक्तं च-"मियसिरअदापूसो तिणि य पुवाइ मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तहा दह बुड्डिकराई णाणस्स ॥१॥" तथा-'संझागयं रविगयं विडुरं |सग्गहं विलंपिं च । राहुयं गहभिन्न च वजए सत्त नक्खत्ते ॥ २॥ तथा प्रियधर्मादिगुणसम्पत्सु सतीषु 'तत् सामायिक भवति दातव्यमिति, उक्तं च-"पियुधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवजभीरु असढो य । खतो दंतो गुत्तो थिरवय जिइंदिओ उजू ॥१॥"विनीतस्याप्येता गुणसम्पदोऽन्वेष्टव्या इति गाथार्थः॥१८१॥(प.५-६-७)साम्प्रतं चरमद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह यस्यां जिनादयो वा दिशि जिनचैत्यानि पा ॥ १ ॥ २ चतुर्दशी पञ्चदशी वर्जयेत् अष्टमी च नवमी च । पहीं च चतुर्थी द्वादशीं च योरपि पक्षयोः । ॥ ॥ ३ मृगशिरः आदी पुष्पं विखश्च पूर्वा मूलमश्लेषा । इसश्चित्रा च तथा दश वृद्धिकराणि हानख ॥ ॥ संध्यागतं रविगतं विड्वर सग्रहं विलम्बि च। राहुहतं ग्रहभिन्नं च वर्जयेत् सप्त नक्षत्राणि ॥1॥ प्रियधर्मा धर्मा संविनोऽवयभीमठश्च । क्षान्तो दान्तो गुप्तः स्थिरनको जितेन्द्रिय ऋः ॥१॥ अनुक्रम tandiorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] आवश्यकहारिभ द्वीया ॥४७१॥ Educa [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०२७...], भाष्यं [१८२] अभिवाहारो कालिअसुअंमि सुत्तत्थतदुभएणं ति । द्व्वगुणपज्जवेहि अ दिठीवायंमि बोद्धव्वो ॥१८२॥ (१०८) भा०| व्याख्या—'अभिव्याहरणम्' आचार्यशिष्ययोर्वचनप्रतिवचने अभिव्याहारः, स च 'कालिकश्रुते' आचारादौ 'सुत्तत्थतदुभएणं ति सूत्रतः अर्थतस्तदुभयतश्चेति, इयमत्र भावना- शिष्येणेच्छाकारेणेदमङ्गाद्युद्दिशत इत्युक्ते सतीच्छापुररसरमाचार्यवचनम् - अहमस्य साधोरिदमङ्गमध्ययनमुद्देशं वोदिशामि - वाचयामीत्यर्थः, आप्तोपदशपारम्पर्य ख्यापनार्थं क्षमाश्रमणानां हस्तेन, न स्वोत्प्रेक्षया, सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो वाऽस्मिन् कालिकश्रुते अ(त) थोत्कालिके, दृष्टिवादे कथमिति ?, तदुच्यते- 'दवगुणपज्जवेहि य दिडीवायंमि बोद्धवो' द्रव्यगुणपर्यायैश्च 'दृष्टिवादे' भूतवादे बोद्धव्योऽभिव्याहार इति एतदुक्तं भवति - शिष्यवचनानन्तरमाचार्यवचनमुद्दिशामि सूत्रतोऽर्थतश्च द्रव्यगुणपर्यायैः अनन्तगम सहितैरिति, एवं गुरुणा समादिष्टेऽभिव्याहारे शिष्याभिव्याहारः- ब्रवीति शिष्यः- उद्दिष्टमिदं मम, इच्छाम्यनुशासनं क्रियमाणं पूज्यैरिति, एवमभिव्याहारद्वारमष्टमं नीतिविशेषैर्नयेर्गतमिति गाथार्थः ॥ १८२ ॥ व्याख्याता प्रतिद्वारगाथा, साम्प्रतमधि कृतमूलद्वारगाथायामेव करणं कतिविधमिति व्याचिख्यासुराह— उद्देस१ समुद्दे से श्वायण मणुजाणणं च ४ आयरिए। सीसम्मि उद्दिसिज्जतमाइ एअं तुजं कइहा ॥१८३॥ भा०दा०६ व्याख्या - इह गुरुशिष्ययोः सामायिकक्रियाव्यापारणं करणं, तच्चतुर्द्धा - 'उद्देस समुद्दे से 'ति उद्देशकरणं समुद्देशकरणं 'वायणमणुजाणणं च'ति वाचनाकरणमनुज्ञाकरणं च, छन्दोभङ्गभयादिह वाचनाकरणमत्रोपन्यस्तम्, अन्यथाऽमुना क्रमेण इह उद्देशो वाचना समुद्देशोऽनुज्ञा चेति गुरोर्व्यापारः, 'आयरिए'त्ति गुराविदं करणं गुरुविषयमित्यर्थः, 'सीसम्मि For Patina Peny सूत्रस्पर्श० करणस्व० वि० १ ~79~ ॥४७१ ॥ org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२८], भाष्यं [१८३] प्रत + सूत्रांक उद्दिसिजंतमाई' शिष्ये-शिष्यविषयम् उद्दिश्यमानादि-उद्दिश्यमानकरणं वाच्यमानकरणं समुद्दिश्यमानकरणम् अनुज्ञायमानकरणं च, 'एयं तुजं कइह'त्ति एतदेव चतुर्विधं तद् यदुक्तं कतिविधमिति गाथार्थः ॥ १८३ ॥ आह-पूर्वमने| कविधं नामादिकरणमभिहितमेव, इह पुनः किमिति प्रश्नः', उच्यते, तत् पूर्वगृहीतस्य करणमनेकविधमुक्तम् , इह पुनर| स्मिन् गुरुशिष्यदानग्रहणकाले चतुर्विधं करणमिति, पूर्व वा करणमविशेषेणोकम् , इह गुरुशिष्यक्रियाविशेषाद् विशेषि तमिति न पुनरुक्तम् , अथवाऽयमेव करणस्यावसरः, पूर्वत्रानेकान्तद्योतनार्थ विन्यासः कृत इति विचित्रा सूत्रस्य कृति-| |रित्यलं विस्तरेण, द्वारं ६ । कथमिति द्वारमिदानी, तत्रेय गाथाकह सामाइअलंभो? तस्सब्वविघाइदेसवाघाई। देसविघाईफड्डगअणंतवुड्डीविसुद्धस्स ॥१०२८ ॥ एवं ककारलंभो सेसाणवि एवमेव कमलंभो(दा०)। एअंतु भावकरणं करणे अ भए अजं भणिअं॥१०२९॥ | अस्या व्याख्या-'कथं' केन प्रकारेण सामायिकलाभ इति प्रश्नः, अस्योत्तरं-तस्य-सामायिकस्य सर्वविधातीनि देशविघातीनि च स्पर्द्धकानि भवन्ति, इह सामायिकावरणं-ज्ञानावरणं दर्शनावरणं [मिथ्यात्व] मोहनीयं च, अमीषां द्विविधानि स्पर्द्धकानि-देशघातीनि सर्वघातीनि च, तत्र सर्वघातिषु सर्वेषूद्घातितेषु सत्सु देशघातिस्पर्द्धकानामप्यनन्तेषूदूघातितेष्वनन्तगुणवृद्ध्या प्रतिसमयं विशुस्वमानः शुभशुभतरपरिणामो भावतः ककारं लभते, तदनन्तगुणवृद्ध्यैव प्रति|समयं विशुद्धमानः सन् रेफमित्येवं शेषाण्यपि, अत एवाऽऽह-देशघातिस्पर्धकानन्तवृद्ध्या विशुद्धस्य सतः॥ किं?'एव'मित्यादि,-पूर्वार्द्ध गतार्थम् , आह-उपक्रमद्वारेऽभिहितमेतत्-क्षयोपशमात् जायते, पुनश्चोपोद्घातेऽभिहितमेतत् अनुक्रम wwsaneioraryan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०२९], भाष्यं [१८३...] सूत्रस्पर्श हारिभ प्रत सूत्रांक आवश्यक- कथं लभ्यत इति तत्रोक्तम् , इह किमर्थ प्रश्न इति पुनरुक्तता, उच्यते, त्रयमप्येतदपुनरुक्तं, कुतः, यस्मादुपक्रमे क्षयो-10 पशमात् सामायिक लभ्यत इत्युक्तम् , उपोद्घाते स एव क्षयोपशमस्तत्कारणभूतः कथं लभ्यत इति प्रश्ना, इह पुनर्विशे-४ करणस्व० द्रीया वि०१ पित तरः प्रश्न:-केषां पुनः कर्मणां स क्षयोपशम इति प्रत्यासन्नतरकारणप्रश्न इत्यलं प्रसङ्गेन । द्वारमेवोपसंहरन्नाह-एत॥४७२।। देव-अनन्तरोदितं सामायिककरणं यत्तद्धावकरण 'करणेय'त्ति उपन्यस्त द्वारपरामर्शः । भए यत्ति भयमपि 'यद् भणित' यदुक्तमिति गाथाद्वयार्थः ॥ १०२८-२९॥ मूलद्वारगाथायां करणमित्येतद् द्वारं व्याख्यातम्, एतव्याख्यानाच सूत्रेऽपि करोमीत्ययमवयव इति, अधुना द्वितीयावयवव्याचिख्यासयाऽऽहहोइ भयंतो भयअंतगो अ रयणा भयस्स छन्भेआ । सब्र्वमि वन्निएऽणुक्कमेण अंतेवि छन्भेआ॥१८४॥ (भा) व्याख्या-भवति भदन्त इत्यत्र 'भदि कल्याणे सुखे च' अर्थद्वये धातुः 'विशिभ्यां झवू (उ. पा. ४१३) औणादिकात्ययो दृष्टः, तं दृष्टा प्रकृतिरुह्यते, भदि कल्याण इति अनुनासिकलोपश्चेति, तस्यौणादिकविधानात, ततश्च भदन्त । Vइति भवति, भदन्त:-कल्याणः सुखश्चेत्यर्थः, प्राकृतशैल्या वा भवति भवान्त इति, अत्र भवस्य-संसारस्यान्तस्तेनाऽऽचा-1 पर्येण क्रियत इति भवान्तकरत्वाद् भवान्त इति, तथा-भयान्तश्चेत्यत्र भयं-त्रासः तमाचार्य प्राप्य भयस्यान्तो भव-8 ॥४७॥ तीति भयान्तो-गुरुः, भयस्य वाऽन्तको भयान्तक इति, तस्याऽऽमन्त्रणं,'रचना' नामादिविन्यासलक्षणा, भयस्य 'पड्भेदार पटूप्रकारा:-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेद भिन्नाः, तत्र पञ्च प्रकाराः प्रसिद्धाः, षष्ठं भावभयं सप्तधा-इहलोकभयं परलोकभयमादानभयमकस्माद्भयमश्लोकभयमाजीविकाभयं मरणभयं चेति, तत्रापीहलोके भयं स्वभवाद् यत् प्राप्यते 8 अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२९...], भाष्यं [१८४] प्रत सूत्रांक [१] परलोकभयं परभवात् , किश्चनद्रव्यजातमादानं तस्य नाशहरणादिभ्यो भयम् आदानभयं, यत्तु बाह्यनिमित्तमन्तरेणाहेतुकं भयम् अकस्माद् भवति तदाकस्मिक, श्लोक श्लाघायां' श्लोकनं श्लोकः श्लाघा-प्रशंसा तदूविपर्ययोऽश्लोकस्तस्माद् भयमश्लोकभयम् , आजीविकाभयं-दुर्जीविकाभयं, प्राणपरित्यागभयं मरणभयमिति, एवं सर्वस्मिन् वर्णिते 'अनुक्रमेण | उक्तलक्षणेनान्तेऽपि षडू भेदा इति, तत्र 'अम गत्यादिषु' अमनमन्तः-अवसानमित्यर्थः, अस्मिन्नपि षडू भेदाः, तद्यथा नामान्तः स्थापनान्तः द्रव्यान्तः क्षेत्रान्तः कालान्तः भावान्तश्चेति, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यान्तो घटाद्यन्तः,181 |क्षेत्रान्त ऊर्ध्वलोकादिक्षेत्रान्तः, कालान्तः समयाद्यन्तः, भावान्तः औदयिकादिभावान्तः॥ एवं सव्वंमिऽवि वन्निमि इत्थं तु होइ अहिगारो । सत्तभयविप्पमुक्के तहा भवंते भयंते अ॥१८५॥ (भा०) व्याख्या-'एवम् उक्केन प्रकारेण 'सर्वस्मिन् अनेकभेदभिन्ने भयादौ वर्णिते सति 'अत्र तु' प्रकृते भवत्यधिकार:प्रकृतयोजना सप्तभयविप्रमुक्तो यस्तेन, तथा भवान्तो यः भदन्तश्चेति, पश्चानुपूर्व्या ग्रन्थ इति गाथाद्वयार्थः ॥ १८५॥ मूलद्वारगाथायां व्याख्यातं भयान्तद्वारद्वयं, तद्व्याख्यानाच्च भदन्तभवान्तभयान्त इति गुर्वामन्त्रणार्थः सूत्रावयव इति, उकं च-भाष्यकारेण 'आमतेइ करेमी भदंत! सामाइयंति सीसोऽयं । आहामंतणवयणं गुरुणो किंकारणमिणति? ॥२॥ भण्णइ-गुरुकुलवासोवसंगहत्थं जहा गुणत्थीह । णिचं गुरुकुलबासी हवेज सीसो जओऽभिहियं ॥२॥ नाणस्स होइ भागी - आमन्त्रयति करोमि भदन्त ! सामाचिकमिति शिष्योऽयम् । आह आमन्त्रणवचनं गुरोः किंकारणमिदमिति ॥1॥ भण्यते-गुरुकुलवासोपसनहार्थ यथा गुणार्थीह । नित्यं गुरुकुलवासी भवेत् शिष्यो यतोऽभिहितम् ॥ २ ॥ ज्ञानस्य भवति भागी अनुक्रम JAINEaurat natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२९...], भाष्यं [१८५] आवश्यक हारिभद्रीया ॥४७३॥ ༔ ཟླ |थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलयासं न मुंचति ॥ ३ ॥ आवस्सयपि णिचं गुरुपामूलंमि देसियंसूत्रस्पर्श होइ । वीसुपि हि संवसओ कारणओ जयइ सेज्जाए ॥४॥ एवं चिय सवावस्सयाइ आपुच्छिऊण कजाई । जाणाविय- करणस्व. |मामंतणवयणाओ जेण सधेसि ॥५॥ सामाइयमाईयं भदंतसद्दो यजं तयाईए । तेणाणुवत्तइ तओ करेमि भंतेत्ति सबेसु ॥६॥ किच्चाकिञ्च गुरुवो विदंति विणयपडिवत्तिहेर्ड च । ऊसासाइ पमोत्तुं तयणापुच्छाय पडिसिद्धं ॥ ७ ॥ गुरुविरहमिवि ठवणागुरूवि सेवोदसणत्थं च । जिणविरहमिऽवि जिणबिंबसेवणामंतणं सफलं ॥८॥ रन्नो व परोक्खस्सवि जह सेवा मंतदेवयाए वा । तह चेव परोक्खस्सवि गुरुणो सेवा विणयहेर्ड ॥९॥" इत्यादि, कृतं विस्तरेण ॥ साम्प्रतं सामायिकद्वारव्याचिख्यासयाऽऽहसामं १ समं च रसम्म ३ हग ४ मवि सामाइअस्स एगट्ठा। नामंठवणा दविए भावंमि अ तेसि निक्खेवो॥१०३० महुरपरिणाम सामं १ समं तुला २ संम खीरखंडजुई ३ । दोरे हारस्स चिई इग ४ मेआई तु दव्बंमि ॥१०३२।। AACAR स्थिरतरो दर्षाने चारित्रे च धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुवन्ति ॥३॥ मावश्यकमपि नित्यं गुरुपादमूले देशितं भवति । विष्वपि हि संवसतः कारणतो यतते शव्यायाम् ॥४॥ एवमेव सर्वावश्यकानि आपूग्णय कार्याणि । ज्ञापितमामत्रणवचनात् येन सर्वेषाम् ॥ ५॥ सामायिकमादौ भदन्तशब्दश यत्तदापी । तेनानुवर्तते ततः करोमि भदन्त इति सर्वेषु ॥ ॥ कृयाकृत्यं गुरबो विदन्ति विनवप्रतिपत्तिहेतवे वा उमासादि प्रमुच्य तदनापळया प्रति-I पिद्धम् ॥ ॥ गुरुविरहेऽपि स्थापनागुरुरपि सेवोपदर्शनार्धं च । जिनविरहेऽपि जिनबिम्बसेवनामन्त्रणं सफलम् ॥ ८॥राज्ञ इव परोक्षस्थापि यथा सेवा-6 मन्त्रदेवताया वा । तथैव परोक्षस्थापि गुरोः सेवा विनयहेतवे ॥५॥* रूपदेसोप (कि.) ॥४७३॥ ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'साम' शब्दस्य एकार्थका: शब्दा: ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०३१], भाष्यं [१८५...] प्रत सूत्रांक व्याख्या-इह सामं समं च सम्यक् 'इगमवि' देशीदै कापि प्रदेशार्थे वर्तते, सम्पूर्णशब्दावयवमेवाधिकृत्याऽऽहसामायिकस्यकार्थिकानि । अमीषां निक्षेपमुपदर्शयन्नाह-नामस्थापनाद्रव्येषु भावे च नामादिविषय इत्यर्थः, 'तेषा' सामप्रभृतीनां निक्षेपः, कार्य इति गम्यते, स चाय-नामसाम स्थापनासाम द्रव्यसाम भावसाम च, एवं समसम्यक्पदयोरपि द्रष्टव्यः ॥ तत्र नामस्थापने क्षुण्णे एव, द्रव्यसामप्रभृतींश्च प्रतिपादयन्नाह• महुरे'त्यादि, इहौघतो मधुरपरिणामं द्रव्यं-शर्करादि द्रव्यसाम समं 'तुला' इति भूतार्थालोचनायां समं तुलाद्रव्यं, सम्यकू क्षीरखण्डयुक्तिः क्षीरखण्डयोजनं द्रव्यसम्यगिति, तथा 'दोरे' इति सूत्रदवरके मौक्तिकान्येवाधिकृत्य भाविपर्यायापेक्षया 'हारस्य' मुक्ताकलापस्य चयनं चितिः-प्रवेशनं द्रव्येकम्, अत एवाह-'एयाई तु दवमित्ति एतान्युदाहरणानि | द्रव्यविषयाणीति गाथाद्वयार्थः ॥ १०३१ ॥ साम्प्रतं भावसामादि प्रतिपादयन्नाहआओवमाइ परदुक्खमकरणं १ रागदोसमज्झत्थं नाणाइतिग ३ तस्साइ पोअणं ४ भावसामाई ॥१०३२।। । व्याख्या-आत्मोपमया-आत्मोपमानेन परदुःखाकरणं भावसामेति गम्यते, इह चानुस्वारोऽलाक्षणिकः, एतदुक्तं भवति-11 आरमनीव परदुःखाकरणपरिणामो भावसाम, तथा 'रागद्वेषमाध्यस्थ्यम् अनासेवनया रागद्वेषमध्यवर्तित्वं समं, सर्वत्राऽsत्मनस्तुल्यरूपेण वर्तनमित्यर्थः, तथा ज्ञानादित्रयमेकत्र सम्यगिति गम्यते, तथाहि-ज्ञानदर्शनचारित्रयोजनं सम्यगेव, मोक्ष-18 प्रसाधकत्वादिति भावना, तस्य' इति सामादि सम्बध्यते, आत्मनिप्रोतनम् आत्मनि प्रवेशनम् इकमुच्यते, अत एवाऽऽहा + देशीपदे "परदुःखाकरणं प० । इत्यत एवाह-'भावसामाई' भावसामादीनि प्रतिपत्तव्यामीति प्र. अनुक्रम wwsaneiorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३२], भाष्यं [१८५...] स्ट सूत्रस्पशे० करणस्व० - आवश्यक- भावसामाई भावसामादावेतान्युदाहरणानीति गाथार्थः ॥ १०३२ ॥ सामायिकशब्दयोजना चैवं द्रष्टच्या-इहाऽत्मन्येव हारिभ- साम्न इकं निरुक्तनिपातनात् [ यद् यल्लक्षणेनानुपपन्नं तत् सर्व निपातनात् सिद्धमिति ] सानो नकारस्याऽऽय आदेशः, द्रीया ततश्च सामायिकम् , एवं समशब्दस्याऽध्यादेशः, समस्य वा आयः समायः स एव सामायिकमिति, एवमन्यत्रापि भावना ॥४७४॥ कार्येति कृतं प्रसङ्गेन ।। साम्प्रतं सामायिकपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह|समया सम्मत्त पसत्थ संति सुविहिअ सुहं अनिंदं च । अदुगुंछिअमगरिहि अणवजमिमेऽवि एगठ्ठा||१०३३] | व्याख्या-निगदसिद्धैव । आह-अस्य निरुक्तावेव 'सामाइयं समइय' मित्यादिना पर्यायशब्दाः प्रतिपादिता एव तत् पुनः किमर्थमभिधानमिति?, उच्यते, तत्र पर्यायशब्दमात्रता, इह तु वाक्यान्तरेणार्थनिरूपणमिति, एवं प्रतिशब्दमकाभेदतोऽनन्ता गमा अनन्ताः पर्याया इति चैकस्य सूत्रस्येति ज्ञापितं भवति, अथवाऽसम्मोहार्थ सत्रोतावप्यदभिधानमदुष्टमेव इत्यत एवोक्तम्-'इमेऽवि एगढत्ति एतेऽपि तेऽपीत्यदोषः ॥ साम्प्रतं कण्ठतः स्वयमेव चालनां प्रतिपादयन्नाह अन्धकार:|को कार ओ?, करंतो किं कम्म?, जं तु कीरई तेण । किं कारयकरणाण य अन्नमणन्नं च? अक्खेवो ॥१०३४॥ | व्याख्या-इह 'करोमि भदन्त ! सामायिकम्' इत्यत्र कर्तृकर्मकरणव्यवस्था वक्तव्या, यथा करोमि राजन् ! घटमितात्युक्ते कुलाला को घट एव कर्म दण्डादि करणमिति, एवमत्र कः कारकः कुलालसंस्थानीयः इत्यत आह-करतो'त्ति तत् कुर्वन्नात्मैव, अथ किं कर्म घटादिसंस्थानीयम् ? इत्यत्राऽऽह-यत्तु क्रियते' निर्वय॑ते 'तेन' का तच्च तद्गुणरूपं सामा ॥४७४ा ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [ १०३४], भाष्यं [१८५...] विकमेव, तुशब्दः करणप्रश्ननिर्वचनसङ्ग्रहार्थः, यथा कर्म निर्दिष्टमेवं किं करणमित्युद्देशादिचतुर्विधमिति निर्वचनम्, एवं व्यवस्थिते सत्याह-'किं कारगकरणाण यति किं कारककरणयोः १, चशब्दात् कर्मणश्च परस्परतः कुलालघटदण्डादीनामिवाम्यत्वम्, आहोश्विदनन्यत्वमेवेति ?, उभयथाऽपि दोषः, कथम् ?, अन्यत्वे सामायिकवतोऽपि तत्फलस्य मोक्षस्याभावः, तदन्यत्वाद्, मिथ्यादृष्टेरिव, अनन्यत्वे तु तस्योत्पत्तिविनाशाभ्यामात्मनोऽप्युत्पत्तिविनाशप्रसङ्ग इति, अनिष्टं चैतत्, तस्यानादिमत्त्वाभ्युपगमादित्याक्षेपश्ञ्चालनेति गाथार्थः ॥ १०३४ ॥ विजृम्भितं चात्र भाष्यकारेण - "अन्नन्ते समभावाभावाओ तप्पओयणाभावो । पावइ मिच्छस्स व से सम्मामिच्छाऽविसेसो य ॥ १ ॥ अह व मई-भिन्नेणवि धणेण सघगोत्ति होइ वबएसो । सघणो य घणाभागी जह तह सामाइयस्सामी ॥ २ ॥ तं ण जओ जीवगुणो सामइयं तेण विफलता तस्स । अन्नत्तणओ जुत्ता परसामइयस्स वाऽफलता ॥ ३ ॥ इ भिन्नं तब्भावेऽवि नो तओ तस्तभावरहिओत्ति । अण्णाणिश्चिय णिचं अंधो व समं पईवेणं ॥ ४ ॥ एते तन्नासे नासो जीवस्स संभवे भवणं । कारणसंकरदोसो तदेकया| कष्पणा वावि ॥ ५ ॥" इत्यादि, इत्थं चालनामभिधायाधुना प्रत्यवस्थानं प्रतिपादयन्नाह - १ अन्यत्वे समभावाभावात् तत्प्रयोजनाभावः । प्राप्नोति मिध्यादृटेरिव तस्य सम्यक्त्वमिथ्यात्वाविशेषन ॥ १ ॥ अथ च मतिः- मिनेनापि घनेनं सधन इति भवति व्यपदेशः । सघन घनाभागी यथा तथा सामायिकस्वामी ॥ २ ॥ तन यतो जीवगुणः सामायिकं तेन विफलता तस्य अन्यस्यात् बुक्का परसामायिकख वा (सेवा) फडता ॥ ३ ॥ यदि भिनं तद्भावेऽपि न सकः ( सामायिकयुक्तः ) तत्स्वभावरहित इति । अज्ञान्येव निश्वं अन्धो यथा समं प्रदीपेन ॥ ४ ॥ एकर तनादो नाशो जीवस्य संभवे भवनम् कारकसंकर दोपख देकताकल्पना वापि ।। ५ ।। For Purina Pts Only by org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३५], भाष्यं [१८५...] (४०) सामायिकनिक्षेपनि प्रत सूत्रांक आवश्यक आया हु कारओ मे सामाइय कम्म करणमाया य । परिणामे सइ आया सामाइयमेव उ पसिद्धी ॥१०३५॥ हारिभ व्याख्या-ईहाऽऽत्मैव कारको मम, तस्य स्वातन्त्र्येण प्रवृत्तेः, तथा सामायिक कर्म तद्गुणत्वात् , करणं चोद्देशादिलद्रीया क्षणं तक्रियत्वादात्मैव, तथाऽपि यथोक्तदोषाणामसम्भव एव, कुत इत्याह-यस्मात् परिणामे सत्यात्मा सामायिक, परि॥४७५॥ णमनं-परिणामः कथञ्चित् पूर्वरूपापरित्यागेनोत्तररूपापत्तिरिति, उक्तं च-"नार्थान्तरगमो यस्मात् , सर्वथैव न चाऽगमः । परिणामः प्रमासिद्ध, इष्टश्च खलु पण्डितैः॥१॥” इत्यादि, तस्मिन् परिणामे सति, अयमत्र भावार्थः-परिणामे सति तस्य नित्यानित्याद्यनेकरूपत्वाद् द्रव्यगुणपर्यायाणामपि भेदाभेदसिद्धेः, अन्यथा सकलसंव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गाद्, एकान्तपक्षेणान्यत्वानन्यत्ययोरनभ्युपगमाद्, इत्थं चैकत्वानेकत्वपक्षयोः कर्तृकर्मकरणब्यवस्थासिद्धेः 'आत्मा' जीवः सामायिकमेव तु प्रसिद्धिः, तथाहि-न तदेकान्तेन अन्यत् तिद्गुणत्वान्न चानन्य(त्तद्गुणत्वादेवेति, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा गुणगु|णिनोरेकान्तभेदे विप्रकृष्टगुणमात्रोपलब्धौ प्रतिनियतगुणिविषय एव संशयो न स्यात् , तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषात् , दृश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसररन्ध्रोदरान्तरतः किमपि शुक्ल पश्यति तदा किमियं पताका किंवा बलामत्येवं प्रतिनियतगुणिविषय इति, अभेदपक्षे तु संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत एव तस्यापि गृहीतत्वादित्यलं विस्तरेणेति |गाथार्थः ॥ १०३५ ॥ भाष्यकारदूपणानि त्वमूनि-"आया हु कारओ मे सामाइय कम्म करणमाआ य । तम्हा आया अनुक्रम ४७५॥ १ आत्मैव कारको मे सामायिक कर्म करणमारमैव । तस्मादास्मैव * इहारमनैव । तहणस्वा० JAMEX पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३५], भाष्यं [१८५...] (४०) प्रत सूत्रांक -06-- सामाइयं च परिणामओ एक ॥१॥ णाणाइसहावं सामाइय जोगमाइकरणं च । उभयं च स परिणामो परिणामाणण्णया जं च ॥२॥ तेणाया सामइयं करणं च चसद्दओ अभिण्णाई । णणु भणियमणण्णत्ते तण्णासे जीवणासोत्ति ॥३॥ जइ तप्पज्जयनासो को दोसो होउ ? सबहा नत्थि। सो उप्पायवयधुवधम्माणतपजाओ॥४॥ सर्व चिय पइसमयं उप्पज्जइ णासए य णिचं च । एवं चेव य सुहदुक्खबंधमोक्खाइसम्भावो ॥५॥ एगं चेव य वत्थु परिणामवसेण कारगंतरयं । पावइ । तेणादोसो विवक्खया कारगं जं च ॥६॥ कुंभोऽवि सज्जमाणो कत्ता कम्म स एव करणं च । णाणाकारगभावं लहइ जहेगो विवक्खाए ॥७॥जह वा नाणाणण्णो नाणी नियओवओगकालंमि । एगोऽवि तस्सभावो सामाइयकारगो चे ॥८॥" साम्प्रतं परिणामपक्षे सत्येकत्वानेकत्वपक्षयोरविरोधेन कर्तृकर्मकरणव्यवस्थामुपदर्शयन्नाह एगत्ते जह मुढि करेइ अत्यंतरे घडाईणि । वत्यंतरभावे गुणस्स किं केण संबद्धं ॥ १०३६ ॥ व्याख्या-'एकत्वे' कर्तृकर्मकरणाभेदे कर्तृकर्मकरणभावो दृष्टः, यथा मुष्टिं करोति, अत्र देवदत्तः कर्ता तद्धस्त एव सामायिकं च परिणामत ऐक्यम् ॥ १॥ यम्माज्ञानादिखभावं सामायिक योगादि (कांह) करणं च । उभयंपस परिणामः परिणामानन्यता। यच्च ॥ २ ॥ तेनारमा सामायिक करणं च चशब्दतोऽभिन्नानि । ननु भणितमनन्यावे तमाशे जीवनाश इति ॥३॥ यदि तपोयनाशः (सामाभाविकरूपप.) को दोषो भवतु ? सर्वथा नास्ति । यत्सा (आत्मा) उत्पादन्षयधीव्यधर्माऽमन्तफ्यायः ॥ ५॥ सर्वमेव प्रतिसमयमुत्पयते नश्यति च नित्वं । च । एवमेव मुखदुःखबन्धमोक्षादिसजावः ॥ ६॥ एकमेव च वस्तु परिणामवशेन कारकाम्तरताम् । पामोति तेनादोपः--विवक्षया कारकाणि यत् ॥ ६॥5 कुम्भोऽपि सध्यमानः कर्ता कर्म च स एव करणं च । नानाकारकभावं लभते बौको विवक्षया ॥ ७ ॥ यथा वा ज्ञानानम्मो ज्ञानी निजोपयोगकाले । एको. ऽपि तरस्वभावः सामायिककारकश्चैवम् ॥८॥ अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३६], भाष्यं [१८५...] (४०) हारिभद्रीया सामायिकनिक्षपनि वि०१ प्रत ॥४७॥ सूत्रांक कर्म तस्यैव च प्रयलविशेषः करणमिति, तथाऽर्थान्तरे-कर्तृकर्मकरणानां भेदे दृष्ट एव तनावः, तथा चाह-घटा- दीनि यथा करोतीति वर्तते, तत्रापि कुलालः कर्ता घटः कर्म दण्डादि करणमिति । इह च सामायिक गुणो वर्तते, सच गुणिनः कथश्चिदेव भिन्न इति । विपक्षे बाधामुपदर्शयति-द्रव्यात् सकाशाद्, गुणिन इत्यर्थः, एकान्तेनैवार्थान्तरभावे-भेदे दसति, कस्य-गुणस्य, किं केन सम्बद्धमिति?,न किश्चित् केनचित् सम्बद्धं, ज्ञानादीनामपि गुणत्वात्तेषामपि चाऽऽत्मादिगुणिभ्य एकान्तभिन्नत्वात् , संवेदनाभावतः सर्वव्यवस्थानुपपत्तेरिति भावना, एवमेकान्तेनानान्तरभावेऽपि दोषा अभ्यूह्या इति गाथार्थः ॥ १०३६ ॥ कण्ठतस्तावदुक्ते चालनाप्रत्यवस्थाने, अत एव चात्र पुनरुक्तदोषोऽपि नास्ति, अनुवादद्वारेण चालनाप्रत्यवस्थानप्रवृत्तेरित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र सर्वसावा योगमित्याद्यवशिष्यते, तदिह सर्वशब्दनिरूपणायाऽऽह[नामं १ ठवणा २ दविए ३ आएसे ४ निरवसेसए ५ चेव । तह सवधत्तसब्वं च ६ भावसव्वं च सत्समयं७॥ | व्याख्या-इह सर्वमिति कः शब्दार्थः, उच्यते, स गतौ' इत्यस्य औणादिको वप्रत्ययः सर्वशब्दो वा निपात्यते म्रियते स इति श्रियते वाऽनेनेति सर्वः, तदिदं च नामसर्व स्थापनासर्व द्रव्यसर्वम् आदेशसर्व निरवशेषसर्व, तथा सर्वधत्तसर्वं च भावसर्वं च सप्तममिति समासार्थः ॥ १०३७ ॥ व्यासार्थं तु भाष्यकारः स्वयमेव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य शेषभेदच्याचिख्यासया पुनराहदविए चउरो भंगा सव्वरमसब्वे अरव १ देसे अ॥आएस सब्वगामोनीसेसे सव्वगं दुविह।।१८५॥(भा०) व्याख्या-'द्रव्य' इति द्रव्यसर्वे चत्वारो भङ्गा भवन्ति, तानेव सूचयन्नाह-सवमसवे अ दब देसे यत्ति-अयमत्र SCARECORG मन अनुक्रम ॥४७६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'सर्व' शब्दस्य निरूपणं ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०३७...], भाष्यं [१८५]. (४०) प्रत सूत्रांक भावार्थः-इह यद्विवक्षितं द्रव्यमङ्गुल्यादि तत् कृत्स्नं-परिपूर्णम् अनूनं स्वैरवयवैः सर्वमुच्यते, सकलमित्यर्थः, एवं तस्यैव | द्रव्यस्य कश्चित्स्वावयवो देशः कृत्स्नतया-स्वावयवपरिपूर्णतया यदा सकलो विवक्ष्यते तदा देशोऽपि सर्वः, एवमुभयस्मिन् द्रव्ये तद्देशे च सर्वत्वं, तयोरेव यथास्वमपरिपूर्णतायामसर्वत्वं, ततश्चतुर्भङ्गी-द्रव्यं सर्व देशोऽपि सर्वः १ द्रव्यं सर्व | देशोऽसर्वः २ देशः सर्वः द्रव्यमसर्व ३ देशोऽसर्वः द्रव्यमप्यसर्वम् ४, अत्र यथाक्रममुदाहरणं-सम्पूर्णमङ्गलि द्रव्यसर्व 13 तदेव देशोनं द्रव्यमसर्व, तथा देश:-पर्व तत्सम्पूर्ण देशसर्वम् पर्वैकदेशः देशासर्वम् , एवं द्रव्यसर्वम् । अथाऽऽदेशसर्वमुच्यते-आदेशनम् आदेश उपचारो व्यवहारः, स च बहुतरे प्रधाने वाऽऽदिश्यते देशेऽपि, यथा विवक्षितं घृतमभि-12 समीक्ष्य बहुतरे भुक्ते स्तोके च शेषे उपचारः क्रियते-सर्वं घृतं भुक्तं भकं वा, प्रधानेऽप्युपचारः, यथा ग्रामप्रधानेषु पुरुषेषु गतेषु ग्रामो गत इति व्यपदिश्यते, तत्र प्रधानपक्षमेवाधिकृत्याऽऽह ग्रन्थकार:-'आएस सबगामो'त्ति आदेशसर्व सवों ग्रामो गत इत्यायात इति वेति क्रियाभावनोक्तैव । एवमादेशसर्वमुक्तम्, अथ निरवशेषसर्वमभिधीयते, तत्राऽऽहI'निस्सेसे सवर्ग दुविहति निरवशेषसर्व 'द्विविधं द्विप्रकारं (ग्रन्याप्रम्० १२०००) सर्वोपरिशेषसर्व तद्देशापरिशेषसर्व 8 चेति गाथार्थः ॥ १८५ ।। अत्रोदाहरणमाह, तत्रअणिमिसिणो सव्वसुरा सव्वापरिसेससब्वगं ए तद्देसापरिसेसं सब्वे काला जहा असुरा २॥१८६॥(भा०) व्याख्या-'अनिमेषिणः सर्वसुराः' अनिमिषनयनाः सर्वे देवा इत्यर्थः, सर्वोपरिशेषसर्वमेतत्, यस्मान्न कश्चिद्देवानां मध्येऽनिमिषत्वं व्यभिचरतीति, तथा तद्देशापरिशेषमिति-तद्देशपरिक्षेषसर्व सर्वे काला यथा असुरा इति, इयमत्र भावना अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: • अत्र मूल संपादकस्य मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् भाष्य क्रमांक -१८५ द्विवारान् मुद्रितं दृश्यते ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३७...], भाष्यं [१८६] (४०) आवश्यक- हारिभ-1 द्रीया सामायिकनिक्षेपनि वि०१ ॥४७७॥ SC- C तेषामेव देवानां देश एको निकायः असुराः, ते चसर्वएवासितवर्णा इति गाथार्थः ॥१८६॥सर्वधत्तसर्वप्रतिपादनायाऽऽह- सा हवइ सव्वधत्ता दुपडोआरा जिआ य अजिआ य । दब्वे सव्वघडाई सव्वद्वत्ता पुणो कसिण।।१८७॥(भा) | व्याख्या-सा भवति 'सबधत्ता' इत्यत्र सर्व-जीवाजीवाख्यं वस्तु धत्तं-निहितमस्यां विवक्षायामिति सर्वधत्ता, ननु 'दधातेही (पा०७-४-४२) ति हिशब्दादेशाद्धितमिति भवितव्यं कथं धत्तमिति !, उच्यते, प्राकृते देशीपदस्याविरुद्धत्वान्न दोषः, अथवा धत्त इति डिस्थवदव्युत्पन्न एव यदृच्छाशब्दः, अथवा सर्व दधातीति सर्वध-निरवशेषवचनं सर्वधमात्तं-आगृहीतं यस्यां विवक्षायां सा सर्वधात्ता, एवमपि निष्ठान्तस्य पूर्वनिपातः, 'जातिकालसुखादिभ्यः परवचन(पा०६-२-१७०) मिति परनिपात एव, अथवा सर्वधेन आत्ता सर्वधात्ता तया यत् सर्वं तत् सर्वधात्तासर्वमिति, सा च भवति सर्वधात्ता 'दुपडोयार'त्ति द्विप्रकारा-जीवाश्चाजीवाश्च, यस्मात् यत् किश्चनेह लोकेऽस्ति तत् सर्व जीवाश्चाजीवाश्च, न ह्येतद्व्यतिरिक्तमन्यदस्ति, अत्राऽऽह-द्रव्यसर्वस्य सर्वधत्तासर्वस्य च को विशेष इति?, अयमभिप्रायः-द्रव्यसर्वमपि विवक्षयाऽशेषद्रव्यविषयमेव, अत्रोच्यते, 'दये सघघडाई इह द्रव्यसर्वे सर्वे घटादयो गृह्यन्ते, आदिशब्दादगुल्यादिपरिग्रहः, सर्वधत्ता पुनः कृत्स्नं वस्तु व्याप्य व्यवस्थितेति विशेष इत्ययं गाथार्थः ॥ १८७ ।। अधुना भावसर्वमुच्यतेभावे सव्वोदइओयलक्खणओ जहेव तह सेसा । इत्थ उ खओबसमिए अहिगारोऽसेससब्वे ॥१८८॥(भा०) व्याख्या-'भाव' इति द्वारपरामर्शः, सर्वो द्विप्रकारोऽपि शुभाशुभभेदेन औदयिका-उदयलक्षणः कर्मोदयनिष्पन्न | इत्यर्थः यथैवायमुक्तस्तथा शेषा अपि स्वलक्षणतो वाच्या इति वाक्यशेषः, तत्र मोहनीयकर्मोपशमस्वभावतः शुभः सर्व G ॥४७७॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३८], भाष्यं [१८८] प्रत सूत्रांक 994 एवौपशमिकः, कर्मणां क्षयादेव शुभः सर्वः क्षायिकः, शुभाशुभश्च मिश्रः सर्वः क्षायोपशमिकः, परिणतिस्वभावः सर्वः शुभाशुभश्च पारिणामिका एवं व्युत्पत्त्यर्थप्ररूपणां कृत्वा प्रकृतयोजनामुपदर्शयन्नाह-एत्थ उ'इत्यादि, अत्र तु 'क्षायोपशमिक' इति क्षायोपशमिकभावसर्वेण अधिकारः, अवतार उपयोग इत्यर्थः, 'अशेषसर्वेण च' निरवशेषसर्वेण चेति गाथार्थः ॥१८८ ॥ व्याख्यातः सौत्रः सर्वावयवः, साम्प्रतं सावद्यावयवव्याचिख्यासयाऽऽहकम्ममवजं जंगरिहिअंति कोहाइणो व चत्तारि । सह तेण जो उ जोगो पचक्खाणं इवइ तस्स ॥१०३८॥ | व्याख्या-'कर्म' अनुष्ठानमवयं भण्यते, किमविशेषेण ?, नेत्याह-'यद् गहितम्' इति यन्निन्द्यमित्यर्थः, क्रोधादयो हवा चत्वारः, अवद्यमिति वर्तते, सर्वावद्यहेतुत्वात् तेषां कारणे कार्योपचारात्, सह तेन-अवधन 'यस्तु योग य एवं व्यापारः असौ सावध इत्युच्यते, 'प्रत्याख्यान' निषेधलक्षणं भवति 'तस्य' सावद्ययोगस्य, पाठान्तरं वा-'कम्मं वजं जं गरहियति इह तु 'बृजी वर्जने' इत्यस्य वर्जनीयं वयं त्यजनीयमित्यर्थः, शेषं पूर्ववत्, नवरं सह वज्येन सवर्व्यः प्राकृते सकारस्य दीर्घादेशात् सावजमिति गाथार्थः।।१०३८॥अधुना योगोऽभिधीयते, स च द्विधा-द्रव्ययोगो भावयोगश्च,तथा चाऽऽह दवे मणवयकाए जोगा दव्वा दुहाउ भावमि । जोगा सम्मत्ताई पसत्य इअरो उ विवरीओ ॥ १०३९ ॥ __व्याख्या-द्रव्य' इति द्वारपरामर्शः, 'मणवइकाए जोगा दवेति मनोवाकाययोग्यानि द्रव्याणि द्रव्ययोगः, एतदुक्तं भवति-जीवेनागृहीतानि गृहीतानि वा स्वव्यापाराप्रवृत्तानि द्रव्ययोग इति, द्रव्याणां वा हरीतक्यादीनां योगो द्रव्ययोगः, 'दुहा उ भावमित्ति द्विधैव द्विप्रकार एव, 'भाव' इति भावविषयः 'जोगो त्ति योगोऽधि अनुक्रम JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'सावय' शब्दस्य व्याख्यानं क्रियते ~92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यकहारिभ द्रीया कृतः - प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च तत्र 'सम्मत्ताई पसत्य'त्ति सम्यक्त्वादीनाम्, आदिशब्दाद् ज्ञानचरणपरिग्रहः, प्रशस्तः युज्य - तेऽनेन करणभूतेनाऽऽत्माऽपवर्गेणेतिकृत्वा, 'इयरो उ विवरीओत्ति इतरस्तु मिथ्यात्वादियोंगः, 'विपरीत' इत्यप्रशस्तो वर्तते, युज्यतेऽनेनाऽऽत्माऽष्टविधेन कर्मेणेतिकृत्वाऽयं गाथार्थः ॥ १०३९ ॥ सावद्यं योगमिति व्याख्यातौ सूत्रावयवा - विति, अधुना प्रत्याख्यामीत्यवयवप्रस्तावात् प्रत्याख्यानं निरूप्यते, इह प्रत्याख्यामीति वा प्रत्याचक्षे इति वा उत्तमपुरुवैकवचने द्विधा शब्दौ तत्राऽऽयः प्रत्याख्यामीति, प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आ आभिमुख्ये ख्या प्रकथने, प्रतीपं आभिमुख्येन ख्यापनं सावद्ययोगस्य करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा 'चक्षि व्यक्तायां वाचि' प्रतिषेधस्याऽऽदरेणाभिधानं करोमि प्रत्याचक्षे, प्रतिषेधस्याख्यानं प्रत्याख्यानं निवृत्तिरित्यर्थः इदं च षट्प्रकारं नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रातीच्छाभावभेद* भिन्नमिति, *तत्र च नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यप्रत्याख्यानादि प्रतिपादयन्नाह ॥ ४७८ ॥ ॐ 2 ४ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०३९], भाष्यं [१८८...] व्यंमि निण्हगाई ३ निव्विसयाई अहोइ खित्तंमि ४। भिक्खाईणमदाणे अइच्छ ५ भावे पुणो दुविहं ६ ॥१०४० ॥ व्याख्या - द्रव्यमिति द्वारपरामर्शः, 'निण्हगाई'ति निहवादिप्रत्याख्यानम्, आदिशब्दाद् द्रव्ययोर्द्रव्याणां द्रव्यभूतस्य द्रव्यहेतोर्वा यत् प्रत्याख्यानं तद् द्रव्यप्रत्याख्यानमिति, 'निविसयाई य होइ खित्तंमित्ति निर्विषयादि च भवति क्षेत्र इति, तत्र निर्विषयस्याऽऽदिष्टस्य क्षेत्रप्रत्याख्यानम्, आदिशब्दान्नगरादिप्रतिषिद्धपरिग्रहः, 'भिक्षादीनामदानेऽति [ग] च्छे'ति भिक्षणं-भिक्षा प्राभृतिकोच्यते, आदिशब्दाद् वस्त्रादिपरिग्रहः, तेषामदाने सत्यतिगच्छेति वचनमतीच्छेति वैति * तथा चाहना [डवणा दविए खितमदिच्छा व भावलो तं च । नामाभिहाणमुतं स्वणागारकुखनिक्लेवो ॥ १ ॥ इति गाथा कचित् ॥ दिच्छेति वा मतिगच्छत्या० Education intemational For Prints at Use Only सामायिकनिक्षेपनि ० वि० १ ~93~ ॥४७८॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि - रचिता वृत्तिः Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०४०], भाष्यं [१८८...] 545056450र प्रत सूत्रांक प्रत्याख्यान, 'भावे पुणो दुविहति भाव इति द्वारपरामर्शः, भावप्रत्याख्यानं पुनर्द्विविधं, तत्र भावप्रत्याख्यानमिति भा-17 वस्य-सावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानं भावतो वा-शुभात् परिणामोत्पादाद् भावहेतोर्वा-निर्वाणार्थ वा भाव एव वा-सावद्ययोगविरतिलक्षणः प्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्यानमिति गाथार्थः ॥ १०४०॥ साम्प्रतं द्वैविध्यमेवोपदर्शयन्नाहसुअ णोसुअ सुअदुविहं पुष्व १ मपुव्वं २ तु होइ नायब्वं । नोमुअपचक्खाणं मूले १ तह उत्तरगुणे अ२॥१०४१॥ | व्याख्या-'सुयणोसुयत्ति श्रुतप्रत्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च, 'सुयं दुविहंति श्रुतप्रत्याख्यानं द्विविधं, द्वैविध्यमेव दर्शयति-'पुवमपुवं तु होइ णाययंति पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानमपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं च भवति ज्ञातव्यमिति, तत्र पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानसंज्ञितं पूर्वमेव, अपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं त्वातुरप्रत्याख्यानादिकमिति, तथा 'नोसुयपञ्चक्खाणीति | नोश्रुतप्रत्याख्यानं श्रुतप्रत्याख्यानादन्यदित्यर्थः, 'मूले तह उत्तरगुणे यत्ति मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं च, तत्र मूलगुणप्रत्याख्यानं देशसर्वभेदं, देशतः श्रावकाणां सर्वतस्तु संयतानामिति, इहाधिकृतं सर्व, सामायिकानन्तरं सर्वशब्दोपादानादिति गाथार्थः॥१०४१।। इह च वृद्धसम्प्रदायः 'पञ्चक्खाणे उदाहरणं रायधूयाए-वरिसं मंसं न खाइय, पारणए अणेगाणं जीवाणं घाओ कओ,साहहिं संबोहिया, पवइया, पुर्व दबपञ्चक्खाणं पच्छा भावपञ्चक्खाणं जातमिति कृतं प्रसझेन।प्रत्याख्यामीति व्याख्यातः सूत्रावयवः, अधुना यावज्जीवतयेति व्याख्यायते-इह चाऽऽदौ भावार्थमेवाभिधित्सुराह प्रत्याख्याने उदाहरणं राजदुहितुः-वर्ष मांस न खादितं, पारणकेऽनेकेषां जीवानां धातः कृतः, साधुभिः संबोधिता, प्रनजिता, पूर्व द्रव्यप्रत्याज्यान, पश्चाहावप्रत्याख्यानं जातं । अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०४२], भाष्यं [१८८...] आवश्यक हारिभद्रीया प्रत ॥४७९॥ 4 सूत्रांक जावद्वधारणमि जीवणमवि पाणधारणे भणिों। आपाणधारणाओ पावनिवित्ती इहं अत्थो॥ १०४२ ।। सामायिकव्याख्या-यावद् इत्ययं शब्दोऽवधारणे वर्तते, जीवनमपि प्राणधारणे भणितं, 'जीव प्राणधारण' इति वचनात् , निक्षेपनि ततश्चाप्राणधारणात्-प्र.गधारणं यावत् पापनिवृत्तिरित्यर्थः, परतस्तु न विधिर्नापि प्रतिषेधो, विधावाशंसादोषप्रसङ्गात् || वि०१ प्रतिषेधे तु सुरादिपूरपन्नस्य भङ्गप्रसङ्गादिति गाथार्थः ॥१०४२॥ इह च जीवन जीव इति क्रियाशब्दोऽयं, न जीवतीति जीव आत्मपदार्थः, जीवनं तुप्राणधारणं, जीवन जीवितं चेत्येकोऽर्थः, तत्र जीवितं दशधा वर्तते, तदेव तावदादी निरूपयन्नाह नामं १ ठवणा २ दविए ३ ओहे ४ भव ५ तम्भवे अ६ भोगे अ७॥ संजम ८ जस ९ कित्तीजीविअंच १० तं भण्णई दसहा ।। १०४३।। व्याख्या-नामजीवितं स्थापनाजीवितं द्रव्यजीवितम् ओघजीवितं भवजीवितं तद्भवजीवितं भोगजीवितं च तथा संयमजीवितं यशोजीवितं कीर्तिजीवितं च तदण्यते दशधेति गाधासमासाथैः ॥१०४३ ।। अवयवाचे तु भाष्यकार: स्वयमेव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनाहत्य शेषभेदब्याचिख्यासयाऽऽहव्वे सच्चित्ताई ३ आउअसद्दव्वया भवे ओहे ४ । नेरझ्याईण भवे५ तब्भव तत्थेव उववत्ती ६॥१८९॥(भा०) ॥४७९॥ | व्याख्या-'द्रव्य' इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यजीवितं सच्चित्तादि, आदिशब्दान्मिश्राचित्तपरिग्रहः, इह च कारणे कार्यो-11 पचाराद् येन द्रव्येण सचित्ताचित्तमिनभेदेन पुत्रहिरण्योभयरूपेण यस्य यथा जीवितमायत्तं तस्य तथा तद्न्यजीवित E अनुक्रम %ACCSC-CNX 15% JAMERIAL पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०४३], भाष्यं [१८९...] मिति, द्विपदादिद्रव्यस्य चान्ये, उक्तं द्रव्यजीवितं, 'आउयसद्द्वया भत्रे ओहेत्ति आयुरिति प्रदेश कर्म तद्रव्यसहचरितं जीवस्य प्राणधारणं सदैव संसारे भवेदोघ इति द्वारपरामर्शः ओघजीवितं, सामान्यजीवितमित्यर्थः, इदं चाङ्गीकृत्य यदि परं सिद्धा मृताः, न पुनरम्ये कदाचन इत्युक्तमोघजीवितं, 'णेरइयाईण भवेति नारकादीनामिति, | आदिशब्दात् तिर्यङ्नरामरपरिग्रहः, भव इति द्वारपरामर्शः, स्वभवे स्थितिर्भवजीवितमिति, उक्तं भवजीवितं, 'तब्भव तत्थेव उववत्ति'ति तस्मिन् भवे जीवितम् तद्भवजीवितं इदं चौदारिकशरीरिणामेव भवति, यत आह-तत्रैवोपपत्तिः, तत्रैवोपपात इत्यर्थः, भवश्च तदायुष्कबन्धस्य प्रथमसमयादारभ्य यावच्चरमसमयानुभवः, स चौदारिकशरीरिणां तिर्यह मनुष्याणां तद्भवोपपत्तिमागतानां तद्भवजीवितं भवति, ननु श्व भवजीवितमनन्तरं चतुर्द्धा वर्णितं नारकादिगतिसमापन्नानां यावस्था, तत्र स्वायुष्कबन्धकालात् प्रभृति सर्वैव भवस्थितिः यथास्वमवाधासहिता भवजीवितम्, इह तु तद्भवजीविते आबाधोनिका कर्मस्थितिः, तद्भवोदयात् प्रभृति कर्मनिषेकः तद्भवजीवितमिति महान् विशेषः, तत् किमर्थमौदारिकाणामेव, उच्यते ?, तेषां हि गर्भकालव्यवहितं योनिनिःसरणं जन्मोच्यते, तेन च गर्भकालेन सहैव तद्भवजीवितं, वैक्रियशरीरिणां तूपपातादेव कालान्तराव्यवहितं जन्मेति जीवितं स्वाबाधाकालसहितमितिकृत्वा तद्भवजीवितमदारिकाणामेव सुप्रतिपादमिति, तेषां चेदं स्वकायस्थित्यनुसारतो विज्ञेयमिति गाथार्थः ॥ १८९ ॥ उक्तं तद्भवजीवितं, भोगंमि चक्किमाई ७ संजमजीअं तु संजयजणस्स ८ । जस ९ कित्ती अ भगवओ१०संजमनरजीव अहिगारो१०४४ व्याख्या - भोगंमिति द्वारपरामर्शः, भोगजीवितं च चक्रवर्त्यादीनाम्, आदिशब्दाद्वलदेववासुदेवादिपरिग्रहः, उक्तं च * पारदादिदम्यावस्थेयम्बे. Education intitol For Parent पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०४४], भाष्यं [१८९...] (४०) द्रीया वि०१ प्रत सूत्रांक आवश्यक | भोगजीवितं, 'संजमजीयं तु संजयजणस्सति संयमजीवितं तु 'संयतजनस्य' साधुलोकस्य, उक्तं संयमजीवितं, 'जस- सामायिकहारिभ- | कित्ती य भगवओत्ति यशोजीवितं भगवतो महावीरस्य, कीर्तिजीवितमपि तस्यैव, अयं चानयोविंशेषः-दानपुण्यफलानिक्षेपनिक कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः' इति, अन्येत्विदमेकमेवाभिदधति, असंयमजीवितं चाविरतिगतं संयमप्रतिपक्षतो गृहन्तीति, 'संजमनरजीव अहिगारो'त्ति-संयमनरजीवितेनेहाधिकार इति गाथार्थः ॥ १०४४ ॥ यावज्जीवता चेह 'जीव प्राणधारण' इत्यस्याव्ययीभाव समासे 'यावदवधारण' (पा०२-१-८) इत्यनेन निवृत्ते भावप्रत्यय उत्पादिते यावज्जीवं भावः | षष्ठ्या अव्ययादाप्सुपः (पा०२-४-८२) इति सुपलुक, तस्य 'भावस्त्वतला' (पा०५-१-११९) विति तलि स्त्रीलि-18 ङ्गता यावज्जीवता तया यावजीवतया, तत्रालाक्षणिकवर्णलोपात् 'जावज्जीवाए' इति सिद्धम् , अथवा प्रत्याख्यानक्रिया अन्यपदार्थ इति तामभिसमीक्ष्य समासो बहुव्रीहिः, यावज्जीवो यस्यां सा यावज्जीवा तयेत्यलं प्रसङ्गेन, तिम्रो विधा यस्य योगस्य स त्रिविधः सावद्ययोगः, स च प्रत्याख्येय इति कर्म संपद्यते, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः, तं त्रिविध योग, त्रिविधेनैव करणेन, करणे तृतीयेति, मनसा वाचा कायेन चेति, अत्र मनाप्रभृतीनां पूर्व स्वरूपं दर्शितमेवेति न प्रतन्यते, जानवरं भावार्थ उच्यते-तत्र 'त्रिविधं त्रिविधेने त्यत्रानन्तरस्य करणस्य विवरणसूत्रमेवेदं, यदुत-मनसा वाचा कायेनेति,131॥४८॥ तस्य च करणस्य कर्म प्रत्याख्येयो योगस्तमपि सूत्र एव विवृणोति-न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि-नानुमन्येऽहमिति । अत्राऽऽह-किं पुनः कारणमुद्देशकममतिलक्ष्य व्यत्यासेन निर्देशः कृत इति?, अत्रोच्यते, योगस्य करणतन्त्रो(न्त्रतो)पदेशनार्थ, तथाहि-योगः करणवश एव, करणानां भावे योगस्यापि भावादभावे चाभावादिति, करणाना CROSASS* अनुक्रम laneioraryam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०४४], भाष्यं [१८९...] 9844044 प्रत सूत्रांक मेव तथा क्रियारूपेण परिणतेरित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति, अपरस्त्वाह-न करोमि न कार-16 यामि कुर्वन्तं न समनुजानामीत्येतावता ग्रन्थेन गतेऽन्यमपीत्यतिरिच्यते, तथा चातिरिक्तेन सूत्रेण नार्थः, उच्यते, साभिप्रायकमिदम् , अनुक्तस्याप्यर्थस्य सङ्ग्रहार्थ, यस्मात् सम्भावनेऽपिशब्दोऽयं, सोऽयमपिशब्द: उभयशब्दमध्यस्थ एतत् । करोति-यथा कुर्वन्तं नानुजानामि एवं कारयन्तमप्यनुज्ञापयन्तमप्यन्यं नानुजानामि, तथा यथा वर्तमानकाले कुर्वन्तमन्यं न समनुजानामीति एवमपिशब्दादतीतकाले कृतवन्तमपि कारितवन्तमपि तथाऽनागतेऽपि काले करिष्यन्तमपि कारयिष्यन्तमपीति त्रिकालोपसङ्ग्रहो वेदितव्य इति, न क्रियाक्रियावतोभद एव अतो न केवला क्रिया सम्भवतीति ख्यापनार्थमन्यग्रहणम्, अत्रापि बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते मा भूत् मुग्धमतिविनेयसम्मोह इति, किश्चित्तु सूत्रस्पर्शनियुंक्ती वक्ष्याम इति । एवं तावदिदमेतावत् सूत्रस्य व्याख्यातम् ॥ इह च सर्व सावर्य योर्ग प्रत्याख्यामीत्यत्र प्रत्याख्यानं गृहस्थान साधूंश्चाधिकृत्य भेदपरिणामतो निरूपयन्नाहसीआलं भंगसयं तिविहं तिविहेण समिइगुत्तीहिं । सुत्तफासिअनिजुत्तिवित्थरत्यो गओ एवं ॥१०४५ ॥ | व्याख्या-गुरवस्तु व्याचक्षते-तदिदमेतावत् सूत्रस्य व्याख्यातं, साम्प्रतं त्रिविधं त्रिविधेनेत्येतदेव किल व्याचष्टे, तत्र त्रिविधं सावध योग प्रत्याख्येयं कृतकारितानुमतिभेदभिन्नं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेनेति करणेन प्रत्याख्याति यतः अतस्त| दोपदर्शनार्यवाऽऽह-सिआलं भंगसर्य गाहा ।। अत्राऽऽह-यद्येवमिह सर्वसावधयोगप्रत्याख्यानाधिकारात् सप्तचत्वारिंशद|धिकशतं प्रत्याख्यानभेदानां गृहस्थप्रत्याख्यानभेदत्वादयुक्तमेतदिति, अत्रोच्यते, न, प्रत्याख्यानसामान्यतो गृहस्थप्रत्या अनुक्रम JAMERatinintamational Morary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'प्रत्याख्यान'स्य निरूपणं ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक हारिभ द्वीया ॥ ४८१ ॥ [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०४५], भाष्यं [१८९...] ख्यान भेदाभिधानेऽप्यदोषत्वादित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र 'सीयालं भंगतयं' ति एतद्भाव्यते, 'सीयालं भंगस गिहिपश्ञ्चक्खाणभेयपरिमाणं । तं च विहिणा इमेणं भावेयवं पयत्तेणं ॥ १ तिन्नि तिया तिन्नि दुगा तिन्निकिका य होंति योगेसुं । तिदुएकं तिदुएकं तिदुएकं चैव करणाई ॥ २ ॥ पढमे लम्भइ एगो सेसेसु पएसु तिय तिय तियं च । दो नव तिय दो नवगा तिगुणिय सीयालभंगसयं ॥ ३ ॥' का पुनरत्र भावना ?, उच्यते ण करेइ ण कारवेइ करेंतमपि अण्ण ण समणुजाणइ मणेर्ण वायाए कारणं एस एक्को भेओ १ । चो०- न करेईञ्च्चाइतिगं गिहिणो कह होइ देसविरअस्स ? । | आ०- भन्नइ विसयस्स बहिं पडिसेहो अणुमईवि ॥ ४ ॥ केई भांति गिहिणो तिविहंतिविहेण नत्थि संवरणं । तं णजओ | णिद्दि पन्नत्ती विसेसे ॥ ५ ॥ तो कह निजुत्तीएऽणुमइणि सेहोत्ति ? सो सबिसयंमि । सामण्णेणं नत्थि उ तिविहं तिविहेण को दोसो ? ॥ ३ ॥ पुत्ताईसंत इणिमित्तमित्तमेकारसिं पवण्णस्स । जंपति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहंपि॥७॥ १] साचत्वारिंशं शतं भङ्गानां गुद्दिमत्याख्यानभेदपरिमाणम् । तच्च विधिनैतेन भाववितव्यं प्रयत्नेन ॥ १ ॥ त्रयत्रिकाखयो द्विकाय एकका भवन्ति योगेषु । त्रयो द्वावेकखयो द्वावेकखयो द्वावेकश्चैव करणानि ॥२॥ प्रथमे लभ्यते एकः दशेषेषु पदेषु त्रिकं त्रिके त्रिकं च द्वौ नक्की त्रिकं द्वौ नवकौ त्रिगुणिते सप्तचत्वारिंशं भङ्गशतम् ॥ ३ ॥ न करोति न कारयति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानाति मनसा वाचया कायेनैष एको भेदः । चोदक:-न करोतीत्यादित्रिकं गृहिण कथं भवति देशविरतस्व । आचार्य आह-भण्यते विषयादहिः प्रतिषेधोऽनुमतेरपि ॥ ४ ॥ केचिदू भणन्ति गृहिणत्रिविधंत्रिविधेन नास्ति संवरणम् । तन्न बतो निर्दिष्टं प्रशतो विशिष्य ॥ ५ ॥ तत्कथं निर्युकी अनुमतिनिषेधः इति, स स्वविषये । सामान्येन नास्त्येव त्रिविधंत्रिविधेन को दोषः ॥ ६ ॥ पुत्रादिसंततिनिमित्तमात्रेणैकादश पक्षस्य जल्पन्ति केचिहिणो दीक्षाभिमुख त्रिविधमपि ॥ ७ ॥ For at Use Only सूत्रस्पर्शिकनि० वि० १ ~99~ ॥४८१ ॥ www.lincibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि- रचिता वृत्तिः Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०४५], भाष्यं [१८९...] (४०) * % % प्रत आह कह पुण मणसा करणं कारावणं अणुमई य । जह वयतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा ॥ ८॥ तदहीणत्ता वतणुकरणाईणं अहव मणकरणं । सावजजोगमणणं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥९॥ कारवणं पुण मणसा चिंतेइ य करेउ एस सावज । चिंतेई य कए पुण सु कयं अणुमई होइ॥१०॥ एस एको भेओ गओ॥ इयाणिं वितिओ भेओ-ण ४ करेइ ण कारवेइ करतंपि अपणं ण समणुजाणइ मणेण वायाए एस एको १, तहा मणेणं काएण य बितिओ २, तहा वायाए कारण य ततिओ ३, एस बितिओ मूलभेओ गओ॥ इयाणिं तइओ-ण करेइ न कारवेइ करेंतपि अण्णं ण समणुजाणइ मणेण एक्को १ वायाए वितिओ २ कारण ततिओ ३ एस तइओ मूलभेओ गओ । इयाणिं चउत्थो-ण 8 करेइ ण कारवेइ मणेण वायाए कारणं एक्को १ण करेइ करेंतंपि णाणुजाणइ बितीओ२ण कारवेइ करेंतं णाणुजाणइ ३ है तइओ एस चउत्थो मूलभेओ, इयाणि पंचमो-ण करेइ ण कारवेइ मणेणं वायाए एस एक्को १ण करेइ करेंत सूत्रांक 4% अनुक्रम C आह-कथं पुनर्मनसा करणे कारणमनुमतिश्च । यथा वाक्तनुयोगाभ्यां करणादयस्तथा भवेयुमनसा ॥ 4 ॥ तदधीनत्वात् वाक्तनुकरणादीनामथवा मनःकरणं । सावधयोगमननं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ॥९॥ कारणं पुनर्मनसा चिन्तयति च करोत्वेष सावधम् । चिन्तयति च कृते पुनः सुषु कृतमनुमतिर्भवति | ॥ एष एको भेदो गतः । इदानी द्वितीयो भेदः-न करोति न कारयति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानाति मनसा वाचा एष एकः । तथा मनसा | कायेन च द्वितीयः २ तथा वाचा कायेन च तृतीयः ३ एष द्वितीयो मूलभेदो गतः २ । इदानी तृतीयः-न करोति न कारयति कुर्वम्तमपि अन्यं न समनुजानाति मनसैकः । वाचा द्वितीयः २ कायेन तृतीयः ३ एष तृतीयो मूलभेदो गतः ३ । इदानीं चतुथों-न करोति न कारयति मनसा वाचा कायेनैकः । न करोति कुर्वन्तमपि नानुजानाति द्वितीयो २ न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति तृतीयः ३ एष चतुर्थो मूलभेदः । इदानी पञ्चमः-करोति न कारयतिः मनसा वाचा एष एकः न करोति कुर्वन्तं e6- 08 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०४५], भाष्यं [१८९...] (४०) सूत्रस्पर्शि कनिक द्रीया वि०१ प्रत भावश्यक-४ाणाणुजाणइ एस वितिओ२ण कारवेति णाणुजाणइ एस तइओ ३ एए तिन्नि भंगामणेण वायाए लद्धा, अन्नेऽवि तिन्नि, मणेणं हारिभ- कारण य एमेव लन्भंति ३, तहाऽवरेवि वायाए कारण य लन्भंति तिन्नि तिन्नि ३, एवमेव एए सवे णव, एवं पञ्चमोऽप्युक्तो मूल भेद इति।इयाणि छटो-ण करेइ ण कारवेइ मणेण एस एको, तह य ण करेइ करेंतं णाणुजाणइ मणेणं एस बितिओ, ण कारवेइ करेंतं णाणुजाणइ मणसैव तृतीयः, एवं वायाएकाएणवि तिन्नि तिष्णि भंगालभंति, उक्तःषष्ठोऽपि मूलभेदः, अधुना सप्तमो-18 ॥४८२॥ भिधीयते इति-ण करेइमणेणं वायाए कारण य एक्को, एवंण कारवेइमणादीहिं एस वितिओ, करेंतंणाणुजाणइत्ति तइओ, सप्तमोऽप्युक्तो मूलभेद इति । इदानीमष्टमः-ण करेइ मणेणं वायाए एको तहा मणेण कारण य एस बितिओ, तहा वायाए कारण य एस तइओ, एवं ण कारवेइ एत्थवि तिन्नि भंगा एवमेव लन्भंति, करतं णाणुजाणइ एत्थ वि तिष्णि, एष उक्कोऽष्टमः। इदानीं नवमः-न करेइ मणेण एक्को १ण कारवेइ बितिओ २ करेंतं णाणुजाणइ एस तइओ, एवं वायाए सूत्रांक SCORRC-RDASHA 2964% अनुक्रम नानुजानाति एष द्वितीयः २ न कारयति नानुजानाति एष तृतीयः ३ एते त्रयो, भङ्गा मनसा वाचा लब्धाः अन्येऽपि यो, मनसा कायेन चैवमेव | लभ्यन्ते ३तथाऽपरेऽपि वाचा कायेन च लभ्यन्ते त्रयः २, ३, एवमेते सर्वे नव, एवं पञ्चमोऽप्युक्तो मूलभेदः ५ इति । इदानी पाठो-न करोति न कारयति । मनसा एष एकः, तथैव न करोति कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा एष द्वितीयः, न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति मनसैव तृतीयः, एवं बाचा कायेनापि 8 त्रयस्त्रयो भङ्गा लभ्यन्ते ६ । न करोति मनसा वाचा कायेन चैकः, एवं न कारयति मनादिभिरेष द्वितीयः, कुर्वन्तं नानुजानातीति तृतीयः ७ । न करोति मनसा वाचा एकः तथा मनसा कायेन च एष द्वितीयः तथा वाचा कायेन च एष तृतीयः, एवं न कारयति भत्रापि त्रयो भङ्गा एवमेव लभ्यन्ते, कुर्वन्तं - मानुजानाति अवापि त्रयः । न करोति मनसा एकः न कास्यति द्वितीयः कुर्वन्तं नानुजानाति एष तृतीयः, एवं वाचा ॥४८२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०४५], भाष्यं [१८९...] प्रत सूत्रांक |बितियं कारणवि होइ तित्यमेव, नघमोऽप्युक्तः इदानीमागतगुणनं क्रियते-लद्धफलमाणमेअं भंगा उ हवंति अउण-10 |पण्णास । तीयाणागयसंपइगुणियं कालेण होइ इमं ॥१॥सीयालं भंगसयं कह ? कालतिएण होइ गुणणाओ । तीयस्स पडिक्कमणं पञ्चुप्पन्नस्स संवरणं ॥२॥पञ्चक्खाणं च तहा होइ य एसस्स एव गुणणाओ। कालतिएणं भणियं जिणगणहरवायएहिं च ॥३॥ एवं तावद् गृहस्थप्रत्याख्यानभेदाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं साधुपत्याख्यानभेदान सूचयन्नाह'तिविहं तिविहेणं ति अयमत्र भावार्थ:-त्रिविधं त्रिविधेनेत्यनेन सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानादर्थतः सप्तविंशतिभेदानाहते चैवं भवन्ति-इह सावद्ययोगः प्रसिद्ध एव हिंसादिः, तं स्वयं सर्व न करोति न कारयति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानाति, एकैकं करणत्रिकेन-मनसा वाचा कायेनेति नव भेदाः, अतीतानागतवर्तमानकालत्रयसम्बद्धाश्च सप्तविंशतिरिति.12 इदं च प्रत्याख्याने भेदजालं 'समिइगुत्तीहिँति समितिगुप्तिषु सतीषु भवति, समितिगुप्तिभिर्वा निष्पद्यते, तत्रेर्यासमि-18 तिममुखाः प्रवीचाररूपाः समितयः पञ्च गुप्तयश्च प्रवीचाराप्रवीचाररूपा मनोगुप्याद्यास्तिस्र इति, उक्तं च समिओ नियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणमि भइयो । कुसलवइमुदीरंतो जं वइगुत्तोऽवि समिओऽवि ॥१॥ अन्ये तु व्याचक्षते द्वितीयं कायेनापि भवति त्रितयमेव ९ । लब्धफलमानमेतत् भङ्गास्तु भवन्त्येकोनपञ्चाशत् । अतीतानागतसम्प्रतिगुणितं कालेन भवतीदम् ॥ १॥ सप्तचत्वारिंशं भगशतं, कथं १ कालनिकेण भवति गुणनात् । अतीतस्य प्रतिक्रमणं प्रत्युत्पन्नख संवरणम् ॥ २॥ प्रत्याख्यानं च तथा भवति वैष्यस्य एवं गुणनात् । कालविकेन भणितं ( सप्तचत्वारिंशं शतं ) जिनगणधरवाचःश्च ॥ ३ ॥२ समितो नियमाप्तो गुप्तः समितत्वे भक्तव्यः । कुशलं बच उदीरयन् यहचोगुप्तोऽपि समितोऽपि ॥१॥ अनुक्रम dnatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~1024 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०४५], भाष्यं [१८९...] सूत्रस्पर्शिकनि० वि०१ प्रत ॥४८॥ सूत्रांक आवश्यक-द| किलैता अष्टौ प्रवचनमातरः सामायिकसूत्रसङ्ग्रहः, तत्र 'करेमि भंते ! सामाइय'ति पंच समिईओ गहिआओ, 'सब हारिभ- सावज जोग पञ्चक्खामि'त्ति तिणि गुत्तीओ गहियाओ, एत्थ समिईओ पवत्तणे निग्गहे य गुत्तीओत्ति, एयाओ अह द्रीया | पवयणमायाओ जाहिं सामाइयं चोद्दसय पुढाणि मायाणि, माउगाओत्ति मूलं भणियंति होइ ॥ इहैव प्रायः सूत्रस्पर्शनि-1 युक्तिवक्तव्यताया उक्तत्वात् मध्यग्रहणे च तुलादण्डन्यायेनाऽऽद्यन्तयोरप्याक्षेपादिदमाह 'सुत्तफासियणिज्जुत्तिवित्थरत्थो गओ एवं'ति सूत्रस्पर्शनियुक्तिविस्तरार्थो गतः, 'एवम् उक्तेन प्रकारेणेति गाथार्थः ॥ १०४५ ॥ साम्प्रतं सूत्र एवातीतादिकालग्रहणं त्रिविधमुक्तमिति दर्शयन्नाह सामाइअं करेमी पञ्चक्खामी पडिक्कमामित्ति । पञ्चप्पन्नमणागयअईअकालाण गहणं तु ॥१०४६॥ व्याख्या-सामायिकं करोमि तथा प्रत्याख्यामि सावध योगमिति, तथा प्रतिक्रमामीति प्राकृतस्य, इदं हि यथासक्वमेव प्रत्युत्पन्नानागतातीतकालानां ग्रहणमिति, उक्तं च-'अईयं जिंदइ पडुप्पन्नं संबरेइ अणागयं पञ्चक्खाइति गाथार्थः ॥ १०४६ ॥ साम्प्रतं तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामीत्येतद् व्याख्यायते-तत्र 'तस्ये' त्यधिकृतो योगः संवध्यते, ननु च प्रतिक्रमामीत्यस्याः क्रियायाः सोऽधिकृतो योगः कर्म, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिरतस्तमित्यभिधेये तस्येत्यभिधीयते १ करोमि भदन्त ! सामायिकमिति पञ्च समितयो गृहीताः, सर्व सावधं योगं प्रत्याचक्ष इति तिम्रो गुप्तयो गृहीताः, अत्र समितयः प्रवर्चने निमहे च गुप्तय इति, एता अष्ट प्रवचनमातरो याभिः (यासु वा) सामाविक चतुर्दश च पूर्वाणि मातानि, मातर इति मूलं इति भणितं भवति । २ मतीतं निन्दति प्रत्युत्पन्नं संवृणोति अनागतं प्रत्याख्याति - - अनुक्रम - - ॥४८॥ % 4% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~103 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०४६], भाष्यं [१८९...] प्रत सूत्रांक किमर्थमिति !, आह-प्रयोजनार्थ षष्ठी विवक्षातः प्रयुक्ता सम्बन्धलक्षणाऽवयवलक्षणा वा, योऽसौ योगस्त्रिकालविषय स्तस्यातीतं सावद्यमंशमवयवं प्रतिक्रमामि न शेषं वर्तमानमनागतं वा, केचित् पुनरविभागज्ञाः अविशिष्टमेव सामान्य हयोग सम्बन्धयन्ति, तन्न युज्यते, अविशिष्टस्य त्रिकालविषयस्य प्रतिक्रमणप्रयोजनाभावात् , ग्रन्थगुरुत्वापत्तेश्च, अविशि टमपि संवध्य पुनर्विशेषेऽवस्थापनीयस्तच्छब्द इति ग्रन्धगुरुता, यदेतत् प्रतिक्रमणमेतत् प्रायश्चित्तमध्ये पठितमतः प्राय श्चित्तमासेवितेऽतीतविषयमिति गतत्वादतीतप्रतिक्रमणमिति न वक्तव्यम् , इह पुनरुक्तत्वप्रसङ्गात् , यस्मादस्य प्रतिकKIमामीतिशब्दस्य कर्मणा भवितव्यमवश्यं, तच्च भूतं सावद्ययोगं मुक्त्वा नान्यत् कमें भवितुमर्हति, तस्मात्तस्येत्यवयवलक्ष-15 प्रणया षष्ठ्या सम्बन्धः ॥ आह-यद्येवं पुनरुक्तादिभयादभिधीयते तत इदमपरमाशङ्कापदमिति दर्शयतितिविहेणंति न जुत्तं पडिपयविहिणा समाहि जेण । अत्थविगप्पणयाए गुणभावणयत्तिको दोसो?॥१०४७॥ व्याख्या-'त्रिविधं त्रिविधेने त्यत्र त्रिविधेनेत्ययुक्तमिति, अत आह-'प्रतिपदविधिना समाहितं येन' यस्मात् प्रति४ि पदमभिहितमेव, मनसा वाचा कायेने'ति, अत्रोच्यते, अर्थविकल्पनया गुणभावनयेति वा को दोषः, एतदुक्तं भवति-18 | अर्थविकल्पसङ्ग्रहार्थ न पुनरुक्तम् , अथवा गुणभावना पुनः पुनरभिधानाभवतीति न दोषः, अथवा मनसा वाचा काये नेत्यभिहिते प्रतिपदं न करोमि न कारयामि नानुजानामीति 'यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाना' मिति यथासङ्ख्यकमनिष्टं मा| प्रापदिति त्रिविधेनैकैकमुच्यते, त्रिविधमित्यत्राप्ययमेव प्रायः परिहार इति गाथार्थः ॥ १०४७ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, 'तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामी'त्यत्र भदन्तः पूर्ववत् अतिचारनिवृत्तिक्रियाभिमुखश्च तद्विशुद्ध्यर्थमामन्त्रयत इति अनुक्रम SiDrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०४७], भाष्यं [१८९...] सूत्रस्पर्शि बि०१ वि प्रत सूत्रांक आवश्यक अत्राऽऽह-ननु पूर्वमुक्त एव भदन्तः स एवानुवर्तिष्यते, एवमर्धं चादौ प्रयुक्त इत्यतः किं पुनरनेनेति?, अत्रोच्यते, हारिभ-18 अनुवर्तनाथमेव अयं पुनरनुस्मरणाय प्रयुक्तः, यतः परिभाषा-अनुवर्तन्ते च नाम विधयो, न चानुवर्तनादेव भवन्ति, किं, द्रीया तहि !, यत्नाद्भवन्ति, 'स चायं यत्नः पुनरुच्चारण'मिति, अथवा सामायिकक्रियाप्रत्यर्पणवचनोऽयं भदन्तशब्दः, अनेन चैतत् ज्ञापितं भवति-सर्वक्रियावसाने गुरोःप्रत्यर्पणं कार्यमिति, उक्तं च भाष्यकारण-'सामाइयपच्चप्पणवयणो वाड॥४८४॥ यं भदंतसहोत्ति । सबकिरियावसाणे भणियं पञ्चप्पणमणेणं ॥१॥” इति कृतं प्रसङ्गेन, प्रतिक्रमामीत्यत्र प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतमभिधीयते, तच्च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तथा चाह नियुक्तिकार: व्वंमि निण्हगाई कुलालमिच्छंति तत्थुदाहरणं । भावंमि तदुवउत्तो मिआवई तत्थुदाहरणं ॥१०४८॥ | व्याख्या-द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यप्रतिक्रमणं तदभेदोपचारात् तद्वदेवोच्यते, अत एवाह-निवादि, आदिशब्दादनुपयुक्तादिपरिग्रहः, कुलालमिथ्यादुष्कृतं तत्रोदाहरणं, तच्चेदम्-ऐगस्स कुंभकाररस कुडीए साहुणो ठिया, तत्थेगो चेल्लओ तस्स कुंभगारस्स कोलालाणि अंगुलिधणुहएणं पाहाणएहिं विधइ, कुंभगारेण पडिजग्गिडं दिवो, भणिओ य-कीस मे कोलालाणि काणेसि ?, खुड्डुओ भणइ-मिच्छामि दुक्कडंति, एवं सो पुणोऽवि विधिऊण मिच्छामिदुक्कडंति, सामायिकप्रत्यर्पणवचनो वाऽयं भदन्तशब्द इति । सर्वक्रियावसाने भणितं प्रत्यर्पणमनेन ॥१॥ २ एकस्य कुम्भकारस्य कुम्यां (गृहे) साधवः स्थिताः, तत्रैका धुक्तकस्तस्य कुम्भकारस्य भाजनानि अहुलधनुषा पाषाणैः काणीकरोति, कुम्भकारेण प्रतिजागय दृष्टः, भणितश्च-कथं मम भाजनानि काणयसि, क्षुलको भणति-मिथ्या मे दुष्कृतमिति, एवं स पुनरपि काणयित्वा मिथ्या मे दुष्कृतमिति (करोति), अनुक्रम ||४८४ा antantsKond wwjanmIDram.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'मिथ्यादुष्कृतं' पदस्य द्रव्य तथा भाव-भेदेन प्ररुपणा ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०४८], भाष्यं [१८९...] प्रत पिच्छा कुंभगारेण तरस खुडगस्स कन्नामोडओ दिन्नो, सो भणइ-दुक्खाविओऽहं, कुंभगारो भणइ-मिच्छामि दुक्कड, एवं सो पुणो पुणो कन्नामोडियं दाऊण मिच्छादुक्कडंति करेइ, पच्छा चेलओ भणइ-अहो सुंदरं मिच्छामिदुकंडति, ट्रा कुंभगारो भणइ-तुज्झवि एरिसं चेव मिच्छा दुक्कडंति, पच्छा टिओ विधियवस्स । 'जं दकडंति मिच्छा तं चेव णिसेवई पुणो पावं । पच्चक्खमुसाबाई मायाणियडिप्पसंगो य ॥१॥ एवं दवपडिक्कमणं ॥ भावप्रतिक्रमणं प्रतिपादयति-भाव इति द्वारपरामर्श एव, 'तदुपयुक्त एव' तस्मिन्-अधिकृते शुभव्यापारे उपयुक्तस्तदुपयुक्तो यत् करोति, मृगापतिः। | तत्रोदाहरणं, तच्चेदम्-भगवं वद्धमाणसामी को संबीए समोसरिओ, तत्थ चंदसूरा भगवंतं बंदगा सविमाणा ओइण्णा, | तत्थ मियावई अजा उदयणमाया दिवसोत्तिका चिरं ठिया, सेसाओ साहणीओ तिस्थयरं बंदिऊण सनिलयं गयाओ, चंदसुरावि तित्थयरं बंदिऊण पडिगया, सिग्यमेव वियालीभूयं, मियावई संभंता, गया अज्जचंदणासगार्स 111 सूत्रांक COMSACREAK अनुक्रम पश्चात् कुम्भकारेण तस्य क्षुछकस्य कर्णामोटको दत्तः, स भगति-दुःखितोऽई, कुम्भकारो भणति-मिथ्या मे दुष्कृतं, एवं स पुनः पुनः कर्णामोटके | दरवा मिथ्यादुष्कृतमिति करोति, पश्चाक्षुलको भणति-महो सुन्दरं मिथ्यामेदुष्कृतमिति, कुम्भकारो भणति-तथापि ईशमेव मिथ्यामेदुष्कृतमिति, पश्चा-18 स्थितः काणनात्-1 यहष्कृतमिति मिथ्या (कृत्वा) तदेव निषेवते पुनः पापम् । प्रत्यक्षमषावादी मायानिकृतिप्रसाच ॥ एतद्र्व्यप्रतिक्रमण । २ भग-1 वान् वर्धमानस्वामी कौशाम्न्यां समवसतः, सत्र चन्द्रसूयौँ भगवन्तं वन्दिर सविमानाववतीणी, तब मृगावती आर्योदयनमाता दिवस इतिकृया चिरं स्थिता, शेषाः साध्व्यसीधकरं वन्दित्वा स्वनिलयं गताः, चन्द्रसूर्यावपि तीर्थकर वन्दित्वा प्रतिगती, शीप्रमेव विकालीभूतं, मृगावती संभ्रान्ता, गता आर्यचन्दनासकार्य। JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०४८], भाष्यं [१८९...] (४०) आ आवश्यक हारिभ- द्रीया प्रत 6 साताओ य ताव पडिकताओ, मियावई आलोएवं पवत्ता, अज्जचंदणाए भण्णइ-कीस अजे ! चिरं ठियासि ?, न जुत्तं सूत्रस्पर्शि नाम तुमं उत्तमकुलप्पसूयाए एगागिणीए चिरं अच्छिउंति, सासम्भावेण मिच्छामिदुकडंति भणमाणी अजचंदणाए पाएमु कनिक पडिया, अजचंदणा य ताए वेलाए संथारं गया, ताहे निद्दा आगया, पसुत्ता, मियावईएवि तिबसंवेगमावण्णाए पाय- वि०१ पडियाए चेव केवलणाणं समुप्पण्णं । सप्पो य तेणतेणमुवागओ, अज्जचंदणाए य संथारगाओ हत्थो ओलंबिओ, मियावईए मा खजिहितित्ति सो हत्थो संधारगं चडाविओ, सा विउद्धा भणइ-किमेयंति?, अज्जवि तुम अच्छसित्ति मिच्छामि दुक्कड, निद्दप्पमाएणं ण उहावियासि, मियावई भणइ-एस सप्पो मा भे खाहिइत्ति अतो हत्थो चडाविओ, सा भगइकहिं सो, सा दाएइ, अजचंदणा अपेच्छमाणी भणइ-अजे! किं ते अइसओ, सा भण-आम, तो कि छाउमस्थिओ केवलिओत्ति १, भणह-केवलिओ, पच्छा अजचंदणा पाएसु पडिऊण भणइ-मिच्छामि दुकडंति,130 ताश्च तावत्प्रतिकान्ताः, सगावत्यालोधितुं प्रवृत्ता, आर्यचन्दगया भण्यते-कथमायें ! चिरं स्थिताऽसि ?, म युकं नाम तब उत्तमकुलप्रसूताया एका४ किन्याः चिर स्थानुमिति, सा सद्भावेन मिथ्या मे दुष्कृतमिति भणन्ती र्यचन्दनायाः पादयोः पतिता, आर्यचन्दना च तस्यां वेलायां संसारके स्थिता, तदा निद्रा| sगता, प्रसुप्ता, सृगावत्या अपि तीमसंवेगमापनायाः पादपतिताया एवं केवलज्ञानं समुत्पन्न । सर्पश्च तेन मार्गेणोपागतः, आर्थचन्दनायाश्च हस्तः संस्तारकादवलम्बितः, मृगावत्या मा खादीदिति स हस्तः संस्तारके चटापितः, साविबुद्धा भगति-किमेतदिति, अद्यापि त्वं तिष्ठसीति मिथ्यामेदुष्कृतं, निद्राप्रमादेन नोत्थापिताऽसि, मृगावती भगति-एष सो मा भवन्तं खादीदिति भावत्को (अतो)हस्तश्चटापितः, सा भपति-क स!, सा दर्शयति, आर्यचन्दना अपश्यन्ती भणति-आयें कितवातिशयः १, सा भगति-ओम् , तर्हि किं छानषिकः कैवलिक इति?, भणति-विलिका, पश्चावार्यचन्दना पादयोः पतित्वा भणति-मिथ्या मे दुष्कृत मिति ४८५|| STMiDramom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] Educat [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०४८], भाष्यं [१८९...] केवली आसाइओत्ति, इयं भावपडिकमणं । एत्थ गाहा - 'जइ य पडिकमियवं अवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चैव न काय तो होइ पए पडिकंतो ॥ १ ॥ त्ति गाथार्थः ॥ १०४८ ।। इह च प्रतिक्रमामीति भूतात् सावद्ययोगान्निवर्तेऽह - मित्युक्तं भवति, तस्माच्च निर्वृत्तिर्यत्तदनुमतेर्विरमणमिति, तथा निन्दामीति गहरि, यत्र निन्दामीति जुगुप्सेत्यर्थः गमीति च तदेवोक्तं भवति, एवं तर्हि को भेद एकार्थत्वे १, उच्यते, सामान्यार्थाभेदेऽपीष्टविशेषार्थो गर्हाशब्दः, यथा सामान्ये गमनार्थे गच्छतीति गौः, सर्पतीति सर्पः, तथाऽपि गमनविशेषोऽवगम्यते, शब्दार्थादेव, एवमिहापि निन्दागयोरिति ॥ तं चार्थविशेषं दर्शयति सचरित्तपच्छयावो निंदा तीए चउक्कनिक्खेवो । दग्वे चित्तयरसुआ भावेसु वह उदाहरणा || १०४९ ॥ व्याख्या - सचरित्रस्य सत्त्वस्य पश्चात्तापो निन्दा, स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सेत्यर्थः, उक्तं च- "आत्मसाक्षिकी निन्दा”" तीए चउक्कनिक्खेवो'त्ति तस्यां तस्या वा नामादिभेदचतुष्को निक्षेप इति, तत्र नामस्थापने अनाहत्याऽऽह - 'दवे चित्तकरसुया भावेसु बहू उदाहरण'त्ति द्रव्यनिन्दायां चित्रकरसुतोदाहरणं, सा जहा रण्णा परिणीया अप्पाणं निंदियाइयत्ति, भावनिन्दायां सुबहून्युदाहरणानि योगसग्रहेषु वक्ष्यन्ते, लक्षणं पुनरिदं - 'हा ! दुड्डु कथं हा ! दुड्डु कारिथं दुट्टु अणुमयं इति । अंतो अंतो डज्झइ पच्छातावेण वेतो ॥ १ ॥ त्ति गाथार्थः ॥ १०४९ ॥ १ केवल्याशातित इति, इदं भावप्रतिक्रमणं । अत्र गाथा-यदि च प्रतिक्रान्तव्यमवश्यं कृत्वा पापर्क कर्म । तदेव न कर्त्तव्यं तदा भवति पदे प्रतिकान्तः ॥१॥ इति २ सा यथा राज्ञा परिणीताऽऽस्मानं निन्दितवतीति । ३ हा दुष्ट कृतं हा दुष्ठु कारितं दुष्ट् नुमतं इति । अन्तरन्तर्दद्यते पश्चाचापेन चैत्रान्तः (बेरन् ) ॥ १ ॥ इति । For Parts Only ancibrary org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः निन्दा तथा गर्हा शब्दस्य अर्थविशेषं कथयते ~ 108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०५०], भाष्यं [१८९...] (४०) n सूत्रस्पर्शि आवश्यकहारिभ द्रीया ॥४८६॥ प्रत सूत्रांक गरहावि तहाजाईअमेव नवरं परप्पगासणया । दब्बंमि मरुअनायं भावेसु बहू उदाहरणा ॥१०५०॥ व्याख्या गर्दाऽपि तथाजातीयैवेंति निन्दाजातीयैव, नवरमेतावान् विशेषः-परप्रकाशनया गर्दा भवति, या गुरोः प्रत्यक्षं जुगुप्सा सा गहेंति, 'परसाक्षिकी गहें ति वचनाद्, असावपि चतुर्विधैव, तत्र नामस्थापने अनाहत्यवाह-'दमि|| वि०१ मरुअणायं भावेसु बहू उदाहरण'त्ति । तत्र द्रव्यगर्हायां मरुकोदाहरणं, तच्चेदम्-आणंदपुरे मरुओ पहुसाए समं संवासं काऊण उवज्झायरस कहेइ जहा सुविणए बहुसाए समं संवासं गओमित्ति । भावगर्हाए साधू उदाहरणं-'गतूण गुरुसगासे काऊण य अंजलिं विणयमूलं । जह अप्पणो तह परे जाणावण एस गरहा उ ॥१॥ त्ति गाथार्थः ॥१०४९॥ तत्र निन्दामि गामीत्यत्र गर्दा जुगुप्सोच्यते, तत्र किं जुगुप्से ?, 'आत्मानम्' अतीतसावद्ययोगकारिणमश्लाध्यम्, अथवाऽत्राणम्-अतीतसावद्ययोगत्राणविरहितं जुगुप्से, सामायिकेनाधुना त्राणमिति, अथवा 'अत सातत्यगमने' अतनमतीतसावद्ययोग सततभवनप्रवृत्तं निवर्तयामीति, 'व्युत्सृजामी ति विविधार्थो विशेषाओं वा विशब्दः उच्छब्दो भृशार्थः। सृजामि-त्यजामीत्यर्थः, विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि ब्युत्सृजामि, अतीतसावद्ययोग व्युत्सृजामीति वा, अवशब्दोऽधशब्दस्यार्थे विशेषेणाधः सृजामीत्यर्थः, नन्वेवं सावद्ययोगपरित्यागात् करोमि भदन्त ! सामायिकमिति सावद्य-M४८६॥ योगनिवृत्तिरुच्यते, तस्य व्यवस्जामि शब्दप्रयोगे वैपरीत्यमापद्यते, तन्न, यस्मात् मांसादिविरमणक्रियानन्तरं व्यवसृजामीति प्रयुक्त तद्विपक्षत्यागो मांसभक्षणनि वृत्तिरभिधीयते, एवं सामायिकानन्तरमपि प्रयुक्त व्यवसृजामिशब्दे तद्विपक्ष आनन्दपुरे मरूकः खुषया समं संवास कृत्वा उपाध्यायाय कथयति, यथा स्वप्ने सुपया समं संवासं गतोऽस्मीति । भावगीयां साधुरुदाहरणम्| गरवा गुरुसकाशं कृत्वा चाजर्षि विनयमूलम् । बधाऽस्मनसधा परेषां ज्ञापनमेषा गर्दा तु॥३॥ अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~109. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०५१], भाष्यं [१८९...] प्रत सूत्रांक दि त्यागोऽवगम्यते, स च तद्विपक्षः सुगम एवेत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, ग्रन्थविस्तरभयादू, गमनिकामात्रप्रधानत्वात् 8 |प्रारम्भस्य ॥ साम्प्रतं व्युत्सर्गप्रतिपादनायाऽऽह ग्रन्थकार:| दवबिउस्सग्गे खलु पसन्नचंदो हवे उदाहरणं । पडिआगयसंवेगो भामिवि होइ सो चेव ॥ १०५१ ।। व्याख्या-इह द्रव्यन्युत्सर्गः-गणोपधिशरीरानपानादिव्युत्सर्गः, अथवा द्रव्यव्युत्सर्गः आर्तध्यानादिध्यायिनः कायोत्सर्ग इति, अत एवाऽऽह-द्रव्य व्युत्सर्गे खलु प्रसन्नचन्द्रो भवत्युदाहरणं, भावव्युत्सर्गस्त्वज्ञानादिपरित्यागः, अथवा धर्मशुक्लध्यायिनः कायोत्सर्ग एव, तथा चाऽऽह-प्रत्यागतसंवेगो 'भावेऽपि भावव्युत्सर्गेऽपि भवति स एव-प्रसन्नचन्द्र | उदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः ॥ १०५१ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-खिंइपइहिए णयरे पसन्नचंदो राया, तत्थ भगवं महावीरो समोसढो, तओ राया धम्म सोऊण संजायसंवेगो पचइओ, गीयत्थो जाओ। अण्णया जिणकप्पं पडिवजिउकामो सत्तभावणाए अप्पाणं भावेइ, तेणं कालेणं रायगिहे णयरे मसाणे पडिम पडिवन्नो, भगवं च महावीरोतत्थेवर समोसढो, लोगोऽवि बंदगोणीइ, दुवे य वाणियगा खिइपइडियाओ तत्थेव आयाया, पसन्नचंदं पासिऊण एगेण भणिय-16 |एस अम्हाण सामी रायलच्छि परिचय तवसिरि पडिवन्नो, अहो से धन्नया, वितिएण भणिय-कुओ एयस्स धण्णया!, क्षितिप्रतिष्ठिते नगरे प्रसन्नचन्द्रो राजा, तन्त्र भगवान महावीरः समवमृतः, ततो राजा धर्म श्रुत्वा संजातसंवेगः प्रमजितः, गीतार्थो जातः । अन्यदा जिनकल्प प्रतिपयुकामः सत्वभावनयात्मानं भावयति, तस्मिन् काले राजग्रहे भगरे श्मशाने प्रतिमा प्रतिपत्रः, भगवांश्च महावीरस्तव, | समवस्तः, लोकोऽपि वन्दको निर्गच्छति, दी च वणिजी क्षितिप्रतिष्ठितात् तत्रैवागती, प्रसन्नचन्द्र पटा एकेन भणितं-एषोऽस्माकं स्वामी राज्यलक्ष्मी परिखग्य तपःश्रियं प्रतिपक्षः, अहो अस्य धन्यता, द्वितीवेन भणितं-कुत एतस्य धम्यता, अनुक्रम NER SiwanNotary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'व्युत्सर्ग पदस्य प्रतिपादनम् ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०५१], भाष्यं [१८९...] प्रत सूत्रांक आवश्यक-15जो असंजायबलं पुत्तं रजे ठविऊण पवइओ, सो तवस्सी दाइगेहिं परिभविज्जइ, णयरं च उत्तिमक्खयं पवणं ताव, एव- सूत्रस्पर्शिहारिभमणेण बहुओ लोगो दुक्खे ठविओत्ति अदयो एसो, तस्स तं सोऊण कोवो जाओ, चिंतियं चऽणेण-को मम पुत्तस्स कनिक द्रीया |वि०१ अवकरे इत्ति, नूणममुगो, ता किं तेण!, एयावत्थगओ णं वावाएमि, माणससंगामेण रोद्दझाणं पवनो, हस्थिणा ૪૮ળી हत्थि विवाएइत्ति, विभासा । एत्वंतरे सेणिओ भगवं वंदओ णीइ, तेणवि दिहो चंदिओ य, अणेण ईसिपि न य निज्झाई-14 हतओ, सेणिएण चिंतियं-सुक्कज्झाणोवगओ एस भगवं, ता एरिसमि झाणे कालगयस्स का गइ भवइत्ति भगवंतं पुच्छि सं, तओ गओ वंदिऊण पुच्छिओऽणेण भगवं-जंमि झाणे ठिओ मए वंदिओ पसन्नचंदो तंमि मयस्स कहिं उबवाओ भवइ?,IK भगवया भणियं-अहे सत्तमाए पुढवीए, तओ सेणिएण चिंतियं-हा! किमेयंति?, पुणो पुच्छिस्सं । एत्थंतरंमि अपसन्नचंदस्स माणसे संगामे पहाणनायगेण सहावडियस्स असिसत्तिचक्ककप्पणिप्पमुहाई खयं गयाई पहरणाई, तओऽणेण सिरसाणेणं | योऽसंजातवलं पुत्रं राध्ये स्थापयित्वा प्रबजिता, स तपस्वी दायादैः परिभूयते, नगरं चोत्तम क्षयं अपनं तावत्, एवमनेन बहुको लोको दुःसे स्थापित इत्याष्टव्य एषः, तस्य तत् श्रुत्वा कोपो जाता, चिन्तितं चानेन-को मम पुत्रमपकरोतीति , नूनममुकः, तत् किं तेन', एतदवस्थागतो (अपि) व्यापादयामि, मानससंग्रामेण रौद्रं ध्यानं प्रपन्ना, हस्तिना हस्तिनं व्यापादयतीति विभाषा । अन्नान्तरे श्रेणिको भगवन्तं वन्दितुं निर्गच्छति, तेनापि दृष्टो बन्दि-18 तश्र, अनेनेषदपि न च नितिः |॥४८७॥ , श्रेणिकेन चिन्तित-शुक्लध्यानोपगत एष भगवान्, हदीशे ध्याने कालगतस्य का गतिर्भवतीति भगवम्तं प्रक्ष्यामि, ततो गतो बन्दित्वा पृटोऽनेन भगवान्-यस्मिन् ध्याने स्थितो मया वन्दितः प्रसन्नचन्द्रस्तस्मिन्मुतव कोपपातो भवति ?, भगवता भणितं-अधः सप्तम्यां पृथिव्यां, | ततः श्रेणिकेन चिन्तितं-हा किमेतदिति, पुनः प्रक्ष्यामि । अत्रान्तरे च प्रसनचन्द्रख मानसे संग्रामे प्रधाननायकेन सहापतितस्वासिशक्तिचकल्पनीप्रमुखानि क्षयं गतानि प्रहरणानि, ततोऽनेन शिरखाणेन अनुक्रम JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०५१], भाष्यं [१८९...] प्रत X सूत्रांक +K -% विवाएमित्ति परामुसियमुत्तिमंग, जाहे लोयं कयंति, तओ संवेगमावण्णो महया विसुज्झमाणपरिणामेण अत्ताणं निंदिउँ| जापयत्तो, समाहियं चणेण पुणरवि सुकं झाणं । एत्यंतरंमि सेणिएणवि पुणोऽवि भगवं पुच्छिओ-भगवं! जारिसे झाणे संपइ पसन्नचंदो वट्टइ तारिसे मयस्स कहिं उववाओ?, भगवया भणियं-अणुत्तरसुरसुति, तओ सेणिएण भणियं-पुत्र दकिमन्नहा परूवियं उआह मया अन्नहा अवगच्छियंति, भगवया भणियं-न अन्नहा परूवियं सेणिएण भणियं-किं। वा कई वत्ति ?, तओ भगवया सबो वुत्ततो साहिओ । एत्थंतरंमि य पसन्नचंदसमीवे दिवो देवदुंदुहिसणाहो महन्तो कलसायलो उद्धाओ. तओ सेणिएण भणियं-भगवं! किमयंति, भगवया भणियं-तस्सेव विसुज्झमाणपरिणामस्स केवलणाणं | समुप्पण्णं, तओ से देवा महिमं करेंति । एस एव दयविउस्सग्गभावविउस्सग्गेसु उदाहरणं ॥ साम्प्रतं समाप्तौ यथाभूतो|ऽस्य कर्ता भवति सामायिकस्य तथाभूतं संक्षेपतोऽभिधित्सुराहसावजजोगविरओ तिविहं तिविहेण वोसिरिअ पावं । सामाइअमाईए एसोऽणुगमो परिसमत्तो ।। १०५२ ॥ व्यापादयामीति परामृष्टमुत्तमाकं, यदा लोचः कृत इति, नतः संवेगमाएः महता विशुध्यमानपरिणामेनात्मानं निन्दितुं प्रवृत्तः, समाहित चानेन पुनरपि शुक्र ध्यानं । अन्नान्तरे श्रेणिकेनापि पुनरपि भगवान् पृष्टः-भगवन् ! यादृशे ध्याने सम्पति प्रसनचन्यो वर्तते ताशे मृतस्य कोपपातः १, भगवता. भणितं-अनुत्तरसुरेविति, ततः श्रेणिकेन भणित-पूर्व किमन्यथा प्ररूपितमुताहो मयाऽन्यथाऽवगतमिति !, भगवता भणितं-नान्यथा प्ररूपित, श्रेणिकेन भणित-किं वा कथं चेति । ततो भगवता सर्वो वृत्तान्तः कथितः । अत्रान्तरे च प्रसन्नचन्द्रसमीपे दिव्यो देवदुन्दुभिसनाथो महान् कलकल उस्थितः, ततः श्रेणिकेन भणित-भगवन् ! किमेतदिति, भगवता भणितं-तस्यैव विशुध्यमानपरिणामस्य केवलज्ञानं समुत्पन्न, सतास्य देवा महिमानं कुर्वन्ति । एष एवं इन्यव्युत्सर्गभावल्युएलर्गयोरुदाहरणं । 24 अनुक्रम JABERatinintamational InHIDrayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०५१], भाष्यं [१८९...] आवश्यकहारिभद्रीया ॥४८८॥ ARRED व्याख्या-सावद्ययोगविरतः, कथमित्याह-त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृज्य पापं न तु सापेक्ष एवेत्यर्थः, पाठान्तरं वा सावद्य-13 सूत्रस्पाश योगविरतः सन् त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृजति पापमेध्यं, 'सामायिकादौ'सामायिकारम्भसमये एषोऽनुगमः परिसमाप्तः, अथवा कनि० सामायिकादौ सूत्र इति, आदिशब्दात् सर्वमित्याद्यवयवपरिग्रह इति गाथार्थः॥१०५२।उक्तोऽनुगमः, सम्पति नयाः, ते च नैग वि०१ मसहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूडैवम्भूतभेदभिन्नाः खल्वोधतः सप्त भवन्ति, स्वरूपं चैतेपामधः सामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते, इह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्भावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते, ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तथा चाऽऽहविजाचरणनएK सेससमोआरणं तु कायब्वं । सामाइअनिलुसी सुभासिअत्था परिसमता ॥१०५३ ॥ ब्याण्या-'विजाचरणनएK'ति विद्याचरणनययोः ज्ञानक्रियानययोरित्यर्थः, 'सेससमोयारण तु काय'ति शेषन|यसमवतारः कर्तव्यः, तुशब्दो विशेषणार्धः, किं विशिनष्टि !-तौ च वक्तव्यौ, सामायिकनियुक्तिः सुभाषितार्थी परिसमाप्तेति प्रकटार्थमिति गाथार्थः ॥ १०५३ ॥ साम्प्रतं स्वद्वार एवं शेषनयान्तर्भावेनाधिकृतमहिमानौ अनन्तरोपन्यस्तगाथागततुशब्देन चावश्यवक्तव्यतया विहितौ ज्ञानचरणनयात्रुच्येते, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं-ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुमिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात् , तथा चाऽऽह ॥४८८॥ नायंमि गिहिअब्वे अगिहिअवमि चेव अत्थंमि । जइअव्वमेव इअ जो उवएसो सो नओ नाम ॥१०५४॥ व्याख्या-'नायमित्ति ज्ञाते सम्यक्परिच्छिन्ने 'गिहियोति ग्रहीतव्ये उपादेये 'अगिव्हियबंमित्ति अग्रहीतव्ये अनु JAMER a na पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०५४], भाष्यं [१८९...] -5-4245 प्रत सूत्रांक पादेये हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलुभयोबृहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थः, उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा, एवकारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः-ज्ञात एव ग्रहीतव्ये तथाऽग्रहीतव्ये तथोपेक्षणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते 'अत्यमिति अर्थ ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिकः ग्रहीतव्यः सचन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्टकादिरुपेक्षणी यस्तृणादिः, आमुग्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः अग्रहीतच्यो मिथ्यात्वादिः उपेक्षणीयो विवक्षयाऽभ्युदयादिरिति. है तस्मिन्नर्थे 'जइअवमेव त्ति अनुस्वारलोपादू यतितव्यम् 'एवम् अनेन क्रमेणहिकामुष्मिकफलप्राप्यर्थिना सत्त्वेन यति तव्यमेव, प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, सम्यगज्ञाते प्रवर्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात् , तथा चान्यैरप्युक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥१॥" तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनाऽपि ज्ञात एव यतितव्यं, तथा चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तम्-"पढमं गाणं तओ दया, एवं चिहइ सबसंजए । अन्नाणी किं काहिति किं वा णाहिति छेय पावगं ? ॥१॥” इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्य यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा, तथा चागमः-"गीयस्थो य विहारो वितिओ गीयस्थमीसओ भणिओ । एतो तइयविहारो णाणुपणाओ जिणवरेहिं ॥१॥"न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्थानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्त, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षां प्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजा प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयत्तः । अज्ञानी किं करिष्यति ? किं वा ज्ञास्यति छेकं पापके (वा) ॥ ६ ॥ २ गीतार्थश्च बिहारो द्वितीयो गीतार्थमिश्नको भणितः । आभ्यां तृतीयो विहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ॥1॥ अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०५४], भाष्यं [१८९...] प्रत सूत्रांक आवश्यक-दयते यावज्जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्माज्ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारण-IXनयविचार. हारिभ । मिति स्थितम् । 'इति जो उवएसो सो नयो नाम ति 'इति' एवमुक्तेन न्यायेन यः उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो वि०१ द्रीया नाम ज्ञाननय इत्यर्थः । अयं च चतुर्विधे सम्यक्त्वादिसामायिके सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकद्वयमेवेच्छति, ज्ञानात्मक॥४८९॥ | त्वादस्य, देशविरतिसर्वविरतिसामायिके तु तत्कार्यत्वात् तदायत्तत्वानेच्छति, गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः ॥ १०५४ ॥ |उक्तो ज्ञाननयः, अधुना क्रियानयावसरः, तद्दर्शनं चेदं-क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात् , तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह-'णायमि गिव्हिय'त्यादि, अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्याज्ञाते ग्रहीतव्येऽग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना यतितव्यमेव, न यस्मात् प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिदृश्यते, तथा चान्यैरप्युक्तम्-"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ १॥" तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना क्रियैव कर्तव्या, तथा च मुनीन्द्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थित, यत उक्तम्-"चेयकुलगणसंघे आयरिआणं च पक्ष्यण सुए य । सबेसुवि तेण कयं तवसंजममुज्जमतेणं ॥१॥" इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं यस्मात् तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोतं, तथा चाऽऽगमः--"सुबहुंपि सुयमहीयं किं काहि चरणविप्पमुक्करस ? । अंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥" H ॥४८९॥ चैत्यकुलगणसंधेषु आचायें प्रवचने श्रुते च । सर्वेष्वपि तेन कृतं तपःसंवमे उद्यच्छता ॥१॥२ सुबद्धपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति विप्रमुक्तचरणस्य ।। अन्धस्स यथा प्रदीला दीपशतसहस्त्रकोव्यपि ॥1॥ अनुक्रम -Che NEnaina पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०५४], भाष्यं [१८९...] प्रत सूत्रांक दशिक्रियाविकलत्वात् तस्येत्यभिप्रायः, एवं तावत् क्षायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तं, चारित्रं क्रियेत्यनान्तरं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्या एव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भगवतः समुत्पन्नकेवल ज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता इस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावा- 10 ति, तस्मात् क्रियैव प्रधाना ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम्, 'इति जो उवएसो सो नओ नामति इति।४ एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः, अयं च सम्यक्त्वादी चतु-11 विधे सामायिके देशविरतिसर्वविरतिसामायिकद्वयमेवेच्छति क्रियात्मकत्वादस्य, सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिके तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति, गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः ॥ १०५४ । उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञानक्रियानयस्वरूपं ज्ञात्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तत्त्वं १, पक्षद्धयेऽपि युक्तिसम्भवात्, आचार्यः पुनराह-सब्वेसिपि गाहा, अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह सव्वेसिपि नयाणं बहुविवत्तव्बयं निसामित्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणठिओ साहू ॥१०५५॥ व्याख्या-सर्वेषामपि मूलनयानाम् , अपिशब्दात् तद्भेदानां च 'नयानां' द्रव्यास्तिकादीनां 'बहुविधवक्तव्यता सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपाम् अथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमिच्छत्तीत्यादिरूपां अनुक्रम Palandionaryom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक हारिमद्वीया ॥४९०॥ Ja Educatio [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [ १०५५], भाष्यं [१८९...] वि० १ 'निशम्य' श्रुत्वा तत् 'सर्वनयविशुद्धं सर्वनयसम्मतं वचनं यश्चरणगुणस्थितः साधुः यस्मात् सर्वनया एव भावनिक्षेप- २ नयविचार. मिच्छन्तीति गाथार्थः ॥ १०५५॥ इत्याचार्यहरिभद्रकृतौ शिष्य हितायामावश्यकटीकायां सामायिकाध्ययनं समाप्तम् ॥ सामायिकस्य विवृतिं कृत्वा यदवाप्तमिह मया कुशलम् । तेन खलु सर्वलोको लभतां सामायिकं परमम् ॥ १ ॥ यस्माज्जगाद भगवान् सामायिकमेव निरुपमोपायम् । शारीरमानसानेकदुःखनाशस्य मोक्षस्य ॥ २ ॥ ग्रन्थाग्रम् १२३४३ ॥ आवस्यपुबद्धं सम्मत्तं ॥ इति याकिनीमहत्तरासूनुभवविरहश्रीमद्हरिभद्राचार्यविरचितवृत्त्या कलितं सभाष्य नियुक्तिक मावश्यक पूर्वार्धं समाप्तम् ॥ ॥ सामायिकाध्ययनमयः प्रथमो विभागः समाप्तः ॥ For Persenty पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं -१ 'सामायिकं परिसमाप्तं ~ 117 ~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [R..] • [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [ १०५५ ], भाष्यं [१८९...] अथ विदिशतिस्तवाख्यं द्वितीयमध्ययनम्. साम्प्रतं सामायिकाध्ययनानन्तरं चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनमारभ्यते, इह चाध्ययनोद्देशसूत्रारम्भेषु सर्वेष्वेव कारणांऽभिसम्बन्धौ वाच्याविति वृद्धवादः, यतश्चैवमतः कारणमुच्यते तच्चेदम्--जात्यादिगुणसम्पत्समन्वितेभ्यो विनेयेभ्यो गुरुरावश्यक श्रुतस्कन्धं प्रयच्छति सूत्रतोऽर्थतश्च स च अध्ययन समुदायरूपो वर्तते यत उक्तम्- 'ऐतो एकेक पुण, अज्झयणं कि इस्सामि' प्रथमाध्ययनं च सामायिकमुपदर्शितम्, इदानीं द्वितीयावयवत्वाद् द्वितीयावयवत्वस्य चाधिकारोपन्यासेन सिद्धिः आचार्यवचनप्रामाण्याद् उक्तं च- 'सावज्जजोगविरई उत्तिणे त्यादि, अतो द्वितीयमुपदर्श्यते, यथा हि किल युगपदशक्योपलम्भपुरुषस्य दिदृक्षोः क्रमेणा झावयवानि ददर्यन्ते एवमत्रापि श्रुतस्कन्ध पुरुषस्येति कारणम्, | इदमेव चोद्देशसूत्रेष्वपि योजनीयम्, इदमेव सर्वाध्ययनेष्वपि कारणं द्रष्टव्यं, न पुनर्भेदेन वक्ष्याम इत्य विस्तरेण । सम्बन्ध उच्यते अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने सावद्ययोगविरर्तिलक्षणं सामायिकमुपदिष्टम्, इह तु तदुपदेष्टुणामतामुत्कीर्तनं कर्तव्यमिति प्रतिपाद्यते, यद्वा सामायिकाध्ययने तदासेवनात्कर्मक्षय उक्तः, यत उक्त निरुक्तिद्वारे'सम्मद्दिहि अमोहो सोही सम्भाव दंसणं बोही । अविषजओ सुदिट्ठित्ति एवमाई निरुत्ताई ॥ १ ॥ति, इहापि चतुर्विंशतिस्तवे ऽर्ह गुणोत्कीर्तन रूपाया भक्तेस्तत्त्वतोऽसावेव प्रतिपाद्यते, वक्ष्यति च - 'भंतीऍ जिणवराणं खिज्जती पुवसंचिया ३ अतोऽनन्तरमेकैकं पुनरध्ययनं कीर्तयिष्यामि । २ उपदश्यते इत्यनेन संबन्धः ३ सावद्ययोगविरतिरुकीर्त्तनं भवान्तरावयवभूतेषु ५ सम्यग्दृष्टिरमोहः शोधिः सानो दर्शनं बोधिः । अविपर्ययः सुदृष्टिरिति एवमादीनि निरुक्तानि ॥ १ ॥ ६ कर्मक्षयः, ७ भक्तेर्जिवराणां क्षीयन्ते पूर्वसंचितानि कर्माणि पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं -२- 'चतुर्विंशतिः' आरभ्यते ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०५५], भाष्यं [१८९...] प्रत सूत्रांक आवश्यक कम्मत्तीत्यादि, एवमनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्य सतोऽस्य चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपञ्च वक्त- २चतुर्विहारिभ- व्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे चतुविशतिस्तवाध्ययनमिति । इह चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनशब्दाःप्ररूप्याः, तथा चाह- शतिस्तवाद्रीया चउवीसइत्ययस्स उ णिक्खेवो होइ णामणिप्फपणो । चउवीसइस्स छको थयस्स उ चउब्धिहो होइ ॥१०५६॥ चतुार्वैश तिनि० ॥४९॥ व्याख्या-चतुर्विंशतिस्तवस्य तु निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः, क इत्यन्यस्वाश्रुतत्वादयमेव यदुत-चतुर्विंशतिस्तव इति, तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादिदमित्थमवसेय, तत्रापि चतुर्विशतेः परः स्तवस्य चतुर्विधो भवति, तुशब्दादध्ययनस्य चेति गाथासमासार्थः ॥१०५६।। अवयवार्थ तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्राऽऽद्यावयवमधिकृत्य निक्षेपोपदर्शनायाहनाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे अ । चउवीसइस्स एसो निक्खेवो छविहो होइ ॥१९०॥ (भा०) व्याख्या-तत्र नामचतुर्विशतिर्जीवादेश्चतुर्विंशतिरिति नाम चतुर्विंशतिशब्दोवा,स्थापनाचतुर्विशति चतुर्विशतीनां केषाश्चित्स्थापनेति, द्रव्यचतुर्विंशति चतुर्विंशतिर्द्रव्याणि सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्नानि, सचित्तानि द्विपदचतुष्प(दापोदभेदभिदिनानि,अचित्तानि कार्यापणादीनि, मिश्राणि द्विपदादीन्येव कटकाद्यलकृतानि, क्षेत्रचतुर्विशतिर्विवक्षया चतुर्विशतिःक्षेत्राणि भरतादीनि क्षेत्रप्रदेशा वा चतुर्विंशतिप्रदेशावगाढं वा द्रव्यमिति,कालचतुर्विंशतिः चतुर्विंशतिसमयादय इति पतावत्कालस्थिति वा द्रव्यमिति, भावचतुर्विंशतिः चतुर्विंशतिभावसंयोगाश्चतुर्विशतिगुणकृष्णं वा द्रव्यमिति, चतुर्विशतेरेप निक्षेपः 'पविधी भवति' पट्मकारो भवति, इह च सचित्तद्विपदमनुष्यचतुर्विंशत्याऽधिकार इति गाथार्थः॥ १९० ॥ उक्का चतुर्विंशतिरिति, M४९१॥ साम्प्रतं स्तवः प्रतिपाद्यते, तत्र अनुक्रम [२..] CAM पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'चतुर्विंशति' शब्दस्य षड़ निक्षेपा: ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [R..] [भाग-३०] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [१०५६], भाष्यं [१९१] नामं ठषणा दविए भावे अ धयस्स होइ निक्खेबो । दव्वथओ पुप्फाई संतगुणुकिराणा भावे ॥१९१॥ (भा०) व्याख्या -- तत्र 'नामे'ति नामस्तवः 'स्थापने'ति स्थापनास्तवः 'द्रव्य' इति द्रव्यविषयोः द्रव्यस्तवः, 'भावे चे 'ति भावविषयश्च भावस्तव इत्यर्थः इत्थं स्तवस्य भवति 'निक्षेपो' न्यासः, तत्र क्षुण्णत्वान्नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यस्तव भावस्तवस्वरूपमेवाह - 'द्रव्यस्तवः पुष्पादि रिति, आदिशब्दाद् गन्धधूपादिपरिग्रहः, कारणे कार्योपचाराच्चैवमाह, अन्यथा द्रव्यस्तवः पुष्पादिभिः समभ्यर्चनमिति, तथा 'सद्गुणोत्कीर्तना भाव' इति सन्तश्च ते गुणाश्च सद्गुणाः, अनेनासद्गुणोत्कीर्तनानिषेधमाह करणे च मृषावाद इति, सद्गुणानामुत्कीर्तना उत्-प्राबल्येन परया भक्त्या कीर्तना- संशब्दना यथा - " प्रकाशितं यथैकेन त्वया सम्यग् जगत्रयम् । समत्रैरपि नो नाथ !, परतीर्थाधिपैस्तथा ॥ १ ॥ विद्योतयति वा लोकं, यथेकोऽपि निशाकरः । समुद्गतः समग्रोऽपि किं तथा तारकागणः १ ॥ २ ॥ इत्यादिलक्षणो, 'भाव' इति द्वारपरामर्शो भावस्तव इति गाथार्थः ॥ १९१ ।। इह चालितप्रतिष्ठापितोऽर्थः सम्यग्ज्ञानायालमिति, चालनां च कदाचिद्विनेयः करोति कदाचित्स्वयमेव गुरुरिति, उक्तं च- 'कत्थर पुच्छइ सीसो कहिंचऽपुट्ठा कहति आयरिया इत्यादि, यतश्चात्र वित्तपरित्यागा| दिना द्रव्यस्तव एव ज्यायान् भविष्यतीत्यल्पबुद्धीनामाशङ्कासम्भव इत्यतस्तद्व्युदासार्थं तदनुवादपुरस्सरमाह-| दव्वधओ भावथओ दव्वथओ बहुगुणत्ति बुद्धि सिआ । अनिउणमइवयणमिणं छज्जीवहि जिणा विंति ॥१९२॥ व्याख्या -- द्रव्यस्तवो भावस्तव इत्यत्र द्रव्यस्तवो 'बहुगुणः' प्रभूततरगुण 'इति' एवं बुद्धिः स्याद् एवं चेत् मन्यसे १ कचित्पृच्छति शिष्यः कुत्रचिदष्टाः कथयाचार्याः पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 120~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०५६..], भाष्यं [१९२] प्रत सुत्रांक आवश्यमत्यर्थः, तथाहि-किलास्मिन् क्रियमाणे वित्तपरित्यागाच्छुभ एवाध्यवसायस्तीर्थस्य चोन्नतिकरणं दृष्टा च तं क्रियमाण- २ चतुावहारिभ- मन्येऽपि प्रतिबुद्धयन्त इति स्वपरानुग्रहः, सर्वमिदं सप्रतिपक्षमिति चेतसि निधाय 'द्रव्यस्तवो बहुगुण' इत्यस्यासारता-1 शतिस्तवाद्रीया ख्यापनायाऽऽह-अनिपुणमतिवचनमिद मिति, अनिपुणमतेर्वचनं अनिपुणमतिवचनम् , 'इद मिति यद् द्रव्यस्तवो बहु स्तवनिक्षेपः गुण इति, किमित्यत आह-षड्जीवहितं जिना ब्रुवते' पण्णां-पृथिवीकायादीनां हितं जिना:-तीर्धकरा ब्रुवते, प्रधानंद ॥४९॥ |मोक्षसाधनमिति गम्यते ।। किं च षड्जीवहितमित्यत आह| छजीवकापसंजमु दवथए सो विरुज्झई कसिणो।तो कसिणसंजमविऊ पुप्फाईअंनइच्छति ॥१९॥(भा०)15 ___ व्याख्या-पडूजीवकायसंयम' इति षण्णां जीवनिकायानां पृथिव्यादिलक्षणानां संयमः-सानादिपरित्यागः षड्जीवकायसंयमः, असौ हितं, यदि नामैवं ततः किमित्यत आह-'द्रव्यस्तवे' पुष्पादिसमभ्यर्चनलक्षणे 'स' पड्जीवकायसं| यमः, किं ?-'विरुध्यते' न सम्यक संपद्यते, 'कृत्स्नः' सम्पूर्ण इति, पुष्पादिसंलुश्चनसट्टनादिना कृत्स्नसंयमानुपपत्तेः, यतश्चैवं 'ततः' तस्मात् 'कृरस्मसंयमविद्वांस' इति कृत्स्सं यमप्रधाना विद्वांसस्तत्त्वतः साधव उच्यन्ते, कृत्स्नसंयमग्रहणम-1 ॥४९२॥ | कृससंयमविदुषां श्रावकाणां व्यपोहार्थ, ते किम् ?, अत आह-पुष्पादिक' द्रव्यस्तवं 'नेच्छन्ति' न बहु मन्यन्ते, यच्चोके-'द्रव्यस्तवे क्रियमाणे वित्तपरित्यागाच्छुभ एवाध्यवसाय' इत्यादि, तदपि यत्किश्चिद्, व्यभिचारात्, कस्यचिदल्पसत्त्व-15 स्याविवेकिनो वा शुभाध्यवसायानुपपत्तेः, दृश्यते च कीाद्यर्थमपि सत्त्वानां द्रव्यस्तवे प्रवृत्तिरिति, शुभाध्यवसायभा| वेऽपि तस्यैव भावस्तवत्वादितरस्य च तत्कारणत्वेनाप्रधानत्वमेव, 'फलप्रधानास्समारम्भा' इति न्यायात्, भावस्तव एव अनुक्रम [२..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [R..] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ २ ], मूलं [२...] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०५६.. ], भाष्यं [१९३] वि सति तत्त्वतस्तीर्थस्योन्नतिकरणं, भावस्तव एव तस्य सम्यगमरादिभिरपि पूज्यत्वमेनं (त्वात्तमेव च दृष्ट्वा क्रियमाणमन्येऽपि सुतरां प्रतिबुध्यन्ते शिष्टा इति खपरानुग्रहोऽपी हैवेति गाथार्थः ॥ १९३ ।। आह-यद्येवं किमयं द्रव्यस्तव एकान्तत एव हेयो वर्तते ? आहोस्विदुपादेयोऽपि ?, उच्यते, साधूनां हेय एव श्रावकाणामुपादेयोऽपि तथा चाह भाष्यकारःअकसिणपवत्तगाणं विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणो व्यधए कुषदितो ॥ १९४॥ (भा०) व्याख्या - अकृत्स्नं प्रवर्तयतीति संयममिति सामर्थ्याद्गम्यते अकृत्स्नप्रवर्तकास्तेषां 'विरताविरतानाम्' इति श्रावकाणाम् 'एष खलु युक्तः' एष द्रव्यस्तवः खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् युक्त एव, किम्भूतोऽयमित्याह - 'संसारप्रतनुकरणः ' संसारक्षयकारक इत्यर्थः, द्रव्यस्तवः, आह-यः प्रकृत्यैवासुन्दरः स कथं श्रावकाणामपि युक्त इत्यत्र कूपदृष्टान्त इति, | जहा णवणयराइसन्निवेसे केइ पभूयजलाभावओ तण्हाइपरिगया तदपनोदार्थं कूपं खणंति, तेसिं च अइवि तण्हादिया वति मट्टिकाकद्दमाईहि य मलिणिज्जन्ति तहावि तदुब्भवेणं चैव पाणिएणं तेसिं ते तन्हाइया सो य मठो पुबओ य फिल्इ, सेसकालं च ते तदण्णे य लोगा सुहभागिणो हवंति । एवं दबथए जवि असंजमो तहावि तओ चैव सा परिणामसुद्धी हवइ जाए असंजमोवज्जियं अण्णं च णिरवसेसं खवेइति । तम्हा विरयाविरएहिं एस दवत्थओ कायचो, १ यथा नवनगरादिसन्निवेशे केचित्प्रभूतजलाभावात् तृष्णादिपरिगतास्तदपमोदार्थं कूपं खनन्ति तेषां च यद्यपि तृष्णादिका वर्धन्ते मृत्तिकाकर्दनादिभिश्र मलिनीयन्ते ( दखादीनि ) तथापि तदुद्धचैनैव पानीयेन तेषां ते तृष्णादिकाः स च मलः पूर्वक स्फिटति शेषकालं च ते तदन्ये च लोकाः सुखभागिनो भवन्ति । एवं द्रव्यवे यद्यपि असंयमस्तथापि तत एव सा परिणामशुद्धिर्भवति ययाऽसंयमोपार्जितं अन्यच निश्वशेषं क्षपयति । तस्माद्विस्तारितैरेष इव्यस्तवः कर्त्तव्यः भावस्तववत एव पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~122~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०५६..], भाष्यं [१९४] हारिभद्रीया प्रत ॥४९॥ सभाणबंधी पभूयतरणिजराफलो यत्ति काऊणमिति गाथार्थः ॥ १९४ ॥ उक्तः स्तवः, अत्रान्तरे अध्ययनशब्दार्थों निरू-IIR चतुर्विपणीयः, स चानुयोगबारेषु व्यक्षेण निरूपित एवेति नेह प्रतन्यते । उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकनि शतिस्तवा| पन्नस्य निक्षेपस्यावसरा, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं चानुगमे, स च द्विधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, तत्र नियु-1॥ ध्यस्तवाक्त्यनुगमखिविधः, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनि- | धिकारः युक्त्यनुगमोऽनुगतो वक्ष्यति च, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्त्वाभ्यां द्वारगाथाभ्यामवगन्तव्यः, तद्यथा-'उद्देसे निदेसे'इत्यादि। 'किं कइविह' मित्यादि । सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इति स चावसरप्राप्त एव, युगपञ्च सूत्रादयो ब्रजन्ति, तथा चोकम्-"सुत्तं सुत्ताणुगमो सुत्तालावयकओ य णिक्खेवो । सुत्तष्फासियणिजुत्ति गया| य समगं तु वञ्चति ॥१॥" विषयविभागः पुनरमीषामयं वेदितव्य:-"होई कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगमो। सुत्तालावयणासो णामाइण्णासविणिओगं ॥१॥ सुत्तप्फासियणिज्जुत्तिणिओगो सेसओ पयत्थाई । पायं सोच्चिय णेगमणयाइमयगोयरो भणिओ॥२॥" अत्राऽऽक्षेपपरिहारा न्यक्षेण सामायिकाध्ययने निरूपिता एव नेह वितन्यत इत्यलं विस्तरेण, तावद् यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीय, तच्चेदं सूत्रम् 5-%EO अनुक्रम [२..] ॥४९३॥ शुभपरिणामानुबम्धी प्रभूत तर निर्जराफल अतिकृत्वा । २ सूत्र सूत्रानुगमः सूबालापककृतब निक्षेपः । सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति नवान युगपदेव व्रजन्ति ॥३ भवति कृतार्थ उक्त्वा सपदच्छेदं सूत्र सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यासविनियोगम् ॥१॥ सूत्रस्पर्शिकनियुंक्तिनियोगः शेषः पदार्थाविना प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भणितः ॥३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं / [गाथा-१], नियुक्ति : [१०५६..], भाष्यं [१९४...] SAC प्रत ROCALC लोगस्मुज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहन्ते कित्तइस्सं, चउबीसपि केवली ॥१॥ (सूत्रम्) व्याख्या अस्य, तलक्षणं चेद-'संहिता चे'त्यादि पूर्ववत् , तत्रास्खलितपदोच्चारण संहिता, यद्वा परः संनिकर्ष इति, सा चेय-लोगस्सुजोयगरे'इत्यादि पाठः । अधुना पदानि, लोकस्य उद्योतकरान् धर्मतीर्थकरान जिनान् अर्हतः कीर्तयिध्यामि चतुर्विंशतिमपि केवलिनः । अधुना पदार्थः-लोक्यत इति लोका, लोक्यते-प्रमाणेन दृश्यत इति भावः, अयं चेह तावत्पश्चास्तिकायात्मको गृह्यते, तस्य लोकस्य किं -उद्योतकरणशीला उद्योतकरास्तान, केवलालोकेन तत्पूर्वकप्रवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाशकरणशीलानित्यर्थः, तथा दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, उक्तं च-"दुर्गतिप्रसृतान् जीवा" नित्यादि, तथा तीर्यतेऽनेनेति तीर्थ धर्म एव धर्मप्रधानं वा तीर्थ धर्मतीर्थ तत्करणशीलाः धर्मतीर्थकरास्तान, तथा रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गाष्टप्रकारकर्मजेतृत्वाजिनास्तान, तथा अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तानहतः, कीर्तयिष्यामीति स्वनामभिः स्तोष्य इत्यर्थः, चतुर्विशतिरिति सङ्ख्या, अपिशब्दो भावतस्तदन्यसमुच्चयार्थः, केवल ज्ञानमेषां विद्यत इति केवलिनस्तान केवलिन इति । उक्तः पदार्थः, पदविग्रहोऽपि यथावसरं यानि समासभाजि पदानि तेषु दर्शित एव । साम्प्रतं चालनावसरः, तत्र तिष्ठतु तावत्सा, सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिरेवोच्यते, स्वस्थानत्वाद्, उक्तं च-"अक्खलियसंहियाई बक्खाणचउक्कए दरिसियंमि । सुत्तफासियणिज्जुत्तिवित्थरत्थो इमो होइ ॥१॥' चालनामपि चाचैव वक्ष्यामः, तत्र लोकस्योद्योतकरानिति यदुक्तं तत्र लोकनिरूपणायाऽऽह १ अस्खलितसंहितादी व्याख्यानचतुष्के दर्शिते । सुत्रस्पर्शिकनियुक्तिविस्तरार्थोऽयं भवति ॥१॥ % अनुक्रम (३) %25% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | मूलसूत्र 'लोगस्स' स्य आरम्भः, तस्य प्रथम-गाथाया: पद-व्याख्या: ~124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०५७], भाष्यं [१९५] प्रत सूत्रांक आवश्यकणाम १ठवणा २ दविए ३ खित्ते ४ काले ५ भवे अभावे अ ७। २ चतुर्विहारिभपजवलोगे अ८ तहा अट्ठविहो लोगणिक्खेवो । २०५७॥ सतिस्तवाद्रीया व्याख्या-नामलोका स्थापनालोकः द्रव्यलोका क्षेत्रलोकः काललोकः भवलोको भावलोकश्चपर्यायलोकश्च तथा, एवमष्टविधो ध्यलोकलोकनिक्षेप इति गाधासमासार्थना व्यासार्थ तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यलोकमभिधित्सुराह-1 । निक्षेप: ॥४९४॥ | जीवमजीवे रूवमरूवी सपएसमप्पएसे अ । जाणाहि दवलोगं णिचमणिचं च जं दव्वं ॥ १९५ ॥ (भा०ाद व्याख्या-जीवाजीवावित्यत्रानुस्वारोऽलाक्षणिकः, तत्र सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणो जीवः, विपरीतस्त्वजीवः, एतौ च द्विभेदौ-रूप्यरूपिभेदाद्, आह च-रूप्यरूपिणाविति, तत्रानादिकर्मसन्तानपरिगता रूपिणः-संसारिणः, अरूपिणस्तु कर्मरहिताः सिद्धा इति, अजीवास्त्वरूपिणो धर्माधर्माकाशास्तिकायाः रूपिणस्तु परमाण्वादय इति, एतौ च जीवाजीवा| वोघतः सप्रदेशाप्रदेशाववगन्तव्यौ, तथा चाह-'सप्रदेशाप्रदेशाविति, तत्र सामान्यविशेषरूपत्वात्परमाणुव्यतिरेकेण सनदेशाप्रदेशत्वं सकलास्तिकायानामेव भावनीय, परमाणवस्त्वप्रदेशा एव, अन्ये तु व्याचक्षते-जीवः किल कालादेशेन निय मात् सप्रदेशः, लब्ध्यादेशेन तु सप्रदेशो वाऽप्रदेशो वेति, एवं धर्मास्ति कायादिष्वपि विष्वस्तिकायेषु परापरनिमित्तं पक्ष-IAN काद्वयं वाच्यं, पुद्गलास्तिकायस्तु द्रव्याद्यपेक्षया चिन्त्यः, यथा-द्रव्यतः परमाणुरप्रदेशो पणुकादयः सप्रदेशाः, क्षेत्रत एक-IN प्रदेशावगाढोऽपदेशो वादिप्रदेशावगाढाः सप्रदेशा, एवं कालतोऽप्येकानेकसमयस्थितिभावतोऽप्येकानेकगुणकृष्णादि-18 ४९॥ रिति कृतं विस्तरेण, प्रकृतमुच्यते-इदमेवम्भूतं जीवाजीवनातं जानीहि द्रव्यलोक, द्रव्यमेव लोको द्रव्यलोक इतिकृत्वा दीप अनुक्रम [३] ColeESCOCESS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | 'लोक' शब्दस्य अष्टविध निक्षेपा: ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] %% [भाग-३०] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा - १], निर्युक्तिः [१०५७...], भाष्यं [१९६] अस्यैव शेषधर्मोपदर्शनायाऽऽह-नित्यानित्यं च यद् द्रव्यं, चशब्दादभिलाप्यानभिलाप्यादिसमुच्चय इति गाथार्थः ॥ १९५ ॥ साम्प्रतं जीवाजीवयोर्नित्यानित्यतामेवोपदर्शयन्नाह गइ १ सिद्धा २ भविआया ३ अभविअ ४-१ पुग्गल १ अणागयद्वा य २ । तीअद्ध ३ तिनि काया ४-२ जीवा १ जीव २ डिई चउहा ।। १९६ ॥ ( भाष्यम् ) व्याख्या - अस्याः सामायिकवद् व्याख्या कार्येति, भङ्गकास्तु सादिसपर्यवसानाः साद्यपर्यवसानाः अनादिसपर्यवसाना अनाथपर्यवसानाः, एवमजीवेषु जीवाजीवयोरष्टौ भङ्गाः । द्वारम् ॥ अधुना क्षेत्रलोकः प्रतिपाद्यते, तत्रआगासस्स पएसा उहुं च अहे अ तिरियलोए अ । जाणाहि खित्तलोगं अनंत जिणदेसिअं सम्मं ॥ १९७॥ (भा० ) व्याख्या - आकाशस्य प्रदेशाः - प्रकृष्टा देशाः प्रदेशास्तान् 'ऊर्ध्वं च' इत्यूर्ध्वलोके च 'अधश्च' इत्यधोलोके च तिर्यग्लोके च किं ?- जानीहि क्षेत्रलोकं, क्षेत्रमेव लोकः क्षेत्रलोक इतिकृत्वा, लोक्यत इति च लोक इति, ऊर्ध्वादिलोकविभागस्तु सुज्ञेयः, 'अनन्त' मित्यलोकाकाशप्रदेशापेक्षया चानन्तम्, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, 'जिनदेशितम्' इति जिनकथितं 'सम्यकू' शोभनेन विधिनेति गाथार्थः ॥ १९७ ॥ साम्प्रतं काललोकप्रतिपादनायाहसमयावलिअमुहुता दिवस महोरत्तपक्खमासा य । संवच्छर जुगपलिआ सागरओसप्पिपरिअड्डा || १९८|| (भा०) - इह परमनिकृष्टः कालः समयोऽभिधीयते असङ्ख्य समयमाना स्वावलिका द्विघटिको मुहूर्तः पोडश मुहूर्ता दिवसः द्वात्रिंशदहोरात्रं पञ्चदशाहोरात्राणि पक्षः द्वौ पक्षौ मासः द्वादश मासाः संवत्सरमिति पञ्चसंवत्सरं युगं पल्यो पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥४९५॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा - १], निर्युक्ति: [ १०५७...], भाष्यं [१९८] |पममुद्धारादिभेदं यथाऽनुयोगद्वारेषु तथाऽवसेयं, सागरोपमं तद्वदेव, दशसागरोपमकोटाकोटिपरिमाणोत्सर्पिणी, एवमवसर्पिण्यपि द्रष्टव्या, 'परावृर्तः' पुलपरावर्तः, स चानन्तोत्सर्पिष्यवसर्पिणीप्रमाणो द्रव्यादिभेदः तेऽनन्ता अतीतकालः अनन्त एवैष्यन्निति गाथार्थः ॥ १९८ ॥ उक्तः काललोकः, लोकयोजना पूर्ववद् । अधुना भावलोकमभिधित्सुराहरह अदेवमणुआ तिरिक्खजोणीगया य जे सत्ता । तंमि भवे वहंता भवलोगं तं विआणा हि ॥ १९९॥ (भा०) व्याख्या - नारक देवमनुष्यास्तथा तिर्यग्योनिगताश्च ये 'सत्त्वाः' प्राणिनः 'तंमिति तस्मिन् भवे वर्तमाना यदनुभावमनुभवन्ति भवलोकं तं विजानीहि लोक योजना पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ १९९ ॥ साम्प्रतं भावलोकमुपदर्शयतिओदइए १ ओषसमिए २ खइए अ ३ तहा खओवसमिए अ ४ । परिणामि ५ सन्निवाए अ ६ छब्बिहो भावलोगो उ ॥ २०० ॥ ( भाष्यम् ) व्याख्या -- उदयेन निर्वृत्त औदयिकः, कर्मण इति गम्यते, तथोपशमेन निर्वृत्त औपशमिकः, क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिकः, एवं शेषेष्वपि वाच्यं ततश्च क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमिकश्च पारिणामिकश्च सान्निपातिकश्च एवं षड्विधो भावलोकस्तु तत्र सान्निपातिक ओघतोऽनेक भेदोऽवसेयः, अविरुद्धस्तु पश्चदशभेद इति उक्तं च- "ओदइअखओवसमे परिणामेकेको (कु) गइचउकेऽवि । खयजोगेणवि चउरो तदभावे उवसमेपि ॥ १ ॥ उबसमसेढी एक्को केवलिणोऽवि य तहेब सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइयभेया एमेव पण्णरस ॥ २ ॥ "त्ति गाधार्थः ॥ २०० ॥ २ चतुर्वि शतिस्तवाध्यठोकनिक्षेपः १ मौदयिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक एकैको गति चतुष्केऽपि क्षययोगेनापि चत्वारः तदभावे उपशमेनापि ॥ १ ॥ उपशम श्रेणाचैकः केवलिनोऽपि ४ च तथैव सिद्धस्य अविरुद्धसाक्षिपातिकभेदा एवमेव पञ्चदश ॥ २ ॥ ||४९५|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 127 ~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं ] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०५७...], भाष्यं [२०१] प्रत सूत्रांक ॥१॥ तिब्बो रागो अदोसो अ, उन्ना जस्स जंतुणो। जाणा हि भावलोअं, अणंतजिणदेसिसम्म ॥२०१॥ (भा०) व्याख्या-'तीन' उत्कटः रागश्च द्वेषश्च, तत्राभिष्वङ्गालक्षणो रागः अप्रीतिलक्षणो द्वेष इति, एताबुदीरें 'यस्य जन्तोः यस्य प्राणिन इत्यर्थः, तं प्राणिनं तेन भावेन लोक्यत्वाजानीहि भावलोकमनन्तजिनदेशितम्-एकवाक्यतयाऽदनन्तजिनकथितं 'सम्यग्' इति क्रियाविशेषणम् , अयं गाथार्थः ॥ २०१॥ द्वारं, साम्प्रतं पर्यायलोक उच्यते, तत्रौषतः पर्याया धर्मा उच्यन्ते, इह तु किल नैगमनयदर्शनं मूढनयदर्शनं वाऽधिकृत्य चतुर्विध पर्यायलोकमाहव्वगुण १ खित्तपज्जव २ भवाणुभावे अभावपरिणामे ४ा जाण चउब्विहमेअं, पज्जवलोगं समासेणं २०२ (भा०) व्याख्या-द्रव्यस्य गुणा:-रूपादयः, तथा क्षेत्रस्य पर्याया:-अगुरुलघवः भरतादिभेदा एव चान्ये, भवस्य च नारकादेरनुभावः-तीप्रतमदुःखादिः, यथोक्तम्-“अच्छिणिमिलीयमेतं णस्थि सुहं दुक्खमेव अणुबंध । णरए रइआणं अहोणिसं पच्चमाणाणं ॥१॥ असुभा उवियणिज्जा सहरसा स्वगंधफासा य । णरए णेरइआणं दुक्कयकम्मोवलित्ताणं ॥२॥" इत्यादि, एवं शेषानुभावोऽपि वाच्यः, तथा भावस्य जीवाजीवसम्बन्धिनः परिणामस्तेन तेन अज्ञानाद् ज्ञानं नीलालोहितमित्यादिप्रकारेण भवनमित्यर्थः, 'जानीहि' अवबुध्यस्व चतुर्विधमेनमोघतः पर्यायलोकं 'समासेन' संक्षेपेणेति | गाथार्थः ।। २०२ ॥ तत्र यदुक्तं द्रव्यस्य गुणा इत्यादि तदुपदर्शनेन निगमयन्नाह अक्षिनिमीलनमानं नास्ति सुखं दुःखमेवानुवचम् । नरके नैरयिकाणामनिशं पच्यमानानाम् ॥ १॥ शुभा उजनीयाः शब्दरसा रूपगन्धस्पयत्र । नरके नैरयिकाणां दुष्कृतकोपलिमानाम् ॥२॥ दीप अनुक्रम (३) BRE पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं ] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०५७...], भाष्यं [२०३] आवश्यक- हारिमद्रीया निक्षेप ॥४९६॥ प्रत सूत्रांक वन्नरसगंधसंठाणफासट्ठाणगइवन्नभेए अ । परिणामे अ बहुविहे पज्जवलोग विआणाहि ॥ २०३॥ (भा.) २ चतुर्क व्याख्या-वर्णरसगन्धसंस्थानस्पर्शस्थानगतिवर्णभेदाच, चशब्दाद रसादिभेदपरिग्रहः, अयमत्र भावार्थ:-वर्णादयः शतिस्तवासभेदा गृह्यन्ते, तत्र वर्णः कृष्णादिभेदात् पञ्चधा, रसोऽपि तिक्तादिभेदात्पञ्चधा, गन्धः सुरभिरित्यादिभेदाद् द्विधा, ध्यलोकसंस्थानं परिमण्डलादिभेदात्पञ्चधैव, स्पर्शः कर्कशादिभेदादष्टधा, स्थानमवगाहनालक्षणं तदाश्रयभेदादनेकधा, गतिः स्पर्शवद्गतिरित्यादिभेदा द्विधा, चशब्द उक्तार्थ एव अथवा कृष्णादिवर्णादीनां स्वभेदापेक्षया एकगुणकृष्णाद्यनेकभेदोपसङ्ग- हार्थ इति, अनेन किल द्रव्यगुणा इत्येत व्याख्यातं । परिणामांश्च बहुविधानित्यनेन तु चरमद्वारं, शेष द्वारद्वयं स्वयमेव भावनीयं, तच्च भावितमेवेत्यक्षरगमनिका । भावार्थस्स्वयम्-परिणामांश्च बहुविधान् जीवाजीवभावगोचरान् , किं-पर्यायलोकं विजानीहि इति गाथार्थः ॥ २०३ ॥ अक्षरयोजना पूर्ववदिति द्वारं, साम्प्रतं लोकपर्यायशब्दान्निरूपयन्नाह आलुकह अ पलुक्का लुकइ संलुकई अ एगट्ठा । लोगो अढविहो खल्लु तेणेसो वुच्चई लोगो॥१०५८ ॥ | व्याख्या-आलोक्यत इत्यालोका, प्रलोक्यत इति प्रलोकः, लोक्यत इति लोका, संलोकृयत इति च संलोकः, एते एकार्थिकाः शब्दाः, लोकः अष्टविधः खल्वित्यत्र आलोक्यत इत्यादि योजनीयम् , अत एवाऽऽह-तेनैप उच्यते लोको 31 येनाऽऽलोक्यत इत्यादि भावनीयं, गाथार्थः॥ १०५८ ॥ व्याख्यातो लोकः, इदानीमुद्योत उच्यते, तबाह ४९६॥ दुविहो खलु उज्जोओ नायव्यो व्यभावसंजुत्तो। अग्गी दव्वुजोओ चंदो सूरो मणी विजू ॥१०५९॥ । व्याख्या-'द्विविधः' द्विप्रकार: खलूद्योतः, खलुशब्दो मूलभेदापेक्षया न तु व्यक्त्यपेक्षयेति विशेषणार्थः, उद्योत्यते अनुक्रम (३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'उद्योत' पदस्य व्याख्या ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं - [गाथा-१], नियुक्ति: [१०५९], भाष्यं [२०३...] प्रत PSI प्रकाश्यतेऽनेनेत्युद्योतः, 'शातव्यः' विज्ञेयो, द्रव्यभावसंयुक्त इति-द्रव्योद्योतो भावोद्योतक्षेत्यर्थः, तत्रानिईन्योद्योतः घटा द्युद्योतनेऽपि तदतायाः सम्यक्प्रतिपत्तेरैभावात्सकलवस्तुधर्मानुद्योतनाच, न हि धर्मास्तिकायादयः सदसन्नित्यानित्याधनन्तधर्मात्मकस्य च वस्तुनः सर्व एव धर्मा अग्निना उद्योत्यन्त इत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति, ततश्च स्थितमिदम्-अग्निद्रव्योद्योतः, तथा चन्द्रः सूर्यों मणिविंद्युदिति, तत्र मणिः-चन्द्रकान्तादिलक्षण परिगृह्यत इति गाधार्थः ॥१०५९॥ नाणं भावुज्जोओ जह भणियं सव्वभावदंसीहिं । तस्स उचओगकरणे भावुलो विआणाहि ॥१०६० ॥ व्याख्या-ज्ञायतेऽनेन यथावस्थितं वस्त्विति ज्ञानं तज्ज्ञानं भावोद्योतः, घटाद्युद्योतनेन तद्गतायाः सम्यक्प्रतिपत्ते|विश्वप्रतिपत्तेश्च भावात् , तस्य तदात्मकत्वादेवेति भावना, एतावता चाविशेषेणैव ज्ञानं भावोद्योत इति प्राप्तम् , अत आह-यथा भणितं सर्वभावदर्शिनिस्तथा यज्ज्ञानं, सम्यगज्ञानमित्यर्थः, पाठान्तरं वा 'यगणितं सर्वभावदर्शिभि'रिति, तदपि नाविशेषेणोद्योतः, किन्तु तस्य-ज्ञानस्योपयोगकरणे सति, किं?, भावोद्योतं विजानीहि, नान्यदा, तदैव तस्य वस्तुतः ज्ञानत्वसिद्धेरिति गाथार्थः ॥ १०६० ॥ इत्थमुद्योतस्वरूपमभिधाय साम्प्रतं येनोद्योतेन लोकस्योद्योतकरा जिनास्तेनैव युक्तानुपदर्शयन्नाहलोगस्सुज्जोअगरा दवुजोएण न हु जिणा हुंति । भावुजोअगरा पुण हुँति जिणवरा चउब्बीसं ॥१०६१ ।। * मिः सं जानाति नवा नियमेन सम्यक्प्रतिपत्तिमष्णा सर्वपर्यावाणमप्रकाशात स्थूलदम्पपर्यायप्रकाशनादर अनुक्रम (३) ROCURES पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-१], नियुक्ति: [१०६१], भाष्यं [२०३...] २चतुर्वि आवश्यक हारिभद्रीया शतितवा प्रत निक्षेपः ॥४९७॥ सूत्रांक व्याख्या-लोकस्योद्योतकरा द्रव्योद्योतेन नैव जिना भवन्ति, तीर्थकरनामानुकर्मोदयतोऽतुलसत्त्वार्थकरणात् भावो- द्योतकराः पुनर्भवन्ति जिनवराश्चतुर्विंशतिरिति, अत्र पुनःशब्दो विशेषणार्थः, आत्मानमेवाधिकृत्योद्योतकरास्तथा लोक-1 प्रकाशकवचनप्रदीपापेक्षया च शेषभब्यविशेषानधिकृत्यैवेति, अत एवोक्तं भवन्ति' न तु भवन्त्येव, कांचन प्राणिनोऽधि-४ कृत्योद्योतकरत्वस्यासम्भवादिति,चतुर्विंशतिग्रहणं चाधिकृतावसर्पिणीगततीर्थकरसङ्ख्याप्रतिपादनार्थमिति गाथार्थः॥१०६१॥ उद्योताधिकार एव द्रव्योद्योतभावोद्योतयोर्विशेषप्रतिपादनायाऽऽह---- दव्वुजोउज्जोओ पगासई परिमियंमि खित्तमि । भावुजोउजोओ लोगालोग पगासेइ ॥ १०६२॥ __ व्याख्या-द्रव्योद्योतोद्योतः द्रव्योद्योतप्रकाश उक्तलक्षण एवेत्यर्थः, पुद्गलात्मकत्वात्तथाविधपरिणामयुक्तत्वाच | प्रकाशयति प्रभासते या परिमिते क्षेत्रे, अन यदा प्रकाशयति तदा प्रकाश्यं वस्त्वध्याहियते, यदा तु प्रभासते तदा स एव दीप्यत इति गृह्यते, 'भावोद्योतोद्योतो लोकालोकं प्रकाशयति' प्रकटार्थम्, अयं गाथार्थः ॥ १०६२॥ उक्त उद्योतः, साम्प्रतं करमवसरमाप्तमपि धर्मतीर्थकरानित्यत्र वक्ष्यमाणत्वाद्विहायेह धर्म प्रतिपादयन्नाहदुह व्वभावधम्मो दब्वे व्वस्स ब्वमेवऽहवा । तित्ताइसभावो वा गम्माइत्थी कुलिंगो वा ॥ १०६३ ॥ | व्याख्या-धर्मो द्विविधः-द्रव्यधर्मो भावधर्मश्च, 'दवे दधस्स दबमेवऽहव'त्ति द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रन्यस्येति, द्रव्यस्य धर्मो द्रव्यधर्मः, अनुपयुक्तस्य मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानमित्यर्थः, इहानुपयुको द्रव्यमुच्यते, द्रव्यमेव वा धर्मों द्रव्यधर्मः धर्मास्तिकायः, 'तित्ताइसहावो वत्ति तिकादिर्वा द्रव्यस्वभावो द्रव्यधर्म इति, 'गम्माइत्थी कुलिंगो वत्ति गम्या दीप XSHOXSXSX अनुक्रम (३) ॥४९७॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'धर्म' शब्दस्य प्रतिपादनम् ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-१], नियुक्ति: [१०६३], भाष्यं [२०३...] प्रत दिधर्मः 'स्त्री'ति स्त्रीविषयः, केषाञ्चिन्मातुलदुहिता गम्या केषाञ्चिदगम्येत्यादि, तथा 'कुलिङ्गो वा' कुतीर्थिकधर्मो वा द्रव्यधर्म इति गाथार्थः ॥१०६३ ॥ दुह होइ भावधम्मो सुअचरणे आ सुअंमि सज्झाओ। चरणमि समणधम्मो खंतीमाई भवे दसहा ॥१०६४॥ व्याख्या-द्वेधा भवति भावधर्मः, 'सुअचरणे य'त्ति श्रुतविषयश्चरणविषयश्च, एतदुकं भवति-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च 'सुअंमि सज्झाओ'त्ति श्रुत इति द्वारपरामर्शः, स्वाध्यायो-वाचनादिः श्रुतधर्म इत्यर्थः, 'चरणमि समणधम्मो खंतीमाई भवे दसह'त्ति तत्र चरण इति परामर्शः, श्रमणधर्मो दशविधः क्षान्त्यादिश्चरणधर्म इति गाथार्थः ॥१०६४ ॥ पक्को धर्म, साम्प्रतं तीर्थनिरूपणायाह नाम ठवणातित्थं व्यत्तित्वं च भावतित्थं च । एककपि अ इत्तोऽोगविहं होइ णायध्वं ॥ १०६५ ॥ व्याख्या निगदसिद्धा ॥ नवरं द्रव्यतीर्थ ब्याचिख्यासुरिदमाहदाहोवसमं तण्हाइछेअणं मलपवाहणं चेष । तिहि अत्धेहि निउत्तं तम्हा तं व्यओ तित्थं ॥१०६६ ॥ व्याख्या-इह द्रव्यतीर्थ मागधवरदामादि परिगृह्यते, बाह्यदाहादेरेव तत उपशमसद्भावात् , तथा चाह-दाहोपशममिति तत्र दाहो-बाह्यसन्तापस्तस्योपशमो यस्मिन् तद्दाहोपशमनं, 'तण्हाइछेअर्ण ति तृषः-पिपासायाश्छेदन, जलसङ्घातेन तदपनयनात्, 'मलप्रवाहणं चैवे'त्यत्र मलः बाह्य एवाङ्गसमुत्थोऽभिगृह्यते तत्प्रवाहणं, जलेनैव तत्प्रवाहणात्, ततः प्रक्षालनादिति भावः, एवं त्रिभिरथैः करणभूतैत्रिषु वाऽर्थेषु नियुक्त निश्चयेन युक्तं नियुक्तं प्रथमव्युत्पत्तिपक्षे प्ररूपितं अनुक्रम (३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | 'तीर्थ पदस्य निरुपणा ~132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यकहारिभद्रीया ॥ ४९८ ॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], निर्युक्तिः [१०६६], भाष्यं [२०३...] द्वितीये तु नियोजितं यस्मादेवं बाह्यदाहादिविषयमेव तस्मात्तन्मागधादि द्रव्यतस्तीर्थ, मोक्षासाधकत्वादिति गाथार्थः ॥ १०६६ ॥ भावतीर्थमधिकृत्याह कोहंमि उ निग्गहिए दाहस्स पसमणं हवइ तत्थं । लोहंमि उ निग्गहिए तण्हाए छेअणं होई ॥। १०६७ ।। व्याख्या - इह भावतीर्थं क्रोधादिनिग्रहसमर्थं प्रवचनमेव गृह्यते, तथा चाह- क्रोध एव निगृहीते 'दाहस्य' द्वेषानलजातस्यान्तः प्रशमनं भवति, तथ्यं निरुपचरितं नान्यथा, लोभ एव निगृहीते सति, किं ?-'तण्हाए छेअणं होई'त्ति तृषःअभिष्वङ्गलक्षणायाः किं ?-'छेदनं भवति' व्यपगमो भवतीति गाथार्थः ॥ १०६७ ॥ अविहं कम्मरयं बहुएहि भवेहिं संचिअं जम्हा । तवसंजमेण धुव्वह तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ १०६८ । व्याख्या – 'अष्टविधम्' अष्टप्रकारं, किं ? 'कर्मरजः' कर्मैव जीवानुरञ्जनाद्रजः कर्मरज इति, बहुभिर्भवैः सञ्चितं यस्मातपःसंयमेन 'धाव्यते' शोध्यते, तस्मात्तत्-प्रवचनं भावतः तीर्थ, मोक्षसाधनत्वादिति गाथार्थः ॥ १०६८ ।। दंसणनाणचरितेसु निउत्तं जिणवरेहि सव्वेहिं । तिसु अत्थेसु निउन्तं तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ १०६९ ॥ व्याख्या - दर्शन ज्ञानचारित्रेषु नियुक्त' नियोजितं 'जिनवरैः' तीर्थकृद्भिः 'सर्वैः' ऋषभादिभिरिति यस्माच्चेत्थम्भूतेषु त्रिष्वर्थेषु नियुक्तं तस्मात्तत्प्रवचनं भावतः तीर्थ, मोक्षसाधकत्वादिति गाथार्थः ॥ १०६९ ।। उक्तं तीर्थम्, अधुना कर उच्यते, तत्रेयं गाथा २चतुर्वि शतिस्तवा ध्यतीर्थनिक्षेपः ~ 133 ~ ||४९८॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं - [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७०], भाष्यं [२०३...] प्रत सूत्रांक SSAGAR ॥१॥ णामकरो १ ठवणकरो २ दब्वकरो ३ खित्त ४ काल ५'भावकरो । एसो खलु करगस्स उ णिक्खेवो उब्धिहो होइ॥१०७० ॥ व्याख्या-निगदसिद्धा ॥ नवरं द्रव्यकरमभिधित्सुराहगोमहिसट्टिपणं छगलीणपि अकरा मुणेयब्बा । तत्सो अतणपलाले भुसकंगारपलले य ॥१०७१॥ सिवरेजघाए पलिवकर अ चम्मे । चुलगकरे अ भणिए अद्वारसमाकरुपत्ती ॥२०७२ ॥ व्याख्या-गोकरस्तथाभूतमेव तद्वारेण वा रूपकाणामित्येवं सर्वत्र भावना कार्येति, नवरं शीताकरो-भोगः क्षेत्रपरिमाणोद्भव इति चान्ये, उत्पत्तिकरस्तु स्वकल्पनाशिल्पनिर्मितः शतरूपकादिः, शेष प्रकटार्थमिति गाथाद्वयार्थः ॥ १०७१|१०७२ ॥ उक्को द्रव्यकर इति, क्षेत्रकराधभिधित्सुराह| खितमि जंमि खित्ते काले जो जंमि होह कालंमि । दुविहो अ होइ भावे पसत्थु तह अप्पसत्यो अ॥१०७३।। व्याख्या-क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः, एतदुक्तं भवति-क्षेत्रकरो यो यस्मिन् क्षेत्रे शुल्कादि । काल इति द्वारपरामर्श एव, कालकरो यो यस्मिन् भवति काले कुटिकादानादिः, द्विविधश्च भवति भावे, द्वैविध्यमेव दर्शयति-प्रशस्तस्तथाऽप्रशस्तहाति गाथार्थः ॥ १०७३ ॥ तत्राप्रशस्तपरित्यागेन प्रशस्तसद्भावादप्रशस्तमेवादावभिधित्सुराहहै कलहकरो डमरकरो असमाहिकरो अनिव्वुइकरो अ । एसो उ अप्पसस्थो एवमाई मुणेयव्यो ।। १०७४ ॥ दीप अनुक्रम (३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'कर शब्दस्य षड़ निक्षेपा:' ~134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७४], भाष्यं [२०३...] चतुाशतिस्तवाध्य. करनिक्षेपः प्रत सूत्रांक आवश्यक- II व्याख्या-आह-उक्तप्रयोजनसद्भावादुपन्यासोऽप्येवमेव किमिति न कृत इति, अनोच्यते, आसेवनयाऽयमेव प्रथ- हारिभ मस्थाने कार्य इति ज्ञापनार्थ, तत्र कलहो-भण्डनं, ततश्चाप्रशस्तः कोपाद्यौदयिकभावंतः, तत्करणशीलः कलहकर इति, द्रीया एवं डमरादिष्वपि भावनीयं, नवरं वाचिकः कलहः, कायवाङ्मनोभिस्ताडनादिगहनं डमर, समाधान-समाधिः स्वास्थ्य ॥४९९॥ न समाधिरसमाधि:-अस्वास्थ्यनिबन्धना सा सा कायादिचेष्टेत्यर्थः, अनेनैव प्रकारेणानिवृतिरिति, एषोऽप्रशस्तः, तुशब्द-| स्थावधारणार्थत्वादेष एव जात्यपेक्षया न तु व्यक्त्यपेक्षयेति, अत एवाह-एवमादिविज्ञातव्यः व्यक्त्यपेक्षयाऽप्रशस्तभावकर इति गाथार्थः ॥ १०७४ ॥ साम्प्रतं प्रशस्तभावकरमभिधातुकाम आहअत्थकरो अहिअकरो कित्तिकरो गुणकरो जसकरो अ। अभयकर निव्वुइकरो कुलगर तित्थंकरतकरो॥१०७५ व्याख्या-तन्त्रौषत एव विद्यादिरर्थः, उक्त च-विद्याऽपूर्व धनार्जनं शुभमर्थ इति, ततश्च प्रशस्तविचित्रकर्मक्षयोपशमादिभावतः, तत्करणशीलोऽर्थकरः, एवं हितादिष्वपि भावनीय, नवरं हितं-परिणामपथ्यं कुशलानुबन्धि यत्किञ्चित्, कीर्तिः-दानपुण्यफला, गुणाः-ज्ञानादयः, यशः-पराक्रमकृतं गृह्यते, तदुत्थसाधुवाद इत्यर्थः, अभयादय प्रकटाओं, नवरमन्तः कर्मणः परिगृह्यते, तत्फलभूतस्य वा संसारस्येति गाथार्थः ॥ १०७५ ॥ उको भावकरः, अधुना जिनादिप्रतिपादनायाऽऽह अनादिभवाभ्यासादासेवनमप्रशस्तस्यैवादौ भवति, प्रशस्तस्य तु पश्चादेवेति २ यतोऽसाविति ३ व्यक्किसमुदायरूपत्वात् जातेस्तस्थाः प्राशुदेशात भत्र व्यक्त्यपेक्षयेति पीप % अनुक्रम % % ॥४९९॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा - १], निर्युक्तिः [१०७६], भाष्यं [२०३...] जियकोहमाणमाया जियलोहा तेण ते जिणा हुंति । अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण बुचंति ॥ १०७६ ॥ व्याख्या - जितक्रोधमानमाया जितलोभा येन कारणेन तेन ते भगवन्तः, किं ?--जिना भवन्ति, 'अरिणो हंता रयं हंतेत्यादिगाथादलं यथा नमस्कारनिर्युक्तौ प्रतिपादितं तथैव द्रष्टव्यमिति गाथार्थः ॥ १०७६ ॥ कीर्तयिष्यामीत्यादिव्याचिख्यासया साम्प्रतमिदमाह - कित्तेमि किन्तणिजे सदेवमणुआसुरस्त लोगस्स । दंसणनाणचरिते तबविणओ दंसिओ जेहिं ॥ १०७७ ॥ व्याख्या कीर्तयिष्यामि नामभिर्गुणैश्च, किम्भूतान् ?-कीर्तनीयान् स्तवानित्यर्थः, कस्येत्यत्राह सदेवमनुष्यासुरलोकस्य, त्रैलोक्यस्येति भावः, गुणानुपदर्शयति- 'दर्शनज्ञानचारित्राणि' मोक्षहेतूनि (निति), तथा 'तपोविनयः' दर्शितो यैः, तत्र तप एव कर्मविनयाद् विनयः, इति गाथार्थः ॥ १०७७ ॥ चडवीसंति य संखा उसभाईआ उ भण्णमाणा उ । अविसद्दग्गहणा पुण एरवयमहाविदेहेसुं ॥ १०७८ ॥ व्याख्या - चतुर्विंशतिरिति सङ्ख्या, ऋषभादयस्ते वक्ष्यमाणा एव, अपिशब्दग्रहणात्पुनः ऐरवतमहाविदेहेषु ये तम्रहोऽपि वेदितव्य इति गाथार्थः ॥ १०७८ ॥ कसिणं केवलकप्पं लोगं जाणंति तह य पासंति । केवलचरितनाणी तम्हा ते केवली हुंति ॥ १०७९ ॥ व्याख्या- ' कृत्स्नं' सम्पूर्ण 'केवलकरूप' केवलोपमम्, इह कल्पशब्द औपम्ये गृह्यते, उक्तं च- "सामध्ये वर्णनायां च, छेदने करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे च कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥ १ ॥” 'लोक' पश्चास्तिकायात्मकं जानन्ति विशे पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः अरिहंत कीर्तयिष्यामि, चतुर्विंशति, अपि केवलि आदि शब्दानाम् व्याख्या: ~ 136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७९], भाष्यं [२०३...] आवश्यक हारिभ द्रीया प्रत ॥५०॥ MISSISTERS परूपतया, तथैव सम्पूर्णमेव, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् पश्यन्ति सामान्यरूपतया, इह च ज्ञानदर्शनयोः सम्पूर्णलोकविष कावपःचतुर्वि है यत्वे च बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते अन्धविस्तरभयादिति, नवरं-"निर्विशेष विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते । विशिष्टग्रहणं शतिस्तवा. ज्ञानमेवं सर्वत्रगं द्वयम् ॥१॥" इत्यनया दिशा स्वयमेवाभ्यूह्यमिति, यतश्चैवं केवलचारित्रिणः केवलज्ञानिनश्च तस्मात्ते केवलिकेवलिनो भवन्ति, केवलमेषां विद्यत इति केवलिन इतिकृत्वा । आह-इहाकाण्ड एवं केवलचारित्रिण इति किमर्थम् व्याख्या. उच्यते, केवलचारित्रप्राप्तिपूर्विकैव नियमतः केवलज्ञानावाप्तिरिति न्यायप्रदर्शनेन नेदमकाण्डमिति गाथार्थः ॥ १०७९ ॥ व्याख्याता तावल्लोकस्वेत्यादिरूपा प्रथमसूत्रगाथेति, अत्रैव चालनाप्रत्यवस्थाने विशेषतो निर्दिश्य(श्ये)ते-तत्र लोकस्योद्योतकरानित्यायुक्तम्, अत्राऽऽह-अशोभनमिदं लोकस्येति, कुतः ?, लोकस्य चतुर्दशरज्वात्मकत्वेन परिमितत्वात् , केवलो-18 द्योतस्य चापरिमितत्वेनैव लोकालोकव्यापकत्वाद्, वक्ष्यति च-केवलियणाणलंभो लोगालोग पगासेइ'त्ति, ततश्चौधत एवोद्योतकरान लोकालोकयोति वाच्यमिति, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह लोकशब्देन पञ्चास्तिकाया एव गृह्यन्ते, ततश्चाकाशास्तिकायभेद एषालोक इति न पृथगुक्तः, न चैतदनार्ष, यत उक्तम्-'पंचस्थिकायमइओ लोगो' इत्यादि । अपरस्त्वाह-लोकस्योद्योतकरानित्येतावदेव साधु, धर्मतीर्थकरान् इति न वक्तव्यं, गतार्थत्वात् , तथाहि-ये लोकस्यो "IX||५००। योतकरास्ते धर्मतीर्थकरा एवेति, अत्रोच्यते, इह लोकैकदेशेऽपि ग्रामैकदेशे ग्रामवल्लोकशब्दप्रवृत्तेर्मा भूत्तदुद्योतकरेष्ववघिविभङ्गज्ञानिष्वर्कचन्द्रादिषु वा सम्प्रत्ययः, तथ्यवच्छेदार्थ धर्मतीर्थकरानित्याह । आह-यद्येवं धर्मतीर्थकरानित्येतावदे-! कैवल्यज्ञानलाभो लोकालोकं प्रकाशयति २ पनास्तिकावमयो लोक अनुक्रम (३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७९], भाष्यं [२०३...] प्रत सूत्रांक ॥१॥ वास्तु लोकस्योद्योतकरानिति न वाच्यमिति, अबोच्यते, इह लोकेऽपि नद्यादिविषमस्थानेषु मुधिकया(ये)धर्मार्थमवतरण-| दातीर्थकरणशीलास्तेऽपि धर्मतीर्थकरा एवोच्यन्ते, तन्मा भूदतिमुग्धबुद्धीनां तेषु सम्प्रत्ययः, तदपनोदाय लोक स्योद्योतकरान-1 प्याहेति । अपरस्त्वाह-जिनानित्यतिरिच्यते, तथाहि-यथोक्तप्रकारा जिना एव भवन्तीति, अत्रोच्यते, मा भूत्कुनयम तानुसारिपरिकल्पितेषु यथोक्तप्रकारेषु सम्प्रत्यय इत्यतस्तव्यवच्छेदार्थमाह-जिनानिति, श्रूयते च कुनयदर्शनेदूज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः॥१॥' इत्यादि, तन्नून न ते रागादिजेतार इति, अन्यथा कुतो निकारतः पुनरिह भवाङ्करप्रभवो , बीजाभावात् , तथा चान्यैरप्युक्तम्-"अज्ञान पांसुपिहितं पुरातनं कर्मबीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिषिक्तं मुञ्चति जन्माङ्करं जन्तोः ॥१॥" तथा-"दग्धे बीजे | द्विा यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाधरः ॥१॥” इति । आह-ययेवं जिनानित्येता-13 लवदेवास्तु लोकस्योद्योतकरानित्याचतिरिच्यते इति, अत्रोच्यते, इह प्रवचने सामान्यतो विशिष्ट श्रुतधरादयोऽपि जिनाले एवोच्यन्ते, तद्यथा-श्रुतजिना अवधिजिना मनःपर्यायज्ञानजिनाः छद्मस्थवीतरागाच, तन्मा भूत्तेषु सम्प्रत्यय इति तदप-17 नोदार्थ लोकस्योद्योतकरानित्याद्यप्यदुष्टमेव । अपरस्त्वाह-अर्हत इति न वाच्यं, न ह्यनन्तरोदितस्वरूपा अहव्यतिरेकेणापरे भवन्तीति, अत्रोच्यते, अर्हतामेव विशेष्यत्वान्न दोष इति । आह-यद्येवं हन्त । ताईत एवेत्येतावदेवास्तु लोकस्योद्योतकरानित्यादि पुनरपार्थक, न, तस्य विशेषणसाफल्यस्य च प्रतिपादितत्वात् । अपरस्त्वाह-केवलिन इति न वाच्यं, यथोक्तस्वरूपाणामहतां केवलित्वाव्यभिचारात्, सति च व्यभिचारसम्भवे विशेषणोपादानसाफल्यात्, तथा च-सम्भवे टीप अनुक्रम (३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-२], नियुक्ति: [१०७९], भाष्यं [२०३...] चतुर्विशतिस्तवा. विशेषणसाफल्यं. प्रत 9-0-80 आवश्यक-3 व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति, यथा नीलोत्पलमिति, व्यभिचाराभावे तु तदुपादीयमानमपि यथा कृष्णो भ्रमरः हारिभ- शुक्ला वलाका इत्यादि(वत्) ऋते प्रयासात् कमर्थ पुष्णातीति, तस्मात्केवलिन इत्यतिरिच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानाद्, इह द्रीया केवलिन एव यथोक्तस्वरूपा अर्हन्तो नान्य इति नियमनार्थत्वेन स्वरूपज्ञानार्थमेवेदं विशेषणमित्यनवयं, न चैकान्ततो| व्यभिचारसम्भव एव विशेषणोपादानसाफल्यम् , उभयपदव्यभिचारे एकपदव्यभिचारे स्वरूपज्ञापने च शिष्टोक्तिषु तत्म॥५०१॥ योगदर्शनात् , तत्रोभयपदव्यभिचारे यथा नीलोत्पलमिति, तथैकपदव्यभिचारे यथा आपो द्रव्यं पृथिवी द्रव्यमिति, तथा स्वरूपज्ञापने यथा परमाणुरप्रदेश इत्यादि, यतश्चैवमतः केवलिन इति न दुष्टम् । आह-यद्येवं केवलिन इत्येतदेव सुन्दरं, शेष तु लोकस्योद्योतकरानित्यादिकमनर्थकमिति, अत्रोच्यते, इह श्रुतकेवलिप्रभृतयोऽन्येऽपि विद्यन्त एव केवलिनः, तस्मान्मा भूतेषु सम्प्रत्यय इति तत्प्रतिक्षेपार्थं लोकस्योद्योतकरानित्याद्यपि वाच्यमिति । एवं व्यादिसंयोगापेक्ष याऽपि विचित्रनयमताभिज्ञेन स्वधिया विशेषणसाफल्यं वाच्यम्, इत्यलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतदिति । तत्र यदुक्तं लकीर्तयिष्यामीति' तत्कीर्तनं कुर्वन्नाह उसभमजिअंच वंदे संभवमभिणंदणं व समईच । पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पर वंदे ॥२॥ सुविहिं। च पुप्फदंतं सीअल सिज्जंस बासुपुजं च । विमलमणतं च जिणं धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंधुं अरं च मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्टनेमि पासं तह बद्धमाणं च ॥ ४ ॥ (सूत्राणि) एतात्रिस्रोऽपि सूत्रगाथा इति, आसां व्याख्या-इहाहतां नामानि अन्वर्थमधिकृत्य सामान्यलक्षपातो विशेषलक्षणतश्च अनुक्रम 25%A4% 9454 ॥५०॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | मूलसूत्रस्य गाथा २,३ एवं व्याख्या ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], निर्युक्तिः [१०७९], भाष्यं [२०३...] वाच्यानि, तत्र सामान्यलक्षणमिदं - 'वृप उद्वहने' समग्र संयमभारोद्वहनाद् वृषभः सर्व एव च भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेष हेतुप्रतिपादनायाऽऽह ऊरूसु उस भलंछण उसमें सुमिर्णमि तेण उस भजिणो । । जेण भगवओ दोषि ऊरूसु उसभा उप्पराहुत्ता जेणं च मरुदेवाए भगवईए चोदसण्हं महासुमिणाणं पढमो उसभो सुमिणे दिट्ठोति, तेण तस्स उसभोत्ति णामं कर्य, सेसतित्धगराणं मायरो पढमं गयं तओ वसहं एवं चोदस, उसभोत्ति वा वसहोत्ति वा एगठ्ठे ।। इयाणिं अजिओ-तस्य सामान्येनाभिधाननिबन्धनं परीप होपसर्गादिभिर्न जितोऽजितः, सर्व एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषनिबन्धनाभिधित्सयाऽऽह- अक्खेसु जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तम्हा || १०८० ॥ व्याख्या - पेच्छ । भगवओ अम्मापियरो जूयं रमंति, पढमो राया जिणियाइओ, जाहे भगवंतो आयाया ताहे ण राया, देवी जिणइ, तत्तो अक्लेसु कुमारप्राधान्यात् देवी अजिएति अजिओ से णामं कयंति गाथार्थः ॥ १०८० ॥ ३ पूर्वार्ध । येन भगवतो द्वयोरप्यूरुणीर्नृषभायुपरीभूती येन च महदेवया भगवस्था चतुर्दशानां महास्वमानां प्रथमं वृषभो दृष्टः स्वम इति, तेन तस्य वृषभ इति नाम कृतं शेपतीर्थकराणां मातरः प्रथमं गजं ततो नृषभं एवं चतुर्दश, रूपम इति या वृषभ इति वैकार्थी इदानीमजितः-१ पत्रा भगवतो मातापितरौ धूतं रमेते, प्रथमं राजा जितवान् यदा भगवन्त आवासादा न राजा देवी जयति तत्तोऽज्ञेषु कुमारप्राधान्यात् देवी अजितेति अजित स्वस्थ नाम कृतमिति । पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ऋषभ आदि २४ तिर्थंकराणाम् नामानां व्युत्पत्तिः ~ 140 ~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८०], भाष्यं [२०३...] आवश्यक- द्रीया चतुर्क शतिस्तवा. तीर्थकूशामाथे प्रत ॥५०२॥ सूत्रांक ||४|| इदानी सम्भवो-तस्यौपतोऽभिधाननिवन्धन-संभवन्ति प्रकर्षेण भवन्ति चतुर्विंशदतिशयगुणा अस्मिन्निति सम्भवः, सर्व एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषवीजाभिधित्सयाऽऽह अभिसंभूआ सासत्ति संभवो तेण वुचई भयवं। गभगए जेण अन्भहिया सस्सणिप्फत्ती जाया तेण संभवो॥ इयाणिं अभिणदणो, तस्य सामान्येनाभिधानान्वर्थःअभिनन्द्यते देवेन्द्रादिभिरित्यभिनन्दनः, सर्व एव यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषहेतुप्रतिपादनायाऽऽह अभिणंदई अभिक्खं सको अभिणंदणो तेण ॥ १०८१॥ व्याख्या-4च्छद्धं । गम्भष्पभिइ अभिक्खणं सक्को अभिणदियाइओत्ति, तेण से अभिणंदणोति णाम कयं, गाथार्थः ॥ १०८१ ॥ इदानीं सुमतिः, तस्य सामान्येनाभिधाननिवन्धनं शोभना मतिरस्येति सुमतिः, सर्व एव च सुमतयो भगवन्त इत्यतो विशेषनिवन्धनाभिधानायाह जणणी सम्वत्थ विणिक्छ एसु सुमहत्ति तेण सुमइजिणो। गाहर्छ । जणणी गभगए सवत्थ विणिच्छपसु अईव मइसंपण्णा जाया, दोण्हं सवत्तीण मयपइयाणं ववहारो छिन्नो, प अनुक्रम [६] ५०२॥ गर्भगते येनाभ्यधिका शस्थ निष्पत्तिांता तेन संभवः । इदानीमभिनन्दनः, २ पश्चाध ॥ गांप्रभृतिरभीषणं शक्रोभिनन्दितमानिति, तेन तस्य अभिनन्दन ति नाम कृतं । ३ गाथार्थ । जनमी गर्भयते सर्वत्र विनिश्चयेषु भतीच मतिसपसा जाता, पोरपि मृतपत्योः सपायोध्यवहारविछ सा, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], निर्युक्तिः [१०८१], भाष्यं [२०३...] ताओ भणिआओ-मम पुत्तो भविस्सइ सो जोवणत्थो एयरसऽसोगवरपायवस्स अहे ववहारं तुम्भ छिंदिहि, ताव एगाइयाओ भवह, इयरी भणइ एवं भवतु, पुत्तमाया णेच्छर, वबहारो छिज्जउत्ति भणइ, णाऊण तीए दिण्णो, एवमाईंगभगुणेणंति सुमई ॥ इयाणिं परमप्पहो - तस्य सामान्यतोऽभिधानकारणम्-इह निष्पङ्कतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा यस्यासौ पद्मप्रभः सर्व एव जिना यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषकारणमाह उमयणमि जणणीद डोहलो तेण पउमाभो ॥। १०८२ ॥ व्याख्या– पैच्छद्धं ॥ गग्भगए देवीए पउमसयणंमि डोहलो जाओ, तं च से देवयाए सज्जियं, पउमवण्णो य भगवं | तेण परमप्पहोत्ति गाथार्थः ॥ १०८२ ॥ इदानीं सुपासो, तस्योपतो नामान्वर्थः- शोभनानि पार्श्वान्यस्येति सुपार्श्वः, सर्व एव च अर्हन्त एवम्भूता इत्यतो विशेषेण नामान्वर्थमभिधित्सुराह गभग जणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो । व्याख्या - गण्भगए जणणीए तित्थगराणुभावेण सोभणा पासा जायत्ति, ता सुपासोत्ति । एवं सर्वत्र सामान्याभिधानं 1 ते भणिते मम पुत्रो भविष्यति स यौवनस्थ एतस्याशोकवरपादपस्याचो व्यवहारं युवयोः त्यति तावदेकत्र भवतं इतरा भणति एवं भवतु, पुत्रमाता नेच्छति, व्यवहारयितामिति भणति शास्वा तस्यै दत्तः, एवमादिगर्भगुणेनेति सुमतिः । इदानीं पद्मप्रभः २ पार्थं ॥ गर्भगते देव्याः पद्मशयने दोहदो जातः तच तस्यै देवतया समितं पद्मवर्णश्च भगवान् तेन पद्मप्रभ इति इदानीं सुपार्थ:-गर्भगते जनन्यास्तीर्थकरानुभावेन शोभनी पाच जातादिति, ततः सुपार्श्व इति । पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८१], भाष्यं [२०३...] द्रीया तीर्थक नामा प्रत सूत्रांक ||४|| आवश्यक- विशेषाभिधानं चाधिकृत्यार्थाभिधानविस्तरो द्रष्टव्यः,इह पुनः सुज्ञानत्वात् ग्रन्थविस्तरभयाच्च नाभिधीयत इति कृतं विस्तरेण, २चतुर्विहारिभ- याणि चंदप्पहो-चन्द्रस्येव प्रभा-ज्योत्स्ना सौम्याऽस्पेति चन्द्रप्रभः, तत्थ सबेऽवि तित्थगरा चंद इव सोमलेसा, विसेसोशतिस्तवा. जणणीऍ चंपियणमि डोहलो तेण चंदाभो ॥१०८३ ॥ ॥५०३॥ व्याख्या-पच्छद्धं ॥ देवीए चंदपियणमि डोहलो चंदसरिसवण्णो य भगवं तेण चंदप्पभोत्ति गाथार्थः ॥ १०८३ ॥ इदानीं सुविहित्ति, तत्र शोभनो विधिरस्पेति सुविधिः, इह च सर्वत्र कौशल्य विधिरुच्यते, तस्थ सवेऽपि एरिसा, विसेसो पुण| सम्वविहीसु अ कुसला गभगए तेण होइ सुविहिजिणो। व्याख्या-गाहद्धं ॥ भगवंते गम्भगए सबविहीसु चेव विसेसओ कुसला जणणित्ति जेण तेण सुविहित्ति णामं कर्य इयाणि सीयलो, तत्र सकलसत्त्वसन्तापकरणविरहादाबादजनकत्वाच्च शीतल इति, तत्थ सवेऽवि अरिस्स मित्तस्स वा उवरिं सीयलघरसमाणा, विसेसो उण पिउणो दाहोवसमो गम्भगए सीयलो तेणं ॥ १०८४ ॥ श्रीप S अनुक्रम 4-7-45% 80-% इदानी चन्नप्रभा, तत्र सर्वेऽपि तीर्थकराचन्द्र इच सौम्यठेश्याः, विशेष:-पश्चार्थे । देण्याचन्द्रपाने दोहदः चन्द्रसरशवर्णश्च भगवान् तेन चन्द्रप्रभः । श्वानी मुनिधिरिति, तत्र सर्वेऽपि ईरशाः, विशेषः पुनः-माथा । भगवत्ति गर्भगते सर्वविधिष्वेव विशेषतः कुशला जननीति येन तेन सुविधिरिति नामा ॥५०॥ कृतं । हवानी शीतला-तत्र सर्वेऽपि अरीणां मित्राणां वोपरि शीतलगृहसमानाः, विशेषः पुना पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८४], भाष्यं [२०३...] 55 प्रत सूत्रांक ||४|| CASES व्याख्या-पच्छद्धं ॥ पिउणो पित्तदाहो पुवुप्पण्णो ओसहेहिं ण पउणति, गभगए भगवंते देवीए परामुट्ठस्स पउणो, तेण सीयलोत्ति गाथार्थः ॥१०८४॥ इयाणि सेजंसो, तत्र श्रेयान्-समस्तभुवनस्यैव हितकरः, प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच श्रेयांस इत्युच्यते, तत्थ सबेऽवि तेलोगस्स सेया, विसेसो उण महरिहसिज्जारुहर्णमि डोहलो तेण होह सिजसो। व्याख्या-गाहर्छ । तस्स रनो परंपरागया सेज्जा देवतापरिग्गहिता अचिजइ, जो तं अल्लियइ तस्स देवया उवसगं करेति, गम्भत्थे व देवीए डोहलो उवविडा अकंता य, आरसिउं देवया अवकंता, तित्थगरनिमित्तं देवया परिक्खिया, देवीए गन्भपहावेण एवं सेयं आय, तेण से णामं कयं सेज्जंसोत्ति ॥ इयाणि वसुपुजो, तत्र वसूनां पूज्यो वसुपूज्यः, वसवो- देवाः, तत्थ सवेऽवि तित्वगरा इंदाईणं पुजा, विसेसो उण पूह वासवो जं अभिक्खणं तेण वसुपुज्जो ॥१०८५॥ व्याख्या-पच्छद्धं ॥ वासवो देवराया, तस्स गन्भगयस्स अभिक्खणं अभिक्खणं जणणीए पूर्य करे इ, तेण वासुपुज्जोत्ति, पचार्थ ॥ पितुः पिसदाहः पूर्वोस्पन औषचैन प्रगुण्यते, गर्भगते भगवति देण्या परामुष्टः प्रगुणः, तेन शीतल इति । इदानीं श्रेयांसः, तत्र सर्वेऽपि प्रैलोक्यस्य श्रेयस्कराः, विशेषः पुनः गाया । तस्य राज्ञः परम्परागता शय्या देवतापरिगृहीताऽच्यते, यस्तामाकामति तस देवतोपसर्ग करोति, गर्भस्ये च (भगवति) देश्या दोदव उपविष्टाऽऽकान्ता च, देवताऽऽरस्थापकान्ता, तीर्थकरनिमित्तं देवता परीक्षिता, देण्या गर्भमभाषेणैवं श्रेयो जातं, तेन तस्य नाम कृतं श्रेयांस इति । इदानीं भामुपूज्यः, तत्र सर्वेऽपि तीर्थकरा इन्द्रादीनां पूषाः, विशेषः पुनः-पश्चा) । वासबो देवराजा, तख गर्भगतस्थाभीषणमभीषणं| जनन्याः पूजां करोति तेन वासुपूज्य इति, श्रीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६] आवश्यकहारिभ जीया ॥ ५०४ ॥ [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ २ ], मूलं [-] / [गाथा ४] निर्मुक्तिः [ १०८५ ]. भाष्यं [ २०३ ...] अहवा वसूणि रयणाणि वासवो-वेसमणो सो गन्भगए अभिक्खणं अभिक्खणं तं रायकुलं रयणेहिं पूरेइत्ति वासुपूज्जो ॥ गाथार्थः ॥ १०८५ ॥ इयाणिं विमलो, तत्र विगतमठो विमलः, विमलानि वा ज्ञानादीनि यस्य, सामण्णलक्खणं सवेसिंपि विमलाणि णाणदंसणाणि सरीरं च विसेसलक्खणं विमल बुद्धि जणणी गन्भगए तेण होइ विमलजिणो । व्याख्या - पुबद्धं । गन्भगए मातृए सरीरं बुद्धी य अतीव विमला जाया तेण विमठोत्ति ॥ इयाणिं अणतो- तत्रानन्त कमशजयादनन्तः, अनन्तानि वा ज्ञानादीन्यस्येति, तत्थ सबेहिंपि अनंता कम्मंसा जिया सबेसिं च अणतानि णाणाईणि, विसेसो पुण रयणविचित्तमर्णतं दानं सुमिणे तओऽणंतो ॥। १०८६ ॥ व्याख्या—गाहापच्छद्धं ॥ 'रयणविचित्तं' रयणखचियं 'अनंत' अइमहप्पमाणं दानं सुमिणे जणणीए दिडं, तओ अणतोति गाथार्थः । १०८६ ॥ इयाणिं धम्मो, तत्र दुर्गती प्रपतन्तं सत्त्वसङ्घातं धारयतीति धर्मः, तत्थ सवेवि एवंविहत्ति, विसेसो पुण १ अथवा वसूनि रत्नानि वासवो वैश्रमणः स गर्भगतेऽभीक्ष्णमभीक्ष्णं तत् राजकुलं रतैः पूरयतीति वासुपूज्यः । इदानीं विमलः, सामान्यलक्षणं सर्वेषामपि विमले ज्ञानदर्शने शरीरं च विशेषलक्षणं-पूर्वार्ध। गर्भगते मातुः शरीरं बुद्धिमतीव चिमला जाता तेन विमल इति । इदानीमनन्तः, तत्र सर्वैरपि अनन्ताः कमशा जिताः सर्वेषां चानन्तानि ज्ञानादीनि विशेषः पुनः-गाथापश्चार्थे ॥ रत्नविचित्रं रत्तचितमनन्तम्- अंतिमहत्प्रमाणं दाम स्वप्ने जनन्या दृष्टं ततोऽनन्त इति । इदानीं धर्मः, तत्र सर्वेऽपि एवंविधा इति, विशेषः पुनः शतिस्तवा. तीर्थकृनामार्थः ~ 145 ~ ॥ ५०४ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८७], भाष्यं [२०३...] 135 प्रत सूत्रांक ||४|| 45 गन्भगए जं जणणी जाय सुधम्मत्ति तेण धम्मजिणो । व्याख्या-गाहद्धं ॥ गम्भगए भगवंते विसेसओ से जणणी दाणदयाइएहिं अहिगारेहिं जाया सुधम्मत्ति तेण धम्म-| |जिणो भगवं । इयाणिं संती, तत्र शान्तियोगात्तदात्मकत्वात्तत्कर्तृत्वाद्वा शान्तिरिति, इदं सामण्णं, विसेसो पुण जाओ असिवोवसमो गम्भगए तेण संतिजिणो ॥१०८७ ॥ व्याख्या-पच्छद्धं ॥ महंत असिवं आसि, भगवंते गम्भमागए उवसंतति गाथार्थः ॥ १०८७ ॥ इदानी कुंथू, सत्र कु:-पृथ्वी तस्यां स्थितवानिति कुस्थः, सामण्णं सवेवि एवंविहा, विसेसो पुण धूह रयणविचित्तं कुंथु सुमिणमि तेण कुंथुजिणो । व्याख्या-गाह । मणहरे अब्भुण्णए महप्पएसे थूह रयणविचित्तं सुमिणे दर पडिबुद्धा तेण से कुंथुत्ति णाम कय । | इदानीं अरो, तत्र-'सर्वोत्तमे महासत्त्वकुले य उपजायते । तस्याभिवृद्धये वृद्धैरसावर उदाहृतः ॥१॥' तस्थ सघऽवि सब्वुत्तमे कुले विद्धिकरा एव जायंति, विसेसो पुण गाथार्ध । गर्भगते भगवति विशेषतस्तस्य जननी दानदयादिकेष्वधिकारेषु जाता सुधमेति न धर्मजिनो भगवान् । इदानीं शान्तिः-इवं सामान्य विशेषः पुनः-पश्चाधैं । महदशिवमासीत्, भगवति गर्भमागत अपशास्तमिति । इदानी कुन्थुः, सामान्य सर्वेऽप्येवंविधाः, विशेषः पुनः । गाथार्ष । मनोहरे:भ्युनते महाप्रदेशे स्तूपं रत्नविचित्रं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुबा तेन तस्य कुन्थुरिति नाम कृतं । इदानीमरः-तत्र सर्वेऽपि सर्वोचसे ले वृद्धिकरा एव: जायन्ते, विशेषः पुनः श्रीप अनुक्रम [६] CASSESSACROSH 4456 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं - [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८८], भाष्यं [२०३...] (४०) % 4 आवश्यक हारिभद्रीया चतुर्विशतिस्तवाध्य. जिननामान्वः प्रत ॥५०५॥ सूत्रांक सुमिणे अरं महरिहं पासइ जणणी अरो तम्हा ॥१०८८॥ | व्याख्या-पच्छ । गम्भगए मायाए सुमिणे सबरयणमओ अइसुंदरो अइष्पमाणो य जम्हा अरओ दिहो तम्हा। अरोत्ति से णामं कयंति गाथार्थः ॥ १०८८ ॥ इदानीं मल्लित्ति, इह परीपहादिमल्लजयात्प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच मलिः, तस्थ सवेहिपि परीसहमल्ल रागदोसा य णिहयत्ति सामण्णं, विसेसो वरसुरहिमल्लसयणमि डोहलो तेण होह मल्लिजिणो व्याख्या-गाहर्ब)गम्भगए माऊए सबोउगवरसुरहिकुसुममल्लसयणिजे दोहलो जाओ, सो य देवयाए पडिसंभाणिओ दोहलो, तेण से मल्लित्ति णामं कयं । इदानीं मुणिसुबयोत्ति-तत्र मन्यते जगतखिकालावस्थामिति मुनिः तथा शोभनानि तान्यस्येति सुनतः मुनिश्चासौ सुव्रतश्चेति मुनिसुव्रतः, सबे सुमुणियसबभावा सुवया यत्ति सामण्णं, विसेसो जाया जणणी जं सुब्वयत्ति मुणिसुव्वओ तम्हा ॥१०८९ ॥ व्याख्या-(पच्छद)गम्भगएणं माया अईव सुवया जायत्ति तेण मुणिसुबओत्ति णाम, गाथार्थः॥१०८९॥ इयाणी णमित्ति 4 ॥ गभंगते मात्रा स्वप्ने सरानमयोऽतिमुन्दरोऽतिप्रमाणश्च यस्मादरको इष्टतमादर इति तख नाम कृतमिति । महिरिति, तत्र सर्वरपि परीषाहमल्ला रागदोपान निहता इति सामान्य विशेषा-(गाथा) गर्भगते मातुः सर्वकवस्सुरभिकुसुममाश्यशयनीये दोपदी जातः, सच देवतया प्रतिसन्मानीतो दोहदः, तेग तस्य महिरिति नाम कृतं । इदानी मुनिसुव्रत इति-सर्वे सुमुभितसर्वभावाः सुनतामेति सामान्यं, विशेषः-(पञ्चाथै)। गर्मगते माताऽतीव सुव्रता जातेति तेन मुनिसुव्रत इति नाम । इदानी नमिरिति अनुक्रम XXNXE ५ ०॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा -४], निर्युक्तिः [१०८९], भाष्यं [२०३...] तंत्र प्राकृत शैल्या छान्दसत्वालक्षणान्तरसम्भवाच्च परीषहोपसर्गादिनमनान्न मिरिति । तथा चाष्टौ व्याकरणान्यैन्द्रादीनि लोकेऽपि साम्प्रतमभिधानमात्रेण प्रतीतान्येव, अतः कतिपयशब्दविषयलक्षणाभिधानतुच्छे पाणिनिमत एव नाग्रहः कार्य इति व्यासादिप्रयुक्त शब्दानामपि तेनासिद्धेः न च ते ततोऽपि शब्दशास्त्रानभिज्ञा इति, कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः - तत्थ सधेहिंवि परीसहोवसग्गा णामिया कसाय (याय ) ति सामण्णं, विसेसो- पणया पचंतनिव्या दंसियमिते जिणंमि तेण नमी । व्याख्या - (गाहद्धं) उल्ललिएहिं पञ्चंत पत्थिवेहिं णयरे रोहिजमाणे अण्णराईहिं देवीए कुच्छिए णमी उबवण्णो, ताहे देवीए गन्भस्त पुण्णसत्तीचोइयाए अड्डालमारोढुं सद्धा समुप्पण्णा, आरूढा य दिट्ठा परपस्थिवेहिं, गब्भप्पभावेण य पणया सामंतपत्थिवा, तेण से णमित्ति णामं कयं । इदाणीं णेमी, तत्र धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः, सबेवि धम्मचकस्स णेमीभूयत्ति सामण्णं, विसेसो रिहरयणं च नेमिं उपयमाणं तओ नेमी ॥। १०९० ।। व्याख्या - (पच्छ) गम्भगए तस्स मायाए रिडरयणामओ महइमहालओ गेमी उप्पयमाणो सुमिणे दिठ्ठोत्ति, तेण १ रात्र सर्वैरपि परीषदोपस नामिताः कषायाच इति सामान्यं विशेष: (गाथार्थ) - दुहितैः प्रत्यस्तपार्थिवेनंगरे रुज्यमानेऽम्पराजभिः देण्याः कुक्षी नमिरुत्पन्नः सदा देव्या गर्भस्य पुण्यशक्तिचोदिताया अट्टालकमारो श्रद्धा समुत्यन्ना, आरूढा च दृष्टा परपार्थिवैः, गर्भप्रभावेण च प्रणताः सामन्तपार्थिवाः, तेन सस्य नमिरिति नाम कृतं । इदानीं नेमिः सर्वेऽपि धर्मचकस्य नेमीभूता इति सामान्यं विशेष:- (पश्चार्थ ) गर्भगते तत्र मात्राऽरिष्टस्लमषो महातिमहालयो नेमिरुत्पतन् वने दृष्ट इति तेन पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 148 ~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], निर्युक्तिः [१०९०], भाष्यं [२०३...] आवश्यक 8 से रिहणेमित्ति णामं कथं, गाथार्थः ॥ १०९० ॥ इदाणीं पासोत्ति, तत्र पूर्वोक्तयुक्तिकलापादेव पश्यति सर्वभावानिति २ चतुर्विहारिभपार्श्वः पश्यक इति चान्ये, तत्थ सवेऽवि सद्यभावाणं जाणगा पासगा यत्ति सामण्णं, विसेसो पुण१ व्य. जिनूना सपणे जणणी तं पासह तमसि तेण पासजिणो । शतिस्तवा श्रीया स मान्वर्थः ॥५०६ ॥ व्याख्या - (गाहर्द्ध) भगए भगवंते तेलोकत्रंधवे सत्तसिरं णागं सवणिज्जे णिविज्जणे माया से सुविणे दिठ्ठत्ति, तहा अंधकारे सयणिज्जगयाए गम्भष्यभावेण य एतं सप्पं पासिकणं रण्णो सयणिजे णिग्गया वाहा चडाविया भणिओ य-एस सप्पो वच्चइ, रण्णा भणियं कहं जाणसि ? भणइ-पेच्छामि, दीवएण पलोइओ, दिट्ठो य सप्पो, रण्णा चिंता गन्भस्स एसो अइसयप्पहावो जेण एरिसे तिमिरांधयारे पासइ, तेण पासोत्ति णामं कयं । इदानीं वज्रमाणो, तत्रोत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिर्धर्द्धत इति वर्द्धमानः, तत्थ सधेवि णाणाइगुणेहिं बहु इत्ति, बिसेसो कुण Tags नायकुलंति अ तेण जिणो वद्धमाणुत्ति ॥ १०९१ ॥ 1 सस्यारिष्टनेमिरिति नाम कृतं । इदानीं पार्श्व इति तत्र सर्वेऽपि सर्वभावानां ज्ञायकाः पश्य कामेति सामान्यं, विशेषः पुनः - (गाथार्ध) गर्भगते भगवतित्रैलोक्यबान्धवे सप्तशिरसं नागं शयनीये निर्विधने माता हटवती तस्य स्वप्न इति, तथाऽन्धकारे शयनीयगतमा गर्भप्रभावेण चागच्छन्तं स दृष्ट्वा राशः सवनीयात तो बाहुअटापितो भणित-पुच सर्पों प्रजति, राज्ञा भणितं कथं जानासि ?, भणति पश्यामि दीपेन प्रलोकितः सर्पः राता गर्भस्य पुत्रो ऽतिशयप्रभावो येनेदृशे तिमिरान्धकारे पश्यति देव पार्श्व इति नाम कृतं । इदानीं वर्धमानः, तत्र सर्वेऽपि ज्ञानादिगुणैर्वन्द्र इति विशेषः पुत्रः ॥५०६ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-५], नियुक्ति: [१०९१], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्रांक ||५|| व्याख्या-गम्भगएण भगवया णायकुलं विसेसेण धणेण वड्डियाइयं तेण से णाम कथं वद्धमाणेत्ति, गाथार्थ।।१०९१॥ एवमेतावता पन्थेन तिम्रोऽपि मूलसूत्रगाथा व्याख्याता इति ॥ अधुना सूत्रगाथैवएवं मए अभिधुआ विहुयरयमला पहीणजरमरणा । चउचीसपि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ अस्या व्याख्या-'एवम् अनन्तरोक्तेन प्रकारेण 'मए' इत्यात्मनिर्देशमाह, 'अभिष्टुता' इति आभिमुख्येन स्तुता अभिष्टुता: इति, स्वनामभिः कीर्तिता इत्यर्थः, किंविशिष्टास्ते ?-'विधूतरजोमला' तत्र रजश्च मलश्च रजोमली विधूती-प्रकम्पिती अनेकार्थत्वाद्धा अपनीती रजोमली यैस्ते तथाविधाः, तत्र बध्यमानं कमें रजो भण्यते पूर्ववद्धं तु मल इति, अथवा बर्द्ध रजः निकाचितं मलः, अथवेर्यापथं रजः साम्परायिकं मल इति, यत एवैवम्भूता अत एवं प्रक्षीणजरामरणाः, कारणाभावादित्यर्थः, तत्र जरा-बयोहानिलक्षणा मरणं तु-प्राणत्यागलक्षणं, प्रक्षीणे जरामरणे येषां ते तथाविधाश्चतुर्विशतिरपि, अपिशब्दासदन्येऽपि, 'जिनवराः' श्रुतादिजिनप्रधानाः, ते च सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्ति अत आह-तीर्थकरा इति, एतत्समानं पूर्वेण, 'मे' मम, किं:-'प्रसीदन्तु' प्रसादपरा भवन्तु, स्यात्-'क्षीणक्लेशत्वान्न पूजकानां प्रसाददास्ते हि । तच्च न यस्मात्तेन पूज्याः क्लेशक्षयादेव ॥१॥ यो वस्तुतः प्रसीदति रोपमवश्यं स याति निन्दायाम् । सर्वत्रासमचित्तश्च सर्वहितदः कथं स भवेत् ॥२॥ तीर्थकरास्विह यस्माद्रागद्वेषक्षयात्रिलोकविदः । स्वात्मपरतुल्यचित्ताश्चातः सद्भिः सदा पूज्याः॥३॥ शीतार्दितेषु च यथा द्वेष वहिन याति रागं वा। नाऽऽहयति वा तथाऽपि च तमाश्रिताः स्वेष्टमश्नुवते॥४॥ गर्भगतेन भगवता शाकुलं विशेषेण धनेन वर्धितं तेन तस्स नाम संपर्धमान इति । दीप अनुक्रम [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | मूलसूत्रस्य गाथा- ५ एवं तस्या व्याख्या ~150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-६], नियुक्ति: [१०९१], भाष्यं [२०३...] प्रत एतद्वत्तीर्थकरान ये त्रिभुवनभावप्रभावकान् भक्त्या । समुपाश्चिता जनास्ते भवशीतमपास्य यान्ति शिवम् ॥ ५॥” एतहारिभ दुक्तं भवति-यद्यपि ते रागादिरहितत्वान्न प्रसीदन्ति तथापि तानुद्दिश्याचिन्त्यचिन्तामणिकल्पानन्तःकरणशुद्ध्या अभि- शतिस्तद्रीया ष्टवकर्तृणां तत्पूर्विकैवाभिलपितफलावाप्तिर्भवतीति गाथार्थः । तथा VI बाध्य. ॥५०७॥ । कित्तियचंदियमहिआ जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्गयोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु ॥६॥ इयमपि सूत्रगाथैव, अस्या व्याख्या-कीर्तिताः-स्वनामभिः प्रोक्ताः बन्दिताः-त्रिविधयोगेन सम्यकूस्तुताः मयेत्यात्मनिर्देशे, महिता इति वा पाठान्तरमिदं च, महिता:-पुष्पादिभिः पूजिताः, क एत इत्यत आह-य एते 'लोकस्य' प्राणिलोकस्य मिथ्यात्वादिकर्ममलकलाभावेनोत्तमा:-प्रधानाः, ऊर्ध्वं वा तमस इत्युत्तमसः, 'उत्प्राबल्योर्ध्वगमनोच्छेदनेविति वचनात, प्राकृतशैल्या पुनरुत्तमा उच्यन्ते, 'सिद्धा' इति सितं मातमेषामिति सिद्धाः-कृतकृत्या इत्यर्थः, अरोगस्य भाव आरोग्य-सिद्धत्वं तदर्थं बोधिलाभ:-प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तिर्वाधिलाभोऽभिधीयते तं, स चानिदानो मोक्षायैव प्रशस्यत इति, तदर्थमेव च तावत्किं , तत आह-समाधान-समाधिः, स च द्रव्यभावभेदान् द्विविधः, तत्र द्रव्यसमाधिर्यदुपयोगस्वास्थ्यं भवति येषां वाऽविरोध इति, भावसमाधिस्तु ज्ञानादिसमाधानमेव, तदुपयोगादेव परमस्वास्थ्ययोगादिति, यतश्चायमित्थं द्विधाऽतो द्रव्यसमाधिय्यवच्छेदार्थमाह-वर-प्रधानं भावसमाधिमित्यर्थः, असावपि तारतम्यभेदादनेक- ५०७॥ धैव अत आह-उत्तम-सर्वोत्कृष्टं ददतु-प्रयच्छन्तु, आह-किं तेषां प्रदानसामर्थ्यमस्ति ,न, किमर्थमेवमभिधीयत इति? उच्यते, भक्त्या, वक्ष्यति च-'भासा असच्चमोसा' इत्यादि, नवरं तद्भक्त्या स्वयमेव तत्प्राप्तिरुपजायत इति कृतं विस्त RSSkGAR अनुक्रम [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | मूलसूत्रस्य गाथा- ६ एवं तस्या व्याख्या ~151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [<] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-६], निर्युक्तिः [१०९२], भाष्यं [२०३...] रेणेति गाथार्थः ॥ ६ ॥ व्याख्यातं लेशत इदं सूत्रगाथाद्वयम् अधुना सूत्रस्पर्शिकया प्रतन्यते, तत्राभिष्टवकीर्तनैका - थिंकानि प्रतिपादयन्नाह थुइथुणणवंद्णनमंसणाणि एगद्विआणि एयाणि । कित्तण पसंसणावि अ विणयपणामे अ एगट्ठा ॥ १०९२ ।। व्याख्या - स्तुतिः स्तवनं वन्दनं नमस्करणम् एकार्थिकान्येतानि, तथा कीर्तनं प्रशंसेव विनयप्रणामौ च एकार्थिकानीति गाथार्थः ॥ १०९२ ॥ साम्प्रतं यदुक्तम् उत्तमा' इति तद्व्याचिख्यासुरिदमाहमिच्छत्तमोहणिज्जा नाणावरणा चरित्तमोहाओ । तिविहतमा उम्मुक्का तम्हा ते उत्तमा हुंति ॥ १०९३ ।। व्याख्या — मिथ्यात्वमोहनीयात् तथा ज्ञानावरणात्तथा चारित्रमोहाद् इति, अत्र मिथ्यात्वमोहनीयग्रहणेन दर्शनसप्तकं गृह्यते, तत्रानन्तानुबन्धिनश्चत्वारः कषायास्तथा मिथ्यात्वादित्रयं च ज्ञानावरणं मतिज्ञानाद्यावरणभेदात् पश्चविधं, चारित्रमोहनीयं पुनरेकविंशतिभेदं तच्चानन्तानुबन्धिरहिता द्वादश कषायास्तथा नव नोकपाया इति, अस्मादेव यतस्त्रिविधतमसः, किम् ? - उन्मुक्ताः - प्राबल्येन मुक्ताः, पृथग्भूता इत्यर्थः तस्मात्ते भगवन्तः किम् ?, उत्तमाः भवन्ति, ऊर्ध्वं तमोवृत्तेरिति गाथार्थः ॥ १०९३ ॥ साम्प्रतं यदुक्तं 'आरोग्यबोधिलाभ 'मित्यादि, अत्र भावार्थमविपरीतमनव गच्छन्नाहआरुग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं च मे दिंतु । किं नु हु निआणमेअं ति?, विभासा इत्थ कार्यव्वा ॥ १०९४॥ व्याख्या - आरोग्याय बोधिलाभः आरोग्यबोधिलाभस्तं, भावार्थः प्रागुक्त एव तथा समाधिवरमुत्तमं च 'मे' मम ददत्विति यदुक्तम्, अत्र काक्वा पृच्छति किं नु हुणियाणमेअं'ति तत्र किमिति परप्रश्ने, नु इति वितर्के, हु तत्समर्थने, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~152~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-६], नियुक्ति: [१०९४], भाष्यं [२०३...] आवश्यक- निदानमेतदिति?, यदुक्तमारोग्यादि ददतु, यदि निदानमलमनेन, सूत्रे प्रतिषिद्धत्वात्, न चेद् व्यर्थमेवोच्चारणमिति, २ चतुर्विहारिभ-18 गुरुराह-'विभासा एत्थ कायब'त्ति विविधा भाषा विभाषा-विषयविभागव्यवस्थापनेन व्याख्येत्यर्थः, अत्र कर्तव्या, इय- शतिस्त द्रीया है मिह भावना-नेदं निदानं, कर्मबन्धहेतुत्वाभावात् , तथाहि-मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः, न च बाध्य. 1५०८॥ मुक्तिप्रार्थनायाममीषामन्यतरस्यापि सम्भव इति, न च व्यर्थमेव तदुच्चारणमिति, ततोऽन्तःकरणशुद्धेरिति गाथार्थः ५॥ १०९४ ॥ आह-न नामेदमित्थं निदानं, तथापि तु दुष्टमेव, कथम् !, इह स्तुत्या, आरोग्यादिप्रदातारः स्युर्ने वा यद्याद्यः पक्षस्तेषां रागादिमत्यप्रसङ्गः, अथ चरमः तत आरोग्यादिप्रदानविकला इति जानानस्यापि प्रार्थनायां मृपाबाददोषप्रसङ्गः इति, न, इत्थं प्रार्थनायां मृषावादायोगात्, तथा चाह|भासा असच्चमोसा नवरं भत्तीइ भासिआ एसा । न हु खीणपिज्जदोसा दिति समाहिं च योहिं च ॥१०९५॥ | व्याख्या-भाषा असत्यामृपेयं वर्तते, सा चामन्त्रण्यादिभेदादनेकविधा, तथा चोक्तम्-"आमंतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणी य पन्नवणी । पञ्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥१॥ अणभिग्गहिया भासा भासा य अभिग्गइंमि | बोद्धबा । संसयकरणी भासा वोयड अबोयडा चेव ॥२॥" इत्यादि, तत्रेह याचम्याऽधिकार इति, यतो याञ्चायां वर्तते, HEH५०८॥ यदुत-'आरुग्गवोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितुति।आह-रागादिरहितत्वादारोग्यादिप्रदानविकलास्ते, ततश्च किमनयेति आमन्त्रणी आज्ञापनी याचनी तथा प्ररछनी च प्रज्ञापनी । प्रत्याख्यानी भाषा भाषेच्छानुलोमा च ॥ १ ॥ अनभिगृहीता भाषा भाषा चाभिप्रदे बोया। संशयकरणी भाषा व्याकूताश्याकृतव ॥२॥ अनुक्रम [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~153 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [4] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-६ ], निर्युक्तिः [१०९५], भाष्यं [२०३...] उच्यते, सत्यमेतत्, नवरं भक्त्या भाषितैषा, अन्यथा नैव 'क्षीणप्रेमद्वेपाः' क्षीणरागद्वेश इत्यर्थः, 'ददति' प्रयच्छन्ति, किं न प्रयच्छन्ति ?, अत आह-समाधिं च बोधिं चेति गाथार्थः ॥ १०९५ ॥ किं च- जं तेहिं दावं तं दिनं जिणवरेहिं सम्वेहिं । दंसणनाणचरितस्स एस तिविहस्स उवएसो ॥ १०९६ ।। व्याख्या - यत्तैर्दातव्यं तद्दत्तं जिनवरैः 'सर्वैः' ऋषभादिभिः पूर्वमेव, किं च दातव्यं ? - दर्शनज्ञान चारित्रस्य सम्बन्धिभूतः आरोग्यादिप्रसाधर्क एप त्रिविधस्योपदेशः, इह च दर्शनज्ञानचारित्रस्येत्युक्तं मा भूदिदमेकमेव कस्यचित्सम्प्रत्यय इत्यतस्तद्व्युदासार्थं त्रिविधस्येत्याहेति गाथार्थः ॥ १०९६ ॥ आह-यदि नाम दत्तं ततः किं साम्प्रतमभिलषितार्थप्रसाधनसामर्थ्यरहितास्ते ?, ततश्च तद्भक्तिः कोपयुज्यते इति ?, अत्रोच्यते भत्तीइ जिणवराणं विजंती पुत्र्वसंचिआ कम्मा | आयरिअनमुकारेण विज्जा मंता य सिज्यंति ॥ १०९७ ॥ व्याख्या- 'भक्त्या' अन्तःकरणप्रणिधानलक्षणया 'जिनवराणां' तीर्थकराणां सम्बन्धिन्या हेतुभूतया, किं ?, 'क्षीयन्ते' क्षयं प्रतिपद्यन्ते 'पूर्वसञ्चितानि' अनेकभवोपात्तानि 'कर्माणि' ज्ञानावरणादीनि इत्थंस्वभावत्वादेव तद्भरिति, अस्मि - नेवार्थे दृष्टान्तमाह तथाहि - आचार्यनमस्कारण विद्या मन्त्राश्च सिद्ध्यन्ति, तद्भक्तिमतस्तत्त्वस्य शुभपरिणामत्वात्तत्सिद्धिप्रतिबन्धककर्मक्षयादिति भावनीयं, गाथार्थः ॥ १०९७ ॥ अतस्साध्वी तद्भक्तिः, वस्तुतोऽभिलषितार्थप्रसाधकत्वाद्, आरोग्यबोधिलाभादेरपि तन्निर्वर्त्यत्वात् तथा चाऽऽह * मोक्षमार्गकारणमिति ज्ञानविषयः पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 154 ~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [<] आवश्यक हारिभ द्वीया ॥५०९॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-६ ], निर्युक्तिः [१०९८], भाष्यं [२०३...] भत्ती जिणवराणं परमाएखीणपिल्लदोसाणं । आरुग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पार्वति ॥। १०९८ ।। व्याख्या— भक्त्या जिनवराणां किंविशिष्टया :-'परमया' प्रधानया भावभक्त्येत्यर्थः, 'क्षीणप्रेमद्वेषाणां' जिनानां, किम् ?, आरोग्यबोधिलाभं समाधिमरणं च प्राप्नुवन्ति प्राणिन इति, इयमत्र भावना - जिनभक्त्या कर्मक्षयस्ततः सकलकल्याणावाप्तिरिति, अत्र समाधिमरणं च प्राप्नुवन्तीत्येतदारोग्यबोधिलाभस्य हेतुत्वेन द्रष्टव्यं समाधिमरणप्राप्तौ नियमत | एव तत्प्राप्तिरिति गाथार्थः ॥ १०९८ ॥ साम्प्रतं बोधिलाभप्राप्तावपि जिनभक्तिमात्रादेव पुनर्वोधिलाभो भविष्यत्येव, किमनेन वर्तमानकालदुष्करेणानुष्ठानेनेत्येवंवादिनमनुष्ठानप्रमादिनं सत्त्वमधिकृत्योपदेशिकमिदं गाथाद्वयमाहलद्विल्लिअं च बोहिं अकरितोऽणागयं च पत्थंतो । दच्छिसि जह तं विन्भल ! इमं च अन्नं च चुकिहिसि ।। १०९९॥ लडिल्लिअं च षोहिं अकरिंतोऽणागयं च पत्थंतो । अन्नंदाई योहिं लग्भिसि कयरेण मुल्लेण १ ॥ ११०० ॥ व्याख्या—'उद्धेल्लियं च'त्ति लब्धां च प्राप्तां च वर्तमानकाले, कां?, 'बोधिं' जिनधर्मप्राप्तिम्, 'अकुर्वन्' इति कर्मपराधीनतया सदनुष्ठानेन सफलामकुर्वन् 'अनागतां च' आयत्यामन्यां च प्रार्थयन् किम् ?, द्रक्ष्यसि यथा त्वं हे विह्वल !जडप्रकृते ! इमां चान्यां बोधिमधिकृत्य, किं ?, 'चुकिहिसि' देशीवचनतः भ्रश्यसि, न भविष्यतीत्यर्थः ॥ तथा लब्धां च बोधिमकुर्वन्ननागतां च प्रार्थयन, अन्नंदाईति निपातः असूयायाम्, अन्ये तु व्याचक्षते - अन्यामिदानीं बोधिं लप्स्यसि, किं ?, कतरेण मूल्येन ?, इयमत्र भावना - बोधिलाभे सति तपः संयमानुष्ठानपरस्य प्रेत्य वासनावशात्तत्प्रवृत्तिरेव बोधिलाभोऽभिधीयते, तदनुष्ठानरहितस्य पुनर्वासनाऽभावात्तत्कथं तत्प्रवृत्तिरिति बोधिलाभानुपपत्तिः, २ चतुर्वि शतिस्तवाध्य. ~ 155 ~ ॥५०९ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-६], नियुक्ति: [११००], भाष्यं [२०३...] प्रत सूत्रांक CBSEASESAKASEARCH स्यादेतद्, एवं सत्याद्यस्य बोधिलाभस्थासम्भव एवोपन्यस्तः, वासनाऽभावात् , न, अनादिसंसारेराधावेधोपमानेनानाभोगत एव कथञ्चित्कर्मक्षयतस्तदवाप्तेरित्येतदावेदितमेवोपोद्घात इत्यलं विस्तरेणेति गाथाद्वयार्थः ॥१०९९-११००॥ तस्मात्सति बोधिलाभे तपस्संयमानुष्ठानपरेण भवितव्यं, न यत्किश्चिञ्चैत्याद्यालम्बनं चेतस्याधाय प्रमादिना भवितव्यमिति, तपस्सं-18 यमोद्यमवतश्चैत्यादिषु कृत्याविराधकत्वात् , तथा चाऽऽह चेइयकुलगणसंघे आयरिआणं च पवयण सुए अ । सब्वेमुवि तेण कयं तवसंजममुज्जमतेणं ॥११०१॥ द्रा व्याख्या-चैत्यकुलगणसद्धेषु तथाऽऽचार्याणां च तथा प्रवचनश्रुतयोश्च, किं?, सर्वेष्वपि तेन कृतं, कृत्यमिति गम्यते, केन?, तपःसंयमोद्यमवता साधुनेति, तत्र चैत्यानि-अर्हत्प्रतिमालक्षणानि, कुलं-विद्याधरादि, गणः-कुलसमुदायः सङ्घ-समस्त एव साध्वादिसङ्घातः, आचार्याः-प्रतीताः, चशब्दादुपाध्यायादिपरिग्रहः, भेदाभिधानं च प्राधान्यख्यापनार्थम् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, प्रवचन-द्वादशाङ्गमपि सूत्रार्थतदुभयरूपं, श्रुतं सूत्रमेव, चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, एतेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु तेन कृतं कृत्यं यस्तपःसंयमोद्यमवान् वर्तते, इयमत्र भावना-अयं हि नियमात् ज्ञानदर्शनस-] सम्पन्नो भवति अयमेव च गुरुलाघवमालोच्य चैत्यादिकृत्येषु सम्यक प्रवर्तते यथैहिकामुष्मिकगुणवृद्धिर्भवति, विपरीतस्तु। कृत्येऽपि प्रवर्तमानोऽप्यविवेकादकृत्यमेव संपादयति, अत्र बहु वक्तव्यमिति गाथार्थः ॥ ११०१॥ एवं तावद्गतं सूत्रमूल एवं मए अभिथुए'त्यादि गाथाद्वयं, साम्प्रतं चंदेसु निम्मलयरा आइन्चेसु अहिअं पयासयरा । सागरवरगंभीरा सिहा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥ अनुक्रम [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | मूलसूत्रस्य गाथा-७ एवं तस्या व्याख्या ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं I [गाथा-७], नियुक्ति: [११०२], भाष्यं [२०३...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया २चतुविशतिस्तवाध्य. प्रत सूत्रांक ॥५१०॥ ||७|| अस्य व्याख्या-इह प्राकृतशैल्या आषत्वाच्च पञ्चम्यर्थे सप्तमी द्रष्टव्येति, चन्द्रेभ्यो निर्मलतराः, पाठान्तरं वा 'चंदेहिं निम्मलयर'त्ति, तत्र सकलकर्ममलापगमाञ्चन्द्रेभ्यो निर्मलतरा इति, तथा आदित्येभ्योऽधिकप्रभासकराः प्रकाशकरा वा, केवलोद्योतेन विश्वप्रकाशनादिति, वक्ष्यति च नियुक्तिकार:-'चंदाइञ्चगहाण'मित्यादि, तथा सागरवरादपि गम्भीरतराः, तत्र सागरवर:-स्वयम्भूरमणोऽभिधीयते परीपहोपसर्गाद्यक्षोभ्यत्वात् तस्मादपि गम्भीरतरा इति भावना, सितं-मा-1 तमेतेषामिति सिद्धा, कर्मविगमात् कृतकृत्या इत्यर्थः, सिद्धि-परमपदप्राप्तिं 'मम दिसंतु'मम प्रयच्छन्विति सूत्रगाथार्थः। ॥ ७॥ साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यैनामेव गाथा लेशतो व्याख्यानयन्नाह चंदाइचगहाण पहा पयासेइ परिमिअं खितं । केवलिअनाणलंभो लोगालोग पगासेह ॥ ११०२॥ व्याख्या-चन्द्रादित्यग्रहाणा'मिति, अत्र ग्रहा अङ्गारकादयो गृह्यन्ते, 'प्रभा' ज्योत्स्ना 'प्रकाशयति' उद्योतयति परिमितं क्षेत्रमित्यत्र तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेशा, यथा मश्चाः क्रोशन्तीति, क्षेत्रस्यामूर्तत्वेन मूर्तप्रभया प्रकाशनायोगादिति भावना, केवलज्ञानलाभस्तु लोकालोक 'प्रकाशयति' सर्वधर्मेरुद्योतयतीति गाथार्थः ॥ ११०२॥ उक्तोऽनुगमः, नयाः सामायिकबद् द्रष्टच्याः ॥ इति चतुर्विशतिस्तवटीका समाप्तेति ॥ व्याख्यायाध्ययनमिदं प्राप्तं यत्कुशलमिह मया तेन । जन्मप्रवाहहतये कुर्वन्तु जिनस्तवं भव्याः॥१॥ इति श्रीचतुर्विंशतिस्तवाध्ययनं सभाष्यनियुक्तिवृत्ति समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम ॥५१० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं -२- 'चतुर्विंशति:' परिसमाप्तं ~157. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०२...], भाष्यं [२०३...] 20-160* - -00-00 प्रत सूत्रांक ||७..|| अथ तृतीयं वन्दनाध्ययनम् साम्प्रतं चतुर्विंशतिस्तवानन्तरं वन्दनाध्ययनं, तस्य चायमभिसम्बन्धः, अनन्तराध्य यने सावद्ययोगविरतिलक्षणसामा-18 दायिकोपदेष्टणामहतामुत्कीर्तनं कृतम्, इह त्वहंदुपदिष्टसामायिकगुणवत एवं चन्दनलक्षणा प्रतिपत्तिः कार्येति प्रतिपाद्यते, यद्वा-चतुर्विंशतिस्तवेऽहंद्गुणोत्कीर्तनरूपाया भक्तेः कर्मक्षय उक्तः, यथोक्तम्-'भत्तीऐं जिणवराणं खिजंती पुवसंचिआ कम्मत्ति, वन्दनाध्ययनेऽपि कृतिकर्मरूपायाः साधुभक्तेस्तद्वतोऽसावेव प्रतिपाद्यते, वक्ष्यति च-"विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्सू । तित्थगराण य आणा सुयधम्माराहणाऽकिरिया ॥१॥" अथवा सामायिके चारित्रमुपवणितं, चतुर्विंशतिस्तवे त्वहतां गुणस्तुतिः, सा च दर्शनज्ञानरूपा एवमिदं त्रितयमुक्तम् , अस्य च वितथासेवनायामै हिकामुष्मिकापायपरिजिहीर्षणा गुरोनिवेदनीयं, तच्च वन्दनपूर्वमित्यतस्तन्निरूप्यते, इत्थमनेनानेकप्रकारेण सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि समपञ्चं वक्तव्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे वन्दनाध्ययनमिति (नाम) तत्र वन्दनं निरू-| प्यते-वदि अभिवादनस्तुत्योः' इत्यस्य करणाधिकरणयोश्चे (पा०३-३-११७)ति ल्युट् 'युवोरनाकावि'(पा०७-१-१)त्यनादेशः, द'इदितो नुम् धातोरिति (पा०७-१-५८)नुमागमः, ततश्च वन्द्यते-स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाकायव्यापारजालेनेति वन्दनम्, अस्थाधुना पर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्निदं गाथाशकलमाह नियुक्तिकार: बंदणचिइकिइकम्मं पूयाकर्म च विणयकम्मं च। विनयोपचारः मानव भजना पूजना गुरुजनस्य । तीर्थकराणां चाज्ञा श्रुतधाराधनाऽक्रिया ॥१॥ दीप अनुक्रम [९..] REACROR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: • अत्र अध्ययनं -३- 'वन्दनं' आरभ्यते ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक हारिभ द्वीया ॥५११॥ [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा ७...], निर्युक्तिः [११०२...], भाष्यं [२०३ ...] वन्दनप वन्दनं निरूपितमेव, 'चि चयने' अस्य 'स्त्रियां क्तिन्' ( पा० ३-३-९४ ) कुशलकर्मणश्च चयनं चितिः, कारणे कार्योपचाराद्वजोहरणायुपधिसंहतिरित्यर्थः चीयते असाविति वा चितिः, भावार्थः पूर्ववत् 'डुकृञ् करणे' अस्यापि क्तिन्प्रत्ययान्तस्य करणं कृतिः अवनामादिकरणमित्यर्थः क्रियतेऽसाविति वा कृतिः - मोक्षायावनामादिचेष्टय, वन्दनं च चितिश्च कृतिश्च वन्दनचितिकृतयः ता एवं तासां वा कर्म वन्दनचितिकृतिकर्म, र्यायाः कर्मशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते अनेकार्थश्चायं, क्वचित्कारकवाचकः 'कर्तुरीप्सिततमं कर्मे ( पा० १-४-४९ ) ति ४ वचनात् कचित् ज्ञानावरणीयादिवाचकः, 'कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्ष' ( तत्त्वा० अ० १० सू० ३ ) इति वचनात् ‍ क्वचित् क्रियावाचकः, 'गन्धर्वा रञ्जिताः सर्वे, सङ्ग्रामे भीमकर्मणेति वचनात् इह क्रियावचनः परिगृह्यते, ततश्च वन्दनकर्म चितिकर्म कृतिकर्म इति, इह च पुनः क्रियाऽभिधानं विशिष्टावनामादिक्रियाप्रतिपादनार्थमदुष्टमेवेति, 'पूज पूजायाम्' अस्य 'गुरोश्च हल' ( पा०३ - ३ १०३ ) इत्यप्रत्ययान्तस्य पूजनं पूजा-प्रशस्तमनोवाक्काय चेष्टेत्यर्थः, पूजायाः कर्म पूजाकर्म पूजा क्रियेत्यर्थः, पूजैव वा कर्म पूजाकर्म, चशब्दः पूजाक्रियाया वन्दनादिक्रियासाम्य प्रदर्शनार्थः,'णीञ् प्रापणे' इत्यस्य एरचि( पा०३-३-५६ ) ति अच्प्रत्यये गुणे अयादेशे सति विपूर्वस्य विनयनं विनयः, कर्मापनयनमित्यर्थः, विनीयते वाडनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनयस्तस्य कर्मविनयकर्म, चः पूर्ववदेव, अयं गाथार्द्धसंक्षेपार्थः ॥ आह काय कस्स व केण वाव काहे व कखुतो ! ॥ ११०२ ॥ कहओणयं कइसिरं कइहिं च आवस्सएहि परिसुद्धं कहदोसविप्यमुकं किकम्मं कीस कीरइ वा १ ॥११०३ ॥ ३ वन्दना ध्ययने ~ 159~ ॥५११॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः 'वन्दन' कृतिकर्मादि भेदानाम व्याख्या कथानकसहितं Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०३], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्रांक ect ||७..|| इदं वन्दनं कर्तव्यं कस्य वा केन वाऽपि 'कदा वा कस्मिन् वा काले 'कतिकृत्वो वा' कियत्यो वा वाराः। अवनति-अवनतं, कत्यवनतं तद्वन्दनं कर्तव्यं ?, कतिशिरः कति शिरांसि तत्र भवन्तीत्यर्थः, कतिभिरावश्यकैःआवर्तादिभिः परिशुद्ध, कतिदोषविप्रमुक्त, टोलगत्यादयो दोषाः, 'कृतिकर्म' बन्दनकर्म 'कीस कीरइ'त्ति किमिति वा क्रियत इति गाथाद्वयसंक्षेपार्थः॥ अवयवार्थ उच्यते, तत्र वन्दनकर्म द्विधा-द्रव्यतो भावतच, द्रव्यतो मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तसम्यग्दृप्टेच, भावतः सम्यग्दृष्टरुपयुक्तस्य, चितिकर्मापि द्विधैव-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतस्तापसादिलिङ्गग्रहणकर्मानुपयुक्तसम्यग्दृष्टे रजोहरणादिकर्म च, भावतः सम्यग्दृष्ट्युपयुक्का रजोहरणाद्युपधिक्रियेति, कृतिकर्मापि द्विधा-द्रव्यतः कृतिकर्म निहवादीनामवनामादिकरणमनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च, भावतः सम्यग्दृष्युपयुक्तानामिति, पूजाकापि द्विधाद्रव्यतो निहवादीनां मनोवाकायक्रिया अनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च, भावतः सम्यग्दृष्ट्युपयुक्तानामिति, विनयकर्मापि द्विधा-द्रव्यतो निहवादीनामनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च, भावत उपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां विनयक्रियेति ॥ साम्प्रतं वन्दनादिषु द्रव्यभावभेदप्रचिकटविषया दृष्टान्तान् प्रतिपादयन्नाह सीयले खुदुए कण्हे, सेवए पालए तहा। पंचेते दिढता किइकम्मे होति णायब्वा ।। ११०४॥ व्याख्या-सीतलः क्षुलकः कृष्णः सेवकः पालकस्तथा पञ्चैते दृष्टान्ताः कृतिकर्मणि भवन्ति ज्ञातव्या इति । कः पुनः शीतलः, तत्र कथानकम्-ऐगस्स रण्णो पुत्तो सीयलो णाम, सो य णिविष्णकामभोगो पबतिओ, तस्स य भगिणी एकस राज्ञः पुत्रः शीतलो नाम, स च निर्विष्यकामभोगः प्रश्नजितः, तस्य च भगिनी *--994- दीप अनुक्रम [९..] *** पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~160 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] लि S प्रत सूत्रांक आवश्यक- अण्णस्स रणो दिण्णा, तीसे चत्तारि पुत्ता, सा तेर्सि कहतरेसु कहं कहेइ, जहा तुझ मातुलओ पुषपषइओ, एवं कालो वन्दना बच्चइ । तेऽवि अन्नया तहारूवाणं थेराणं अंतिए पवइया चत्तारि, बहुस्सुया जाया, आयरिय पुच्छिउँ माउलगं बंदगा ति।। ध्ययने द्रीया |एगंमि णयरे सुओ, तत्थ गया, वियालो जाउत्तिकाउं बाहिरियाए ठिया, सावगो य णयरं पवेसिउकामो सो भणिओ- वन्दनादि | सीयलायरियाणं कहेहि-जे तुझं भाइणिज्जा ते आगया वियालोत्ति न पविहा, तेणं कहियं, तुहो, इमेसिपि रतिं सुहेण KI ॥५१२॥ दृष्टान्ताः | अज्झवसाणेण चण्हवि केवलणाणं समुप्पणं । पभाए आयरिया दिसाउ पलोएइ, एत्ताहे मुहुत्तेणं एहिंति, पोरिसिमुत्तं मण्णे करेंति अच्छंति, उग्घाडाए अस्थपोरिसित्ति, अइचिराविए य ते देवकुलियं गया, ते वीयरागा न आढायंति, डंडओऽणेण ठविओ, पडिकतो, आलोइए भणइ-कओ वंदामि भणंति-जओ भे पडिहायइ, सो चिंतेइ-अहो दुइसेहा निलज्जत्ति, * तहवि रोसेण चंदर, चउसुधि बंदिएसु, केवली किर पुषपउत्तं उपयारं न भंजइ जाव न पडिभिज्जइ, एस जीयकप्पो, ||७..|| दीप अनुक्रम ARANE RESS ५१२॥ १ सम्ममै राशे दत्ता, तस्यात्वारः पुत्राः, सा तेभ्यः कथान्तरेषु (कथावसरेषु) कथा कथयति-पधा युष्माकं मातुलः पूर्व प्रमजितः, एवं काको बजति । तेऽपि भन्यदा तथारूपाणां स्थविराणामम्तिके प्रवनिताश्चत्वारः, बधुता जाता, आचार्य पृष्टा मातुखं वन्दितं यान्ति । एकस्मिन्नगरे श्रुतः, तत्र लगताः, विकालो जान इतिकृत्वा बाहिरिकायां खिताः, आवश्च नगर प्रबेष्टु कामः स भणिता-शीतलाचार्येभ्यः कथये:-ये युष्माकं भागिनेयाले भागता] विकाल इति न प्रविष्टाः, तेन कथितं, तुष्टः, एषामपि रात्री शुभेनाप्यवसायेन चतुर्णामपि केवलज्ञानं समुत्पन्न । प्रभाते आचार्या दिशः प्रलोकयति, अधुना मुहूर्तमेच्यन्ति, सूत्रपौरुषर्षी कुर्वन्तः (इति)मध्ये तिष्ठन्ति, उद्घाटापामर्थपौरुपीमिति, अतिचिराषिते च ते देवकुलिकां गताः, ते वीतरागा नाद्रियन्ते, दण्डकोऽनेन स्थापिता, प्रतिफास्तः, आलोचिते भणति-कुतो वन्दे?, भणन्ति-यतो भवतां प्रतिभासते, सचिन्तयति-अहो तुष्टीक्षा निर्लज्जा इति, तथापि दिरोषेण पन्दते, चतुर्वपि पन्दितेगु, केवली किल पूर्वप्रयुक्त उपचार न भनक्ति यावा प्रतिभियते (शायते), एष जीतकया, [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~161 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा- ७...], निर्युक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] तेसु नत्थि पुवपवत्तो उवयारोत्ति, भणंति-दबवंदणएणं वंदिया भाववंदणपणं वंदाहि तं च किर वदतं कसायकंड एि छाणपडियं पेच्छेति, सो भणइ एयंपि नज्जइ ?, भणंति-वाढं, किं अइसओ अस्थि ?, आमं, किं छाउमत्थिओ केवलिओ ?, केवलि भांति - केवलीओ, सो किर तहेव उद्धसियरोमकूवो अहो मए मंदभग्गेण केवली आसातियत्ति संवेगमागओ, तेहिं चैव कंडगठाणेहिं नियत्तोत्ति जाव अपुदकरणं अणुपविहो, केवलणाणं समुप्पण्णं, चउत्थं चंदंतस्स समत्ती । सा चैव काइया चिठा एगंमि बंधाए एगंमि मोक्खाय । पुढं दद्यवंदणं आसि पच्छा भाववंदणं जायं १ ॥ इदानीं क्षुल्लकः, तत्रापि कथानकम् - एगो खुड्डगो आयरिएण कालं करमाणेण लक्खणजुत्तो आयरिओ ठविओ, ते सबे पबइया तस्स खुड्डगस्स आणाणिद्दे से वर्हति तेसिं च कडादीणं घेराण मूले पढइ । अण्णया मोहणिजेण वाहिजेतो भिक्खाए गएसु साहुसु बितिज्जपण सण्णापाणयं आणावेत्ता मत्तयं गहाय जवहयपरिणामो वच्चइ एगदिसाए, परिस्संतो एक्कहिं वणसंडे वीसमझ, 1 तेषु नास्ति पूर्वप्रवृत्त उपचार इति भणन्ति द्रव्यचन्दनकेन यन्दिता भागवन्दनकेन वन्दस्य तं च किल वन्दमानं रूपायकण्डकै पदस्थानपतितं पश्यन्ति स भणति एतदपि ज्ञायते ?, भणन्ति वार्ड, किमविशयोऽलि ?, ओम् किंस्थिकः केवलिकः ?, केवलिनो भणन्ति केवलिकः स किल त बोषित रोमकूपः अहो मया मन्दभाग्येन केवलिन आशातिता इति संवेगमागतः तैरेव कण्डकस्थानैर्निहुँच इति यावदपूर्वकरणमनुप्रविष्टः केवलज्ञानं समुत्पन्नं चतुर्थ वन्दमानस्य समाप्तिः सैव कायिकी चेा एकस्मिन् बन्धायैकस्मिन् मोक्षाय । पूर्व द्रव्यचन्दनमासीत् पश्चाद्भावयन्दनं जातं ॥ एकः क आचार्येण कालं कुता लक्षणयुक्त आचार्यः स्थापितः ते सर्वे प्रमजितात्रय क्षुद्धरत्याशा निर्देशे वर्त्तन्ते ते च कृतादीनां स्थविराणां मूले पठति । अम्यदा मोहनीयेन बध्यमानो भिक्षायै गतेषु साधुषु द्वितीयेन संज्ञापानीयमानाय्य मात्रकं गृहीत्वोपहतपरिणामो व्रजति एकदिशा, परिश्रान्त एकसित् वनखण्डे विश्राम्यति, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] आवश्यकहारिभद्रीया ॥५१३ ॥ [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [३] मूलं [-] / [गाथा ...] निर्बुक्तिः [११०४ ], आष्यं [२०३ ...] तेरस य पुष्फियफलियरस मज्झे समीझुक्खरस्सं पेढं बद्धं, लोगो तत्थ पूर्व करेइ, तिलगघलाईणं न किंचिवि, सो चिंतेइ - (ण) एयरस पेढस्स गुणेण एई से पूजा किज्जइ, चिईनिमित्तं, सो भणइ एए किं ण अचेह ?, ते भति-पुविएहिं कएहयं एयं तं च जणो बंदर, तस्सवि चिंता जाया, पेच्छह, जारिस समिज्झुक्खरं तारिसो मि अहं, अन्नेवि तत्थ बहुसुया रायपुत्ता इन्भपुत्ता पवइया अस्थि, ते ण ठविया, अहं उविओ, ममं पूएइ, कओ मज्झ समणत्तणं १, रयहरणणिमित्तं चितीगुणेण वंदंति, पडिनियतो । इयरेवि भिक्खाओ आगया मग्र्गति, न उहंति सुतिं वा पवित्तिं वा, सो आगओ आलोएडजहाऽहं सण्णाभूमिं गओ, मूलाय उद्धाइओ, तत्थ पडिओ अच्छिओ, इयाणि उवसंते आगओमि ते तुट्टा, पच्छा कडाईणं आलोएति, पायच्छित्तं च पडिवज्जइ । तस्स पुर्वि दवचिई पच्छा भावचिई जाया २ ॥ इदानीं कृष्णसूत्रकथानकं - बारवईए वासुदेवो वीरिओ कोलिओ, सो वासुदेवभत्तो, सो य किर वासुदेवो वासारचे बहवे जीवा वहिज्जतित्ति णो णीति, सो तस्य च पुष्पितडितस्य मध्ये शमीशाखायाः पीठं बढ़, लोकस्तत्र पूजां करोति, तिलकवकुलादीनां न किञ्चिदपि स चिन्तयति (न) एतस्य पीडख गुणेनेयती अस्य पूजा क्रियते, चितिनिमित्तं स भणति एतान् किं नायत ?, ते भगन्ति पुरातनैः कृतमेतद् च जनो यन्दते तखापि चिन्ता जाता, पश्यत बादशी शमीशाखा तादृशोऽस्मि अहं, अन्येऽपि तत्र पशुश्रुता राजपुत्रा इम्यपुत्राः प्रब्रजिताः सन्ति, ते न स्थापिताः, अहं स्थापितः मां पूजयति, कुतो मम भ्रामण्यं ?, रजोहरणमात्रचितिगुणेन पन्दन्ते, प्रतिनिवृत्तः इतरेऽपि भिक्षात भगता मार्गयन्ति न लभन्ते श्रुतिं वा प्रवृत्ति वा स आगत आलोचयतियथाऽहं संज्ञाभूमिं गतः, मूलाच्चावधावितः तत्र पतितः स्थितः, इदानीमुपशान्ते आगतोऽसि ते तुष्टाः पश्चात् कृतादिम्य आढोचयति प्रायचि प्रतिपयते । तस्य पूर्व द्रव्यचितिः पञ्चाद्वायचितिर्वाता ॥ द्वारिकायां वासुदेवो वीरक: कोलिकः, स वासुदेवभक्तः, स च कि वासुदेवो वर्षांरात्रे बहवो जीवा वध्यन्त इति न निर्गच्छति, स ३ बन्दना ध्ययने वन्दनादि दृष्टान्ताः ~ 163 ~ ।।५१३॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] प्रत सूत्रांक ||७..|| वीरओ वारं अलभंतो पुष्फछजियाए अचणं काऊण बच्चइ दिणे दिणे, न य जेमेइ, परूढमंसू जाओ, वत्ते वरिसारत्ते नीति राया, सबेवि रायाणो उवडिया, वीरओ पाएसु पडिओ, राया पुच्छइ-वीरओ दुबलोत्ति, बारवालेहिं कहियं जहावरी, रणो अणुकंपा जाया, अवारियपवेसो कओ वीरगस्स । वासुदेवो य किर सवाउ धूयाउ जाहे विवाहकाले पायदियाओ एंति ताहे पुच्छइ-किं पुत्ती! दासी होहिसि उदाहु सामिणित्ति, ताओ भणति-सामिणीओ होहामुत्ति, राया। भणइ-तो खायं पवयह भट्टारगरस पायमूले, पच्छा महया णिक्खमणसकारेण सक्कारियाओ पधयंति, एवं वचाइ कालो। अण्णया एगाए देवीए धूया, सा चिंतेइ-सबाओ पवाविज्जती, तीए धूया सिक्खाविया-भणाहि दासी होमित्ति, ताहेर सवालंकियविभूसिया उवणीया पुरिछया भणइ-दासी होमित्ति, वासुदेवो चिंतेइ-मम धूयाओ संसारं आहिंडंति तह य8 अण्णेहिं अवमाणिज्जति तो न लट्ठयं, एत्थं को उवाओ, जेण अण्णावि एवं न करेहित्ति चिंतेइ, लद्धो उवाओ, वीरगं । १वीरको कामलभमानः पुष्पछजिकया (द्वारपाखायाः) अर्चनं कृत्वा मजति दिने दिने, न च जेमति, प्रदश्मभुर्जातः, इसे पाराग्ने निर्गछति राजा, सर्वेऽपि राजान उपस्थिताः, वीरकः पादयोः पतिता, राजा पृच्छति-वीरक! दुषंठ इति, द्वारपालैः कथितं यथावृत्त, राशोऽनुकम्पा जाता, अवारितप्रवेशः तो धीरकप । वासुदेवश्च किल सर्या दुमितयंदा विवाहकाले पादवन्दका आयान्ति तदा पछति-किं पुत्रि! दासी भविष्यसि उताहो स्वामिनीति, ता भणन्ति-स्वामिन्यो भविष्याम इति, राजा भणति-तंदा स्वातं (प्रसिद) प्रबजत भट्टारकस्य पादभूले, पश्चान्महता निकमणसरकारेण 2 सत्कृताः प्रमजन्ति, एवं ब्रजति कालः । अन्यौकया देच्या दुहिता, सा चिन्तयति-सर्वाः प्रमाज्यन्ते, तया दुहिता शिक्षिता-भणेदासी भवामीति, तदा सर्वा लारविभूषितोपनीता पृष्टा भणति-वासी भवामीति, वासुदेवचिन्तयति-मम दुहितरः संसारं आहिण्डन्ते तथा चान्दै अचमन्यन्ते तदान कटं, मन्त्र कअपायो', नाम्या अपि एवं न कुर्युरिति चिन्तयति, सम्ध पाया, पीर दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~164 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] वन्दनाध्ययने वन्दनादिवन्दन दृष्टान्ता प्रत सूत्रांक 4-58 आवश्यक कापच्छह-अस्थि ते किंचि कयपुवयं ? भणइ-पत्थि, राया भगइ-चिंतेहि, तओ सुचिरं चिंतेत्ता भणइ-अस्थि, बयरीए हारिभद्रीया वारं सरडो सो पाहाणेण आहणेत्ता पाडिओ मओ य, सगडवट्टाए पाणियं वहतं वामपाएण धारियं उबेलाए गयं, पज- णपडियाए मच्छियाओ पविठाओ हत्थेण ओहाडिया व सुमुगुमंतीउ होउत्ति । बीए दिवसे अत्थाणीए सोलसण्हं रायसह ॥५१४ स्साणं मझे भणइ-मुणह भो! एयस्स वीरगस्स कुलुप्पत्ती सुया कम्माणि य, काणि कम्माणि ?, वासुदेवो भणइ-जेण रत्तसिरो नागो, वसंतो बयरीवणे । पाडिओ पुढविसत्थेण वेमई नाम खत्तिओ ॥१॥ जेण चकुक्खया गंगा, वहंती कलु-४ सोदयं । धारिया वामपाएणं वेमई नाम खत्तिओ॥२॥ जेण घोसवई सेणा, वसंती कलसीपुरे । धारिया वामहत्थेण, मई नाम खत्तिओ॥३॥ एयस्स धूयं देमित्ति, सो भणिओ-धूयं ते देमित्ति, नेच्छद, भिउडीकया, दिण्णा नीया य घरं, सयणिजे अच्छइ, इमो से सर्व करेइ, अण्णया राया पुच्छइ-किह ते वयणं करेइ, वीरओ भणइ-अहं सामिणीए पूछति-अस्ति तव किधिकृतपूर्ण, भणति-मालि, राजा भणति-चिन्तय, ततः सुचिरं चिन्तयित्वा भणति-अस्ति, पदाँ उपरि सरदास पाषाणे। नाहत्व पातितो मृतध, शकटवाया पानीयं वहन् वामपादेन इत्तं उद्देलया गतं, पायनघटिकायां मक्षिकाः प्रजिष्टा इमोनोकायित्रा गुभगुमायमाना भवन्विति ।। द्वितीये विचसे भास्थान्या पोशानो राजसहसाणा मध्ये भणति-गणुत भो एतस्य वीरकस्य कुलोपत्तिः श्रुता कर्माणि च, कानि कर्माणि, वासुदेवो भणति-देन रक्तधिारा नागो वसन बदरीयने । पातितः पृथ्वीशस्त्रेण ये मतिर्नाम (स पत्कृष्टः) क्षत्रियः ॥1॥ वेन चकोरक्षता गङ्गा बदन्ती कलुषोदकम् । वामपादेन एता वै मतिम क्षत्रियः ॥ २ ॥ येन घोषवती सेना वसन्ती कलशीपुरे । धृता वामहस्तेन वै मतिर्नाम अत्रियः ॥ ३॥ एतमै दुहितरं ददामि | इति, स भणिता-दुहितर ते बदामीति, मेच्छति, भूटी कृता, दत्ता नीता च गृहं, पायनीये तिष्ठति, अर्थ वसा सर्व करोति, सम्पदा राजा पृच्छति-कते वचनं करोति, वीरको भणति-अहं स्वामिन्या भो गुमुगुमंतीओ दीप 26% ANN अनुक्रम [९..] ॥५१४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११०४], भाष्यं [२०३...] प्रत 52- 54X4%A3%% सूत्रांक दासोत्ति, राया भणइ-सर्व जइ ण करावेसि तो ते णत्थि णिप्फेडओ, तेण रण्णो आकूयं णाऊणं घरगएणं भणियाजहा पजणं करेहित्ति, सा रुडा, कोलिया! अप्पयं ण याणसि ?, तेण उठेऊण रज्जुएण आहया, कूवंती रन्नो मूलं गया, पायवडिया भणइ-जहा तेणाई कोलिएण आहया, राया भणइ-तेणं चेवसि मए भणिया-सामिणी होहित्ति, तो दासी तणं मग्गसि, अहं एत्ताहे न सामि, सा भणइ-सामिणी होमि, राया भणइ-वीरओ जइ स मणिहिति, मोइया य पबइया । अरिडणेमिसामी समोसरिओ, राया णिग्गओ, सबे साहू बारसावत्तेण बंदर, रायाणो परिस्संता ठिया, वीरओ। वासुदेवाणुवत्तीए वंदर, कण्हो आबद्धसे भो जाओ, भट्टारओ पुच्छिओ-तिहिं सहेहिं सएहिं संगामाणं न एवं परिस्सतोमि भगवं!, भगवया भणियं-कण्हा ! खाइगं ते सम्मत्तमुप्पाडियं तिस्थगरनामगोत्तं च । जया किर पाए विद्धो तदा जिंदणगरणाए सत्तमाए पुढवीए बद्धेलयं आउयं उबेढंतेण तच्चपुढविमाणियं, जइ आउयं धरतो पढमपुढविमाणेतो, दास इति, राजा भणति-सवं यदि न कारयति तदा तब नाति निस्फेटः, तेन राज्ञ आकूतं ज्ञात्वा गृहगतेन भणिता-यथा पायनं कुर्विति, सा रुष्टा, कोकिक! आत्मानं न जानी?, तेनोत्थाय रस्वागता, कूजन्ती राज्ञो मूलं गता, पाइपतिता मणति-यया तेनाह कोलिकेनाहता, राजा भणति-तेनैचासि मया भणिता-स्वामिनी भवेति, तदा त्वं दासत्वं मार्गबसि, अहमधुना न बसामि (वां शामि) सा भणत्ति-स्वामिनी भवामि, राजा भणति-बीरको यदि स मस्पति, मोचिता प्रमजिता च । अरिएनेमिस्वामी समवभृतः, राजा निर्गतः, सर्वान् साधून हादपावन बन्यते, राजानः परिश्रान्ताः स्थिताः, चीरको वासुदे। बानुबया वन्दते, कृष्ण भावदखेदो जाता, भवारकः पृथ:-त्रिभिः पावधिकैः शतैः संप्रोमैः नैवं परिश्रान्तोऽखि भगवन् !, भगवता भनित-कृष्ण! क्षाषिक वया सम्यक्त्यमुत्पादित तीर्थकरनामगोत्रं च । बदा किक पादे विद्धस्तदा निन्दनगाभ्यो सप्लम्बो पृष्ठयां बद्धमायुरुदेश्यता तृतीयगृथ्वीमानीतं, यद्याबुरधारबिधा प्रथमपृथ्वीमानेष्मः, *सासामि ||७..|| दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] आवश्यक- हारिभद्रीया ॥५१५॥ प्रत सूत्रांक ||७..|| अण्णे भणति-इहेव चंदतेणति । भावकिइकम्मं वासुदेवस्स, दबकिइकम्मं वीरयस्स ३॥ इदानीं सेवकः, तत्र कथानकम्- वन्दनाएस रणो दो सेवया, तेसिं आलीणा गामा, तेसिं सीमानिमित्तेण भंडणं जाय, रायकुलं पहाविया, साह दिहो, एगो ध्ययने भणइ-भावेण 'साधुं दृष्ट्वा ध्रुवा सिद्धिः' पयाहिणीका वंदित्ता गओ, बितिओ तस्स किर उग्घडयं करेइ, सोऽवि वंदइन्द नादितहेव भणइ, ववहारो आबद्धो, जिओ, तस्स दवपूया, इयरस्स भावपूया ४॥ इदानी पालकः, तत्र कथानकम्बारवईए दृष्टान्ताः वासुदेवो राया, पालयसंवादओ से पुत्ता, णेमी समोसढो, वासुदेवो भणइ-जो कलं सामि पढम वंदइ तस्स अहंज मग्गइ तं देमि, संबंण सयणिज्जाओ उद्देत्ता वंदिओ, पालएण रजलोभेण सिग्घेण आसरयणेण गंतूण वंदिओ, सो किर 81 अभवसिद्धिओ वंदइ हियएण अकोसइ, वासुदेवो निग्गओ पुच्छइ-केण तुझे अज पढम वंदिया ?, सामी भणइ-दबओ पालएणं भावओ संवेणं, संबस्स तं दिण्णं ५॥एवं तावद्वन्दनं पर्यायशब्दद्वारेण निरूपितम् , अधुना यदुक्कै 'कर्तव्यं कस्य । वेति स निरूप्यते, तत्र येषां न कर्तव्यं तानभिधित्सुराह म्ये भणन्ति-दहव बन्धमानेनेति । भावकृतिकर्म वासुदेवख, इम्पकृतिकर्म वीरकस्य ॥ एकस राजो ही सेवकी, तयोरासमी प्रामी, तयोः सीमा-18 निमित्त भण्डनं जातं, राजकुलं प्रभाविती, साधुष्टः, एको भणति-भावेन प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा गतः, द्वितीयसय किलानुपर्तनं करोति, सोऽपि वन्दते, | तथैव भणति, व्यवहार मावस, जितः, तस्य वन्यपूजा इतरस्य भावपूजा । द्वारिकायां वासुदेचो राजा, पालकयाम्पादयतस्य पुत्राः, नेमिः समवस्तः, वासुदेवो भणति-यः कस्ये स्वामिनं प्रथमं पन्वते तसायहं यन्मार्गयति सददामि, शाम्बेन शयनीयाबुरथाय वन्दिता, पाककेन राज्यलोभेन शीघेणाकारलेन गत्वा में वन्दितः, स किलाभव्यसिद्धिको पन्दते हृदयेनाकोवाति, वासुदेवो निर्गतः पृच्छति-केन यूयमद्य प्रथम वन्दिताः, स्वामी भणति बन्यतः पालकेन भावत:18॥ ॥५१५॥ शाम्बेन, शाम्बाय तदर्स। दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०५], भाष्यं [२०३...] प्रत सूत्रांक ||७..|| असंजयं न वंदिजा, मायरं पिपरं गुरुं । सेणावई पसत्यारं, रायाणं देवयाणि य ॥ ११०५॥ व्याख्यान संयता असंयताः, अविरता इत्यर्थः, तान्न वन्देत, के-'मातरं जननी तथा 'पितरं' जनकम् , असंयतमिति वर्तते, प्राकृत्यशैल्या चाऽसंयतशब्दो लिङ्गत्रयेऽपि यथायोगमभिसंबध्यते, तथा 'गुरु' पितामहादिलक्षणम् , असं-| | यतत्वं सर्वत्र योजनीयं, तथा हस्त्यश्वरथपदातिलक्षणा सेना तस्याः पतिः सेनापतिः-गणराजेत्यर्थः, तं सेनापति, 'प्रशस्तार' प्रकर्षण शास्ता प्रशास्ता तं-धर्मपाठकादिलक्षणं, तथा बद्धमुकुटो राजाऽभिधीयते तं राजानं, दैवतानि च न वन्देत, देवदेवीसङ्ग्रहार्थं दैवतग्रहणं, चशब्दालेखाचार्यादिग्रहो वेदितव्य इति गाथार्थः ॥ ११०५॥ इदानीं यस्य वन्दनं कर्तव्य स उच्यते समणं वंदिन मेहावी, संजयं सुसमाहियं । पंचसमिय तिगुतं, अस्संजमदुगुंछगं ॥ ११०६ ॥ व्याख्या-श्रमणः-प्राग्निरूपितशब्दार्थः तं श्रमणं 'वन्देत' नमस्कुर्यात्, का?-'मेधावी' न्यायावस्थितः, स खलु| श्रमणः नामस्थापनादिभेदभिन्नोऽपि भवति, अत आह-संयत सम्-एकीभावेन यतः संयतः, क्रियां प्रति यलवानित्यर्थः। असावपि च व्यवहारनयाभिप्रायतो लग्ध्यादिनिमित्तमसम्पूर्णदर्शनादिरपि संभाव्यते, अत आह-'सुसमाहितं' दर्शनादिषु ४ सुष्टु-सम्यगाहितः सुसमाहितस्तं, सुसमाहितत्वमेव दयते-पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिः समितिभिः समितः पञ्चसमितस्तं त तिसृभिर्मनोगुस्यादिभिर्गुप्तिभिर्गुप्तस्तं त्रिगुप्त, प्राणातिपातादिलक्षणोऽसंयमः असंयम गर्हति-जुगुप्सतीत्यसंयमजुगुप्सका | स्तम्, अनेन दृढधर्मता तस्यावेदिता भवतीति गाथार्थः ॥११०६ ॥ आह-किमिति यस्य कर्तव्यं वन्दनं स एवादी दीप अनुक्रम % ACCOR [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~168 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा- ७...], निर्युक्ति: [११०६], भाष्यं [२०३...] आवश्यक है नोक्तः १, येन येषां न कर्तव्यं मात्रादीनां तेऽप्युक्ता इति उच्यते, सर्वपार्षदं हीदं शास्त्रं, त्रिविधाश्च विनेया भवन्ति केचि हारिभ- दुद्घटितज्ञाः केचिन्मध्यमबुद्धयः केचित्प्रपश्चितज्ञा इति, तत्र मा भूत्यपश्चितज्ञानां मतिः-उक्तलक्षणस्य श्रमणस्य कर्तव्यं ४ मात्रादीनां तु न विधिर्न प्रतिषेध इत्यतस्तेऽप्युक्ता इति, यद्येवं किमिति येषां न कर्तव्यं त एवादा उक्ता इति ?, अत्रोच्यते, ॥५१६॥ * हिताप्रवृत्तेरहितप्रवृत्तिर्गुरु संसारकारणमिति दर्शनार्थमित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः - श्रमणं वन्देत मेधावी संयतमित्युक्तं, तत्रेत्थम्भूतमेव वन्देत, न तु पार्श्वस्थादीन् तथा चाह द्रीया पंच किकम्मं मालामरुएण होह दिहंतो । वेरुलियनागदंसणणीयावासे य जे दोसा ॥ ११०७ ॥ व्याख्या--'पञ्चानां' पार्श्वस्थावसन्नकुशी उसंसकयथाच्छन्दानां 'कृतिकर्म' वन्दनकर्म न कर्तव्यमिति वाक्य शेषः, अयं च वाक्यशेषः 'श्रमणं वन्देत मेधावी संयत' मित्यादि ग्रन्थादवगम्यते, पार्श्वस्थादीनां यथोक श्रमणगुणविकलत्वात्, यथा संयतानामपि ये पार्श्वस्थादिभिः सार्द्ध संसर्गे कुर्वन्ति तेषामपि कृतिकर्म न कर्तव्यं, आह-कुतोऽयमर्थोऽवगम्यते ?, उच्यते, मालामरुकाभ्यां भवति दृष्टान्त इति वचनात्, वक्ष्यते च- 'अइडाणे पडिया' इत्यादि, तथा 'कणकुले' इत्यादि 'वेरुलिय'त्ति संसर्गजदोषनिराकरणाय वैडूर्यदृष्टान्तो भविष्यति, वक्ष्यति च- 'सुचिरंपि अच्छमाणो वेरुलिओ' इत्यादि, तत्प्रत्यवस्थानं च 'अॅबरस य निवस्स येत्यादिना सप्रपञ्चं वक्ष्यते, 'णाण'ति दर्शनचारित्रासेवनसामर्थ्यविकला ज्ञानन १ अशुचिस्याने पतिता २ श्वपाककुले ३ सुचिरमपि तिष्ठत् वैदूर्य ४ आग्रस्य च निम्बस च ३ वन्दनाध्ययने ~ 169~ वन्द्यावन्द्यविचारः ॥५१६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...', नियुक्ति: [११०७], भाष्यं [२०३...], प्रक्षेप [१] 0-5600-52-% प्रत सूत्रांक ||७..|| यप्रधाना एवमाहुः-ज्ञानिन एव कृतिकर्म कर्तव्यं, वक्ष्यते च-कामं चरणं भावो तं पुण णाणसहिओ समाणेइ । ण य नाणं तु न भावो तेण र णाणी पणिवयामो ॥१॥' इत्यादि, 'दंसण'त्ति ज्ञानचरणधर्मविकलाः स्वल्पसवा एवमाहु:दर्शनिन एव कृतिकर्म कर्तव्यं, वक्ष्यते च-जह णाणणं ण विणा चरणं णादंसणिस्स इय नाणं । न य दंसणं न भावो तेण र दिहिं पणिवयामो ॥१॥ इत्यादि, तथाऽन्ये सम्पूर्णचरणधर्मानुपालनासमर्था नित्यवासादि प्रशंसन्ति सङ्गमस्थविरोदाहरणेन, अपरे चैत्याधालम्बनं कुर्वन्ति, वक्ष्यते च-जाहेऽविय परितंता गामागरनगरपट्टणमडंता । तो केइ नीयवासी |संगमथेरं ववइसति ॥ १॥ इत्यादि, तदत्र नित्यवासे च ये दोषाः चशब्दात् केवलज्ञानदर्शनपक्षे च चैत्यभक्त्याऽऽर्यि कालाभविकृतिपरिभोगपक्षे च ते वक्तव्या इति वाक्यशेषः, एष तावद्गाथासंक्षेपार्थः ॥ साम्प्रतं यदुक्तं 'पञ्चानां कृतिकर्म: हैन कर्तव्यम्' अथ क एते पञ्च ?, तान् स्वरूपतो निदर्शयन्नाह पासत्थो ओसन्नो होइ कुसीलो तहेव संसत्तो। अहछेदोऽविय एए अवंदणिज्जा जिणमयंमि ॥१॥ (प्र०) । | व्याख्या-किलेयमन्यकर्तृकी गाथा तथाऽपि सोपयोगा चेति व्याख्यायते । तत्र पार्श्वस्थः दर्शनादीनां पार्षे तिष्ठ-N तीति पाश्वस्थः, अथवा मिथ्यावादयो बन्धहेतवः पाशाः पाशेषु तिष्ठतीति पाशस्था, 'सो पासस्थो दुविहो सवे देसे यर कामं चरणं भावसत् पुननिसहितः संपूरयति । न च ज्ञान नैव भावतस्मात् ज्ञानिनः प्रणिपतामि ॥३॥ यथा ज्ञानेन न विना चरणं नादयोनिन इति ज्ञानम् । न च दर्शनं न भावसम्मात् ! दृष्टिमत्तः प्रपिषतामि ॥१॥ ३ पदापि च परितान्ता मामाकरनगरपत्तनमरन्तः । ततः केचित नित्यवासिनः संगमस्थविर व्यपदिशान्ति ॥100)स पार्थस्थो द्विविधा-सर्वमिन् देशे च SASARGAMANAKAMAL दीप अनुक्रम [९..] -627 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | पासत्था आदि पञ्चानां वक्तव्यता ~170 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति : [११०७...], भाष्यं [२०३...], प्रक्षेप [१] वन्दनाध्ययने अवन्धस्वरूपं - - प्रत सूत्रांक आवश्यक- होई णायबो । सर्वमि णाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ॥१॥ देसमि य पासत्थो सिज्जायरऽभिहड रायपिंडं वा । णिययं हारिभ- च अग्गपिंडं भुजति णिकारणेणं च ॥२॥ कुलणिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि य अकारणे विसइ । संखडिपलोयणाए द्रीया गच्छइ तह संधर्व कुणई ॥३॥ अवसन्नः-सामाचार्यासेवने अवसन्नवदवसन्नः, 'ओसन्नोऽविय दुविहो सके देसे य तत्व सबंमि । उउबद्धपीढफलगो ठवियगभोई य णाययो॥१॥ देशावसन्नस्तु-'आवस्सगसज्झाए पडिलेहणझाणभिक्खऽभ॥५१७॥ दत्तट्टे । आगमणे णिग्गमणे ठाणे य णिसीयणतुयट्टे ॥शा आवस्सयाइयाईण करे करेइ अबावि हीणमधियाई । गुरुवयण*बलाइ तधा भणिओ एसो य ओसनो ॥२॥ गोणो जहा वलंतो भंजइ समिलं तु सोऽवि एमेव । गुरुवयणं अकरेंतो बलाइ कुणई व उस्सूण्णो ॥३॥ भवति कुशीला' कुत्सितं शीलमस्येति कुशीला,-तिविहो होइ कुसीलो णाणे तह दसणे चरित्ते य । एसो अवंदणिज्जो पन्नत्तो बीयरागेहिं ॥१॥णाणे णाणायारं जो उ विराहेद कालमाईयं । दसणे GHAGALASSAGAR - ||७..|| - दीप अनुक्रम [९..] भवति ज्ञातम्यः । सर्वमिान् शानदर्शनचरणानां वस्तु पार्थे ॥1॥ देशे च पार्थस्थः शय्यातराण्याहते राजपिण्वं पा । नित्यं चाप्रपिर्ट भुनक्ति निष्कारणेन च ॥ २॥ कुल निश्चया विहरति स्थापनाकुलानि चाकारणे विवाति । संखदीपलोकनया गच्छति तथा संसर्व करोति ॥३॥९अवसभोऽपि व द्विविधः सर्वस्मिन् देशे च तत्र सर्वमिन् । कतुवबपीठफलक स्थापितमोजी च ज्ञातव्यः ॥१॥ आवश्यकस्वाध्याययोः प्रतिलेखनायां ध्याने भिक्षावामभक्कार्थे । आगमने निर्गमने स्थाने पनिषीदने ववने ॥१॥ आवश्षकादीनि न करोति अथवाऽपि करोति हीनाधिकानि (वा)। गुरुवचनबलात्तथा भणित एष चावसनः ॥ २ ॥ गौर्यया बलान् भवक्ति समिला तु सोऽस्येवमेव । गुरुवचनमकुर्वन् बलात् करोति वावसनः॥३॥ विविधो भवति कुशीलो ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च । एषोऽवन्दनीयः प्रज्ञप्तो वीतरागैः ॥१॥हाने ज्ञानाचार यस्तु विराधयति कालादिकम् । दर्शने णेि व प्र. "अस्सोवं 44-4214 ॥५१७॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०७...], भाष्यं [२०३...], प्रक्षेप [१] प्रत दसणायारं चरणकुसीलो इमो होइ ॥ २॥ कोउय भूईकम्मे पसिणापसिणे णिमित्तमाजीवे । कककुरुए य लक्खण उवजीव विजमताई ॥३॥ सोभग्गाइणिमित्तं परेसि ण्हवणाइ कोउयं भणियं । जरियाइ भूइदाणं भूईकम्म विणिदिई ॥४॥ सुविणयविज्जाकहियं आईखणिघंटियाइकहियं वा । जं सासइ अन्नेसि पसिणापसिण हवइ एयं ॥५॥तीयाइभावकहणं होइ णिमित्तं इमं तु आजीवं । जाइकुलसिप्पकम्मे तवगणसुत्ताइ सत्तविहं ॥ ६॥ कककुरुगा य माया णियडीए जं भणति तं भणियं । थीलक्खणाइ लक्खण विजामताइया पयडा ॥७॥' 'तथैव संसक्त' इति यथा पार्श्वस्थादयोऽव-| न्यास्तथाऽयमपि संसक्तवत् संसक्तः, तं पार्श्वस्थादिकं तपस्विनं वाऽऽसाद्य सन्निहितदोषगुण इत्यर्थः, आह च-'संसत्तो य इदाणी सो पुण गोभत्तलंदए चेव । उचिमणुच्चि जं किंची छुन्भई सबं ॥१॥ एमेव य मूलुत्तरदोसा य गुणा य जत्तिया केइ । ते तम्मिवि सन्निहिया संसत्तो भण्णई तम्हा ॥२॥ रायविदूसगमाई अहवावि णडो जहा उ बहुरूवो। सूत्रांक ||७..|| दीप अनुक्रम [९..] दर्शनाचार परणकशीलोऽयं भवति ॥ ३॥ कौतुकं भूतिकर्म प्रश्नाप्रश्नं निमित्तमाजीव । काकाका लक्षणं उपजीवति विद्यामबादीन् ॥३॥ | सौभाग्यादिनिमिर्त परेषां सपनादि कौतुकं मणितम् । ज्वरितादये भूतिदानं भूतिकर्म विनिर्दिष्टम् ॥ ४॥ स्वमविद्याकथितमाइदिनीपष्टिकादिकथितं वा । यत शास्ति बन्येभ्यः प्रमाण भवस्येतत् ॥ ५॥ अतीतादिभावकथनं भवति निमित्तमिदं त्याजीवनम् । जातिकुल शिल्पकर्माणि तपोगणसूत्राणि सप्तविधम् ॥ ६ ॥ कल्ककुहुका च माया निकृत्या बनमन्ति तमणितम् । खीलक्षणादि लक्षणं विद्यामन्त्रादिकाः भकटाः ॥ ७॥ संसक्तवेदानी स पुनगोभक्तलन्दके चैव । इच्छिटमनुच्छिष्टं यत्किञ्चित् क्षिप्यते सर्वम् ॥ ३ ॥ एवमेव च मूलोत्तरदोषान गुणाश्च यावन्तः केचित् । ते तस्मिन् सनिहिताः संसको भण्वते तसात् ॥ २॥ राजविदूषकादयोऽथवापि नटो यथा तु बहुरूपः । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥५१८॥ [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [ गाथा ...] निर्युक्तिः [११०७...] भाष्यं [२०३ ...] प्रक्षेप [१] अहवा वि मेलगो जो हलिद्दरागाइ बहुवण्णो ॥ ३ ॥ एमेव जारिसेणं सुद्धममुद्धेण वाऽवि संमिलइ । तारिसओ चिय होति संसत्तो भण्णई तम्हा ॥ ४ ॥ सो दुविकप्पो भणिओ जिणेहि जियरागदोसमोहेहिं । एगो उ संकिलिडो असंकिलिट्ठो तहा अण्णो ॥ ५ ॥ पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो । इत्थिगिहिसंकिलिडो संसत्तो किलिडो उ ॥ ६ ॥ पासस्थाईए संविग्गेसुं च जत्थ मिलती उ । तहि तारिसओ भवई वियधम्मो अहव इयरो उ ॥ ७ ॥ एषोऽसंक्लिष्टः, 'यथाछन्दोऽपि च' यथाछन्दः - यथेच्छयैवागमनिरपेक्षं प्रवर्तते यः स यथाच्छन्दोऽभिधीयते, उक्तं च- "उस्सुत्तमायरंतो उस्मुत्तं चैव पद्मवेमाणो । एसो उ अहाछंदो इच्छा छंदोत्ति एगडा ॥ १ ॥ उस्मुत्तमणुवदि सच्छेदविगप्पियं अणणुवाइ । परतति पवर्त्तिति णेओ इणमो अहाछंदो ||२|| सच्छंदमइविगप्पिय किंची सुहसायबिगइपडिबद्धो । तिहिगार बेहिं मज्जइ तं जाणाही अहार्छदं ॥ ३ ॥ एते पार्श्वस्यादयोऽवन्दनीयाः, क ? - जिनमते, न तु लोक इति गाथार्थः ॥ अथ पार्श्वस्थादीन् वन्दमानस्य को दोष इति ?, उच्यते- 3 अथवाऽपि मेलको यो हरिद्वरागादिः बहुवर्णः ॥ ३ ॥ एवमेव पाशेन शुद्धेनाशुद्धेन वाऽपि संवसति । तादृश एव भवति संसको भण्यते तात् ॥ ४ ॥ स द्विविकल्प भणितो जिनैर्जितरागद्वेषमोहैः । एकस्तु संतिष्टोऽसंष्टिस्तथाऽन्यः ॥ ५ ॥ पञ्चाश्रवप्रवृत्तो यः सतु विभिगौरवैः प्रतिबद्धः स्त्रीगृहि भिः संसिंका संष्टिः स तु ॥ ६॥ पार्थस्यादिकेषु संविशेषु च यत्र मिलति तु तत्र तादृशो भवति धिमी अथवा इतरस्तु ॥ ७ ॥ २ सूत्रमाचरन् उत्सूत्रमेव प्रज्ञापयत्। एष तु यथाच्छन्द इच्छाउन्द इति एकार्थों ॥ १ ॥ उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वच्छन्दविकल्पितमननुपाति । परतहिं प्रवर्तयति योऽयं यथाच्छन्दः ॥ २ ॥ स्वच्छन्दमतिविकल्पितं किञ्चित्सुखात विकृतिप्रतिबद्धः । त्रिभिगौरवमद्यति तं जानाहि यथाच्छन्दम् ॥ ३ ॥ ३ वन्दना ध्ययने ~ 173 ~ अवन्द्यस्वरूपं ॥ ५१८॥. पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११०८], भाष्यं [२०३...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| पासस्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती न निजरा होइ । कायकिलेसं एमेव कुणई तह कम्मपंधं च ।। ११०८॥ __व्याख्या-'पार्श्वस्थादीन' उक्तलक्षणान 'वन्दमानस्य' नमस्कुर्वतो नैव कीर्तिन निर्जरा भवति, तत्र कीर्ति:-अहो अयं पुण्यभागित्येवलक्षणा सा भवति, अपि त्वकीर्तिर्भवति, नूनमयमध्येवस्वरूपो येनैषां चन्दनं करोति, तथा निर्जरणं | निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा सा न भवति, तीर्थंकराज्ञाबिराधनाद्वारेण निर्गुणत्वात्लेषामिति, चीयत इति कायः-देहस्तस्य क्लेशः-अवनामादिलक्षणः कायक्लेशस्तं कायक्लेशम् 'एवमेव' मुधैव 'करोति' निर्वतयति, तथा क्रियत इति कर्म| ज्ञानावरणीयादिलक्षणं तस्य बन्धो-विशिष्टरचनयाऽऽत्मनि स्थापनं तेन वा आत्मनो बन्धः-स्वस्वरूपतिरस्करणलक्षणः कर्मबन्धस्तं कर्मबन्ध च करोतीति वर्तते, चशब्दादाज्ञाभङ्गादींश्च दोषानवामुते, कथं -भगवत्प्रतिकुष्टवन्दने आज्ञाभङ्गः, तिं दृष्टाऽन्येऽपि वन्दन्तीत्यनवस्था, तान् वन्दमानान् रष्ट्राऽन्येषां मिथ्यात्वं, कायक्लेशतो देवताभ्यो वाऽऽत्मविराधना, तद्वन्दनेन तत्कृतासंयमानुमोदनात्संयमविराधनेति गाथार्थः ॥११०८ ॥ एवं तावत्पावस्थादीन वन्दमानस्य दोषा उक्ताः, साम्प्रतं पार्श्वस्थानामेव गुणाधिकवन्दनप्रतिषेधमकुर्वतामपायान् प्रदर्शयन्नाह जे बंभचेरभट्ठा पाए उइंति बंभयारीणं । ते होंति कुंटमंटा पोही य सुदुल्लहा तेर्सि ॥११०९॥ व्याख्या-ये-पार्श्वस्थादयो भ्रष्टब्रह्मचर्या अपगतब्रह्मचर्या इत्यर्थः, ब्रह्मचर्यशब्दो मैथुनविरतिवाचकः, तथौषतः संयमवाचकश्च, 'पाए उडिंति भयारीण' पादावभिमानतो व्यवस्थापयन्ति ब्रह्मचारिणां वन्दमानानामिति, न तद्वन्दननिषेधं कुर्वन्तीत्यर्थः, ते तदुपातकर्मजं नारकत्वादिलक्षणं विपाकमासाद्य यदा कथञ्चित्कृच्छ्रेण मानुषत्वमासादयन्ति दीप अनुक्रम MARCH [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~174. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११०९], भाष्यं [२०३...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५१९॥ तदाऽपि भवन्ति कोटमण्टाः 'बोधिश्च' जिनशासनावबोधलक्षणा सकलदुःखविरेकभूता सुदुर्लभा तेषां, सकृत्प्राप्ती सत्या ३ वन्दना| मप्यनन्तसंसारित्वादिति गाथार्थः ॥ ११०९ ॥ तथा-- ध्ययने अवन्द्यवसुडुतरं नासंती अप्पाणं जे चरित्तप-भट्ठा । गुरुजण वंदाविती मुसमण जहुत्तकारिं च ॥ १११० ॥ दारं ॥ |न्दनेदोषाः | व्याख्या-'सुहृत'ति सुतरां नाशयन्त्यात्मानं सन्मार्गात् , के ?-ये चारित्रात्-प्राग्निरूपितशब्दार्थात् प्रकर्षण भ्रष्टाःअपेताः सन्तः 'गुरुजन' गुणस्थसुसाधुवर्ग 'वन्दयन्ति' कृतिकर्म कारयन्ति, किम्भूतं गुरुजनं ?-शोभनाः श्रमणा यस्मिन् स सुश्चमणस्तं, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, तथा यथोक्त क्रियाकलापं कर्तुं शीलमस्येति यथोक्तकारी तं यथोक्तकारिणं | चेति गाथार्थः॥१११० ॥ एवं वन्दकवन्द्यदोषसम्भवात्पार्थस्थादयो न वन्दनीयाः, तथा गुणवन्तोऽपि ये तैः सार्द्ध संसर्ग कुर्वन्ति तेऽपि न वन्दनीयाः, किमित्यत आह असुइटाणे पडिया चंपगमाला न कीरई सीसे । पासस्थाईठाणेसु बमाणा तह अपुजा ॥ ११११ ॥ व्याख्या-यथा 'अशुचिस्थाने' विप्रधाने स्थाने पतिता चम्पकमाला स्वरूपतः शोभनाऽपि सत्यशुचिस्थानसंसर्गान्न, [क्रियते शिरसि, पार्श्वस्थादिस्थानेषु वर्तमानाः साधवस्तथा 'अपूज्याः' अवन्दनीयाः, पार्श्वस्थादीनां स्थानानि-वसतिनिगेमभूम्यादीनि परिगृह्यन्ते, अन्ये तु शय्यातरपिण्डाद्युपभोगलक्षणानि व्याचक्षते यत्संसर्गात्पार्श्वस्थादयो भवन्ति, न चैतानि सुष्टु घटन्ते, तेषामपि तद्भावापत्तेः, चम्पकमालोदाहरणोपनयस्य च सम्यगघटमानत्वादिति । अत्र कथानक दीप अनुक्रम [९..] ॥५१९॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११११], भाष्यं [ २०३...], एंगो चंपकष्पिओ कुमारी चंपगमालाए सिरे कयाए आसगओ बच्चइ, आसेण उद्भूयस्स सा चंपगमाला अमेोपडिया, गिण्हामित्ति अभिज्नं दण मुक्का, सो य चंपएहिं विणाधितिं न लभइ, तहावि ठाणदोसेण मुक्का । एवं चंपगमालत्थाणीया साहू अभिज्झत्थाणिया पासत्थादयो, जो विसुद्धो तेहिं समं मिलइ संवसर वा सोऽवि परिहरणिजो ॥ अधिकृतार्थप्रसाधनायैव दृष्टान्तान्तरमाह पक्कणकुले वसंतो सउणीपारोऽवि गरहिओ होइ। इय गरहिया सुविहिया मज्झि वसंता कुसीलाणं ।। १११२ ॥ व्याख्या - पकणकुलं - गर्हितं कुलं तस्मिन् पकणकुले वसन् सन्, पारङ्गतवानिति पारगः, शकुन्याः पारगः, असावपि 'गर्हितो भवति' निन्द्यो भवति, शकुनीशब्देन चतुर्दश विद्यास्थानानि परिगृह्यन्ते, “अङ्गानि चतुरो वेदा, मीमांसा न्यायविस्तरः । पुराणं धर्मशास्त्रं च, स्थानान्याहुश्चतुर्दश ॥ १ ॥ तत्राङ्गानि पद्, तद्यथा- 'शिक्षा कल्पो व्याकरणं, छन्दो ज्योतिर्निरुक्तयः' इति, 'इय' एवं गर्हिताः 'सुविहिताः साधवो मध्ये वसन्तः 'कुशीवानां' पार्श्वस्थादीनाम् । अत्र कथानकम्---ऍगस्स धिज्जाइयस्स पंच पुत्ता सउणीपारगा, तत्थेगो मरुगो एगाए दासीए संपलग्गो, सा मज्जं पिवइ, इमो न १ कम्पप्रियः कुमारः चम्पकमालायां शिरसि कृतायामागतो मजति भवेनोद्ते सा चम्पकमालाऽमेध्ये पतिता, गृद्धामीति अमेध्यं दृट्टा गुफा, स च चम्पानि समते, तथापि स्थानदोषेण मुक्ता एवं चम्पकमालाखानीयाः साधवः अमेध्यस्थानीयाः पार्श्वस्वादयः, यो विशुद्धः समं मिलति संघसति वा सोऽपि परिहरणीयः २ एकस्य धिग्जातीय पत्र पुत्राः शकुनीपारगाः, सत्रको माहान एकस्य दायां संलग्नः, सा मद्यं पिबति, अयं न पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [१११२], भाष्यं [२०३...], आवश्यक हारिभद्रीया ॥५२०॥ प्रत सूत्रांक ||७..|| पिबइ, तीए भण्णइ-जइ तुमंण पिबसि तो ण णेहो, सो (सा) भणइ-रत्ती होज्जा, इयरहा विसरिसो संजोगुत्ति, एवं सो बहुसोडा वन्दनाभणतीए पाइतो, सो पढम पच्छण्णं पिवइ, पच्छा पायडंपि पिबिउमाढतो, पच्छा अइपसंगेण मजमंसासी जाओ, पक्कणेहिं| ध्ययने सह लोट्टेउमाढत्तो, तेहिं चेव सह पिवइ खाइ संवसइ य, पच्छा सो पितुणा सयणेण य सबबग्झो अपवेसो कओ, | दोषगुणाः अण्णया सो पडिभग्गो, बितिओ से भाया सिणेहेण तं कुडिं पविसिऊण पुच्छइ देइ य से किंचि, सो पितुणा उवलंभिऊण णिच्छूढो, तइओ बाहिरपाडए ठिओ पुच्छा विसजेइ से किंचि, सोवि णिच्छूढो, चउत्थो परंपरपण दवावेद, सोवि णिच्छूढो, पंचमो गंधपि ण इच्छइ, तेण मरुगेण करणं चडिऊण सबस्स घरस्स सो सामीकओ, इयरे चत्तारिवि बाहिरा कया लोगगरहिया जाया । एस दिईतो, उवणओ से इमो-जारिसा पक्कणा तारिसा पासस्थाई जारिसो धिजाइओ तारिसो आयरिओ जारिसा पुत्ता तारिसा साहू जहा ते णिच्छूढा एवं णिच्छुब्भंति कुसीलसंसम्गि करिता गरहिया य पिबति, तथा भग्यते यदि त्वं न पिबसि न बेहा, स(सा) भणति रात्री (रतिः) भवेत् , हतरथा विसरपाः संयोग इति, एवं स बहुशोभणम्त्या सया। पाथितः, स प्रथम प्रश्न मिति, पानासकटमपि पातुमारब्धः पश्चात् अतिप्रसङ्गेन मद्यमांसाशी जाता, पाका सह अमितुमारब्धः,ते। सहव खादति पिबति संवसति च, पनात् स पित्रा खजनेन च सर्वचाशः अप्रवेशः कृतः, अम्बड़ा स प्रतिभन्नः, द्वितीयलय भ्राता नेहेन तो कुर्टीप्रविश्य पृच्छति ददाति च तसै। किञ्चित् , स उपालभ्य पित्रा निष्काशितः, तृतीयो बाझपाटके स्थितः पृच्छति विसृजति च तस्मै किशित, सोऽपि निष्काशितः, चतुर्थः परम्परकेण दापयति, ५२०॥ सोऽपि निष्काशितः, पनमो गन्धमपि नेच्छति, तेन मरुकेण न्यायालये गत्वा सर्वस्य गृहस्य स स्वामीकृतः, इतरे चत्वारोऽपि बाझाः कृता लोकगर्हिता जाताः एप स्टान्तः, उपनयोऽस्वार्थ-यारशाखाण्यालासाहशाः पासंस्थादयो याग धिम्जातीयस्ताहगाचार्यः वाहमा पुवालारशा साधता वथा ते निष्काशिता एवं निष्काश्यन्ते कुशीलसंसर्ग कुर्वन्तः गर्हिताच दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~177 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [१११३], भाष्यं [२०३...], प्रत सूत्रांक ||७..|| पवयणे भवति, जो पुण परिहरइ सो पुज्जो साइयं अपजवसियं च णेवाणं पावइ, एवं संसग्गी विणासिया कुसीलेहिं । उक्त च-'जो जारिसेण मित्तिं करेइ अचिरेण(सो)तारिसो होइ ! कुसुमेहिं सह वसंता तिलावि तम्गंधया होति ॥१॥' मरु-1 दाएत्ति दिईतो गओ, व्याख्यातं द्वारगाथाशकलम् , अधुना वैडूर्यपदव्याख्या, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पार्श्वस्थादिसंसर्ग दोषादवन्दनीयाः साधवोऽप्युक्ताः, अत्राह चोदकः कः पार्श्वस्थादिसंसर्गमात्राद्गुणवतो दोषः, तथा चाह| सुचिरंपि अच्छमाणो बेरुलिओ कायमणीयउम्मीसो । नोवेइ कायभावं पाहण्णगुणेण नियएणं ॥ १११३ ॥ | व्याख्या-'सुचिरमपि प्रभूतमपि कालं तिष्ठन् वैडूर्यः-मणिविशेषः, काचाश्च ते मणयश्च काचमणयः कुत्सिताः काचमणयः काचमणिकास्तरुत्-प्रावल्येन मिश्रः काचमणिकोन्मिश्रः 'नोपैति' न याति 'काचभाव' काचधर्म 'प्राधान्यगुणेन' वैमल्यगुणेन 'निजेन आत्मीयेन, एवं सुसाधुरपि पार्श्वस्थादिभिः सार्द्ध संवसन्नपि शीलगुणेनात्मीयेन न पार्श्वस्थादिभा-1 यमुपैति, अयं भावार्थ इति गाथार्थः ॥ १११३ ॥ अत्राहाऽऽचार्य-यत्किविदेतत्, न हि दृष्टान्तमात्रादेवाभिलपिताथसिद्धिः संजायते, यतःभावुगअभावुगाणि य लोए दुविहाणि होति दव्याणि । बेरुलिओ तत्थ मणी अभावुगो अन्नदब्वेहि ॥१११४॥ व्याख्या-भाव्यन्ते प्रतियोगिना स्वगुणैरात्मभावमापाद्यन्त इति भाव्यानि-कबेलुकादीनि,प्राकृतशैल्या भावुकान्युच्यन्ते, अथवा प्रतियोगिनि सति तद्गुणापेक्षया तथाभवनशीलानि भावुकानि, लपपतपदस्थाभूपेत्यादावुकञ् (पा.३-२-१५४) तस्य प्रवचने भवन्ति, यः पुनः परिहरति स पाया साचपर्यवसानं च निर्वाण प्रामोति, एवं संसगी विनाशिका कुशीतः । पारदोन मैत्री करोति अधिरपण (स.) तापो भवति । सुमैः सह वसम्तः तिला अपि तवूगन्धिका भवन्ति । 11मरुक इति स्टांतो गतः स्यादा शि'यो प्र० दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] आवश्यकहारिभद्रीया ॥५२१ ॥ [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१९११४], भाष्यं [ २०३...], ताच्छीलिकत्वादिति, तद्विपरीतानि अभाव्यानि च नलादीनि लोके 'द्विविधानि द्विप्रकाराणि भवन्ति 'द्रव्याणि वस्तूनि, वैडूर्यस्तत्र मणिरभाव्यः 'अन्यद्रव्यैः' काचादिभिरिति गाथार्थः ॥ १११४ ॥ स्यान्मतिः- जीवोऽप्येवम्भूत एव भविष्यति न पार्श्वस्थादिसंसर्गेण तद्भावं यास्यति, एतच्चासत्, यतः --- जीवो अणाइनिहणो तन्भावणभाविओ य संसारे । खिष्पं सो भाविज्जइ मेलणदोसाणुभावेणं ॥ १११५ ।। व्याख्या- 'जीवः' प्राग्निरूपितशब्दार्थः, स हि अनादिनिधनः अनाद्यपर्यन्त इत्यर्थः, 'तद्भावनाभावितश्च' पार्श्वस्थाखाश्चरितप्रमादादिभावनाभावितश्च 'संसारे' तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिलक्षणे, ततश्च तद्भावनाभावितत्वात् 'क्षिप्रं शीघ्रं स 'भाव्यते' प्रमादादिभावनयाऽऽत्मीक्रियते 'मीलनदोषानुभावेन' संसर्गदोषानुभावेनेति गाथार्थः ॥ १११५ ॥ अथ भवतो दृष्टान्तमात्रेण परितोषः ततो मद्विवक्षितार्थप्रतिपादकोऽपि दृष्टान्तोऽस्त्येव, शृणु अंबरस य निंबस्स य दुण्हंपि समागयाई मूलाई । संसग्गीह विणडो अंबो नित्तणं पत्तो ॥ १११६ ।। व्याख्या - चिरपतिततिक्त निम्बोदकवासितायां भूमौ आम्रवृक्षः समुत्पन्नः पुनस्तत्राऽऽम्रस्य च निम्बस्य च द्वयोरपि 'समागते' एकीभूते मूले, ततश्च 'संसर्ग्या' सङ्गत्या विनष्ट आम्रो निम्बत्वं प्राप्तः- तिक्तफलः संवृत्त इति गाथार्थः ॥ १११६ ॥ तदेवं संसर्गिदोषदर्शनाच्याज्या पार्श्वस्थादिसंसर्गिरिति । पुनरप्याह चोदकः- नन्वेतदपि सप्रतिपक्षं, तथाहि[सुचिरंषि अच्छमाणो नलथंभो उच्छुवाडमज्झमि । कीस न जाय महुरो ? जइ संसग्गी पमाणं ते ॥ १११७ ॥ व्याख्या- 'सुचिरमपि' प्रभूतकालमपि तिष्ठन् 'नलस्तम्बः' वृक्षविशेषः 'दक्षुवाटमध्ये' इक्षुसंसर्ग्या किमिति न जायते ‍वन्दनाध्ययने संसर्गजा दोषगुणाः ~ 179~ ॥५२१॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [१११७], भाष्यं [२०३...], प्रत सूत्रांक ||७..|| मधुरः ?, यदि संसर्गी प्रमाणं तवेति गाथार्थः ॥ १११७ ॥ आहाचार्यः-ननु विहितोत्तरमेतत् 'भावुग अभावुगाणि या इत्यादिग्रन्थेन, अत्रापि च केवली अभाव्यः पार्श्वस्थादिभिः, सरागास्तु भाव्या इति । आह-तैः सहाऽऽलापमात्रतायां संसग्याँ क इव दोष इति ?, उच्यते ऊणगसयभागेणं चिंचाई परिणमंति तब्भावं । लवणागराइसु जहा बजेह कुसीलसंसरिंग ॥१११८ ॥ व्याख्या-ऊनश्चासौ शतभागश्चोनशतभागोऽपि न पूर्यत इत्यर्थः, तेन तावताशेन प्रतियोगिना सह सम्बद्धानीति प्रक्रमाद्गम्यते 'बिम्बानि' रूपाणि 'परिणमन्ति' तद्भावमासादयन्ति लवणीभवन्तीत्यर्थः, लवणागरादिषु यथा, आदि-1 शब्दाद्भाण्डखादिकारसादिग्रहः, तत्र किल लोहमपि तद्भावमासादयति, तथा पार्श्वस्थाद्यालापमात्रसंसाऽपि सुविहि-ह तास्तमेव भावं यान्ति, अतः 'बजेह कुसीलसंसरिंग' त्यजत कुशीलसंसर्गिमिति गाथार्थः ॥ १११८ ॥ पुनरपि संसगिदोपप्रतिपादनायैवाऽऽह जह नाम महुरसलिलं सायरसलिलं कमेण संपत्तं । पावेइ लोणभावं मेलणदोसाणुभावेणं ॥ १११९ ।। । व्याख्या-'यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः 'नामेति निपातः 'मधुरसलिल' नदीपयः तल्लवणसमुद्रं 'क्रमण' परिपाट्या सम्प्राप्त सत् 'पावेइ लोणभावं प्राप्नोति--आसादयति लवणभाव-क्षारभावं मधुरमपि सन्, मीलनदोषानुभावेनेति द गाथार्थः ॥ १११९ ॥ एवं खु सीलवतो असीलबतेहिं मीलिओ संतो। पावइ गुणपरिहाणि मेलणदोसाणुभावेणं ॥ ११२० ।। दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११२०], भाष्यं [२०३...], % आवश्यकहारिभद्रीया -% प्रत सूत्रांक ॥५२२॥ S ||७..| व्याख्या-खुशब्दोऽवधारणे, एवमेव शीलमस्यास्तीति शीलवान स खलु 'अशीलवनि पार्थस्थादिभिः साई मीलितः वन्दना Aध्ययन सन् 'प्रामोति' आसादयति गुणा-मूलोत्तरगुणलक्षणास्तेषां परिहाणिः-अपचयः गुणपरिहाणिः तां, तथैहिकांश्चापायांस्त संसर्गजा स्कृतदोषसमुत्थानिति, मीलनदोषानुभावेनेति गाथार्थः ॥ ११२०॥ यतश्चैवमतः दोषगुणाः वणमवि न खमं काउं अणाययणसेवणं सुविहियाणं । हंदि समुद्दमइगयं उदयं लवणतणमुवेइ ॥ ११२१ ॥ व्याख्या-लोचननिमेषमात्रः कालः क्षणोऽभिधीयते, तं क्षणमपि, आस्तां तावन्मुहूर्तोऽन्यो वा कालविशेषः, 'न क्षम न योग्य, किं ?-कार्ड अणाययणसेवणं'ति कर्तु-निष्पादयितुम् अनायतन-पावस्थाद्यायतनं तस्य सेवन-भजनम् अनाय|तनसेवन, केषां :-'सुविहितानां साधूनां, किमित्यत आह-'हन्दि' इत्युपदर्शने, समुद्रमतिगतं लवणजलधि प्राप्तम् 'उदक। मधुरमपि सत् 'लवणत्वमुपैति' क्षारभावं याति, एवं सुविहितोऽपि पार्श्वस्थादिदोपसमुद्र प्राप्तस्तद्भावमामोति, अतः परलोकार्थिना तत्संसर्गिस्त्याज्येति, ततश्च व्यवस्थितमिदं-येऽपि पार्श्वस्थादिभिः साई संसांग कुर्वन्ति तेऽपि न वन्दनीयाः, सुविहिता एव वन्दनीया इति ॥ अत्राऽऽह ॥५२२॥ सुविहिय दुबिहियं वा नाहं जाणामि है खु छउमत्थो। लिंगं तु पूययामी तिगरणसुद्धेण भावेणं ॥ ११२२ ॥ व्याख्या-शोभनं विहितम्-अनुष्ठानं यस्यासौ सुविहितस्तम्, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, दुर्विहितस्तु पार्श्वस्थादिस्त दुर्विहितं वा 'नाहं जानामि' नाहं वेद्मि, यतः अन्तःकरणशुझ्यशुद्धिकृतं सुविहितदुर्विहितत्वं, परभावस्तु तत्वतः सर्वे SS दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~181 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११२२], भाष्यं [२०३...], प्रत सूत्रांक ||७..|| ज्ञविषयः, 'अहं खु छउमत्थी'त्ति अहं पुनश्छद्मस्था, अतो 'लिङ्गमेव' रजोहरणगोच्छप्रतिग्रहधरणलक्षणं 'पूजयामि' वन्देही इत्यर्थः, 'त्रिकरणशुद्धेन भावेन' वाकायशुद्धेन मनसेति गाथार्थः ॥ ११२२ ॥ अत्राचार्य आह| जहते लिंग पमाण वंदाही निण्हवे तुमे सब्वे । एए अवंदमाणस्स लिंगमधि अप्पमाणं ते ॥११२३ । । । व्याख्या-'यदी'त्ययमभ्युपगमप्रदर्शनार्थः 'ते' तव लिङ्ग-द्रव्यलिङ्गम् , अनुस्वारोऽत्र च लुप्तो वेदितव्यः, प्रमाणकारणं वन्दनकरणे, इत्थं तर्हि 'वन्दस्व' नमस्य 'निहवान्' जमालिप्रभृतीन् त्वं 'सर्वान्' निरवशेषान् , द्रव्यलिङ्गयुक्तत्वात् तेषामिति, अर्थतान् मिथ्यादृष्टित्वान्न वन्दसे तत् ननु 'एतान् द्रव्यलिङ्गयुक्तानपि 'अवन्दमानस्य अप्रणमतः लिङ्ग-1 मप्यप्रमाणं तव बन्दनप्रवृत्ताविति गाथार्थः ॥ ११२३ ॥ इत्थं लिङ्गमात्रस्य वन्दनप्रवृत्तावप्रमाणतायां प्रतिपादितायां सत्यामनभिनिविष्टमेव सामाचारिजिज्ञासयाऽऽह चोदका जालिंगमप्पमाणं न नजई निच्छएण को भावो दहण समलिंगं किं कायब्वं तु समणेणं ॥ ११२४॥ । KI व्याख्या यदि 'लिङ्ग' द्रव्यलिङ्गम् 'अप्रमाणम्' अकारण वन्दनप्रवृत्ती, इत्थं तहि 'न ज्ञायते' नावगम्यते 'निश्चयेन', परमार्थेन छद्मस्थेन जन्तुना कस्य को भावः ?, यतोऽसंयता अपि लब्ध्यादिनिमित्तं संयतवच्चेष्टन्ते, संयता अपि च कार| णतोऽसंयतवदिति, तदेवं व्यवस्थिते 'दृष्ट्वा' अवलोक्य 'श्रमणलिङ्गं साधुलिङ्गं किं पुनः कर्तव्यं श्रमणेन' साधुना , पुनःशब्दार्थस्तुशब्दो व्यवहितश्चोको गाथानुलोम्यादिति गाथार्थः ॥ ११२४ ॥ एवं चोदकेन पृष्टः सन्नाहाचार्य: अप्पुब्बं दणं अब्भुटाणं तु होइ कायव्वं । साहुम्मि दिछपुब्वे जहारिहं जस्स जं जोग्गं ॥ ११२५ ॥ दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११२५], भाष्यं [२०३...], CRO आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५२३॥ ||७..|| ब्याख्या-'अपूर्वम्' अदृष्टपूर्व, साधुमिति गम्यते, 'दृष्ट्वा' अवलोक्य, आभिमुख्येनोस्थानमभ्युत्थानम्-आसनत्याग-1 वन्दनालक्षणं, तुशब्दाद्दण्डकादिग्रहणं च भवति कर्त्तव्यं, किमिति ?, कदाचिदसौ कश्चिदाचार्यादिविद्याद्यतिशयसम्पन्नः तत्प्र- ध्ययने दानायवाऽऽगतो भवेत् , प्रशिष्यसकाशमाचार्यकालकवत् , स खल्वविनीतं सम्भाव्य न तत्प्रयच्छतीति, तथा दृष्टपूर्वास्तुलालाअपू, द्विप्रकारा-उद्यतविहारिणः शीतलविहारिणश्च, तत्रोद्यतबिहारिणि साधौ ‘दृष्टपूर्वे' उपलब्धपूर्वे 'यथाई' यथायोग्यमभ्युत्थानवन्दनादि 'यस्य' बहुश्रुतादेर्यद् योग्यं तत्कर्तव्यं भवति, यः पुनः शीतलविहारी न तस्याभ्युत्थानवन्दनाद्युत्सगतः किश्चित्कर्तव्यमिति गाथार्थः ॥११२५॥ साम्प्रतं कारणतः शीतलविहारिगतविधिप्रतिपादनाय सम्बन्धगाथामाह मुकधुरासंपागडसेवीचरणकरणपठभट्टे । लिंगावसेसमित्ते जं कीरइ तं पुणो वोच्छ ॥११२६ ॥ व्याख्या-धूः-संयमधूः परिगृह्यते, मुक्ता-परित्यक्ता धूर्येनेति समासः, सम्प्रकट-प्रवचनोपघातनिरपेक्षमेव मूलो-13 चरगुणजालं सेवितुं शीलमस्येति सम्मकटसेवी, मुक्तधूश्चासौ सम्प्रकटसेवी चेति विग्रहः, तथा पर्यत इति चरण-प्रतादिलक्षणं क्रियत इति करणं-पिण्डविशुद्धयादिलक्षणं चरणकरणाभ्यां प्रकर्षेण भ्रष्टा-अपेतश्चरणकरणप्रभ्रष्टः, मुकधूः स-1 प्रकटसेषी पासी चरणकरणप्रभ्रष्टश्चेति समासस्तस्मिन्, प्राकृत शैल्या अकारेकारयोदीर्घत्वम् , इत्थम्भूते 'लिङ्गावशेष- | ॥५२॥ मात्रे' केवलद्रव्यलिङ्गयुक्ते यत्क्रियते किमपि तत्पुनर्वक्ष्ये, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशेषयति ?-कारणापेक्ष-कारण-1 मानित्य यत्क्रियते तद्वक्ष्ये-अभिधास्ये, कारणाभावपक्षे तु प्रतिषेधः कृत एव, विशेषणसाफल्यं तु मुक्तधूरपि कदाचि दीप S अनुक्रम [९..] PEECASE पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११२६], भाष्यं [२०३...], प्रत सूत्रांक ||७..|| सम्प्रकटसेवी न भवत्यपि अतस्तद्रहणं, संप्रकटसेवी चरणकरणप्रभ्रष्ट एवेति स्वरूपकथनमिति गाथार्थः ॥ ११२६ ॥ किं तक्रियत इत्यत आह वायाइ नमोकारो हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च । संपुच्छणऽच्छणं छोभवंदणं बंदणं वावि ॥११२७ ॥ | व्याख्या-'वायाए'त्ति निर्गमभूम्यादौ रष्टस्य वाचाऽभिलापः क्रियते-हे देवदत्त कीरशस्त्वमित्यादिलक्षणः, गुरुतरदापुरुषकायोपेक्षं वा तस्यैव 'नमोकारो'त्ति नमस्कारः क्रियते-हे देवदत्त ! नमस्ते, एवं सर्वत्रोत्तरविशेषकरणे पुरुषकार्यभेदः। प्राक्तनोपचारानुवृत्तिश्च द्रष्टव्या, 'हत्थुस्सेहो यत्ति अभिलापनमस्कारगर्भः हस्तोच्छ्रयश्च क्रियते, 'सीसनमणं च' शिरसाउत्तमाङ्गेन नमनं शिरोनमनं च क्रियते, तथा 'सम्प्रच्छनं' कुशलं भवत इत्यादि, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, 'अच्छणं'तित[द्वहुमानस्त ]त्सन्निधावासनं कश्चित्कालमिति, एष तावद्वहिर्देष्टस्य विधिः, कारणविशेषतः पुनस्तत्प्रतिश्रयमपि गम्यते, तत्राप्येष एव विधिः, नवरं 'छोभवंदण'ति आरभट्या छोभवन्दनं क्रियते, 'चन्दणं वाऽवि' परिशुद्ध वा वन्दनमिति गाथार्थः ॥ ११२७ ॥ एतच्च वाङ्गमस्कारादि नाविशेषेण क्रियते, किं तर्हि - परियायपरिसपुरिसे वित्तं कालं च आगमं नचा । कारणजाए जाए जहारिहं जस्स जं जुग्गं ।। ११२८ ॥ व्याख्या-पर्यायश्च परिषञ्च पुरुषश्च पर्यायपरिषत्पुरुषास्तान , तथा क्षेत्रं कालं च आगमं 'णञ्चति ज्ञात्वा-विज्ञाय 'कारणजाते' प्रयोजनप्रकारे 'जाते' उत्पन्ने सति 'यथायथानुकूलं 'यस्य' पर्यायादिसमन्वितस्य यदू 'योग्य' समनुरूपं वाङ्ग मस्कारादि तत्तस्य, क्रियत इति वाक्यशेषः, अयं गाथासमासार्थः ॥११२८॥ साम्प्रतमवयवार्थ प्रतिपादयन्नाह भाष्यकार: दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | 'छोभवंदन'स्य स्वरुपम् वर्ण्यते ~184 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११२८], भाष्यं [२०४], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५२४॥ *%%82% ||७..|| परियाय पंभचेर परिस विणीया सि पुरिस णचा वा। कुलकज्जादायत्ता आघवउ गुणागमसुयं वा ॥२०४॥ (भा०) वन्दना। व्याख्या–पर्यायः' ब्रह्मचर्यमुच्यते, तत्मभूतं कालमनुपालितं येन, परिषद्विनीता वा-तत्प्रतिबद्धा साधुसंहतिः शोभना । | ध्ययने 'से' अस्य 'पुरिस णच्या वत्ति पुरुषं ज्ञात्वा चा, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, कथं ज्ञात्वा ?-कुलकार्यादीन्यनेनायत्तानि, लायनानि.कालिका|आदिशब्दाद्गणसङ्घकार्यपरिग्रहः, आघव'त्ति आख्यातः तस्मिन् क्षेत्रे प्रसिद्धस्तद्बलेन तत्रास्यत इति क्षेत्रद्वारार्थः, 'गुणा-18 रणिक वऽऽगमसुर्य बत्ति गुणा-अवमप्रतिजागरणादय इति कालद्वारावयवार्थः, आगमः-सूत्रार्थोभयरूपः, श्रुतं-सूवमेव, गुणाश्चा-1 न्दनं ऽऽगमश्च श्रुतं चेत्येकवद्भावस्तद्वाऽस्य विद्यत इत्येवं ज्ञात्येति गाथार्थः ॥ २०४॥ एताई अकुव्वंतो जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे । न भवद पवयणभत्ती अभत्तिमंतादओ दोसा ॥११२९॥ व्याख्या-'एतानि' वाङ्नमस्कारादीनि कपायोत्कटतयाऽकुर्वतः, अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिकः, 'यथार्ह' यथायोगमईदर्शिते मार्गे न भवति प्रवचनभक्तिः, ततः किमित्यत आह-अभत्तिमतादओ दोसा' प्राकृतशैस्याऽभक्त्यादयो दोषाः, आदिशब्दात् स्वार्थअंशबन्धनादय इति गाथार्थः ॥११२९॥ एवमुद्यतेतरविहारिंगते विधी प्रतिपादिते सत्याह चोदकाकि नोऽनेन पर्यायाद्यन्वेषणेन १, सर्वथा भावशुद्धया कर्मापनयनाय जिनप्रणीतलिङ्गनमनमेव युक्त, तद्गतगुणविचारस्य |निष्फलत्वात् , न हि तद्गुणप्रभवा नमस्कर्तुनिर्जरा, अपि त्वात्मीयाध्यात्मशुद्धिप्रभवा, तथाहि ॥५२४॥ तित्थयरगुणा पडिमासु नत्थि निस्संसयं वियाणतो। तित्थयरेत्ति नमंतो सो पावह निजरं विउलं ॥११३०॥8॥ व्याख्या-तीर्थकरस्य गुणा-ज्ञानादयस्तीर्थकरगुणाः ते 'प्रतिमासु विम्बलक्षणासु 'णस्थि' न सन्ति 'निःसंशयं' संश - दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११३०], भाष्यं [२०४...], यरहितं 'विजानन्' अवबुध्यमानः तथाऽपि तीर्थकरोऽयमित्येवं भावशुद्ध्या 'नमन' प्रणमन् 'स' प्रणामकर्ता 'प्राप्नोति' आसादयति 'निर्जरां' कर्मक्षयलक्षणां 'विपुल' विस्तीर्णामिति गाथार्थः ॥ ११३० ॥ एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनय:लिंग जिणपण्णत्तं एवं नमतस्स निज्जरा बिउला । जचि गुणविप्पहीणं बंदर अज्झप्पसोहीए | ११३१ ॥ ते साधुरनेनेति लिङ्गं - रजोहरणादिधरणलक्षणं जिनैः अर्हद्भिः प्रज्ञप्तं प्रणीतम् ' एवं ' यथा प्रतिमा इति 'नमस्कुर्वतः ' प्रणमतो निर्जरा विपुला, यद्यपि गुणैः-मूलोत्तरगुणैर्विविधम्- अनेकधा प्रकर्षेण हीनं-रहितं गुणविप्रहीणं, 'बन्दते' नमस्करोति 'अध्यात्मशुद्ध्या' चेतःशुद्धयेति गाथार्थः ॥ ११३१ ॥ इत्थं चोदकेनोके दृष्टान्तदार्शन्तिकयोर्वैषम्यमुपदर्शयन्नाचार्य आह व्याख्या - संता तिस्थयरगुणा तित्थयरे तेसिमं तु अज्झप्पं न य सावज्जा किरिया इयरेसु धुवा समणुमन्ना ॥ ११३२ ।। व्याख्या- 'सन्तः' विद्यमानाः शोभना वा तीर्थकरस्य गुणास्तीर्थकर गुणा-ज्ञानादयः, क्व ? - 'तीर्थकरे' अर्हति भगवति इयं च प्रतिमा तस्य भगवतः 'तेसिमं तु अज्झष्पं तेषां नमस्कुर्वतामिदमध्यात्मम्-इदं चेतः, तथा न च तासु 'सावद्या' सपापा 'क्रिया' चेष्टा प्रतिमासु, 'इतरेषु' पार्श्वस्थादिषु 'ध्रुवा' अवश्यंभाविनी सावया क्रिया प्रणमतः, तत्र किमित्यत आह- 'समणुमण्णा' समनुज्ञा सावध क्रियायुक्तपार्श्वस्थादिप्रणमनात् सावद्यक्रियानुमतिरिति हृदयम्, अथवा सन्तस्तीर्थकर - गुणाः तीर्थकरे तान् वयं प्रणमामः तेषामिदमध्यात्मम्-इदं चेतः, ततोऽर्हगुणाध्यारोपेण चेष्टप्रतिमाप्रणामान्नमस्कर्तुः न च पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 186~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११३२], भाष्यं [२०४...], आवश्यक - सावद्या क्रिया - परिस्पन्दनलक्षणा, इतरेषु - पार्श्वस्थादिषु पूज्यमानेष्वशुभक्रियोपेतत्वात्तेषां नमस्कर्तुर्षुवा समनुज्ञेति हारिभ- * गाथार्थः ॥ ११३२ ।। पुनरप्याह चोदकः- ३ वन्दना ध्ययने द्रीया |जह सावज्जा किरिया नत्थि य पडिमासु एवमियराऽवि । तद्यभावे नत्थि फलं अह होह अहेडगं होइ ॥ ११३३ ॥ लिङ्गमात्र ४ ॥५२५ ॥ व्याख्या- यथा सावद्या क्रिया-सपापा क्रिया 'नास्त्येव' न विद्यत एव प्रतिमासु, एवमितराऽपि - निरवद्याऽपि नास्त्येवस्थानम्यता ततश्च 'तदभावे' निरवद्यक्रियाऽभावे नास्ति 'फल' पुण्यलक्षणम्, अथ भवति 'अहेतुकं भवति' निष्कारणं च भवति, प्रणम्यवस्तुगत क्रियाहेतुकरवा (भावा) त्फलस्येत्यभिप्रायः, अहेतुकत्वे चाकस्मिक कर्मसम्भवान्मोक्षाद्यभाव इति गाथार्थः ॥ ११३३ ॥ इत्थं चोदकेनोके सत्याहाचार्य: कामं उभयाभावो तहवि फलं अस्थि मणविसुद्धीए । तीह पुण मणविसुद्धीइ कारणं होंति पडिमा ||११३४|| व्याख्या – 'कामम्' अनुमतमिदं यदुत 'उभयाभावः' सावद्येतरक्रियाऽभावः प्रतिमासु, तथाऽपि 'फलं' पुण्यलक्षणम् 'अस्ति' विद्यते, मनसो विशुद्धिर्मनोविशुद्धिस्तस्या मनोविशुद्धेः सकाशात्, तथाहि स्वगता मनोविशुद्धिरेव नमस्कर्तुः पुण्यकारणं, न नमस्करणीयवस्तुगता क्रिया, आत्मान्तरे फलाभावात्, यद्येवं किं प्रतिमाभिरिति?, उच्यते, तस्याः पुनर्मनोविशुद्धेः 'कारण' निमित्तं भवन्ति प्रतिमाः, तद्वारेण तस्याः सम्भूतिदर्शनादिति गाथार्थः ॥ ११३४ ॥ आह एवं लिङ्गमपि प्रतिमावन्मनोविशुद्धिकारणं भवत्येवेति, उच्यते जवि य पडिमाउ जहा मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंगं । उभयमवि अत्थि लिंगे न य पडिमासुभयं अत्थि ।। ११३५ ।। ||५२५|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 187 ~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११३५], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ||७..|| व्याख्या-यद्यपि च प्रतिमा यथा मुनीनां गुणा मुनिगुणा-व्रतादयस्तेषु सङ्कल्प:--अध्यवसायः मुनिगुणसङ्कल्पस्तस्य | कारणं-निमित्तं मुनिगुणसङ्कल्पकारणं 'लिङ्गं द्रव्यलिङ्गं, तथाऽपि प्रतिमाभिः सह वैधय॑मेव, यत उभयमप्यस्ति लिङ्गेसावद्यकर्म निरवधकर्म च, तत्र निरवद्यकर्मयुक्त एव यो मुनिगुणसङ्कल्पः स सम्यक्सङ्कल्पः, स एव च पुण्यफला, यः पुनः सावद्यकर्मयुक्तेऽपि मुनिगुणसङ्कल्पः स विपर्याससङ्कल्पः, क्लेशफलश्चासौ, विपर्यासरूपत्वादेव, न च प्रतिमासूभयमस्ति, चेष्टारहितत्वात् , ततश्च तासु जिनगुणविषयस्य केशफलस्य विपर्याससङ्कल्पस्याभावः, सावद्यकर्मरहितत्वात् प्रति मानाम् , आह-इत्थं तर्हि निरवद्यकर्मरहितत्वात् सम्यक्सङ्कल्पस्यापि पुण्यफलस्याभाव एवं प्राप्त इति, उच्यते, तस्य दातीर्थकरगुणाध्यारोपेण प्रवृत्ते भाव इति गाथार्थः ॥ ११३५ ॥ तथा चाऽऽह नियमा जिणेसु उगुणा पडिमाओ दिस्स जे मणे कुणइ । अगुणे उ वियाणंतो कं नमउ मणे गुण का ॥११३६॥ | व्याख्या-'नियमादिति नियमेनावश्यतया 'जिनेष्वेव' तीर्थकरेष्वेव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , 'गुणाः' ज्ञाना-II ४ दयः, न प्रतिमासु, प्रतिमा दृष्ट्वा तास्वध्यारोपद्वारेण यान् 'मनसि करोति' चेतसि स्थापयति पुनर्नमस्करोति, अत एवासौ तासु शुभः पुण्यफलो जिनगुणसङ्कल्पः, सावद्यकर्मरहितत्वात् , न चायं तासु निरवद्यकाभावमात्राद्विपर्यासस|ङ्कल्पः, सावद्यकर्मोपेतवस्तुविषयत्वात्तस्य, ततश्चोभयविकल एवाऽऽकारमात्रतुल्ये कतिपयगुणान्विते चाध्यारोपोऽपि युक्ति-IN 18| युक्तः, 'अगुणे उ' इत्यादि अगुणानेव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् अविद्यमानगुणानेव 'विजानन्' अवबुध्यमानः पाश्व स्थादीन् 'कं नमउ मणे गुणं का' के मनसि गुणं कृत्वा नमस्करोतु तानिति, स्यादेतत्-अन्यसाधुसम्बन्धिनं तेष्वध्यारो-| SHANKARACK दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~188 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) Zafa प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] आवश्यकहारिभद्वीया ॥ ५२६ ।। [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११३६], भाष्यं [२०४...], पद्वारेण मनसि कृत्वा नमस्करोतु, न, तेषां सावद्यकर्मयुक्ततयाऽध्यारोपविषयलक्षणविकलत्वात्, अविषये चाध्यारोपं | कृत्वा नमस्कुर्वतो दोषदर्शनाद् ॥ ११३६ ॥ आह च जह वेलंबगलिंग जाणंतस्स नमओ हवद दोसो । निधसमिय नाऊण वंदमाणे धुवो दोसो | ११३७ ॥ व्याख्या यथा 'विडम्बकलिङ्गं' भाण्डादिकृतं 'जानतः' अवबुध्यमानस्य 'नमतः ' नमस्कुर्वतः सतोऽस्य भवति 'दोषः' प्रवचनहीलनादिलक्षणः, 'निद्धन्धसं' प्रवचनोपघातनिरपेक्षं पार्श्वस्थादिकम् 'इय' एवं 'ज्ञात्वा' अवगम्य 'वन्दमाणे धुवो दोसो' वन्दति नमस्कुर्वति सति नमस्कर्तरि ध्रुवः - अवश्यंभावी दोषः - आज्ञाविराधनादिलक्षणः, पाठान्तरं वा- 'निद्धंध संपि णाऊणं वंदमाणस्स दोसा उ' इदं प्रकटार्थमेवेति गाथार्थः ॥ ११३७ ॥ एवं न लिङ्गमात्र मकारणतोऽवगतसावद्यक्रियं नमस्क्रियत इति स्थापितं, भावलिङ्गमपि द्रव्यलिङ्गरहितमित्थमेवावगन्तव्यं भावलिङ्गगर्भ तु द्रव्यलिङ्गं नमस्क्रियते, तस्यैवाभिलषितार्थक्रियाप्रसाधकत्वात्, रूपकदृष्टान्तश्चात्र, आह च रुपं टंकं विसमाहयक्खरं नवि रूवओ छेओ । दुपहंपि समाओगे रूवो छेयत्तणमुवे ।। ११३८ ।। व्याख्या - अत्र तावच्चतुर्भङ्गी-रूपम् अशुद्धं टङ्कं विषमाहताक्षरमित्येकः, रूपमशुद्धं टङ्कं समाहताक्षर मिति द्वितीयः, रूपं शुद्धं टङ्कं विषमाहताक्षरमिति तृतीयः रूपं शुद्धं टङ्कं समाहताक्षर मिति चतुर्थः, अत्र च रूपकल्पं भावलिङ्गं टङ्कल्पं द्रव्यलिङ्गम्, इह च प्रथमभङ्गतुल्याश्चर कादयः, अशुद्धोभयलिङ्गत्वात्, द्वितीयभङ्गतुल्याः पार्श्वस्थादयः, अशुद्धभावलिङ्गत्वात्, तृतीयभङ्गतुल्याः प्रत्येकबुद्धा अन्तर्मुहूर्तमात्रं कालमगृहीतद्रव्यलिङ्गाः, चतुर्थभङ्गतुल्याः साधवः शीलयुक्ताः ३ वन्दनाध्ययने लिङ्मात्रनतौ दोषाः ~ 189~ ||५२६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११३८], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक %%% 85454-5949 ||७..|| गच्छगता निर्गताश्च जिनकल्पिकादयः, यथा रूपको भङ्गत्रयान्तर्गतः 'अच्छेक' इत्यविकल इति तदर्थक्रियार्थिना नोपादीयते, चतुर्थभङ्गनिरूपित एवोपादीयते, एवं भङ्गत्रयनिदर्शिताः पुरुषा अपि परलोकाधिनो यतो न नमस्करणीयाः, चरमभङ्गकनिदर्शिता एव नमस्करणीया इति भावना, अक्षराणि त्वेवं नीयन्ते-रूपं शुद्धाशुद्धभेदं, टङ्क विषमाहताक्षरंविपर्यस्तनिविष्टाक्षरं, नैव रूपकः छेकः, असांव्यवहारिक इत्यर्थः, द्वयोरपि शुद्धरूपसमाहताक्षरटङ्कयोः समायोगे सति |रूपकश्छेकत्वमुपैतीति गाथार्थः॥ ११३८ । रूपकदृष्टान्ते दान्तिकयोजना निदर्शयन्नाहरुप्पं पत्तेयबुहा टंक जे लिंगधारिणो समणा व्वस्स य भावस्स य छेओ समणो समाओगो ॥११३९॥ दारं ॥ व्याख्या-रूपं प्रत्येकवुद्धा इत्यनेन तृतीयभङ्गाक्षेपः, टई ये लिङ्गधारिणः श्रमणा इत्यनेन तु द्वितीयस्य, अनेनैवाशुद्धशुद्धोभयात्मकस्यापि प्रथमचरमभङ्गद्वयस्येति, तत्र द्रव्यस्य च भावस्य च छेकः श्रमणः समायोगे-समाहताक्षरटङ्कशुद्धरूपकल्पद्रव्यभावलिङ्गसंयोगे शोभनः साधुरिति गाथार्थः ॥११३९॥ व्याख्यातं सप्रपञ्चं वैडूर्यद्वारं, ज्ञानद्वारमधुना, इह कश्चिज्ज्ञानमेव प्रधानमपवर्गबीजमिच्छति, यतः किल एवमागमः-'जं' अण्णाणी कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं। तं णाणी तिहि गुत्तो खवेद उसासमित्तेणं ॥१॥ तथा-'सुई जहा ससुत्ता ण णासई कयवरंमि पडियावि । जीवो तहा ससुत्तो ण णस्सइ गओऽपि संसारे ॥२॥ तथा-'णाणं गिण्हइ णाणं गुणेइ णाणेण कुणइ किच्चाई । भवसंसारसमुई यदज्ञानी कर्म क्षपयति बटुकाभिवर्षकोटीभिः । तज्ञानी त्रिनिर्गतः अपषस्युच्छ्वासमानेन || सूचिधा ससूत्रा न नश्यति कचवरे पतिवाऽपि। जीवसथा ससूत्रो न नश्यति गतोऽपि संसारे ॥२॥ ज्ञानं गृहाति ज्ञानं गुणयति ज्ञानेन करोति कृयानि । भवसंसारसमुहं ज्ञानी ज्ञाने स्थितस्तरति ॥३॥ दीप अनुक्रम 5% [९..] 4 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~190 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११३९], भाष्यं [२०४...], वन्दना | जानिद्वारं प्रत सोत्तरं सूत्रांक ||७..|| . आवश्यक-दणाणी णाणे ठिओ तरह ॥३॥ तस्माज्ञानमेव प्रधानमपवर्गप्राप्तिकारणम् , अतो ज्ञानिन एव कृतिकर्म कार्यम् , आह- हारिभ- अनन्तरगाथायामेव द्रव्यभावसमायोगे श्रमण उक्तः तस्य च कृतिकर्म कार्यमित्युक्त, चरणं च भावो वर्तत इत्युक्ते सत्याहदीया कामं चरणं भावो तं पुण नाणसहिओ समाणेई । न य नाणं तु न भावो तेण रणाणिं पणिवयामो॥११४०॥ ॥५२७॥ | व्याख्या-'कामम्' अनुमतमिदं, यदुत 'चरणं' चारित्रं 'भावः' भावशब्दो भावलिङ्गोपलक्षणार्थः, तत्पुनः 'ज्ञानसहितः' ज्ञानयुक्तः 'समापयति' निष्ठां नयति, यत इदमित्थमासेवनीयमिति ज्ञानादेवावगम्यते, तस्मात्तदेव प्रधान, न च । ज्ञानं तु न भावा, भाव एव, भावलि शान्तर्गतमिति भावना, तेन कारणेन र इति निपातः पूरणार्थ, ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी|2 ट्रातं ज्ञानिनं 'प्रणमामः पूजयाम इति गाथार्थः ॥११४० ॥ यतश्च बाह्यकरणसहितस्याप्यज्ञानिनश्चरणाभाव एवोक्ता- || तम्हा ण बज्झकरणं मज्झपमाणं न यावि चारित्तं।माणं मज्झ पमाणं नाणे अ ठिअंजओ तित्थं ॥११४१॥ ___ व्याख्या-तस्मान्न 'बाह्यकरणं' पिण्डविशुद्धयादिकं मम प्रमाणं, न चापि 'चारित्र' ब्रतलक्षणं, तज्ज्ञानाभावे तस्याप्यभावात् , अतो ज्ञानं मम प्रमाण, सति तस्मिन् चरणस्यापि भावात्, ज्ञाने च स्थितं यतस्तीर्थ, तस्यागमरूपत्वादिति गाथार्थः ॥ ११४१ ॥ किं चान्यद्-दर्शनं भाव इष्यते, 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति ( तत्त्वार्थे अ०१ सू०१) वचनात् , तव दर्शनं द्विधा-अधिगमजं नैसर्गिकं च, इदमपि च ज्ञानायत्तोदयमेव वर्तते, तथा चाहनाऊण य सम्भावं अहिगमसंमंपि होइ जीवस्स । जाईसरणनिसग्गुग्गयाविन निरागमा दिट्ठी॥११४२॥ । व्याख्या-'ज्ञात्वा च' अवगम्य 'सद्भावं' सतां भावः सद्भावस्तं, सन्तो जीवादयः, किम् ?-अधिगमात्-जीवादि दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११४२], भाष्यं [२०४...], ८ 4- प्रत सूत्रांक ||७..|| 4%256445 पदार्थपरिच्छेदलक्षणात् सम्यक्त्वं-श्रद्धानलक्षणमधिगमसम्यक्त्वम्, इदमधिगमसम्यक्त्वमपि, अपिशब्दाचारित्रमपि, |'भवति जीवस्य जायते आत्मन इत्यर्थः, नैसर्गिकमाश्रित्याह-जातिस्मरणात् सकाशात् निसर्गेण-स्वभावेनोद्गता-सम्भूता जातिस्मरणनिसर्गोद्गता, असावपि न 'निरागमा आगमरहिता 'दृष्टिः' दर्शनं दृष्टिरिति, यतः स्वयम्भूरमणमत्स्यादीनामपि जिनप्रतिमाद्याकारमत्स्यदर्शनाजातिमनुस्मृत्य भूतार्थालोचनपरिणाममेव नैसर्गिकसम्यक्त्वमुपजायते, भूतार्थालोचनं च ज्ञानं तस्मादिदमपि ज्ञानायत्तोदयमितिकृत्वा ज्ञानस्य प्राधान्यात् ज्ञानिन एव कृतिकर्म कार्यमिति स्थितम् , अयं गाथार्थः ।। ११४२ ॥ इत्थं ज्ञानवादिनोक्ते सत्याहाचार्यः| नाणं सविसयनिययं न नाणमित्रोण कन्जनिप्फत्ती । मग्गण्णू दिईतो होइ सचिट्टो अचिहो य ॥११४३ ॥ व्याख्या-'ज्ञान' प्रकान्तं, स्वविषये नियतं स्वविषयनियतं, स्वविषयः पुनरस्य प्रकाशनमेव, यतश्चैवमतः न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः, मात्रशब्दः क्रियाप्रतिषेधवाचकः, अत्रार्थे मार्गज्ञो दृष्टान्तो भवति, 'सचेष्टः सव्यापारः 'अचेष्टश्च अप्रतिपद्यमानचेष्टश्च, एतदुक्तं भवति-यथा कश्चित्पाटलिपुत्रादिमार्गज्ञो जिगमिषुश्चेष्टदेशप्राप्तिलक्षणं कार्य गमनचेष्टोद्यत एव साधयति, न चेष्टाविकलो भूयसाऽपि कालेन, तत्प्रभावादेव, एवं ज्ञानी शिवमार्गमविपरीतमवगच्छन्नपि संयमक्रियोद्यत एव तत्प्राप्तिलक्षणं कार्य साधयति, नानुद्यतो, ज्ञानप्रभावादेव, तस्मादलं संयमरहितेन ज्ञानेनेति गाथाहृदयार्थः ॥११४३ ॥ प्रस्तुतार्थप्रतिपादकमेव दृष्टान्तान्तरमभिधिरसुराह आउज्जनदृकुसलावि नट्टिया तं जणं न तोसेइ । जोगं अजुंजमाणी निंदं खिंसं च सा लहइ ॥११४४ ॥ दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~192 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११४४], भाष्यं [२०४...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ||५२८॥ ||७..|| RECEOCOCC+ व्याख्या-आतोद्यानि-मृदङ्गादीनि नृत्तं-करचरणनयनादिपरिस्पन्दविशेषलक्षणम् आतोधैः करणभूतैर्नृत्तम् आतो- वन्दनाघनृत्तं तस्मिन् कुशला-निपुणा आतोद्यनृत्तकुशला, असावपि नर्तकी, अपिशब्दात् रङ्गजनपरिवृताऽपि 'तं जनं' रङ्गजनंध्य यन 'न तोषयति' न हर्ष नयतीत्यर्थः, किम्भूता सती:-'योगमयुञ्जन्ती' कायादिव्यापारमकुर्वती, ततश्चापरितुष्टाद् रङ्गज टज्ञानिद्वारं नान्न किञ्चिदू द्रव्यजातं लभत इति गम्यते, अपि तु निन्दां खिंसां च सा लभते रङ्गजनादिति, तत्समक्षमेव या हीलना सोत्तरं सा निन्दा, परोक्षे तु सा खिंसेति गाथार्थः ॥ ११४४ ॥ इत्थं दृष्टान्तमभिधाय दाष्टॉन्तिकयोजना प्रदर्शयत्राहइय लिंगनाणसहिओ काइयजोग न जुंजई जो उन लहइ स मुक्खसुक्खं लहर य निंद सपक्खाओ ॥११४५॥ | व्याख्या-'इय' एवं लिङ्गज्ञानाभ्यां सहितो-युक्तो लिङ्गज्ञानसहितः 'काययोग' कायव्यापारं 'न युझे न प्रवर्तयति, यस्तु 'न लभते' न पामोति 'स' इत्यम्भूतः किं ?-'मोक्षसौख्यं सिद्धिसुखमित्यर्थः, लभते तु निन्दा स्वपक्षात्, चशब्दाखिंसां च, इह च नर्तकीतुल्यः साधुः, आतोद्यतुल्यं द्रव्यलिङ्गं, नृत्तज्ञानतुल्यं ज्ञानं, योगव्यापारतुल्यं चरणं, रङ्गापरितोपतुल्यः सङ्घपरितोषः, दानलाभतुल्यः सिद्धिसुखलाभः, शेषं सुगम, यत एवमतो ज्ञानचरणसहितस्यैव कृतिकर्म कार्यमिति गाथाभावार्थः ।। ११४५ ॥ चरणरहितं ज्ञानमकिञ्चित्करमित्यस्यार्थस्य साधका बहवो दृष्टान्ताः सन्तीति प्रदर्श-10 नाय पुनरपि दृष्टान्तमाह ॥५२८॥ जाणतोऽवि य तरि काइयजोग न जुंजइ नईए । सो वुज्झइ सोएण एवं नाणी चरणहीणो ॥११४६॥ व्याख्या-जानन्नपि च तरीतुं यः 'काययोगं कायव्यापार न युझे नद्यां स पुमान् 'उह्यते' हियते 'श्रोतसा' पया-1 दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~193 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११४६], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ||७..|| ४ प्रवाहेण, एवं ज्ञानी चरणहीनः संसारनद्यां प्रमादश्रोतसोह्यत इत्युपनयः, तस्माचरणविकलस्य ज्ञानस्याकिश्चित्करत्वादुहै भययुक्तस्यैव कृतिकर्म कार्यमिति गाथाभिप्रायार्थः ॥ ११४६ ॥ एवमसहायज्ञानपक्षे निराकृते ज्ञानचरणोभयपक्षे च समर्थिते सत्यपरस्त्वाहगुणाहिए वंदणयं छउमत्थो गुणागुणे अयाणतो । वैदिवा गुणहीणं गुणाहियं वावि वंदावे ॥ ११४७ ॥ व्याख्या-होत्सर्गतः गुणाधिके साधी वन्दनं कर्तव्यमिति वाक्यशेषः, अयं पार्थः श्रमणं वन्देतेत्यादिप्रस्थास्सिद्धा, गुणहीने तु प्रतिषेधः पश्चानां कृतिकर्मेत्यादिग्रन्धाद् , इदं च गुणाधिकरवं गुणहीनत्वं च तत्वतो दुर्विज्ञेयम्, अतश्छद्म स्थस्तत्त्वतो गुणागुणान् आत्मान्तरवर्तिनः 'अजानन्' अनवगच्छन् किं कुर्यात् १, वन्देत वा गुणहीनं कश्चित् , गुणादाधिकं चापि वन्दापयेत् , उभयथाऽपि च दोषः, एकत्रागुणानुज्ञाप्रत्ययः अन्यत्र तु विनयत्यागप्रत्ययः, तस्मात्तूष्णीभाव | एव श्रेयान् , अलं वन्दनेनेति गाथाभिप्रायः ॥ ११४७ ।। इत्थं चोदकेनोके सति व्यवहारनयमतमधिकृत्य गुणाधिकत्वपरिज्ञानकारणानि प्रतिपादयन्नाचार्य आह आलएणं विहारेणं ठाणाचकमणेण य । सक्को मुविहिओ ना भासावेणइएण य ॥११४८॥ व्याख्या-आलयः-वसतिः सुप्रमार्जितादिलक्षणाऽधवा स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितेति, तेनाऽऽलयेन, नागुणवत एवंविधः खल्वालयो भवति, विहाररा-मासकल्पादिस्तेन विहारेण, स्थानम्-ऊर्ध्वस्थानं, चकमण-गमनं, स्थानं च चक्रमण चित्येकवदावस्तेन च, अविरुद्धदेशकायोत्सर्गकरणेन च युगमात्रावनिप्रलोकनपुरस्सराद्भुतगमनेन चेत्यर्थः, शक्यः सुवि ASSACROSAX दीप अनुक्रम [९..] 24-58 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~194 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक हारिभद्रीया ॥५२९॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१९१४८], भाष्यं [ २०४...], हितो ज्ञातुं, 'भाषावैनयिकेन च' विनय एव वैनयिकं समालोच्य भाषणेन आचार्यादिविनयकरणेन चेति भावना, नैतान्येवम्भूतानि प्रायशोऽसुविहितानां भवन्तीति गाथार्थः ॥। ११४८ ॥ इत्थमभिहिते सत्याद्द चोदकः- आलएणं विहारेणं ठाणेचकमणेण य न सको सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य ।। ११४९ ॥ व्याख्या-आलयेन विहारेण स्थान चङ्क्रमणेन (स्थानेन चङ्क्रमणेन) चेत्यर्थः, न शक्यः सुविहितो ज्ञातुं भाषावैनयिकेन च, उदायिनृपमारकमाथुर कोइलादिभिर्व्यभिचारात्, तथा च प्रतीतमिदम्-असंयता अपि हीनसत्त्वा लब्ध्यादिनिमित्तं मैं संयतवच्चेष्टन्ते, संयता अपि च कारणतोऽसंयतवदिति गाथार्थः । ११४९ ॥ किंच भरहो पसन्नचंदो सभितरबाहिरं उदाहरणं । दोसुष्पत्तिगुणकरं न तेसि बज्झं भवे करणं ॥ ११५० ॥ व्याख्या - भरतः प्रसन्नचन्द्रः साभ्यन्तरबाह्यमुदाहरणम्, आभ्यन्तरं भरतः, यतस्तस्य बाह्यकरणरहितस्यापि विभूपितस्यैवाऽऽदर्शकगृहप्रविष्टस्य विशिष्टभावनापरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नं, बाह्यं प्रसन्नचन्द्रः, यतस्तस्योत्कृष्टबाह्यकरणवतोऽप्यन्तःकरणविकलस्याधः सप्तमनरकप्रायोग्यकर्मबन्धो बभूव तदेवं दोषोत्पत्तिगुणकरं न तयोर्भरतप्रसन्नचन्द्रयोः 'बज्झे भवे करणं' ति छान्दसत्वादभूत्करणं दोषोत्पत्तिकारकं भरतस्य नाभूदशोभनं वाह्यं करणं गुणकारकं प्रसन्नचन्द्रस्य नाभूच्छोभनमपीति, तस्मादान्तरमेव करणं प्रधानं, न च तदालयादिनाऽवगन्तुं शक्यते, गुणाधिके च वन्दनमुक्तमिति तूष्णीभाव एव ज्यायान् इति स्थितम् इत्ययं गाथाभिप्रायः ।। ११५० ॥ इत्थं तीर्थाङ्गभूतव्यवहारनयनिरपेक्षं चोदकमवगम्यान्येषां पारलौकिकापायदर्शनायाहाचार्य:-- ३ वन्दनाध्ययने सुविहितत्वज्ञानं ~195~ ||५२९|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१९१५० ], भाष्यं [ २०४...], पत्तेयबुद्धकरणे चरणं नासंति जिणवरिंदाणं । आहबभावकहणे पंचहि ठाणेहि पासस्था ।। ११५१ ॥ व्याख्या - प्रत्येकबुद्धाः - पूर्वभवाभ्यस्तोभयकरणा भरतादयस्तेषां करणं तस्मिन्नान्तर एव फलसाधके सति मन्दमतयश्वरणं नाशयन्ति जिनवरेन्द्राणां सम्बन्धिभूतमात्मनोऽन्येषां च पाठान्तरं वा 'बोधिं नासिंति जिणवरिंदाणं' कथं १'आहच्चभावकहणेति कादाचित्कभावकथने - बाह्यकरणरहितैरेव भरतादिभिः केवलमुत्पादितमित्यादिलक्षणे, कथं नाशयन्ति ?-पश्चभिः 'स्थानैः' प्राणातिपातादिभिः पारम्पर्येण करणभूतैः 'पार्श्वस्था' उक्तलक्षणा इति गाथार्थः ॥ ११५१ ॥ यतश्चउम्मग्गदेसणाएं चरणं नासिंति जिणवरिंदाणं । वावन्नदंसणा खलु न तु लम्भा तारिसा दहूं ॥११५२॥ दारं | व्याख्या - उन्मार्गदेशनया अनयाऽनन्तराभिहितं चरणं नाशयन्ति जिनवरेन्द्राणां सम्बन्धिभूतमात्मनोऽन्येषां च अतः 'व्यापन्नदर्शनाः खलु विनष्टसम्यग्दर्शना निश्चयतः, खल्वित्यपिशब्दार्थो निपातः, तस्य च व्यवहितः सम्बन्धस्तमुपरिष्टात् प्रदर्शयिष्यामः, 'न हु रम्भा तारिसा दहुंति नैव कल्पन्ते तादृशा द्रष्टुमपीति, किं पुनर्ज्ञानादिना प्रतिलाभ| यितुमिति गाथार्थः ॥ ११५२ ॥ सप्रसङ्गं गतं ज्ञानद्वारम् दर्शनद्वारमधुना, तत्र दर्शननयमतावलम्बी कृतिकर्माधिकार एवावगतज्ञाननयमत इदमाह |जह नाणेणं न विणा चरणं नादंसणिस्स इय नाणं न य दंसणं न भावो तेन र दिहिं पणिवयामो ॥ ११५३ ॥ व्याख्या यथा ज्ञानेन विना न चरणं, किन्तु सहेव, नादर्शनिन एवं ज्ञानं, किन्तु दर्शनिन एव, 'सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानं मिथ्यादृष्टेर्विपर्यास' इति वचनात्, तथा न च दर्शनं न भावः, किन्तु भाव एव, भावलिङ्गान्तर्गतमित्यर्थः, तेन कारणेन ज्ञानस्य पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 196 ~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१९१५३], भाष्यं [ २०४...], आवश्यक-तद्भावभावित्वादर्शनस्य ज्ञानोपकारकत्वाद् रेति प्राग्वत् 'दिट्ठिन्ति प्राकृतशैल्या दर्शनमस्यास्तीति दर्शनी तं दर्शनिनं, 'प्रणमामः' पूजयाम इति गाथार्थः ॥ ११५३ ॥ स्यादेतत् सम्यक्त्वज्ञानयोर्युगपद्भावादुपकार्योपकारकभावानुपपत्तिरिति, * एतच्चासद्, यतः- हारिभ श्रीया ॥५३०॥ जुगपि समुपनं सम्मत्तं अहिगमं चिसोहे । जह कायगमंजणाई जलदिडीओ विसोहति ॥ ११५४ ॥ व्याख्या- 'युगपदपि' तुल्यकालमपि 'समुत्पन्नं' सञ्जातं सम्यक्त्वं ज्ञानेन सह 'अधिगमं विशोधयति' अधिगम्यन्तेपरिच्छिद्यन्ते पदार्था येन सोऽधिगमः- ज्ञानमेवोच्यते, तमधिगमं विशोधयति ज्ञानं विमलीकरोतीत्यर्थः, अत्रार्थे दृष्टान्तमाह-यथा काचकाञ्जने जलदृष्टी विशोधयत इति, कवको वृक्षस्तस्येदं काचकं फलम्, अञ्जनं-सौवीरादि, काचकं चाञ्जनं च काचकाञ्जने, अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिकः, जलम् उदकं दृष्टिः स्वविषये लोचनप्रसारणलक्षणा, जलं च दृष्टिश्च जलदृष्टी ते विशोधयत इति गाथार्थः ॥ ११५४ ॥ साम्प्रतमुपन्यस्तदृष्टान्तस्य दार्शन्तिकेनांशतः भावनिकां प्रतिपादयन्नाह ३ वन्दनामध्ययने ज्ञानशोध जह २ सुज्झइ सलिलं तह २ रुवाई पासई दिट्ठी । इय जह जह तत्तरुई तह तह तत्तागमो होइ ॥ ११५५ ॥ ४ ॥ ५३० ॥ व्याख्या- यथा २ शुद्ध्यति सलिलं काचकफलसंयोगात् तथा तथा 'रूपाणि' तद्गतानि पश्यति द्रष्टा,'इय' एवं यथा यथा 'तत्त्वरुचिः' सम्यक्त्वलक्षणा, संजायत इति क्रिया, तथा तथा 'तत्त्वागमः' तत्त्वपरिच्छेदो भवतीति, एवमुपकारकं पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 197~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११५५], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ||७..|| सम्यक्त्वं ज्ञानस्येति गाधार्थः ॥ ११५५ ॥ स्यादेतत्-निश्चयतः कार्यकारणभाव एवोपकार्योपकारकभावः, स चासम्भवी युगपद्धाविनोरिति, अत्रीच्यते- कारणकजविभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेवि । जुगवुप्पन्नपि तहा हे नाणस्स सम्मत्तं ॥ ११५६॥ व्याख्या-यथेह कारणकार्यविभागो दीपप्रकाशयोः 'युगपजन्मन्यपि' युगपदुत्पादेऽपीत्यर्थः, युगपदुत्पन्नमपि तथा 'हेतुः' कारणं ज्ञानस्य सम्यक्त्वं, यस्मादेवं तस्मात्सकलगुणमूलत्वाद्दर्शनस्य दर्शनिन एव कृतिकर्म कार्यम्, आत्मनाऽपि तत्रैव यत्नः कार्यः, सकलगुणमूलत्वादेवेति, उक्तं च-"द्वारं मूलं प्रतिष्ठानमाधारो भाजनं निधिः । धर्महेतोर्द्विपदस्य, सम्यग्दर्शनमिष्यते ॥१॥" अयं गाथाभिप्रायार्थः ॥ ११५६ ॥ इत्थं नोदकेनोक्ते सत्याहाचार्यःनाणस्स जइवि हेऊ सविसपनिययं तहावि सम्मत्तं । तम्हा फलसंपत्ती न जुज्जए नाणपक्खे व ॥१॥(प्र०) जह तिक्खरुईवि नरो गंतु देसंतरं नयविहणो । पावेह न तं देसं नयजुत्तो चेव पाउणइ ॥२॥ (प्र.) इय नाणचरणहीणो सम्मदिडीवि मुक्खदेसं तु । पाउणइ नेय नाणाइसंजुओ चेव पाउणइ ॥३॥(प्र.) व्याख्या-दमन्यकर्तृक गाथात्रयं सोपयोगमितिकृत्वा व्याख्यायते, ज्ञानस्य यद्यपि 'हेतुः' कारणं सम्यक्त्वमिति योगः, अपिशब्दोऽभ्युपगमवादसंसूचका, अभ्युपगम्यापि ब्रमः, तत्त्वतस्तु कारणमेव न भवति, उभयोरपि विशिष्टक्षयोपशमकार्यत्वात् , स्वविषयनियतमितिकृत्वा, स्वविषयश्चास्य तत्त्वेषु रुचिरेव, तथाऽपि 'तस्मात् सम्यक्त्वात् 'फलसंपत्ती ण जुज्जए' फलसम्प्राप्तिर्न युज्यते, मोक्षसुखप्राप्तिन घटत इत्यर्थः, स्वविषयनियतत्वादेव, असहायत्वादित्यर्थः, ज्ञानपक्ष 4645CASSANGACASSC दीप अनुक्रम [९..] A 4% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११५६], भाष्यं २०४...], प्रक्षेप [१-३] द्रीया प्रत सूत्रांक ||७..|| आवश्यक- दिइव, अनेन तत्प्रतिपादितसकलदृष्टान्तसञ्चहमाह-यथा ज्ञानपक्षे मार्गज्ञादिभिर्दष्टान्तरसहायस्य ज्ञानस्यैहिकाममिकफला- वन्दनाहारिभ- साधकत्वमुक्तम् , एवमत्रापि दर्शनाभिलापेन द्रष्टव्यं, दिङमात्रं तु प्रदाते-यथा 'तीक्ष्णरुचिरपि नरः' तीव्रश्रद्धोऽपि ध्ययन | पुरुषः,क?-गन्तुं देशान्तरं देशान्तरगमन इत्यर्थः,'नयविहीनो' ज्ञानगमनक्रियालक्षणनयशून्य इत्यर्थः, पामोति न तं देश- सम्यक्रव्या ॥५३॥ गन्तुमिष्टं तद्विषयश्रद्धायुक्तोऽपि, नययुक्त एव प्राप्नोति, 'इय' एवं ज्ञानचरणरहितः सम्यग्दृष्टिरपि तत्त्वश्रद्धानयुक्तोऽपि मोक्ष-|| देशं तु न प्राप्नोति, नैव सम्यक्त्वप्रभावादेव, किन्तु ज्ञानादिसंयुक्त एव प्राप्नोति, तस्मात्रितयं प्रधानम्, अतखितययुक्तस्यैव कृतिकर्म कार्य, त्रितयं चाऽऽत्मनाऽऽसेवनीयं, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग (तत्त्वा.अ.१सू.१) इति वचनादयं गाथा[त्रितयार्थ॥१-२-शाएवमपि तत्त्वे समाख्याते ये खल्वधर्मभूयिष्ठा यानि चासदालम्बनानि प्रतिपादयन्ति तदभिधित्सुराहधम्मनियत्तमईया परलोगपरम्मुहा विसयगिद्धा । चरणकरणे असत्ता सेणियरायं ववइसंति ॥ ११५७ ।। व्याख्या-धर्म:-चारित्रधर्मः परिगृह्यते तस्मानिवृत्तामतिर्येषां ते धर्मनिवृत्तमतयः, पर:-प्रधानो लोकः परलोको-मोक्षस्तत्पराङमुखाः 'विषयगृद्धा' शब्दादिविषयानुरक्ताः, ते एवम्भूताश्चरणकरणे 'अशक्ताः' असमर्थाः सन्तः श्रेणिकराज व्यपदिशन्त्यालम्बनमिति गाथार्थः ॥ ११५७ ॥ कथं - ण सेणिओ आसि तया बहुस्सुओ, न यावि पन्नत्तिधरो न वायगो। सो आगमिस्साह जिणो भविस्सह, समिक्ख पन्नाइ वरं खु देसणं ॥ ११५८ ॥ ५३१॥ व्याख्या-न 'श्रेणिकः' नरपतिरासीत् 'तदा' तस्मिन् काले 'बहुश्रुतः' बह्वागमः महाकल्पादिश्रुतधर इत्यर्थः, 'न SABSCASSASARA दीप 44XI-EN अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११५८], भाष्यं [२०४...], 68 प्रत सूत्रांक ||७..|| चापि प्रज्ञप्तिधरः' न चापि भगवतीवेत्ता 'न वाचकः' न पूर्वधरः, तथाऽप्यसावसहायदर्शनप्रभावादेव 'आगमिस्साए'त्ति आयत्यामागामिनि काले 'जिनो भविष्यति' तीर्थकरो भविष्यति, यतश्चैवमतः 'समीक्ष्य दृष्ट्वा 'प्रज्ञया' बुझ्या दर्शनविपाक तीर्थकराख्यफलप्रसाधकं वरं खुदंसणन्ति खुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् वरं दर्शनमेवाङ्गीकृतमिति वाक्यशेषः, अयं वृत्तार्थः ॥११५८॥ किंच-शक्य एवोपाये प्रेक्षावतः प्रवृत्तियुज्यते, न पुनरशक्ये शिरःशूलशमनाय तक्षकफणालङ्कारग्रहणकल्पे चारित्रे, चारित्रं च तत्त्वतः मोक्षोपायत्वे सत्यप्यशक्यासेवनं, सूक्ष्मापराधेऽपि अनुपयुक्तगमनागमनादिभिर्विराध्यमानवादायासरूपत्वाच्च, नियमेन च छद्मस्थस्य तभंश उपजायते सर्वस्यैवातः भटेण चरित्ताओ सुहुपरं दंसणं गहेयव्वं । सिज्झति चरणरहिया दंसणरहिया न सिझंति ॥ ११५९॥ व्याख्या-'भ्रष्टेन' फ्युतेन, कुतः१-चारित्रात् , सुतरां दर्शनं ग्रहीतव्यं, पुनर्वाधिलाभानुबन्धिशक्यमोक्षोपायत्वात् I तथा च-सिद्ध्यन्ति चरणरहिताः प्राणिनः-दीक्षाप्रवृत्त्यनन्तरमृतान्तकृत्केवलिनः, दर्शनरहितास्तु न सिद्ध्यन्ति, अतो दर्शनमेव प्रधानं सिद्धिकारणं, तद्भावभाविवादित्ययं गाथार्थः ॥११५९ ॥ इत्थं चोदकाभिप्राय उक्तः, साम्पतमसहायदर्शनपक्षे दोषा उच्यन्ते, यदुक्तं-'न श्रेणिक आसीत्तदा बहुश्रुत' इत्यादि, तन्न, तत एवासी नरकमगमत् , असहायदर्शनयुक्तत्वात् , अन्येऽप्येवंविधा दशारसिंहादयो नरकमेव गता इति, आह च दसारसीहस्स य सेणियस्सा, पेढालपुत्तस्स य सच्चइस्स। अणुसरा सणसंपया तया, विणा चरिसेणऽहरं गई गया ॥ ११६०॥ दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~200 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] आवश्यकहारिभ द्रीया ||५३२॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११६० ], भाष्यं [ २०४...], व्याख्या- 'दशारसिंहस्य' अरिष्टनेमिपितृव्यपुत्रस्य 'श्रेणिकस्य च' प्रसेनजित्पुत्रस्य पेढालपुत्रस्य च सत्यकिनः 'अनुतरा' प्रधाना क्षायिकेति यदुक्तं भवति, का ?-दर्शनसम्पत् 'तदा' तस्मिन् काले, तथाऽपि बिना चारित्रेण 'अधरां गतिं गता' नरकगतिं प्राप्ता इति वृत्तार्थः ॥ ११६० ॥ किं च- सयाओवि गईओ अविरहिया नाणदंसणघरेहिं । ता मा कासि पमायं नाणेण चरितरहिएणं ॥। ११६१ ॥ व्याख्या- 'सर्वा अपि' नारकतिर्यनरामरगतयः 'अविरहिताः' अविमुक्ताः, कै: ?-ज्ञानदर्शनधरैस्सच्चैः, यतः - सर्वा स्वेव सम्यक्त्वश्रुतसामायिकद्वयमस्त्येव न च नरकगतिव्यतिरेकेणान्यासु मुक्तिः, चारित्राभावात्, तस्माचारित्रमेव प्रधानं मुक्तिकारणं, तद्भावभावित्वादिति यस्मादेवं 'तं मा कासि पमायंति तत् तस्मान्मा कार्षीः प्रमादं, ज्ञानेन चारित्ररहितेन तस्येष्टफलासाधकत्वात्, ज्ञानग्रहणं च दर्शनोपलक्षणार्थमिति गाथार्थः । ११६१ ॥ इतश्च चारित्रमेव प्रधानं, निय मेन चारित्रयुक्त एव सम्यक्त्वसद्भावाद्, आह च सम्मतं अचरितस्स हुज भगणाइ नियमसो नस्थि । जो पुण चरितजुत्तो तस्स उ नियमेण सम्मसं ॥ ११३२ ॥ व्याख्या---' सम्यक्त्वं' प्राग्वर्णितस्वरूपम् 'अचारित्रस्य चारित्ररहितस्य प्राणिनो भवेत् 'भजनया' विकल्पनया-कदाचिद्भवति कदाचिन्न भवति, 'नियमशो नास्ति' नियमेन न विद्यते, प्रभूतानां चारित्ररहितानां मिथ्यादृष्टित्वात् यः पुनश्चारित्रयुक्तः सत्यस्तस्यैव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, 'नियमेन' अवश्यतया सम्यक्त्वम्, अतः सम्यक्त्वस्यापि निय मतश्चारित्रयुक्त एव भावात्प्राधान्यमिति गाथार्थः । ११६२ ॥ किं च---- ३ बन्दनाध्ययने दर्शनपक्षः ~ 201~ ||५३२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११६३], भाष्यं [२०४...], 1-90 -5646 प्रत सूत्रांक ||७..|| जिणवयणबाहिरा भावणाहिं उव्वदृणं अयाणता । नेरइयतिरियएगिदिएहि जह सिझई जीवो ॥ ११६३ ।। व्याख्या-'जिनवचनवाह्या' यथावस्थितागमपरिज्ञानरहिताः प्रत्येकं ज्ञानदर्शननयावलम्बिनः 'भावणाहिँति उक्तेन न्यायेन ज्ञानदर्शनभावनाभ्यां सकाशात् , मोक्षमिच्छन्तीति वाक्यशेषः, 'उद्वर्तनामजानाना' नारकतिर्यगेकेन्द्रियेभ्यो यथा सिद्धयति जीवस्तथोद्वर्तनामजानाना इति योगः, इयमत्र भावना-ज्ञानदर्शनभावेऽपि न नारकादिभ्योऽनन्तरं मनुष्यभावमप्राप्य सिद्ध्यति कश्चित् , चरणाभावात् , तेनानयोः केवलयोरहेतुत्वं मोक्षं प्रति, तेभ्य एवैकेन्द्रियेभ्यश्च ज्ञानादिरहितेभ्योऽप्युद्वत्ता मनुष्यत्वमपि प्राप्य चारित्रपरिणामयुक्त एव सिद्ध्यति, नायुक्तोऽकर्मभूमिकादिः, अत इयमुद्धर्तना कारणवैकल्यं सूचयतीति गाथार्थः ॥ ११६३ ।। पुनरपि चारित्रपक्षमेव समर्थयन्नाह सुमुवि सम्मट्टिी न सिझई चरणकरणपरिहीणो। जं चेव सिद्धिमूलं मूढो तं चेव नासेइ ॥ ११६४ ॥ व्याख्या-'सुष्टुपि' अतिशयेनापि सम्यग्दृष्टिन सिस्यति, किम्भूतः १-चरणकरणपरिहीणः, तद्बादमेव च समर्थयन् , किमिति ?-'यदेव सिद्धिमूलं' यदेव मोक्षकारणं सम्यक्त्वं मूढस्तदेव नाशयति, केवलतद्वादसमर्थनेन, 'एकंपि असद्दहतो मिच्छंति वचनात , अथवा सुतृपि सम्यग्दृष्टिः क्षायिकसम्यग्दृष्टिरपीत्यर्थः, न सियति चरणकरणपरिहीणा, श्रेणिकादिवत्, किमिति !-यदेव सिद्धिमूल-चरणकरणं मूढस्तदेव नाशयत्यनासेवनयेति गाथार्थः ॥ ११६४ ॥ किं च-अयं केवलदर्शनपक्षो न भवत्येवागमविदः सुसाधो, कस्य तर्हि भवति !, अत आह दसणपक्खो सावय चरित्तभडे य मंदधम्मे य । दसणचरित्तपक्खो समणे परलोगकंखिम्मि ॥११६५॥ दीप %A5% अनुक्रम [९..] **% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~202 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११६५], भाष्यं [२०४...], द्रीया प्रत गः सूत्रांक % आवश्यक- व्याख्या-दर्शनपक्ष'श्रावके' अप्रत्याख्यानकषायोदयवति भवति 'चारित्रभ्रष्टे च' कस्मिश्चिंदव्यवस्थितपुराणे 'मन्द-IX वन्दनाहारिभ- धर्म च' पार्श्वस्थादौ, दर्शनचारित्रपक्षः श्रमणे भवति, किम्भूते ?-परलोकाकाङ्गिणि, सुसाधावित्यर्थः, प्राकृतशैल्या चेह ध्ययने सप्रयीयोसप्तमी षष्ठन्धर्थ एव द्रष्टव्या, दर्शनग्रहणाच ज्ञानमपि गृहीतमेव द्रष्टव्यम् , अतो दर्शनादिपक्षस्त्रिरूपो वेदितव्य इति । गाथार्थः ॥ ११६५ ॥ अपरस्त्वाह-यद्येवं बह्वीभिरुपपत्तिभिश्चारित्रं प्रधानमुपवण्यते भवता ततस्तदेवास्तु, अलं ज्ञानदर्श-| ॥५३ ॥ नाभ्यामिति, न, तस्यैव तयतिरेकेणासम्भवाद्, आह पारंपरप्पसिद्धी दसणनाणेहिं होइ चरणस्स । पारंपरप्पसिद्धी जह होइ तहऽन्नपाणाणं ॥ १११६ ॥ व्याख्या-पारम्पर्येण प्रसिद्धिः पारम्पर्यप्रसिद्धिः-स्वरूपसत्ता, एतदुकं भवति-दर्शनाज्ज्ञानं, ज्ञानाचारित्रम् , एवं पारम्पर्येण चरणस्वरूपसत्ता, सा दर्शनज्ञानाभ्यां सकाशाद्भवति चरणस्य, अतस्तद्भावभावित्वाचरणस्य त्रितयमप्यस्तु, लौकिकं न्यायमाह-पारम्पर्यप्रसिद्धिर्यथा भवति तथाऽन्नपानयोलोंकेऽपि प्रतीतैवेति क्रिया, तथा चान्नार्थी स्थालीन्धनाद्यपि गृह्णाति पानार्थी च द्राक्षाद्यपि, अतखितयमपि प्रधानमिति गाथार्थः ॥ ११६६ ।। आह-योषमतस्तुल्यबलत्वे सति ज्ञानादीनां किमित्य स्थानपक्षपातमाश्रित्य चारित्रं प्रशस्यते भवतेति ?, अत्रोच्यतेजम्हा सणनाणा संपुण्णफलं न दिति पत्तेयं । चारित्तजुया दिति उ विसिस्सए तेण चारिसं ॥११६७।। । व्याख्या-यस्माद्दर्शनज्ञाने 'सम्पूर्णफलं' मोक्षलक्षणं 'न ददतः' न प्रयच्छतः प्रत्येकं, चारित्रयुक्त दत्ते एव, विशेष्यते ॥५३३॥ मातेन चारित्रं, तस्मिन्सति फलभावादिति गाथार्थः॥ ११६७ ।। आह-विशिष्यतां चारित्रं, किन्तु % दीप अनुक्रम 4 [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~203 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११६८], भाष्यं [२०४...], उज्जममाणस्स गुणा जह हुंति ससत्तिओ तवसुएसुं। एमेव जहासत्ती संजममाणे कहं न गुणा १ ॥। ११६८ ॥ ब्याख्या—'उज्जममाणस्स'त्ति उद्यच्छतः उद्यमं कुर्वतः साधोः, क ? - तपः श्रुतयोरिति योगः, 'गुणाः' तपोज्ञानावाप्तिनिर्जरादयो यथा भवन्ति 'स्वशक्तितः' स्वशक्त्योद्यच्छतः, एवमेव 'यथाशक्ति' शक्त्यनुरूपमित्यर्थः, 'संजममाणे कहं न गुण ति संयच्छमाने-संयमं पृथिव्यादिसंरक्षणादिलक्षणं कुर्वति सति साधौ कथं न गुणाः १, गुणा एवेत्यर्थः, अथवा कथं न गुणा येनाविकलसंयमानुष्ठानरहितो विराधकः प्रतिपद्यत इति ?, अत्रोच्यते अणिगृहंतो विरियं न विराहेद्द धरणं तवसुएसुं । जइ संजमेऽवि विरियं न निगूहिज्जा न हाविला ।। ११६९ ।। व्याख्या- 'अनिगूहन वीर्ये' प्रकटयन् सामर्थ्यं यथाशक्त्या, क ? - तपःश्रुतयोरिति योगः, किं ?'न विराधयति चरणं न खण्डयति चारित्रं १, यदि 'संयमेऽपि' पृथिव्यादि संरक्षणादिलक्षणे 'वीर्य' सामर्थ्यमुपयोगादिरूपतया 'न निगूहयेत्' न प्रच्छादयेन्मातृस्थानेन 'न हाविज्ज'त्ति ततो न हापयेत् संयमं न खण्डेत्, स्यादेव संयमगुणा इति गाथार्थः ॥ ११६९ ॥ संजमजोएस सया जे पुण संतविरियावि सीयंति । कह ते विसुद्धचरणा बाहिरकरणाला हुंति ? ॥ ११७० ॥ व्याख्या- 'संयमयोगेषु' पृथिव्यादिसंरक्षणादिव्यापारेषु 'सदा' सर्वकालं ये पुनः प्राणिनः 'संतविरियावि सीयंति'त्ति वि द्यमानसामर्थ्या अपि नोत्सहन्ते कथं ते विशुद्धचरणा भवन्तीति योगः, नैवेत्यर्थः, बाह्यकरणालसाः सन्तः - प्रत्युपेक्षणादिबाह्यचेष्टारहिता इति गाथार्थः॥ ११७० ॥ आह-ये पुनरालम्बनमाश्रित्य बाह्यकरणालसा भवन्ति तेषु का चार्तेति ?, उच्यतेआलंबणेण केणइ जे मन्ने संयमं पमायंति । न हु तं होइ पमाणं भूयस्थगवेसणं कुज्जा ॥ ११७१ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११७१], भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५३४॥ व्याख्या-आलम्ब्यत इत्यालम्बनं-प्रपततां साधारणस्थानं तेनालम्बनेन 'केनचित्' अव्यवच्छित्यादिना ये प्राणिनः । वन्दनामन्य' इति एवमहं मन्ये 'संयमम्' उक्तलक्षणे 'प्रमादयन्ति' परित्यजन्ति, 'न हुतं होइ पमाण' नैव तदालम्बनमात्र ध्ययने भवति प्रमाणम्-आदेयं, किन्तु ? 'भूतार्थगवेषणं कुर्यात् तत्त्वार्थान्वेषणं कुर्यात्-किमिदं पुष्टमालम्बनम् ? आहोस्विन्नेति, सालम्बन सेवा यद्यपुष्टमविशुद्धचरणा एव ते, अथ पुष्टं विशुद्धचरणा इति गाथार्थः ॥ ११७१ ॥ अपरस्त्वाह-आलम्बनात्को विशेष उप-] जायते ? येन विशुद्धचरणा भवन्तीति, अत्र दृष्टान्तमाह सालंबणो पडतो अप्पाणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालंयणसेवा धारेइ जई असढभावं ॥ ११७२॥ व्याख्या-इहालम्बनं द्विविधं भवति-द्रव्यालम्बनं भावालम्बनं च, द्रव्यालम्बनं गादी प्रपतता यदालम्ब्यते द्रव्यं, तदपि द्विविधम्-पुष्टमपुष्टं च, तत्रापुष्टं दुर्बलं कुशवञ्चकादि, पुष्टं तु बलवत्कठिनवल्यादि, भावालम्बनमपि पुष्टापुष्टभेदेन | द्विधैव, तत्रापुष्टं ज्ञानाद्यपकारक, तद्विपरीतं तु पुष्टमिति, तच्छेद-'कहिं अछित्ति अदुवा अहीहं, तबोवहाणेसु य उज्जमिस्स। गणं व णीईइ व हु सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मुक्खं ॥१॥" तदेवं व्यवस्थिते सति सहालम्बनेन वर्तत इति सालम्बना, असौ पतन्नपि आरमानं 'दुर्गमेऽपि' गर्तादौ धारयति, पुष्टालम्बनप्रभावादिति, 'इय' एवं सेवन सेवा प्रतिसेवनेत्यर्थः सालम्बना चासौ सेवा च सालम्बनसेवा सा संसारगर्ते प्रपतन्तं धारयति यतिमशउभावं-मातृस्थानरहितमित्येष गुण ॥५३४॥ इति गाथार्थः॥११७२ ॥ साम्प्रतं सिसाधयिषितार्थव्यतिरेक दर्शयन्नाह करिष्याम्पत्युच्छित्तिमधवाऽध्येष्ये तपउपधानयोरुषस्यामि । गणं वा नीवैव सारविष्यामि सालम्बसेवी समुपैति मोक्षम् ॥१॥ OCTOCALS ॥७..|| दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~205 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१९१७३], भाष्यं [ २०४...], आलंबहीण पुण निवडइ खलिओ अहे दुरुन्तारे । इय निक्कारणसेवी पडद् भवोहे अगाहंमि ।। ११७३ ।। व्याख्या-आलम्बनहीनः पुनर्निपतति स्खलितः, क ? -'अहे दुरुत्तारे'ति गर्तायां दुरुत्तारायाम्, 'इय' एवं 'निष्का| रणसेवी' साधुः पुष्टालम्बनरहित इत्यर्थः, 'पतति भवौघे अगाधे' पतति भवगर्तायामगाधायाम्, अगाधत्वं पुनरस्या दुःखे|नोत्तारणसम्भवादिति गाथार्थः ॥ ११७३ ॥ गतं सप्रसङ्गं दर्शनद्वारम्, इदानीं 'नियावासे'त्ति अस्यावसरः, अस्य च सम्बन्धो व्याख्यात एव गाथाक्षरगमनिकाय, स एव लेशतः स्मार्यते-इह यथा चरणविकला असहायज्ञानदर्शनपक्षमालम्बन्ति एवं नित्यवासाद्यपि, आइ च " जे जत्थ जया भग्गा ओगासं ते परं अविदंता । गंतुं तत्थऽचयंता इमं पहाणंति घोसंति ॥ ११७४ ॥ व्याख्या- 'ये' साधवः शीतलविहारिणः 'यत्र' अनित्यवासादी 'यदा' यस्मिन् काले 'भग्ना' निर्विण्णाः 'अवकाशे' स्थानं ते 'परम्' अन्यत् 'अविदंत'त्ति अलभमाना गन्तुं 'तत्र' शोभने स्थाने अशक्नुवन्तः किं कुर्वन्ति ? - इमं पहाणंति घोसन्ति'ति यदस्माभिरङ्गीकृतं साम्प्रतं कालमाश्रित्येदमेव प्रधानमित्येवं घोषयन्ति दितो इत्थ सत्येणं जहा को सत् परिदगरुकखच्छायमाणं पवण्णो, तत्थ केइ पुरिसा परिस्संता पविरलासु छायासु जेहिं तेहिं वा पाणिएहिं पडिबद्धा अच्छंति, अण्णे य सद्दाविंति एह इम ं चैव पहाणंति, तंमि सत्ये केइ तेसिं पडिसुणंति, केइ ण दृष्टान्तो सार्थेन यथा कोऽपि साथैः प्रमिरको क्षमायमध्यानं प्रपद्मः तत्र केचित्पुरुषाः परिश्रान्ताः प्रविरला छायासु वैस्तैर्वा पानीयैः प्रतिपदातिष्ठन्ति अम्यां शब्दयन्ति-आयातेदमेव प्रधानमिति, तस्मिन् साथै केचितेषां प्रतिशृण्वन्ति केचिन पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचिता वृत्तिः ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११७५], भाष्यं [२०४...], मन-%ex साद्या. प्रत सूत्रांक ||७..|| आवश्यक- Iसुणंति, जे सुर्णिति ते छुहातण्हाइयाणं दुक्खाणं आभागी जाया, जे न सुणंति ते खिप्पमेव अपडिबद्धा अद्धाण सीस। ३बन्दनाहारिभ- गंतु उदयस्स सीयलस्स छायाणं च आभागी जाया। जहा ते पुरिसा विसीयंति तहा पासत्थाई, जहा ते णिच्छिण्णा ध्ययने द्रीया हातहा सुसाहू । अयं गाथार्थः ॥११७४ । साम्प्रतं यदुक्कमिदं प्रधानमिति घोषयन्ति तदर्शयति (नित्यवा॥५३५॥ | नीयावासविहारं चेइयभत्तिं च अज्जियालाभं । विगईसु य पडिबंधं निहोसं चोइया विति॥ ११७५ ॥ लम्ब० व्याख्या-नित्यवासेन विहारं, नित्यवासकल्पमित्यर्थः, चैत्येषु भक्तिश्चैत्यभक्तिस्तां च, चशब्दात्कुलकार्यादिपरिग्रहः, आर्यिकाभ्यो लाभस्तं, क्षीराद्या विगतयोऽभिधीयन्ते तासु विगतिषु च 'प्रतिबन्धम् आसङ्गं निर्दोषं चोदिताः अन्येनोद्यतविहारिणा 'ब्रुवते' भणन्तीति गाथार्थः ॥ ११७५ ॥ तत्र नित्यावासविहारे सदोषं चोदिताः सन्तस्तदा कथं वा निर्दोष बुवत इत्याह जाहेवि य परितंता गामागरनगरपट्टणमडता । तो केइ नीयवासी संगमथेरं बवासंति ॥ ११७६ ॥ व्याख्या-यदाऽपि च 'परितान्ताः सर्वथा श्रान्ता इत्यर्थः, किं कुर्वन्तः सन्तः ?-ग्रामाकरनगरपत्तनान्यटन्तस्सन्तः, ग्रामादीनां खरूपं प्रसिद्धमेव, अतः केचन' नष्टनाशका नित्यवासिनः, न तु सर्व एव, किं?-सङ्गमस्थविरमाचार्य व्यप- ५३५॥ ददिशन्त्यालम्बनत्वेन इति गाथार्थः ॥ ११७६ ॥ कथं - यन्ति, ये ग्यन्ति ते धातृष्णादिकानां दुःखानामामागिनो जाताः, ये न ऋण्वन्ति ते क्षिप्रमेवाप्रतिपदा अश्वन शीर्ष गत्वोदकस्य शीत 18|| लस ठाबाना चाभागिनो जाताः । यथा ते पुरुषा विषीदन्ति तथा पास्वादयः, यथा से निस्तीक्षिया सुसाधवः । KI- दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११७७], भाष्यं [२०४...], " % प्रत +86A C सूत्रांक ||७..|| संगमधेरायरिओ सुड तवस्सी तहेव गीयत्यो । पेहित्ता गुणदोसं नीयावासे पवत्तो उ ॥ १९७७॥ व्याख्या-निगदसिद्धा, कः पुनः सङ्गमस्थविर इत्यत्र कथानकं-कोईलणयरे संगमथेरा, दुम्भिक्खे तेण साहुणो विसज्जिया, ते तं णयरं णव भागे काऊण जंघाबलपरिहीणा विहरंति, णयरदेवया किर तेसिं उवसंता, तेसिं सीसो दत्तो णाम अहिंडओ चिरेण कालेणोदंतवाहगो आगओ, सो तेसिं पडिस्सए ण पविसइ णिययावासित्ति कार्ड, भिक्खवेलाए उग्गाहियं हिंडताणं संकिलिस्सइ-को डोऽयं सहकुलाणि ण दाएइत्ति, एगत्व सेठियाकुले रोवणियाए गहियओ दारओ, छम्मासा रोवंतगरस, आयरिएहिं चप्पुडिया कया-मा रोव, वाणमंतरीए मुक्को, तेहिं तुडेहिं पडिलाहिया जधिच्छिएण, सो विसजिओ, एताणि ताणि कुलाणित्ति, आयरिया सुइरं हिंडिऊण अंतं पंतं गहाय आगया, समुद्दिडा, आवस्सयआलोयणाए आयरिया भणति-आलोएहि सो भणइ-तुम्भेहिं समं हिंडिओत्ति, ते भणति-धाइपिंडो ते भुत्तोत्ति, भणइ-अइसुहुमाणित्ति बइटो, देवयाए अहरचे वासं अंघयारं च विउवियं एस हीलेइत्ति, आयरिएहिं भणिओ-अतीहि, कोसेरनगरे संगमस्थविराः, दुर्भिक्षे तः साधयो विमाने तमगर नव भागान् कृत्वा परिक्षीणणसाबला विहरन्ति, मगर देवता किल तेषामुप-। शान्ता, तेषां शिप्यो दत्तो नामाविण्यकविरेण कालेगोदन्तवाहक आगतः, स तेषां प्रतिश्रयेन प्राविक्षत् नियवासीतिकरवा, भिक्षावेकायामापप्रहिकं हिपहमानयोः संहिश्यति, वृद्धोऽयं श्राद्धकुलानि न दर्शयतीति, एकत्र श्रेष्टिकुले रोदिन्या गृहीतो दारकः, पषमासी रुदति, आचार्यश्चप्पुटिका कृता मा रोदी, व्या मुक्तः, तैस्तुष्टैः प्रतिकाभिता पारच्छिकेन, स विमृष्टः, एतानि तानि कुलानीति, आचार्याः सुचिरं हिण्डयित्वा अन्तप्रान्तं गृहीत्वागताः, समुदिष्टाः, आवश्षकालोचनावामाचार्या भणन्ति-आलोचय, स भणति-युष्माभिः समं हिण्डित इति, ते भणन्ति-धाबीपिण्डस्चया भुक्क इति, भणति-अतिसूक्ष्मतराण्येतानीति अपविष्टः, देवतयाऽधरा वर्षा अन्धकारश्च विकुक्तिी एपहीलतीति, आचार्भणितः-मागच्छ.* कोलबरे + नव दा. दो य. कुण्टोऽयं, दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | संगमस्थावीरस्य दृष्टांत ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११७७], भाष्यं [२०४...], वन्दना आवश्यक- हारिभद्रीया ध्ययने चत्यभतत्यालम्बन प्रत सूत्रांक ॥५३६॥ ॥७..|| सो भणइ-अंधयारोत्ति, आयरिपहिं अंगुली पदाइया, सा पजलिया, आउट्टो आलोएइ, आयरियाविणव भागे परिक- हंति, एवमयं पुडालंबणो ण होइ सबेसि मंदधम्माणमालंबणन्ति ।। ११७७ ।। आह च ओमे सीसपवासं अप्पडिबंधं अजंगमत्तं च । न गणंति एगखित्ते गणति वासं निययवासी ॥११७८॥ व्याख्या-'ओमे' दुर्भिक्षे 'शिष्यप्रवास' शिष्यगमनं, तथा तस्यैव 'अप्रतिबन्धम्' अनभिष्वङ्गम् 'अजङ्गमत्वं' वृद्धत्वं च, चशब्दात्तत्रैव क्षेत्रे विभागभजनं च, इदमालम्बनजालं 'न गणयन्ति' न प्रेक्षन्ते, नालोचयन्तीत्यर्थः, किन्तु एकक्षेत्रे|8| गणयन्ति वासं 'नित्यवासिनः' मन्दधिय इति गाथार्थः॥११७८ ॥ नित्यावासविहारद्वारं गतं, चैत्यभक्तिद्वारमधुनाचेदयकुलगणसंघे अन्नं वा किंचि काउ निस्साणं । अहवावि अञ्जवयरं तो सेवंती अकरणिज्नं ।। ११७९ ॥ व्याख्या-चैत्यकुलगणसवान् , अन्यद्वा 'किञ्चिद्' अपुष्टमव्यवच्छित्यादि 'कृत्वा निश्रा' कृत्वाऽऽलम्बनमित्यर्थः। कथं -नास्ति कश्चिदिह चैत्यादिप्रतिजागरकः अतोऽस्माभिरसंयमोऽङ्गीकृतः, मा भूचैत्यादिन्यवच्छेद इति, अथवाऽप्या-1 यवैरं कृत्वा निश्रां ततः सेवन्ते 'अकृत्यम्' असंयमं मन्दधर्माण इति गाथार्थः ॥११७९ ॥ चइयपूया किं वयरसामिणा मुणियपुव्वसारेणं । न कया पुरियाइ? तओ मुक्खंग सावि साहूणं ॥ ११८०॥ दीप SHe अनुक्रम ॥५३६॥ सभणति-अन्धकार इत्ति, आचारली प्रदर्शिता, सा प्रज्वलिता, आवृत्त आलोचवति, आचार्या अपि नव भागान् परिकथयन्ति, एवमयं पुष्टाललम्बनो न भवति सर्वेषां मन्दधर्माणामालम्बन मिति । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~209 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] 69696*6* * % % %* [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१९१८१], भाष्यं [ २०४...], व्याख्या— अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चाधः कथितमेव, तत्र वैरस्वामिनमालम्बनं कुर्वाणा इदं नेक्षन्ते मन्दधियः किमित्याह- ओहावणं परेसिं सतित्थभावणं च वच्छलं । न गणंति गणेमाणा पुण्दुचियपुप्फ महिमं च ॥ ११८१ ॥ व्याख्या- 'अपभ्राजना' लाञ्छनां 'परेषां' शाक्यादीनां स्वतीर्थोद्भावनां च दिव्यपूजाकरणेन तथा 'वात्सल्य' श्रावकाणां, एतन्न गणयन्त्यालम्बनानि गणयन्तः सन्तः, तथा पूर्वावचितपुष्पमहिमानं च न गणयन्तीति - पूर्वावचितैः प्राग्गृहीतैः पुष्पैः कुसुमैर्महिमा - यात्रा तामिति गाथार्थः ।। ११८१ ॥ चैत्यभक्तिद्वारं गतम्, अधुनाऽऽर्यिकाला भद्वारं, तत्रेयं गाथा - अजयलाभे गिद्धा सरण लाभेण जे असंतुद्वा । भिक्खायरियाभग्गा अन्नियपुत्तं ववइति ॥ ११८२ ॥ व्याख्या - आर्यिकाभ्यो लाभ आर्यिकालाभस्तस्मिन् 'गृद्धाः' आसक्ताः 'स्वकीयेन' आत्मीयेन लाभेन येऽसन्तुष्टा मन्दधर्माण: भिक्षाचर्यया भन्ना भिक्षाचर्याभग्नाः, भिक्षाटनेन निर्विण्णा इत्यर्थः, ते हि सुसाधुना चोदिताः सन्तोऽभक्ष्योऽयं तपस्विनामिति 'अन्निकापुत्रम् आचार्य व्यपदिशन्त्यालम्बनत्वेनेति गाथार्थः ॥ ११८२ ॥ कथम् १ अन्नपुत्तारिओ भत्तं पाणं च पुप्फचूलाए । उवणीयं भुजतो तेणेव भवेण अंतगडो ॥ ११८३ ॥ व्याख्या - अक्षरार्थी निगदसिद्धः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्च योगसङ्ग्रहेषु वक्ष्यते । ते च मन्दमतय इदमालम्बनं कुर्वन्तः सन्तः इदमपरं नेक्षन्ते, किम् ? अत आह— सीसगणं ओमे भिक्खायरिया अपचलं थेरं । न गणंति सहावि सडा अजियलाहं गवेसंता ॥। १९८४ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) Zafa प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक- ४ हारिभ श्रीया ॥५३७॥ [भाग-३०] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा- ७...], निर्युक्तिः [११८४], भाष्यं [२०४...], व्याख्या - गतः शिष्यगणोऽस्येति समासस्तम् 'ओमे' दुर्भिक्षे भिक्षाचर्यायाम् अपञ्चलः - असमर्थः भिक्षाचर्याsपञ्चलस्तं ' स्थविरं' वृद्धम् एवंगुणयुक्तं 'न गणयन्ति' नालोचयन्ति 'सहावि' समर्थाः, अपिशब्दात्सहायादिगुणयुक्ता अपि, शठा-मायाविनः आर्यिकालाभं 'गवेसंति'त्ति अन्विषन्त इति गाथार्थः ॥ ११८४ ॥ गतमार्थिकालाभद्वारं, विगतिद्वारमधुना, तत्रेयं गाथा भक्तं वा पाणं वा भुत्तूणं लावलवियमविसुद्धं । तो अवज्जपच्छिन्ना उदायणरिसिं ववइति ।। ११८५ ।। व्याख्या- 'भक्तं वा' ओदनादि 'पानं वा' द्राक्षापानादि 'भुक्त्वा' उपभुज्य 'लावलवियन्ति ढोल्योपेतम् 'अविशुद्ध' विगतिसम्पर्कदोषात् तथा च- निष्कारणे प्रतिषिद्ध एव विगतिपरिभोगः, उक्तं च- “ विगेईविगईभीओ विगड़गयं जो उ भुंजए साहू । विगई बिगइसहावा विगई विगई बला णेइ ॥ १ ॥” ति, ततः केनचित्साधुना चोदिताः सन्तः 'अवद्य प्रतिच्छन्नाः पापप्रच्छादिताः 'उदायणरिसिं' उदायनऋषिं व्यपदिशन्त्यालम्बनत्वेनेति गाथार्थः ॥। ११८५ ।। अत्र कथानकं - बीतभए णयरे उदायणो राया जाब पवइओ, तस्स भिक्खाहारस्स वाही जाओ, सो विज्जेहिं भणिओ-दक्षिणा भुंजह, सो किर भट्टारओ वइयाए अच्छिओ, अण्णया बीयभयं गओ, तत्थ तस्स भगिणिज्जो केसी राया, तेणं चैव रजो ठाविओ, 5 दिगतिविकृतिभीतो विकृतियतं यस्तु भुझे साधुः । विकृतिर्विकृतिस्वभावा विकृतिर्विगर्ति मलाशयति ॥ १ ॥ वीतभये नगरे उदायनो राजा वावप्रप्रजितः, तस्य भिक्षाहारस्य व्याधितः स वैचैर्भणितः दना भुस बिल मट्टारको प्रतिकासु स्थितः अन्यदा वीतभयं गतः तत्र तस्य भागिनेयः केशी राजा, तेनैव राज्ये स्थापितः, ३ वन्दना ध्ययने आर्यिका ~211~ लाभादि द्वाराणि ॥५३७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११८५], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक NAGACAN ||७..|| केसीकुमारोऽमचेहि भणिओ-एस परीसहपराजिओ रजं मनाइ, सो भणइ-देमि, ते भणंति-ण एस रायधम्मोत्ति वुग्गा-18 हेइ, चिरेण पडिस्सुयं, किं कजउ ?, विसं तस्स दिजउ, एगाए पसुपालीए घरे पयुत्त-दधिणा सह देहित्ति, सा पदिण्णा, देवयाए अवहियं, भणिओ य-महरिसि! तुज्झ विसं दिपणं, परिहराहि दहिं, सो परिहरिओ, रोगो वॉघिउमारद्धो, पुणो पगहिओ, पुणो पउत्तं विस, पुणो देवयाए अवहरियं, तइयं वारं देवयाए बुच्चइ-पुणोवि दिण्णं, तंपि अवहिये, सा तस्स पच्छओ पहिंडिया, अण्णया पमत्ताए देवयाए दिन्नं, कालगओ, तस्स य सेजातरो कुंभगारो, तंमि कालगए देवयाए, पंसुवरिसं पाडियं, सो अवहिओ अणवराहित्तिकार्ड सिणवल्लीए कुंभकारुक्लेवो णाम पट्टणं तस्स णामेण जायं जत्थ सो दाअवहरि ठविओ, वीतभयं च सर्व पंसुणा पेल्लियं, अज्जवि पुंसुओ अच्छंति, एस कारणिगोत्तिकगुन होइ सबेसिमालं-| |वणंति ॥ आह चसीयललुक्खाऽणुचियं वएसु विगईगएण जाविता हट्टावि भणंति सढा किमासि उदायणो न मुणी? ॥११८६॥ केशिकुमारोऽमात्यणितः एष परीपापराजितः राज्यं मार्गपति, स भणति-ददामि, से भणन्ति नैप राजधर्म इति प्युदाहयति, चिरेण प्रतिश्रुतं, कि क्रियतां!, विषं तम दवातु, एकस्याः पशुपाल्या गृहे प्रबुतं दक्षासह देहीति, सा प्रदत्तवती, देवतयाऽपहतं, भणितश्च-महर्षे ! तुभ्यं विषं दस, परिहर दधि, स परिहतवान् , रोगो वर्धितुमारब्धा, पुनः प्रगृहीतं, पुनः प्रयुक्तं विषं, पुनर्देवतयाऽपहतं, तृतीयवार देवतयोच्यते, पुनरपि दर्ग, तदपि अपहृतं, सा तस पृष्ठतः अहिण्डिता, अन्यदा प्रमत्तायां देवत्तायां दतं, कालगतः, तस्य च शय्यातरः कुम्भकारः, तस्मिन् कालगते देवतया पांचवर्षा पतिता, सोऽपहतोऽनपराधीतिकावा सेनापल्या कुम्भकारोरक्षेपो नाम पत्तनं तस्य नाझा जावं यत्र स्रोऽपहृत्य स्थापितः, वीतभयं च सबै पांसुना प्रेरितं, अयापि पशिवसिष्ठन्ति, एष कारणिक इति कृत्वा न भवति सर्वेषामालम्बनमिति. * सो परिदिण्णा. + पवि दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [१९८६], भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५३८॥ व्याख्या-शीतलं च तत् रूक्षं च शीतलरूक्षम् , अन्नमिति गम्यते, तस्यानुचितः-अननुरूपः, नरेन्द्रप्रवजितत्वाद्रोगा- वन्दनाभिभूतत्वाच्च शीतलरूक्षानुचितस्तं, 'बजेषु' गोकुलेषु 'विगतिगतेन' विगतिजातेन यापयन्तं सन्तं 'हठ्ठावित्ति समर्था अपिाध्ययने भणन्ति शठा:-किमासीदुदायनो न मुनिः, मुनिरेव विगतिपरिभोगे सत्यपि, तस्मानिर्दोष एवायमिति ॥ ११८५ विकृतिद्वार एवं नित्यवासादिषु मन्दधर्माः सङ्गमस्थविरादीन्यालम्बनान्याश्रित्य सीदन्ति, अन्ये पुनः सूत्रादीन्येवाधिकृत्य, तथा चाह सुत्तत्थवालवहे य असहुव्वाइआवईओ या। निस्साणपयं काउं संघरमाणावि सीयंति ॥ ११८७ ॥ व्याख्या-सूत्रं च अर्थश्च बालश्च वृद्धश्च सूत्रार्थवालवृद्धास्तान् , तथाऽसहश्च द्रव्याद्यापदश्च असहद्रव्याद्यापदस्ताँश्च, निश्राणाम्-आलम्बनानां पदं कृत्वा 'संस्तरन्तोऽपि' संयमानुपरोधेन वर्तमाना अपि सन्तः सीदन्ति, एतदुक्तं भवतिसूत्रं निश्रापदं कृत्वा यथाऽहं पठामि तावत्किं ममान्येन !, एवमर्थ निश्रापदं कृत्वा शृणोमि तावत्, एवं बालत्वं वृद्धत्वं असहम्-असमर्थत्वमित्यर्थः, एवं द्रव्यापद-दुर्लभमिदं द्रव्यं, तथा क्षेत्रापद-धुलकमिदं क्षेत्रं, तथा कालापदं-दुर्भिक्षं वर्तते, तथा भावापदं-लानोऽहमित्यादि निश्रापदं कृत्वा संस्तरन्तोऽपि सीदन्त्यल्पसत्त्वा इति गाथार्थः ॥११८७॥ एवम्- ५३८॥ आलंबणाण लोगो भरिओ जीवस्स अजउकामस्स । जंज पिच्छद लोए तं तं आलंवणं कुणह ॥११८८ ॥ व्याख्या-आलम्बनानां प्राग्निरूपितशब्दार्थानां 'लोक मनुष्यलोकः 'भृतः' पूर्णो जीवस्य 'अजउकामस्स'त्ति अय दीप - अनुक्रम * [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2134 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११८८], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत CANAS सूत्रांक ||७..|| पातितुकामस्य, तथा च-अयतितुकामो यद् यत्पश्यति लोके नित्यवासादि तत् तदालम्पनं करोतीति गाथार्थः ॥११८८॥ किं च-द्विधा भवन्ति प्राणिनः-मन्दश्रद्धास्तीवनद्धाश्च, तत्रान्यन्मन्दश्रद्धानामालम्बनम् अन्यच्च तीव्रश्रद्धानामिति, आह च जे जत्थ जया जइया बहुस्सुया चरणकरणपन्भट्टा । जं ते समायरंती आलंवण मंदसड्डाणं ।। ११८९॥ AI व्याख्या-'ये' केचन साधवः 'यत्र' ग्रामनगरादौ 'यदा' यस्मिन् काले सुषमदुष्षमादौ 'जइय'त्ति यदा च दुर्भिक्षादौ बहुश्रुताश्चरणकरणप्रभ्रष्टाः सन्तो यत्ते समाचरन्ति पार्श्वस्थादिरूपं तदालम्बनं मन्दश्रद्धानां, भवतीति वाक्यशेषः, तथा६ हि-आचायों मधुरायां मङ्गः सुभिक्षेऽप्याहारादिप्रतिबन्धापरित्यागात् पार्यस्थतामभजत्, तदेवमपि नूनं जिनर्धो दृष्ट एवेति गाधाभिप्रायः ॥ ११८९ ॥ जे जस्थ जया जइया बहुस्सुया चरणकरणसंपन्ना । जं ते समायरंती आलंबण तिव्वसड्डाणं ॥ ११९० ॥ व्याख्या-'ये' केचन 'यत्र' ग्रामनगरादौ 'यदा' सुषमदुष्पमादौ 'जइयत्ति यदा च दुर्भिक्षादौ बहुश्रुताश्चरणकरणसम्पन्नाः, यत्ते समाचरन्ति भिक्षुप्रतिमादि तदालम्बनं तीव्रश्रद्धानां भवतीति गाथार्थः ॥ ११९० ।। अवसितमानुषङ्गिक, तस्मात् स्थितमिदं-पञ्चानां कृतिकर्म न कर्तव्यं, तथा च निगमयन्नाह दसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालपासस्था । एए अवंदणिज्जा जे जसघाई पवयणस्स ॥ ११९१ ।। ८ व्याख्या-'दसणनाणचरित्तेत्ति प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च दर्शनज्ञानचारित्राणां तथा तपोविनययोः 'निच्चकालपासत्थ' त्ति सर्वकालं पार्थे तिष्ठन्तीति सर्वकालपार्थस्था, नित्यकालग्रहणमित्वरप्रमादब्यवच्छेदार्थ, तथा च-इत्वरप्रमादानिश्च दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2144 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११९१], भाष्यं [२०४...], * * प्रत सूत्रांक ||७..|| आवश्यकन यतो ज्ञानाद्यपगमेऽपि व्यवहारतस्तु साधव एवेति, 'एते' प्रस्तुता अवन्दनीयाः, ये किंभूताः-'यशोघातिनः' यशोऽभि- वन्दनाहारिभ ध्ययने नाशकाः, कस्य -प्रवचनस्य, कथं यशोधातिनः?,श्रमणगुणोपात्तं यद् यशस्तत्तद्गुणवितथासेवनतो घातयन्तीति गाथार्थः द्रीया योग्यायो॥ ११९१ ॥ पावस्थादिवन्दने चापायानिगमयन्ताह ग्यवन्दने ॥५३९॥ किहकम्मं च पसंसा सुहसीलजणम्मि कम्मबंधाय । जे जे पमायठाणा ते ते उहिया हंति ॥११९२॥ गुणदोषाः व्याख्या-'कृतिकर्म' बन्दनं 'प्रशंसा च' बहुश्रुतो विनीतो वाऽयमित्यादिलक्षणा 'सुखशीलजने' पावस्थजने कर्मबन्धाय, कथं ? यतस्ते पूज्या एव वयमिति निरपेक्षतरा भवन्ति, एवं यानि यानि प्रमादस्थानानि येषु विषीदन्ति पार्श्वस्थादयस्तानि तानि 'उपबृंहितानि भवन्ति' समर्थितानि भवन्ति-अनुमतानि भवन्ति, तत्प्रत्ययश्च बन्ध इति गाथार्थः ॥११९२ ॥ यस्मादेतेऽपायास्तस्मात् पार्श्वस्थादयो न वन्दनीयाः, साधय एवं वन्दनीया इति निगमयन्ताह__दसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालमुजुत्ता । एए उ वंदणिज्जा जे जसकारी पवयणस्स ॥ ११९३ ॥ 'व्याख्या-दर्शन ज्ञान चारित्रेषु तथा तपोविनययोः 'नित्यकालं' सर्वकालम् 'उद्युक्ता' उद्यता एत एवं वन्दनीयाः, ये विशुद्धमार्गप्रभावनया यशाकारिणः प्रवचनस्येति गाथार्थः ॥ ११९३ ।। अधुना सुसाधुवन्दने गुणमुपदर्शयन्नाह- x ॥५३९॥ 1. किडकमै च पसंसा संविग्गजणमि निजरहाए । जे जे विरईठाणा ते ते उबवूहिया हुति ।। ११९४ ॥ CI व्याख्या-'कृतिकर्म' वन्दनं 'प्रशंसा च बहुश्रुतो विनीतः पुण्यभागित्यादिलक्षणा संविनजने 'निर्जेराथाय' कर्मक्षयायह कथं ?-यानि (यानि) विरतिस्थानानि येषु वर्तन्ते संविग्नास्तानि तानि 'उपबृंहितानि भवन्ति' अनुमतानि भवन्ति, तद-| दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: पार्श्वस्थादि वन्दने दोषा: वर्ण्यते ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११९५], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ||७..|| नुमत्या च निर्जरा, संविघ्नाः पुनर्दिधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यसंविना मृगाः पत्रेऽपि चलति सदोत्रस्तचेतसः, भावस-LEM विनास्तु साधवस्तैरिहाधिकार इति गाथार्थः ॥ ११९४ ॥ गतं सप्रसङ्गं नित्यवासद्वारमिति व्याख्याता सप्रपञ्च पञ्चानां कृतिकर्म इत्यादिद्वारगाथा, निगमयतोक्तमोघतो दर्शनाद्युपयुक्ता एव वन्दनीया इति, अधुना तानेवाऽऽचार्यादिभेद-1 तोऽभिधित्सुराह___आयरिय अवज्झाए पवत्ति थेरे तहेव रायणिए । एएसि किहकम्मं कायब्वं निजराए ॥ ११९५ ॥ | व्याख्या-आचार्य उपाध्यायः प्रवर्तकः स्थविरस्तथैव रत्नाधिकः, एतेषां कृतिकर्म कर्तव्य निर्जरार्थ, तत्र चाऽऽचार्यः। सूत्रार्थोभयवेत्ता लक्षणादियुक्तश्च, उक्तं च-मुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छरस मेढिभूओ य । गणतत्तिविप्पमुको अत्थं भासेइ आयरिओ ॥१॥ न तु सूत्र, यत उक्तम्-'एक्कग्गया य झाणे वुही तित्थयरअणुकिती गरुआ । आणाहिज्जमिइ गुरू कयरिणमुक्खा न वाएइ ॥१॥ अस्य हि सर्वेरेवोपाध्यायादिभिः कृतिकर्म कार्य पर्यायहीनस्यापि, उपाध्यायः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, सचेत्थम्भूतः-'सम्मत्तणाणसंजमजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिनू । आयरियठाणजुग्गो सुत्तं वाएउवज्झाओ ॥१॥ किं निमित्तं ?-'सुत्तत्थेसु घिरतं रिणमुक्खो आयतीयऽपडिबंधो । पाडिच्छामोहजओ । सूत्राथमित् लक्षणयुक्तो गचस्प मैटीभूतन । गणतप्तिविषमुक्तोऽर्थे वाघयत्वाचार्यः ॥ १॥ एकाग्रता च पाने वृद्धिस्तीर्थकरानुक्रतिषी । भाज्ञायै यमिति गुरषः कृतरणमोक्षा न वाचयन्ति ॥१॥ सम्यमवज्ञानसंबमयुक्ता सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः । आचार्यस्थानयोग्यः सूर्व वाचयति उपाध्यायः ॥३॥ प्रार्थयोः स्थिरत्वं काणमोक्ष आयत्यां चाप्रतिबन्धः । प्रातीच्छकमोहनयः (प्रतीच्छमारमोहजपा) *.पने विचलति. दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: आचार्य-आदीनाम वन्दने लाभ: वर्ण्यते ~216 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११९५], भाष्यं [२०४...], (४०) पून अवत- वन्दना. ध्ययने वन्द्य : प्रत सूत्रांक आवश्यक- सुतं वाएउवज्झाओ ॥१॥ तस्यापि तैर्विनेयः पर्यायहीनस्यापि कृतिकर्म कार्य, यथोचितं प्रशस्तयोगेषु साधन प्रवर्तहारिभ- जयतीति प्रवर्तका, उक्तं च तवसंजमजोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ । असहुं च नियत्तेई गणतत्तिलो पवत्ती द्रीया ॥ १॥ अस्यापि कृतिकर्म कार्य हीनपर्यायस्यापि, सीदतः साधूनैहिकामुष्मिकापायदर्शनतो मोक्षमार्ग एव स्थिरीकरो-| ॥५४०॥ तीति स्थविरः, उक्त च-थिरकरणा पुण थेरो पवत्तिवावारिएसु अस्थेसुं । जो जत्थ सीयइ जई संतबलो तं थिरं कुणइ ॥१॥ अस्याप्यूनपर्यायस्यापि कृतिकर्म कार्य, गणावच्छेदकोऽप्यत्रानुपात्तोऽपि मूलग्रन्थे नावगन्तव्यः, साहचर्यादिति, स चेत्यम्भूत:-'उद्धावणापहावणखित्तोवधिमग्गणासु अविसाई । सुत्तत्थतदुभयविऊ गणवच्छो परिसो होइ॥१॥ अस्याप्यूनपर्यायस्यापि कृतिकर्म कर्तव्यं, रत्नाधिकः-पर्यायज्येष्ठः, एतेषामुक्तक्रमेणैव कृतिकर्म कर्तव्यं निर्जरार्थम् , अन्ये तु भणन्ति-प्रथममालोचयद्भिः सर्वैराचार्यस्य कृतिकर्म कार्य, पश्चाद् यथारताधिकतया, आचार्येणापि मध्यमे क्षामणान|न्तरे कृतिकर्मणि ज्येष्ठस्य कृतिकर्म कार्यमिति गाथार्थः॥११९५।। प्रथमद्वारगाथायां गतं 'कस्यति द्वारम् , अधुना 'केने ति द्वार, केन कृतिकर्म कर्तव्यं । केन वा न कर्तव्यं , कः पुनरस्य कारणोचितः अनुचितो वेत्यर्थः, तत्र मातापित्रादिरनुचितो गणः, तथा चाह ग्रन्थकार: मायरं पियरं वावि जिहगं वावि भायरं । किकम्मं न कारिजा सब्वे राइणिए तहा ॥११९६ ॥ सूत्र वाचयति सपाध्यायः ॥ 1 ॥ तपःसंयमयोगेषु यो योग्यस्तत्र प्रवर्तयति । असहिष्णुं च निवर्तयति गणचिन्तकः प्रवर्ति (क) । स्थिरकरणात्पुनः स्थविरः प्रवर्तकव्यापारितेवर्षेषु । यो यन्त्र सीदति यतिस्सइनलं स्थिर करोति ॥५॥'सीयमानान्. + मूलमन्येऽवगन्तव्यः + अभिवधति. २ उबावनप्रवाषनाक्षेत्रोपधिमार्गणास्वविषादी। सूत्रार्थतदुभयविद् गणावच्छेदक ईशो भवति ॥1॥ दीप अनुक्रम [९..] | ॥५४०॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~217 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११९६], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| व्याख्या-मातरं पितरं वाऽपि ज्येष्ठकं वाऽपि भ्रातरम् , अपिशब्दान्मातामहपितामहादिपरिग्रहः, कृतिकर्म' अभ्यु-18 थितवन्दनमित्यर्थः, न कारयेत् सर्वान् रत्नाधिकाँस्तथा, पर्यायज्येष्ठानित्यर्थः, किमिति ?, मात्रादीन् वन्दनं कारयतः लोकगोपजायते, तेषां च कदाचिद्विपरिणामो भवति, आलोचनप्रत्याख्यानसूत्रार्थेषु तु कारयेत् , सागारिकाध्यक्षे तु यतनया कारयेद्, एष प्रत्रग्याप्रतिपन्नानां विधिः, गृहस्थास्तु कारयेदिति गाथार्थः ॥ ११९६ ॥ साम्प्रतं कृतिकर्मकरणो-18 चितं प्रतिपादयन्नाह पंचमहब्बयजुत्तो अणलस माणपरिवजियमईओ । संविग्गनिज्जरही किहकम्मकरो हवइ साहू॥११९७ ।। व्याख्या-पश्च महानतानि-प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि तैयुक्तः 'अणलस'त्ति आलस्यरहितः 'मानपरिवर्जितमतिः' जात्यादिमानपराङ्मुखमतिः 'संविग्नः प्राग्व्याख्यात एव 'निर्जरार्थी' कर्मक्षयाथीं, एवम्भूतः कृतिकर्मकारको भवति साधुः, एवम्भूतेन साधुना कृतिकर्म कर्त्तव्यमिति गाथार्थः ॥ ११९७ ॥ गतं केनेति द्वारं, साम्प्रतं 'कदे' त्यायातं, |कदा कृतिकर्म कर्तव्यं कदा वा न कर्तव्यं , तत्र वक्खित्तपराहुत्ते अ पमत्ते मा कया हु बंदिजा । आहारं च करितो नीहारं वा जइ करे ।। ११९८॥ र व्याख्या-व्याक्षिप्तं धर्मकथादिना 'पराहुत्ते य' पराङ्मुखं, चशब्दादुद्भू(स्थि)तादिपरिग्रहः, प्रमत्तं क्रोधादिप्रमादेन मा कदाचिद्वन्देत, आहारं वा पुर्वन्तं नीहारं वा यदि करोति, इह च-धर्मान्तरायानवधारणप्रकोपाहारान्तरायपुरीरा-18 निर्गमनादयो दोषाः प्रपश्चन वक्तव्या इति गाथार्थः ॥ ११९८ ।। कदा तर्हि वन्देतेत्यत आह CREASEKACCIENCE दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११९९], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया 5-5 प्रत सूत्रांक ॥५४॥ M ||७..|| पसंते आसणत्थे य, उपसंते उवहिए । अणुन्नबित्तु मेहावी, किडकम्म पउंजए ॥ ११९९ ॥ |३ वन्दनाव्याख्या-प्रशान्त' व्याख्यानादिव्याक्षेपरहितम् आसनस्थं' निषद्यागतम् 'उपशान्त'क्रोधादिप्रमादरहितम् 'उपस्थित | ध्ययने वन्दने यो छन्देनेत्याद्यभिधानेन प्रत्युद्यतम्, एवम्भूतं सन्तमनुज्ञाप्य मेधावी ततः कृतिको प्रयुञ्जीत,वन्दनकं कुर्यादित्यर्थः,अनुज्ञापनायांका च आदेशद्वयं, यानि ध्रुववन्दनानि तेषु प्रतिक्रमणादौ नानुज्ञापयति, यानि पुनरौत्पत्तिकानि तेष्वनुज्ञापयतीति गाथार्थःलारणानि च ॥११९९ ॥ गतं कदेति द्वारं, कतिकृत्वोद्वारमधुना, कतिकृत्वा कृतिकर्म कार्य ?, कियत्यो वारा इत्यर्थः, तत्र प्रत्यहं | नियतान्यनियतानि च वन्दनानि भवन्त्यत उभयस्थाननिदर्शनायाऽऽह नियुक्तिकार: पडिकमणे सझाए काउस्सरंगावरीहपाहुणए । आलोयणसंवरणे उत्तमढे य चंदणयं ॥ १२००॥ IA व्याख्या-प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम् , अपराधस्थानेभ्यो गुणस्थानेषु वर्तनमित्यर्थः, तस्मिन् सामान्यतो वन्दनं भवति, तथा 'स्वाध्यायें' वाचनादिलक्षणे, 'कायोत्सर्गे' यो हि विगतिपरिभोगायाऽऽचाम्लविसर्जनार्थ क्रियते, 'अपराधे' गुरुविनयलसनरूपे, यतस्तं वन्दित्वा क्षामयति, पाक्षिकवन्दनान्यपराधे पतन्ति, 'प्राघूर्णके' ज्येष्ठे समागते सति वन्दनं ॥५४॥ भवति, इतरस्मिन्नपि प्रतीच्छितव्यम् , अत्र चायं विधिः-'संभोईय अण्णसंभोइया य दुविहा हवंति पाहुणया । संभोइय आयरिय आपुच्छित्ता उ वंदेह ॥ १॥ इयरे पुण आयरियं वंदित्ता संदिसावि तह य । पच्छा चंदेह जई गयमोहा ___ १ सांभोगिका मन्यसांभोगिकाश्च द्विविधा भवन्ति माघूर्णकाः । सांभोषिकान् आचार्य भाव तु वन्दते ॥ १॥ इतरान् पुनराचार्य वन्दिरका 8 संदिश्व तथा च । पश्चात् वन्दन्ते यतयो यतमोहा दीप 9-964-964-१० अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | प्रतिक्रमण-आदि कारणे वन्दनं अवश्य करणीयं ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन [ ३ ], मूलं [-] / [गाथा ...] निर्युक्तिः [ १२०० ] भष्यं [ २०४... अंहव वंदावे || २ ||” तथाऽऽलोचनायां विहारापराधभेदभिन्नायां 'संवरणं' भुक्तेः प्रत्याख्यानम्, अथवा कृतनमस्कारसहितादिप्रत्याख्यानस्यापि पुनरजीर्णादिकारणतोऽभक्कार्थं गृह्णतः संवरणं तस्मिन् वन्दनं भवति, 'उत्तमार्थे वा अनशनसंलेखनायां वन्दनमित्येतेषु प्रतिक्रमणादिषु स्थानेषु वन्दनं भवतीति गाथार्थः ॥ १२०० ॥ इत्थं सामान्येन नियतानियतस्थानानि वन्दनानि प्रदर्शितानि, साम्प्रतं नियतवन्दनस्थानसङ्ख्याप्रदर्शनायाऽऽहचत्तारि पडिकमणे किइकम्मा तिन्नि हुति सज्झाए। पुन्वण्हे अवरण्हे किइकम्मा चउदस हवंति ॥ १२०१ ॥ व्याख्या - चत्वारि प्रतिक्रमणे कृतिकर्माणि त्रीणि भवन्ति, स्वाध्याये पूर्वाह्न -प्रत्युपसि, कथं १, गुरु पुवसंझाए वंदित्ता आलोपइति एवं एकं, अग्मुडियावसाणे जं पुणो वंदंति गुरुं एयं बिइयं एत्थ य बिही-पच्छा जहणेण तिण्णि मज्झिम पंच वा सच वा उक्कोसं सचेवि वंदियबा, जइ वाउला वक्खेवो वा तो इकेण ऊमगा जाव तिष्णि अवस्सं वंदिया, एवं देवसिए, पक्खिए पंच अवस्सं, चाउम्मासिए संवच्छरिएवि सत्त अवस्संति, ते बंदिऊणं जं पुणो आयरियस्स अलिविज्जइ तं तइयं पञ्चक्खाणे चउरथं, सञ्झाए पुण वंदित्ता पडवेइ पढमं पविए पवेदर्यंतस्स बितियं, पच्छा उद्दिडं समुद्दि पढाइ, उद्देस समुद्देसवं दणाण मिहेवतग्भावो, तओ जाहे चउभागावसेसा पोरिसी ताहे पाए पडिलेहेइ, जइ ण पढिउकामो तो वंदइ, १ अथवा वन्दयेयुः ॥ २ गुरुं पूर्वसन्ध्यायां वाऽऽलोचयतीति एतदेकं अभ्युत्थितावसाने सुनन्दन्ते गुरुमेतद्वितीयं अत्र च विधिःपञ्चाजघन्येन यो मध्यमेन पक्ष वा सप्त वा उत्कृष्ट सर्वेऽपि वन्दितम्याः, यदि व्याकुला व्याक्षेपो वा तदैकेनोना यावत् जयोऽवश्यं वन्दितव्याः एवं देवसिके, पाक्षिके चातुर्मास सांवत्सरिकेऽपि सप्ताश्यमिति तान् वन्दिया यत्पुनराचार्यायाश्रवणाव दीयते सरसृतीयं प्रत्याख्याने चतुर्थ, स्वाध्याये पुनर्वन्दित्वा प्रस्थापयति प्रथमं प्रस्थापिते प्रवेदयतो द्वितीयं पधादुद्दिसमुद्दिष्टं पठति, उद्देशसमु देशवन्दनानामि देवान्तर्भावः ततो यदा चतुर्भागावशेषा पौरुषी तदा पात्राणि प्रतिलेखपति, यदि न पठितुकामस्तदा वदते. पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः १४ स्थाने 'नियत वन्दनस्य वक्तव्यता ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [१२०१], भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभद्रीया वन्दनाध्ययने आवत्ता २५ प्रत सूत्रांक ॥५४२॥ * * ||७..|| * अह पढिउकामो तो अवंदित्ता पाए पडिलेहेइ, पडिलेहिता पच्छा पढइ, कालवेलाए वंदिउँ पडिकमइ, एवं तइयं ।। एवं पूर्वाहे सप्त, अपराहेऽपि सप्तैव भवन्ति, अनुज्ञावन्दनानां स्वाध्यायवन्दनेष्वेवान्तर्भावात्, प्रातिक्रमणिकानि तु| चत्वारि प्रसिद्धानि, एवमेतानि ध्रुवाणि प्रत्यहं कृतिकर्माणि चतुर्दश भवन्त्यभक्तार्थिकस्य, इतरस्य तु प्रत्याख्यानवन्दनेनाधिकानि भवन्तीति गाथार्थः ॥ १२०१॥ गतं कतिकृत्वोद्वारं, व्याख्याता वन्दनमित्यादिप्रथमा द्वारगाथा, साम्प्रतं द्वितीया व्याख्यायते, तत्र कत्यवनतमित्याचं द्वार, तदर्थप्रतिपादनायाह दोओणयं अहाजायं, किहकम्मं चारसावयं। अस्य व्याख्या-अवनतिः-अवनतम् , उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, द्वे अवनते यस्मिंस्तद् व्यवनतम्, एकं यदा प्रथममेव 'इच्छामि खमासमणो ! वंदिउँ जावणिज्जाए निस्सीहियाए'त्ति अभिधाय छन्दोऽनुज्ञापनायावनमति, द्वितीय पुनर्यदा कृतावों निष्क्रान्तः 'इच्छामी'त्यादिसूत्रमभिधाय छन्दोऽनुज्ञापनायैवावनमति, यथाजातं श्रमणत्वमाश्रित्य योनिनिष्क्रमणं च, तत्र रजोहरणमुखवत्रिकाचोलपट्टमात्रया श्रमणो जाता, रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः, एवम्भूत एवं वन्दते, तदव्यतिरेकाञ्च यथाजातं भण्यते कृतिकर्मवन्दनं, 'बारसावयं'ति द्वादशावर्ताः-सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषा यस्मिन्निति समासस्तद् द्वादशावर्तम् , इह च प्रथमप्रविष्टस्य षडावर्ता भवन्ति, 'अहोकायं कायसंफासं खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइकतो?, जत्ता में जवणिजं च भे' एतत्सूत्रगर्भा गुरुचरण-1 अथ पठितुकामस्तदाऽवन्दित्वा पात्राणि प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य पश्चात्पठति, कालवेलायां वन्दिरवा प्रतिकाम ति, पुतत्तृतीयं, * गाथाशकलमाह. * दीप अनुक्रम ॥५४२॥ [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | वन्दनस्य २५ द्वाराणि वर्णयते ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...', नियुक्ति: [१२०१], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ||७..|| न्यस्तहस्तशिरःस्थापनारूपाः, निष्क्रम्य पुनः प्रविष्टस्याप्येत एव पडिति, एतच्चापान्तरालद्वारद्वयमाघद्वारोपलक्षितमवगन्तव्यं, गतं कत्यवनतद्वारं, साम्प्रतं 'कतिशिर' इत्येतवारं व्याचिख्यासुरिदमपरं गाथाशकलमाह चउसिरं तिगुतं च दुपवेसं एगनिक्खमण ॥ १२०२॥ व्याख्या-चत्वारि शिरांसि यस्मिंस्तच्चतुःशिरः, प्रथमप्रषिष्टस्य क्षामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं, पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना, द्वारं । तिम्रो गुप्तयो यस्मिंस्तत्रिगुप्तं, मनसा सम्यक्पणिहितः वाचाऽस्खलिताक्षराण्युच्चारयन् कायेनावर्तानविराधयन् वन्दनं करोति यतः, चशब्दोऽवधारणार्थः, द्वी प्रवेशौ यस्मिंस्तविप्रवेशं, प्रथमोऽनुज्ञाप्य ४ प्रविशतः, द्वितीयः पुनर्निर्गतस्य प्रविशत इति, एकनिष्क्रमणमावश्यक्या निर्गच्छतः, एतच्चापान्तरालद्वारत्रयं कतिशिरोदाद्वारेणैवोपलक्षितमवगन्तव्यमिति गाथार्थः ॥ १२०२ ॥ साम्प्रतं कतिभिर्वाऽऽवश्यकः परिशुद्धमिति द्वारार्थोऽभिधी | यते, तथा चाऽऽहBI अवणामा दुलहाजायं, आवत्ता बारसेव उ । सीसा चत्तारि गुत्तीओ, तिनि दो प पवेसणा ॥१२०३ ॥ एगनिक्खमणं चेच, पणवीसं वियाहिया। आवस्सगेहि परिसुद्धं, किकम्म जेहि कीरई॥१२०४ ।। व्याख्या-गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव, एभिगाथाद्वयोक्तः पञ्चविंशतिभिरावश्यकैः परिशुद्धं कृतिकर्म कर्तव्यम् , अन्यथा द्रव्यकृतिकर्म भवति ॥ १२०३-१२०४ ॥ आह च *निर्गत्व. दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~222 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥५४३॥ [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१२०५], भाष्यं [२०४...], fararift करितो न होइ किइकम्मनिज्जराभागी । पणवीसामन्नयरं साहू ठाणं विराहितो ॥ १२०५ ॥ व्याख्या--'कृतिकर्मापि कुर्वन्' वन्दनमपि कुर्वन् न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी 'पञ्चविंशतीनाम्' आवश्यकानाम न्यतरत् साधुः स्थानं विराधयन् विद्यादृष्टान्तोऽत्र, यथा हि विद्या विकलानुष्ठाना फल्दा न भवति, एवं कृतिकर्मापि निर्जराफलं न भवति, विकलत्वादेवेति गाथार्थः ॥ १२०५ ॥ अधुनाऽविराधकगुणोपदर्शनायाऽऽह पणवीसा [आवस्सग] परिसुद्धं किइकम्मं जो परंजइ गुरूणं । सो पावर निव्वाणं अचिरेण विमाणवासं वा ॥ १२०६ ॥ व्याख्या–पञ्चविंशतिः आवश्यकानि - अवनतादीनि प्रतिपादितान्येव तच्छुद्धं तदविकलं कृतिकर्म यः कश्चित् 'प्रयुङ्क्ते' करोतीत्यर्थः कस्मै ?- 'गुरवे' आचार्याय, अन्यस्मै वा गुणयुक्ताय, स प्राप्नोति 'निर्वाण' मोक्षम् 'अचिरेण' स्वल्पकालेन 'विमानवासं चा' सुरलोकं वेति गाथार्थः || १२०६ ॥ द्वारं । 'कतिदोषविप्रमुक्त' मिति यदुक्तं तत्र द्वात्रिंशदोषविप्रमुक्तं कर्तव्यं तद्दोषदर्शनायाह अणादियं च धद्धं च, पब्बिद्धं परिपिंडियं । टोलगइ अंकुसं चेच, तहा कच्छ भरिंगियं ॥ १२०७ ॥ व्याख्या- 'अनादृतम्' अनादरं सम्भ्रमरहितं वन्दते १ 'स्तब्धं' जात्यादिमदस्तन्धो बन्दते २ 'प्रविद्धं' वन्दनकं दददेव नश्यति ३ 'परिपिण्डितं' प्रभूतानेकवन्दनेन वन्दते आवर्तान् व्यञ्जनाभिलापान् वा व्यवच्छिन्नान् कुर्वन् ४ 'टोलगति' तिडवदुत्प्लुत्य २ विसंस्थुलं वन्दते ५ 'अङ्कुशं' रजोहरणमङ्कुशवत्करद्वयेन गृहीत्वा वन्दते ६ 'कच्छ भरिंगियं' कच्छपवत् रिङ्गितं कच्छपवत् रिङ्गन् वन्दत इति गाथार्थः ७ ।। १२०७ ।। ३ वन्दनाध्ययने शुद्धवन्दनफलं दोपाश्च ३२ ~ 223 ~ ॥५४३ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [१२०८], भाष्यं [२०४...], सब -%+ प्रत सूत्रांक ||७..|| मच्छुथ्वतं मणसा पउहं तह य वेड्यावई । भयसा चेव भयंतं, मित्ती गारवकारणा ॥१२०८॥ व्याख्या-मत्स्योत्तम् एकं बन्दित्वा मत्स्यवद्दुतं द्वितीयं साधु द्वितीयपान रेचकावर्तेन परावर्तते ८ मनसा प्रदुष्ट, वन्द्यो हीनः केनचिद्गुणेन, तमेव च मनसि कृत्वा सासूयो वन्दते ९ तथा च वेदिकाबद्धं जानुनोरुपरि हस्तौ | निवेश्याधो वा पार्श्वयोर्वा उत्सङ्गे वा एक वा जानुं करद्वयान्तः कृत्वा वन्दते १० 'भयसा चेव'त्ति भयेन वन्दते, मा भूद्गच्छादिभ्यो निर्धाटनमिति ११, 'भयंत ति भजमानं वन्दते 'भजत्ययं मामतो भक्त भजस्वेति तदार्यवृत्तं इति १२, 'मेत्तित्ति मैत्रीनिमित्तं प्रीतिमिच्छन् वन्दते १३ 'गारवित्ति गौरवनिमित्तं वन्दते, विदन्तु मां यथा सामाचारीकुशलोऽयं १४, 'कारण'त्ति ज्ञानादिव्यतिरिक्त कारणमाश्रित्य वन्दते, वस्त्रादि मे दास्यतीति १५, अयं गाथार्थः ॥ १२०८॥ तेणियं पडिणियं चेव, रुई तजियमेव य । सदं च हीलियं चेच, तहा विपलिउंचियं ।। १२०९ ॥ व्याख्या-न्य मिति परेभ्यः खल्वात्मानं गृहयन् स्तेनक इव वन्दते, मा मे लाघवं भविष्यति १५, 'प्रत्यनीकम्' आहारादिकाले वन्दते १७, 'रुष्टं' क्रोधाध्मातं वन्दते क्रोधाध्मातो वा १८, 'तर्जितं' न कुप्यसि नापि प्रसीदसि काष्ठशिव इवेत्यादि तर्जयन्-निर्भसयन् धन्दते, अङ्गुल्यादिभिवा तजैयन् १९, 'शटं' शाठोन विश्रम्भार्थ वन्दते, ग्लानादिव्यपदेश वा कृत्वा न सम्यग् वन्दते २०, हीलितं हे गणिन् ! वाचक किं भवता वन्दितेनेत्यादि हीलयिस्खा बन्दते | २१, तथा 'विपलिकुश्चितम्' अर्द्धवन्दित एव देशादिकथाः करोति २२, इति गाथार्थः ॥ १२०९ ॥ दिहमदिहच तहा, सिंगं च करमोअणं । आलिहमणालिहूं, ऊणं उत्सरचूलियं ॥ १२१०॥ दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~224 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [१२१०], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ||७..|| आवश्यक व्याख्या दृष्टादृष्टं तमसि व्यवहितो वा न वन्दते २३ 'शृङ्गम्' उत्तमाङ्गैकदेशेन वन्दते २४ 'करमोचन कर मन्य। हारिभ- मानो वन्दते न निर्जरा, तहा मोयणं नाम न अन्नहा मुक्खो, एएण पुण दिनेण मुच्चेमित्ति बंदणगं देइ २५-२६ आश्लिी . ध्ययने द्रीया दोषाः ३२ प्टानाश्लिष्ट'मित्यत्र चतुर्भङ्गका-रजोहरणं कराभ्यामाश्लिष्यति शिरश्च १ रजोहरणं न शिरः २ शिरो न रजोहरणं ३ न ॥५४॥ रजोहरणं नापि शिरः ४, अत्र प्रथमभङ्गः शोभनः शेषेषु प्रकृतवन्दनावतारः २७, 'ऊन व्यञ्जनाभिलापावश्यकैरसम्पूर्ण दावन्दते २८, 'उत्तरचूई' चन्दनं कृत्वा पश्चान्महता शब्देन मस्तकेन बन्द इति भणतीति गाथार्थः २९ ॥ १२१०॥ मूयं च ढहर चेव, चुडुलिं च अपच्छिमं । बत्तीसदोसपरिसुद्ध, किइकम्मं पउंजई ॥ १२११॥ व्याख्या-'मूकम्' आलापकाननुच्चारयन् वन्दते २० 'बहुरं' महता शब्देनोचारयन वन्दते ३१ 'चुडुली ति उल्कामिव | ६ पर्यन्ते गृहीत्वा रजोहरणं भ्रमयन् वन्दते ३२ 'अपश्चिमम्' इदं चरममित्यर्थः, एते द्वात्रिंशद्दोषाः, एभिः परिशुद्ध कृतिकर्म कार्य, तथा चाह-द्वात्रिंशद्दोपपरिशुद्ध 'कृतिकर्म' वन्दनं 'प्रयुञ्जीत' कुयोंदिति गाथार्थः ॥ १२११ ॥ यदि पुनरन्यतमदोषदुष्टमपि करोति ततो न तत्फलमासादयतीति, आह चकिइकम्मपि करितो न होइ किइकम्मनिज्जराभागी । बत्तीसामन्नयरं साहू ठाणं विराहिंतो ॥१२१२॥ ॥५४४॥ व्याख्या-कृतिकर्मापि कुर्वन्न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी, द्वात्रिंशद्दोषाणामन्यतरत्साधुः स्थान विराधयन्निति गाथार्थः ॥ १२१२ ॥ दोषविप्रमुक्तकृतिकर्मकरणे गुणमुपदर्शयन्नाहबत्तीसदोसपरिसुद्धं किहकम्मं जो पउंजइ गुरूणं । सो पावइ निव्वाणं अचिरेण विमाणवास वा ॥१२१३॥ दीप अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं ] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [१२१३], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ||७..|| ध्याण्या-द्वात्रिंशद्दोपपरिशुद्धं कृतिकर्म यः 'प्रयुते करोति गुरवे स प्राप्नोति निर्वाणम् अचिरेण विमानवास बेति | गाथार्थः ।। १२१३ ॥ आह-दोपपरिशुद्धाद्वन्दनात्को गुणः । येन तत एव निर्वाणप्राप्तिः प्रतिपाद्यत इति, उच्यतेआवस्सएसु जह जह कुणइ पयत्तं अहीणमइरित्तं । तिविहकरणोवउत्तो तह तह से निजरा होइ ॥ १२१४ ॥ व्याख्या-'आवश्यकेषु' अवनतादिषु दोपत्यागलक्षणेषु च यथार करोति प्रयलम् 'अहीनातिरिक्तं' न हीनं नाप्यधिक, |किम्भूतः सन् ?-त्रिविधकरणोपयुक्तः, मनोवाकार्यरुपयुक्त इत्यर्थः, तथा २ 'से' तस्य वन्दनकर्तुनिर्जरा भवति-कर्मक्ष-18 यो भवति, तस्माच्च निर्वाणप्राप्तिरिति, अतो दोषपरिशुद्धादेव फलावाप्तिरिति गाथार्थः ॥ १२१४ ॥ गतं सप्रसङ्गं दोषविप्रमुक्तद्वारम् , अधुना किमिति क्रियत इति द्वारं, तत्र वन्दनकरणकारणानि प्रतिपादयन्नाहमाविणओवचार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्स।तिस्थयराण य आणा सुअधम्माराहणाऽकिरिया ॥१२१५॥ ___ व्याख्या-विनय एवोपचारो विनयोपचारः कृतो भवति, स एव किमर्थ इत्याह-'मानस्य अहङ्कारस्य 'भञ्जना' | विनाशः, तदर्थः, मानेन च भग्नेन पूजना गुरुजनस्य कृता भवति, तीर्थकराणां चाऽऽज्ञाऽनुपालिता भवति, यतो भगवद्भिर्विनयमूल एवोपदिष्टो धर्मः, स च वन्दनादिलक्षण एव विनय इति, तथा श्रुतधर्माराधना कृता भवति, यतो वन्दनपूर्व श्रुतग्रहणं, 'अकिरिय'त्ति पारम्पर्येणाक्रिया भवति, यतोऽक्रियः सिद्धः, असावपि पारम्पर्येण वन्दनलक्षणाद् विनयादेव भवतीति, उक्तं च परमर्षिभिः-तहारूवं गंभंते ! समणं वा माहणं वा वंदमाणस्स पजुवासमाणस्स किंफला तथारूपं श्रमणं वा माइनं वा बन्दमानस पर्युपासीनस्स किंफला दीप 555555X अनुक्रम [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~226 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [१२१५], भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभ द्रीया प्रत सूत्रांक ॥५४५ वंदणपज्जुवासणया, गोयमा ! सवणफला, सवणे णाणफले, णाणे विण्णाणफले, विण्णाणे पच्चक्खाणफले, पञ्चक्खाणे वन्दनासंजमफले, संजमे अणण्हयफले, अणण्हए तवफले, तये वोदाणफले, वोदाणे अकिरियाफले, अकिरिया सिद्धिगइगमण- ध्ययन फला । तथा वाचकमुखेनाप्युक्तम्-'विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलंद वन्दनकर करणकारणं चाश्रवनिरोधः ॥ १॥ संवरफलं तपोवलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्माकियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥२॥ योगनिरोधाद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥३॥ इति गाथार्थः ॥ १२१५ ॥ किंच विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाउ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो को तवो?॥१२१६॥ व्याख्या-शास्यन्तेऽनेन जीवा इति शासनं-द्वादशाङ्गं तस्मिन् विनयो मूलं, यत उक्तम्-'मूलोउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा विरुहंति साला (हा)। साहप्पसाहा विरुवं(ह)ति पत्ता, ततो सि पुष्पं च फलं रसोय ॥१॥एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्ती सुर्य सिग्धं निस्सेसमधिगच्छइ ॥२॥" अतो विनीतः संयतो भवेत् , M५४५॥ वन्दनपर्युपासना , गौतम ! श्रवणफला, श्रवणं ज्ञानफलं, ज्ञान विज्ञानफलं, विज्ञान प्रत्याख्यानफलं, प्रत्याख्यानं संयमफलं, संयमोऽनानवककः । अनाश्रवस्तपःफलः, तपो व्यवदानफलं, म्यवदानं अक्रियाकलं, अक्रिया सिद्धिगतिगमनकला । २ मूलात् स्कन्धप्रभवो दुमय स्कन्धात् पश्चात् प्रभवति शाखा । शास्त्रायाः प्रशाखा विरोहन्ति (ततः) पनाणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं रस एवं धर्मस बिनयो मूलं परमस्तस्य मोक्षः । येन कीति श्रुवं शीनं निःश्रेयसं चाधिगच्छति ॥२॥ दीप अनुक्रम 54- [९..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'विनयस्य महत्व-प्रतिपादनं ~227 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२१६], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक विनयाद्विपमुक्तस्य कुतो धर्मः कुतस्तप इति गाथार्थः ॥ १२१६ ॥ अतो विनयोपचारार्थ कृतिकर्म कियत इति स्थितम् । आह-विनय इति कः शब्दार्थ इति, उच्यतेजम्हा विणयइ कम्मं अहविहं चाउरंतमुक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ विणउत्ति विलीनसंसारा ॥ १२१७॥ व्याख्या-यस्माद्विनयति कर्म-नाशयति कर्माष्टविध, किमर्थं:-चतुरन्तमोक्षाय, संसारविनाशायेत्यर्थः, तस्मादेव वदन्ति विद्वांसः 'विनय इति' विनयनाद्विनयः 'विलीनसंसाराः' क्षीणसंसारा अथवा विनीतसंसाराः, नष्टसंसारा इत्यर्थः, यथा | विनीता गौनष्टक्षीराऽभिधीयते इति गाथार्थः ॥ १२१७ ॥ किमिति क्रियत इति द्वारं गतं, व्याख्याता द्वितीया कत्यवनतमित्यादिद्वारगाथा । अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दाथों निरूपणीयः, स चान्यत्र न्यक्षेण निरूपितत्वान्नेहाधिकृतः, गतो नामनिष्पन्नो| निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्थ निक्षेपस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादि प्रपञ्चतो वक्तव्यं यावत्तच्चेदं सूत्रन 'इच्छामि खमासमणो वंदिउँ जावणिज्जाए निसीहियाए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि, अहोकायं कायसंफासं, खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइकतो, जत्ता भे? जवणिजं च भे? खामेमि खमासमणो! देवसियं वइक्कम, आवस्सियाए पडिकमामि खमासमणाणं देवसिआए आसारायणाए तित्तीसण्णयराए जंकिंचिमिच्छाए मणदुक्कड़ाए वयदुकडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए अनुक्रम [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: वन्दन अध्ययने मूल्सूत्रस्य कथनं ~228 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२१७...], भाष्यं [२०४...], 6- वन्दना सूत्रब्याख्या प्रत सूत्रांक आवश्यक- लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोक्याराए सव्वधम्माइकमणाए आसायणाए जो मेअइयारो को तस्स हारिभ- खमासमणो! पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ (सूत्रम्) द्रीया अस्य व्याख्या-तलक्षणं चेद-'संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य ॥५४६॥ विधा ॥१॥ तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता, सा च-इच्छामि खमासमणो वंदिलं जावणिज्जाए निसीहिआए' इत्येवं-14 सूत्रोच्चारणरूपा, तानि चामूनि सर्वसूत्राणि-इच्छामि खमासमणो! वंदिलं जावणिज्जाए निसीहियाए अणुजाणह मे। मिउग्गह निसीहि, अहोकायं कायसंफासं, खमणिजो मे किलामो अप्पकिलंताणं बहु सुभेण भे दिवसो वइकतो, जत्ता भे? जवणिज च भे?, खामेमि खमासमणो! देवसियं वइकम आवस्सियाए पडिकमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसण्णयराए जंकिंचिमिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए। ४ सधकालियाए सबमिच्छोवयाराए सबधम्माइकमणाए आसायणाए जो मे अइयारो को तस्स खमासमणो! पडिकमामि लानिंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। अधुना पदविभागः-इच्छामि क्षमाश्रमण ! वन्दितुं यापनीयया नषेधिक्या अनुजानीत मम मितावग्रहं नषेधिकी अधःकार्य कायसंस्पर्श क्षमणीयो भवता लमः अल्पक्लान्तानां बहुशुभेन भवतां दिवसो व्यतिक्रान्तः ?, यात्रा भवतां ? यापनीयं च भवतां ?,क्षमयामि क्षमाश्रमण! दैवसिकं व्यतिक्रमं आवश्यिक्या प्रतिकमामि क्षमाश्न-5 मणानां दैवसिक्या आशातनया त्रयस्त्रिंशदन्यतरया यत्किञ्चिन्मिथ्यया मनोदुष्कृतया वचनदुष्कृतया कायदुष्कृतया क्रोधया मानया मायया लोभया सर्वकालिक्या सर्वमिथ्योपचारया सर्वधमोतिक्रमणया आशातनया यो मयाऽतिचारः कृतस्तस्य अनुक्रम [१०] ५४६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०] [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२१७...], भाष्यं [२०४...], क्षमाश्रमण ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्हामि आत्मानं व्युत्सृजामि, एतावन्ति सर्वसूत्रपदानि । साम्प्रतं पदार्थः पदविग्रहश्च यथासम्भवं प्रतिपाद्यते तत्र 'इषु इच्छायाम्' इत्यस्योत्तमपुरुषैकवचनान्तस्य इच्छामीति भवति, 'क्षमूषु सहने' इत्यस्याङन्तस्य क्षमा, 'श्रमु तपसि खेदे च अस्य कर्तरि ल्युट् श्राम्यत्यसाविति श्रमणः क्षमाप्रधानः श्रमणः क्षमाश्रमणः तस्याऽऽमन्त्रणं, वन्देस्तुमन्प्रत्ययान्तस्य वन्दितुं, 'या प्रापणे' अस्य ण्यन्तस्य कर्तर्यनीयच् यापयतीति यापनीया तथा, 'पिधु गत्याम्' अस्य निपूर्वस्य घञि निषेधनं निषेधः निषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिकी, प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाद्वा नैवेधिकेस्युच्यते, एवं शेषपदार्थोऽपि प्रकृतिप्रत्ययव्युत्पत्त्या वक्तव्यः, विनेयासम्मोहार्थे तु न भ्रूमः अयं च प्रकृतसूत्रार्थः - अवग्रहाद्वहिः स्थितो विनेयोऽर्द्धावनतकायः करद्वयगृहीतरजोहरणो वन्दनायोयत एवमाह-' इच्छामि' अभिलषामि हे क्षमाश्रमण ! 'वन्दितुं' नमस्कारं कर्तुं भवन्तमिति गम्यते, यापनीयया यथाशक्तियुक्तया नैषेधिक्या-प्राणातिपातादिनिवृत्तया तन्वा-शरीरेणेत्यर्थः, अत्रान्तरे गुरुर्व्याक्षेपादियुक्तः 'त्रिविधेने 'ति भणति, ततः शिष्यः संक्षेपयन्दनं करोति, व्याक्षेपादिविकलस्तु 'छन्दसे 'ति भणति, ततो विनेयस्तत्रस्थ एवमाह-'अनुजानीत' अनुजानीध्वं अनुज्ञां प्रयच्छथ, 'मम' इत्यात्मनिर्देशे, के ? - मितश्चासाववग्रहश्चेति मिताचग्रहस्तं चतुर्दिशमिहाचार्य स्वात्मप्रमाणं क्षेत्र मवग्रहस्तमनुज्ञां विहाय प्रवेष्टुं न कल्पते, ततो गुरुर्भणति - अनुजानामि, ततः शिष्यो नैषेधिक्या प्रविश्य गुरुपादान्तिकं निधाय तत्र रजोहरणं तललाटं च कराभ्यां संस्पृशन्निदं भणति - अधस्तात्कायः अधः कायः - पादलक्षणस्तमधः कार्यं प्रति कायेन निजदेहेन संस्पर्शः काय संस्पर्शस्तं करोमि, एतच्चानुजानीत, तथा क्षमणीयः- सह्यो भवताम् अधुना 'हमो' देहग्लानिरूपः, तथा अल्पं- स्तोकं क्लान्तं कुमो पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 230~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२१७...], भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत ख्या ॥५४७॥ सूत्रांक -kc-4 येषां तेऽल्पकान्तास्तेषामरूपक्कान्तानां, बहु च तच्छुभं च बहुशुभं तेन बहुशुभेन, प्रभूतसुखेनेत्यर्थः, भवतां दिवसो व्यति- ३ वन्दनाकान्तो?, युष्माकमहर्गतमित्यर्थः, अत्रान्तरे गुरुर्भणति-तथेति,यथा भवान् ब्रवीति, पुनराह विनेयः-'यात्रा' तपोनियमादि- ध्ययने लक्षणा क्षायिकमिश्रीपशमिकभावलक्षणा वा उत्सर्पति भवताम् ?, अत्रान्तरे गुरुर्भणति-युष्माकमपि वर्तते , मम तावदु- सूत्रन्यासर्पति भवतोऽप्युरसर्पतीत्यर्थः, पुनरप्याह विनेयो-यापनीयं चेन्द्रियनोइन्द्रियोपशमादिना प्रकारेण भवतां?, शरीरमिति गम्यते, अवान्तरे गुरुराह-एवमाम, यापनीयमित्यर्थः, पुनराह विनेयः-'क्षमयामि' मर्पयामि क्षमाश्रमणेति पूर्ववत् दिवसेन निर्वृत्तो दैवसिकस्तं व्यतिक्रमम्-अपराध, देवसिकग्रहणं रात्रिकाद्युपलक्षणार्थम् , अत्रान्तरे गुरुर्भणति-अहमपि क्षमयामि देवसिक व्यतिक्रमं प्रमादोद्भवमित्यर्थः, ततो विनेयः प्रणम्यैवं क्षामयित्वाऽऽलोचनाहेण प्रतिक्रमणाhण च प्रायश्चित्तेनात्मानं शोधयन्नत्रान्तरेऽकरणतयोत्थायावग्रहान्निर्गच्छन् यथा अर्थों व्यवस्थितस्तथा क्रियया प्रदर्शयन्नावश्यिक्येत्यादि दण्डकसूत्र भणति, अवश्यकर्तव्यैश्चरणकरणयोगैर्निर्वृत्ता आवश्यकी तयाऽऽसेवनाद्वारेण हेतुभूतया यद-14 साध्वनुष्ठितं तस्य प्रतिक्रामामि, विनिवर्तयामीत्यर्थः, इत्थं सामान्येनाभिधाय विशेषेण भणति-क्षमाश्रमणानां व्यावर्णि-II तस्वरूपाणां सम्बन्धिन्या 'देवसिक्या' दिवसेन निवृत्तया ज्ञानाद्यायस्य शातना आशातना तया, किंविशिष्टया-त्रय ५४७॥ स्त्रिंशदन्यतरया, आशातनाश्च यथा दशासु, अत्रैव वाऽनन्तराध्ययने तथा द्रष्टव्या, 'ताओ पुण तित्तीसपि आसायणाओ इमासु चउसु मूलासायणासु समोयरंति दवासायणाए ४, दबासायणा राइणिएण समं भुंजंतो मणुण्णं अप्पणा भुंजइ ताः पुनस्रयस्त्रिंशवपि भाषातनाः मासु पतसपु मूलाशातनासु समवतरन्ति व्याशातनायां ४, दयाशातना राखिकेन समं भुजानो मनोशमारमना भुके. अनुक्रम [१०] + 9 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२१७...], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक एवं उबहिसंथारगाइसु विभासा, खित्तासायणा आसन्नं गंता भवइ राइणियस्स, कालासायणा राओ वा वियाले वा वाहरमाणस्स तुसिणीए चिहइ, भावासायणा आयरियं तुमं तुमंति वत्ता भवइ, एवं तित्तीसपि चउसु दवाइसु समोयरंति 'यत्किश्चिन्मिभ्यया' यत्किश्चिदाश्रित्य मिथ्यया, मनसा दुष्कृता मनोदुष्कृता तया प्रद्वेषनिमित्तयेत्यर्थः, 'वाग्दुष्कृतया' असाधुवचननिमित्तया, 'कायदुष्कृतया' आसन्नगमनादिनिमित्तया, 'क्रोधयेति क्रोधवत्येति प्राप्ते अादेराकृतिगणत्वात् अच्प्रत्ययान्तत्वात् 'क्रोधया' क्रोधानुगतया, 'मानया' मानानुगतया, 'मायया' मायानुगतया, 'लोभया' लोभानुगतया, अयं भावार्थ:-क्रोधाद्यनुगतेन या काचिद्विनयभ्रंशादिलक्षणा आशातना कृता तयेति, एवं दैवसिकी भणिता, अधुनेहभवान्यभवगताऽतीतानागतकालसङ्ग्रहार्थमाह-सर्वकालेन-अतीतादिना निर्वृत्ता सार्वकालिकी तया, सर्व एव मिथ्योपचारा:-मातृस्थानगर्भाः क्रियाविशेषा यस्यामिति समासस्तया, सर्वधर्मा:-अष्टौ प्रवचनमातरः तेषामतिक्रमणं-लखनं यस्यां सा सर्वधर्मातिक्रमणा तया, एवम्भूतयाऽऽशातनयेति, निगमयति-यो मयाऽतिचारः-अपराधः 'कृतो' निर्वर्तितः 'तस्य' अतिचारस्थ हे क्षमाश्रमण ! युष्मत्साक्षिक प्रतिकामामि-अपुनःकरणतया निवर्तयामीत्यर्थः, तथा दुष्टकर्मकारिणं निन्दाम्यात्मानं प्रशान्तेन भवोद्विनेन चेतसा, तथा गाम्यात्मानं युष्मत्साक्षिक व्युत्सृजाम्यात्मानं दुष्टकर्मकारिणं तदनुमतित्यागेन, सामायिकानुसारेण च निन्दादिपदार्थो न्यक्षेण वक्तव्यः, एवं क्षामयित्वा पुनस्तत्रस्थ एवार्डोवनतकाय एव एवमुपधिसंसारकाविषु विभाषा, क्षेत्राशातनाSSसनं गन्ता भपति रानिकस्य, कालाशातना रात्री या विकाले वा व्याहरवस्तूष्णीकसिष्यति, भावाशातना आचार्य वं खमिति पक्का भवति, एवं त्रयस्त्रिंशदपि चतसृष्वपि दन्यादिषु समवसरन्ति. अनुक्रम [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~232 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२१७...], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक भणति-'इच्छामि खमासमणो' इत्यादि सर्व द्रष्टव्यमित्येवं, नवरमय विशेषः-'खामेमि खमासमणों' इत्यादि सर्व सूत्रमाव-18|३वन्दनाहारिभ श्यिक्या विरहितं तत् पादपतित एव भणति, शिष्यासम्मोहाथै सूत्रस्पर्शिकगाथाः स्वस्थाने खल्वनाहत्य लेशतस्तदर्थकधनयैव ध्ययने द्रीया पदार्थों निदर्शितः, साम्प्रतं सूत्रसर्शिकगाथया निदर्शयन्नाह वन्दनइच्छा य अणुनवणा अब्बावाहं च जत्त जवणा य । अवराहखामणावि य छट्ठाणा हुँति बंदणए ॥१२१८॥ स्थानानि ॥५४८॥ व्याख्या-इच्छा च अनुज्ञापना अभ्याबाधं च यात्रा यापनाच अपराधक्षामणाऽपि च पद स्थानानि भवन्ति बन्द-| नके ॥ तत्रेच्छा पविधा, यथोक्तम् णामं ठवणादविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु इच्छाए णिक्खेवो छब्बिहो होइ ।। १२१९॥ व्याख्या--नामस्थापने गतार्थे, द्रव्येच्छा सचित्तादिद्रव्याभिलाषः, अनुपयुक्तस्य वेच्छामीत्यादि भणतः, क्षेत्रेच्छा मगधादिक्षेत्राभिलाषः, कालेच्छा रजन्यादिकालाभिलाषः-रयणिमहिसारिया उ चोरा परदारिया य इच्छति । तालायरा सुभिक्खं बहुधण्णा केइ दुम्भिक्ख ॥१॥ भावेच्छा प्रशस्तेतरभेदा, प्रशस्ता ज्ञानाद्यभिलाषः, अप्रशस्ता सयाद्यभिलाष इति, ते अत्र तु विनेयभावेच्छयाऽधिकारः, क्षमादीनां तु पदानां गाथायामनुपन्यस्तानां यथासम्भवं निक्षेपादि वक्तव्यं, क्षुण्णस्वावन्थविस्तरभयाच नेहोक्तमिति । उक्ता इच्छा, इदानीमनुज्ञा, सा च पहिधानाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ अणुण्णाए णिक्खेयो एग्विहो होह ॥१२२०॥ रजनीमभिसारिकाख चौराः पारदारिकाधेपछन्ति । तालाचराः सुभिक्ष महुधान्याः केचिदुर्भिक्षम् ॥1॥ अनुक्रम [१०] SiedESS MAR५४८, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२२०], भाष्यं [२०४...], S प्रत सूत्रांक व्याख्या-नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यानुज्ञा लौकिकी लोकोत्तरा कुप्रावचनिकी च, लौकिकी सचित्तादिद्रव्यभेदात्रिविधा, अश्वभूषितयुवतिवैडूर्याद्यनुज्ञेत्यर्थः, लोकोत्तराऽपि त्रिविधा-केवलशिष्यसोपकरणशिष्यवस्खाद्यनुज्ञा, एवं कुपावचनिकी वक्तव्या, क्षेत्रानुज्ञा या यस्य यावतः क्षेत्रस्य यत्र वा क्षेत्रे व्याख्यायते क्रियते वा, एवं कालानुज्ञाऽपि वक्तव्या, भावानुज्ञा आचारायनुज्ञा, भावानुज्ञयाऽधिकारः, अत्रान्तरे गाथायामनुपात्तस्याप्यक्षुण्णत्वादवग्रहस्य निक्षेपः| णामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ उग्गहस्सा णिक्खेवो छब्विहो होइ॥१२२१ ॥ व्याख्या-सचित्तादिद्रच्यावग्रहणं व्यावग्रहः, क्षेत्रावग्रहो यो यत्क्षेत्रमवगृह्णाति, तत्र च समन्ततः सक्रोश योजनं, कालावग्रहो यो यं कालमवगृह्णाति, वर्षासु चतुरो मासान् ऋतुबद्धे मासं, भावावग्रहः प्रशस्तेतरभेदः, प्रशस्तो ज्ञानाद्यवग्रहः, इतरस्तु क्रोधाद्यवग्रह इति, अथवाऽवग्रहः पञ्चधा-"देविंदरायगिहवइ सागरिसाधम्मिउग्गहो तह य । पंचविहो पण्णत्तो अवग्गहो वीयरागेहिं ॥१॥' अत्र भावावग्रहेण साधर्मिकावग्रहेण चाधिकारः-'आयप्पमाणमित्तो चउद्दिसिं होइ उग्गहो गुरुणो । अणणुण्णातस्स सया ण कप्पए तत्थ पइसरि ॥१॥ ततश्च तमनुज्ञाप्य प्रविशति, आह च नियुक्तिकारःबाहिरखितमि ठिओ अणुन्नवित्ता मिजग्गहं फासे । उग्गहखेत्तं पविसे जाव सिरेणं फुसइ पाए ।। १२२२ ।। देवेन्द्रराजगृहपतिसागारिकसावर्मिकावग्रहस्तथैव । पञ्च विधः प्रज्ञतोश्वग्रहो वीतरागैः॥ २ भात्मप्रमाणमाश्चतुर्दिश भवत्यवग्रहो गुरोः । अननुज्ञातस्य सदा न कल्पते तत्र प्रवेष्टम् ॥ २॥ ERICANCE अनुक्रम [१०] 22-42-44-%--" पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2344 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२२२], भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभ द्रीया ॥५४९॥ वन्दनाध्ययने बन्दनस्थानानि प्रत सूत्रांक व्याख्या-बहिःक्षेत्रे स्थितः अनुज्ञाप्य मितावग्रहं स्पृशेत् रजोहरणेन, पुनश्चावग्रहक्षेत्रं प्रविशेत्, कियडूरं यावदि- त्याह-यावच्छिरसा स्पृशेत् पादाविति गाथार्थः ॥ १२२२ ॥ अव्याबाधं द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतः खगाद्याघातव्याबा- धाकारणविकलस्य भावतः सम्यग्दृष्टश्चारित्रवतः, अत्रापि कायादिनिक्षेपादि यथासम्भवं स्वबुद्ध्या वक्तव्यं, यात्रा द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतस्तापसादीनां स्वत्रियोत्सर्पणं भावतः साधूनामिति, यापना द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यत औषधा भावतश्च, द्रव्यतस्ताप दिना कायस्य, भावतस्त्विन्द्रियनोइन्द्रियोपशमेन शरीरस्य, क्षामणा द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतः कलुषाशयस्यैहिकापाय|भीरोः भावतः संवेगापन्नस्य सम्यग्दृष्टेरिति, आह चअश्वाषाहं दुविहं दव्वे भावे य जत्त जवणा य । अवराहखामणाविय सवित्थरत्थं विभासिजा ॥ १२२३ ॥ एवं शेषपदेष्वपि निक्षेपादि वक्तव्यम् , इत्थं सूत्रे प्रायशो वन्दमानस्य विधिरुकः नियुक्तिकृताऽपि स एव । व्याख्यातः, अधुना वन्द्यगतविधिप्रतिपादनायाह नियुक्तिकारःउंदेणऽणुजाणामि तहत्ति तुझंपि वहई एवं । अहमवि खामेमि तुमे वयणाई बंदणरिहस्स ॥१२२४ ॥ व्याख्या-छन्दसा अनुजानामि तथेति युष्माकमपि वर्तते एवमहमपि क्षमयामि त्वां, वचनानि 'वन्दनार्हस्य' वन्दनयोग्यस्थ, विषयविभागस्तु पदार्थनिरूपणायां निदर्शित एवेति गाथार्थः ॥ १२२४ ॥ तेणवि पडिच्छियव्वं गारवरहिएण सुद्धहियएण । किइकम्मकारगस्सा संवेग संजणतेणं ॥१२२५ ॥ व्याख्या-'तेन' बन्दनाhण एवं प्रत्येष्टव्यम् , अपिशब्दस्यैवकारार्धत्वाइमादिगौरवरहितेन, 'शुद्धहृदयेन' कषायवि-| ॥५४॥ अनुक्रम [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~235 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२२५], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक प्रमुक्तेन, 'कृतिकर्मकारकस्य' बन्दनकर्तुः संवेग जनयता, संवेगः-शरीरादिपृथग्भावो मोक्षौत्सुक्यं वेति गाथार्थः ॥१२२५॥ | इत्थं सूत्रस्पर्शनियुक्त्या व्याख्यातं सूत्रम् , उक्तः पदार्थः पदविग्रहश्शेति, साम्प्रतं चालना, तथा चाहआवत्ताइस जुगचं इह भणिओ कायवायचावारो। दुण्हेगया थकिरिया जओ निसिद्धा अउ अजुत्तो ॥१२२६।। व्याख्या-इहाऽऽवर्तादिषु, आदिशब्दादावश्यिक्यादिपरिग्रहः, 'युगपत् एकदा 'भणितः' उक्का कायवाग्व्यापारः, द तथा च सत्येकदा क्रियाद्वयप्रसङ्गः, द्वयोरेकदा च क्रिया यतो निषिद्धाऽन्यत्र,उपयोगद्वयाभावाद्, अतोऽयुक्तः स व्यापार इति, ततश्च सूत्रं पठित्वा कायव्यापारः कार्य इति, उच्यतेभिन्नविसयं निसिद्ध किरियाद्गमेगयाण एगंमि । जोगतिगस्स वि भंगिय सुत्ते किरिया जओभणिया ॥१२२७॥ व्याख्या-ह विलक्षणवस्तुविषयं क्रियाद्वयं निषिद्धम् एकदा यथोत्प्रेक्षते सूत्रार्थं नयादिगोचरमटति च, तत्रोत्नेक्षायां यदोपयुक्तो न तदाऽटने यदा चाटने न तदोत्प्रेक्षायामिति, कालस्य सूक्ष्मत्वाद, विलक्षणविषया तु योगत्रयक्रियाऽप्यविरुद्धा, यथोक्तम्-भंगियसुर्य गुणंतो वइ तिविहेऽपि जोगंमी'त्यादि, गतं प्रत्यवस्थान, सीसो पढमपवेसे वंदिउमावस्सिाएँ पडिक्कमि। वितियपवेसंमि पुणो वंदद किं? चालणा अहवा॥१२२८॥ जह दूओ रायाणं णमि कजं निवेइ पच्छां । वीसजिओवि वंदिय गच्छा साहवि एमेव ॥ १२२९ ।। भरिक श्रुतं गुणयन् वर्तते त्रिविधेऽपि योगे। शिष्या प्रथममवेयो पन्दितमावश्यिक्या प्रतिक्रम्प । द्वितीयको पुनन्दिते कि चालनाऽथवा ॥१॥ विधादूतो राजानं गत्वा कार्य निवेद्य । पश्चात् । विषष्टोऽपि वन्दित्वा गच्छति एवमेव साधयोऽपि ॥२॥ अनुक्रम [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२२९], भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत व्याख्या-इदं प्रत्यवस्थान, उक्तमानुषङ्गिक, साम्प्रतं कृतिकर्मविधिसंसेवनाफलं समाप्तावुपदर्शयन्नाह ३वन्दनाएवं किइकम्मविहिं जुजता चरणकरणमुव उत्ता। साहू खवंति कम्मं अणेगभवसंचिपमणतं ॥१२३० ॥ | ध्ययने व्याख्या-'एवम् अनन्तरदर्शित 'कृतिकर्मविधि' वन्दनविधि युञ्जानाश्चरणकरणोपयुक्ताः साधवः क्षपयन्ति कर्मात्यवस्थाने चालनाम'अनेकभवसश्चित' प्रभूतभवोपात्तमित्यर्थः, कियद् ?-अनन्तमिति गाधार्थः ॥ १२३० ॥ उक्तोऽनुगमः, नयाः सामायिकनिर्युक्ताविव द्रष्टव्याः ।। इत्याचार्यश्रीहरिभद्रकृती शिष्यहितायामावश्यकटीकार्या वन्दनाध्ययनं समाप्तमिति । कृत्वा | वन्दनविवृति प्राप्तं यत्कुशलमिह मया तेन । साधुजनवन्दनमलं सत्त्वा मोक्षाय सेवन्तु ॥१॥ ॥५५०॥ सूत्रांक व्याख्यातं वन्दनाध्ययनम्, अधुना प्रतिक्रमणाध्ययनमारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, अनन्तराध्ययनेऽहंदुपदिष्ट-1 सामायिकगुणवत एव वन्दनलक्षणा प्रतिपत्तिः कार्येति प्रतिपादितम् , इह पुनस्तदकरणता दिनैव स्खलितस्रव निन्दा प्रतिपा|घते, यद्वावन्दनाध्ययने कृतिकर्मरूपायाः साधुभक्तस्तत्त्वतः कर्मक्षय उक्तः, यथोक्तम्-'विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा || गुरुजणस्स । तित्थयराण य आणा सुअधम्माऽऽराहणाऽकिरिया|शाप्रतिक्रमणाध्ययने तु मिथ्यात्वादिप्रतिक्रमणद्वारेण कर्म-18 निदाननिषेधःप्रतिपाद्यते, वक्ष्यति च-"मिछत्तपडिकमणं तहेव अस्संजमेवि पडिक्कमणं । कस्सायाण पडिकमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं ॥१॥" अथवा सामायिके चारित्रमुपवर्णितं, चतुर्विंशतिस्तवे त्वहतां गुणस्तुतिः, सा च दर्शनज्ञानरूपा, एवमिदं पूछ ५४५ गाथा १५1५२ मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं तवैवासंयमेऽपि प्रतिकमणम् । कषायाणां प्रतिक्रमण योगाना चामखानाम् ॥1॥ अनुक्रम [१०] ॥५५॥ ब पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं -३- 'वन्दनं' परिसमाप्तं अत्र अध्ययनं -४- 'प्रतिक्रमणं' आरभ्यते ~237 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२३०...], भाष्यं [२०४...], C प्रत सूत्रांक [१..] त्रितयमुक्तम् , अस्य च वितथासेवनमैहिकामुष्मिकापायपरिजिहीर्षुणा गुरोनिवेदनीयं, तच्च वन्दनापूर्वमित्यतोऽनन्तराध्ययने तन्निरूपितम् , इह तु निवेद्य भूयः शुभेष्वेव स्थानेषु प्रतीपं क्रमणमासेवनीयमित्येतत् प्रतिपाद्यते, इत्थमनेनानेकरूपेण सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य प्रतिक्रमणाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपञ्चं वक्तव्यानि, तत्र च नामनिष्पन्ने निक्षेपे प्रतिक्रमणाध्ययनमिति, तत्र प्रतिक्रमणं निरूप्यते-'प्रति' इत्ययमुपसर्गः प्रतीपाद्यर्थे वर्तते, 'क्रमु पादविक्षेपे' अस्य ल्युडन्तस्य प्रतीपं प्रतिकूल वा क्रमणं प्रतिक्रमण मिति भवति, एतदुक्तं भवति-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्वेव प्रतीपं प्रतिकूलं वा क्रमणं प्रतिक्रमणमिति, उक्तं च-"स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशागतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥क्षायोपशमिकादावादौदयिकस्य वशं गतः। तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः॥२॥ से प्रति प्रति क्रमणं वा प्रतिक्रमणं, शुभयोगेषु प्रति प्रति वर्तनमित्यर्थः, उक्तं च-"प्रति प्रति वर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्ष फलदेषु । निःशल्यस्य यतेयत्तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥१॥" इह च यथा करणात् कर्मकोंः सिद्धिा, तव्यतिरेकेण करण| स्वानुपपत्तेः, एवं प्रतिक्रमणादपि प्रतिक्रामकप्रतिक्रान्तब्यसिद्धिरित्यतस्त्रितयमप्यभिधित्सुराह नियुक्तिकार:पडिकमणं पडिकमओ पडिकमियध्वं च आणुपुचीए । तीए पचप्पन्ने अणागए चेव कालंमि ॥१२३१॥ व्याख्या-'प्रतिक्रमण' निरूपितशब्दार्थ, तत्र प्रतिक्रामतीति प्रतिक्रमकः कर्ता, प्रतिक्रान्तव्यं च कर्म-अशुभयोगलक्षणम् , 'आनुपूा परिपाट्या, 'अतीते' अतिक्रान्ते 'प्रत्युत्पन्ने वर्तमाने 'अनागते चैव' एप्ये चैव काले, प्रतिक्रमणादि अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'प्रतिक्रमण' शब्दस्य अर्थ-व्याख्या ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२३१], भाष्यं [२०४...], आवश्यक हारिभ- द्रीया ॥५५१॥ प्रत सूत्रांक [१.. 434%A4%A5% योग्यमिति वाक्यशेषः । आह-प्रतिक्रमणमतीतविषयं, यत उक्तम्-'अतीतं पडिकमामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पञ्च- ४ प्रतिक्रक्खामि'त्ति तत्कथमिह कालत्रये योज्यते इति !, उच्यते, प्रतिक्रमणशब्दो छत्राशुभयोगनिवृत्तिमात्रार्थः सामान्यःमणाध्यपरिगृह्यते, तथा च सत्यतीतविषयं प्रतिक्रमण निन्दाद्वारेणाशुभयोगनिवृत्तिरेवेति, प्रत्युत्पन्न विषयमपि संवरणद्वारेणाशु-४ यने प्रतिभयोगनिवृत्तिरेव, अनागतविषयमपि प्रत्याख्यानद्वारेणाशुभयोगनिवृत्तिरेवेति न दोष इति गाथाक्षरार्थः ॥ १२३१॥ साम्प्रतं प्रतिक्रामकस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह स्वरूप जीवो उ पडिकमओ असुहाणं पावकम्मजोगाणं झाणपसत्था जोगा जे ते ण पडिक्कमे साहू ॥१२३२॥ व्याख्या-'जीचः' प्राग्निरूपितशब्दार्थः, तत्र प्रतिक्रामतीति प्रतिक्रामकः, तुशब्दो विशेषणार्थः, न सर्व एव जीवः प्रतिकामका, किं तहि-सम्यग्दृष्टिरुपयुक्तः, केषां प्रतिक्रमकः ?-'अशुभानां पापकर्मयोगानाम् अशोभनानां पापकर्म| व्यापाराणामित्यर्थः, आह-पापकर्मयोगा अशुभा एव भवन्तीति विशेषणानर्थक्यं, न, स्वरूपान्याख्यानपरत्वादस्य, प्रशस्ती च ती योगी च प्रशस्तयोगी, ध्यानं च प्रशस्तयोगी च ध्यानप्रशस्तयोगा ये तानधिकृत्य 'न प्रतिकमेत' न प्रती वर्तेत साधुः, अपि तु तान् सेवेत, मनोयोगप्राधान्यख्यापनार्थ पृथग् ध्यानग्रहणं, प्रशस्तयोगोपादानाच ध्यानमपि धर्म ॥५५॥ | शुक्लभेदं प्रशस्तमवगन्तव्यम् , आह-'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमुल्लवध किमिति प्रतिक्रमणमनभिधाय प्रतिक्रामक उक्तः, तथाऽऽद्यगाथागतमानुपूर्वी ग्रहणं चातिरिच्यत इति, उच्यते, प्रतिक्रमकस्याल्पवक्तव्यत्वात् कत्रधीनत्वाच क्रियाया इत्य अतीतं प्रतिक्रमामि प्रत्युत्पन्न संवृणोमि अनागतं प्रत्यास्यामि. अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२३२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [१..] दोषः, इस्थमेवोपन्यासः कस्मान कृत इति चेत् प्रतिक्रमणाध्ययननामनिष्पन्ननिक्षेपप्रधानत्वात्तस्येत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ १२३२ ॥ उक्तः प्रतिक्रमका, साम्प्रतं प्रतिक्रमणस्यावसरः, तच्छब्दार्थपर्यायाचिख्यासुरिदमाहपडिकमणं पडियरणा परिहरणा वारणा नियत्ती य । निंदा गरिहा सोही पडिकमणं अट्ठहा होह ॥ १२३३ ॥ व्याख्या-'प्रतिक्रमण तत्त्वतो निरूपितमेव, अधुनाभेदतो निरूप्यते, तत्पुनर्नामादिभेदतः पोढा भवति, तथा चाहणाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो पडिकमणस्सा णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १२३४ ॥ | व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यप्रतिक्रमणमनुपयुक्तसम्यग्दृष्टेलेब्ध्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य वा निहस्य पुस्तकादिन्यस्तं वा, क्षेत्रप्रतिक्रमणं यस्मिन् क्षेत्रे व्यावयेते क्रियते वा यतो वा प्रतिक्रम्यते खिलादेरिति, कालप्रतिक्रमण वेधा-भुवं अधुवं च, तत्र ध्रुवं भरतैरावतेषु प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थेष्वपराधो भवतु मा वा ध्रुवमुभयकालं प्रतिक्रम्यते,12 विमध्यमतीर्थकरतीर्थेषु वधुवं-कारणजाते प्रतिक्रमणमिति, भावप्रतिक्रमणं द्विधा-प्रशस्तमप्रशस्त च, प्रशस्त मिथ्यात्वादे, अप्रशस्तं सम्यक्त्वादेरिति, अथवौषत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरिति, प्रशस्तेनानाधिकारः॥ प्रतिचरणा व्याख्यायते-'चर गतिभक्षणयोः' इत्यस्य प्रतिपूर्वस्य ल्युडन्तस्य प्रतिचरणेति भवति, प्रति प्रति तेषु तेष्वर्थेषु चरणं-गमनं तेन तेनाऽऽसेवनाप्रकारेणेति प्रतिचरणा, सा च पद्विधा, तथा चाहणामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो पडियरणाए णिक्खेवो छबिहो होइ ॥ १२३५ ॥ व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यप्रतिचरणा अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेस्तेषु तेष्वर्थेष्वाचरणीयेषु चरण-गमनं अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | 'प्रतिक्रमण' शब्दस्य अष्ट पर्यायाः, तेषाम् व्याख्या एवं कथा: ~240 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२३५], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यकतेन तेन प्रकारेण लन्ध्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य वा निहवस्य सचित्तादिद्रव्यस्य वेति, क्षेत्रप्रतिचरणा यत्र प्रतिचरणाप्रतिकहारिभ- व्याख्यायते क्रियते वा क्षेत्रस्य वा. प्रतिचरणा, यथा शालिगोपिकाद्याः शालिक्षेत्रादीनि प्रतिचरन्ति, कालप्रतिचरणा मणाध्यद्रीया यस्मिन् काले प्रतिचरणा व्याख्यायते कियते वा कालस्य वा प्रतिचरणम, यथा साधवः पादोषिक वा प्राभातिकं वा कालं| यने प्रतिप्रतिचरन्ति, भावप्रतिचरणा द्वेधा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, अप्रशस्ता मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिप्रतिचरणा, प्रशस्ता सम्यग्दर्शन- क्रमणादि॥५५२॥ ज्ञानचारित्रप्रतिचरणा, अथवीपत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेः, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्या यतः शुभयोगेषु प्रतीपं क्रमण-प्रवर्तनं प्रतिक्रमणमुक्तं, प्रतिचरणाऽप्येवम्भूतैव वस्तुत इति गाधार्थः ॥ १२३५ ॥ इदानी परिहरणा, 'हुन्। हरणे' अस्य परिपूर्वस्यैव ल्युडन्तस्यैव परिहरणा, सर्वप्रकारैर्वजनेत्यर्थः, सा च अष्टविधा, तथा चाहणाम ठवणा दविए परिरय परिहार वजणाए य । अणुगह भावे य तहा अट्टविहा होइ परिहरणा ॥१२३६॥ व्याख्या-नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यपरिहरणा हेयं विषयमधिकृत्य अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेर्लब्ध्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य वा निहवस्य कण्टकादिपरिहरणा वेति, परिरयपरिहरणा गिरिसरित्परिरयपरिहरणा, परिहारपरिहरणा लौकिकलोकोत्तरभेदभिन्ना, लौकिकी मात्रादिपरिहरणा, लोकोत्तरा पार्श्वस्थादिपरिहरणा, वर्जनापरिहरणाऽपि लौकिकलोकोत्तरभेदैव, लौकिका इत्वरा यावत्कथिका च, इत्वरा प्रसूतसूतकादिपरिहरणा, यावत्कथिका डोम्बादिपरिहरणा, लोकोत्तरा पुनरित्वरा शय्यातरपिण्डादिपरिहरणा, यावत्कथिका तु राजपिण्डादिपरिहरणा, अनुग्रहपरिहरणा अक्खोडभंगपरिहरणा, ॥५५२॥ * आस्कोटकानां यो भग्नस्तस्य परिदरणा प्रतिलेखनादिविधिविराधनापरिधरणेल्यर्थः. अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२३६], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक SEASESSES [१..] भावपरिहरणाप्रशस्ता अप्रशस्ता च,अप्रशस्ता ज्ञानादिपरिहरणा,प्रशस्ता क्रोधादिपरिहरणा,अथवौषत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेः, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्याः प्रतिक्रमणमप्यशुभयोगपरिहारेणैवेति, वारणेदानीं, 'वृल वरणे' इत्यस्य ण्यन्तस्य । ल्युडि वारणा भवति, वारणं वारणा निषेध इत्यर्थः, सा च नामादिभेदतः पोढा भवति, तथा चाहहै. णाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ वारणाए णिकखेवो छविहो होइ ॥१२३७ ॥ | व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यवारणा तापसादीनां हलकृष्टादिपरिभोगवारणा, अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टे देशनायां उपयुक्तस्य वा निवस्यापथ्यस्य वा रोगिण इतीयं चोदनारूपा, क्षेत्रवारणा तु यत्र क्षेत्रे व्यावय॑ते क्रियते वा लाक्षेत्रस्य वाऽनार्यस्येति, कालवारणा यस्मिन् व्यावय॑ते क्रियते वा कालस्य वा विकालादेर्वर्षासु वा विहारस्येति, भाववाकरणेदानी, सा च द्विविधा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, प्रशस्ता प्रमादवारणा, अप्रशस्ता संयमादिवारणा, अथवौषत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरिति, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्याः स्फुटा, निवृत्तिरधुना, 'वृत वर्तने' इत्यस्य निपूर्वस्य क्तिनि निवर्तन निवृत्तिः, सा च पोढा, यत आह नाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो य नियत्तीए णिक्खेवो छब्बिहो होइ ।। १२३८॥ व्याख्या-नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यनिवृत्तिस्तापसादीनां हलकृष्टादिनिवृत्तिरित्याद्यखिलो भावार्थः स्वबुद्ध्या वक्तव्यः, यावत् प्रशस्तभावनिवृत्त्येहाधिकारः । निन्देदानी, तत्र 'णिदि कुत्सायाम् अस्य 'गुरोश्च हलः' (पा०३-३-१०३) इत्यकार: दाप्, निन्दनं निन्दा, आत्माऽध्यक्षमात्मकुत्सेत्यर्थः, सा च नामादिभेदतः पोढा भवति, तथा चाह अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२३९], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [१..J आवश्यक- णाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु निंदाए णिक्खेवो छब्बिहो होइ ॥१२३९॥ प्रतिक्रमहारिभ- व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यनिन्दा तापसादीनाम् अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टोपयुक्तस्य वा निवस्या माणाध्य०प्रद्रीया & तिक्रमणाशोभनद्रव्यस्य वेति, क्षेत्रनिन्दा यत्र व्याख्यायते क्रियते वा संसक्तस्य वेति, कालनिन्दा यस्मिन्निन्दा व्याख्यायते क्रियते | दिस्व० वा दुर्भिक्षादेर्वा कालस्य, भावनिन्दा प्रशस्तेतरभेदा, अप्रशस्ता संयमाद्याचरणविषया, प्रशस्ता पुनरसंयमाद्याचरणविहपयेति, 'हो ! दुहु कयं हा! दुडु कारियं दुहु अणुमयं हत्ति । अंतो २ उज्झइ झुसिरुव दुमो वणवेणं ॥१॥' अथवी घत एवोपयुक्तसम्यग्दृष्टेरिति, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता स्फुटेति गाथार्थः ॥ १२३९ ॥ गहेंदानी, तत्र 'गई| कुत्साया' मस्य 'गुरोश्च हल' इत्यकारः टापू, गर्हणं गर्हा-परसाक्षिकी कुस्सैवेति भावार्थः, सा च नामादिभेदतः पोटैवेति, दतथा चाह नाम ठवणा दबिए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु गरिहाए निक्खेवो छब्बिहो होइ ॥ १२४० ॥ | व्याख्या नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यगहरे तापसादीनामेव स्वगुर्वालोचनादिना अनुपयुक्तस्य सम्यग्दष्टेवोपयुक्तस्य वा निहवस्येत्यादिभावार्थो वक्तव्यः, यावत्प्रशस्तयेहाधिकारः इदानीं शुद्धिः 'शुध शौचे' अस्य खियां क्तिन् , शोधनं शुद्धिः, 1५५३॥ विमलीकरणमित्यर्थः, सा च नामादिभेदतः पोव, तथा चाहनाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु सुद्धीए निक्खेवो छबिहो होइ ॥१२४१ ॥ १६ दुष्ट कृतं हा दुष्ठ कारित दुष्टनुमतं हेति । अन्तरन्तदाते शुपिर इव दुमो बनदवेन ॥१॥ अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2434 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४१], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ACCRACANCE [१..] व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यशुद्धिस्तापसादीनां स्वगुर्वालोचनादिना अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरुपयुक्तस्य वा निवस्य वस्त्रसुवर्णादेर्वा जलक्षारादिभिरिति, क्षेत्रशुद्धियंत्र व्यावण्यते क्रियते वा क्षेत्रस्य वा कुलिकादिनाऽस्थ्यादिशख्योद्धरणमिति, कालशुद्धिर्यत्र ब्यावयेते क्रियते वा शक्वादिभिर्वा कालस्य शुद्धिः क्रियत इति, भावशुद्धिर्दिषा-प्रश|स्ताऽप्रशस्ता च, प्रशस्ता ज्ञानादेरप्रशस्ता चाशुद्धस्य सतः क्रोधादेवैमल्याधानं स्पष्टतापादनमित्यर्थः, अथवीपत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेः प्रशस्ता, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपोयता चास्याः स्फुटा, एवं प्रतिक्रमणमष्टधा भवतीति गाथार्थः ।। १२४१ ॥ साम्प्रतं विनेयानुग्रहाय प्रतिक्रमणादिपदानां यथाक्रम दृष्टान्तान् प्रतिपादयन्नाह___ अाणे पासाए दुद्धकाय विसभोयणतलाएँ । दो कन्नाओ पइमारियाँ य वत्थे य अगएं य ॥१२४२ ॥ व्याख्या-अध्यानः प्रासादः दुग्धकायः विषभोजनं तडाग द्वे कन्ये पतिमारिका च वस्त्रं चागदश्च, तत्थ पडिकमणे अद्धाणदिहतो-जहा एगो राया गयरबाहिं पासायं काउकामो सोभणे दिणे सुत्ताणि पाडियाणि, रक्खगा णि उत्ता भणिया य-जइ कोइ इत्थ परिसिज्ज सो मारेयवो, जइ पुण ताणि चेव पयाणि अकमंतो पडिओसरइ सो मोयचो, तओ तेसिं| रक्खगाण बक्खित्तचित्ताणं कालहया दो गामिलया पुरिसा पविट्ठा, ते णाइदूरं गया रक्खगेहिं दिहा, उकरिसियखग्गेहि य पत्र प्रतिक्रमणेऽध्वन्यायाता, यथा एको राजा नगरादहिः प्रासादं कर्तुकामः शोभने दिने सूत्राणि पातितवान्, रक्षका नियुका भनिताश-पदि। कश्चित् अत्र प्रविशेष समारयितव्यः, यदि पुनस्तानेच पादान आक्राम्यन् प्रत्यवसपंति स मोक्तव्यः, ततस्तेषां रक्षकाणां व्याक्षिप्तचिचानां कालहती द्वौ ग्रामेबकौ पुरुषो प्रविष्टौ, सौ नातिदूरं गतौ रक्षकैटौ, आकृष्ट सत्र अनुक्रम [१०..] %25E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत आवश्यक हारिभद्रीया ४ प्रतिक्रमणाध्य. प्रतिक्रमणेऽध्वन्योदा० सूत्रांक लत्ता-हा दासा! कहिं एत्थ पविद्या ?, तत्थेगो काकघहो भणइ-को एत्थ दोसोत्ति इओ तओ पहाविओ, सो तेहिं तत्थेव मारिओ, बितिओ भीओ तेसु चेव परसु ठिओ भणइ-सामि ! अयाणतो अहं पविट्ठो, मा में मारेह, जं भणह तं करेमित्ति, तेहिं भण्णइ-जई अण्णओ अणकमतो तेहिं चेव पएहिं पडिओसरसि तओ मुञ्चसि, सो भीओ परेण जत्तेण* तेहिं चेव पएहिं पडिनियत्तो, सो मुक्को, इहलोइयाणं भोगाणं आभागीजाओ, इयरो चुक्को, एतं दवपडिक्कमणं, भावे दिवंतस्स उवणओ-रायस्थाणीएहिं तित्थयरेहिं पासायत्थाणीओ संजमो रक्खियथोत्ति आणतं, सो य गामिलगवाणीएण एगेण साहुणा अइफमिओ, सो रागद्दोसरक्खगम्भाहओ सुचिरं कालं संसारे जाइयवमरियवाणि पाविहिति, जो पुण किहवि पमाएण अस्संजमं गओ तो पडिनियत्तो अपुणकरणाए पडिकमए सो णिवाणभागी भवइ, पडिकमणे अद्धाण| दिहतो गतो १ । इयाणि पडिचरणाए पासाएण दिछतो भण्णइ-एगम्मि णयरे धणसमिद्धो वाणियओ, तस्स अहुणुडिओ ॥५५॥ [१..] दीप अनुक्रम [१०..] संलप्ली-हा दाखौ ! कात्र प्रविष्टी, सका काकपाटो भणति-कोऽय दोष इति इतमतः प्रभाविता, स तसवव मारिता, द्वितीयो भीतस्तयोरेव पदीः । थितो भणति-स्वामिन् ! मजानानोऽहं प्रविष्टा मा मा भीमरा, बजाय तस्करोमी ति, ते ण्यते-वचन्यतोऽभाकाम्यन् तैरेव पनि प्रत्यवसपंसि ततो मुच्यसे, स भीतः परेण यसेन तैरेव पनि प्रतिनिवृत्तः, स मुक्ता, ऐरलाकिकाना भोगानामाभागीजातः, इतरो भ्रष्टः, एतद् म्यातिक्रमण, भाये स्टान्तस्योपनयः-राजस्थानीयतीर्थकरः प्रासादस्थानीयः संघमो रक्षयितव्य इत्याज्ञवं, सच प्रामेषस्थानीयेनकेन साधुनाऽतिक्रान्तः, स रागद्वेषरक्षकाभ्याइतः सुचिर कालं | संसारे जन्ममरणानि प्रारस्वति, यः पुनः कथमपि प्रमादेनासंयम गतस्ततः प्रतिनिवृत्तोपुन:करणतया प्रतिक्राम्यति स निर्माणभागी भवति, प्रतिक्रमणेऽवम्यदृष्टान्तः गतः । इदानी प्रतिवरणायां प्रासादेन दृष्टान्तो भण्यते-एकस्मिन् नगरे धनसरानो वणिग, तस्याधुनोत्थितः ASSADOS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक पांसाओ रयणभरिओ, सो तं भज्जाए उवणिक्खि विर्ड दिसाजचाए गओ, सा अप्पए लग्गिया, मंडणपसाहणादिवावडा दिन तस्स पासायस्स अवलोयणं करेइ, तो तस्स एग खंड पडियं, सा चिंतेइ-किं एत्तिलयं करेहिइत्ति, अण्णया पिप्प-18 लपोतगो जाओ, किं एत्तिओ करेहित्ति णावणीओ तीए, तेण वहृतेण सो पासाओ भग्गो, वाणियगो आगओ, पिच्छा है 8. विण पासायं, तेण सा णिच्ढा, अण्णो पासाओ कारिओ, अण्णा भज्जा आणीया, भणिया य-अति एस पासाओ लाविणस्सइ तो ते अहं णत्थि, एवं भणिऊण दिसाजत्ताए गओ, साऽवि से महिला तं पासायं सबादरेण तिसझ अवलोएति, जं किंचि तत्थ कढकम्मे लेप्पकम्मे चित्तकम्मे पासाए वा उत्तुडियाँइ पासइ तं संठवावति किंचि दाऊण, तओ सोपासाओ| तारिसो चेव अच्छइ, वाणियगेण आगएण दिहो, तुट्टेण सबस्स घरस्स सामिणी कया, विउलभोगसमण्णागया जाया, इयरा असणवसणरहिया अचंतदुक्खभागिणी जाया, एसा दवपडिचरणा, भावे दिलुतस्स उवणओ-वाणियगत्थाणीएणाऽऽयरिएण| [१..] दीप अनुक्रम [१०..] समासादो रनभृतः, स तं भार्यायामुपनिक्षिप्य दिग्यात्रायै गतः, सा शरीरे लमा, मण्डनप्रसाधनादिभ्यापूता न तस्य प्रासादस्यावलोकन करोति, तसखौको भागः पतितः, सा चिन्तपति-किमेतायत करिष्यति?, अन्यदा पिप्पलपोतको जातः, पतितः, किमेतावान् करिष्यतीति नापनीतः तथा, तेन वर्धमानेन स प्रासादो भन्नः, वणि आगतः, प्रेक्षते विनष्टं प्रासाद, तेन सा निष्काशिता, अन्यः प्रासादः कारितः, अन्या भायोऽनीता, भणिता च-वषेष प्रासादो विनवाक्यति तदा तेऽहं नास्ति, एवं भणित्वा विग्याप्राय गतः, साऽपि तस्य महिला तं प्रासाचे सर्वावरेण निसमध्यमवलोकयति, परिकनित्तत्र काटकर्मणि लेप्यकलामणि चित्रकर्मजिप्रासादे वा सम्यादि पश्यति सत् संस्थापयति किश्चिदया, सत्तः स प्रासादः तादश एप तिहति, पणिजागतेन रयः, तुटेन सर्वस्व गृहस्य खामि मी कृता, विपुलभोगसमन्यागता जाता, इतराऽवानवसागरहितात्यन्तदुःखमागिनी जाता, एषा इष्पपरिचरणा, भावे दृष्टान्तस्योपनयः-वणिक्वानी येनाचार्येण पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~246 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४२], भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभ-1 द्रीया प्रत सूत्रांक CSSAGECTOR |पासायत्थाणीओ संजमो पडिचरियथोत्ति आणत्तो, एगेण साहुणा सातासुक्खबहुलेण ण पडिचरिओ, सो बाणिगिणीव ४ प्रतिकसंसारे दुक्खभायणं जाओ, जेण पडिचरिओ अक्खओ संजमपासाओ धरिओसो वाणसुहभागी जाओ २।इयाणि परि- मणा० प्रहरणाए दुद्धकाएण दिलुतो भण्णइ-दुद्धकाओ नाम दुद्धघडगस्सकाबोडी, एगो कुलपुत्तो, तस्स दुवे भगिणीओ अण्णगामेातिचरणावसंति, तस्स धूया जाया, भगिणीण पुत्ता तेसु वयपत्तेसु ताओ दोवि भगिणीओतस्स समगं चेव वरियाओ आगयाओ, सोयाशासादर भणइ-दुण्ह अस्थीण कयरं पियं करेमि?, बच्चेह पुत्ते पेसह, जो खेयष्णो तस्स दाहामित्ति, गयाओ, पेसिया, तेण तेसिं दोण्हवि परिहरणाघडगा समप्पिया, वञ्चह गोउलाओ दुर्च आणेह, ते कावोडीओ गहाय गा, ते दुद्धघडए भरिऊण कायोडीओ गहाय यां दुग्ध घटः पडिनियत्ता, तत्थ दोषिण पंथा-एगो परिहारेण सो य समो, वितिओ उज्जुएण, सो पुण विसमखाणुकंटगबहुलो, तेसिं एगो उ एण पटिओ, तस्स अक्खुडियस्स एगो घडो भिण्णो, तेण पडतेण बिइओवि भिषणो, सो विरिको गओ प्रासादस्थानीयः संयमः प्रतिपरितम्य इवाशप्ता, एकेन साधुना सातासौख्यपटुलेन न प्रतिवरिता, स वणिग्नावेब संसारे दुःखभाजनं जातः, येन प्रतिचरितोऽक्षतः संयमप्रासादो प्रतः स निर्वाणमुखभागी जाता २ । इदानी परिहरणायाँ दुग्धकायेन एटान्तो भव्यते-दुग्धकायो नाम दुग्धघटकस कापोती. एकः कुलपुत्रः, सस्प है भगिन्यी अन्यमामयोर्वसतः, तस दुहिता जाता, भगिन्योः पुत्री तयोः वयः प्राप्तयोः ते हे अपि भगिन्यौ तेन समभेष परिके भागते, स . ५५५॥ मणति-द्वयोरपिनोः कतरं प्रियं करोमि !, बजतं पुत्रौ प्रेषयते, यः खेदजसम्म वास्वामीति, गते, प्रेषितो, तेन ताभ्यो द्वाभ्यामपि भटी समर्पिती, मजतं गोकुलाहुग्धमानयत, सौ कापोस्यो गृहीत्वा गती, तौ दुग्धवटी भूत्वा कापोस्यो गृहीत्या प्रतिनिवृत्ती, तत्र द्वौ पन्धानौ-एकः परिहारेण (प्रमणेन), सच समः, द्वितीय मजुकेन, स पुनर्विषमस्थाणुकण्टकबहुलः, तयोरेक ऋजुना प्रस्थितः, तस्यास्फालितस्य (स्व स्वलितख)एको घटो भिलः, तेन पतता द्वितीयोऽपि भित्रः स विरिको गतो दीप अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2474 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक माउलगसगासं, विइओ समेण पंथेण सणियं २ आगओ अक्खुयाए दुद्धकावोडीए, एयस्स तुडो, इयरो भणिओ-न मए भणियं को चिरेण लहुं वा एहित्ति, मए भणियं-दुद्धं आणेहत्ति, जेण आणीयं तस्स दिण्णा, इयरो धाडिओ, एसा दवपरिहणा, भावे दिइंतस्स उवणओ-कुलपुत्तत्थाणीएहिं तित्थगरेहिं आणतं दुद्धत्थाणीयं चारित्तं अविराहतेहिं कण्णगत्थाणीया सिद्धी पावियवत्ति, गोउलत्थाणीओ मणूसभवो, तओ चरित्तरस मग्गो उजुओ जिणकप्पियाण, ते भगवतो संघयणधिइसंपण्णा दवखित्तकालभावावइविसमंपि उस्सग्गेणं वचंति, वंको धेरकप्पियाण सउस्सग्गाववओऽसमो मग्गो, जो अजोग्गो जिणकप्पस्स तं मागं पडिवजाइ सो दुद्धघडठ्ठाणियं चारित्तं विराहिऊण कण्णगत्थाणीयाए सिद्धीए अणाभागी भवइ, जो पुण गीयत्थो दवखित्तकालभावावईसु जयणाए जयइ सो संजमं अविराषित्ता अचिरेण सिद्धि पावेइ ३ । इयाणिं वारणाए विसभोयणतलाएण दिहतो-जहा एगो राया परचकागर्म अदूरागयं च जाणेत्ता गामेसु [१..] SALCALAMOROSSESANGACK अनुक्रम [१०..] मातुलसकाश, द्वितीयः समेग पधा कानैः १ आगतोऽक्षतया दुग्धकापोल्या, एतसै तुष्टः, इतरो भणित:- मया भणिसं कक्षिरेण बघु वाऽऽयातीति, मया भणित-दुग्धमानयतमिति, बेनानीतं तस्मै दया, इतरो घाटितः, एषा द्रव्यपरिहरणा, भावे दृष्टान्तस्योपनया-फुलपुत्रस्थानीय तीर्थकरैराशसं दुग्धस्थानीयं चारित्रमनिराधपजिः कम्यकारखानीया सिद्धिः प्राप्तम्येति, गोकुलस्थानीयो मनुष्यभवः, सतश्चरित्रस्य मार्ग अजुको जिनकल्पिकाना, ते भगवन्तः संहननतिसंपला दम्यक्षेत्रकाकभावापद्विपममपि उत्सर्गेण बनन्ति, चकः स्थविरकल्पिकानां सोत्सर्गापवादः असमो मार्गः, योऽयोम्यो जिनकल्पख तं मार्ग प्रतिपद्यते स दुग्धघटस्थानीय चारित्रं विराध्य कन्यकास्थानीयायाः सिझरनाभागी भवति, यः पुनीतार्थों सम्यक्षेत्रकालभावापामु बतनया यतते स संयम अविराभ्याचिरेण | सिदि प्रामोति ३ । इदानीं वारणायां विषभोजनतटाकेन दृष्टान्तः-वथैको राजा परचक्रागममदूरागतं च ज्ञात्वा प्रामेषु पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~248 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत आवश्यक-18|दुद्धदधिभक्खभोजाइसु विस पक्खिवावेर, जाणि य मिङपाणियाणि वावितलागाईणि तेसु य जे य रुक्खा पुष्फफलोवगा ४ प्रतिकहारिभ- ताणिवि विसेण संजोएऊण अवकतो, इयरो राया आगओ, सो त विसभावियं जाणिऊण घोसावेइ खंधावारे- जोमणा.. द्रीया एयाणि भक्खभोजाणि तलागाईसु य मिहाणि पाणियाणि एएमु य रुक्खेस पुष्फफलाणि मिहाणि उव जइ सो मरइ, जाणिवारणाया | एयाणि खारकडयाणि दुणापाणियाणि उव जेह, जे तं घोसणं सुणित्ता विरया ते जीविया, इयरे मता, एसा दषवारणा विषभोजन ॥५५६॥ निवृत्ती |भावधारणा (ए)दिईतस्स उवणओ-एवमेव रायस्थाणीएहिं तित्थगरेहिं विसन्नपाणसरिसा विसयत्ति काऊण पारिया, तेसु कन्या जे पसत्ता ते बहूणि जम्मणमरणाणि पाविहिंति, इयरे संसाराओ उत्तरंति ४ । इयाणिं णियत्तीए दोण्हं कण्णयाणं पढमाए कोलियकण्णाए दिहतो कीरइ-एगम्मि णयरे कोलिओ, तस्स सालाए धुत्ता वुर्णति, तत्थेगो धुत्तो महुरेण सरेण गायइ, |तस्स कोलियस्स धूया तेण सम संपलग्गा, तेणं भण्णइ-नस्सामो जाव ण णज्जामुत्ति, सा भणइ-मम पयंसिया रायकण्णगा, सूत्रांक [१..J अनुक्रम [१०..] दुग्धदधिभक्ष्यभोज्यादिषु विष प्रक्षेपयति, यानि च मिष्टपानीयानि पापीतटाकादीनि तेषु च ये पक्षाः पुष्पफलोपगास्तान्यपि विषेण संयोज्याप|क्रान्तः, इतरो राजाऽऽगसः, स तं विषभावितं शात्या घोषयति स्कन्धाबारे-य पुतानि भक्ष्यभोग्यानि सहाकाविषुप मिष्टानि पानीयानि एतेषु च वक्षेप | पुष्पफलानि मिष्टानि अपमुकेस नियते, यान्येतानि क्षारकटुका नि दुर्गन्धपानीयानि (तानि) उपभर दे तां घोषणं श्रुत्वा विरतास्ते जीविताः, इतरे मृताः, एषा Vाज्यवारणा, भाषवारणा, दृष्टान्तस्योपनया एवमेव राजस्थानीयस्तीर्थकीर्विपानापानसहशा विषया विकृत्वा पारिताः, तेषु ये प्रसका बहनि जन्ममरणानि प्राप्स्यन्ति, इतरे संसारात उत्सरन्ति । इदानी निवृत्ती यो कम्ययोः प्रथमया कोलिककन्यया दृष्टान्तः क्रियते-एकस्मिनगरे कोलिका, तस्य शालायां पूती वयन्ति, को पूर्ती मधुरेण स्वरेण गायति, तस्य कोलिका दुहिता तेन समं संपकना, तेन भण्यते-नश्यायो यावा शायापहे इति, सा| भणतिनाम वयस्या राजकन्या. ॥५५६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक तीए सम संगारो जहा दोहिवि एकभजाहि होयचंति, तोऽहं तीए विणा ण वच्चामि, सो भणइ-सावि आणिजउ, तीए कहिय, पडिस्सुयं चऽणाए, पहाविया महलए पचूसे, तत्थ केणवि उग्गीयं-'जइ फुल्ला कणियारया चूयय ! अहिमाMसमयंमि घुमि । तुह न खमं फुल्ले जइ पचंता करिति डमराई ॥१॥ रूपकम् , अस्य व्याख्या यदि पुष्पिताः के ?-कुत्सिताः कर्णिकाराः-वृक्षविशेषाः कर्णिकारकाः चूत एव चूतका, संज्ञायां कन्, तस्यामन्त्रणं हे चूतक ! अधिकमासे 'घोषिते' शब्दिते सति तव 'न क्षम' न समर्थ न युक्तं पुष्पितुं, यदि 'प्रत्यन्तका' नीचकाः 'कुत्सायामेव कन्' कुर्वन्ति 'डमरकानि' अशोभनानि, ततः किं त्वयाऽपि कर्तव्यानि ?, नैष सतांन्याय इति भावार्थः ॥१॥ एवं च सोउं रायकण्णा चिंतेइ-एस चूओ वसंतेण उबालद्धो, जइ कणियारो रुक्खाण अंतिमो पुल्फिओततो तव किं पुप्फिएण उत्तिमस्स ?, ण तुमे अहियमासघोसणा सुया?, अहो ! सुङ भणियं-जह कोलिगिणी एवं करेइ तो किंमएवि काय ?, रयणकरंडओ वीसरिउत्ति एएण छलेण पडिनियत्ता, तद्दिवसं च सामंतरायपुत्तो दाइयविप्परतो तं रायाणं सरणमुवगओ, रण्णा य से सा दिण्णा, इहा जाया, तेण ससुरसमग्गेण दाइए णिजिऊण रजं लद्धं, सा से महादेवी जाया, एसा दबणियत्ती, भाव तया समं संकेतो यथा द्वाम्यामप्येकमार्थाभ्यां भवितव्यमिति, तदहं तया बिना न ब्रजामि, स भण्यति-साउथानीयता, तथा कथितं, प्रतिश्रुतं चानवा, प्रचापिता महति प्रत्यूपे, ता केनाप्युगीत-1 एवं च श्रुत्वा राजकन्या चिन्तयति-एप चूतो बसन्तेनोपालब्धा, यदि कर्णिकारी वृक्षाणामन्यः पुषितततस्तव किं पुष्पितेनोत्तमसन स्वयाधिकमासघोषणा श्रुता', अहो सुटु भणितं यदि कोकिकी एवं करोति तदा किंमयाऽपि कर्मव्यंी, रखकरण्डको विस्मृत इत्येतेन छलेन प्रतिनिवृत्ता, तदिवसे च सामन्तराजपुत्रो दायादयाटितस्तं राजानं शरणमुपगतः, राशा च ती सा दमा, इष्टा जाता, तेन चारसमण हा दायादान निर्जिव राज्यं लब्धं, सा तस्य महादेवी जाता, एषा म्यनिवृत्तिः । 555wxxx [१..] अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~250 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [१..] आवश्यक-णियत्तीए दिइंतस्स उवणओ-कण्णगत्थाणीया साह धुत्तस्थाणीएसु विसएसु आसज्जमाणा गीतस्थाणीएण आयरिएणप्रतिक्रहारिभ जे समणुसिहा णियत्ता ते सुगई गया, इयरे दुग्गइं गया । बितियं उदाहरणं दधभावणियत्तणे-एगंमि गच्छे एगो तरुणो मणा० द्रीया गहणधारणासमत्थोत्तिकांउ तं आयरिया बट्टाविंति, अण्णया सो असुहकम्मोदएण पडिगच्छामित्ति पहाविओ, णिग निवृत्ती ॥५५७॥ च्छतो य गीतं सुणेइ, तेण मंगलनिमित्तं उवओगो दिन्नो, तत्थ य तरुणा सूरजुवाणा इमं साहिणियं गायति-तरि कन्या यवा य पइणिया मरियवं वा समरे समथएणं । असरिसजणउल्लावा न हु सहियबा कुलपसूयएणं ॥१॥ अस्याक्षरगमनिका 'तरितव्या वा' निवाढव्या वा प्रतिज्ञा मर्तव्यं वा समरे समर्थेन, असदृशजनोलापा नैव सोढव्याः कुले प्रसूतेन, तथा केनचिन्महात्मनैतत्संवाद्युक्तं-लज्जां गुणौषजननी जननीमिवाऽऽर्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ १॥ गीतियाए भावत्यो जहा केइ लद्धजसा सामिसंमाणिया सुभडा रणे पहारओ विरया भजमाणा एगेण सपक्खजसावलंबिणा अफालिया-ण सोहिस्सह पडिग्यहरा गच्छमाणत्ति, तं सोउं पडिनियत्ता, ते य पट्ठिया पडिया पराणीए, भग्गं च तेहिं पराणीयं, सम्माणिया य पहुणा, पच्छा | ॥५५७॥ भावनिवत्ती हटान्तस्योपनया-कन्यारवानीयाः साधवा पूर्तस्थानीयेषु विषयेषु भासजमाना गीतहानीयेनाचार्येण ये समनुविधा निवृत्तास्ते मुगति | गताः, इतरे दुर्गतिं गताः । द्वितीयमुदाहरणं म्यभावनिवर्त्तने-एकस्मिन् गच्छे एकरहरुणो ग्रहणधारणासमर्थ इतिकृया तमाचार्या चर्तयन्ति, अन्यदा सोऽशुभकर्मोदयेन प्रतिगच्छामीति प्रधावितः, निर्गच्छंश गीतं शूणोति, तेन मङ्गकनिमिचमुपयोगो दरः, तत्र च सरुमा शरबुवान इमो गीतिका गायन्ति-गीतिकावा भावार्थों यथा-केचिलब्धयवासः स्वामिसम्मानिताः सुभटा रणे प्रहारतो चिरता नश्यन्त एफेन स्वपक्षयशोऽवलम्बना स्वलिता:- शोभिव्यय प्रतिप्रहार गच्छन्त इति, तत्वा प्रतिनिवृत्ताः, ते च प्रस्थिताः पतिताः परानीके, भझं च तैः परानीकं, सम्मानिताम प्रभुणा, पश्चात. *पया. 5453 अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) * % प्रत सूत्रांक सुभडवायं सोभंति बहमाणा, एतं गीयत्थं सोउं तस्स साहुणो चिंता जाया-एमेव संगामत्थाणीया पबजा, जइ तओ पराभजामि तो असरिसजणेण हीलिस्सामि-एस समणगो पच्चोगलिओत्ति, पडिनियत्तो आलोइयपडिकतेण आयरियाण। इच्छा पडिपूरिया ५ । इयाणिं जिंदाए दोण्हं कणगाणं विझ्या कण्णगा चित्तकरदारिया उदाहरणं कीरइ-एर्गमि णयरे राया, अण्णेसिं राइणं चित्तसभा अस्थि मम णस्थिति जाणिऊण महइमहालियं चित्तसभ कारेऊण चित्तकरसेणीए समप्पेइ, ते चित्तेन्ति, तत्थेगस्स चित्तगरस्स धूया भतं आणेइ, राया य रायमग्गेण आसेण वेगप्पमुक्केण एइ, सा भीया पलाया किहमवि फिडिया गया, पियावि से ताहे सरीरचिंताए गओ, तीए तत्थ कोट्टिमे यण्णएहिं मोरपिच्छ लिहियं, रायावि तत्व एगाणिओ चंकमणियाओ करेति, सावि अण्णचित्तेण अच्छइ, राइणो तत्थ दिही गया, गिहामित्ति हत्थो पसारिओ, णहा दुक्खाविया, तीए हसियं, भणियं चऽणाए-तिहि पाएहिं आसंदओ ण ठाइ जाब चउत्थं पायं [१..] 252CRORE5%-0-5% अनुक्रम [१०..] कोभन्ते सुभटवाई वामानाः, एनं गीतिकार्य शुस्वा तस्य साधोखिम्ता जाता-एवमेव संग्रामस्थानीया प्रवज्या, यदि ततः पराभग्ये सदासदशजनेन हीवे-एष भ्रमणकः प्रत्यवगलित इति, प्रतिनिवृत्त आलोचितप्रतिकान्तेनाचार्याणामिडा प्रतिपूरिता ५। इदानी निन्दायर्यादयोः कन्ययोदितीया कन्यका चित्रकरवारिकोदाहरणं क्रियते-एकस्मिन् नगरे राजा, अन्येषां राज्ञां चिनसभाऽस्ति मम नास्तीति हावा महातिमहालया चित्रसभा कारविल्या चित्रकरण्यै समर्पयति, से चित्रयन्ति, तबैकस्य चित्रकरण दुहिता भक्कमानषति, राजा च राजमार्गेणाश्वेन धावता याति, सा भीता पलायिता कथमपि छुटिता गता, पिताऽपि तस्यासदा पारीरचिन्तायै गतः, तथा तत्र कुहिमे वर्णकैर्मयूरपिच्छं लिखितं, राजाऽपि तकाकी चङ्गमणिकाः करोति, साप्यन्यचित्तेन तिष्ठति, राज्ञमात्र दृष्टिगता, गृहामीति हसः प्रसारितः, नखा दुःखिताः, तया हसितं, भणितं चानया-त्रिभिः पादरासन्दको न तिष्ठति यावचतुर्थ पाई, * गयागयाई प्र०. SO95 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~252 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत 11५५८॥ मग्गंतीए तुमंसि लद्धो, राया पुच्छइ-किहत्ति?, साभणइ-अहं च पिउणो भत्त्रं आणेमि, एगो य पुरिसो रायमग्गे आसेण ४ प्रतिक्रवेगप्पमुक्केण एइ, ण से विण्णाणं किहवि कंचि मारिजामित्ति, तत्थाहं सरहिं पुण्णेहिं जीविया, एस एगो पाओ, बिइओमणा: पाओ राया, तेण चित्तकराणं चित्तसभा विरिका, तत्थ इकिके कुटुंबे बहुआ चित्तकरा मम पिया इक्कओ, तस्सविनिन्दायाँतत्तिओ चेव भागो दिनो, तइओ पाओ मम पिया, तेण राउलियं चित्तसमें चित्तंतेण पुरविढतं णिवियं, संपइ जो चित्रकवा सो वा आहारो सो य सीयलो केरिसो होइ!, तो आणीए सरीरचिंताए जाइ, राया भणइ-अहं किह चउत्थो पाओ?, सुता |सा भणइ-सबोषि ताव चिंतेइ-कुतो इत्थ आगमो मोराणं, जइवि ताव आणितिल्लयं होज तोवि ताव दिट्ठीए णिरि-1 क्खिज्जइ, सो भणइ-सच्चयं मुक्खो, राया गओ, पिउणा जिमिए सा घरं गता, रण्णा वरगा पेसिया, तीए पियामाया भणिया-देह ममंति, भण्णइ य अम्हे दरिदाणि किह रणो सपरिवारस्स पूर्व काहामो? दधस्स से रण्णाघरं भरियं, दासी | सूत्रांक 22 अनुक्रम [१०..] ५५८॥ मार्गयन्त्या त्वमसि लब्धः, राजा पृच्छति-कथमिति !, सा भणति-अहं च पित्रे भक्तमानयामि (यन्त्यभूत् तदा) एका पुरुषो राजमार्गेऽनेन धाव ति (यानभूत ), न तस्य विज्ञानं कथमपि कधित् मारयिष्यामीति, नत्राई स्वकैः पुण्यैर्जीविता, एष एकः पादः, द्वितीयः पादो राजा, तेन चित्रको भ्यश्चित्रसभा विरिक्ता, तत्रैवैकस्मिन् कुटुम्बे बहुकाभित्रका मम पितकाकी, तस्मायपि तावानेव भागो दत्तः, तृतीयः पादो मम पिता, तेन राजकुलीनां M चित्रसभा चित्रयता पूर्वाणितं निष्ठितं, सम्प्रति यो वा स वाऽऽहारः स च शीतलः कीदशो भवति ?, त(य)दाऽऽनीते शरीरचिन्तायै याति, राजा भणति-अहकथं चतुर्थः पादः, सा भणति-सर्वोऽपि तावचिन्तयति-कुवोत्रागमो मधुराणां!, यद्यपि तावदानीतो भवेत् तदापि तायदृष्टया निरीक्ष्यते, स भणति-सखं | मूर्खा, राजा गतः, पितरि जिमिते सा गृहं गता, राज्ञा बरकाः प्रेषिताः, तस्याः मातापितरौ भनिती-द मामिति, भणितवन्सी-वयं दरिदाः कथं राशः सपरिवारस्य पूजां कुर्मः, नग्येण तस्य राज्ञा गृहं भूतं, दासी पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~253 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक 4-5-458 Sणाए सिक्खाविया-मर्म रायाण संवाहिती अक्खाणयं पुच्छिज्जासि जाहे राया सोउकामो, जा सामिणी राया पवट्टा किंचि ताव अक्खाणायं कहेहि, भणइ, कहेमि, एगस्स धूया, अलंघणिज्जा य जुगवं तिन्नि वरगा आगया, दक्षिणेणं माति-1 भातिपितीहि तिणहवि दिण्णा, जणत्ताओ आगयाओ, सा य रत्तिं अहिणा खड्या मया, एगो तीए समं दहो, एगो अणसणं बईहो, एगेण देवो आराहिओ, तेण संजीवणो मतो दिण्णो, उज्जीवाविया, ते तिषिणवि उवढिया, कस्स दायवा?, किं सका एका दोण्हं तिण्हं वा दाउं? तो अक्खाहृत्ति, भणइ-निद्दाझ्या सुवामि, कई कहामि, तस्स अक्खाणयस्स |कोउहल्लेणं बितियदिवसे तीसे चेव वारो आणत्तो, ताहे सा पुणो पुच्छइ, भणइ-जेण उज्जियाविया सो पिया, जेण सम उजीवाविया सो भाया, जो अणसणं बइडो तस्स दायबत्ति, सा भणइ-अण्णं कहेहि, सा भणइ-एगस्स राइणो सुवण्णकारा भूमिधरे मणिरयणकउज्जोया अणिग्गच्छता अंतेउरस्स आभरणगाणि घडाविजंति, एगो भणइ-का उण बेला घट्टइ ?, [१.. अनुक्रम [१०..] C1AMIRX चानया शिक्षिता-मां राजानं संवाहचन्ती पृथ्वंदा राजा स्वपितुकामः, थावत्स्वामिनि! राजा प्रहरीले किचित्ताबदाण्यानक कधष, भति-कथा यामि, एकस दुहिता, अलहनीया युगपत्रयो वरका भागताः, दाक्षिण्येन मातृमातृपितृभिनिभ्योऽपि दत्ता, जनता आगताः, सा च राधापहिना दष्टा मृता, एकस्तया समं दग्धः, एकोऽनशनमुपविष्टः, एकेन देव भारावः, तेन संजीवनो मन्त्री दत्ता, जीविता, ते त्रयोऽपि उपस्थिताः, क बातम्या, कि पापा एका भाभ्यो निभ्यो वा पात, तदास्यादि, भणति-निहाणा स्वपीमि, कल्ये कथयिष्यामि, तस्याख्या निकस्य कौतूहलेन द्वितीय दिवसे तस्यायेव वारो एसः, तदा सा पुनः पृच्छति, भणति-येनोज्जीविता स पिता, येन सममुजीविता स माता, योऽनशनं प्रविष्टसौ दातव्येति, सा भणति-अन्यद् कथष, सा मणति-एकस राज्ञः सुपर्णकारा भूमिगृहे मणिरवकृतोयोता अनिर्गच्छन्तोऽन्तःपुरात् भाभरणकानि कुर्वस्ति, एको भगति-का पुनयता वर्तते ?. *जगताओ म. + पोम०, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~254 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रतिक्रमणा०६निन्दायां चित्रकृत्युच्युदाहरणं प्रत एगो भणइ-रत्ती वट्टइ, सो कहं जाणइ ?, जो ण चंदं ण सूरं पिच्छइ, तो अक्खाहि, सा भणइ-णिदाइया, वितियदिणे कहेइ-सो रत्तिअंधत्तणेण जाणइ, अण्णं अक्खाहित्ति, भणइ-एगो राया तस्स दुवे चोरा उवठ्ठिया, तेण मंजसाए पक्खिविऊण समुद्दे छूढा, ते किञ्चिरस्सवि उच्छलिया, एगेण दिहा मंजूसा, गहिया, विहाडिया, मणुस्से पेच्छइ, ताहे पुच्छियाकइत्यो दिवसो छूढाणं, एगो भणइ-चउत्थो दिवसो, सो कह जाणइ !, तहेव बीयदिणे कहेइ-तस्स चाउत्थजरो तेण| जाणेइ, अण्णं कहेइ दो सवत्तिणीओ, एक्काए रयणाणि अस्थि, सा इयरीए ण विस्संभइ मा हरेजा, तओऽणाए जत्थ णिक्खमंती पविसंती य पिच्छइ तत्थ घडए छोटूण ठवियाणि, ओलित्तो घडओ, इयरीए विरहं गाउँ हरिउ रयणाणि तहेव य घडओ ओलित्तो, इयरीए णायं हरियाणित्ति, तो कहं जाणइ, उलित्तए हरिताणित्ति !, बिइए दिवसे भणइ-सो कायमओ घडओ, तस्थ ताणि पडिभासंति हरिएसु णत्थि, अण्णं कहेहि, भणइ-एगस्स रपणो चत्तारि पुरिसरयणाणि ५५९॥ सूत्रांक अनुक्रम [१०..] १एको भणति-रात्रिर्वते, स कथं जानातिन यवन्त्रं न सूर्य प्रेक्षते, सदाच्याहि, सा भगति-निद्रिता, द्वितीय दिवसे कथयति-स राज्यन्धवेन जानाति, अन्यदात्याहीति, भणति-एको राजा तसै द्वौ चौराबुपस्थापितो, तेन मञ्जूषायां प्रक्षिप्य समुद्र क्षिप्तौ, तौ किचिरेणाप्युच्छलिती, एकेन रटा मञ्जूषा, | गृहीता, उद्घाटिता, मनुप्या प्रेक्षते, तदा यष्टौ कतिथो दिवसः क्षिप्तयोः !, एको भणति-चतुर्थो दिवसः, स कथं जानाति, तथैव द्वितीयदिने कथयति-तस्य । चातुर्भग्वरसेन जानाति, अन्यत् कथयति- सपन्यो, एकखा रखानि सन्ति, सा इतरौ न विनम्मति मा हाति, ततोऽनया यत्र निष्कामन्ती प्रविशन्ती | | प्रेक्षते तत्र घटे क्षिया स्थापितानि, अवलिसो घटका, इतरवाऽपि रहो ज्ञात्वा हत्या रत्नानि तथैव च पटकोऽवलिया, इतरया ज्ञातं हतानीति, तत् कथ४॥ जानाति ? अवलिले हतामीति, द्वितीय दिवसे कधपति-स काचमयो घटकः, सन सानि प्रतिभासम्ते हतेषु न सन्ति, अम्बत् कथय-एकस्य राज्ञ भावारि पुरुषरतानि. *कहेहि प्र.. ॥२५९॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~255 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक तक-निमित्ती रहकारो सहस्सजोही तहेव विजो य । दिण्णा चउगह कण्णा परिणीया नवरमेकेण ॥१॥ कथं, तस्स रण्णो अइसुंदरा धूया, सा केणवि विजाहरेण हडा, ण णजइ कुओऽवि पिक्खिया, रण्णा भणियं-जो कण्णगं आणेइ तस्सेव सा, तओ णेमित्तिएण कहिय--अमुगं दिसं णीया, रहकारेण आगासगमणो रहो कमओ, तओ चत्तारिवि तं विलगिऊण पहाविया, अम्मि(भि)ओ विजाहरो, सहस्सजोहिणा सो मारिओ, तेणवि मारिजंतेण दारियाए सीस छिन्नं, विजेण संजीवणोसहीहिं उज्जियाविया, आणीया घरं, राइणा चउण्हवि दिण्णा, दारिया भणइ-किह अहं चउण्हवि होमि !, तो अहं अग्गि पबिसामि, जो मए समं पविसइ तस्साह, एवं होउत्ति, तीए समं को अग्गिं पविसइ, कस्स दायबा!, वितियदिणे भणइ-णिमित्तिणा णिमित्तेण णायं जहा एसा ण मरइत्ति तेण अग्भुवगर्य, इयरेहिं णिच्छियं, दारियाए चियहाणस्स हेढा सुरंगा खाणिया, तत्थ ताणि चियगाएणुवण्णाणि कट्ठाणि दिण्णाणि, अग्गी रहओ जाहे ताहे. [१.. अनुक्रम [१०..] तथा-मितिको विकास सहयोधी तथैव वैद्यक्ष । रचा चतुभ्यः कन्या परिणीता नवरमेकेन ॥१॥ कथं स राज्ञोऽतिसुन्दरा दुहिता, सा| | केनापि विद्याधरेण हता, न ज्ञायते कुतोऽपीक्षिता, राजा भणित-पः कम्बकामानयति तवैव सा, सतो नैमिचिकेन कथितं-अ विसं गीता, स्वकारेण आकाशगमनो रथः कृतः, सतश्चत्वारोऽपि तं बिलग्य प्रभाविता, अभ्यागतो विद्याधरः, सहस्रबोधिना स मारितः, सेनापि मार्यमाणेन दारिकायाः शीर्ष | छिन्नं, वैोन संजीवम्योपयोजीविता, आनीता गृहं, राज्ञा चतुभ्योऽपि दत्ता, दारिका भणति-कथमई चतुभ्योऽपि भवामि , वहमग्नि प्रनिशामि, यो मया समं प्रविशति तस्याहं, एवं भवस्थिति, तया समं कोऽनि प्रविशति', कमी दातम्या ', द्वितीयदिने भणति-नैमिनिफेन निमितेन शातं यथैषा न मरिष्यतीति तेनाभ्युपगतं, इतरनेट, दारिकया चिवास्थानयाधमा सुरक्षा खागिता, तत्र तानि चितिकानुरूपवर्णानि कायानि दत्तानि, भनी रचितो बदा तदा *सा कपणा दायका प्र०. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~256 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दायांचि हारिकोदा० आवश्यक- ताणि सुरंगाए णिस्तरियाणि, तस्स दिण्णा, अण्णं कहेहि, सा भणइ-एकाए अविरल्याए पगयं जंतिआए कडगा मग्गिया, हारिभ- ताहे रूवएहिं बंधएण दिशा, इयरीए धूयाए आविद्धा, वत्ते पगए ण चेव अलिवेइ, एवं कइवयाणि वरिसाणि गयाणि, द्रीया कडइत्तएहिं मग्गिया, सा भणइ-देमित्ति, जाव दारिया महती भूया ण सक्केति अवणेङ, ताहे ताए कडइत्तिया भणिया- ॥५६॥ अण्णेवि रूवए देमि, मुयह, ते णिच्छंति, तो किं सका हत्था छिदिउं', ताहे भणियं-अण्णे परिसए चेव कडए घडावे| देमो, तेऽवि णिच्छन्ति, तेचेव दायबा, कह संठवेयवा?, जहा य दारियाए हत्था ण छिदिजंति, कहं तेसिमुत्तरं दाय, आह-ते भणियबा-अम्हवि जइ ते चेष रूपए देह तो अम्हेवि ते चेव कडए देमो, एरिसाणि अक्खाणगाणि कहतीए दिवसे २ राया छम्मासे आणीओ, सवत्तिणीओ से छिद्दाणि मग्गंति, सा य चित्तकरदारिया ओवरणं पविसिऊण एक्काणिया चिराणए मणियए चीराणि य पुरओ कार्ड आप्पाणं जिंदइ-तुम चित्तयरधूया सिया, एयाणि ते पितिसतियाणि ती जया निवती, सी दशा, अन्यरकथय, सा भणति-एकवाऽविरतिफया प्रकरणं यात्या कटकी मागिती, तदा रूपन्धेन पत्ती (लम्ची) इतरस्या। है दुहिनाऽऽविदी, वृत्ते प्रकरणे मैप ददाति, एवं कतिपयानि वर्षाणि तानि, कटकस्वामिन्यां मार्मिती, सा भणति-बदामीति, यावहारिका महवीभूता, न शस्येते निष्कापापितुं, सदा तथा कटकस्वामिनी भणिती-अन्यानपि रूप्यकान् ददामि मुशतं, ती नेच्छतः, तत् किं पायी हस्ती हेतु सदा (सया) भणितंअन्यौ इंदशौ चैव कटकी कारविरवा ददामि, तावपि नेच्छतः, ताव दातम्यौ, कथं संस्थापवितव्यो ।, यथा च दारिकाया दस्ती न छियेते, कधं ताभ्यामुत्तरं | दातव्यं, भाइ-तौ भणितव्यो-भसाकमपि यदि तानेव रूप्यकान् दत्तं तदा चयमपि तावेव कटकी दमा, इंटसाम्याग्यानकानि कथयन्त्या दिवसे दिवसे राजा पण्मासान् भानीता, सपन्यस्तस्याविकदाणि मार्गयन्ति, सा च चित्रकर दारिका अपवरके प्रविश्वकाकिनी चिरन्तनानि मणिपुक्तानि चीपराणि पुरतः कृत्वा |मानं निन्दति-वं चित्रकरदुहिताऽऽसीः, एतानि ते पितृसत्कानि अनुक्रम [१०..] ॥५६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~257 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक CASSES [१..] वत्थाणि आभरणाणि य, इमा सिरी रायसिरी, अण्णाओ उदिओदियकुलवंसप्पसूयाओ रायधूयाओ मोत्तुं राया तुम अणु-IN बत्तइ ता गर्व मा काहिसि, एवं दिवसे २ दारं ढकेउं करेइ, सवित्तीहिं से कहवि णायं, ताओ रायाणं पायपडियाओ| |विण्णविंति-मारिजिहिसि एयाए कम्मणकारियाए, एसा उबरए पविसिड कम्मणं करेति, रणा जोइयं सुयं च, तुढेण| से महादेविपट्टो बद्धो, एसा दवणिंदा, भावणिंदाए साहुणा अप्पा शिंदियवो-जीव! तुमे संसारं हिंडतेणं निरयतिरियगईसुं कहमवि माणुसत्तेसम्मत्तणाणचरित्ताणि लद्धाणि, जेसिं पसाएण सबलोयमाणणिज्जो पूयणिज्जो य, ता मा गई का| हिसि-जहा अहं बहुस्सुओ उत्तिमचरित्तो बत्ति ६ दवगरिहाए पइमारियाए दिहतो-एगो मरुओ अज्झावओ, तस्स तरुणी महिला, सा बलिघइसदेवं करिती भणइ-अहं काकाणं विभेमित्ति, तओ उवज्झायनिउत्ता वट्टा दिवसे २ धणुगेहिं गहिएहिं| रक्खंति बलिवइसदेवं करेंतिं, तत्थेगो बट्टो चिंतेइ-ण एस मुद्धा जा कागाण विभेद, असडिया एसा, सो तं पडिचरइ, सा - -- -- - वखापयाभरणानि च, इयं श्री राम्यश्री, अन्या उदितोदितकुलवंशप्रसूता राजसुता मुक्वा राजा वामनुपर्यते तद् गर्ने मा कृथाः, एवं दिवसे २ द्वारं स्थगविना करोति, सपनीभिस्तस्याः तत् कथमपि ज्ञातं, साराशे पादपतिता विज्ञपयस्ति-मासे एतथा कार्मणकारिण्या, एषाऽपपरके प्रविश्य कार्ममं करोति, राशा इष्टं श्रुतं च, तुटेन सस्था महादेवीपट्टो बदः, एषा व्यनिन्दा, भावनिन्दायां साधुनामा निन्दितव्यः-जीव ! खया संसारं हिन्दमानेन नरकतिर्यगतिपु कथमपि मनुष्याचे सम्यक्त्वज्ञानाचारित्राणि लब्धानि, येषां प्रसादेन सबैलोकानां माननीयः पूजनीया, सम्मा गर्व था, वधाई बहुश्रुत उत्तमचारियो | वेति । द्रव्यगाया पतिमारिकाया दृष्टान्त:-एको प्राह्मणोऽध्यापक, तस्य तरुणा महेका, सा वैश्वदेवार्क कुर्वती भणनि-अई काकेभ्यो विभेमी ति, तत उपाध्यायनिबुताकाचा दिवसे २ धनुर्भिः गृहीतः रक्षन्ति वैश्वदेवबकि कुर्वती, तत्रैकश्छावचिन्तयति-नैषा मुग्धा था काकेभ्यो बिम्पति, अशहिलेषा सतां प्रतिवरति-सा अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रतिकर णा०७१ द्धापतिम रिकोदा प्रत सूत्रांक आवश्यक-दयणम्मताए परकूले पिंडारो, तेण सम संपलग्गिया, अण्णया सं घडएणं णम्मयं तरंती पिंडारसगासं वच्चाइ, चोरा य उत्तरंति, तेसिमेगो सुसुमारेण गहिओ, सो रडइ, ताए भण्णइ-अच्छि ढोकेहित्ति, ढोक्किए मुक्को, तीए भणिओ-किं स्थ द्रीया कुतिधेण उत्तिण्णा, सो खंडिओ तं मुणितो चेव णियत्तो, सा य वितियदिवसे बलिं करेइ, तस्स य वट्टस्स रक्खण- चारओ, तेण भण्णइ-'दिया कागाण बीहेसि, रत्तिं तरसि णम्मयं । कुतिस्थाणि य जाणासि, अच्छिढोकणियाणि य॥१॥ ॥५६॥ तीए भण्णइ-किं करेमि?, तुम्हारिसा मे णिच्छंति, सा तं उवयरइ, भणइ-मम इच्छसुत्ति, सो भणइ-कहं उवज्झायस्स पुरओ ठाइस्सति ?, तीए चिंतियं-मारेमि एयं अज्झावयं तो मे एस भत्ता भविस्सइत्ति मारिओ, पेडियाए छुभेऊण अडवीए उज्झिउमारद्धा, वाणमंतरीए धंभिया, अडवीए भमित्तुमारद्धा, छुह ण सकेइ अहिया सिउं, तं च से कुणिमं| गलति उवरिं, लोगेण हीलिज्जइ-पइमारिया हिंडइत्ति, तीसे पुणरावत्ती जाया, ताहे सा भणइ-देह अम्मो! पइमारियाए चमर्मदायाः पस्कूले विण्डारस्तेन सम संमलमा, मन्बदा तो घटकेन नर्मदा तरन्ती पिण्डारसकाशं ब्रजति, चौरात्रोत्तरन्ति, तेपामेकः शिशुमारेण गृहीतः, स स्टति, तथा भव्यते--अक्षिणी छादयेति, हादिते मुक्तः, तया भणित:-किं कुतीथेनोत्तीर्णाः?, स छात्रस्त जागान (सावनेव)एव निवृत्तः, सा च द्वितीय दिवसे बलि करोति, तस्य च छात्रस्य रक्षणवारकः, तेन भण्वते-दिवा काकेभ्यो विभेपि राबौ तरसि नर्मदाम् । कुतीयानि च जानासि, अक्षिकादनानि च ॥ तथा मण्यते-किं करोमि , खादशा मां नेच्छन्ति, सा नमुपचरति, भणति-मामिच्डेति, सभणति-कथमुपाध्यायस्य पुरतः स्थास्यामीति', तया चिन्तितं-मारयाम्येनमध्यापकं तदा ममैष भत्ती भविष्यतीति मारितः, पेटिका (मङ्गपा)यां क्षिवाटपामुविझतुमारब्धा, व्यन्तर्या साम्भिता, अटव्यां भ्रमितुमारब्धा, अपं न शकोत्यध्यासिन, ततस्य संधिरं गिलत्युपरि, लोके न हील्यते-पतिमारिका हिण्डते इति, तस्याः पुनरावृत्तिजीता, तदा सा भगति-दत्ताम्बाः ! पतिमारिकायै पंडारो प्रक. ५६१॥ अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [१..] भिक्खंति, एवं बहुकालो गओ, अण्णया साहुणीणं पाएसु पडतीए पडिया पेडिया, पवइया, एव गरहियवं जं दुचरिया इयाणिं सोहीए वत्थागया दोषिण दिहता, तत्थ बत्थदितो-रायगिहे सेणिओ राया, तेण खोमजुगलं णिलेवैगस्स समपियं, कोमुदियवारो य वइ, तेण दोण्हं भजाणं अणुचरंतेण दिपणं, सेणिओ अभओ य कोमुदीए पछण्णं हिंडति, दिई, तंबोटेण सितं, आगयाओ, रयगेण अंबाडियाओ, तेण खारेण सोहियाणि, गोसे आणावियाणि, सम्भावं पुच्छिएण कहियं रयएण, एस दवविसोही, एवं साहुणावि अहीणकालमायरियस्स आलोएयचं, तेण विसोही काययत्ति, अगओ जहा णमोकारे, एवं साहुणाऽवि जिंदाऽगएण अतिचारविसं ओसारेयचं, एसा विसुद्धी । उक्तान्येकाथिकानि, साम्प्रतं प्रत्यहं यथा श्रमणेनेयं कर्तव्या, तथा मालाकारदृष्टान्तं चेतसि निधाय प्रतिपादयन्नाह आलोवणमालुंचन वियडीकरणं च भाचसोही य । आलोइयंमि आराहणा अणालोइए भयणा ॥ १२४३॥ ___ व्याख्या-अवलोचनम् आलुश्चनं विकटीकरणं च भावशुद्धिश्च, यथेह कश्चिन्निपुणो मालाकारः स्वस्यारामस्य सदा द्विसन्ध्यमवलोकनं करोति, किं कुसुमानि सन्ति । उत नेति, दृष्ट्वा तेषामालुवनं करोति, ग्रहणमित्यर्थः, ततो विकटी भिक्षामिति, एवं बहुः कालो गतः, अन्यथा साध्वीना पादयोः पतन्याः पतिता पेटा, प्रबजिता, गहं बितष्य एवं परितं । इदानी शुद्धौ वन्वागदी दो रटान्ती, तन्त्र पसरात:-राजगृहे श्रेणिको राजा, सेन क्षौमयुगलं रजकाव समर्पितं, कौमुदीमहनवते, तेन इयोभायपोरनुधरता दरी, निकोऽभवत्र कौमुयां प्रच्छन्नं हिण्डेते, दर्य, वाम्बूलेन सिर्फ, आगते, रजकेण निर्भसिते, तेन क्षारेण शोधिते, प्रत्यूपे आनायिते, सजावः पृष्टेन कथितः रजकेन, एषा इव्यविशुद्धिः, एवं साधुनाऽप्पहीनकालमाचार्याथालोचयितम्यं तेन विशुद्धिः कर्तव्येति, अगदो यथा नमस्कारे, एवं साधुनाऽपि निन्दाङ्गदेनातिचारविष| मपसारयितव्यम् । एषा विशुद्धिः॥ वगरस प्रा. अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~260 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- करणं, विकसितमुकुलितार्द्धमुकुलितानां भेदेन विभजनमित्यर्थः, चशब्दात्पश्चान्थनं करोति, ततो ग्राहका गृहन्ति, प्रतिक्रमहारिभततोऽस्याभिलषितार्थलाभो भवति, शुद्धिश्च चित्तप्रसादलक्षणा, अस्या एवं विवक्षितत्वाद्, अन्यस्तु विपरीतकारी माला- Tणामालाद्रीया कारस्तस्य न भवति, एवं साधुरपि कृतोपधिप्रत्युपेक्षणादिव्यापारः उच्चारादिभूमीः प्रत्युपेक्ष्य व्यापाररहितः कायोत्सर्ग- कारोदाह॥५६२॥ स्थोऽनुप्रेक्षते सूत्रं, गुरी तु स्थिते दैवसिकावश्यकस्य मुखवत्रिकाप्रत्युपेक्षणादेः कायोत्सर्गान्तस्यावलोकनं करोति, पश्चा भारणमालोदालुचनं स्पष्टबुद्धयाऽपराधग्रहणं, ततो विकटीकरणं गुरुलघूनामपराधानां विभजनं, चशब्दादालोचनाप्रतिसेवनाऽनुलो चनायां मेन ग्रन्थनं, ततो यथाक्रमं गुरोनिवेदनं करोति, एवं कुर्वतो भावशुद्धिरुपजायते, औदयिकभावात् क्षायोपशमिकमाप्तिरित्यर्थः, इत्थमुकेन प्रकारेण 'आलोचिते' गुरोरपराधजाले निवेदिते 'आराधना' मोक्षमार्गाखण्डना भवति, 'अनालो|चिते' अनिवेदिते 'भजना' विकल्पना कदाचिद्भवति कदाचिन्न भवति, तत्रेधं भवति-आलोयणापरिणओ सम्म संप-16 हिओ गुरुसगासं । जइ अंतरावि कालं करिज आराहओ तहवि ॥१॥ एवं तु न भवति-'इहीए गारवेणं बहुस्सुब|मएण वावि दुचरियं । जो ण कहेइ गुरूर्ण नहु सो आराहओ भणिओ ॥१॥ति गाथार्थः ॥ १२४३ ।। इथं चालोचनादिप्रकारेणोभयकालं नियमत एव प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थे सातिचारेण निरतिचारेण वा साधुना शुद्धिः कर्तेच्या, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनवं, किन्वतिचारवत एव शुद्धिः क्रियत इति, आह च ॥५६२॥ आलोपनापरिणतः सम्यक संपस्थितो गुरुसकाशम् । यद्यन्तराऽपि कालं कुर्षादाराधकस्तथापि ॥1॥रा गौरवेण बटुवतमदेन वाऽपि गुचरितम् ।। सायोन कथयति गुरुभ्यो नैव स भाराधको भणितः ॥॥ अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४४], भाष्यं [२०४...], है 2ॐर प्रत सूत्रांक [१..] सपडिक्कमणोधम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स।मझिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं ॥१२४४ ॥ Ni व्याख्या-सप्रतिक्रमणो धर्मः पुरिमस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य, तत्तीर्थसाधुना र्यापथागतेनोचारादिविवेके उभय-10 कालं चापराधो भवतु मा वा नियमतः प्रतिक्रान्तव्यं, शठत्वात्प्रमादबहुलत्वाच, एतेष्वेव स्थानेषु 'मध्यमानां जिनानाम् || अजितादीनां पार्थपर्यन्तानां 'कारणजाते' अपराध एवोत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति, अशठत्वात्प्रमादरहितत्वाञ्चेति गाथार्धः ॥ १२४४ ॥ तथा चाह ग्रन्धकारः जो जाहे आवन्नो साहू अन्नयरयंमि ठाणमि । सो ताहे पडिक्कमई मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥१२४५ ॥ व्याख्या-'यः साधुरिति योगः 'यदा' यस्मिन् काले पूर्वाह्लादौ 'आपन्नः' प्राप्तः 'अन्यतरस्मिन् स्थाने प्राणातिपातादौ स तदैव तस्य स्थानस्य, एकाक्येव गुरुप्रत्यक्ष वा प्रतिक्रामति मध्यमानां जिनवराणामिति गाथार्थः ॥ १२४५ ॥ आह-किमयमेवं भेदः प्रतिक्रमणकृतः ? आहोश्विदन्योऽप्यस्ति !, अस्तीत्याह, यतःबावीसं तित्थयरा सामाइयसंजम उवासंति । छेओवट्ठावणयं पुण वयन्ति उसभो य वीरोय ॥१२४६॥ व्याख्या-द्वाविंशतिस्तीर्थकरा' मध्यमाः सामायिक संयममुपदिशन्ति, यदैव सामायिकमुच्चार्यते तदैव व्रतेषु स्थाप्यते, छेदोपस्थापनिकं वदतः ऋषभश्च वीरश्च, एतदुक्तं भवति-प्रथमतीर्थकरचरमतीर्थकरतीर्थेषु हि प्रनजितमात्रः सामायिकसंयतो भवति तावद् यावच्छत्रपरिज्ञाऽवगमः, एवं हि पूर्वमासीत् , अधुना तु षड्जीवनिकायावगमं यावत् तया पुनः सूत्रतोऽर्थतश्चावगतया सम्यगपराधस्थानानि परिहरन् व्रतेषु स्थाप्यत इत्येवं निरतिचारः, सातिचारः पुनर्मूलस्थान प्राप्त अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रतिक्रमणस्य नित्यतादि विधानं ~262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४६], भाष्यं [२०४...], प्रत द्रीया सूत्रांक आवश्यक-उपस्थाप्यत इति गाथार्थः ॥ १२४६ ॥ अयं च विशेषः-आचेलुक्कोद्देसिय सिज्जातररायपिंडकिइकम्मे । वयजिपडिक्कमणेप्रतिक्रमहारिभ- मासं पज्जोसवणकप्पे ॥ १॥ एतद्गाथानुसारतोऽवसेयः, इयं च सामायिके व्याख्यातैवेति गतं प्रासनिकम् , अधुनाणाप्रतिक यदुक्तं 'सप्रतिक्रमणो धर्म' इत्यादि, तत्प्रतिक्रमणं देवसिकादिभेदेन निरूपयन्नाह मणसंख्या ॥५६॥ पडिकमणं देसिय राइयं च इत्तरियमावकहियं च । पक्खियचाउम्मासिय संवच्छर उत्तिमढे य ॥ १२४७॥ व्याख्या-'प्रतिक्रमण प्राग्निरूपितशब्दार्थ, 'देवसिक' दिवसनिवृत्त 'रात्रिक' रजनिनिवृत्तम् , इत्वरं तु-अल्पकालिक देवसिकायेव 'यावत्कथिक' यावज्जीविक व्रतादिलक्षणं 'पाक्षिक' पक्षातिचारनिवृत्तम् , आह-देवसिकेनैव शोधिते सत्यास्मनि पाक्षिकादि किमर्थम् !, उच्यते, गृहदृष्टान्तोऽत्र-'जह गेहं पइदियहंपि सोहियं तहवि पक्ससंधीए । सोहिजइ सवि सेसं एवं इहयंपि णायचं ॥१॥' एवं चातुर्मासिकं सांवत्सरिकम् , एतानि हि प्रतीतान्येच, 'उत्तमार्थे च' भक्तप्रत्याख्याने ४ प्रतिक्रमणं भवति, निवृत्तिरूपत्वात्तस्येति गाथासमुदायार्थः ॥ १२४७ ॥ साम्प्रतं यावत्कथिकं प्रतिक्रमणमुपदर्शयन्नाह पंच य महत्वयाई राईण्डाइ चाउजामो य । भत्तपरिणा य तहा दुहंपि य आवकहियाई ॥१२४८॥ व्याख्या-पश्च महाव्रतानि-प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि 'राईछडाई ति उपलक्षणत्वाद् रात्रिभोजननिवृत्तिष-11॥१५॥ छानि पुरिमपश्चिमतीर्थकरयोस्तीर्थ इति, 'चातुर्यामश्च' निवृत्तिधर्म एव भक्तपरिज्ञा च तथा, चशब्दादिगिनीमरणादि आचेलक्यमौदेशिक शय्यातरराजपिण्कृतिकर्माणि । प्रतानि ज्येष्ठः प्रतिक्रमणं मासः पर्युषणाकपः ॥ 1 ॥ ३ यथा गृहं प्रतिदिवसमपि शोधित तथापि पक्षसन्धौ । शोभ्यते सविशेषमेपमिहापि शासम्यम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१०..] 4.2% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'प्रतिक्रमण'स्य दैवसिक आदि षड्भेदाः, प्रतिक्रमण-करणस्य कारणानि ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२४८], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक परिग्रहः, 'द्वयोरपि' पुरिमपश्चिमयोः, चशब्दाद् मध्यमानां च यावत्कथिकान्येतानीति गाथार्थः ॥ १२४८ ॥ इत्थं यावकथिकमनेकभेदभिन्न प्रतिपादितम्, इत्वरमपि दैवसिकादिभेदं प्रतिपादितमेव, पुनरपीत्वरप्रतिपादनायैवाह उचारे पासवणे खेले सिंघाणए पडिकमणं । आभोगमणाभोगे सहस्सकारे पडिकमणं ॥१२४९॥ | व्याख्या-'उच्चारे' पुरीषे 'प्रस्रवणे' मूत्रे 'खेले' श्लेष्मणि 'सिद्धानके नासिकोद्भवे श्लेष्मणि व्युत्सृष्टे सति सामान्येन प्रतिक्रमणं भवति, अयं पुनर्विशेषः-'उच्चारं पासवणं भूमीए वोसिरित्तु उवउत्तो । बोसरिऊण य तत्तो इरियावहि पडि-12 कमइ ॥१॥ वोसिरह मत्तगे जइ तो न पडिकमइ मत्तगं जो उ । साहू परिहवेई णियमेण पडिकमे सो उ ॥२॥ खेलें सिंघाणं वाऽपडिलेहिय अप्पमन्जिङ तह य । बोसिरिय पडिकमई तं पिय मिच्छुक्कडं देइ ॥३॥ प्रत्युपेक्षितादिविधिविवेके तु न ददाति, तथाऽऽभोगेऽनाभोगे सहसात्कारे सति योऽतिचारस्तस्य प्रतिक्रमणम्-'आभोगे जाणंतेण जोऽइयारो कओ पुणो तस्स । जायम्मिवि अणुतावे पडिकमणेऽजाणया इयरो ॥१॥ अनाभोगसहसात्कारे इत्थंलक्षणे-'पुविं अपासिऊणं छुढे पायंमि जं पुणो पासे । ण य तरह णियत्तेउं पायं सहसाकरणमेयं ॥१॥' अस्मिंश्च सति प्रतिक्रमणम् , [१..] अनुक्रम [१०..] उचारं प्रश्रवणं भूमौ व्युत्सम्योपयुक्तः । ब्युसम्म च तत ईयांपथिकी प्रतिकामति ॥ ॥ प्युत्सृजति मात्रके यदि तदान प्रतिकाम्यति मात्र यस्तु । साधुः परिठापयति नियमेन प्रतिकाम्यति स एव ॥ २॥ लेप्माण सिद्धानं वाग्मतिलिख्याप्रमाश्य तथा च । ब्युत्यग्य प्रतिकाम्पति तत्रापि च मिथ्यादुष्कृतं ददाति ॥ ३ ॥ आभोगे जागता योऽतिचारः कृतः पुनस्तस्य । जातेऽपि चानुतापे प्रतिक्रमणेऽजानतेतरः ।।।। पूर्वमा क्षिप्ते पादेयत् पुनः पश्येत् । न च शक्नोति निवर्तितुं पावं सहसाकरणमेतत् ॥1॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~264 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४९], भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभ- द्रीया ॥५६४ा प्रत नानि सूत्रांक अर्य गाथाक्षरार्थः ॥ १२४९ ॥ इदं पुनः प्राकरणिक-पडिलेहेङ पमजिय भत्तं पाणं च बोसिरेऊणं । यसहीकयवरमेव प्रतिकमउणियमेण पडिक्कमे साहू ॥१॥ हत्यसया आगंतुंगंतुं च मुहुत्सगं जहिं चिढे । पंथे वा वचंतोणदिसंतरणे पडिकमइ ॥२॥ णात दक्रमणस्थागतं प्रतिक्रमणद्वारम् , अधुना प्रतिक्रान्तब्यमुच्यते, तत्पुनरोषतः पञ्चधा भवतीति, आह च नियुक्तिकार:| मिकछत्तपदिकमणं तहेव अस्संजमे पडिकमणं । कसायाण पडिकमणं जोगाण य अप्पसस्थाणं ॥ १२५०॥ संसारपडिकमणं चउब्विहं होइ आणुपुब्बीए । भावपडिक्कमणं पुण तिविहं तिबिहेण नेयव्वं ॥ १२५१॥ व्याख्या-मिथ्यात्वमोहनीयकर्म पुद्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामो मिथ्यात्वं तस्य प्रतिक्रमणं तत्प्रतिक्रान्तव्यं वर्तते, यदाभोगानाभोगसहसात्कारैमिथ्यात्वं गतस्तत्प्रतिक्रान्तव्यमित्यर्थः, तथैव 'असंयमें' असंयमविषये प्रतिक्रमणम् , असंयमः-प्राणातिपातादिलक्षणः प्रतिक्रान्तव्यो वर्तते, 'कपायाणां' प्राग्निरुपितशब्दार्थानां क्रोधादीनां प्रतिक्रमणं, कषायाः प्रतिक्रान्तव्याः, योगानां च मनोवाकायलक्षणानाम् 'अप्रशस्तानाम्' अशोभनानां प्रतिक्रमणं, ते च प्रतिक्रान्तव्या इति गाथार्थः ॥ १२५० ॥ संसरणं संसार:-तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिलक्षणस्तस्य प्रतिक्रमणं 'चतुर्विध चतुष्प्रकारं भवति 'आनुपूर्त्या' परिपाट्या, एतदुक्तं भवति-नारकायुषो ये हेतवो महारम्भादयस्तेषां (पामा) भोगानाभोगसहसात्कारैर्यद्वतितमन्यथा या प्ररूपितं तस्य प्रतिक्रान्तव्यम्, एवं तिर्यग्नरामरेप्यपि विभाषा, नवरं शुभनरामरायुहेतुभ्यो मायाद्यनासेव ॥५६॥ प्रतिलिय प्रमूज्य भक्तं पानं च व्युत्सूज्य । वसतिकचपरमेव तु नियमेन प्रतिकाम्मेत् साधुः ॥1॥ हस्त शतादायस्व गरवा च मुहूर्तकं यत्र तिहत् । पथि वा मजन नदीसंतरणे प्रतिकाम्यति ॥ २॥ अनुक्रम [१०..] ॐ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~265 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२५१], भाष्यं [२०४...], सक प्रत सूत्रांक [१.. नादिलक्षणेभ्यो निराशंसेनैवापवर्गाभिलाषिणाऽपि न प्रतिक्रान्तव्यं, 'भावपडिकमणं पुण तिविहं तिविहेण णेय,' तदेतदनन्तरोदितं भावप्रतिक्रमणं पुनत्रिविधं त्रिविधेनैव नेतन्यं, पुनःशब्दस्यैवकारार्थत्वात्, एतदुक्तं भवति-मिच्छत्ताइ न | गच्छइ ण य गच्छावेइ णाणुजाणेई । जं मणवइकाएहिं तं भणियं भावपडिकमणं ॥१॥'मनसा न गच्छति' न चिन्त-1 यति यथा शोभनः शाक्यादिधर्मः, वाचा नाभिधत्ते, कायेन न तैः सह निष्प्रयोजनं संसर्ग करोति, तथा 'न य गच्छावेई' मनसा न चिन्तयति-कथमेष तच्च निकादिः स्यात् ?, वाचा न प्रवर्तयति यथा तच्चनिकादिर्भव, कायेन न तच्चनिकादीनामर्पयति, 'णाणुजाणई' कश्चित्तचनिकादिर्भवति न तं मनसाऽनुमोदयति तूष्णीं वाऽऽस्ते, वाचा न सुवारब्धं कृतं वेति भणति, कायेन नखच्छोटिकादि प्रयच्छति, एवमसंयमादिष्वपि विभाषा कार्येति गाथार्थः ॥ १२५१ ॥ इत्थं मिथ्यात्वादिगोचरं भावप्रतिक्रमणमुक्तम् , इह च भवमूलं कषायाः, तथा चोक्तम्-कोहो' य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोहो य पवहुमाणा । चत्वारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥१॥' अतः कषायप्रतिक्रमण एवोदाहरणमुच्यते-कई दो संजया संगारं काऊण देवलोयं गया, इओ य एगंमि णयरे एगस्स सिद्विस्स भारिया पुत्तणिमित्तं णागदेवयाए उववासेण ठिया, ताए भणियं-होहिति ते पुत्तो देवलोयचुओत्ति, तेसिमेगो चइत्ता तीए पुत्तो जाओ, कोचश्व मानव अनिमृदीती माया च सोमा परिवर्धमानी । चत्वार एते कृत्याः कषायाः सिन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥1॥२ कौचित् द्वी संयती | संकेतं कृत्वा देवलोकं गती, हतवैकश्मिनगरे एकस्य देखिनो भार्या पुननिमित्तं नागदेवतायै उपचासेन स्थिता, तया भणित-भविष्यति ते पुत्रो देवलोकन्युत इति, तयोरेकव्युत्वा तस्याः पुत्रो जातः. अनुक्रम [१०..] SECCAE% स पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'कषायप्रतिक्रमण" तस्य व्याख्या, कारणानि, तद् विषये नागदत्तकथा ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२५१], भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रतिकमणाध्यनागदत्तो प्रत दाहरणं ॥५६५ सूत्रांक [१..] नागदत्तोत्ति से णामं कर्य, वायत्तरिकलाविसारओ जाओ, गंधर्व च से अइप्पियं, तेण गंधषणागदत्तो भण्णइ, तओ सो |मित्तजणपरिवारिओ सोक्खमणुभवइ, देवो य गं बहुसो बहुसो बोहेइ, सो णसंबुज्झइ, ताहे सो देवो अपत्तलिंगेणं ण णजइ जहेस पपइयगो, जेण से रजोहरणाइ उवगरणं णस्थि, सप्पे चत्तारि करंडयहत्थो गहऊण तस्स उजाणियागयस्स य अदूरसामंतेण वीईवयइ, मित्तेहिं से कहियं-पस सप्पखेल्लावगोत्ति, गओ तस्स मूलं, पुच्छह-किमेत्थं ?, देवो भणइसप्पा, गंधवणागदत्तो भणइ-रमामो, तुम ममच्चएहि अहं तुहच्चएहिं, देवो तस्सच्चएहिं रमति, खइओवि ण मरइ, गंधव-| णागदत्तो अमरिसिओ भणइ-अहंपि रमामि तव संतिपहिं सप्पेहि, देवो भणइ-मरसि जइ खज्जसि, जाहे णिबंधेण लग्गो ताहे मंडलं आलिहित्ता देवेण चउद्दिसिंपि करंडगा ठविता, पच्छा से सर्व सयणमित्तपरियणं मेलिऊण तस्स समक्खं इमं भणियाइओ अर दीप अनुक्रम [१०..] २.४ ॥५६५॥ नागवत इति तस्य नाम कृतं, द्वासप्ततिकलाविशारदो जातः, गान्धर्व वास्थातिप्रियं, तेन गन्धर्षनागदसो भव्यते, ततः स मित्रजनपरिया रितः सौख्यमनुभवति, देवश्वनं बहुयाः २ बोधयति, सन सम्बुध्यते, तदास देवोऽयक्तलिलेन न ज्ञायते यथैष प्रनजितकः, येन रजोहरणाघुपकरणं तस्य नास्ति, सपाश्चतुरः करण्डकदस्तो गृहीत्वा तस्योधानिकागते स्वादूरसामीप्येन व्यतिबजति, मिन्नस्तस्य कथितं-एष सर्पकीडक इति, गतस्तस्य मूलं, पृच्छति-किमत्र, देवो | भणति-साः, गन्धर्षनागदत्तो भणति-रमाबहे, वं मामकीनरहं तावकीनैः, देवतत्सरकैः रमने, खादितोऽपि न नियते, गन्धर्चनागदत्तोऽमर्षितो भणति-अहमपि तव सत्कैः सः रमे देवो भणति-मरिष्यसि यदि भझियसे, यदा निबन्धेन लामस्तदा मण्डलमालिरुप देवेन चतस्यपि दिक्षु करण्टकाः स्थापिता, पश्चात्तस्य सर्व स्वजनमित्रपरिजनं मेलयित्या तख समक्षं इदं भणितचान् पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~267 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२५२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [१..] दीप गंधब्वनागदत्तो इच्छह सप्पेहि खिल्लिई इहयं । तं जइ कहिंवि खज्जा इत्य हु दोसो न कापव्वो ॥१२५२॥ व्याख्या-गन्धर्वनागदत्त' इति नामा 'इच्छति' अभिलपति सर्पः साई क्रीडितुम्, अत्र स खलु-अयं यदि 'कथश्चित्' केनचित्प्रकारेण 'खाद्यते' भक्ष्यते 'इत्थ हु' अस्मिन् वृत्तान्ते न दोषः कर्तव्यो मम भवद्भिरिति गाथार्थः ॥ १२५२ ॥ सायथा चतसृष्वपि दिक्षु स्थापितानां सर्पाणां माहात्म्यमसावकथयत् तथा प्रतिपादयन्नाह तरुणदिवायरनयणो विजुलयाचंचलग्गजीहालो । घोरमहाविसदाढो उक्का इव पज्जलियरोसो ॥ १२५३ ।।। व्याख्या-तरुणदिवाकरवद्-अभिनवोदितादित्यवन्नयने-लोचने यस्य स तरुणदिवाकरनयनः, रक्ताक्ष इत्यर्थः, विद्युल्लतेच चञ्चलाऽप्रजिह्वा यस्य स विद्युल्लताचञ्चलाप्रजिह्याकः घोरा-रौद्रा महाविषा:-प्रधानविषयुक्ता दंष्ट्रा-आस्यो यस्य स घोरमहाविषदंष्ट्रः, उल्केव-चुडुलीव प्रज्वलितो रोषो यस्य स तथोच्यत इति गाथार्थः ॥ १२५३॥ डको जेण मणूसो कयमकयं न याणई सुबहुयंपि । अहिस्समाणमछु कह घिच्छसि तं महानागं? ॥१२५४॥ व्याख्या 'डको' दष्टः 'येन' सर्पण मनुष्यः स कृतं किश्चिदकृतं वा न जानाति सुबहपि, 'अदृश्यमानमृत्युम्' अहश्यमानोऽयं करण्डकस्थो मृत्युर्वर्तते, मृत्युहेतुत्वान्मृत्युः, यतश्चैवमतः कथं ग्रहीष्यसि त्वं 'महानागं' प्रधानसर्पम् १, इति गाथार्थः॥१२५४ ॥ अयं चक्रोधसर्पः, पुरुषे संयोजना स्वबुद्ध्या कार्या, क्रोधसमन्वितस्तरुणदिवाकरनयन एव भवतीत्यादि । मेरुगिरितुंगसरिसो अहफणो जमलजुगलजीहालो । दाहिणपासंमि ठिओ माणेण वियट्टई नागो ॥१२५५ ॥ अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२५५], भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [१..] व्याख्या-मेरुगिरेस्तुङ्गानि-उच्छ्रितानि तैः सदृशः मेरुगिरितुङ्गसदृशः, उच्छ्रित इत्यर्थः, अष्टौ फणा यस्य सोऽष्टफणः प्रतिक्रमजातिकुलरूपबललाभबुद्धिवाल्लभ्यकश्रुतानि द्रष्टव्यानि, तत्त्वतो यमो-मृत्युसृत्युहेतुत्वात् 'ला आदाने' यमं लान्ती-| टणा क्रोधाति-आददतीति यमला, यमला युग्मजिह्वा यस्य स यमलयुग्मजिहः, करण्डकन्यासमधिकृत्याऽऽह-दक्षिणपाचे दिनागस्व. |स्थितः, दक्षिणदिग्यासस्तु दाक्षिण्यवत उपरोधतो मानप्रवृत्तः, अत एवाह-मानेन' हेतुभूतेन व्यावर्तते 'नाग' सर्प इति गाथार्थः ॥ १२५५॥ डको जेण मणूसो धहो न गणेइ देवरायमवि । तं मेरुपब्वय निभं कह घिच्छसि तं महानागं ॥१२५६ ॥ व्याख्या-'डको दष्टः 'येन' सर्पण मनुष्यः स्तब्धः सन्न गणयति 'देवराजानमपि इन्द्रमपि, 'तम्' इत्थम्भूतं मेरुप-13 वैतनिभं कथं गृहीष्यसि त्वं 'महानागं' प्रधानसर्पमिति गाथार्थः ।। १२५६ ॥ अयं च मानसर्पः॥ सललियविल्लहलगई सस्थिअलंछणफणंकिअपडागा।मायामइआ नागी नियडिकवडवचणाकुसला ॥१२५७॥ व्याख्या-सललिता-मृद्धी वेल्लहला-स्फीता गतिर्यस्याः सा सललितवेल्लहलगतिः, स्वस्तिकलाञ्छनेनाङ्किता फणापताका यस्याः सा स्वस्तिकलाञ्छनाङ्कितफणापताकेति वक्तव्ये गाथाभङ्गभयादन्यथा पाठः, मायात्मिका नागी 'निकृतिकपटवञ्चनाकुशला' निकृतिः-आन्तरो विकारः कपट-वेषपरावर्तादिर्बाह्यः आभ्यां या वञ्चना तस्यां कुशला-निपुणेति गाथार्थः॥ १२५७॥ दीप अनुक्रम [१०..] L- R उत प्र०. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~269 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२५८], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [१..] दीप तं च सि वालग्गाही अणोसहिबलोअ अपरिहत्थोय।सा य चिरसंचियविसा गहणंमि वणे वसइ नागी१२५८ व्याख्या-इयमेवम्भूता नागी रौद्रा, त्वं च 'व्यालग्राही' सर्पग्रहणशीला 'अनौषधिवलच' औषधिबलरहितः 'अप-18 रिहत्यश्च अदक्षश्च, सा च चिरसश्चितविषा 'गहने सङ्घले 'वने कार्यजाले वसति नागीति गाथार्थः ॥ १२५८॥ होही ते विणिवाओ तीसे दादंतरं उवगपस्स । अप्पोसहिमंतबलो न हु अप्पाणं चिगिच्छिहिसि ॥१२५९॥ व्याख्या-भविष्यति ते विनिपातः तस्या दंष्ट्रान्तरम् 'उपगतस्य प्राप्तस्म, अल्प-स्तोक औषधिमन्त्रबलं यस्य तव स त्वं अल्पौषधिमन्त्रबलः, यतश्चैवमतो नैवाऽऽत्मानं चिकित्सिध्यसीति गाथार्थः ।। १२५९ ॥ इयं च मायानागी ॥ उत्थरमाणो सव्वं महालओ पुन्नमेहनिग्घोसो। उत्तरपासंमि ठिओ लोहेण वियहई नागो ॥१२६०॥ व्याख्या-उत्थरमाणो'त्ति अभिभवन् 'सर्व' वस्तु, महानालयोऽस्येति महालयः, सर्वत्रानिवारितत्वात्, पूर्णः पुष्क-1 रावतस्येव निर्घोषो यस्य स तथोच्यते, करण्डकन्यासमधिकृत्याह-उत्तरपाचे स्थितः, उत्तरदिग्यासस्तु सर्वोत्तरो लोभ इति ख्यापनार्थम्, अत एव लोभेन हेतुभूतेन 'वियदृईत्ति व्यावर्तते रुष्यति वा नागः' सर्प इति गाथार्थः॥१२६०॥ डिको जेण मणुसो होइ महासागरुब्च दुप्पूरो । तं सव्वविससमुदयं कह घिच्छसि तं महानागं ॥ १२६१ ॥ व्याख्या-दष्टो येन मनुष्यो भवति 'महासागर इव' स्वयम्भूरमण इव दुष्पूरः 'तम्' इत्थम्भूतं 'सर्वविषसमुदयं सर्वव्यसनकराजमार्ग कथं प्रहीष्यसि त्वं 'महानागं प्रधानसर्पमिति गाथार्थः ॥ १२६१ ॥ अयं तु लोभसर्पः॥ एए ते पाचाही चत्तारिवि कोहमाणमयलोभा । जेहि सया संतत्तं जरियमिव जयं कलकलेइ ॥ १२६२ ॥ अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~270 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२६२], भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- ___ व्याख्या-एते ते 'पापाहयः' पापसर्पाश्चत्वारोऽपि क्रोधमानमायालोभा यैः सदा सन्तप्तं सत् ज्वरितमिव 'जग प्रतिक्रमभुवन 'कलकलायति' भवजलधौ क्वथयतीति गाथार्थः ॥ १२॥२॥ णा क्रोधाद्रीया एहिं जो खज्जइ चउहिवि आसीविसेहि पावेहिं । अवसस्स नरयपडणं णथि सि आलवणं किंचि ॥१२६३॥ | यहिपती कार ॥५६७॥ व्याख्या-एभिर्य एव खाद्यते चतुर्भिरपि 'आशीविषैः भुजङ्गैः 'पापैः' अशोभनः तस्य अवशस्य सतः नरकपतन | भवति, 'नास्ति' न विद्यते 'से' तस्यालम्बनं किञ्चिदू येन न पततीति गाथार्थः ॥ १२६३ ॥ एवमभिधायेते मुक्ताःसो खइओ पडिओ मओ य, पच्छा देवो भणइ-किह जायं !, ण ठाइहत्ति वारिर्जतो, पुवभणिया य ते मित्ता अगदे छुभंति ओसहाणि य, ण किंचि गुणं करेंति, पच्छा तस्स सयणो पाएहिं पडिओ-जिआवेहत्ति, देवो भणइ-एवं चेव अहंपि खिइयो, जइ एरिसिं चरिय अणुचरइ तो जीवइ, जइणाणुषालेइ तो उज्जीविओऽवि पुणो मरइ, तं च चरिय गाथाहिं कहेहएएहिं अहं खइओ चउहिवि आसीविसेहि पावेहिं । विसनिग्घायण चरामि विविहं तवोकम्मं ॥१२६४॥ व्याख्या-एभिरह 'सइओ'त्ति भक्षितचतुर्भिरपि 'आशीविषैः' भुजः घोरै-रौद्रा 'विपनिर्यातनहेतः' विषनिर्घातन- II |निमित्तं 'चरामि' आसेवयामि "विविध विचित्रं चतुर्थषष्ठाष्टमादिभेदं 'तपःकर्म' तपःक्रियामिति गाथार्थः ॥ १२॥४॥ ५६७॥ स खादितः पतितो मृतश्च, पश्चाद्देवो भगति-कथं जातं !, न स्थास्यसि दार्यमाणः, पूर्वभाणितानि च तानि मित्राणि अगदान क्षिपन्ति औषधानि च, न कविणं कुर्वन्ति, पक्षातस्य खजनः पादयोः पतितः-जीववति, देवो भणति-एक्मेवाइमपि खादितः, वदीरयां चर्यामनुचरति तदा जीवति, यदि मानुपालयति तदोजीवितोऽपि पुनर्षियते, तां च चया गावामिः कथयति । 4-9-5455 दीप अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२६५], भाष्यं [२०४...], %* % प्रत सूत्रांक [१..] -% सेवामि सेलकाणणसुसाणसुन्नघररुक्खमूलाई । पावाहीणं तेसिं खणमविन प्रवेमि वीसंभं ॥१२६५ ॥ व्याख्या-सेवामि भजामि शैलकाननश्मशानशून्यगृहवृक्षमूलानि शैलाः-पर्वताः काननानि-दूरवर्तिवनानि शैलाश्च काननानि चेत्यादि द्वन्द्वः, 'पापाहीनां' पापसाणां तेषां क्षणमपि 'नोपैमि' न यामि 'विनम्भ' विश्वासमिति गाथार्थः ॥ १२६५॥ अच्चाहारो न सहे अइनिडेण विसया उइज्जति । जायामायाहारो तंपि पकामं न इच्छामि ॥ १२६६ ॥ | व्याख्या-'अत्याहारः' प्रभूताहारः 'न सहे'त्ति प्राकृतशैल्या न सहते-न क्षमते, मम स्निग्धमल्पं च भोजनं भविष्य४त्येतदपि नास्ति, यतः-अतिस्निग्धेन हविःप्रचुरेण 'विषयाः' शब्दादयः 'उदीर्यन्ते' उद्रे कावस्था नीयन्ते, ततश्च | यात्रामात्राहारो यावता संयमयात्रोत्सर्पति तावन्तं भक्षयामि, तमपि प्रकामं पुनर्नेच्छामीति गाथार्थः ॥ १२६६ ॥ उस्सन्नकयाहारो अहवा विगईविवज्जियाहारो। जं किंचि कयाहारो अवउज्झियथोवमाहारो॥१२६७ ॥ व्याख्या-उस्सन्नं' प्रायशोऽकृताहारः, तिष्ठामीति क्रिया, अथवा विगतिभिर्वर्जित आहारो यस्य मम सोऽहं विगतिविवर्जिताहारः, यत्किश्चिच्छोभनमशोभनं चौदनादि कृतमाहारो येन मया सोऽहं तथाविधः, 'अवउजियथोवमाहारो'त्ति उज्झित-उज्झितधर्मा स्तोकः-स्वल्पः आहारो यस्य मम सोऽहमुज्झितस्तोकाहार इति गाथार्थः ॥ १२६७ ॥ एवं क्रियायुतस्य क्रियान्तरयोगाच्च गुणानुपदर्शयतिथोवाहारो थोवभणिओ य जो होइ थोवनिहो य । थोबोवहिउवगरणो तस्स हु देवावि पणमंति ॥ १२६८ ॥ दीप 2 अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२६८] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक __व्याख्या--स्तोकाहारः स्तोकभणितश्च यो भवति स्तोकनिद्रश्च स्तोकोपध्युपकरणः, उपधिरेवोपकरणं, तस्य चेत्यम्भूतस्याप्रतिक्रमहारिभ देवा अपि प्रणमन्तीति गाथार्थः ॥ १२६८ ॥ एवं जइ अणुपालेइ तओ उद्देद, भणंति-वरं एवंपि जीवंतो, पच्छा सोणा क्रोधाद्रीया पुषाभिमुहो ठिो किरियं पउंजिउकामो देवो भणइ द्यहिप्रती॥५६॥ सिद्धे नमंसिऊणं संसारत्था य जे महाविजा । वोच्छामि दंडकिरिय सव्यविसनिवारणिं विज्नं ॥ १२६९ ॥ कारः व्याख्या-'सिद्धान्' मुक्तान् नमस्कृत्य संसारस्थाश्च ये 'महावैद्याः' केवलिचतुर्दशपूर्ववित्प्रभृतयस्ताँश्च नमस्कृत्य वक्ष्ये | दण्डक्रियां सर्वविपनिवारिणी विद्यामिति गाथार्थः ॥ १२६९ ॥ सा चेयं सव्वं पाणहवायं पञ्चक्खाई मि अलियवयणं च । सब्वमदत्तादाणं अव्वंभ परिग्गई स्वाहा ॥१२७० ।। व्याख्या-'सर्व' सम्पूर्ण प्राणातिपातं 'प्रत्याख्याति' प्रत्याचष्टे एष महात्मेति, अनृतवचनं च, सर्व चादत्तादानम् , अब्रह्म परिग्रहं च प्रत्याचष्टे स्वाहेति गाथार्थः॥ १२७० ॥ एवं भणिए उडिओ, अम्मापिईहिं से कहियं, न सहद, पच्छा | पहाविओ पडिओ, पुणोवि देवेण तहेव उडविओ, पुणोवि पहाविओ, पडिओ, तइयाए वेलाए देवो णिच्छइ, पसादिओ, उविओ, पडिस्सुयं, अम्मापियरं पुच्छित्ता सेण समं पहाविओ, एगंमि वणसंडे पुवभवे कहेइ, संबुद्धो पत्तेयबुद्धो जाओ, ५५८॥ एवं यचनुपालयति तयोतिष्ठति, भणन्ति परमेवमपि जीवन , पश्चात् स पूर्वाभिमुखः खितः किया प्रयोक्कामो देवो भणति-1 एवं भणिते परिपतो। मातापितम्यां तस्मै कवितं, म अधाति, पश्चात प्रभावितः पतितः, पुनरपि देवन नयेच सत्यापितः, पुनरपि प्रभाविता, पतितः, तृतीयायां वेलायां देवो १४ नेच्छति, प्रसादिता, उत्थापितः, प्रतिक्षुतं, मातापितराबापूच्य तेन समं प्रधावितः, एकमिन् वनपण्डे पूर्वभवान् कथयति, संवदा प्रत्येकबुद्धो जातः, दीप अनुक्रम [१०..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [१..] देवोऽवि पडिगओ, एवं सो ते कसाए नाए सरीरकरंडए छोटूण कओऽवि संचरिण देइ, एवं सो ओदइयस्स भावस्स अकरणयाए अभुडिओ पडिकतो होइ, दीहेण सामन्नपरियाएण सिद्धो, एवं भावपडिक्कमणं । आह-किंणिमित्तं पुणो २ पडिक्कमिजइ , जहा मज्झिमयाणं तहा कीस ण कजे पडिकमिज्जइ, आयरिओ आह-इत्थ विजण दिईतो-एगस्स | रण्णो पुत्तो अईव पिओ, तेण चिंतियं-मा से रोगो भविस्सइ, किरियं करावेमि, तेण विजा सद्दाविया, मम पुत्तस्स तिगिच्छं करेह जेण णिरुओ होइ, ते भणंति-करेमो, राया भणइ-केरिसा तुज्झ जोगा?, एगो भणइ-जइ रोगो अस्थि तो उवसामेति, अह नत्थितं चेव जीरता मारंति, बिइओ भणइ-जइ रोगो अस्थि तो उवसामिति, अह णत्थि ण गुणं ण दोसं करिति, तइओ भणइ-जइ रोगो अत्थि तो उवसामिति, अह णस्थि षण्णरूवजोवणलावण्णताए परिणमंति, बिइओ विधी अणागयपरित्ताणे भावियबो, तइएण रण्णा कारिया किरिया, एवमिमंपि पडिक्कमणं जइ दोसा अस्थि तो दीप अनुक्रम [१०..] देवोऽपि प्रतिगतः, एवं स तान् कपायान् शातान् पारीरकरणडके क्षित्वा कुतोऽपि संचरितुं न ददाति, एवं सभीदविकस भावस्थाकरणतयाऽभ्युस्थितः प्रतिकान्तो भवति, दीर्घेण श्रामण्यपर्यायेण सिखः, एवं भावप्रतिक्रमणं । किनिमिषं पुनः पुनः प्रतिगम्यते ।, यथा मध्यमकानां तथा कथं न कार्ये प्रतिकम्यते !, आचार्य भाइ-अत्र वैधेन दृष्टान्त:-एकस्य राज्ञः पुत्रोऽतीच भिषः, तेन चिन्तितं-माऽस्य रोगो भूत, कियां कास्यामि, तेन वैद्याः शान्दिताः-मम पुत्रस्य चिकित्सा कुरुत येन नीरोगो भवति, ते भणन्ति-कुर्मः, राजा भणति-कीडशा युष्माकं योगाः ! एको भणति-यदि रोगोऽति तदोपशमयन्ति, मथG | नास्ति व पब जीर्यन्तो मारयन्ति, द्वितीयो भणति-यदि रोगोऽस्ति तदोपशामयन्ति अथ नास्ति न गुणं न दोषं कुर्षन्ति, तृतीयो भणति-यदि रोगोऽस्ति तदोपसमयन्ति, अब नासि वर्णरूप यौवन लावण्यतया परिणमन्ति, द्वितीयो विधिरनायतपरिवाणे भावयितभ्यः, सूतीयेन राज्ञा कारिता किया, एवमिदमपि प्रतिकमयं बदिदोषाः सन्ति तदा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2744 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यकता विसोहिजति, जइ णत्थि तो सोही चरित्तस्स सुद्धतरिया भवइ । उक्तं सप्रसङ्गं प्रतिक्रमणम् , अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दार्थो प्रतिक्रमहारिभ निरूपणीयः, स चान्यत्र न्यक्षेण प्ररूपितत्वान्नेहाधिक्रियते, गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षे- णा० चतुर्मद्रीया ठापस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादि प्रपञ्चो वक्तव्यः, यावत्तचेदं सूत्रं करेमि भन्ते! जाव चोसिरामिलाख्यान ॥५६९॥ ला अस्य व्याख्या-तल्लक्षणं चेदं-'संहिता च पदं चै.त्यादि, अधिकृतसूत्रस्य व्याख्यालक्षणयोजना च सामायिकवद् द्रष्टव्या, आह-इदं स्वस्थान एव सामायिकाध्ययने उक्तं सूत्रं, पुनः किमभिधीयते ?, पुनरुक्तदोषप्रसङ्गात् , उच्यते, प्रतिपिद्धासेवितादि समभावस्थेनैव प्रतिक्रान्तव्यमिति ज्ञापनार्थम् , अथवा 'यद्वद्विषघातार्थ मन्त्रपदे न पुनरुक्कदोषोऽस्ति । दातद्वद् रागविपन्नं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदम् ॥१॥' रागविषनं चेदं, यतश्च मङ्गलपूर्व प्रतिक्रान्तव्यम् अतः सूत्रकार एवं तदभिधिरसुराह चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ___ मङ्गलं प्राग्निरूपितशब्दार्थ, तत्र चत्वारः पदार्था मङ्गलमिति, क एते चत्वारः, तानुपदर्शयन्नाह 'अरिहंता मंगल'-1 मित्यादि, अशोकायष्टमहापातिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेऽर्हन्तो मङ्गल, सितं ध्मातं येषां ते सिद्धाः, ते च सिद्धा मङ्गलं, निर्वाणसाधकान् योगान् साधयन्तीति साधवः, ते च मङ्गलं, साधुग्रहणादाचार्योपाध्याया गृहीता एव द्रष्टव्याः, ५६९॥ यतो न हि ते न साधवः, धारयतीति धर्मः, केवलमेषां विद्यत इति केवलिनः, केवलिभिः-सर्वज्ञैः प्रज्ञप्तः-प्ररूपितः केव विशोधयन्ति यदि न सन्ति तदा शुद्धिश्चारित्रस्य शुद्धतरा भवति । दीप अनुक्रम [१२] Dt:4X पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवड़ मंगलं -मूलसूत्र - (१) "नमस्कार सूत्र" हमने पूज्यपाद आचार्य सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित “आगममंजुषा" पृष्ठ-१२०५ के आधार से यहां लिखा है | मू. (११) करेमि भंते सामाइयं .........जाव.......वोसिरामि | [ यह पूरा सूत्र अध्ययन-१ 'सामायिक पृष्ठ- ९११ अनुसार समझ लेना ] ... यहां मैने उपर हेडिंग में मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। ~275 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम लिप्रज्ञप्तः, कोऽसौ ?-धर्म:-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च मङ्गलम् , अनेन कपिलादिप्रज्ञप्तधर्मव्यवच्छेदमाह । अर्हदादीनां च मङ्गलता तेभ्य एव हितमङ्गलात् सुखप्राप्तेः, अत एव च लोकोत्तमत्वमेषामिति, आह च चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साह लोगुतमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो अथवा कुतः पुनरहंदादीनां मङ्गलता?, लोकोत्तमत्वात् , तथा चाऽऽह-चत्तारि लोगुत्तमा' चत्वारः-खल्वनन्तरोक्ता वक्ष्यमाणा या लोकस्य-भावलोकादेरुत्तमाः-प्रधाना लोकोत्तमाः, क एते चत्वारस्तानुपदर्शयन्नाह-'अरहंता लोगुत्तमा, इत्यादि, अर्हन्तः-प्राग्निरूपितशब्दार्थाः, लोकस्य-भावलोकस्य उत्तमाः-प्रधानाः, तथा चोक्तम्-अरिहंता ताव तहिं उत्तमा हुन्ती उ भावलोयस्स । कम्हा ?, जं सबासि कम्मपयडीपसस्थाणं ॥१॥ अणुभावं तु पडुच्चा वेअणियाऊण णामगोयस्स । भावस्सोदइयस्सा णियमा ते उत्तमा होति ॥२॥ एवं चेव य भूओ उत्तरपगईविसेसणविसिटुं । भण्णइ हु उत्तमत्तं समासओ से णिसामेह ॥३॥ साय मणुयाउ दोण्णी णामप्पगई समा पसस्था य । मणुगइ पणिदिजाई ओरालियतेयकम्मं च ॥४॥ ओरालियंगुवंगा समचउरंसं तहेव संठाणं । वइरोसभसंघयणं वण्णरसगंधफासा य ॥५॥ अगुरुलहुं अन्तसावत्तमोत्तमा भूवम्त्येव भावलोकरस । कस्मात् । यसर्वासा कर्मप्रकृतीनां प्रशस्तानाम् ॥1॥अनुभावं तु प्रतीत्य वेदनीयायुषोनामगोत्रयोः भाव औदायिक नियमात् ते उत्तमा भवन्ति ॥ २ ॥ एवमेव च भूय उत्तरप्रकृतिविशेषणविशिष्टम् । भण्यते उत्तमत्वं समासतस्तस्य निशामयत ॥ ३॥ सातम नुजा युधी भाभप्रकृतयस्तस्येमाः समाः प्रशस्लाजामनुजगतिः पोन्द्रियजातिरीदारिक तैजसं कामण च ॥४॥ श्रीदारिकालोपाकानि समचतुरखं तथैव संस्थानम् | बनर्षभसंहननं वर्णा रसगन्धस्पशाच ॥ ५॥ अगुरूलघु [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। .. अरिहंत आदि चत्वारः मंगलत्वं, उत्तमत्वं एवं शरणत्वस्य सकारणानि वर्णयते ~276 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७०...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५७०॥ उबघायं परघाऊसासविहगइ पसत्था । तसवायरपज्जत्तग पत्तेयथिराथिराइं च ॥६॥ सुभमुजोयं सुभगं सुसरं आदेज प्रतिक्रमतह य जसकित्ती । तत्तो णिम्भिणतित्थगर णामपगई समेयाई॥७॥ तत्तो उच्चागोयं चोत्तीसेहिं सह उदय- णा०चतुभावहिं । ते उत्तमा पहाणा अणण्णतुला भवंतीह ॥ ८॥ उपसमिए पुण भावो अरहताणं ण बिजाई सो हु। खाइग-| ८ लोकोत्तमा. भावस्स पुणो आवरणाणं दुवेण्हंपि ॥ ९॥ तह मोहअंतराई णिस्सेसखयं पडुच्च एएसिं । भावखए लोगस्स उ भवंति ते उत्तमा णियमा ॥१०॥ हवाइ पुण सन्निवाए उदयभावे हु जे भणियपुध । अरहताणं ताणं जे भणिया खाइगा भावा ॥११॥ तेहि सया जोगेणं णिप्फजइ सण्णिवाइओ भावो । तस्सवि य भावलोगस्स उत्तमा हुति णियमेणं ॥१२॥ सिद्धाः-प्राग्निरूपितशब्दार्था एव, तेऽपि च क्षेत्रलोकस्य क्षायिकभावलोकस्य वोत्तमा:-प्रधानाः लोकोत्तमाः, तथा चोक्तम्-'लोउत्तमत्ति सिद्धा ते उत्तमा होति खित्तलोगस्स । तेलोकमत्थयत्था जं भणियं होइ ते णियमा ॥१॥ [सू.] दीप अनुक्रम [१३] R ॥५७०॥ उपचातं पराधातोच्चासौ विहायोगतिः प्रास्ता । ब्रसवादरपर्याप्तकाः प्रत्येकस्थिरास्थिराणि ॥६॥ शुभमुधोतं सुभगं सुखरं चादे यंतथाच प्रभवति यशःकीर्चिः । ततो निर्माण तीबैंकरस्वं नामप्रकृवयस्तस्यैताः ॥ ७॥ तत उच्चैगोंधे चतुस्त्रिंशता सहायिकभावैः । ते उत्तमाः प्रधाना अनन्यतुल्या | भवन्तीह ॥ ८॥ श्रीपश मिकः पुनर्भावोऽईतां न विद्यते सः । क्षायिकभावस्य पुनरावरणायोईयोरपि ॥९॥ तथा मोदान्तरायौ निःशेषक्षयं प्रतीत्येतेषाम् । भावे क्षायिके लोकस्य तु भवन्ति ते ३त्तमा नियमात् ॥ १०॥ भवति पुनः सानिपातिके औदायिकमाये ये भणितपूर्वाः । आईतां तेषां ये भणिताः क्षायिका | भावाः ॥ १॥ सदा योगेन निष्पचते सामिपातिको भावः । तस्यापि च भावलोकस्योत्तमा भवन्ति नियमेन ॥ १२ ॥ लोकोत्तमा इति सिद्धाने उत्तमा भवन्ति क्षेत्रलोकस्य । लोक्यमसवस्था यदणितं भवति ते नियमात् ॥1॥'सुभभगमुस्खरं वा प्र.. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~277 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७०...] भाष्यं [२०४...], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [१४] हिस्सेसकम्मपगडीण वावि जो होइ खाइगो भावो । तस्सवि हु उत्तमा ते सवपयडिवजिया जम्हा ॥२॥साधवः-प्रारनिरूपितशब्दार्था एव, ते च दर्शनज्ञानचारित्रभावलोकस्य उत्तमाः-प्रधाना लोकोत्तमाः, तथा चोक्तम्-'लोमुत्तमत्ति साहू पडुच्च ते भावलोगमेयं तु । दसणनाणचरित्ताणि तिण्णि जिणइंदभणियाणि ॥१॥ केवलिप्रज्ञप्तो धर्मः-प्राग्निरूपितशब्दार्थः, सच क्षायोपशमिकोपशमिकक्षायिकभावलोकस्योत्तमः-प्रधानः लोकोत्तमः, तथा चोक्तम्-'धम्मो सुत चरणे या दुहावि लोगुत्तमोत्ति णायचो । खओवसमिओवसमियं खइयं च पडुच्च लोग तु ॥१॥ यत एव लोकोत्तमा अत एव शरण्या:, तथा चाऽऽह-'चत्तारि सरणं पवजामि' अथवा कथं पुनलोंकोत्तमत्वम् !, आश्रयणीयत्वात् , आश्रयणीयत्वमुपदर्शयन्नाह चत्तारि सरणं पवजामि अरिहन्ते सरणं पवजामि सिद्धे सरणं पवजामि साहू सरणं पवजामि केवलिपपणतं धम्म सरणं पवज्जामि'। (सू०) चत्या(तु)रः संसारभयपरित्राणाय 'शरणं प्रपद्ये आश्रयं गच्छामि, भेदेन तानुपदर्शयन्नाह-अरिहंते' त्यादि, अर्हतः। 'शरणं प्रपद्ये सांसारिकदुःखशरणायाहत आश्रयं गच्छामि, भक्तिं करोमीत्यथः, एवं सिद्धान् शरणं प्रपद्ये, साधून शरणं प्रपद्ये, केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं शरणं प्रपद्ये। इत्थं कृतमङ्गलोपचारःप्रकृतं प्रतिक्रमणसूत्रमाह'इच्छामि पडिक्कमि जो मे देवसिओ अइआरो कओ, काइओ वाइओ माणसिओ, उस्सुत्तो उम्मग्गो निश्शेषकर्मप्रकृतीनां वापि यो भवति माविको भावः । तखाप्युत्तमास्ते सर्वप्रकृतिविजिता यमात् ॥१॥२लोकोतमा इति साधवः प्रतीष ते भावलोकमेन तु । दर्शनशानचारित्राणि श्रीणि जिनेन्द्रणितानि ॥१॥३ धर्मः श्रुतं चरणं च द्विधापि लोकोत्तम इति ज्ञातव्यः । क्षायोपशमिकीपरामिको धाविका च प्रतीक्षष होकम् ॥1॥ त्राणाय प्र.. ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। .. दैवसिक अतिचार संबंधी प्रतिक्रमणसूत्र तथा तस्य विशद व्याख्या ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७०...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक हारिभद्रीया अतिक्रमणाध्य. प्रत सूत्रांक ॥५७१॥ L [सू.] 7- दीप अनुक्रम [१५]] कप्पो अकरणिजो दुज्झाओ दुविचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्यो असमणपाउग्गो नाणे दंसणे चरिते सुए सामाइए तिण्डं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महव्वयार्ण छहं जीवणिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अहण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीर्ण दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडिअं| जं चिराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं। (सू०) इच्छामि प्रतिक्रमितुं यो मया देवसिकोऽतिचारः कृत इत्येवं पदानि बक्तव्यानि, अधुना पदार्थः-इच्छामि-अभिलपामि प्रतिक्रमितुं-निवर्तितुं, कस्य य इत्यतिचारमाह-मयेत्यात्मनिर्देशः, दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिमाणो वा दैवसिकः, अतिचरणमतिचारः, अतिक्रम इत्यर्थः, कृतो-निर्वर्तितः, तस्येति योगः, अनेन क्रियाकालमाह, मिच्छामि दुकर्ड' अनेन | तु निष्ठाकालमिति भावना, स पुनरतिचारः उपाधिभेदेनानेकधा भवति, अत एवाह-कायेन-शरीरेण निवृत्तः कायिकः कायकृत इत्यर्थः, वाचा निर्वृत्तो वाचिकः-वाकृत इत्यर्थः, मनसा निवृत्तो मानसः, स एव 'मानसि'त्ति मनाकृत इत्यर्थःऊर्व सूत्रादुरसूत्रः सूत्रानुक्त इत्यर्थः, मार्गःक्षायोपशमिको भावः, ऊर्च मार्गादुम्मार्गः, क्षायोपशमिकभावत्यागेनौदयिक, भावसङ्कम इत्यर्थः, कल्पनीयः न्यायः कल्पो विधिः आचारः कल्प्यः-चरणकरणब्यापारः न कल्प्यः-अकल्प्यः, अतः दूप इत्यर्थः, करणीयः सामान्येन कर्तव्यः न करणीयः-अकरणीयः, हेतुहेतुमद्भावश्चात्र, यत एवोत्सूत्रः अत एवोन्मार्ग इत्यादि, उक्तस्तावत्कायिको वाचिकश्च, अधुना मानसमाह-दुष्टो ध्यातो दुर्ध्यातः-आतरौद्रलक्षण एकाग्रचित्ततया, दुष्टो विचिन्तितो दुर्विचिन्तितः-अशुभएव चलचित्तया, यत एवेत्थम्भूतः अत एवासी न श्रमणप्रायोग्यः अश्रमणप्रायोग्यः तप OCA C-40-%-9- ॥५७१॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। ~279 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [१५]] व्यनुचित इत्यर्थः, यत एवाश्रमणप्रायोग्योऽत एवानाचारः, आचरणीयः आचारः न आचारः अनाचारः-साधूनामनाचलारणीयः, यत एव साधूनामनाचरणीयः अत एवानेष्टव्यः-मनागपिमनसाऽपि न प्रार्थनीय इति,किंविषयोऽयमतिचार इत्याहदणाणे दसणे चरित्ते' ज्ञानदर्शनचारित्रविषयः, अधुना भेदेन व्याचष्टे-'सुएत्ति श्रुतविषयः, श्रुतग्रहणं मत्यादिज्ञानोपलक्षण, तत्र विपरीतनरूपणाऽकालस्वाध्यायादिरतिचारः, 'सामाइय(ए)'त्ति सामायिकविषयः, सामायिकग्रहणात् सम्यक्त्वसामायिकचारित्रसामायिकग्रहणं, तत्र सम्यक्त्वसामायिकातिचारः शङ्कादिः, चारित्रसामायिकातिचारं तु भेदेनाह-'तिण्डं | WIगुत्तीण'मित्यादि, तिसृणां गुप्तीनां, तत्र प्रविचाराप्रविचाररूपा गुप्तयः, चतुर्णा कषायाणां-क्रोधमानमायालोभाना, पञ्चानां महाव्रतानां-प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानां, षण्णां जीवनिकायानां पृथिवीकायिकादीनां, सप्तानां पिण्डैषणानां| असंसृष्टादीनां,ताश्चेमाः-'संसहमसंसट्टा उद्धड तह होइ अप्पलेवा य । उग्गहिआ पग्गहिआ उझिय तह होइ सत्तमिआ॥१॥ | व्याख्या-तत्रासंसृष्टा हस्तमात्राभ्यां चिन्त्या, 'असंसरे हत्थे असंसढे मत्ते, अखरडियमिति वुत्तं भवई' एवं गृह्णतः प्रथमा भवति, गाथायां सुखमुखोचारणार्थमन्यथा पाठः, संसृष्टा ताभ्यामेव चिन्त्या, 'संसद्धे हत्थे संसढे मत्ते, खरडिइत्ति वुत्तं होइ, एवं गृहृतो द्वितीया, उद्धृता नाम स्थालादौ स्वयोगेन भोजनजातमुद्धृतं, ततः 'असंसहे हत्थे असंसढे | मते असंसढे वा मत्ते संसढे हत्थे' एवं गृह्णतस्तृतीया, अल्पलेपा नाम अल्पशब्दोऽभाववाचकः निर्लेप-पृथुकादि गृह्णत अर्समष्टो हस्तोऽसंस्ष्टं मात्र अखरष्टितं इत्युक्तं भवति. २ संसृष्टो हस्तो संसृष्टं मात्र खरण्टितं इत्युक्तं भवति. ३ असंसृष्टो इस्तो असंपृष्ट मात्र असंपृष्टं वा मात्र संसृष्टो हस्तो * मेन प्र०. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०...] भाष्यं [२०४...., आवश्यक- हारिभद्रीया प्रतिक्रम णाध्य. प्रत सूत्रांक ॥५७२॥ चतुर्थी, अवगृहीता नाम भोजनकाले शरावादिपूपहितमेव भोजनजातं ततो गृहृतः पञ्चमी, प्रगृहीता नाम भोजनवे- लायां दातुमभ्युद्यतेन करादिना प्रगृहीतं यद्दोजनजातं भो(भुक्त्वा वा स्वहस्तादिना तद्गृहत इति भावना पष्ठी, उज्झित- धर्मा नाम यत्परित्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नावकाङ्गन्ति तदर्द्धत्यक्तं वा गृहत इति हृदयं सप्तमी, एष खलु समासार्थः, व्यासार्थस्तु ग्रन्थान्तरादवसेयः, सप्तानां पानैषणानां केचित् पठन्ति, ता अपि चैवम्भूता एव, नवरं चतुझं नानात्वं, तत्राप्यायामसौवीरादि निलेपं विज्ञेयमिति, अष्टानां प्रवचनमात्रणां, ताश्चाष्टौ प्रवचनमातर:-तिम्रो गुप्तयः तथा पञ्च समितयः, तत्र प्रवीचाराप्रवीचाररूपा गुप्तयः, समितयः प्रवीचाररूपा एव, तथा चोक्तम्-“समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणमि भइयो । कुसलवइमुदीरितो जं वयगुत्तोऽवि समिओऽवि॥१॥" नवानां ब्रह्मचर्यगुप्तीना-वसतिकथादीनाम्, आसां स्वरूपमुपरिष्टावक्ष्यामः, दशविधे-दशप्रकारे श्रमणधर्मे-साधुधर्मे क्षान्त्यादिके, अस्यापि | स्वरूपमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः, अस्मिन् गुस्यादिषु च ये श्रामणा योगा:-श्रमणानामेते श्रामणास्तेषां श्रामणानां योगाना-व्यापा-| राणां सम्यक्प्रतिसेवनश्रद्धानप्ररूपणालक्षणानां यत् खण्डितं-देशतो भग्नं यद्विराधित-सुतरां भग्नं, न पुनरेकान्ततोऽभा-1 वमापादितं, तस्य खण्डनविराधनद्वाराऽऽयातस्य चारित्रातिचारस्यैतद्गोचरस्य ज्ञानादिगोचरस्य च दैवसिकातिचारस्य, एतावता क्रियाकालमाह, तस्यैव 'मिच्छामि दुकर्ड' इत्यनेन तु निष्ठाकालमाह, मिथ्येति-प्रतिक्रमामि दुष्कृतमेतदकर्तव्यमित्यर्थः, अत्रेयं सूत्रस्पर्शिकगाथा १ समितो नियमाहुलो गुप्तः समितत्वे भक्ताम्यः । कुशलवाचमुदीरयन यचोगुप्तोऽपि समितोऽपि ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१५]] ५७२।। पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~281 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१] भाष्यं [२०४...., 4-59-2-552 प्रत सूत्रांक %-5 [सू.] पडिसिद्धाणं करणे किचाणमकरणे य पडिकमणं । असद्दहणे य तहा विवरीयपरूवणाए य॥१२७१ ॥ व्याख्या-'प्रतिषिद्धानां निवारितानामकालस्वाध्यायादीनामतिचाराणां 'करणे निष्पादने आसेवन इत्यर्थः, किं - प्रतिक्रमणमिति योगः, प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणमिति व्युत्पत्तेः, 'कृत्यानाम् आसेवनीयानां कालस्वाध्यायादीनां योगानाम् 'अकरणे' अनिष्पादनेऽनासेवने प्रतिक्रमणम् , अश्रद्धाने च तथा केवलिप्ररूपितानां पदार्थानां प्रतिक्रमणमिति वर्तते, विपरीतप्ररूपणायां च अन्यथा पदार्थकथनायां च प्रतिक्रमणमिति गाथार्थः ॥ १२७१ ॥ अनया च गाथया यथायोग सर्वसूत्राण्यनुगन्तव्यानि, तद्यथा-सामायिकसूत्रे प्रतिषिद्धी रागद्वेषौ तयोः करणे कृत्यस्तु तन्निग्रहस्तस्याकरणे सामा[यिकं मोक्षकारणमित्यश्रद्धाने असमभावलक्षणं सामायिकमिति विपरीतप्ररूपणायां च प्रतिक्रमणमिति, एवं मङ्गलादिसूत्रेष्वप्यायोज्य, चत्वारो मालमित्यत्र प्रतिषिद्धोऽमङ्गलाध्यवसायस्तकरण इत्यादिना प्रकारेण, एवमोघातिचारस्य समा सेन प्रतिक्रमणमुक्तं, साम्प्रतमस्यैव विभागेनोच्यते, तत्रापि गमनागमनातिचारमधिकृत्याऽऽहII इच्छामि पटिकमि इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे पाणकमणे बीयकमणे हरिपकमणे ओसा-15 उत्तिंगपणगदगमहिमकडासंताणासंकमणे जे मे जीवा विराहिया एगिदिया बेईदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचिंदिआ अभिहआ वत्तिआ लेसिआ संघाइआ संघट्टिआ परिआविआ किलामिआ उद्दविआ ठाणाओ। ठाणं संकामिआ जीविआओ ववरोविआ तस्स मिच्छामि दुकाई ॥ (सू०) अस्य व्याख्या-इच्छामि-अभिलपामि प्रतिक्रमितुं-निवर्तितुम् , ईर्यापथिकायां विराधनायां योऽतिचार इति गम्यते, 09-2-56+ दीप अनुक्रम [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। । "ईर्यापथ-प्रतिक्रमण" मूलसूत्र एवं तस्य विशद् व्याख्या ~282 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५७३॥ दातस्येति योगः, अनेन क्रियाकालमाह, मिच्छामि दुकडे इत्यनेन तु निष्ठाकालमिति, तोरणमीर्या गमनमित्यर्थः, तत्प्रधान WIपन्या ईर्यापथः तत्र भर्यापथिकी तस्यां, कस्यामित्यत आह-विराध्यन्ते-दुःखं स्थाप्यन्ते प्राणिनोऽनयेति विराधना-Tx क्रिया तस्यां विराधनायां सत्यां, योऽतिचार इति वाक्यशेषः, तस्येति योगः, विषयमुपदर्शयन्नाह-गमनं चागमनं चेत्येकवद्भावस्तस्मिन् , तत्र गमनं स्वाध्यायादिनिमित्तं वसतेरिति, आगमनं प्रयोजनपरिसमाप्तौ पुनर्वसतिमेवेति, तत्रापि यः कथं जातोऽतिचार इत्यत आह-'पाणकमणे प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयवसा गृह्यन्ते, तेषामाक्रमणं-पादेन पीडनं प्राण्याक्रमणं, | तस्मिन्निति, तथा बीजाक्रमणे, अनेन बीजानां जीवत्वमाह, हरिताक्रमणे, अनेन तु सकलवनस्पतेरेव, तथाऽवश्यायोतिङ्गपनकदगमृत्तिकामर्कटसन्तानसङ्क्रमणे सति, तत्रावश्यायः-जलविशेषः, इह चावश्यायग्रहणमतिशयतः शेषजलसम्भोगपरिवारणार्थमिति, एवमन्यत्रापि भावनीयं, उत्तिङ्गा-गर्दभाकृतयो जीवा कीटिकानगराणि वा पनका-फुलि दगमृत्तिकाचिक्खालम् , अथवा दकग्रहणादकायः, मृत्तिकाग्रहणात् पृथ्वीकायः, मर्कटसन्तानः कोलिकजालमुच्यते, ततश्चावश्याय-1 थोत्तिङ्गश्चेत्यादि द्वन्द्वः, अवश्यायोत्तिङ्गपनकदगमृत्तिकामर्कटसन्तानास्तेषां सङ्कमण-आक्रमणं तस्मिन् , किंबहुना!, कियन्तो भेदेनाऽऽख्यास्यन्ते , सर्वे ये मया जीवा विराधिता-दुःखेन स्थापिताः, एकेन्द्रियाः-पृथिव्यादयः, द्वीन्द्रिया:-कृम्या-1 दया, त्रीन्द्रियाः-पिपीलिकादयः, चतुरिन्द्रिया-भ्रमरादयः, पवेन्द्रिया-मूषिकादयः, अभिहता-अभिमुख्येने हताः, चरणेन ट्र घट्टिताः, उरिक्षप्य क्षिप्ता वा, वर्तिताः-पुजीकृताः, धूल्या वा स्थगिता इति, श्लेषिता:-पिष्टाः, भूम्यादिषु वा लगिताः, * किंविशिष्टाया-प्रा. + अभिमुखागता. दीप अनुक्रम [१६] CCCCCC ॥५७३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~283 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], A प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम सङ्घातिता-अन्योऽन्यं गात्रैरेकत्र लगिताः, सङ्घट्टिता-मनाक् स्पृष्टाः, परितापिताः-समन्ततः पीडिताः, क्लामिता:-समुद्घातं नीताः ग्लानिमापादिता इत्यर्थः, अवद्राविता-उत्रासिताः स्थानात् स्थानान्तरं सङ्गमिताः स्वस्थानात् परं स्थानं नीताः, जीविताद् व्यपरोपिताः, व्यापादिता इत्यर्थः, एवं यो जातोऽतिचारस्तस्य, एतावता क्रियाकालमाह, तस्यैव 'मिच्छामि दुकर्ड' इत्यनेन निष्ठाकालमाह, मिथ्या दुष्कृतं पूर्ववद्, एवं तस्येत्युभययोजना सर्वत्र कार्यो । इत्थं गमनातिचारप्रतिक्रमणमुक्तम्, अधुना त्वग्वर्तनस्थानातिचारप्रतिक्रमणं प्रतिपादयन्ताह इच्छामि पडिकमिङ पगामसिज्जाए निगामसिजाए संथाराउब्वट्टणाए परिचट्टणाए आउंटणपसारणाए छप्पइसंघट्टणाए कहए कक्कराइए छिइए जंभाइए आमोसेससरक्खामोसे आउलमाउलाए सोअणवत्तिआए इत्धीविपरिआसिआए दिट्टीविपरिआसिआए मणविपरिआसिआए पाणभोयणविप्परिआसिआए जो मे देवसिओ अइआरो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ (सू०) ___ अस्य व्याख्या-इच्छामि प्रतिक्रमितुं पूर्ववत्, कस्येत्याह-प्रकामशय्यया हेतुभूतया यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतः, तस्येति योगः, अनेन क्रियाकालमाह, 'मिच्छामि दुक्कड' इत्यनेन तु निष्ठाकालमेवेति भावना, एवं सर्वत्र योजना कार्येति, शीइ स्वप्ने अस्य यप्रत्ययान्तस्य 'कृत्यल्युटो बहुल'(पा०३-३-११३)मिति वचनात् शयनं शय्या प्रकाम-चातुर्यामं शयनं | प्रकामशय्या शेरतेऽस्यामिति वा शय्या-संस्तारकादिलक्षणा प्रकामा-उत्कटा शय्या प्रकामशय्या-संस्तारोत्तरपट्टकातिरिक्ता प्रावरणमधिकृत्य कल्पत्रयातिरिक्ता वा तया हेतुभूतया, स्वाध्यायाधकरणतश्चेहातिचारः,प्रतिदिवसं प्रकामशय्येव निकाम RC+AAKASAKAM [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। • मूल प्रतिक्रमणसूत्र “पगामसज्झाय" मूल एवं तस्य अति विषद् व्याख्या ~2840 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक- प्रतिक्रमणाध्य. हारिभ द्रीया प्रत सूत्रांक CAX ॥५७४॥ दीप अनुक्रम शय्योच्यते तया हेतुभूतया, अत्राप्यतिचारः पूर्ववत् , उद्धर्तनं तत्प्रथमतया वामपार्थेन सुप्तस्य दक्षिणपार्थेन वर्तनमुद्वर्तन- ६ मुद्वर्तनमेवोद्वर्तना तया, परिवर्तनं पुनर्वामपाश्वेनैव वर्तनं तदेव परिवर्तना तया, अत्राप्यप्रमृज्य कुर्वतोऽतिचारः, आकुश्चनं गात्रसङ्कोचलक्षणं तदेवाकुचना तया, प्रसारणम्-अङ्गानां विक्षेपः तदेव प्रसारणा तया, अत्र च कुकुट्टिदृष्टान्तप्रतिपादितं विधिमकुर्वतोऽतिचारः, तथा चोक्तम्-'कुकुडिपायपसारे जह आगासे पुणोवि आउंटे । एवं पसारिऊणं आगासि पुणोवि आउंटे ॥ १॥ अइकुंडिय सिय ताहे जहियं पायस्स पण्हिया ठाइ। तहियं पमजिऊर्ण आगासेणं तु णेऊणं ॥२॥ पार्य ठावित्तु तहिं आगासे व पुणोवि आउंटे । एवं विहिमकरेते अइयारो तत्थ से होइ ॥३॥ पट्रपदिकानां-यूकानां सजनम्-अविधिना स्पर्शनं षट्पदिकासङ्घद्दनं तदेव षट्पदिकासचट्टना तया, तथा 'कूइए'त्ति कृजिते सति योऽतिचारः, कूजितं-कासितं तस्मिन् अविधिना मुखवत्रिका कर वा मुखेऽनाधाय कृत इत्यर्थः, विषमा धर्मवतीत्यादिशय्यादोषोञ्चारणं सकर्करायितमुच्यते तस्मिन् सति योऽतिचारः, इह चाऽऽर्तध्यानजोऽतिचारः, भुते-अविधिना जम्भितेऽविधिनैव आमर्षणम् आमर्षः-अप्रमृज्य करेण स्पर्शनमित्यर्थः तस्मिन् , सरजस्कामर्षे सति, सह पृथिव्यादिरजसा यद्वस्तु स्पृष्टं | तत्संस्पर्श सतीत्यर्थः, एवं जाग्रतोऽतिचारसम्भवमधिकृत्योकम् , अधुना सुप्तस्योच्यते-'आउलमाउलाए'त्ति आकुलाकुलया-सयादिपरिभोगविवाहयुद्धादिसंस्पर्शननानाप्रकारया स्वमप्रत्ययया-स्वप्ननिमित्तया, विराधनयेति गम्यते, सा पुनर्मू कुकुरी पादी प्रसारयेत् पधाऽऽकाशे पुनरप्याकुचयेत् । एवं प्रसार्याकाशे पुनरण्यायेत् ॥ ३॥ अतिवाधितं स्यातदा या पादश्य पार्षिणका तिष्ठति ।। तब प्रमायाकाशे तु नीरवा ॥ २ ॥ पार्द स्थापयित्वा तत्राकाश एव पुनरप्याकुश्शयेत् । एवं विधिमकुर्वत्यविचारस्तव तस्य भवति ॥ ३॥ [१७] ४ ॥५७४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...., प्रत सूत्रांक (सू.] दीप अनुक्रम लोत्तरगुणातिचारविषया भवत्यतो भेदेन तां दर्शयन्नाह-'इत्थीविपरियासियाए'त्ति खिया विपर्यासः खीविपर्यासः-अ-1 ४ ब्रह्मासेवन तस्मिन् भवा खीवपर्यासिकी तया, स्त्रीदर्शनानुरागतस्तदवलोकनं दृष्टिविपर्यासः सस्मिन् भवा दृष्टिवैपर्या-18 सिकी तया, एवं मनसाऽध्युपपातो मनोविपर्यासः तस्मिन् भवा मनोवैपर्यासिकी तया, एवं पानभोजनवैपर्या सिक्या, | रात्री पानभोजनपरिभोग एव तद्विपर्यासः, अनया हेतुभूतया य इत्यतिचारमाह, मयेत्यात्मनिर्देशः, दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिमाणो वा दैवसिकः, अतिचरणमतिचारः अतिक्रम इत्यर्थः, कृतो-निवर्तितः 'तस्स मिच्छामि दुक्कड' पूर्ववत्, लाआह-दिवा शयनस्य निषिद्धत्वादसम्भव एवास्यातिचारस्य, न, अपवादविषयत्वादस्य, तथाहि-अपवादतः सुष्यत एव दिवा अध्वानखेदादी, इदमेव वचनं ज्ञापकम् ॥ एवं त्वग्वर्तनास्थानातिचारप्रतिक्रमणमभिधायेदानी गोचरातिचारप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाऽऽह__ पडिक्कमामि गोयरचरियाए भिक्खायरियाए उग्घाडकवाडउग्घाडणाए साणावच्छादारासंघणाए मंडी-1 पाहुडिआए पलिपाहुडिआए ठवणापाहुडिआए संकिए सहसागारिए अणेसणाए पाणभोपणाए बीय-| भोयणाए हरियभोयणाए पच्छेकम्मियाए पुरेकम्मियाए अदिङहडाए दगसंसहहडाए रयसंसट्ठहडाए पारिसाडणियाए पारिठावणिआए ओहासणभिक्खाए जं उग्गमेणं उप्पायणेसणाए अपरिसुद्धं परिगहियं परिभुतं चा जं न परिविअं तस्स मिच्छामि दुकाडं ॥ (स०) अस्य व्याख्या-प्रतिक्रमामि-निवर्तयामि, कस्य !-गोचरचर्यायां-भिक्षाचर्यायां, योऽतिचार इति गम्यते, तस्येति [१८] -94 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। .. "गौचरी" गोचरचर्या विषयक अतिचारस्य प्रतिक्रमण-वर्णन ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रमणाध्य. प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- नयोगः, गोश्चरणं गोचरः चरण-चर्या गोचर इव चर्या गोचरचर्या तस्यां गोचरचर्यायां, कस्यां -भिक्षार्थ चर्या भिक्षा- हारिभ. चर्या तस्या, तथाहि-लाभालाभनिरपेक्षः खल्वदीनचित्तो मुनिरुत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विष्टानिष्टेषु वस्तुषु रागद्वेषावगद्रीया च्छन् भिक्षामटतीति, कथं पुनस्तस्यामतिचार इत्याह-'उग्घाडकवाड उम्घाडणाए' उद्घाटम्-अदत्तार्गलमीषतस्थगितं वा किं तत् -कपाट तस्योद्घाटनं-सुतरां प्रेरणम् उद्घाटकपाटोद्घाटनम् इदमेवोद्घाटकपाटोद्घाटना तया हेतुभूतया, | ॥५७५|| इह चाप्रमार्जनादिभ्योऽतिचारः, तथा श्वानवत्सदारकसहनयेति प्रकटार्थ, मण्डीमाभृतिकया बलिप्राभृतिकया स्थाप-1 नाप्राभूतिकया, आसां स्वरूप-'मंडीपाहुडिया साहुमि आगए अम्गकूरमंडीए । अण्णमि भायणमि व काउं तो देइ साहुस्स ॥१॥ तत्थ पवत्तणदोसो ण कप्पए तारिसा सुविहियाण । बलिपाहुडिया भण्णइ चउद्दिसि काउ अचणियं ॥२॥ |अग्गिमि व छोणं सित्थे तो देइ साहुणो भिक्खं । सावि ण कप्पड ठवणा (जा) भिक्खायरियाण ठविया उ ॥३॥ |आधाकर्मादीनाम्-उद्गमादिदोषाणामन्यतमेन शढ़िते गृहीते सति योऽतिचारः, सहसाकारे वा सत्यकल्पनीये गृहीत इति, अन च तमपरित्यजतोऽविधिना वा परित्यजतो योऽतिचारः, अनेन प्रकारेणानेषणया हेतुभूतया, तथा 'पाणभो-| यणाए'त्ति प्राणिनो-रसजादयः भोजने-दध्योदनादौ सचन्ते-विराध्यन्ते ब्यापाद्यन्ते वा यस्यां प्राभूतिकायां सा| दीप अनुक्रम CACASSES [१८] ॥५७५॥ मण्डिमाभूत्तिका साधावागते प्ररमण्यै । अपमिन भाजने वा कृत्वा ततो ददाति साधये ॥1॥ प्रवर्तनदोषो न कल्पते ताशी सुविहितानाम् । बलियाभूतिका भव्यते चतुर्दिशं कृत्वाऽनिकाम् ॥ ३ ॥ अनौ वा क्षिया सिक्थान ततो पदाति साधचे भिक्षाम् । साऽपि न कल्पते स्थापना(या). भिक्षाचरेभ्यः स्थापिता ॥ ३ ॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~287 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक प्राणिभोजना तया, तेषां च सहाहनादि दातृग्राहकप्रभवं विज्ञेयम्, अत एवातिचारः, एवं 'वीयभोयणाए' बीजानि | भोजने यस्यां सा बीजभोजना तया, एवं हरितभोजनया, 'पच्छाकम्मियाए पुरेकम्मियाए' पश्चात् कर्म यस्यां पश्चाज-12 दलोज्झनकर्म भवति पुरःकर्म यस्यामादाविति, 'अदिहिडाएत्ति अदृष्टाहृतया-अदृष्टोत्क्षेपमानीतयेत्यर्थः, तत्र च सत्त्व सहाहनादिनाऽतिचारसम्भवो, दगसंसृष्टाहृतया-उदकसम्बद्धानीतया हस्तमात्रगतोदकसंसृष्टया वा भावना, एवं रजः संसृष्टाहतया, नवरं रजः पृथिवीरजोऽभिगृह्यते, 'पारिसाडणियाए'त्ति परिशाटः-उज्झनलक्षणः प्रतीत एव तस्मिन् भवा पारिशाटनिका तया, 'पारिष्ठावणियाए'त्ति परिस्थापन-प्रदानभाजनगतद्रव्यान्तरोज्झनलक्षणं तेन निवृत्ता पारिस्थाप|निका तया, एतदुक्तं भवति-'पारिठावणिया खलु जेण भाणेण देइ भिक्खं तु । तमि पडिओयणाई जातं सहसा परिङवियं ॥१॥'ओहासणभिक्खाएत्ति विशिष्टद्रव्ययाचनं समयपरिभाषया 'ओहासणंति भण्णई' तत्प्रधाना या भिक्षा तया, कियदत्र भणिष्यामो ?, भेदानामेवंप्रकाराणां बहुत्वात् , ते च सर्वेऽपि यस्मादुद्गमोत्पादनैषणास्ववतरन्त्यत आहN'जं उग्गमेण' मित्यादि, यत्किञ्चिदशनाद्युद्गमेन-आधाकर्मादिलक्षणेन उत्पादनया-धाच्यादिलक्षणया एपणया-शवितादिलक्षणया अपरिशुद्धम्-अयुक्तियुक्तं प्रतिगृहीतं वा परिभुक्तं वा यन्न परिछापित, कथश्चित् प्रतिगृहीतमपि यन्नोज्झितं परिभुक्तमपि च भावतोऽपुनःकरणादिना प्रकारेण यन्नोज्झितम् , एवमनेन प्रकारेण यो जातोऽतिचारस्तस्य मिध्या दुष्कृतमिति पूर्ववत् ॥ एवं गोचरातिचारप्रतिक्रमणमभिधायाधुना स्वाध्यायाचतिचारप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाऽऽह पारिस्थापनिका खलु येन भाजनेन ददाति भिक्षा तु । तस्मिन् पतितौदनादि जासं सहसा परिस्थापितम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~288 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ५५७६॥ दीप अनुक्रम [१९] 4-4-94500-56-256* पडिकमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए उभओकालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणयाए दुप्पडिले- प्रतिक्रमहणयाए अप्पमजणाए दुप्पमजणाए अइकमे वइक्कमे अइयारे अणायारे जो मे देवसिओ अइआरो को गणाध्य. तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ (सू०). अस्य व्याख्या प्रतिकमामि पूर्ववत्, कस्य !-चतुष्कालं-दिवसरजनीप्रथमचरमपहरेष्यित्यर्थः, स्वाध्यायस्य-सूत्र-IN पौरुषीलक्षणस्य, अकरणतया-अनासेवनया हेतुभूतयेत्यर्थः, यो मया दैवसिकोऽतिचारः कृतः, तस्येति योगः, तथोभय-12 कालं-प्रथमपश्चिमपौरुषीलक्षणं भाण्डोपकरणस्य-पात्रवस्त्रादेः अप्रत्युपेक्षणया दुष्प्रत्युपेक्षणया' तत्राप्रत्युपेक्षणा-मूलत एव | चक्षुषाऽनिरीक्षणा दुष्प्रत्युपेक्षणा-दुर्निरीक्षणा तया, 'अप्रमार्जनया दुष्प्रमार्जनया' तत्राप्रमार्जना मूलत एव रजोहरणादिनाऽस्पर्शना दुष्प्रमार्जना त्वविधिना प्रमार्जनेति, तथा अतिक्रमे व्यतिक्रमे अतिचारे अनाचारे यो मया दैवसिकोडतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमित्येतत्प्राग्वत्, नवरमतिक्रमादीनां स्वरूपमुच्यते-'आधाकम्मनिमंतण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ वइकम गहिए तइएयरो गिलिए ॥१॥ अस्य व्याख्या-आधाकर्मनिमन्त्रणे गृहीये एवं प्रतिशृण्वति सति साधावतिक्रमः साधुक्रियोल्लङ्घनरूपो भवति, यत एवम्भूतं वचः श्रोतुमपि न कल्पते, किं पुनः प्रतिपत्तुं ?, ततःप्रभृति भाजनोद्हणादौ तावदतिक्रमो यावदुपयोगकरणं, ततः कृते उपयोगे गच्छतः पदभेदादिष्यतिक्रमस्तावद् यावदुत्क्षिप्तं भोजनं दात्रेति, ततो गृहीते सति तस्मिंस्तृतीयः, अतिचार इत्यर्थः, तावद् यावदसतिं गत्वेयोपथ 1 आधाकमैनिमन्त्रणे प्रतिशृण्वति अतिकमो भवति । पदभेदादि व्यतिक्रमो गृहीते तृतीय इतरो गिलिते ॥ 1 ॥ CARS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। .. चतुष्काल स्वाध्यायस्य अकरणं आदेः अतिचारस्य प्रतिक्रमणं ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], SAR NAGAR प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [२०] प्रतिक्रमणाद्युत्तरकालं लम्बनोत्क्षेपः, तत उत्तरकालमनाचारः, तथा चाह-इतरो गिलिए'त्ति प्रक्षिप्ते सति कवले अनाचार इति गाथार्थः ॥ इदं चाधाकर्मोदाहरणेन सुखप्रतिपत्त्यर्थमतिक्रमादीनां स्वरूपमुक्तम् , अन्यत्राप्यनेनैवानुसारेण विज्ञेयमिति । अयं चातिचारः संक्षेपत एकविधः, संक्षेपविस्तरतस्तु द्विविधः त्रिविधो यावदसङ्घचेयविधः, संक्षेप-13 विस्तरता पुनर्द्विविधः त्रिविधं प्रति संक्षेप, एकविधं प्रति विस्तर इति, एवमन्यत्रापि योज्यं, विस्तरतस्त्वनन्तविधः, तत्रैक- विधादिभेदप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाह पडिकमामि एगविहे असंजमे। पडिकमामि दोहिं बन्धणेहि-रागबंधणणं दोसबन्धणेणं । पतिहिं दण्डहिंमणदंडेणं वपदंडेणं कायदंडेणं । प० तिहिं गुत्तीहि-मणगुत्तीए वयगुत्तीए कायगुत्तीए ॥ (सूत्रम् ) | प्रतिक्रमामि पर्ववत्, एकविधे-एकप्रकारे असंयम-अविरतिलक्षणे सति प्रतिपिद्धकरणादिना यो मया देवसिकोऽति-IN चारः कृत इति गम्यते, तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति सम्बन्धः, वक्ष्यते च-सज्झाए ण सज्झाइयं तस्स मिच्छामि दुकर्ड' एवमन्यत्रापि योजना कर्तव्या, प्रतिक्रामामि द्वाभ्यां बन्धनाभ्यां हेतुभूताभ्यां योऽतिचारः, वयतेऽष्टविधेन कर्मणा येन | हेतुभूतेन तद्वन्धनमिति, तद्वन्धनद्वयं दर्शयति-रागबन्धनं च द्वेषबन्धनं च, रागद्वेषयोस्तु स्वरूपं यथा नमस्कारे, बन्धनत्वं चानयोः प्रतीतं, यथोक्तम्-'नेहाभ्यकशरीरस्य रेणुना लिप्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषाक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम् ॥१॥'प्रतिक्रमामि त्रिभिर्दण्डैः' दण्ड्यते-चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः द्रच्यभावभेद-पटू |भिन्नाः, भावदण्डैरिहाधिकारः, तैर्हेतुभूतैर्योऽतिचारः, भेदेन दर्शयति-मनोदण्डेन वाग्दण्डेन कायदण्डेन, मनःप्रभृति %e0-1508 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। .. एकविध आदि भेदानां त्रयस्त्रिंशत् पर्यंतानां प्रतिक्रमणं ~290 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रमणा. प्रत आवश्यक- हारिभद्रीया ॥५७७॥ सूत्रांक भिश्च दुष्पयुक्तैर्दण्ज्यते आत्मेति, अत्र चोदाहरणानि-तत्थं मणदंडे उदाहरणं-कोकणगखमणओ, सो उहजाणू अहो-1 सिरो चिंतितो अच्छइ, साहूणो अहो खंतो सुहज्झाणोवगओत्ति वंदंति, चिरेण संलावं देउमारद्धो, साहहिं पुच्छिओ, भणइ-खरो वाओ वायति, जइ ते मम पुत्ता संपयं बल्लराणि पलीविजा तो तेसिं वरिसारत्ते सरसाए भूमीए सुबह सा| लिसंपया होजा, एवं चिंतियं मे, आयरिएण वारिओ ठिओ, तो एवमाइ जं असुह मणेण चिंतेइ सो मणदंडो १॥ | वइदंडे उदाहरणं-साहू सण्णाभूमीओ आगओ, अविहीए आलोएइ-जहा सूयरवंदं दिहति, पुरिसेहि गंतुं मारियं २॥ इयाणि कायदंडे उदाहरणं-चंडरुदो आयरिओ, उज्जेणि वाहिरगामाओ अणुजाणपेक्खओ आगओ, सो य अईव रोसणो, तत्थ समोसरणे गणियाघरविहेडिओ जाइकुलाइसंपण्णो इन्भदारओ सेहो उवडिओ, तत्थ अण्णेहिं असद्दहंतेहिं चंडरुद्दस्स पार्स पेसिओ, कलिणा कली घस्सउत्ति, सो तस्स उवडिओ, तेण सो तहेव लोयं काउं पवाविओ, पजूसे गामं वर्चताण दीप अनुक्रम [२०] ५७७॥ तन्न मनोदण्डे उदाहरण-कोकणकक्षपका, सर्वानुरधःशिराचिन्तयन् तिष्ठति, साधवः बहोरदः शुभयानोपगत इति बन्दन्ते, चिरेण संहार्य दातुमारब्धः, साधुभिः पृष्टः, भणति-परो पातो पाति, यदि ते मम पुत्राः साम्प्रतं तृणादीनि प्रदीपयेयुः तदा तेषां वर्षाराने सरसायो भूमी सुबही शालीसंपत् भवेत, एवं चिन्तितं मया, आचार्येण वारितः स्थितः, तदेवमादि यशुभं मनसा चिन्तयति स मनोदण्डः १॥ वारदण्डे उदाहरणं साधुः संज्ञाभूमे R रागतः, अविधिनाऽऽलोचयति-यथा शूकरवन्दं दृएमिति, पुरुषैर्गचा मारित २॥ इदानीं कायदण्डे उदाहरणम्-चण्डरून आचार्यः उजयिनी बहिनोमादनुवानप्रेक्षक भागतः, स पातीय रोपणः, तन्त्र समवसरणे गणिकागृहविनिर्गतो जातिकुलादिसंपल इम्पदारकः क्ष उपस्थितः, तमान्यैरबहधनिश्चटकदस्य पार्थ प्रेषितः, | कलिना पृष्यतां कलिरिति, स तखोपस्थितः, तेन स तथैव लोचं कृत्वा प्रभाजितः, प्रत्यूपे ग्रामं व्रजतोः पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत 55-र सूत्रांक पुरओ सेहो पिडओ चंडरुद्दो, आवडिओ रुडो सेहं दंडेण मत्थए हणइ, कहं ते पत्थरो ण दिहोत्ति , सेहो सम्म सहइ, आवस्सयवेलाए रुहिरावलित्तो दिडो, चंडरुद्दस्स तं पासिऊण मिच्छामि दुकडत्ति वेरग्गेण केवलणाणं उप्पण्णं, सेहस्सवि कालेण केवलणाणमुप्पण्णं शा 'पडिकमामि तिहिं गुत्तीहि-मणगुत्तीए वयगुत्तीए कायगुत्तीए' प्रतिक्रमामि तिसृभिर्गुप्तिभिः करणभूताभियोऽतिचारः कृत इति, तद्यथा-मनोगुप्त्या वाग्गुप्त्या कायगुप्या, गुप्तीनां च करणता अतिचारं प्रति प्रतिषिद्धकरणकृत्याकरणाश्रद्धानविपरीतप्ररूपणादिना प्रकारेण, शब्दार्थस्त्वासां सामायिकवद् द्रष्टव्यः, यथासङ्घमुदाहरणानि-1 'मणगुत्तीए तहियं जिणदासो सावओ य सेहिसुओ । सो सबराइपडिम पडिवण्णो जाणसालाए ॥१॥ भजुम्भामिग पलंक घेत्तुं खीलजुत्तमागया तत्थ । तस्सेव पायमुवरि मंचगपायं ठवेऊणं ॥२॥ अणायारमायरंती पाओ विद्धो य मंचदिकीलेणं । सो ता महई वेदण अहियासेई तहिं सम्मं ॥ ३ ॥ण य मणदुकडमुप्पणं तस्सज्झामि निच्चलमणस्स । दह णवि विलीयं इय मणगुत्ती करेयवा ॥ ४॥ वइगुत्तीए साहू सण्णातगपल्लिगच्छए दई। चोरग्गह सेणावइविमोइओ [सू.] दीप अनुक्रम [२०] 2165 पुरतः शैक्षकः पृष्ठतबारुदः, आपतितो रुटः शिष्यं ददेन मस्तके हन्ति, कथं त्वया प्रस्तरोन र इति', शैक्षः सम्पर सहते, आवश्यकवेलायां रुधिरावलिप्तो रटः, चण्डजस तहटा मिथ्या मे दुष्कृतमिति वैराग्येण केवलज्ञानमुत्पन्न, शैक्षवापि काठन केवलज्ञानमुत्पनं। २ मनोगुप्ती तत्र जिनदासः भानका डिसुतः । स सरात्रिकीमतिमा प्रतिपक्षो धानशालायाम् ॥ १॥ भार्या उहामिका पक्ष्या गुदीवा कीलकयुक्तमायाता तन्त्र । तस्यैव पादस्थोपरि मञ्चकपादं स्थापविश्वा ॥ २ ॥ अनाचारमाचरन्ती पाडो विश्व मत्रकीलकेन । स तावत् महती वेदनामभ्यासयति तत्र सम्पन॥३॥ न च मनोदुष्कृतमुपचं तप ध्याने निबलमनसः । वापि पलीक एवं मनोगुप्तिः कर्तव्या ॥४॥ वारगुप्तौ साधून संज्ञावीयपलीं गच्छतो दृष्ट्वा चीरमहः सेनापतिना विमोचितो पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~292 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], 8॥ आवश्य हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५७८|| भणइ मा साह ॥१॥चलिया य जण्णजत्ता सण्णायग मिलिय अंतरा चेव । मायपियभायमाई सोवि णियत्तो समं तेहिं प्रतिक्रम २॥ तेणेहि गहिय मुसिया दिहो ते चिंति सो इमो साहू । अम्हेहि गहियमुक्को तो बेंती अम्मया तस्स ॥३॥ तुझेहिंदी णा. गहियमुक्को ? आम आणेह बेइ तो छुरियं जा छिंदामि थणती किंति सेणावई भणइ ॥ ४॥ दुजम्मजात एसो दिठ्ठा तुम्हे तहावि णवि सिह । किह पुत्तोत्ति ? अह मम किह णवि सिंहति ? धम्मकहा ।।५।। आउट्टो उवसंतो मुक्का मझं पियसि | मायत्ति । सर्व समप्पियं से धइगुत्ती एव कायबा ॥ ६॥ काइयगुत्ताहरणं अशाणपवण्णगो जहा साहू । आवासियंमि सत्थे ण लहइ तहिं थंडिलं किंचि ॥१॥ लद्धं चणेण कहवी एगो पाओ जहिं पइहाइ । तहियं ठिएगपओ सर्व राई तहिं थद्धो ॥२॥ण ठविय किंचि अस्थंडिलंमि होयबमेव गुत्तेणं । सुमहन्मएवि अहया साहुण भिंदे गई एगो ॥३॥ | सकपसंसा अस्सद्दहाण देवागमो विउबद य । मंडुक्कलिया साहू जयणा सो संकमे सणियं ॥ ४ ॥ हत्थी विउविओ जो भणति मा चीकथः ॥ १॥ पलितान यज्ञयानाय सज्ञातीषा मिलिता अन्तरैष । मातापिनमात्रायः सोऽपि निवृत्तः समं तैः ॥२॥ सेनेहीता मुपिता रटते मुक्ते सोऽयं साधुः । अस्माभिदीत्या मुक्तस्तवा अत्रीत्यम्बा तस्थ ॥ ३॥ युष्माभिहीतमुक्ता ओम् मानयत बूते ततः क्षुरिकाम् । यच्छिननि सनमिति किमिति सेनापतिर्भणति ॥४॥ दुर्जन्मजात एष रष्टा यूर्य तथापि नैव शिवम् । कथं पुत्र इति भव मयं क व शिष्टमिति' धर्मकथा ॥ ५॥ ५७८॥ आवृत्त उपशान्तो मुक्ता मम मियाऽसि मातरिति । सबै समर्पितं तथा बचोगुप्तिरेवं कर्तव्या ॥६॥ काविक गुरुवाहरणं अध्यापनको यथा साधुः । आवालासिते सार्धे न लभते तत्र स्खण्डिलं कथित् ॥१॥ सम्धं चागेन कथमपि एकः पादो यत्र प्रतिष्ठति । तत्र स्थितेकपादः सा राग्नि तत्र सन्धः (स्थितः) ॥२॥ न स्थापित किचिवस्थाण्डिले भवितव्यमेवं गुप्लेन । मुमहाभयेऽप्यधमा साधुन भिन्नति गतिमेकः ॥ ३ ॥ शक्रपशंसा अनवानं देवागमो विकुर्वति च । मण्डू किकाः | साधुर्यतनवा स संकामति यानैः ॥ ४ ॥ हस्ती विकृर्वितो यः दीप अनुक्रम [२०] FAS GRECEMSCOR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...., प्रत सूत्रांक - आगच्छह मग्गओ गुलगुलिंतो। ण य गइभेयं कुणई गएण हत्थेण उच्छूढो ॥५॥ बेइ पडतो मिच्छामिदुकडं जिय विराहिया मेत्ति । ण य अप्पाणे चिंता देवो तुट्टो णमसइ य ॥६॥ पडिकमामि तिहिं सल्लेहि-मायासल्लेणं नियाणसल्लेणं मिच्छादसणसल्लेणं । पडिक्कमामि तिहिं गारवेहि-इड्डी-12 गारवेणं रसगारवेणं सायागारवेणं । पडिकमामि तिहिं विराहणाहिं-णाणविराहणाए दंसणविराहणाए चरित्तचिराहणाए। पडिकमामि चाहिं कसाएहिं-कोहकसाएणं माणकसाएणं मायाकसाएणं लोहकसाएणं। पडिकमामि चाहिं सपणाहि-आहारसपणाए भयसपणाए मेहुणसंणाए परिग्गहसण्णाए।पडिकमामि चउहि विकहाहिइत्थीकहाए भत्तकहाए देसकहाए रायकहाए। पडिकमामि चउहिं झाणेहि-अट्टेणं झाणेणं रुदेणधम्मेणं सुक्केणं० प्रतिक्रामामि त्रिभिः शल्यैः करणभूतैर्योऽतिचारः कृतः, तद्यथा-मायाशल्येन निदानशल्येन मिथ्यादर्शनशल्येन, शल्यतेऽनेनेति शल्यं-द्रव्यभावभेदभिनं, द्रव्यशल्य कण्टकादि, भावशल्यमिदमेय, माया-निकृतिः सैव शल्यं मायाशल्यम् , इयं भावना-यो यदाऽतिचारमासाथ मायया नालोचयत्यन्यथा वा निवेदयत्यभ्याख्यानं वा यच्छति तदा सैष शल्यमशुभकर्मबन्धनेनात्मशल्यनात् तेन, निदानं-दिव्यूमानुषर्द्धिसंदर्शनश्रवणाभ्यां तदभिलाषानुधानं तदेव शल्यमधिकरणानुमोदनेनात्मशल्यनात् तेन, मिध्या-विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनं मोहकर्मोदयजमित्यर्थः, तदेव शल्यं तत्प्रत्ययकादानेनात्मशल्यनात्, तत्पुनरभिनिवेशमतिभेदान्यसंस्तवोपाधितो भवति,इह चोदाहरणानि-मायाशल्ये रुद्रो वक्ष्यमाणः पण्डरायो आगच्छति पृष्ठतो गुलगुलायमानः । न च गतिभेदं करोति गजेन हस्तेनोक्षिप्तः ॥ ५॥ ब्रूते पतन् मिथ्यामेदुष्कृतं जीवा निराहा मवेति । न चात्मनि चिन्ता देवस्तुधो नमस्पति च ॥६॥ दीप अनुक्रम ACCORRECTORGAROO -*-* * [२१] % % -% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। ~294 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रतिक्रम णा. प्रत सूत्रांक ॥५७९॥ चोक्ता, निदानशल्ये ब्रह्मदत्तकथानक यथा तपरिते, मिथ्यादर्शनशस्ये गोष्ठामाहिल जमालिभिक्षपचरकश्रावका अभिनि- वेशमतिभेदान्यसंस्तवेभ्यो मिथ्यात्वमुपागताः, तत्र गोष्ठामाहिल जमालिकथानकद्वयं सामायिके उक्त, भिक्षूपचरकश्रावककथानकं तूपरिष्टाद्वक्ष्यामः।। प्रतिक्रमामि त्रिभिगौरवैः करणभूतोऽतिचारः कृतः,तद्यथा-ऋद्धिगौरवेण रसगौरवेण सातगौरवेण, तत्र गुरोर्भावो गौरवं, तच्च द्रव्यभावभेदभिन्नं, द्रव्यगौरवं वज्रादेः भावगौरवमभिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशु|भभावगौरवं संसारचक्रवालपरिभ्रमणहेतुः कर्मनिदानमिति भावार्थः, तत्र ऋक्या-नरेन्द्रादिपूज्याचार्यादित्वाभिलाषलक्षणया गौरव-ऋद्धिप्राप्त्याभिमानाप्राप्तिसम्प्रार्थनद्वारेणाऽऽत्मनोऽशुभभावगौरवमित्यर्थः, एवं रसेन गौरवम्-इष्टरस-5 प्रात्यभिमानाप्राप्तिमार्थनद्वारेणाऽऽत्मनोऽशुभभावगौरवं तेन, सात-सुखं तेन गौरवं सातप्रात्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवं तेन, इह च त्रिवप्युदाहरणं मङ्गः-मथुराएँ अजमंगू आयरिया सुबहुसड्डा (हुया य ) तहियं च । इरसवरथसयणासणाइ अहियं पयच्छति ॥१॥ सो तिहिषि गारवेहिं पडिबद्धो अईव तत्थ काल|गओ । महुराए निद्धमणे जक्खो य तहिं समुप्पण्णो ॥२॥ जक्खायतणअदूरेण तत्थ साहूण वचमाणाणं । सणाभूमि ताहे अणुपविसइ जक्खपडिमाए ॥३॥ जिल्लालेउं जीहं णिफेडिऊण तं गवक्खेणं । दसेइ एवं बहुसो पुट्ठो य कयाइ साहहिं ॥४॥ किमिदं? तो सो वयई जीहादुट्ठो अहं तु सो मंगू । इत्थुववष्णो तम्हा तुम्भेवि एवं करे कोई ॥ मधुरायामार्थमनच भाचार्याः, सुबहवः श्रावासाचा परसपनायनासनादि अधिक प्रयच्छन्ति ॥1॥स निभिरपि गौरवैः प्रतिबद्धोऽतीय तत्र कालगतः । मथुरायां निर्धमने यक्षश्च तत्र समुत्पनः ॥ २॥ यक्षायतनस्यातू रेण तत्र साधूनां बजताम् । संज्ञाभूमि सदाऽनुप्रविश्य वक्षप्रतिमायाम् ॥३॥ निलाल्य जिहां निष्काश्य तो गवाक्षेण । दर्शयति एवं बहुशः पृष्टा कदाचित् साधुभिः ॥ ॥ किमिदं तदा स वदति जिहादुष्टोऽहं तु स मनुः । अत्रोपपत्रस्तस्वायुष्माकमप्येवं कुर्यास्कोऽपि ॥५॥ दीप अनुक्रम [२१] ५७९॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम हामा सोवि एवं होहिति जीहादोसेण जीह दाएमि । दहण तयं साहू सुहृतरमगारवा जाया ॥६॥प्रतिकमामि तिसृभि विराधनाभिर्योऽतिचार इत्यादि पूर्ववत्, तद्यथा-ज्ञानविराधनयेत्यादि, तत्र विराधनं-कस्यचिवस्तुनः खण्डनं तदेव विराधना ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना-ज्ञानप्रत्यनीकतादिलक्षणा तया, उक्त चणाणपडिणीय णिण्हव अच्चासायण|| तदंतराय च । कुणमाणस्सऽइयारो णाणविसंवादजोगं च ॥१॥ तत्र प्रत्यनीकता पञ्चविधज्ञाननिन्दया, तद्यथा-आभि-: निबोधिकज्ञानमशोभनं, यतस्तदवगतं कदाचित्तथा भवति कदाचिदन्यथेति, श्रुतज्ञानमपि शीलविकलस्याकिञ्चित्करत्वादशोभनमेव, अवधिज्ञानमध्यरूपिद्रव्यागोचरत्वादसाधु, मनःपर्यायज्ञानमपि मनुष्यलोकावधिपरिच्छिन्नंगोचरत्वादशोभन, केवलज्ञानमपि समयभेदेन दर्शन ज्ञानप्रवृत्तेरेकसमयेऽकेवलस्वादशोभनमिति, नियो-व्यपलापः, अभ्यसकाशेऽधीतमन्य व्यपदिशति, अच्चासायणा-'काया वया य तेचिय ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारिगाणं जोइसजोणीहि कि में 8 कजं ॥१॥' इत्यादि, अन्तरायमसङ्खडास्वाध्यायिकादिभिः करोति, ज्ञानविसंवादयोगः अकालस्वाध्यायादिना, दर्शनं-13 सम्यग्दर्शनं तस्य विराधना दर्शनविराधना तया, असावप्येवमेव पञ्चभेदा, तत्र दर्शनप्रत्यनीकता क्षायिकदर्शनिनोऽपि श्रेणिकादयो नरकमुपगता इति निन्दया, निवः-दर्शनप्रभावनीयशास्त्रापेक्षया प्राग्वद् द्रष्टव्यः, अत्याशातना-किमेभिः 8 कलशास्वरिति ?, अन्तरायं प्राग्वत्, दर्शनविसंवादयोगः शङ्कादिना, चारित्रं प्राग्निरूपितशब्दार्थ तस्य विराधना चारि मा सोऽप्येवं भविपति जिहादोषेण जिहां दर्शयामि । दृष्ट्वा तक साधवः सुष्टुतरमगौरवा जाताः ॥६॥ २ काथा मतानि च तान्येव त एवं प्रमादा अप्रमादान । मोक्षाधिकारिणां ज्योतियोनिभिः कि कार्यम् ॥1॥ [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], ་ आवश्यक- हारिभ द्रीया ॥५८०॥ प्रत सूत्रांक ཟླ, ཟླ % विराधना तया-व्रतादिखण्डनलक्षणया।।प्रतिक्रमामि चतुर्भिः कपायोऽतिचारः कृतः, तद्यथा-क्रोधकषायेण मानकषायेण प्रतिक्रममायाकषायेण लोभकषायण, कषायस्वरूपं सोदाहरणं यथा नमस्कार इति । प्रतिक्रमामि चतसृभिः संज्ञा भिर्योऽतिचारःणा . कृतः, तद्यथा-आहारसंज्ञयेत्यादि ४, तत्र संज्ञानं संज्ञा, सा पुनः सामान्येन झायोपशमिकी औदयिकी च, तत्राऽऽद्या ज्ञानावरणक्षयोपशमजा मतिभेदरूपा, न तयेहाधिकारः, द्वितीया सामान्येन चतुर्विधाऽऽहारसंज्ञादिलक्षणा, तत्राहारसंज्ञा-आहाराभिलापः क्षुद्वेदनीयोदयप्रभवः खल्यात्मपरिणाम इत्यर्थः, सा पुनश्चतुर्भिः स्थानैः समुत्पद्यते, तद्यथा-'ओम| कोहयाए १ छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्सोदएणं २ मईए ३ तदोवजोगेण' तत्र मतिराहारश्रवणादिभ्यो भवति, तदर्थोपयोगस्त्वाहारमेवानवरतं चिन्तयतः, तयाऽऽहारसंज्ञया, भयसंज्ञा-भयाभिनिवेश:-भयमोहोदयजो जीवपरिणाम एव, इयमपि चतुर्भिः स्थानः समुत्पद्यते, तद्यथा-'हीणसत्तयाए १ भयमोहणिज्जोदएणं २ मइए । तयहोवओगेणं' तया, मैथुनसंज्ञा-1 मैथुनाभिलाषः वेदमोहोदयजो जीवपरिणाम एव, इयमपि चतुर्भिः स्थानैः समुत्पद्यते, तद्यथा-'चियमंससोणियत्ताए १ वेदमोहणिजोदएणं २ मईए ३ तयटोवओगेणं ४' तया, तथा परिग्रहसंज्ञा-परिग्रहाभिलापस्तीत्रलोभोदयप्रभव आत्मपरिणामः, इयमपि चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते, तद्यथा-'अविवित्तयाए १ लोहोदएणं २ मईए ३ तदहोवओगेणं . तया। प्रतिक्रमामि | चतसृभिर्विकथाभिः करणभूताभिर्योऽतिचारः कृतः, तद्यथा-'स्त्रीकथयेति विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा, सा च ॥५८०॥ भवमकोष्टतया क्षुधा वेदनीयस्य कर्मण उदयेन मया तदर्थोपयोगेन. २ हीनसत्त्वतया भयमोहनीयोदयेन मत्वा तदर्थोपयोगेन. ३ चितमांसशोणिततया दमोहनीयोदयेन मत्वा तदर्योपयोगेन. अविविक्ततया लोभोदयेन मत्या सदोपयोगेन. अनुक्रम [२१] 9645645625 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक खीकथादिलक्षणा, तत्र खीणां कथा स्त्रीकथा तया, सा चतुर्विधा-जातिकथा कुलकथा रूपकथा नेपथ्यकथा, तत्र जातिकथा ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमा प्रशंसति द्वेष्टि बा, कुलकथा उग्रादिकुलप्रसूतानामन्यतमा, रूपकथा अन्ध्रिप्रभृतीनामन्य| तमाया रूपं प्रशंसति-'अन्ध्रीणां च ध्रुवं लीलाचलितधूलते मुखे । आसज्य राज्यभारं स्वं, सुखं स्वपिति मन्मथः ॥१॥ इत्यादिना, द्वेष्टि वाऽन्यथा, नेपथ्यकथा अन्ध्रीप्रभृतीनामेवान्यतमायाः कच्छटादिनेपथ्यं प्रशंसति द्वेष्टि वा, तथा भक्तम्-17 ओदनादि तस्य कथा भक्तकथा तया, सा चतुर्विधाऽऽवापादिभेदतः, यथोक्तम्-'भर्तकहावि चउद्धा आवावकहा तहेब णिवावे । आरंभकहा य तहा णिवाणकहा चउत्थी उ ॥१॥ आधावित्तियदवा सागघयादी य एत्थ उवउत्ता । दसपंचरूव इत्तियवंजणभेयाइ णिवावे ॥२॥ आरंभ छागतित्तिरमहिसारण्णादिया वधित एत्थ । स्वगसयपंचसया णिहाणं जा |सयसहसं ॥३॥' देश:-जनपदस्तस्य कथा देशकथा तया, इयमपि छन्दादिभेदादिना चतुर्बेव, यथोक्तम्-देसस्स कहा भण्णइ देसकहा देस जणवओ होति । सावि चउद्धा छंदो विही विगप्पो य णेवत्थं ॥१॥ छंदो गम्मागर्म जह माउलदुहियमंगलाडाण । अण्णेसिं सा भगिणी गोल्लाईणं अगम्मा उ ॥२॥ मातिसवत्तिउदिचाण गम्म अण्णेसि एग पंचण्हं । दीप अनुक्रम [२१] भक्तकवापि चतुधी आवापकथा तथैव निर्धापे । आरम्भकथा प तथा निष्टानकथा चतुर्थी च ॥१॥ आचाप ईवडूब्या शाकलादिवानोपयुक्ताः । दश पवरूप्यका इयद्-पव्यञ्जनभेवादिर्निवापे ॥२॥ भारम्भ छागतित्तिरमहिषारण्यादिका हता अन । शवपञ्चशतरूपका निष्टानं यावत् शतसहस्रम् ॥३॥ देशस्य कथा भग्यते देशकथा देशो जनपदो भवति । साऽपि चतुर्थी छन्दो विधिर्विकल्प नेपथ्यम् ॥१॥ छन्दो गम्यागम्यं यथा मातुलदुहिताङ्गलाटानाम् । अन्येषां सा भगिनी गोहादीनामयम्या तु ॥२॥ मातृसपनी तु नदीच्यानां गम्या भन्येपामेका पत्र्यानाम् । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभ णा. द्रीया प्रत सूत्रांक ॥५८१॥ एमाइ देसछंदो देसविहीविरयणा होइ ॥३॥ भोयणविरयणमणिभूसियाइ जं वावि भुजए पढमं । वीवाहविरयणाऽवियप्रतिक्रमचउरंतगमाइया होइ ॥४॥ एमाई देसविही देसविगप्पं च सासनिष्फत्ती। जह वप्पकूवसारणिनइरेल्लगसालिरोप्पाई ॥५॥ घरदेवकुलविगप्पा तह विनिवेसा य गामनयराई । एमाइ विगप्पकहा नेवस्थकहा इमा होइ ॥ ६॥ इत्थीपुरिसाणंपिय साभाविय तहय होइ बेउषी । भेडिगजालिगमाई देसकहा एस भणिएवं ॥७॥' राज्ञः कथा राजकथा तया, इयमपि नरेन्द्रनिगंमादिभेदेन चतुर्विधैव, यथोक्तम्-रायकह चउह निग्गम अइगमण षले य कोसकोद्वारे । निजाइ अज्ज राया | एरिस इड्डीविभूईए ॥१॥ चामीयरसूरतणू हत्थीखंधमि सोहए एवं । एमेव य अइयाई इंदो अलयाउरी चेव ॥२॥४ एवइय आसहत्थी रहपायलबलवाहणकहेसा । एवइ कोडी कोसा कोडागारा व एवइया ॥३॥" प्रतिक्रमामि चतुर्भिध्यानः करणभूतैरश्रद्धेयादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृतः, तद्यथा-आर्तध्यानेन ४, तत्र च्यातियानमिति भावसाधनः, दीप अनुक्रम COM [२१] एवमादि देशच्छन्दो देवा विधिविरचना भवति ॥ ३॥ भोजनविरचनमणिभूषणानि यदापि भुपते प्रथमम् । विवाहविरचनापि च चतुरन्त गमादिका (पारिपहादिका) भवति ॥ ४ ॥ एवमादि देशविधिदेशविकल्पमा शास्यनिष्पत्तिः । यथा वप्रकूपसारिणीनदीपूरादिना शालीरोपादि ॥५॥ गृहदेवकुलविकल्या तथा विनिपेशामा प्रामनगरादीनाम् । एवमादिपिकापकथा नेपथ्यकथैया भवति ॥ ६॥ त्रीणां पुरुषाणामपि च स्वाभाविकमाथा भवति विकु । भेडिकजालिकादि (भीलनादि) देशकयैषा भवितवं ॥ ७॥ राजकथा चतुर्क निर्गमोऽतिगमो बलं च कोशकोष्ठागारे । निर्यालय राजा इस्पा करद्धिवि- भूत्वा ॥1॥ चामीकरसूरतनुई स्तिस्कन्धे शोभते एवम् । एवमेव चातियाति इन्द्रोऽलकापुर्यामि॥२॥ एतावन्तोऽश्वा हस्तिनो स्थाः पादातं बलवाहनानि. कपा । इअन्त्यः कोमः कोषाः कोशागाराणि वेयन्ति ।। ३ ।। ५८१॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~299 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम तत्पुनः कालतोऽन्तर्मुहर्तमात्र, भेदतस्तु चतुष्प्रकारमाादिभेदेन, ध्येयप्रकारास्त्वमनोज्ञविषयसंप्रयोगादयः, तत्र शोकाक्र-1 न्दनविलपनादिलक्षणमात तेन, उत्सन्नवधादिलक्षणं रौद्रं तेन, जिनप्रणीतभावश्रद्धानादिलक्षणं धयं तेन, अवधासम्मोहादिलक्षण शुक्लं तेन, फलं पुनस्तेषां हि तिर्यग्नरकदेवगत्यादिमोक्षाख्यमिति क्रमेण, अयं ध्यानसमासार्थः। व्यासार्थस्तु ध्यानशतकाद्वसेयः, तच्चेदम्-ध्यानशतकस्य च महायंत्यावस्तुतः शास्त्रान्तरत्वात् प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये | मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमाह धीर सुकमाणगिदसम्मिधर्ण पणमिजणं । जोईसर सरपणे झाणज्झयण पनपत्रामि ॥१॥ व्याख्या-वीर-शुक्लध्यानाग्निदग्धकमेन्धनं प्रणम्य ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीति योगः, तत्र 'ईर गतिप्रेरणयोः' इत्यस्य | विपूर्वस्याजन्तस्य विशेषेण ईरयति कर्म गमयति याति वेह शिवमिति वीरस्त वीर, किंविशिष्टं तमित्यत आह-शुचं क्लम४ यतीति शुक्ल, शोकं ग्लपयतीत्यर्थः, ध्यायते-चिन्त्यतेऽनेन तत्त्वमिति ध्यानम् , एकाग्रचित्तनिरोध इत्यर्थः, शुक्ल च तद् ध्यानं च तदेव कर्मेन्धनदहनादग्निः शुक्लध्यानाग्निः तथा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगैः क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि तदेवातितीब्रदुःखानलनिबन्धनत्वादिन्धनं कर्मेन्धनं ततश्च शुक्लध्यानामिना दुग्धं-स्वस्वभावापनयनेन | भस्मीकृतं कर्मेन्धनं येन स तथाविधस्तं, 'प्रणम्य' प्रकर्षेण मनोवाकाययोगैर्नत्वेत्यर्थः, समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानाद् ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीति योगः, सत्राधीयत इत्यध्ययनं, 'कर्मणि ल्युट्' पठ्यत इत्यर्थः, ध्यानप्रतिपादकमध्ययनं २ तदू याथात्म्यमङ्गीकृत्य प्रकर्षण वक्ष्ये-अभिधास्ये इति, किंविशिष्टं वीरं प्रणम्येत्यत आह- योगेश्वर योगी [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ ध्यानशतक- मूल गाथा एवं तस्य वृत्ति: प्रकाश्यते ~300 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५८२॥ दीप वरं वा तत्र युज्यन्त इति योगा:-मनोवाकायच्यापारलक्षणाः तैरीश्वर:-प्रधानस्तं, तथाहि-अनुत्तरा एच भगवतो मनो- प्रतिक्रमबाकायच्यापारा इति, यथोकमू-दवमणोजोएणं मणणाणीणं अणुत्तरार्ण च । संसयवोच्छित्तिं केवलेण नाऊण साकणाणाध्यान ॥रिभियपयक्खरसरला मिच्छितरतिरिच्छसगिरपरिणामा । मणणिवाणी वाणी जोयणनिहारिणी जं च ॥२॥ एका य अणेगेसिं संसयवोच्छेयणे अपडिभूया । न य णिविजइ सोया तिप्पड़ सबाउएणपि ॥ ३॥ सबसुरेहिंतोवि ह। अहिंगो तो य कायजोगो से । तहवि य पसंतरूवे कुणइ सया पाणिसंघाए ॥ ४॥ इत्यादि, युज्यते वाऽनेन केवल-| ज्ञानादिना आरमेति योग:--धर्मशुक्लध्यानलक्षणः स येषां विद्यत इति योगिनः-साधवस्तरीश्वरः, तनुपदेशेन तेषां प्रवृत्तेस्तत्सम्बन्धादिति, तेषां वा ईश्वरो योगीश्वरः, ईश्वरः प्रभुः स्वामीत्यनर्थान्तरं, योगीश्वरम् , अथवा योगिस्मर्य-योगिचिन्त्य ध्येयमित्यर्थः, पुनरपि स एव विशेष्यते-शरण्यं,तत्र शरणे साधुः शरण्यस्तं-रागादिपरिभूताश्रितसत्त्ववत्सलं रक्षकमित्यर्थः, ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीत्येतद् व्याख्यातमेव । अनाऽऽह-यः शुक्लध्यानाग्निना दग्धकर्मेन्धनः स योगेश्वर एव यश्च योगे-| श्वरःस शरण्य एवेति गतार्थे विशेषणे, न,अभिप्रायापरिज्ञानाद् इह शुक्ध्यानाग्निना दग्धकर्मेन्धनः सामान्यकेवल्यपि भवति, नत्वसौ योगेश्वरः, वाकायातिशयाभावात् , स एव च तत्त्वतः शरण्य इति ज्ञापनार्थमेवादुष्टमेतदपि, तथा चोभयपदव्य |५८२॥ प्रथमनोयोगेन मनोशानिनामनुत्तराणां च । संशययुधिति केवलेन ज्ञात्वा सदा करोति ॥1॥ रिभितपदाक्षरसरला म्हेतरतियफखगी-1 परियामा । मनोनि पिणी वाणी योजनच्यापनी यस ॥२॥ एका चानेकेषो संपायच्युच्छेदनी अपरिभूतानि च निर्विद्यते भोता तृष्यति सायुपाऽपि ॥२॥ सर्वसुरेभ्योऽपि अधिकः कान्तश्च काययोगस्तस्य । तथापि च प्रशान्तरूपान् करोति सदा प्राणिसंघातान् ॥ ४॥ अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~ 301 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक भिचारेऽज्ञातज्ञापनार्थ च शास्त्रे विशेषणाभिधानमनुज्ञातमेव पूर्वमुनिभिरित्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ १॥ साम्प्रतं ध्यानलक्षणप्रतिपादनायाऽऽह विरमजायसाणं तं माणं जं चलं तवं चित्तं । तं होज भावणा या अणुपेहा या माहब चिंता ॥२॥ व्याख्या-'यदि'त्युदेशः स्थिर-निश्चलम् अध्यवसानं-मन एकाग्रतालम्बनमित्यर्थः, 'तदिति निर्देशे, 'ध्यान' प्रागनिरूपितशब्दार्थ, ततश्चैतदुक्तं भवति यत् स्थिरमध्यवसानं तयानमभिधीयते, 'यञ्चल मिति यत्पुनरनवस्थित तचित्त, तशीघतखिधा भवतीति दर्शयति-तनवेद्भावना वेति तच्चित्तं भवेद्भावना, भाव्यत इति भावना ध्याना भ्यासक्रियेत्यर्थः, या विभाषायाम्, 'अनुप्रेक्षा वेति' अनु-पश्चाभावे प्रेक्षणं प्रेक्षा, सा च स्मृतिध्यानाद् भ्रष्टस्य चित्तचेष्टेहास्यर्थः, वा पूर्ववत् 'अथवा चिन्ते ' ति अथवाशब्दः प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः चिन्तेति या खलूक्तप्रकारद्वयरहिता चिन्ता|मनेश्वष्टा सा चिन्तेति गाथार्थः॥२॥ इत्थं ध्यानलक्षणमोघतोऽभिधायाधुना ध्यानमेव कालस्वामिभ्यां निरूपयन्नाह तोमुत्तमे चित्तावस्थाणमेगवधूमि । छतमत्थाणं गाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ ३॥ ... व्याख्या-इह मुहूर्त:-सप्तसप्ततिलवप्रमाणः कालविशेषो भण्यते, उक्तं च-कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तंतु जाण समयं तु । समया य असंखेजा भवंति उसासनीसासा ॥ १॥ हहस्त अणवगलस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे दीप अनुक्रम [२१..] कालः परमनिस्बोअविभाज्यसामेव जानीहि समयं तु । समयावासंख्यया भवत इच्छासनिःश्वासी ॥॥ हृष्टस्यानवकारस्य निरूपक्लिष्टस्य जन्तोः । एक पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~302 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक-18ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति बुच्चइ ॥२॥ सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्तेप्रतिक्रम यियाहिए ॥३॥' अन्तर्मध्यकरणे, ततश्चान्तर्मुहूर्तमानं कालमिति गम्यते, मात्रशब्दस्तदधिककालव्यवच्छेदार्थः, ततश्च द्रीया भिन्नमुहूर्तमेव कालं, किं-चित्तावस्थान मिति चित्तस्य-मनसः अवस्थानं चित्तावस्थानम्, अवस्थितिः-अवस्थानं, शतकं ॥५८॥ निष्पकम्पतया वृत्तिरित्यर्थः, क?-' एकवस्तुनि' एकम्-अद्वितीयं वसन्त्यस्मिन् गुणपर्याया इति वस्तु-चेतनादि एक च तद्वस्तु एकवस्तु तस्मिन् २ 'छमस्थानां ध्यान मिति, तत्र छादयतीति छद्म-पिधानं तच्च ज्ञानादीनां गुणानामावारकत्वाहै ज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्म, छद्मनि स्थिताश्छदास्था अकेवलिन इत्यर्थः, तेषां छद्मस्थानां, 'ध्यान' प्राग्वत् , ततश्चा-4 यं समुदायार्थ:-अन्तर्मुहर्तकालं यचित्तावस्थानमेकस्मिन् वस्तुनि तच्छद्मस्थानां ध्यानमिति, 'योगनिरोधो जिनानां साविति तत्र योगा:-तत्त्वत औदारिकादिशरीरसंयोगसमुत्था आत्मपरिणामविशेषव्यापारा एव, यथोक्तम्-“ीदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽस्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवारद्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवब्यापारो मनोयोगः" इति, अमीषां निरोधो योगनिरोधः, निरोधनं निरोधः, प्रलयकरणमित्यर्थः, केषां ?-'जिनानां' केवलिना, तुशब्द एव-15 ॥५८३॥ कारार्थः स चावधारणे, योगनिरोध एव न तु चित्तावस्थानं, चित्तस्यैवाभावाद, अथवा योगनिरोधो जिनानामेव ध्यानं अचासनिधास एष प्राण इत्युच्यते ॥ २ ॥ सप्त प्राणास्ते सोके सप्त स्तोकास्ते लवे । लवानां सप्तसप्तत्वा एष माता व्याख्यातः ॥ ३॥ दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~303 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम नान्येपाम् , अशक्यत्वादिस्यले विस्तरेण, यथा चायं योगनिरोधो जिनानां ध्यानं यावन्तं च कालमेतनवत्येतदपरिष्टात& श्याम इति गाथार्थः॥३॥ साम्प्रतं छास्थानामन्तमुंहतोत् परतो यद्भवति तदुपदर्शयन्नाह अंतोमुत्तपरओ चिंता क्षाणतर व होजाहि । सुधिरपि होल बटुवायुसंकमे माणसंताणो ॥ ४ ॥ व्याख्या-'अन्तर्मुहूर्तात् परत' इति भिन्नमुहूर्तादूर्व 'चिन्ता' प्रागुक्तस्वरूपा तथा ध्यानान्तरं वा भवेत्, तत्रेह न ध्यानादन्यद् ध्यानं ध्यानान्तरं परिगृह्यते, किं तर्हि :-भावनानुप्रेक्षात्मक चेत इति, इदं च ध्यानान्तरं तदुत्तरकालभावि-| नि ध्याने सति भवति, तत्राप्ययमेव न्याय इतिकृत्वा ध्यानसन्तानप्राप्तिर्यतः अतस्तमेव कालमानं वस्तुसङ्कमद्वारेण निरूपयन्नाह-'मुचिरमपि' प्रभूतमपि, कालमिति गम्यते, भवेत् बहुवस्तुसङ्कमे सति 'ध्यानसन्तानः' ध्यानप्रवाह इति, तत्र बहूनि च तानि वस्तूनि २ आत्मगतपरगतानि गृह्यन्ते, तत्रात्मगतानि मनःप्रभृतीनि परगतानि द्रव्यादीनीति, तेषु सङ्कमः सञ्चरणमिति गाथार्थः ॥ ४ ॥ इत्थं तावत् सप्रसङ्गं ध्यानस्य सामान्येन लक्षणमुक्तम् , अधुना विशेषलक्षणाभिधित्सया ध्यानोद्देशं विशिष्टफलभावं च संक्षेपतः प्रदर्शयन्नाह भई रुई धर्म गुफ शाणाइ तत्थ अंताई । निनाणसाबणाई भवकारणमहरहाई ॥५॥ व्याख्या-आतै रौद्रं धय शुक्ल, तत्र ऋतं-दुःखं तन्निमित्तो दृढाध्यवसाया, ऋते भवमात क्लिष्टमित्यर्थः, हिंसाधति४ौर्यानुगतं रौद्र, श्रुतचरणधर्मानुगतं धर्य, शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा लमयतीति शुक्लम् , अमूनि ध्यानानि । वर्तन्ते, अधुना फलहेतुखमुपदर्शयति-तत्र' ध्यानचतुष्टये 'अन्त्ये' चरमे सूत्रक्रमप्रामाण्याद्धर्मशुक्ले इत्यर्थः, किं-'निर्वा [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~304 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत हारिभद्रीया सूत्रांक ॥५८४॥ णसाधने इह निवृतिः निर्वाणं-सामान्येन सुखमभिधीयते तस्य साधने-करणे इत्यर्थः, ततश्च-'अट्टेणं तिरिक्खगई कि रुद्दज्झाणेण गम्मती नरयं । धम्मेण देवलोयं सिद्धिगई सुकझाणेणं ॥१॥ति यदुक्तं तदपि न विरुध्यते, देवगतिसिद्धि-IMणाध्यानगत्योः सामान्येन सुखसिद्धेरिति, अथापि निर्वाणं मोक्षस्तथापि पारम्पर्येण धर्मध्यानस्यापि तत्साधनत्वादविरोध इति, शतकं तथा 'भवकारणमातरौद्रे' इति तत्र भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः-संसार एव, तथाऽप्यन्त्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः(तः)तिर्यग्नरकभवग्रह इति गाथार्थः ॥ ५॥ साम्प्रतं 'यथोद्देशस्तथा निर्देश' इति न्यायादार्तध्यानस्य स्वरूपाभिधानावसरः, तच्च स्वविषयलक्षणभेदतश्चतुर्दा, उक्तं च भगवता वाचकमुख्येन-"आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे| तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहारी ॥ वेदनायाश्च ॥ विपरीतं मनोज्ञादीनां ॥ निदानं च ॥ (तत्वा० अ०९ सू०३१-३२-1 ३३-३४) इत्यादि, तत्राऽऽद्यभेदप्रतिपादनायाह मणुषणाणं सदाइविसववरण दोसमहलस्स । धाणिय विमोचिंतणमसंपोगाणुसरणं च ॥६॥ व्याख्या-'अमनोज्ञाना'मिति मनसोऽनुकूलानि मनोज्ञानि इष्टानीत्यर्थःन मनोज्ञानि अमनोज्ञानि तेषां, केषामित्यत आह-'शब्दादिविषयवस्तूना मिति शब्दादयश्च ते विषयाश्च, आदिग्रहणाद्वर्णादिपरिग्रहः, विषीदन्ति एतेषु सक्काः प्राणिन इति विषया इन्द्रियगोचरा वा, वस्तूनि तु तदाधारभूतानि रासभादीनि, ततश्च-शब्दादिविषयाश्च वस्तूनि चेति | विग्रहस्तेषां, किं-प्तम्प्राप्तानां सतां 'धणियं' अत्यर्थं 'वियोगचिन्तन' विप्रयोगचिन्तेति योगः, कथं नु नाम ममैभिर्वि | ॥५८४॥ आरोन तिर्यगतिः रौद्ध्यानेन गम्यते नरकः । धर्मेण देवलोकः सिद्धिगतिः शुक्नध्यानेन ॥1॥ दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~305 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], OGA प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम योगः स्यादिति भावः १, अनेन वर्तमानकालग्रहः, तथा सति च वियोगेऽसम्प्रयोगानुस्मरण, कथमेभिः सदैव सम्पयोगाभाव इति ?, अनेन चानागतकालग्रहः, चशब्दात् पूर्वमपि वियुक्तासम्प्रयुक्तयोर्बहुमतत्वेनातीतकालग्रह इति, किंविशिष्टस्य |सत इदं वियोगचिन्तनाद्यत आह-द्वेषमलिनस्य' जन्तोरिति गम्यते, तत्राप्रीतिलक्षणो द्वेषस्तेन मलिनस्य-तदाक्रान्तमूर्ते-1 रिति गाथार्थः॥६॥ उक्तः प्रथमो भेदः, साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह ता सूलसीसरोगाइवेषणाए (लि) जोगपणिहाणं । तदसंपभोगविता तप्पडियाराग्लमणरस ॥ ७॥ . व्याख्या-तथेति धणियम्-अत्यर्थमेव, शूलशिरोरोगवेदनाया इत्यत्र शूलशिरोरोगी प्रसिद्धी, आदिशब्दाच्छेषरोमातङ्कपरिग्रहः, ततश्च शूलशिरोरोगादिभ्यो वेदना २, वेद्यत इति वेदना तस्याः, किं-वियोगप्रणिधान' वियोगे दृढाध्यवसाय इत्यर्थः, अनेन वर्तमानकालग्रहः, अनागतमधिकृत्याह-तदसम्प्रयोगचिन्ते'ति तस्याः-वेदनायाः कथञ्चिदभावे सत्यसम्प्रयोगचिन्ता, कथं पुनर्ममानया आयत्यां सम्प्रयोगो न स्यादिति ?, चिन्ता चात्र ध्यानमेव गृह्यते, अनेन च वर्तमानानागतकालग्रहणेनातीतकालग्रहोऽपि त एव वेदितव्यः, तत्र च भावनाऽनन्तरगाथायां कृतैव, किंविशिष्टस्य |सत इदं वियोगप्राणिधानाधत आह-तत्यतिकारे-वेदनाप्रतिकारे चिकित्सायामाकुल-ध्ययं मनः-अन्तःकरणं यस्य स तथाविधस्तस्य, वियोगप्रणिधानाचार्तध्यानमिति गाथार्थः ॥७॥ उक्तो द्वितीयो भेदः, साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयन्नाह इहाणं विसयाईण वेयणाए य रागरचरस । अवियोगजससाणं तह संजोगाभिलासोय ॥८॥ व्याख्या-'इष्टानां' मनोज्ञानां विषयादीनामिति विषयाः-पूर्वोक्ताः आदिशब्दाद् वस्तुपरिग्रहः, तथा 'वेदनायाश्च [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रमणाध्यान प्रत सूत्रांक दीप आवश्यक-दइष्टाया इति वर्तते, किम् ?-अबियोगाध्यवसानमिति योगः, अविप्रयोगहढाध्यवसाय इति भावः, अनेन वर्तमानकाल- हारिभ- ग्रहः, तथा संयोगाभिलापश्चेति, तत्र 'तथेति' धणियमित्यनेनात्यर्थप्रकारोपदर्शनार्थः, संयोगाभिलाप:-कथं ममभिर्विषया-14 द्रीया दिभिरायत्यां सम्बन्ध इतीच्छा, अनेन किलानागतकालग्रह इति वृद्धा व्याचक्षते, चशब्दात् पूर्ववदतीतकालग्रह इति, Iષ૮ किंविशिष्टस्य सत इदमवियोगाध्यवसानाद्यत आह-रागरक्तस्य, जन्तोरिति गम्यते, तत्राभिष्वङ्गलक्षणो रागस्तेन रक्तस्यतद्भावितमूर्तेरिति गाथार्थः ॥ ८॥ उक्तस्तृतीयो भेदः, साम्प्रतं चतुर्थमभिधित्सुराह देविदचकाचट्टित्तणाई गुणरिद्धिपत्यमईयं । अहम नियाचित्रणमण्णाणाणुगयमचंतं ॥५॥ व्याख्या-दीव्यन्तीति देवाः-भवनवास्थादयस्तेषामिन्द्रा:-प्रभवो देवेन्द्रा:-चमरादयः तथा चक्र-प्रहरणं तेन विजयाधिपत्ये वर्तितुं शीलमेषामिति चक्रवर्तिनो-भरतादयः, आदिशब्दावलदेवादिपरिग्रहः अमीषां गुणऋद्धयः देवेन्द्रचक्र-18 वादिगुणर्द्धयः, तत्र गुणाः-सुरूपादयः ऋद्धिस्तु विभूतिः, तत्प्रार्थनात्मकं तद्याञ्चामयमित्यर्थः, किं तद्-अधर्म'जघन्य | 'निदानचिंतन' निदानाध्यवसायः, अहमनेन तपस्त्यागादिना देवेन्द्रः स्यामित्यादिरूपः, आह-किमितीदमधमम् ?, उच्यते, यस्मादज्ञानानुगतमत्यन्तं, तथा च नाज्ञानिनो विहाय सांसारिकेषु सुखेष्वन्येषामभिलाष उपजायते, उक्तं च-'अज्ञाना-18 न्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते, कामे सतिं दधति विभवाभोगतुङ्गाजने वा । विद्वञ्चित्तं भवति च महत् मोक्षकाङ्क्षकतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कपत्यंसभित्तिं गजेन्द्रः॥१॥ इति गाथार्थः ॥९॥ उक्तश्चतुर्थो भेदः, साम्प्रतमिदं यथा-| भूतस्य भवति यर्द्धनं चेदमिति तदेतदभिधातुकाम आह SSC-CGACASSAX अनुक्रम [२१..] ५८५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक एवं चविहं रागवोसमोइंकियस्स जीवस्म । अल्माण संसारवणं तिरिवगइमूलं ॥१०॥ व्याख्या-'एतत् अनन्तरोदितं 'चतुर्विध चतुष्पकारं 'रागद्वेषमोहाङ्कितस्य' रागादिलामिछतस्येत्यर्थः, कस्य :'जीवस्य आत्मनः, किम् ?-आर्तध्यानमिति, तथा च इयं चतुष्टयस्यापि क्रिया, किंविशिष्टमित्यत आह-संसारवर्द्धन-1 मोघता, तिर्यग्गतिमूल विशेषत इति गाथार्थः ॥ १०॥ आह-साधोरपि शूलवेदनाभिभूतस्यासमाधानात् तत्प्रतिकारकरणे च तद्विप्रयोगप्रणिधानापत्तेः तथा तपःसंयमासेवने च नियमतः सांसारिकदुःखवियोगप्रणिधानादार्तध्यानप्राप्तिरिति, अत्रोच्यते, रागादिवशवर्तिनो भवत्येव, न पुनरन्यस्येति, आह च ग्रन्थकार: मन्मथस्स र मुषिणो सकम्मपरिणामजाणियमेयंति । वधुस्सभावचिंतणपरस्स समं सहतस्स ॥ १॥ व्याख्या-मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, रागद्वेषयोरिति गम्यते, तस्य मध्यस्थस्य, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, मध्यस्थस्यैव नेतरस्य, मन्यते जगतखिकालावस्थामिति मुनिस्तस्य मुनेः, साधोरित्यर्थः, स्वकर्मपरिणामजनितमेतत्-शूलादि, यच्च प्राकर्मविपरिणामिदैवादशुभमापतति न तत्र परितापाय भवन्ति सन्तः, उक्तं च परममुनिभिः-'पुर्वि खलु भो। कडाणं कम्माणं दुच्चिण्णाणं दुपडिकंताणं वेइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेदइत्ता, तवसा वा झोसइत्ते'त्यादि, एवं वस्तुस्वभावचिन्तनपरस्य 'सम्यक् शोभनाध्यवसायेन सहमानस्य सतः कुतोऽसमाधानम् ?, अपि तु धर्म्यमनिदानमिति वक्ष्यतीति गाथार्थः ॥११॥ परिहत आशङ्कागतः प्रथमपक्षः, द्वितीयतृतीयावधिकृत्याह पूर्व खलु भो। कृतानां कर्मणा दुवीर्णानां दुष्पतिकान्तानां वेदयित्वा मोक्षो नास्त्यचेदवित्वा तपसा पा क्षपयित्वा. दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रमणाध्यानशतकं प्रत सूत्रांक आवश्यक कुणनो व पसस्थालंपणरस परिवारमापसावज । तबसंजमपडियारं च सेवओ धम्ममणियाणं ॥१२॥ हारिभ- व्याख्या-कुर्वतो वा, कस्य ?-प्रशस्तं-ज्ञानाद्युपकारकम् आलम्च्यत इत्यालम्बन-प्रवृत्तिनिमित्तं शुभमध्यवसानमि- द्रीया दत्यर्थः, उक्तं च-काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं च णीती अणुसारवेरसं, सालंयसेवी समुवेइ ॥५८६॥ मोक्वं ॥१॥ इत्यादि, यस्थासौ प्रशस्तालम्बनस्तस्य, किं कुर्वत इत्यत आह-प्रतीकारं चिकित्सालक्षणं, किंविशिष्टम् - 'अल्पसावधम्' अवयं-पापं सहावोन सावद्यम्, अल्पशब्दोऽभाववचनः स्तोकवचनो वा, अल्पं सावधं यस्मिन्नसावल्प& सावधस्तं, धर्नामनिदानमेवति योगः, कुतः ?-निर्दोषत्वात् , निर्दोषत्वं च वचनप्रामाण्याद्, उक्तं च-गीयस्थो जयणाए कडजोगी कारणमि निद्दोसो'त्तीत्याद्यागमस्योत्सर्गापवादरूपत्वाद्, अन्यथा परलोकस्य साधयितुमशक्यत्वात्, साधु चैतदिति, तथा 'तपःसंयमप्रतिकारं च सेवमानस्येति तपःसंयमावेव प्रतिकारस्तपःसंयमप्रतिकारः, सांसारिकदुःखानामिति गम्यते, तं च सेवमानस्य, चशब्दात्पूर्वोकप्रतिकारं च, किं ?-'धौ धर्मध्यानमेव भवति, कथं सेवमानस्य ?-'अनिदान मिति क्रियाविशेषणं, देवेन्द्रादिनिदानरहितमित्यर्थः, आह-कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षो भवत्वितीदमपि निदानमेव, उच्यते, सत्यमेतदपि निश्चयतः प्रतिषिद्धमेव, कधं!-मोक्षे भवे च सर्वत्र, निस्पृहो मुनिसत्तमः। प्रकृत्याऽभ्यासयोगेन, यत उक्तो जिनागमे ॥१॥इति, तथापि तु भावनायामपरिणतं सत्त्वमङ्गीकृत्य व्यवहारत इदमदुष्टमेव, अनेनैव प्रकारेण तस्य करिष्याम्यवित्तिमथवाध्येश्ये तपापधानयोश्चोधंस्थामि । गणं च नीत्या सारयिष्यामि सालम्ब सेवी समुपैति मोक्षम् ॥1॥ गीतार्थों यतनया | कृतयोगी कारणे निर्दोषः. दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम चित्तशुद्धेः क्रियाप्रवृत्तियोगाचेत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥ १२ ॥ अन्ये पुनरिद 18 गाथाद्वयं चतुर्भेदमप्यार्तध्यानमधिकृत्य साधोः प्रतिषेधरूपतया व्याचक्षते, न च तदत्यन्तसुन्दरं, प्रथमतृतीयपक्षद्वये सम्यगाशङ्काया एवानुपपत्तेरिति । आह-उक्तं भवताऽऽर्तध्यानं संसारवर्द्धनमिति, तत्कथम् , उच्यते-बीजत्वात् , बीज-14 त्वमेव दर्शयन्नाह रागो दोसो मोहो व जेण संसारहेववो भणिया । अहमि य ते तिमिणवि तो त संसारतरुवीय ॥ १३ ॥ व्याख्या-रागो द्वेषो मोहश्च येन कारणेन 'संसारहेतवः' संसारकारणानि 'भणिता' उक्काः परममुनिभिरिति गम्यते, NI'आतें च' आर्तध्याने च ते 'त्रयोऽपि' रागादयः संभवन्ति, यत एवं ततस्तत् 'संसारतरुवीजं भववृक्षकारणमित्यर्थः। आह3 यद्येवमोघत एव संसारतरुवीज ततश्च तिर्यग्गतिमूलमिति किमर्थमभिधीयते ?, उच्यते, तिर्यग्गतिगमननिवन्धनत्वेनैव द्र संसारतरुवीजमिति, अन्ये तु व्याचक्षते-तिर्यग्गतावेव प्रभूतसत्त्वसम्भवात् स्थितिबहुत्वाच्च संसारोपचार इति गाथार्थः H॥१३॥ इदानीमार्तध्यायिनो लेश्याः प्रतिपाद्यन्ते कारोवनीक्षकालालेस्साओ पाइसंकिकिटाओ । महमाणोगियरस कमापरिणामजणिभाभो ॥ १४॥ __ व्याख्या-कापोतनीलकृष्णलेश्याः, किम्भूताः-'नातिसंक्लिष्टा रौद्रध्यानलेश्यापेक्षया नातीवाशुभानुभावा भवन्तीति क्रिया, कस्येत्यत आह-आर्तध्यानोपगतस्य, जन्तोरिति गम्यते, किंनिवन्धना एता इत्यत आह-कर्मपरिणामजनिता, तत्र-कृष्णादिद्रव्यसाचिच्यात् , परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥ एताः [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक कर्मोदयायत्ता इति गाथार्थः ॥ १४ ॥ आह-कथं पुनरोघत एवाऽऽर्तध्याता ज्ञायत इति ?, उच्यते, लिङ्गेभ्यः, तान्येवो- तिक्रमहारिभ- पदर्शयन्नाह णाध्यानद्रीया तस्सवणसोषणपरिदेवणताहणाई किंगाई । इहाणि विओगाविभोगवियणानिमित्ताई ॥ १५ ॥ शतक व्याख्या-तस्य' आर्तध्यायिनः आक्रन्दनादीनि लिङ्गानि, तत्राऽऽक्रन्दनं-महता शब्देन विरवर्ण, शोचनं त्वचुप॥५८७IR रिपूर्णनयनस्य दैन्यं परिदेवनं-पुनः२ क्लिष्टभाषणं ताडनम्-उरःशिरस्कुट्टनकेशलुञ्चनादि, एतानि 'लिङ्गानि' चिहानि, अमूनि च इष्टानिष्टवियोगावियोगवेदनानिमित्तानि, तवेष्टवियोगनिमित्तानि तथाऽनिष्टावियोगनिमित्तानि तथा वेदना-18 निमित्तानि चेति गाथार्थः ॥ १५ ॥ किं चान्यत् निंदा व निवकयाई पलंसह सजिम्हभो विभूईओ । पायेइ तासु रजह तयाणपरायणो होह ॥५॥ व्याख्या-निन्दति च' कुत्सति च 'निजकृतानि' आरमकृतानि अल्पफलविफलानि कर्मशिल्पकलावाणिज्यादीन्ये-11 तद्गम्यते, तथा 'प्रशंसति' स्तौति बहुमन्यते 'सविस्मयः' साश्चर्यः 'विभूती' परसम्पद इत्यर्थः, तथा 'प्रार्थयते' अभिलपति परविभूतीरिति, 'तासु रज्यते' तास्थिति प्राप्तासु विभूतिषुरागं गच्छति, तथा 'तदर्जनपरायणो भवति' तासां-विभूतीनामर्जने-उपादाने परायण-उद्युक्तः तदर्जनपरायण इति, ततश्चैवम्भूतो भवति, असावयार्तध्यायीति गाथार्थः ॥१६॥ किं च ५८७॥ साइविसथगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमाणपरो । जिणमयमणवेक्संतो वहह अहमि हामि ॥ १७ ॥ व्याख्या-शब्दादयश्च ते विषयाश्च तेषु गृद्धो-मूच्छितः कामावानित्यर्थः, तथा सद्धर्मपराङ्मुखः प्रमादपरः, तत्र दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ESCOCKRAM दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः सँश्चासौ धर्मश्च सद्धर्म:-क्षान्त्यादिकश्चरणधों गृह्यते ततः पराङ्मुखः, 'प्रमादपर' मद्यादिप्रमादासता, 'जिनमतमनपेक्षमाणो वर्तते आर्तध्याने' इति तत्र जिना:-तीर्थकरास्तेषां मतम्-आगमरूपं प्रवचनमित्यर्थः तदनपेक्षमाणः-तनिरपेक्ष इत्यर्थः, किम् ?-वर्त्तते आर्तध्याने इति गाथार्थः ॥१७॥ साम्प्रतमिदमार्तध्यान सम्भवमधिकृत्य यदनुगतं यदनह वर्तते तदेतदभिधित्सुराह तविश्वदेसपिरषा पमायपरसंजयाणुगं झाण । सञ्चप्पमायमूलं वजेय जइजणेणे ॥ १८ ॥ व्याख्या-'तद्' आर्तध्यानमिति योगः, 'अविरतदेशविरतप्रमादपरसंयतानुग'मिति तत्राविरता-मिथ्यादृष्टयः सम्य४ दृष्टयश्च देशविरता:-एकट्याद्यणुव्रतधरभेदाः श्रावकाः प्रमादपरा:-प्रमादनिष्ठाश्च ते संयताश्च २ ताननुगच्छतीति विग्रहः, नवाप्रमत्तसंयतानिति भावः, इदं च स्वरूपतः सर्वप्रमादमूलं वर्तते, यतश्चैवमतो 'वर्जयितव्यं' परित्यजनीय, केन ?-'यति-| जनेन' साधुलोकेन, उपलक्षणत्वात् श्रावकजनेन, परित्यागाईत्वादेवास्येति गाथार्थः ॥ १८ ॥ उक्तमार्तध्यानं, साम्प्रतं रौद्रध्यानावसरः, तदपि चतुर्विधमेव, तद्यथा-हिंसानुबन्धि मृषानुबन्धि स्तेयानुबन्धि विषयसंरक्षणानुबन्धि च, उक्कं चोमाखातिवाचकेन-"हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्र"मित्यादि (तत्त्वार्थे अ०९-सू०३६)॥ तत्राऽऽयभेद-18 प्रतिपादनायाह सत्तवायेहबंधणहर्णकणमारणाइपणिहानं । आइकोहमादयस्थं निविणमणसोऽहमविवागं ॥१९॥ व्याख्या-सया-एकेन्द्रियादयः तेषां वधवेधवन्धनदहनाङ्कनमारणादिप्रणिधानं तत्र वध:-ताडनं करकशखतादिभिः दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~312 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५८८॥ - -- - दीप वेधस्तु नासिकादिवेधन कीलिकादिभिः बन्धन-संयमनं रनिगडादिभिः दहनं-प्रतीतमुल्मुकादिभिः अङ्कन-लाभछन | प्रतिक्रमश्वगालचरणादिभिः मारणं-प्राणवियोजनमसिशक्तिकुन्तादिभिः, आदिशब्दादागाढपरितापनपाटनादिपरिग्रहा, एतेषुणाध्यानप्रणिधानम् अकुर्वतोऽपि करणं प्रति दृढाध्यवसानमित्यर्थः, प्रकरणाद् रौद्रध्यानमिति गम्यते, किंविशिष्टं प्रणिधानम् ?- शतक 'अतिक्रोधग्रहास्तम्' अतीवोत्कटो यः क्रोधः-रोषः स एवापायहेतुत्वादह इच ग्रहस्तेन ग्रस्तम्-अभिभूत, क्रोधग्रहणाच मानादयो गृह्यन्ते, किंविशिष्टस्य सत इदमित्यत आह-निघृणमनसः' निघृण-निर्गतदयं मनः-चित्तमन्तःकरणं यस्य स निघृणमनास्तस्य, तदेव विशेष्यते-'अधमविपाक'मिति अधमः-जघन्यो नरकादिप्राप्तिलक्षणो विपाकः-परिणामो यस्य तत्तथाविधमिति गाथार्थः ॥ १९ ॥ उक्तः प्रथमो भेदः, साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह पिखुणासम्भासम्भूपभूपधायाइवषणपणिहाणं । मायाविणोऽहसंधणपररस पच्छाधावस्स ॥ २० ॥ व्याख्या-'पिशुनासभ्यासद्भूतभूतघातादिवचनप्रणिधान'मित्यत्रानिष्टस्य सूचकं पिशुनं पिशुनमनिष्टसूचकं 'पिशुनं सूचकं विदु'रिति वचनात्, सभायां साधु सभ्यं न सभ्यमसभ्य-जकारमकारादिन सजूतमसद्भूतमनृतमित्यर्थः, तच्च व्यवहारमयदर्शनेनोपाधिभेदतनिधा, तद्यथा-अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवोऽर्थान्तराभिधानं चेति, तत्राभूतोदावनं यथासर्वगतोऽयमात्मेत्यादि, भूतनिहवस्तु नास्त्येवात्मेत्यादि, गामश्वमित्यादि अवतोऽर्थान्तराभिधानमिति, भूतानां-सत्वाना-IF५८८॥ मुपधातो यस्मिन् ततोपघातं, छिन्द्धि भिन्द्धि व्यापादय इत्यादि, आदिशब्दः प्रतिभेदं स्वगतानेकभेदप्रर्शनार्थः, यथापिशुनमनेकधाऽनिष्टसूचकमित्यादि, तत्र पिशुनादिवचनेष्वप्रवर्तमानस्यापि प्रवृत्तिं प्रति प्रणिधानं-दृढाध्यवसानलक्षणं, अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~313 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम पूरौद्रध्यानमिति प्रकरणागम्यते, किंविशिष्टस्य सत इत्यत आह-माया-निकृतिः साऽस्यास्तीति मायावी तस्य मायाविनो वणिजादेः, तथा 'अतिसन्धानपरस्य' परवचनाप्रवृत्तस्य,अनेनाशेषेष्वपि प्रवृत्तिमच्या(स्या)ह, तथा प्रच्छन्नपापस्य' कूटप्रयोगकारिणस्तस्यैव, अथवा धिग्जातिककुतीथिकादेरसद्भूतगुणं गुणवन्तमात्मानं ख्यापयतः, तथाहि-गुणरहितमप्यात्मानं यो गुणवन्तं ख्यापयति न तस्मादपरः प्रच्छन्नपापोऽस्तीति गाथार्थः॥२०॥ उक्तो द्वितीयो भेदः, साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयति वह तिनकोहलोहावलस्स भूओवधायणमणज । परदवहरणचित्तं परलोयावावनिरपेक्वं ॥ २७॥ व्याख्या-तथाशब्दो दृढाध्यवसायप्रकारसादृश्योपदर्शनार्थः, तीव्रौ-उत्कटौ तौ क्रोधलोभौ च २ ताभ्यामाकुल:अभिभूतस्तस्य, जन्तोरिति गम्यते, किं ?-'भूतोपहननमनार्य'मिति हन्यतेऽनेनेति हननम् उप-सामीप्येन हननम् उपहननं भूतानामुपहननं भूतोपहननम् , आराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्य नाऽऽयमनार्य, किं तदेवंविधमित्यत आह-परद्रव्यहरणचित, रौद्रध्यानमिति गम्यते, परेषां द्रव्यं २ सचित्तादि तद्विषयं हरणचित्तं२ परद्रव्यहरणचित्तं, तदेव विशेष्यतेकिम्भूतं तदित्यत आह-परलोकापायनिरपेक्ष मिति, तत्र परलोकापाया:-नरकगमनादयस्तन्निरपेक्षमिति गाथार्थः ॥ २१ ॥ उक्तस्तृतीयो भेदः, साम्प्रतं चतुर्थ भेदमुपदर्शयन्नाह सदाइविसयसाहणधणसारक्षणपरायणमणिई । सञ्चाभिसंकणपरोवधायकलुखावकं चितं ॥२२॥ व्याख्या-शब्दादयश्च ते विषयाश्च शब्दादिविषयास्तेषां साधनं-कारण शब्दादिविषयसाधनं च (तच्च) तद्धनं च शब्दा. (दिविषयसाधनधनं तत्संरक्षणे-तत्परिपालने परायणम्-उद्युक्तमिति विग्रहा,तथाऽनिष्टं-सतामनभिलषणीयमित्यर्थः, इदमेव [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3144 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम आवश्यक- विशेष्यते-सर्वेषामभिशङ्कनेनाकुलमिति संबध्यते-न विनः कः किं करिष्यतीत्यादिलक्षणेन, तस्मात्सर्वेषां यथाशक्त्यो प्रतिक्रमहारिभ पघात एव श्रेयानित्येवं परोपघातेन च, तथा कलुषयन्त्यात्मानमिति कलुषा:-कषायास्तैराकुलं-व्याप्तं यत् तत् तथोच्यते, णाध्यानद्रीया शतक चित्तम्-अन्तःकरणं, प्रकरणाद्रौद्रध्यानमिति गम्यते, इह च शब्दादिविषयसाधनं धनविशेषणं किल 'श्रावकस्य चैत्यध-टू 1५८९॥ नसंरक्षणे न रौद्रध्यानमिति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ २२ ॥ साम्प्रतं विशेषणाभिधानगर्भमुपसंहरनाह इब करणकारणाणुमा बिसयमशुचितणं भयम्भेयं । अविरयदेसासंजयजणमणसंसेवियमहष्ण ॥ २३॥ व्याख्या-'इय' एवं करणं स्वयमेव कारणमन्यैः कृतानुमोदनमनुमतिः करणं च कारणं चानुमतिश्च करणकारणा-13 नुमतयः एता एव विषयः-गोचरो यस्य तस्करणकारणानुमतिविषय, किमिदमित्यत आह-'अनुचिन्तनं' पर्यालोचनमि त्यर्थः, 'चतुर्भेद' इति हिंसानुबन्ध्यादि चतुष्प्रकारं, रौद्रध्यानमिति गम्यते, अधुनेदमेव स्वामिद्वारेण निरूपयति-अविदरताः-सम्यग्दृष्टयः, इतरे च देशासंयता:-श्रावकाः, अनेन सर्वसंयतव्यवच्छेदमाह, अविरतदेशासंयता एव जनाः २ तेषां मनांसि-चित्तानि तैः संसेवितं, सञ्चिन्तितमित्यर्थः, मनोग्रहणमित्यत्र ध्यानचिन्तायां प्रधानाङ्गख्यापनार्थम् , 'अधन्य'मित्यश्रेयस्कर पापं निन्द्यमिति गाथार्थः ॥२३॥ अधुनेदं यथाभूतस्य भवति यद्वर्द्धनं चेदमिति तदेतदभिधातुकाम आह एवं परवि रागदोसमोहाचकरस जीवरस । रोइज्मार्ण संसारखवणं गरगगइमूलं ॥ २४ ॥ व्याख्या-'एतद्' अनन्तरोक 'चतुर्विध चतुष्प्रकार रागद्वेषमोहाङ्कितस्य आकुलस्य वेति पाठान्तरं, कस्य ?-'जीवस्य' CAREERASACSCRACY [२१..] ॥५८९॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत ॐ455-% CE%E सूत्रांक आत्मनः, किं-रौद्रध्यानमिति, इयमत्र चतुष्टयस्यापि क्रिया, किंविशिष्टमिदमित्यत आह-'संसारवर्द्धनम्' ओषतः 'नर-1 कगतिमूलं' विशेषत इति गाथार्थः ॥ २४ ॥ साम्प्रतं रौद्रध्यायिनो लेश्याः प्रतिपाद्यन्ते कायोपनीलकाला लेसाभो तिवसंकिलिहाओ। रोहझागोवगयस्स कम्मपरिणामजाणियाओ ॥२५॥ व्याख्या-पूर्ववद् व्याख्येया, एतावाँस्तु विशेषः-तीनसंक्लिष्टाः-अतिसंक्लिष्टा एता इति, आह-कथं पुनः रौद्रध्यायी ज्ञायत इति !, उच्यते, लिङ्गेभ्यः, तान्येवोपदर्शयति लिंगाई तस्स असण्णपालनाणाविहामरणदोसा । वेसि चिय हिंसादसु बाहिरकरणोयउत्तरस ॥ २६ ॥ व्याख्या-लिङ्गानि' चिह्नानि 'तस्य' रौद्रध्यायिनः, 'उत्सन्नबहुलनानाविधामरणदोषा' इत्यत्र दोषशब्दः प्रत्येकम| भिसंबध्यते, उत्सन्नदोषः बहुलदोषः नानाविधदोषः आमरणदोषश्चेति, तत्र हिंसानुबन्ध्यादीनामन्यतरस्मिन् प्रवर्तमान उत्सन्नम्-अनुपरतं बाहुल्येन प्रवर्तते इत्युत्सन्नदोषः, सर्वेष्वपि चैवमेव प्रवर्तत इति बहुलदोषः, नानाविधेषु त्वक्त्वक्षणनयनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेष्वसकृदप्येवं प्रवर्तत इति नानाविधदोषः, महदापद्गतोऽपि स्वतः महदापद्गतेऽपि च परे| आमरणादसञ्जातानुतापः कालसौकरिकवद् अपि त्वसमाप्तानुतापानुशयपर इत्यामरणदोष इति तेष्वेव हिंसादिषु, आदिशब्दान्मृषावादादिपरिग्रहः, ततश्च तेष्वेव हिंसानुबन्ध्यादिषु चतुर्भेदेषु, किं ? बाह्यकरणोपयुक्तस्य सत उत्सनादिदोषलिझानीति, बाह्यकरणशब्देनेह वाकायौ गृह्येते, ततश्च ताभ्यामपि तीव्रमुपयुक्तस्येति गाथार्थः ॥ किंच परपसणं महिनंदह निरवेषसो निहो निरणुतायो । हरिसिजा कयपायो रोइज्माणोवगवितो ॥ २७ ॥ दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~316 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभद्रीया ॥५९०॥ प्रतिक्रमणाध्यान प्रत शतक सूत्रांक SANSARKAROGRAM दीप व्याख्या-दहाऽऽरमव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परस्तस्य व्यसनम्-आपत् परब्यसनं तद् 'अभिनन्दति' अतिक्लिष्टचित्त- त्वाद्वहु मन्यत इत्यर्थः, शोभनमिदं यदेतदित्थं संवृत्तमिति, तथा 'निरपेक्ष' इहान्यभविकापायभयरहितः, तथा निर्गतदयो निर्दयः, परानुकम्पाशून्य इत्यर्थः, तथा निर्गतानुतापो निरनुतापः, पश्चात्तापरहित इति भावः, तथा किंच-दृष्यते' तुष्यति 'कृतपापः' निर्वर्तितपापः सिंहमारकवत्, क इत्यत आह-रौद्रध्यानोपगचित्त इति, अमूनि च लिङ्गानि वर्तन्त | इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ उक्तं रौद्रध्यानं, साम्प्रतं धर्मध्यानावसरः, तत्र तदभिधित्सयवादाविदं द्वारगाथाद्वयमाह माणस भावणाभो देख कालं तहाऽऽखणबिसेसं । मालंबणं कर्म झाइयवयं ने य सायारो ॥ २८ ॥ ततोऽणुप्पदामो लेस्सा लिग फलं च नाकणं । धम्म प्राइज मुणी तगयज्ञोगो तभी मुकं ॥ २९ ॥ व्याख्या-'ध्यानस्य' प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, कि?-भावना ज्ञानाद्याः, ज्ञात्वेति योगः, किंच-'देशं तदुचितं, काला तथा आसनविशेषं तदुचितमिति, 'आलम्बनं' वाचनादि, 'क्रम' मनोनिरोधादि, तथा 'ध्यातव्यं ध्येयमाज्ञादि, तथा ये| |च 'ध्यातार!' अप्रमादादियुक्ताः, ततः 'अनुप्रेक्षा' ध्यानोपरमकालभाविन्योऽनित्यत्वाद्यालोचनारूपाः, तथा 'लेश्या' शुद्धा एव, तथा 'लिङ्गं श्रद्धानादि, तथा 'फलं' सुरलोकादि, चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनपरः, एतद् ज्ञात्वा, किं'धर्म्यम्' इति धर्मध्यानं ध्यायेन्मुनिरिति, 'तत्कृतयोगः' धर्मध्यानकृताभ्यासः, 'ततः' पश्चात् शुक्लध्यानमिति गाथाद्वयसमासार्थः ॥ २८-२९ ।। व्यासार्थ तु प्रतिद्वारं ग्रन्थकारः स्वयमेव वक्ष्यति, तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह धकषवभासो भावणाहि झाकस्स जोगयमुवेइ । ताओ य नाणसण परित्तवेरगजणियामओ ॥३०॥ अनुक्रम [२१..] ॥५९०॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक MC4 A व्याख्या-पूर्व-ध्यानात् प्रथमं कृता-निर्वतितोऽभ्यासः-आसेवनालक्षणो येन स तथाविधः, काभिः पूर्वकृताभ्यासः - भावनाभिः' करणभूताभिः भावनासु वा-भावनाविषये पश्चादू 'ध्यानस्य अधिकृतस्य 'योग्यताम्' अनुरूपताम् 'उपैति' यातीत्यर्थः, 'ताश्च' भावना ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्यनियता वर्तन्ते, नियता:-परिच्छिन्नाः पाठान्तरं वा| जनिता इति गाथार्थः ॥ ३०॥ साम्प्रतं ज्ञानभावनास्वरूपगुणदर्शनायेदमाह णाणे विचम्भासो कुणद मणोधारणं विसुद्धिं च । नाणगुणमुणियसारो तो साद सुनिश्चलमईयो ॥३१॥ व्याख्या-'ज्ञाने' श्रुतज्ञाने, नित्य-सदा अभ्यास:-आसेवनालक्षणः 'करोति' निर्वर्तयति, किं ?-मनसः--अन्तःकर-| णस्य, चेतस इत्यर्थः, धारणम्-अशुभव्यापारनिरोधेनावस्थानमिति भावना, तथा 'विशुद्धिं च तत्र विशोधनं विशुद्धिः, सूत्रार्थयोरिति गम्यते, तां, चशब्दाद्भवनिर्वेदं च, एवं 'ज्ञानगुणमुणितसार' इति ज्ञानेन गुणानां-जीवाजीवाश्रितानां 'गुणपर्यायवत् द्रव्य मिति (तत्त्वा० अ०५ सू० ३७) वचनात् पर्यायाणां च तदविनाभाविना मुणित:-ज्ञातः सार:परमार्थों येन स तथोच्यते, ज्ञानगुणेन वा-ज्ञानमाहात्म्येनेति भावः ज्ञातः सारो येन, विश्वस्येति गम्यते, स तथाविधः, ततश्च पश्चाद् ध्यायति' चिन्तयति, किंविशिष्टः सन् १-सुष्टु-अतिशयेन निश्चला-निष्पकम्पा सम्यग्ज्ञानतोऽन्यथाप्रबृत्तिकम्परहितेति भावः मतिः-युद्धिर्यस्य स तथाविध इति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ उक्ता ज्ञानभावना, साम्पतं दर्शनभावना-1 स्वरूपगुणदर्शनार्थमिदमाह संकाइदोसरहिमो पसमशेजाइगुणगगोवेभो होइ असंमूदमणो ईसणसुदी झाणं मि ॥ ३२ ॥ % दीप अनुक्रम [२१..] % 1- 52-50-50+91- 552 4 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक हारिभ प्रत द्रीया शतकं सूत्रांक व्याख्या-'शङ्कादिदोषरहितः' शङ्कन-शङ्का, आदिशब्दात् काङ्गादिपरिग्रहः, उक्तं च-'शङ्काकासाविचिकित्साऽन्य- प्रतिक्रमदृष्टिप्रशंसापरपाषण्डसंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ( तत्वा० अ०१सू०१८)इति, एतेषां च स्वरूपं प्रत्याख्यानाध्ययनेणाध्यानन्यक्षेण वक्ष्यामः, तत्र शङ्कादय एव सम्यक्त्वाख्यप्रथमगुणातिचारत्वात् दोषाः शङ्कादिदोषास्तैः रहितः-त्यक्ता, उक्तदोपरहितत्वादेव, किं -'प्रश(श्र)मस्थैर्यादिगुणगणोपेतः' तत्र प्रकर्षेण श्रमः प्रश्रमः-खेदः, स च स्वपरसमयतत्त्वाधिगमरूपः, | स्थैर्य तु जिनशासने निष्पकम्पता, आदिशब्दात्प्रभावनादिपरिग्रहः, उक्तं च-सपरसमयकोसलं थिरया जिणसासणे' पभावणया । आययणसेव भत्ती दसणदीवा गुणा पंच ॥ १॥ प्रश्रमस्थयोदय एव गुणास्तेषां गणः-समूहस्तेनोपेतो-युक्तो यः स तथाविधा, अथवा प्रशमादिना स्थैर्यादिना च गुणगणेनोपेतः २, तत्र प्रशमादिगुणगणः-प्रशमर्सवेगनिर्वेदानुक-1 म्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणः, स्थैर्यादिस्तु दर्शित एव, य इत्थम्भूतः असौ भवति 'असम्मूढमनाः' तत्त्वान्तरेऽभ्रान्तचित्त इत्यर्थः, 'दर्शनशुद्ध्या' उक्तलक्षणया हेतुभूतया, क?-ध्यान इति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ उक्ता दर्शनभावना, साम्प्रतं चारित्रभावनास्वरूपगुणदर्शनायेदमाह नवकम्माणायाणं पोराणविणिज सुभावार्ण । चारित्तभाषणाए माणमयत्तेना व समेच ॥ ३३ ॥ व्याख्या-नवकर्मणामनादान'मिति नवानि-उपचीयमानानि प्रत्यग्राणि भण्यन्ते, क्रियन्त इति कर्माणि-ज्ञानाव-17 ॥५९२॥ रणीयादीनि तेषामनादानम्-अग्रहणं चारित्रभावनया 'समेति' गच्छतीति योगः, तथा 'पुराणविनिर्जरां' चिरन्तनक्षपणा खपरसमयकौशल स्थिरता जिनशासने प्रभावना । आयतनसेवा भक्तिः दर्शनदीपका गुणाः पञ्च ॥३॥ दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक मित्यर्थः, तथा शुभादान'मिति शुभं-पुण्यं सातसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्रात्मक तस्याऽऽदान-ग्रहणं, किं-'चारित्रभावनया' हेतुभूतया, ध्यानं च चशब्दान्नवकर्मानादानादि च 'अयलेन' अक्लेशेन 'समेति' गच्छति प्रामो-14 तीत्यर्थः । तत्र चारित्रभावनयेति कोऽर्थः -'चर गतिभक्षणयोः' इत्यस्य 'अर्तिलूधूसूखनिसहिचर इत्रन्' (पा०३-२दि २८४) इतीत्रन्प्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति भवति, चरन्त्यनन्दितमनेनेति चरित्रं-क्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रम् , एत दुक्तं भवति-इहान्यजन्मोपात्ताष्टविधकर्मसञ्चयापचयाय चरणभावश्चारित्रमिति, सर्वसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपा क्रिया | इत्यर्थः, तस्य भावना-अभ्यासश्चारित्रभावनेति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ उक्ता चारित्रभावना, साम्प्रतं वैराग्यभावनास्वरूप-16 गुणदर्शनार्थमाह सुविदियजगस्तभावो निस्संगो निभो निरासो य । वेरम्पभावियमणो झाणमि मुनिश्चलो होइ ॥ ३४ ॥ व्याख्या-सुप्तु-अतीव विदितः-ज्ञातो जगतः-चराचरस्य, यथोक्तं-'जगन्ति जङ्गमान्याहुर्जगद् ज्ञेयं चराचरम्' स्थो| भावः स्वभावः,-'जन्म मरणाय नियतं वन्धुर्तुःखाय धनमनिवृतये । तन्नास्ति यन्न विपदे तथापि लोको निरालोकः ॥१॥ इत्यादिलक्षणो येन स तथाविधः, कदाचिदेवम्भूतोऽपि कर्मपरिणतिवशात्ससङ्गो भवत्यत आह-'निःसङ्गः' विषयजस्नेह सङ्गरहितः, एवम्भूतोऽपि च कदाचित्सभयो भवत्यत आह-निर्भयः' इहलोकादिसप्तभयविप्रमुक्तः, कदाचिदेवम्भूतोऽपि x विशिष्टपरिणत्यभावात्परलोकमधिकृत्य साशंसो भवत्यत आह-'निराशंसश्च' इहपरलोकाशंसाविप्रमुक्त, चशब्दात्तथावि-18 धक्रोधादिरहितश्च, य एवंविधो वैराग्यभावितमना भवति स खल्वज्ञानाद्युपद्रवरहितत्वाद् ध्याने सुनिश्चलो भवतीति दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रमणाध्यानशतक प्रत सूत्रांक आवश्यक- गाथार्थः ॥ ३४ ॥ उक्ता वैराग्यभावना । मूलद्वारगाथाद्वये ध्यानस्य भावना इति व्याख्यातम् , अधुना देशद्वारव्याचि- हारिभ ख्यासयाऽऽहद्रीया निचं पिय जवापसूनसगकुसीलवजिपं जहणो । ठाणं वियर्ण भणिय विसेसओ माणकालंमि ॥ ३५ ॥ १५९२॥ व्याख्या-'नित्यमेव' सर्वकालमेष, न केवलं ध्यानकाल इति, किं ?-'युवतिपशुनपुंसककुशीलपरिवर्जितं यतेः स्थान विजनं भणित'मिति, तत्र युवतिशब्देन मनुष्यत्री देवी च परिगृह्यते, पशुशब्देन तु तिर्यस्त्रीति नपुंसक-प्रतीतं कुत्सित-निन्दितं शील-वृत्तं येषां ते कुशीलाः, ते च तथाविधा द्यूतकारादयः, उक्तं च-'जूायरसोलमेंठा बट्टा उम्भायगादिणो जे य । एए होति कुसीला वजेयवा पयत्तेणं ॥१॥ युवतिश्च पशुश्चेत्यादि द्वन्द्वः, युवत्यादिभिः परि-समन्तात् वर्जित-रहितमिति विग्रहः, यतेः-तपस्विनः साधो, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण'मिति साव्याश्च योग्यं यतिनपुंसकस्य भाच, किं-स्थानम्-अवकाशलक्षणं, तदेव विशेष्यते-युवत्यादिव्यतिरिक्तशेषजनापेक्षया विगतजनं विजन भणितम्-उक्तं तीर्थकरैर्गणधरैश्चेदमेवम्भूतं नित्यमेव, अन्यत्र प्रवचनोकदोषसम्भवात् , विशेषतो ध्यानकाल इत्यपरिणतयोगादिनाऽन्यत्र ध्यानस्याऽऽराधयितुमशक्यत्वादिति गाधार्थः ॥ ३५ ।। इत्थं तावदपरिणतयोगादीनां स्थानमुक्तम् , अधुना परिणतयोगादीनधिकृत्य विशेषमाह धिरकषजोगाणं पुण मुणीण साणे मुनिचलमणाणं । गामि जणादण्णे सुण्णे रणे पण विसेसो ॥२५॥ १ शूतकाराः कलाला मेयाश्चहा उहागका इत्यादयो ये च । एते भवन्ति शीला वर्जवितम्पाः प्रयोग ॥१॥ दीप अनुक्रम [२१..] ॥५९२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक व्याख्या-तत्र स्थिरा:-संहननधृतिभ्यां बलवन्त उच्यन्ते, कृता-निर्वतिता अभ्यस्ता इतियावत्, के ?-युज्यन्त इति योगा:-ज्ञानादिभावनाव्यापाराः सत्त्वसूत्रतपःप्रभृतयो वा वैस्ते कृतयोगाः, स्थिराश्च ते कृतयोगाश्चेति विग्रहस्तेषाम् , द अत्र च स्थिरकृतयोगयोश्चतुर्भङ्गी भवति, तद्यथा-थिरे णामेगे णो कयजोगे'इत्यादि, स्थिरावा--पौनःपुन्यकरणेन परिचि ताः कृता योगा यैस्ते तथाविधास्तेषां, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि!-तृतीयभङ्गवतां न शेषाणां, स्वभ्यस्तयोगाना वा मुनीनामिति, मन्यन्ते जीवादीन् पदार्थानिति मुनयो-विपश्चित्साधवस्तेषां च, तथा ध्याने-अधिकृत एव धर्मध्याने सुष्टु-अतिशयेन निश्चलं-निष्प्रकम्पं मनो येषां ते तथाविधास्तेषाम् , एवंविधानां स्थानं प्रति ग्राम जनाकीणे शून्येऽरण्ये वा न विशेष इति, तत्र असति बुझ्यादीन गुणान् गम्यो वा करादीनामिति ग्रामः-सन्निवेशविशेषः, इह 'एकग्रहणे तज्जाINIतीयग्रहणा'नगरखेटकर्षटादिपरिग्रह इति, जनाकीणे-जनाकुले ग्राम एवोद्यानादी वा, तथा शून्ये तस्मिन्नेवारण्ये वा कान्तारे वेति, वा विकल्पे, न विशेषो-न भेदः, सर्वत्र तुल्यभावत्वात्परिणतत्वात्तेषामिति गाथार्थः ॥ ३६॥ यतश्चैव जो (तो) जस्य समाहाणं होज मणोययणकायजोगाणं । भूओवरोहरहिमओ सो देसो झायमाणस ॥३॥ ___ व्याख्या-यत एव तदुक्तं 'ततः तस्मारकारणाद् 'यत्र' ग्रामादौ स्थाने 'समाधान' स्वास्थ्य भवति' जायते, केषा-14 मित्यत आह-'मनोवाकाययोगानां' प्राग्निरूपितस्वरूपाणामिति, आह-मनोयोगसमाधानमस्तु, वाकाययोगसमाधानं तत्र कोपयुज्यते !, न हि तन्मयं ध्यानं भवति, अत्रोच्यते, तत्समाधानं तावन्मनोयोगोपकारकं, ध्यानमपि च तदात्मकं भव-13 दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~322 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रम शतकं प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यक-दत्येव, यथोक्तम्-एवंविहा गिरा मे वत्तवा एरिसी न वत्तथा । इय वेयालियवकरस भासओ वाइगं झाणं ॥१॥ तथा- हारिभ- 'सुसमाहियकरपायस्स अकजे कारणमि जयणाए । किरियाकरणं जंतं काइयझाणं भवे जइणो ॥२॥न चात्र समाद्रीया धानमात्रकारित्वमेव गृह्यते, किन्तु भूतोपरोधरहितः, तत्र भूतानि-पृथिव्यादीनि उपरोधः-तत्सकहनादिलक्षणः तेन ॥५९३॥ रहितः-परित्यक्तो यः 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणाद' अनृतादत्तादानमैथुनपरिग्रहाद्युपरोधरहितश्च स देशो 'ध्यायतः' चिन्तयता, उचित इति शेषः, अयं गाथार्थः ॥ ३७ ॥ गतं देशद्वारम् , अधुना कालद्वारमभिधित्सुराह कालोऽवि सोचिय जदि जोगसमाहाणमुत्तमं लहछ । न उ दिवसनिसावेलाइनियमणं सादगो भणियं ॥ ३८ ॥ व्याख्या-कलनं कालः कलासमूहो वा कालः, स चार्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यगतिक्रियोपलक्षितो दिवसादिरवसेयः, अपिशब्दो देशानियमेन तुल्यत्वसम्भावनार्थः, तथा चाह-कालोऽपि स एव, ध्यानोचित इति गम्यते, 'यत्र' काले 'योगसमाधान' मनोयोगादिस्वास्थ्यम् 'उत्तम प्रधानं 'लभते' प्राप्नोति, 'नतुन पुनर्नेव च, तुशब्दस्य पुनःशब्दा-1 र्थत्वादेवकारार्थत्वादा, किं-दिवसनिशावेलादिनियमनं ध्यायिनो भणितमिति, दिवसनिशे प्रतीते, वेला सामान्यत एव, तदेकदेशो मुहुर्तादिः, आदिशब्दात् पूर्वाहापराहादि वा, एतनियमनं दिवैवेत्यादिलक्षणं, ध्यायिनः-सत्वस्य भणितम्-1 उक्त तीर्थकरगणधरैनैवेति गाथाः ॥ ३८॥ गतं कालद्वारं, साम्प्रतमासनविशेषद्वारं व्याचिख्यासयाऽऽह एवंविधाः गीर्मया वक्तव्येप्पी न बक्तम्या । इति विचारितवाक्यस्य भाषमाणस्थ बाचिकं भयानम् ॥1॥सुसमाहितकरपादस्याकार्ये कारणे यतनया। कियाकरणं यतकायिक भवेत् पतेः ध्यान ॥२॥ दीप अनुक्रम [२१..] ५९३॥ G0% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम जशिय देहावरमा जिया ण प्राणोवरोहिणी होइ । झाइजा तदवस्थो ठिमओ निसण्णो निषण्णो वा ॥३९॥ व्याख्या-इहैव या काचिद् 'देहावस्था' शरीरावस्था निषण्णादिरूपा, किं?-'जिता' इत्यभ्यस्ता उचिता वा, तथाऽनुष्ठीयमाना 'न ध्यानोपरोधिनी भवति' नाधिकृतधर्मध्यामपीडाकरी भवतीत्यर्थः, 'ध्यायेत् तदवस्थ' इति सैवावस्था यस्य स तदवस्थः, तामेव विशेषतः प्राह-'स्थितः' कायोत्सर्गेणेपन्नतादिना 'निषण्णः उपविष्टो वीरासनादिना निर्विष्णः सन्निविष्टो दण्डायतादिना 'वा' विभाषायामिति गाथार्थः॥३९॥आह-किं पुनरयं देशकालासनानामनियम इति , अनोच्यते, समासु पदमाणा गुणओ जं देसकालचेद्वासु । वरकेचलाइलाभ पता बदुखो समिक्षावा ॥ ४० ॥ व्याख्या-'सर्वासु' इत्यशेषासु, देशकालचेष्टासु इति योगः, चेष्टा-देहावस्था, किं-वर्तमानाः' अवस्थिताः, के ?'मुनयः' प्रानिरूपितशब्दार्थाः 'यद्' यस्मात्कारणात् , किं ?-वर:-प्रधानश्चासौ केवलादिलाभश्च २ तं प्राप्ता इति, आदिशब्दान्मनःपर्यायज्ञानादिपरिग्रहः, किं सकृदेव प्राप्ताः १, न, केवल वर्ज 'बहुशः' अनेकशः, किंविशिष्टाः-शान्तपापा' तत्र पातयति नरकादिध्विति पापं शान्तम्-उपशमं नीतं पापं यैस्ते तथाविधा इति गाधार्थः॥४०॥ तो देखकालचेद्वानियमो झाणस नस्थि समयंमि । जोगाण समाहाणं जह होइ तहा ()पदय ॥ १॥ व्याख्या-यस्मादिति पूर्वगाथायामुक्तं तेन सहास्याभिसम्बन्धः, तस्मादेशकालचेष्टानियमो ध्यानस्य 'नास्ति' न| विद्यते, क-'समये' आगमे, किन्तु 'योगानां' मनःप्रभृतीनां 'समाधान' पूर्वोक्तं यथा भवति तथा (4) 'यतितव्यं' (प्र)यतः कार्य इत्यत्र नियम एवेति गाथार्थः॥४१॥ गतमासनद्वारम् , अधुनाऽऽ लम्बनद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~324 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], ARA प्रत सूत्रांक [सू...] * आवश्यक आलंबणा चायणपुष्णपरिवहणाणुचिताओ । सामाझ्याइयाई सबम्मावस्सयाई च ॥ ४ ॥ प्रतिक्रमहारिभ- व्याख्या-इहधर्मध्यानारोहणार्थमालम्ब्यन्त इत्यालम्बनानि वाचनाप्रश्नपरावर्तनानुचिन्ता' इति तत्र वाचनं वाचना, णाध्यानद्रीया विनेयाय निर्जरायै सूत्रादिदानमित्यर्थः, शङ्किते सूत्रादौ संशयापनोदाय गुरुप्रच्छनं प्रश्न इति, परावर्तनं तु पूर्वाधीतस्यैव शतकं सूत्रादेरविस्मरणनिर्जरानिमित्तमभ्यासकरणमिति, अनुचिन्तनम् अनुचिन्ता मनसैवाविस्मरणादिनिमित्तं सूत्रानुस्मरण- ॥५९४॥ ४ मित्यर्थः, वाचना च प्रश्नश्चेत्यादि द्वन्द्वः, एतानि च श्रुतधर्मानुगतानि वर्तन्ते, तथा सामायिकादीनि सद्धर्मावश्यकानि3 चेति, अमूनि तु चरणधर्मानुगतानि वर्तन्ते, सामायिकमादौ येषां तानि सामायिकादीनि, तब सामायिक प्रतीतम् , आदिशब्दान्मुखवत्रिकाप्रत्युपेक्षणादिलक्षणसकलचक्रवालसामाचारीपरिग्रहो यावत् पुनरपि सामायिकमिति, एतान्येव विधिवदासेव्यमानानि सन्ति-शोभनानि सन्ति च तानि चारित्रधर्मावश्यकानि चेति विग्रहः, आवश्यकानि-नियमतः करणीयानि, चः समुच्चये इति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ साम्प्रतममीषामेवाऽऽलम्बनत्वे निवन्धनमाह विसमंमि समारोहह दवदवालंपणो जहा पुरिसो । सुत्ताहकवाल यो सहशाणवर समारद ॥॥ व्याख्या-'विषमे निम्ने दुस्सबरे 'समारोहति' सम्यगपरिक्लेशेनोय याति, कः-दृढ़-पलवद्रव्यं रज्ज्वाद्यालम्बनं यस्य स तथाविधः, यथा 'पुरुषः पुमान् कश्चित् , सूत्रादिकृतालम्बनः' वाचनादिकृतालम्बन इत्यर्थः, 'तथा' तेनैव प्रका-18५९४॥ हारेण 'ध्यानवर' धर्मध्यानमित्यर्थः, समारोहतीति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ गतमालम्बनद्वारम्, अधुना क्रमद्वारावसरः, तत्र लापवार्थ धर्मस्य शुक्लस्य च (तं) प्रतिपादयन्नाह दीप 294 अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], + प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम माणपदिवत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईयो । भवकाले केवलिणो सेसाण जहासमादीए ॥ ४ ॥ व्याख्या-ध्यान-प्राग्निरूपितशब्दार्थं तस्य प्रतिपत्तिक्रम इति समासः, प्रतिपत्तिक्रमः-प्रतिपत्तिपरिपाव्यभिधीयते. स च भवति मनोयोगनिग्रहादिः, तत्र प्रथम मनोयोगनिग्रहः ततो वाग्योगनिग्रहः ततः काययोगनिग्रह इति, किमयं 5. दि सामान्येन सर्वथैवेत्थम्भूतः क्रमो?, न, किन्तु भवकाले केवलिनः, अत्र भवकाल शब्देन मोक्षगमनप्रत्यासन्नः अन्तर्मु हूर्तप्रमाण एव शैलेश्यवस्थान्तर्गतः परिगृह्यते, केवलमस्यास्तीति केवली तस्य, शुक्लध्यान एवायं क्रमः, शेषस्यान्यस्य धर्म ध्यानप्रतिपत्तुर्योगकालावाश्रित्य किं १-'यथासमाधिने ति यथैव स्वास्थ्यं भवति तथैव प्रतिपत्तिरिति गाथार्थः ॥४४॥ ४ि गतं क्रमद्वारम् , इदानीं ध्यातव्यमुच्यते, तच्चतुर्भेदमाज्ञादिः, उक्तं च-"आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धये' (तत्त्वाधे अ०९सू०३७) मित्यादि, तत्राऽऽद्यभेदमतिपादनायाह सुनिष्णमणाणिहर्ण भूषहियं भूषभावणमहन्ध । अमियमजियं महाभं महाशुभावं महाधिसय ॥ ४५ ॥ व्याख्या-सुष्टु-अतीव निपुणा-कुशला सुनिपुणा ताम् , आज्ञामिति योगः, नैपुण्यं पुनः सूक्ष्मद्रव्याधुपदर्शकत्वातत्तथा मत्यादिप्रतिपादकत्वाच्च, उक्कं च-'सुयनाणंमि नेउण्णं, केवले तयणंतरं । अप्पणो सेसगाणं च, जम्हा तं परिभा वगं ॥१॥ इत्यादि, इत्थं सुनिपुणां ध्यायेत् , तथा 'अनाद्यनिधनाम्' अनुत्पन्नशाश्वतामित्यर्थः, अनाधनिधनत्वं च द्रव्याद्यपेक्षयेति, उक्तं च-"द्रव्यार्थादेशादित्येपा द्वादशाङ्गीन कदाचिन्नासी"दित्यादि, तथा 'भूतहिता मिति इह भूत-1 वतशाने नैपुण्य केवळे तदनन्तरम् । भाग्मनः शेषकाणां च यथावत् परिभाषकम (प्रकाशकम) 1॥ [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~326 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यक- शब्देन प्राणिन उच्यन्ते तेषां हिता-पश्यामिति भावः, हितत्वं पुनस्तदनुपरोधिनीत्वात्तथा हितकारिणीत्वाच्च, उक्तं चहारिभ'सर्वे जीवा न हन्तव्या' इत्यादि, एतत्प्रभावाच्च भूयांसः सिद्धा इति, 'भूतभावनाम्' इत्यत्र भूत-सत्यं भाच्यतेऽनयेति । ४ाणाध्यानद्रीया भूतस्य या भावना भूतभावना, अनेकान्तपरिच्छेदात्मिकेत्यर्थः, भूतानां वा-सत्त्वानां भावना भूतभावना, भावना वास-14 ॥५९५॥ सनेत्यनर्थान्तरम् , उक्त च-'कूरावि सहावेर्ण रागविसवसाणुगावि होऊणं । भावियजिणवयणमणा तेलुकसुहावहा होति ॥१॥ श्रूयन्ते च चिलातीपुत्रादय एवंविधा बहव इति, तथा 'अनाम्' इति सर्वोत्तमत्वादविद्यमानमूल्यामिति भावः, उक्तं च-"संवेऽवि य सिद्धता सदवरयणासया सतेलोका । जिणवयणस्स भगवओ न मुल्लमित्तं अणग्घेणं ॥१॥ तथा द प्रस्तुतिकारेणाप्युक्तम्-"कल्पद्रुमः कल्पितमात्रदायी, चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते । जिनेन्द्रधर्मातिशयं विचिन्त्य, द्वयेऽपि है लोको लघुतामवैति ॥१॥” इत्यादि, अथवा 'ऋणना'मित्यत्र ऋण-कर्म तद्मामिति, उक्तं च-"जं अन्नाणी कम्म खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥१॥" इत्यादि, तथा 'अमिताम्' इत्यपरिमिताम् , उकं च-“सधनदीणं जा होज वालुया सबउदहीण जं उदयं। एत्तोवि अणतगुणो अत्थो एगस्स सुत्तस्स ॥१॥" अमृता वा मृष्टां वा पथ्यां वा, तथा चोकम्-"जिणेवयणमोदगस्स उ रत्तिं च दिवा य खजमाणस । तित्तिं बुहो न गच्छद रा अपि स्वभावेन रागविषयशानुगा अपि मूत्वा । भावितजिनवचनमनसबैलोक्यमुखाबहा भवन्ति ॥ ३ ॥२ सर्वेऽपि र सिद्धान्ताः समन्यरसाअयाः सत्रैलोक्याः । जिनवचनस्य भगवतो न मूल्यमानमनःण (स्वेन)॥1॥३ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । तत् ज्ञानी निभिर्गुतः अपयत्युष्टासमानेण ॥१॥ सर्वनदीमा या भवेयुः वालुकाः सर्वोदधीनां यदुदकम् । अतोप्यऽनन्तगुणोऽर्थ एकस्य सूत्रस्य ॥३॥ ५ जिनवचनमोदकस्य तु रात्रौ दिवा च खाद्यमानस्य । तृप्ति बुधो न गच्छति. दीप अनुक्रम [२१..] ५९५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत %250%A5 सूत्रांक हेउसहस्सोवगूढस्स ॥१॥ नरनरयतिरियसुरगणसंसारियसवदुक्खरोगाणं । जिणवयणमेगमोसहमपवग्गसुहक्खयंफलयं |॥२॥" सजीवां वाऽमृतामुपपत्तिक्षमत्वेन सार्थिकामिति भावः, न तु यथा-'तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदविन्दुभिः। मावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥' इत्यादिवन्मृतामिति, तथा 'अजितामिति शेषप्रवचनाज्ञाभिरपराजितामित्यर्थः, उक्तं च-'जीवाइवत्थुचिंतणकोसल्लगुणेणऽणण्णसरिसेणं । सेसवयणेहिं अजियं जिणिंदवयणं महाविसयं ॥१॥ तथा 'महार्था'मिति महान् प्रधानोऽथों यस्याः सा तथाविधा तां, तत्र पूर्वापराविरोधित्वादनुयोगद्वारात्मकत्वान्नयगर्भत्वाच्च प्रधानां, महत्स्था वा अत्र महान्तः-सम्यग्दृष्टयो भव्या एवोच्यन्ते ततश्च महत्सु स्थिता महत्स्था तां च, प्रधानप्राणिस्थितामित्यर्थः, महास्थां घेत्यत्र महा पूजोच्यते तस्यां स्थिता महास्था तां, तथा चोक्तम्-सबसुरासुरमाणुसजोइसवंतरसुपूइयं णाणं । जेणेह गणहराणं छुहंति चुण्णे सुरिंदावि ॥१॥' तथा 'महानुभावा मिति तत्र महान्-प्रधानः प्रभूतो। वाऽनुभावः-सामादिलक्षणो यस्याः सा तथा तां, प्राधान्यं चास्याश्चतुर्दशपूर्वविदः सर्वलम्धिसम्पन्नत्वात्, प्रभूतत्वं च प्रभूतकार्यकरणाद् , उक्तं च-'भू णं चोद्दसपुबी घडाओ घडसहस्सं करित्तए' इत्यादि, एवमिहलोके, परत्र तु जघन्यतोऽपि वैमानिकोपपातः, उक्तं च-'जैववाओलंतगमि चोदसपुवीरस होइ उ जहण्णो। उकोसो सपढे सिद्भिगमो वा अकम्मरस ॥१॥ हेतुसहस्रोपगूलरूप ॥ १ ॥ नरनारकतिर्यकसुरगणसांसारिकसर्वदुःखरोगाणाम् । जिनवचनमेकमौषधमपवर्गसुखाक्षसफलदम् ॥ २ ॥ २ जीवाविवस्तुचिन्तनकौशल्यगुणेनानन्यसरशेन । शेषवचनैरजितं जिनेन्द्रवचनं महाविषयम् ॥1॥३ सर्वसुरासुरमनुष्यज्योतिकरूपान्तरमुपूजितं ज्ञानम् । येनेह गणधराणां (पी) क्षिपन्ति पूर्णानि देवेन्द्रा अपि ॥१॥ ४ प्रभुनातुर्दशपूर्वी घटात् घटसहवं क. ५ पपातो लान्तके चतुर्दशपूर्विणां भवति तु जपन्धः । उत्कृष्टः साँध सिद्धिगमनं वाऽकर्मणः॥१॥ ॐॐॐ दीप अनुक्रम [२१..] अन%%95- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत णाध्यानशतकं C सूत्रांक आवश्यक-8 तथा 'महाविषया'मिति महद्विषयत्वं तु सकलद्रव्यादिविषयत्वाद्, उक्तं च-'देवओ सुयनाणी उपउत्ते सवदवाई जाणई-18 हारिभ- त्यादि कृतं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ द्रीया साइमा निरवनं जिणाणमाणं जगप्पईचाणं । अणितणतणतुण्णेयं गयभंगपमाणगमगहणं ॥ ४६॥ व्याख्या-'ध्यायेत्' चिन्तयेदिति सर्वपदक्रिया, 'निरवद्या'मिति अवयं-पापमुच्यते निर्गतमवयं यस्याः सा तथा ॥५९६॥ ताम् , अनृतादिद्वात्रिंशदोषावधरहितत्वात् , क्रियाविशेषणं वा, कथं ध्यायेत् -निरवद्यम्-इहलोकाद्याशंसारहितमित्यर्थः, उक्तं च-'नो इहलोगठ्याए नो परलोगट्टयाए नो परपरिभवओ अहं नाणी'त्यादिकं निरवयं ध्यायेत् , 'जिनानां प्राग्निरूपितशब्दार्थानाम् 'आज्ञा' वचनलक्षणां कुशलकर्मण्याज्ञाप्यन्तेऽनया प्राणिन इत्याज्ञा तां, किंविशिष्टां -जिनानांकेवलालोकेनाशेषसंशयतिमिरनाशनाज्जगत्प्रदीपानामिति, आजैव विशेष्यते-'अनिपुणजनदु यां' न निपुणः अनिपुणः अकुशल इत्यर्थः जनः-लोकस्तेन दुर्जेयामिति-दुरवगा, तथा 'नयभङ्गप्रमाणगमगहनाम्' इत्यत्र नयाश्च भङ्गाश्च प्रमाणानि च गमाश्चेति विग्रहस्तर्गहना-गहरा तां, तत्र नैगमादयो नयास्ते चानेकभेदार, तथा भङ्गाः क्रमस्थानभेदभिन्नाः, तत्र क्रमभङ्गा यथा एको जीव एक एवाजीव इत्यादि, स्थापना || स्थानभङ्गास्तु यथा प्रियधर्मा नामैकः नो दृढधर्मेत्यादि । तथा प्रमीयते ज्ञेयमेभिरिति प्रमाणानि-द्रव्यादीनि, यथा-नुयोगद्वारेषु गमाः-चतुर्विंशतिदण्डकादयः, कारणवशतो वा किश्चिद्विसदृशाः सूत्रमार्गा यथा षड्जीवनिका-ऽऽ दाविति कृतं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥४६॥ ननु , दिव्यतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वव्याणि जानाति. २ नो ददलोकार्थाय नो परलोकार्थाय नो परपरिभावकोऽहं शानी. दीप अनुक्रम [२१..] ॥५९६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रप्रत या एवं विशेषणविशिष्टा सा बोडुमपि न शक्यते मन्दधीभिः, आस्तां तावत्यातुं, ततश्च यदि कथञ्चिन्नावबुध्यते तत्र का वार्तेत्यत आह तस्थ व महदोव्वलेणं तनिहायरिणविरहको मावि । यगणक्षणेण य णाणावरणोपएणं च ॥ ४ ॥ व्याख्या-तत्र' तस्यामाज्ञायां, चशब्दः प्रस्तुतप्रकरणानुकर्षणार्थः, किं-जडतया चलत्वेन वा मतिदौर्बल्येन-युद्धेः |सम्यगर्थानवधारणेनेत्यर्थः, तथा 'तद्विधाचार्यविरहतोऽपि' तत्र तद्विधः-सम्यगविपरीततत्त्वप्रतिपादनकुशलः आचयतेऽसावित्याचार्यः सूत्रार्थावगमार्थ मुमुक्षुभिरासेव्यत इत्यर्थः तद्विधश्चासावाचार्यश्च २ तद्विरहतः-तदभावतश्च, चशब्दः अबोधे द्वितीयकारणसमुच्चयार्थः, अपिशब्दः कचिदुभयवस्तूपपत्तिसम्भावनार्थः, तथा 'ज्ञेयगहनत्वेन च तत्र ज्ञायत | इति ज्ञेयं-धर्मास्तिकायादि तद्गहनत्वेन-गह्वरत्वेन, चशब्दोऽवोध एव तृतीयकारणसमुचयार्थः, तथा 'ज्ञानावरणोदयेन च' तत्र ज्ञानावरणं प्रसिद्धं तदुदयेन तत्काले तद्विपाकेन, चशब्दश्चतुर्थाबोधकारणसमुच्चयार्थः, अत्राह-ननु ज्ञानावर णोदयादेव मतिदौर्बल्यं तथा तद्विधाचार्यविरहो ज्ञेयगहनाप्रतिपत्तिश्च, ततश्च तदभिधाने न युक्तममीषामभिधानमिति, दान, तस्कार्यस्यैव संक्षेपविस्तरत उपाधिभेदेनाभिधानादिति गाथार्थः । ४७॥ तथा हेकदाहरणासंभवे य सह सुद्ध जं न बुजोजा । सजण्णुमयमवितह तहावि तं चिंतए मइमं ॥ ८ ॥ व्याख्या-तत्र हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतु:-कारको व्यजकच, उदाहरणं-चरितकल्पितभेद, हेतुश्चोदाहरणं च हेतूदाहरणे तयोरसम्भवः, कञ्चन पदार्थ प्रति हेतूदाहरणासम्भवात्, तस्मिंश्च, चशब्दः पञ्चम-18 अनुकुछाम [११]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~330 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप आवश्यक षष्ठकारणसमुच्चयार्थः, 'सति' विद्यमाने, किं?-'यदू' वस्तुजातं 'न सुष्ठ बुद्ध्येत' नातीवावगच्छेत् 'सर्वज्ञमतमवितथं तथापि प्रतिक्रमहारिभ- तश्चिन्तयेन्मतिमा'निति तत्र सर्वज्ञा:-तीर्थकरास्तेषां मतं सर्वज्ञमत-वचनं, किं -वितथम्--अनृतं न वितथम्-अवितथं || णाध्यानद्रीया सत्यमित्यर्थः, 'तथापि तदयोधकारणे सत्यनवगच्छन्नपि 'तत्' मतं वस्तु वा 'चिन्तयेत्' पर्यालोचयेत् 'मतिमान्' बुद्धि-1 शतकं | मानिति गाथार्थः॥४८॥ किमित्येतदेवमित्यत आह॥५९७॥ अणुवकपपराणुमाहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा । जियरागयोसमोहा य णपणहावादिष्यो तेणं ॥ ४५ ॥ व्याख्या-अनुपकृते-परैरवर्तिते सति परानुग्रहपरायणा-धर्मोपदेशादिना परानुग्रहोयुक्ता इति समासः, 'यद् यस्मात् कारणात्, के ?-'जिनाः' प्राग्निरूपितशब्दार्थाः, त एव विशेष्यन्ते-'जगत्प्रवराः' चराचरश्चेष्ठा इत्यर्थ, एवंविधा * अपि कदाचिद् रागादिभावाद्वितथवादिनो भवन्त्यत आह-जिता-निरस्ता रागद्वेषमोहा यैस्ते तथाविधाः, तत्राभिष्वङ्ग लक्षणो रागः अप्रीतिलक्षणो द्वेषः अज्ञानलक्षणश्च मोहः, चशब्द एतदभावगुणसमुच्चयार्थः, नान्यथावादिनः 'तेनेति तेन कारणेन ते नान्यथावादिन इति, उक्त च-"रागाद्वा द्वेषाद्धे" त्यादि गाथार्थः ॥ ४९ ॥ उक्तस्तावक्ष्यातव्यप्रथमो भेदः, अधुना द्वितीय उच्यतेरागबोसकसायासवादि किरियासु घट्टमाणाणं । इहपरलोयाबाओ झाइजा वजपरिवजी ॥ ५॥ | ३५९७॥ ध्याख्या-रागद्वेषकषायाश्रवादिक्रियासु प्रवर्तमानानामिहपरलोकापायान् ध्यायेत् , यथा रागादिक्रिया ऐहिकामु-13 |मिकविरोधिनी, उक्तं च-"रागः सम्पद्यमानोऽपि, दुःखदो दुष्टगोचरः। महाव्याध्यभिभूतस्य, कुपथ्यान्नाभिलाषवत् ॥१॥" अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक CCCCCCCCC SCORE तथा-'द्वेषः सम्पद्यमानोऽपि, तापयत्येव देहिनम् । कोटरस्थो ज्वलन्नाशु, दावानल इव दुमम् ॥२॥ तथा-'दृष्ट्यादिभेदभिन्नस्य, रागस्यामुष्मिकं फलम् । दीर्घः संसार एवोक्ता, सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः॥३॥ इत्यादि, तथा दोसानलसंसत्तो इह लोए चेव दुक्खिओ जीवो । परलोगंमि य पावो पावइ निरयानलं तत्तो ॥१॥ इत्यादि, तथा कपाया:-क्रोधादयः, तदपायाः पुनः-'को हो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोहो य पवढमाणा । चत्तारि एए कसिणो कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥१॥ तथाऽऽश्रवाः-कर्मबन्धहेतवो मिथ्यात्वादयः, तदपायः पुनः-'मिच्छेत्तमोहियमई जीवो इह-14 लोग एव दुक्खाई । निरओवमाई पावो पावइ पसमाइगुणहीणो॥१॥' तथा-'अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः॥१॥ तथा-'जीवा पाविति इहं पाणवहादविरईए पावाए। नियम | यघायणमाई दोसे जणगरहिए पावा ॥१॥ परलोगंमिवि एवं आसवकिरियाहि अजिए कम्मे ।जीवाण चिरमवाया निर| याइगई भमंताणं ॥ २॥ इत्यादि, आदिशब्दः स्वगतानेकभेदख्यापकः, प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशवग्धभेदग्राहक इत्यन्ये, दीप अनुक्रम [२१..] द्वेषानलसंतप्त हहलोक एव दुःखितो जीवः । परलोके च पापः प्रामोति निरवानलं ततः ॥१॥२ कोधश्च मानचा निगृहीती माया च लोभश्च प्रवर्धमानौ । चत्वार एते कृत्स्नाः कपायाः सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्व ॥ १॥ कोहो पोई पणासह माणो विणयणासणो । माया मित्राणि नासेइ लोहो सञ्चवि-18 Nणासणो ॥1॥ (प्रत्यन्तरेऽधिकं प्राक्). ३ मिथ्यात्वमोहितमतिर्जीव इहलोक एव दुःखानि । निरयोपमाणि पापः प्रामोति प्रशमादिगुणहीनः ॥१॥ ४ जीयाः प्रामवन्तीह प्राणवधाथविस्तेः पापिकायाः। निजसुतघातादिदोषान् जनहितान् पापाः परलोकेऽप्येवमाश्रवक्रियाभिरजिते कर्मणि । जीवानां चिरमपाया निरयादिगतिधु भ्रमताम् ॥२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~332 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रम णाध्यानशतक प्रत सूत्रांक आवश्यक- क्रियास्तु कायिक्यादिभेदाः पञ्च, एताः पुनरुत्तरत्र न्यक्षेण वक्ष्यामः, विपाकः पुन:-'किरियासु वट्टमाणा काइगमाईसु हारिभ- ४ दुक्खिया जीवा । इह चेव य परलोए संसारपवहया भणिया ॥१॥ ततश्चैवं रागादिक्रियासु वर्तमानानामपायान द्रीया ध्यायेत्, किंविशिष्टः सन्नित्याह-वय॑परिवर्जी' तत्र वर्जनीयं वय॑म्-अकृत्यं परिगृह्यते तत्परिवर्जी-अप्रमत्त इति गाथार्थः ॥५९८॥ ॥५०॥ उक्तः खलु द्वितीयो ध्यातव्यभेदः, अधुना तृतीय उच्यते, तत्र पबहन्दिपएखाणुभावभिन्न सुहासुहविहो । जोगाणुभावजाणियं कम्म विवागं विवितेजा ॥ ५ ॥ व्याख्या-'प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावभिन्नं शुभाशुभविभक्त'मिति अत्र प्रकृतिशब्देनाष्टौ कर्मप्रकृतयोऽभिधीयन्ते ज्ञानावरणीयादिभेदा इति, प्रकृतिरंशो भेद इति पर्यायाः, स्थितिः-तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नं, प्रदेशशब्देन जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसम्बन्धोऽभिधीयते, अनुभावशब्देन तु विपाकः, एते च प्रकृत्यादयः शुभाशुभभेदभिन्ना भवन्ति, ततचैतदुक्तं भवति-प्रकृत्यादिभेदभिन्नं शुभाशुभविभक्त 'योगानुभावजनित' मनोयोगादिगुणप्रभवं कर्मविपाकं विचिन्तयेदिति गाथार्थः ।। ५१॥ भावार्थः पुनर्वृद्धविवरणादवसेयः, तच्चेदं-इह पयइभिन्नं सुहासुहविहत्तं कम्मविवागं विचिंतेजा, तत्थ दापयईउत्ति कम्मणो भेया अंसा णाणावरणिज्जाइणो अड, तेहिं भिन्नं विहत्तं सुहं पुण्णं सायाइयं असुहं पावं तेहिं विहत्तंविभिन्नविपाक जहा कम्मपकडीए तहा विसेसेण चिंतिजा, किं च-ठिइविभिन्नं च सुहासुहविहत्तं कम्मविवागं विचिंतेज्जा, कियास वर्चमानाः कायिक्याविष दाखिता जीवाः । इहैव परलोके च संसारमवर्षका भणिताः ॥७॥ इह प्रकृतिभित्र शुभाशुभविभक कर्मविपाक लवचिन्तयेत् , तत्र प्रकृतष इति कर्मणो भेदा अंशा ज्ञानाचरणादयोऽष्ट, तैर्मियं विभकं शुभं पुण्यं सातादिकं अशुभं पापं विभक्त. विभिन्नविपार्क यथा कमैत्र कती तथा विशेषेण चिन्तयेत् । किंच-स्थितिविभक्तं च शुभाशुभबिभ कर्मविपाकं विचिन्तयेव, दीप अनुक्रम [२१..] APRASACAKACCRACK ५९८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~333 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक है|ठिइत्ति तासिं चेव अहण्हं पयडीणं जहण्णमझिमुकोसा कालावत्था जहा कम्मपयडीए, किं च-पएसभिन्नं शुभाशुभ। पायावत्-'कृत्वा पूर्व विधानं पदयोस्तावेव पूर्ववद् वग्यौं । वर्गपनी कुर्यातां तृतीयराशेस्ततः प्राग्वत् ॥१॥" कृत्वा विधान' मिति २५५, अस्य राशेः पूर्वपदस्य धनादि करवा तस्यैव वर्गादि ततः द्वितीयपदस्वेदमेव विपरीतं क्रियते, तत एतावेव वयेते, ततस्तृतीयपदस्य वर्गधनौ क्रियते, एवमनेन क्रमेणायं राशिः १६७७७२१६ चिंतेजा पएसोत्ति जीवपएसाणं कम्म पएसेहिं सुहुमेहिं एगखेत्तावगादेहिं पुट्ठोगाढअणंतरअणुवायरउद्धाइभेएहिं बद्धाणं वित्थरओ कम्मपयडीए भणियाणं ६ कम्मविवागं विचिंतेजा, किंच-अणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं कम्मविवागं विचिंतेजा, तस्थ अणुभावोत्ति तासि वाढण्हं |पयडीणं पुढबद्धनिकाइयाणं उदयाउ अणुभवणं, तं च कम्मविवागं जोगाणुभावजणियं विचिंतेज्जा, तत्थ जोगा मणवयणकाया, अणुभावो जीवगुण एव, स च मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपायाः, तेहिं अणुभावेण य जणियमुप्पाइयं जीवस्स कम्मं | जं तस्स विवागं उदयं विचिंतिज्जइ । उक्तस्तृतीयो ध्यातव्यभेदः, साम्प्रतं चतुर्थ उच्यते, तत्र जिणदेसिया एवणसंढाणाखणविहाणमाणाई। उपायहरभंगाइ पजवा जे व पाणं ॥ ५२ ॥ दीप अनुक्रम 2-4 [२१..] स्थितिरिति तासामेबाटामा प्रकृतीनो जघन्यमध्यमोस्कृष्टाः कालावस्था यथा कर्मप्रकृती । किंग-प्रवेशभित्र-चिन्तयेत्, प्रदेश इति जीवप्रदेशाना कर्मप्रदेश। सूखमरेकोषाधगावः स्पृष्टावगाढानन्तराणुवादरोचादिभेदैवंद्वानां विसरतः कर्मप्रकृतौ भणितानां कर्मविपाक विचिन्तयेत् , कि अनुभावभिनं शुभाशुभविभक्तं कर्मविपाक विचिन्तयेत् , तमानुभाव इति तासामेवाष्टानां प्रकृतीनां स्पृष्टबद्ध निकाचितानामुदयावनुभवनम् , संच कर्मविपाकं योगानुभावजनितं विचिन्तयेत् , तत्र योगा मनोवचनकाया, अनुभावो जीवगुण एब, वरनुभावेन च अनितम्-तस्पादितं जीवस कर्म यत् तथा पिपार्क-पदयो विचिन्त्यते । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3344 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥५९९॥ ANCE व्याख्या-जिनाः-प्राग्निरूपितशब्दार्थास्तीर्थकरास्तैर्देशितानि-कथितानि जिनदेशितानि, कान्यत आह-लक्षणसंस्था- प्रतिक्रमनासनविधानमानानि, किं -विचिन्तयेदिति पर्यन्ते वक्ष्यति षष्ठ्यां गाथायामिति, तत्र लक्षणादीनि विचिन्तयेत् , णाध्यानअत्रापि गाथान्ते द्रव्याणामित्युक्तं तत्प्रतिपदमायोजनीयमिति, तत्र लक्षणं धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां गत्यादि, तथा संस्थानं शतकं मुख्यवृत्त्या पुद्गलरचनाकारलक्षणं परिमण्डलायजीवानां, यथोक्तम्-'परिमंडले य पट्टे तसे चरस आयते चेव' जीवश-| रीराणां च समचतुरस्रादि, यथोक्तम्-'समैचउरंसे नग्गोहमंडले साइ वामणे खुजे । हुंडेवि य संठाणे जीवाणं छ मुणेयवा ॥१॥' तथा धर्माधर्मयोरपि लोकक्षेत्रापेक्षया भावनीयमिति, उक्त च-हेढा मज्झे उवरि छपीझलरिमुइंगसंठाणे । लोगो अद्धागारो अद्धाखेत्तागिई नेओ ॥१॥' तथाऽऽसनानि-आधारलक्षणानि धर्मास्तिकायादीनां लोकाकाशादीनि | स्वस्वरूपाणि वा, तथा विधानानि धर्मास्तिकायादीनामेव भेदानित्यर्थः, यथा-धम्मत्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे धम्मस्थिकायस्स पएसे' इत्यादि, तथा मानानि-प्रमाणानि धर्मास्तिकायादीनामेवात्मीयानि, तथोत्पादस्थितिभङ्गादिपर्याया ये च 'द्रव्याणां' धर्मास्तिकायादीनां तान् विचिन्तयेदिति, तत्रोत्पादादिपर्यायसिद्धिः 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदिति (तत्त्वार्थे अ०५सू०२९)वचनाद्, युक्तिः पुनरत्र-'घटमौलीसुवर्णार्थी, नाशोत्पत्तिस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थं, जनो याति सहेतुकम् ॥१॥पयोव्रतो न दयत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥२॥ P५९९॥ परिमण्डलं वृक्ष म्यवं चतुरसमायतमेच. २ समचतुरस्र न्यग्रोधमण्डलं सादि वामन कुलं । हुण्डमपि च संस्थानानि जीवानां पद ज्ञातम्यानि ॥१॥ ३ अधस्तामध्ये अपरि वेत्रासनमारीएवासंस्थानः कोको वैशाखाकारो वैशाखक्षेत्राकृतियः ॥३॥धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्थ देशः धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः। दीप अनुक्रम [२१..] 74 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~335. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ततश्च धर्मास्तिकायो विवक्षितसमयसम्बन्धरूपापेक्षयोत्पद्यते तदनन्तरातीतसमयसम्बन्धरूपापेक्षया तु विनश्यति धर्मास्तिकायद्रव्यात्मना तु नित्य इति, उक्तं च-'सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ चन विशेषः। सत्योश्चित्यपचित्योरा|कृतिजातिव्यवस्थानात् ॥१॥' आदिशब्दादगुरुलध्वादिपयायपरिग्रहः, चशब्दः समुच्चयार्थे इति गाथार्थः ॥५२॥ किं च-- पंचस्थिकायमइयं लोगमणाइणिरुणं जिणवसायं । णामाइभेयविहियं तिविहमहोलोषभेयाई ॥ ५३ ॥ व्याख्या-'पश्चास्तिकायमयं लोकमनाद्यनिधनं जिनाख्यात'मिति, क्रिया पूर्ववत्, तत्रास्तयः-प्रदेशास्तेषां काया अस्तिकायाः पञ्च च ते अस्तिकायाश्चेति विग्रहः, एते च धर्मास्तिकायादयो गत्याद्युपग्रहकरा ज्ञेया इति, उक्तं च-"जीवानां | पुद्गलानां च, गत्युपग्रहकारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥१॥ जीवानां पुद्गलानां च, स्थित्युपनहकारणम् । अधर्मः पुरुषस्येव, तिष्ठासोरवनिर्यथा ॥२॥ जीवानां पुद्गलानां च, धर्माधर्मास्तिकाययोः । बदराणां घटो यद्बदाकाशमवकाशदम् ॥ ३ ॥ ज्ञानात्मा सर्वभावज्ञो, भोका कर्ता च कर्मणाम् । नानासंसारिमुक्ताख्यो, जीवः प्रोक्तो जिनागमे ॥४॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दमूर्तस्वभावकाः । सङ्घातभेदनिष्पन्नाः, पुद्गला जिनदेशिताः॥५॥" तन्मयं-तदास्मक, लोक्यत इति लोकस्तं, कालतः किम्भूतमित्यत आह–'अनाद्यनिधनम् अनाद्यपर्यवसितमित्यर्थः, अनेनेश्वरादिकृतव्यवच्छेदमाह, असावपि दर्शनभेदाच्चित्र एवेत्यत आह-'जिनाख्यातं' तीर्थकरप्रणीतम् , आह-'जिनदेशितानित्यस्माजिनप्रणीताधिकारोऽनुवर्तत एव, ततश्च जिनाख्यातमित्यतिरिच्यते, न, अस्याऽऽदरख्यापनार्थत्वात् , आदरख्यापनादौ च पुनरुक्तदोषानुपपत्तेः, तथा चोक्तम्-"अनुवादादरवीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु । ईषत्सम्भ्रमविस्मयगणनास्म दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], RAN प्रत द्रीया सूत्रांक आवश्यक-IN रणेष्वपुनरुक्तम् ॥१॥" तथा हि 'नामादिभेदविहितं' भेदतो नामादिभेदावस्थापितमित्यर्थः, उक्तं च-नाम ठवणारा प्रतिक्रमहारिभ- दविए खित्ते काले तहेव भावे य । पजवलोगो य तहा अहविहो लोगमि (ग) निक्खेवो॥१॥ भावार्थश्चतुर्विशतिस्तवविवर- णाध्यान णादवसेयः, साम्प्रतं क्षेत्रलोकमधिकृत्याह-त्रिविधं त्रिप्रकारम् 'अधोलोकभेदादि इति प्राकृतशैल्याऽधोलोकादिभेदम् , शतकं आदिशब्दात्तिर्यगूर्बलोकपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ ५३॥ किं च-तस्मिन्नेव क्षेत्रलोके इदं चेदं च विचिन्तयेदिति ॥६०० प्रतिपादयन्नाह लिहलपदीवसागरनरबविमाणभवणाइसठाणं । वोमाइपाहाणं निवर्थ लोगविरविहाण ॥ ५५ ॥ IN व्याख्या-'क्षितिवलयद्वीपसागरनिरयविमानभवनादिसंस्थान' तत्र क्षितयः खलु धर्माद्या ईयत्प्रारभारावसाना अष्टौ भूमयः परिगृह्यन्ते, वलयानि-घनोदधिधनवाततनुवातात्मकानि धर्मादिसप्तपृथिवीपरिक्षेपीण्येकविंशतिः, द्वीपा:-जम्बू-12 दाद्वीपादयः स्वयम्भूरमणद्वीपान्ता असोयाः, सागरा-लवणसागरादयः स्वयम्भूरमणसागरपर्यन्ता असपेया एव, निरया:-15 सीमन्तकाद्या अप्रतिष्ठानावसानाः सजोयाः, यत उक्तम्-'तीसा य पन्नवीसा पनरस दसेव सयसहस्साई । तिन्नेगं पंचूर्ण |पंच य नरगा जहाकमसो ॥१॥' विमानानि-ज्योतिष्कादिसम्बन्धीन्यनुत्तरविमानान्तान्यसोयानि, ज्योतिष्कविमानानामसंख्येयत्वात् , भवनानि-भवनवास्यालयलक्षणानि असुरादिदशनिकायसंबन्धीनि असंख्येयानि, उक्तं च- ०॥ नामस्थापनयोः हम्ये क्षेत्रे च काले तथंच भावे च । पर्यवलोक तथाऽष्टविधो लोके निक्षेपः ॥ त्रिंशत् पञ्चविंशति पञ्चदश दीव शतसहसाणि । त्रीणि एकं पजोनं पजच नरका यथाक्रमम् ॥.. दीप अनुक्रम -2559-2-5-0656 [२१..] 5 2 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~337 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम "सत्तेव य कोडीओ हवंति बावत्तरि सयसहस्सा । एसो भवणसमासो भवणवईणं बियाणेजा ॥१॥" आदिशब्दादसक्वेयव्यन्तरनगरपरिग्रहः, उक्तं च-"हेहोवरिजोयणसयरहिए रयणाए जोयणसहस्से । पढमे वंतरियाणं भोमा नयरा असंखेजा [॥१॥" ततश्च क्षितयश्च वलयानि चेत्यादिद्वन्द्वः, एतेषां संस्थानम्-आकारविशेषलक्षणं विचिन्तयेदिति, तथा 'व्योमादिप्रतिष्ठानम्' इत्यत्र प्रतिष्ठितिः प्रतिष्ठानं, भावे ल्युट्, व्योम-आकाशम् , आदिशब्दाद्वारवादिपरिग्रहः, व्योमादौ प्रतिछानमस्येति व्योमादिप्रतिष्ठान, लोकस्थितिविधानमिति योगः, विधिः-विधानं प्रकार इत्यर्थः, लोकस्य स्थितिः २, स्थितिः व्यवस्था मर्यादा इत्यनर्थान्तरं, तद्विधान, किम्भूतं ?-'नियत' नित्यं शाश्वतं, क्रिया पूर्ववदिति गाथार्थः॥५४॥ किंच मोगलाणमणाइनिदणमधंतर सरीरामओ । जीवमरूवि कारि भोयं च सयस कम्मरस ॥ ५५॥ व्याख्या-उपयुज्यतेऽनेनेत्युपयोगः-साकारानाकारादिः, उक्तं च-स द्विविधोऽष्ट चतुर्भेदः' (तत्वार्थे अ०२ सू०९) स एव लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणस्तं, जीवमिति वक्ष्यति, तथा 'अनाद्यनिधनम् अनावपर्यवसितं, भवापवर्गप्रवाहापेक्षया नित्यमित्यर्थः, तथा 'अर्थान्तरं' पृथग्भूतं, कुतः-शरीरात्, जातावेकवचनं, शरीरेभ्यः-औदारिकादिभ्य इति, किमित्यत आह-जीवति जीविष्यति जीवितवान् वा जीव इति तं, किम्भूतमित्यत आह-'अरूपिणम्' अमूर्तमित्यर्थः, तथा 'कोर' निर्वर्तक, कर्मण इति गम्यते, तथा 'भोक्तारम् उपभोक्तारं, कस्य ?-स्वकर्मण:-आत्मीयस्य कर्मणः, ज्ञानावरणीयादेरिति गाथार्थः ॥ ५५॥ सक्षैव च कोयो भवम्ति द्वासप्ततिः शतसहस्राणि । एष भवनसमासो भवनपतीनां (इति) विजानीयात् ॥१॥ अधस्तादुपरि योजनातरहिते रवाया योजनसहने । प्रथमे ज्यवराणां भौमानि नगरायसंश्येवानि ॥३॥ [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], % आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६०॥ 5255 - तस्स प सकम्मणियं जम्माइजकं कसावपायाझं । वसणसयसावधमण मोहावतं महाभीमं ॥ ५॥ ध्यतिक्रमव्याख्या-तस्य च जीवस्य 'स्वकर्मजनितम् आत्मीयकर्मनिवर्तितं, क-संसारसागरमिति वक्ष्यति तं, किम्भूतमित्यत | शाणाध्यानआह-'जन्मादिजले' जन्म-प्रतीतम्, आदिशब्दाजरामरणपरिग्रहः, एतान्येवातिबहुत्वाजलमिव जलं यस्मिन् स तथावि ला शतकम् |धस्तं, तथा 'कषायपातालं' कषायाः-पूर्वोक्तास्त एवागाधभवजननसाम्येन पातालमिव पातालं यस्मिन् स तथाविधस्तं, तथा 'व्यसनशतश्वापदवन्त' व्यसनानि-दुःखानि द्यूतादीनि वा तच्छतान्येव पीडाहेतुत्वात् श्वापदानि तान्यस्य विद्यन्त इति तद्वन्तं 'मणं ति देशीशब्दो मत्वर्थीयः, उक्तं च “मतुयत्थंमि मुणिजह आलं इलं मणं च मणुयं चे"ति, तथा 'मोहावर्त' मोहः-मोहनीयं कर्म तदेव तत्र विशिष्टभ्रमिजनकत्वादावर्तो यस्मिन् स तथाविधस्तं, तथा 'महाभीमम्' अतिभयानकमिति गाथार्थः ॥५६॥ किं च अण्णाणमारुएरिवसंजोगविजोगवीइसंताणं । संसारसागरमणोरपारमसुहं विचितेजा ॥ ५७॥ व्याख्या-'अज्ञानं ज्ञानावरणकर्मोदयजनित आत्मपरिणामः स एव तत्प्रेरकत्वान्मारुतः वायुस्तेनेरितः प्रेरितः, का?-संयोगवियोगवीचिसन्तानो यस्मिन् स तथाविधस्तं, तत्र संयोगः केनचित् सह सम्बन्धः वियोगः-तेनैव विप्र ॥६०१॥ योगः एतावेव सन्ततप्रवृत्तत्वात् वीचयः-ऊर्मयस्तत्प्रवाहः सन्तान इति भावना, संसरणं संसारः (स) सागर इव संसारसागरस्तं, किम्भूतम् ? 'अनोरपारम्' अनाद्यपर्यवसितम् 'अशुभम्' अशोभनं विचिन्तयेत् , तस्य गुणरहितस्य जीवस्येति गाथार्थः ॥ ५७ ॥ दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक तरस व संतरणसह सम्मासणसुबंधणमणग्वं । गाणमयकपणधार चारित्तमपं मदापोयं ॥ ५ ॥ व्याख्या-'तस्य च' संसारसागरस्य 'संतरणसह' सन्तरणसमर्थ, पोतमिति वक्ष्यति, किंविशिष्टं ?-सम्यग्दर्शनमेव शोभनं बन्धनं यस्य स तथाविधस्तम्, 'अनघम्' अपापं, ज्ञान-प्रतीतं तन्मयः-तदात्मकः कर्णधार:-निर्यामकविशेषो यस्य यस्मिन् वा स तथाविधस्तं, चारित्र-प्रतीतं तदात्मकं 'महापोतम्' इति महाबोहित्थं, क्रिया पूर्ववदिति गाथार्थः॥५८॥ संवरकनिधिकई तपवणाहबजाजतरवेगं । वेस्गमगपडियं विसोतिषाचीहनिक्सोमं ॥ ५९॥ . | व्याख्या-इहाऽऽश्रवनिरोधः संवरस्तेन कृतं निश्छिद्रं-स्थगितरन्ध्रमित्यर्थः, अनशनादिलक्षणं तपः तदेवेष्टपुरं प्रति प्रेरकत्वात् पवन इव तपःपवनस्तेनाऽऽविद्धस्य-प्रेरितस्य जवनतर:-शीघ्रतरो वेगः-रयो यस्य स तथाविधस्तं, तथा विरागस्य भावो वैराग्य, तदेवेष्टपुरप्रापकत्वान्मार्ग इव वैराग्यमार्गस्तस्मिन् पतितः-गतस्तं, तथा विस्रोतसिका-अपध्यानानि एता एवेष्टपुरप्राप्तिविघ्नहेतुत्वाद्वीचय इव विस्रोतसिकाचीचयः ताभिर्निक्षोभ्य:-निष्पकम्पस्तमिति गाथाथैः ॥ ५९॥ एवम्भूतं पोतं किं - भारोईं मुणिवाणिया महन्धसोलंगरयणपडिपुत्रं । जह तं निशाणपुरं सिग्धमविषेण पार्वति ॥ १०॥ व्याख्या-'आरोढुं' इत्यारुह्य, के ?-'मुनिवणिजः' मन्यन्ते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनयः त एवातिनिपुणमायव्ययपूर्वक प्रवृत्तेर्वणिज इव मुनिवणिजः, पोत एव विशेष्यते-महा_णि शीलाङ्गानि-पृथिवीकायसंरम्भपरित्यागादीनि वक्ष्यमाणलक्षणानि तान्येबैकान्तिकात्यन्तिकसुखहेतुत्वाद्रलानि २ तैः परिपूर्ण:-भृतस्तं, येन प्रकारेण यथा 'तत' प्रक्रान्त दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~340 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], शापय हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६०२॥ CASSETTE निर्वाणपुरं' सिद्धिपत्तनं परिनिर्वाणपुरं वेति पाठान्तरं 'शीघ्रम्' आश स्वल्पेन कालेनेत्यर्थः, 'अविघ्नेन' अन्तरायमन्तरेणातिकमा " णाध्यान दा'मामुवन्ति' आसादयन्ति, तथा विचिन्तयेदिति वर्तत इत्यर्य गाथार्थः ॥ १०॥ शतकम् तय व तिरषणविणिमोगमय मेगतिवं निराबाई । सामाविषं निरुवमं जद सोपवं अक्षय मुति ॥1॥ व्याख्या-'तत्र च' परिनिर्वाणपुरे त्रिरत्नविनियोगात्मक'मिति त्रीणि रत्नानि-ज्ञानादीनि विनियोगश्चैपां क्रियाकरणं, ततः प्रसूतेस्तदात्मकमुच्यते, तथा 'एकान्तिकम्' इत्येकान्तभावि 'निराबाधम्' इत्याबाधारहितं, 'स्वाभाविक' न कृत्रिम 'निरुपमम्' उपमातीतमिति, उक्तं च-नवि अस्थि माणुसाणं तं सोक्ख'मित्यादि 'यथा' येन प्रकारेण 'सौख्यं प्रतीतम् | 'अक्षयम्' अपर्यवसानम् 'उपयान्ति' सामीप्येन प्राप्नुवन्ति, क्रिया प्राग्वदिति गाथार्थः ॥११॥ किंबहुणा ? सर्व चित्र जीवाइपपत्थविरघरोवेयं । सधनयसमूहमय सापुमा समयसभा ॥१७॥ व्याख्या-किंबहुना भाषितेन', 'सर्वमेव' निरवशेषमेव 'जीवादिपदार्थविस्तरोपेतं' जीवाजीवानववन्धसंवर निर्जरामोक्षाण्यपदार्थप्रपञ्चसमन्वितं समयसद्भावमिति योगः, किंविशिष्टं ?-'सर्वनयसमूहात्मक' द्रव्यास्तिकादिनयसवातमयमित्यर्थः, 'ध्यायेत् विचिन्तयेदिति भावना, 'समयसद्भाव' सिद्धान्तार्थमिति हृदयम् , अयं गाथार्थः ॥ १२॥ गतं ध्यातव्यद्वारं, साम्प्रतं येऽस्य ध्यातारस्तान् प्रतिपादयन्नाह ॥६०२॥ सप्पमायरहिया मुणो खीणोवसंतमोहा य । शायारो माणधणा धम्मज्ञाणस निदिहा ॥१॥ वास्ति मनुष्याणां तत्सौण्य. दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ACC व्याख्या-प्रमादा-मद्यादयः, यथोक्तम्-'मज विसयकसाया निद्दा विकहा य पंचमी भणिया' सर्वप्रमाद रहिताः सर्वप्रमादरहिताः, अप्रमादवन्त इत्यर्थः, 'मुनयः' साधवः 'क्षीणोपशान्तमोहाच' इति क्षीणमोहा:-क्षपकनिर्घन्धाः उपशान्त मोहा-उपशामकनिन्थाः , चशब्दादन्ये वाऽप्रमादिनः, 'ध्यातार चिन्तकाः, धर्मध्यानस्येति सम्बन्धः, ध्यातार एव विशेष्यन्ते-'ज्ञानधनाः' ज्ञानवित्ता, विपश्चित इत्यर्थः, निर्दिष्टाः' प्रतिपादितास्तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः ॥६३॥ उक्ता धर्मध्यानस्य ध्यातारः, साम्प्रतं शुक्लध्यानस्याप्याद्यभेदद्वयस्थाविशेषेण एत एव यतो ध्यातार इत्यतो मा भूत्पुनरभि-18 घेया भविष्यन्तीति लाघवार्थ चरमभेदद्वयस्य प्रसङ्गत एव तानेवाभिधित्सुराह एएचिय पुषाणं पुत्रधरा सुप्पसत्यसंघयणा । दोण्ह सजोगाजोगा सुशाण पराण केवलिणी ॥४॥ व्याख्या 'एत एवं' येऽनन्तरमेव धर्मध्यानध्यातार उक्ताः 'पूर्वयोः' इत्याद्ययोद्धयोः शुक्लध्यानभेदयोः पृथक्त्ववितकसविचारमेकत्ववितर्कमविचारमित्यनयोः ध्यातार इति गम्यते, अयं पुनर्विशेषः-'पूर्वधराः' चतुर्दशपूर्वविदस्तदुपयुक्ताः, इदं च पूर्वधरविशेषणमप्रमादवतामेव वेदितव्यं, न निम्रन्थानां, माषतुषमरुदेव्यादीनामपूर्वधराणामपि तदुपपत्तेः, 'सुप्रशस्तसंहनना' इत्याद्यसंहननयुक्ताः, इदं पुनरोघत एव विशेषणमिति, तथा 'द्वयोः' शुक्लयोः परयोः-उत्तरकालभाविनोः प्रधानयोर्चा सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिव्युपरतक्रियाऽप्रतिपातिलक्षणयोर्यथासङ्घर्ष सयोगायोगकेवलिनोध्यातार इति योगः, दीप अनुक्रम [२१..] मर्थ विषयाः कपाया निद्रा विकथा च पञ्चमी भणिता. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~342 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत Xशतकम् सूत्रांक दीप अनुक्रम एवं च गम्मए-मुकद्माणाइदुर्ग बोलीण्णस्स ततियमप्पत्तस्स एयाए झाणतरियाए वट्टमाणस्स केवलणाणमप्पा . केवली प्रतिक्रमहारिभ- य सुकलेसोऽज्झाणी य जाव सुहुमकिरियमनियट्टित्ति गाथार्थः ॥ ६४ ॥ उक्तमानुषङ्गिकम् , इदानीमवसरमाप्तमनुप्रेक्षा-दा द्रीयाद्वारं व्याचिख्यासुरिदमाह शाणोवरमेऽवि गुणी णिश्चमणिचाइभावणापरमो । होइ सुभाविवचिंतो धम्मज्जाणेण जो पुष्टि ॥ १५ ॥ ॥१०॥ ___ व्याख्या-इह ध्यानं धर्मध्यानमभिगृह्यते, तदुपरमेऽपि-तद्विगमेऽपि 'मुनिः' साधुः 'नित्यं' सर्वकालमनित्यादिचिन्तनापरमो भवति, आदिशब्दादशरणैकत्वसंसारपरिग्रहः, एताश्च द्वादशानुप्रेक्षा भावयितव्याः, “इष्टजनसम्प्रयोगड़ि-12 विषयसुखसम्पदः" (प्रशमरतौ १५१-१६३) इत्यादिना ग्रन्थेन, फलं चासां सचित्तादिष्वनभिष्वङ्गभवनिर्वेदाविति | भावनीयम् , अथ किंविशिष्टोऽनित्यादिचिन्तनापरमो भवतीत्यत आह-'सुभावितचित्तः सुभाषितान्तःकरणः, केन -धर्मध्यानेन' प्राग्निरूपितशब्दार्थेन 'यः' कश्चित् 'पूर्वम् आदाविति गाथार्थः ॥ १५ ॥ गतमनुप्रेक्षाद्वारम् , अधुना लेश्याद्वारप्रतिपादनायाहहोति कमविसुदामो साओ पीयपम्हमुकायो । धम्ममाणोवायरस तिववाहभेयायो ॥ ५५ ॥ N६०॥ ब्याख्या-इह 'भवन्ति' संजायन्ते 'क्रमविशुद्धाः' परिपाटिविशुद्धाः, काः-लेझ्याः, ताश्च पीतपद्मशुक्ला, एतदुक्तं एवं च गम्यते-सुलभ्यानाविद्वयं व्यतिकान्तस्य तृतीयममाप्तस्य एतस्यां ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य केवलज्ञानमुपद्यते, केवकी च शुकलेश्योऽध्यानी च यावत् सूक्ष्मक्रियमनिवृत्तीति. [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~343 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम भवति-पीतलेश्यायाः पद्मलेल्या विशुद्धा तस्या अपि शुक्ललेश्येति क्रमः, कस्यैता भवन्त्यत आह-'धर्मध्यानोपगतस्य' धर्मध्यानयुक्तस्येत्यर्थः, किंविशिष्टाश्चैता भवन्त्यत आह-तीव्रमन्दादिभेदा' इति तत्र तीव्रभेदाः पीतादिस्वरूपेष्वन्त्याः, मन्दभेदास्वाद्याः, आदिशब्दान्मध्यमपक्षपरिग्रहः, अथवौषत एव परिणामविशेषा तीब्रमन्दभेदा इति गाथार्थः ।। ६६ ॥ उक्त लेश्याद्वारम् , इदानी लिङ्गद्वारं विवृण्वन्नाह मागमबएसाणाणिसग्गओ जे जिणप्पणीयाण । भावाणं साबण धम्मज्माणस तं सिंग ॥३०॥ व्याख्या-इहागमोपदेशाज्ञानिसर्गतो यद् 'जिनप्रणीताना तीर्थकरमरूपितानां द्रव्यादिपदार्थानां 'श्रद्धानम्' अवि-12 तथा एत इत्यादिलक्षणं धर्मध्यानस्य तलिङ्ग, तत्त्वश्रद्धानेन लिङ्गयते धर्मध्यायीति, इह चागमः-सूत्रमेव तदनुसारेण | "कथनम्-उपदेशः आज्ञा त्वर्थः निसर्गः-स्वभाव इति गाथार्थः ॥ ७॥ किं च जिणसाहुगुणकित्तणपसंसणाविणवदाणसंपण्णो । सुअसीलसंजमरमो धम्मज्माणी मुणेयधो ॥ ५॥ व्याख्या-'जिनसाधुगुणोत्कीर्तनप्रशंसाविनयदानसम्पन्नः' इह जिनसाधवा-प्रतीताः, तद्गुणाश्च निरतिचारसम्यग्दर्शनादयस्तेषामुत्कीर्तनं-सामान्येन संशब्दनमुच्यते, प्रशंसा स्वहोलाध्यतया भक्तिपूर्षिका स्तुतिः, विनयः-अभ्युत्थानादि, दानम्-अशनादिप्रदानम्, एतत्सम्पन्न:-एतत्समन्वितः, तथा श्रुतशीलसंयमरतः, तत्र श्रुतं-सामायिकादिविन्दुसारान्तं शील-व्रतादिसमाधानलक्षणं संयमस्तु प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणः, यथोक्तं पञ्चाश्रवा' दित्यादि, एतेषु भावतो रतः, किं?-धर्मध्यानीति ज्ञातव्य इति गाथार्थः॥ ६८॥ गतं लिङ्गद्वारम् , अधुना फलद्वारावसरः, तच्च लाघवार्थ शुक्लध्यान [२१..] क पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत आवश्यकहारिभद्रीया सूत्रांक ॥६०४॥ दीप 984 फलाधिकारे वक्ष्यतीत्युक्तं धर्मध्यानम् , इदानीं शुक्लध्यानावसर इत्यस्य चान्वर्थः प्राग्निरूपित एव, इहापि च भावनादीनि पतिक्रमफलान्तानि तान्येव द्वादश द्वाराणि भवन्ति, तत्र भावनादेशकालासनविशेषेषु (धर्म)ध्यानादस्थाविशेष एवेत्यत एतान्यना-जाणाध्यानत्याऽऽलम्बनान्यभिधित्सुराह शतकम् मह वंतिमवजवमुचीओ शिणमयप्पहाणाभो । मलंबणा जेहिं सुकाक्षाण समारदह ॥१९॥ व्याख्या-'अथे' त्यासनविशेषानन्तये, 'क्षान्तिमाईचार्जवमुक्तया' क्रोधमानमायालोभपरित्यागरूपाः, परित्यागश्च कोनिवर्तनमुदयनिरोधः उदीर्णस्य वा विफलीकरणमिति, एवं मानादिष्वपि भावनीयम् , एतर एव क्षान्तिमाईवार्जवमुक्तयो विशेष्यन्ते-'जिनमतप्रधाना' इति जिनमते-तीर्थकरदर्शने कर्मक्षयहेतुतामधिकृत्य प्रधानाः २, प्राधान्यं चासामकषायं चारित्रं चारित्राच नियमतो मुक्तिरितिकृत्वा, ततश्चैता आलम्बनानि-प्राग्निरूपितशब्दार्थानि, पैरालम्पनैः करणभूतैः शुक्लध्यानं समारोहति, तथा च क्षान्त्याद्यालम्बना एव शुकध्यानं समासादयन्ति, नान्य इति गाथार्थः॥६९॥ व्याख्यातं 81शुक्लध्यानमधिकृत्याऽऽलम्बनद्वार, साम्प्रतं क्रमद्वारावसरः, क्रमश्चाऽऽधयोधर्मध्यान एवोक्का, इह पुनरयं विशेषःतिदुषणविसर्य कमसो संखिविड मणी भणुमि धामरयो । सायद मुनिप्पकंपो साणं अमणो जिणो हो। ॥ ७॥ ॥६०४॥ व्याख्या-त्रिभुवनम्-अधस्तिर्यगूर्वलोकभेदं तद्विषयः-गोचरः आलम्बनं यस्य मनस इति इति योगः, तत्रिभुवन|विषयं 'क्रमशः' क्रमेण परिपाव्या-प्रतिवस्तुपरित्यागलक्षणया 'संक्षिप्य' सङ्कोच्य, कि-'मनः' अन्तःकरणं, क-'अणौ * कोथे न वनं प्र. अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~345 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत -%255-964 सूत्रांक दीप अनुक्रम परमाणौ, निधायेति शेषः, कः ?-'छद्मस्थः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, 'ध्यायति चिन्तयति 'सुनिष्पकम्पः' अतीव निश्चल इत्यर्थः, 'ध्यान' शुक्, ततोऽपि प्रयलविशेषान्मनोऽपनीय 'अमनाः' अविद्यमानान्तःकरणः 'जिनो भवति' अईन् भवति, चरमयोईयोातेति वाक्यशेषः, तत्राच्याद्यस्यान्तर्मुहूर्तेन शैलेशीमप्राप्तः, तस्यां च द्वितीयस्येति गाथार्थः ॥७॥ आह-कथं पुनश्छद्मस्थखिभुवनविषयं मनः संक्षिप्याणी धारयति ?, केवली वा ततोऽप्यपनयतीति, अत्रोच्यते जह सासरीरगय मंतेण विसं निरुभए डंके । तत्तो पुणोऽवाणिजह पहाणयरमंतजोगेणं ॥४॥ ध्याख्या-'यथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'सर्वशरीरगत' सर्वदेहव्यापकं 'मन्त्रेण विशिष्टवर्णानुपूर्वीलक्षणेन 'विष8 मारणात्मक द्रव्य 'निरुध्यते' निश्चयेन ध्रियते, क-'डङ्के भक्षणदेशे, 'ततः' डङ्कास्पुनरपनीयते, केनेत्यत आह-'प्रधानतरमन्त्रयोगेन' श्रेष्ठतरमन्त्रयोगेनेत्यर्थः, मन्त्रयोगाभ्यामिति च पाठान्तरं वा, अत्र पुनर्योगशब्देनागदः परिगृह्यते इति गाथार्थः ॥७१ ॥ एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः तह तितुषणतणुविसर्व गणोविस जोगमंतजल जुत्तो । परमाणु मि निरुभाइ भवणेद मोवि जिणचेजो ॥ ४२ ॥ व्याख्या तथा 'त्रिभुवनतनुविषय' त्रिभुवनशरीरालम्बनमित्यर्थः, मन एव भवमरणनिवन्धनत्वाद्विष मन्त्रयोगवलदियुक्त:-जिनवचनध्यानसामध्येसम्पन्नः परमाणी निरुणद्धि, तथाऽचिन्त्यप्रयत्नाच्चापनयति 'ततोऽपि' तस्मादपि परमाणोः, का?-'जिनवैद्यः' जिनभिषग्वर इति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमभिधातुकाम आहे अस्सारिधणभरो जह परिहाद कमसो हुयासुन्न । थोविंधणावसेसो निहाइ तओऽवणीओ व ॥५॥ [२१..] * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~346 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक व्याख्या-उत्सारितेन्धनभरः' अपनीतदाद्यसङ्घातः यथा 'परिहीयते' हानि प्रतिपद्यते 'क्रमशः' क्रमेण 'हुताश प्रतिक्रमहारिभ- वहिः, 'वा' विकल्पार्थः, स्तोकेन्धनावशेषः हुताशमात्रं भवति, तथा 'निर्वाति' विध्यायति 'ततः स्तोकेन्धनादपनीतश्चेतिणाध्यानद्रीया गाथार्थः ॥ ७३ ॥ अस्यैव दृष्टान्तोपनयमाह शतकम् तह विसधणहीणो मणोपासो कमेण तणुवंमि । विसईधणे निरंभ निबाद तमोऽवणीलो ५ ॥४॥ ॥६०५॥ व्याख्या-तथा 'विषयेन्धनहीनः' गोचरेन्धनरहित इत्यर्थः, मन एव दुःखदाहकारणत्वाद् हुताशी मनोहुताश, II "क्रमेण' परिपाट्या 'तनुके' कृशे, क-विषयेन्धने' अणावित्यर्थः, किं ?-निरुध्यते' निश्चयेन ध्रियते, तथा निर्वाति | ततः तस्मादणोरपनीतक्षेति गाथार्थः ॥ ७४ ॥ पुनरप्यस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तोपनयावाह सोयमिप नालियाए सत्तायसभायणोदररथं या। परिहाइ कमेण जहा सह जोगिमणोजलं जाण ॥ ७५ ॥ व्याख्या-'तोयमिव उदकमिव 'नालिकाया' घटिकायाः, तथा तसं च तदायसभाजन-लोहभाजनं च तसायसभाराजनं तदुदरस्थ, वा विकल्पार्थः, परिहीयते क्रमेण यथा, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनय:-'तथा' तेनैव प्रकारेण योगिमन एवाविकलत्वाजलं २ 'जानीहि अवबुध्यस्व, तथाऽप्रमादानलतप्तजीवभाजनस्थं मनोजलं परिहीयत इति भावना, अल मतिविस्तरेणेति गाधार्थः ॥ ७५ ॥ 'अपनयति ततोऽपि जिनवैद्य' इतिवचनाद् एवं तावत् केवली मनोयोग निरुणद्धीतात्युक्तम् , अधुना शेषयोगनियोगविधिमभिधातुकाम आह एवं चिय वजोग निरुभह कमेण कायजोगपि । तो सेलेसोच थिरो सेलेसी केवक्षी होई ॥॥ दीप अनुक्रम [२१..] V ॥६०५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~347 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक SSCROSKAR व्याख्या-एवमेव' एभिरेव विषादिदृष्टान्तैः, किं ?-वाग्योगं निरुणद्धि, तथा क्रमेण काययोगमपि निरुणद्धीति वर्तते, ततः 'शैलेश इव' मेरुरिव स्थिरः सन् शैलेशी केवली भवतीति गाधार्थः ॥ ७६ ॥ इह च भावार्थो नमस्कारनियुक्ती प्रतिपादित एव, तथाऽपि स्थानाशून्यार्थं स एव लेशतः प्रतिपाद्यते, तत्र योगानामिदं स्वरूपम्-औदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतवारद्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरच्यापाराहतमनोव्यसाचिव्याजीवव्यापारो मनोयोग इति, स चामीयां निरोधं कुर्वन् कालतोऽन्तर्मुहूर्तभाविनि परमपदे भवोपग्राहिकर्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा 4 समस्थितिषु सत्स्वेतस्मिन् काले करोति, परिमाणतोऽपि-पजत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाई जहण्णजोगिस्स । होति मणोदबाई तबावारी य जम्मत्तो॥१॥ तदससगुणविहीणे समए २ निरंभमाणो सो। मणसो सबनिरोहं कुणइ असंखेजसमएहिं ॥ २॥ पजत्तमित्तबिंदियजहष्णवइजोगपज्जया जे उ । तदसंखगुणविहीणे समए २ निरुभंतो॥३॥ सबवइजोगरोह संखाईएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो य सुहमपणगस्स पढमसमओववन्नस्स ॥४॥ जो किर जहण्णजोओ तदसंखेजगुणहीणमेकेके । समए निरंभमाणो देहतिभागं च मुचंतो॥५॥रंभइ स कायजोगं संखाईएहिं चेव समएहिं । तो पर्याप्तमात्रसंझिनो यावन्ति जघन्ययोगिनः । भवन्ति मनोन्याणि सयापारब यन्मात्रः ॥1॥ तदसंख्यगुणविदीनान् समये २ निहन्धन् सः । मनसः सर्वनिरोधं करोल्पसंख्येयसमधैः ॥२॥ पर्याक्षमात्रहीन्द्रियरूप जघन्यवचोयोगिनः पर्याया ये तु । तवसंख्यगुणविहीनान् समये २ निरुधन् ॥ ३ ॥ सर्वबचोयोगरोध संख्यातीतः करोति समयैः । ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोत्पत्रस्य ॥४॥ यः किल जघन्यो योगदसंख्येयगुणहीनमेककसिन् । समये २ निरुन्धन् देहविभागं च मुञ्चन् ॥ ५॥ रुणद्विस काययोग संख्यातीतरेव समर्थः । ततः दीप अनुक्रम [२१..] 55-25 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यक प्रतिक्रमणाध्यान प्रत हारिभ- द्रीया ॥६०६॥ सूत्रांक CARREARSA कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेइ ॥६॥ सेलेसो किर मेरू सेलेसो होइ जा तहाऽचलया। हो च असेलेसो सेलेसी-1 होइ थिरयाए ॥ ७॥ अहवा सेलुख इसी सेलेसी होइ सो उ धिरयाए । सेव अलेसीहोई सेलेसीहोअलोवाओ॥८॥ सीलं व समाहाणं निच्छयओ सबसंवरो सो य । तस्सेसो सीलेसो सीलेसी होइ तयवस्थो ॥९॥ हस्सक्खराइ मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगओं तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥१०॥ तणुरोहारंभाओ झायइ सुहुमकिरिया|णियहि सो । वोच्छिन्न किरियमप्पडिवाई सेलेसिकालंमि ॥११॥ तयसंखेजगुणाए गुणसेढीऍ रइयं पुरा कर्म । समए २ खवयं कमसो सेलेसिकालेणं ॥ १२॥ सर्व खवेइ तं पुण निल्लेवं किंचि दुचरिमे समए । किंचिच होति चरमे सेलेसीए तयं वोच्छे ॥ १३॥ मणुयगइजाइतसबादरं च पज्जत्तसुभगमाएजं । अन्नयरवेयणिज नराउमुच जसो नामं ॥ १४ ॥ संभवओ जिणणाम नराणुपुवी य चरिमसमयंमि । सेसा जिणसंताओ दुचरिमसमयंमि निति ॥ १५॥ ओरालियाहिं दीप अनुक्रम [२१..] कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावनामेति ॥ ६॥ पोलेशः किल मेरुः शैलेशी भवति या तथाऽचलता । भूत्वा चाशैलेषाः बालेशीभवति स्थिरतया ॥ ७॥ अथवा शैल इवर्षिः पीलभिवति स एव स्थिरता । सैवालेश्यीभवति सैलेशीभवत्वकोपात् ॥८॥ शीलं वा समाधान निश्चयतः सर्वसंवरः स च । सस्पेशः IVशीलेशःशैलेशीभवति तदवस्खा ॥॥खाक्षराणि मध्येन बेन काढेन पज मण्यन्ते । तिष्ठति शैलेशीगततावन्माकं ततः कालम् ॥10॥ तनुरोधार-12 म्भात् ध्यायति सूक्ष्मक्रियानिवृति सः । ब्युच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शैलेशीकाले ॥७॥ तदसंख्यगुणवा गुणश्रेण्या रचितं पुरा कर्म । समये २ रुपयन् क्रमशः बैलेशीकालेन ॥ १२ ॥ सबै अपयति तत् पुनर्निर्लेप किचिद्धिचरमे समये । किञ्जिच भवति चरमे लेश्यास्ताक्ये ॥ ३॥ मनुजगतिजाती असं बावरे च (पर्याप्तसुभगादेयं च । अन्यतरवेदनीयं गरायुरुगौत्रं यशोनाम ॥ 1 ॥ संभवतो जिननाम नराजुपूर्वीच चरमसमये । शेषा जिनसरकाः द्विचरमसमवे निस्तिष्ठन्ति ॥ १५॥ औदारिकाभिः ॥६०६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~349 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], 45 प्रत सूत्रांक सवाहिं चयइ विप्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेस तहा न जहा देसच्चारण सो पुर्व ॥ १६ ॥ तस्सोदश्याभावा भवत्तं च विणियत्तए समयं । सम्मत्तणाणदंसणसुहसिद्धत्ताणि मोत्तूणं ॥ १७ ॥ उजुसेटिं पडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो। एगसमएण सिज्झइ अह सागारोवउत्तो सो ॥ १८॥' अलमतिप्रसङ्ग्रेनेति गाथार्थः ॥७६ । उक्त क्रमद्वारम्, इदानीं ध्यातव्यद्वारं विवृण्वन्नाह उपायतिइभंगाइपजयाणं जमेगवस्थुमि । नाणानयाणुसरणं पुञ्चगयसुशाणुसारेणं ॥ ७ ॥ व्याख्या-'उत्पादस्थितिभङ्गादिपर्यायाणाम्' उत्पादादयः प्रतीताः, आदिशब्दान्मूर्तामूर्तग्रहः, अमीषां पर्यायाणां यदेकस्मिन् द्रव्ये-अण्वात्मादी, किं नानानयैः-द्रव्यास्तिकादिभिरनुस्मरण-चिन्तन, कथं ?-पूर्वगतश्रुतानुसारेण पूर्वविदा, मरुदेव्यादीनां वन्यथा । तत्किमित्याह सविधारमावर्षमणजोगतरभो तयं पदमसुकं । होइ पुर्त्तवितक सविधारमरागभावस्म ॥ ७० ॥ व्याख्या-'सविचारं' सह विचारेण वर्तत इति २, विचारः-अर्थव्यञ्जनयोगसङ्कम इति, आह च-'अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः-अर्थ:-द्रव्यं व्यजन-शब्दः योग:-मनःप्रभृति एतदन्तरतः-एतावद्भेदेन सविचारम् , अर्थाद्यञ्जनं सङ्कामतीति विभाषा, 'तकम् एतत् 'प्रथमं शुक्म् आद्यक्त भवति, किनामेत्यत आह-'पृथक्त्ववितर्क सविचारं' पृथक्त्वेन साभित्यजति विप्रजहणाभिः वणिराम् । निशेषत्यारोन तथा न यया देशालागेन स पूर्वम् ॥१५॥ तसोदविकाभावात् भव्यत्वं च विनिवर्तते समकम् । सम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिबत्वानि मुक्त्वा ॥1॥ ऋजुश्रेणि प्रतिपक्षः समयप्रदेशान्तरमस्पृशन् । एकसम येन सिध्यति भय सागारोपयुक्त सः ॥ १८॥ दीप अनुक्रम -4 [२१..] % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~350 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप आवश्यक- भेदेन विस्तीर्णभावेनान्ये वितर्क:-श्रुतं यस्मिन् तत्तथा, कस्येदं भवतीत्यत आह-'अरागभावस्य' रागपरिणामरहित ४प्रतिक्रमः हारिभ- दास्येति गाथार्थः ॥ ७८ ॥ णाध्यानद्रीया पुण मुणिपक निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पाचठिहभंगाइयाणमेगंमि पजाए ॥ ९ ॥ शतकम् ॥६०७॥ व्याख्या-यत्पुनः 'सुनिष्पकम्प' विक्षेपरहितं 'नियातशरणप्रदीप इव' निर्गतवातगृहैकदेशस्थदीप इव 'चित्तम्' अन्तःकरण, क-उत्पादस्थितिभङ्गादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥ ७९ ॥ ततः किमत आह भविषारमस्थर्वजणजोगतरभो तयं बितियमुकं । पुनगयसुवालंबणमेगनवितधामनियार ॥ ८ ॥ व्यख्या-अविचारम्-असङ्कम, कुतः ?--अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः इति पूर्ववत्, तमेवंविधं द्वितीयं शुक्ल भवति, किम|भिधानमित्यत आह-'एकत्ववितर्कमविचारम्' एकत्वेन-अभेदेन वितर्क:-व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तत्तथा, इदमपि |च पूर्वगतश्रुतानुसारेणैव भवति, अविचारादि पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ ८॥ निश्चाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्य । मुहमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकाकिरियरस ॥ ८ ॥ | व्याख्या-'निर्वाणगमनकाले' मोक्षगमनप्रत्यासन्नसमये 'केवलिनः' सर्वज्ञस्य मनोवाग्योगद्वये निरुद्धे सति अर्द्धनि-MIRE रुद्धकाययोगस्य, किं ?-'सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति सूक्ष्मा क्रिया यस्य तत्तथा सूक्ष्मक्रियं च तदनिवर्ति चेति नाम, निवर्तितुं शीलमस्येति निवर्ति प्रबर्द्धमानतरपरिणामात् न निवर्ति अनिवर्ति तृतीय, ध्यानमिति गम्यते, 'तनुकायक्रियस्येति तन्वी उच्छासनिःश्वासादिलक्षणा कायक्रिया यस्य स तथाविधस्तस्येति गाथार्थः॥ ८१॥ अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~351 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक रास्से य मेलेसीगयस्स सेलोड्स णिष्पकंपस्स । बोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइ माणं परमसुकं ॥ ८ ॥ व्याख्या-'तस्यैव च केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलेशी-प्राग्वर्णिता तां प्राप्तस्य, किंविशिष्टस्य !-निरुद्धयोगत्वात् 'शैलेश इव निष्पकम्पस्य' मेरोरिव स्थिरस्थेत्यर्थः, किं ?-व्यवच्छिन्नक्रिय योगाभावात् तद् 'अप्रतिपाति' अनुपरतस्वभावमिति, एतदेव चास्य नाम ध्यानं परमशुकुं-प्रकटार्थमिति गाथार्थः ॥ ८२ ॥ इत्थं चतुर्विध ध्यानमभिधायाधुनैतत्प्रतिबद्धमेव वक्तव्यताशेषमभिधित्सुराह पदम जोगे जोगेसु वा मयं वितियमेव जोगमि । तइयं च कायजोगे सुकमजोगंमि य चवस्थं ॥ ८३ ॥ व्याख्या-'प्रथम' पृथक्त्ववितर्कसविचारं 'योगे' मनआदौ योगेषु वा सर्वेषु 'मतम्' इष्टं, तच्चागमिकश्रुतपाठिनः, है 'द्वितीयम्' एकत्ववितर्कमविचारं तदेकयोग एव, अन्यतरस्मिन् सङ्कमाभावात् , तृतीयं च सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति काययोगे, न योगान्तरे, शुकम् 'अयोगिनि च शैलेशीकेवलिनि 'चतुर्थ' व्युपरतक्रियाऽप्रतिपातीति गाथार्थः॥८शा आह-शुक्लध्यानोपरिमभेदद्वये मनो नास्त्येव, अमनस्कत्वात् केवलिनः,ध्यानं च मनोविशेषः 'ध्यै चिन्ताया मिति पाठात्, तदेतत्कथम् ?, उच्यते जह कदमत्थरस मणो शाणं भण्णह सुनिचलो सत्तो । तह केवलियो काओ सुनिघतो भलए माणं ॥ ४॥ HI व्याख्या-यथा छद्मस्थस्य मनः, किं-ध्यान भण्यते सुनिश्चलं सत्, 'तथा' तेनैव प्रकारेण योगत्वाव्यभिचारात्के वलिनः कायः सुनिश्चलो भण्यते ध्यानमिति गाथार्थः ॥ ८४ ॥ आह-चतुर्थे निरुद्धत्वादसावपि न भवति, तथाविधभावेऽपि च सर्वभावप्रसङ्गः, तत्र का वातेति', उच्यते दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~352 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रतिक्रमणाध्यान शतकम् In ID प्रत सूत्रांक ॥६०८॥ CACKR पुषप्पभोगनो थिय कम्मचिणिजरणहेततो याति । सत्यबहुनाओ तह जिणचंदागमामी व ॥ ४५ ॥ चिताभावेवि सथा मुहुमोवरवकिरियाइ भयंति । जीवोवोगसब्भावभो भवत्थरस झाणाई ॥८६॥ व्याख्या-काययोगनिरोधिनो योगिनोऽयोगिनोऽपिचित्ताभावेऽपि सूक्ष्मोपरतक्रियो भण्यते,सूक्ष्मग्रहणात् सूक्ष्मक्रियाऽ-1 निवर्तिनो ग्रहणम् , उपरतग्रहणाब्युपरतक्रियाऽप्रतिपातिन इति, पूर्वप्रयोगादिति हेतुः, कुलालचक्रभ्रमणवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूद्यः, यथा चक्रं भ्रमणनिमित्तदण्डादिक्रियाऽभावेऽपि भ्रमति तथाऽस्यापि मनःप्रभृतियोगोपरमेऽपि जीवोपयोगसद्भावतः। भावमनसो भावात् भवस्थस्य ध्याने इति, अपिशब्दश्चोदनानिर्णयप्रथमहेतुसम्भावनार्थः, पशब्दस्तु प्रस्तुतहेत्वनुकर्षणार्थ, एवं शेषहेतवोऽप्यनया गाथया योजनीयाः, विशेषस्तूच्यते-'कर्मविनिर्जरणहेतुतश्चापि कर्मविनिर्जरणहेतुत्वात् क्षपकश्रेणिवत्, भवति च क्षपकश्रेण्यामिवास्य भवोपमाहिकर्मनिर्जरेति भावः, चशब्दः प्रस्तुतहेतुत्वनुकर्षणार्थः, अपिशब्दस्तु द्वितीयहेतुसम्भावनार्थ इति, 'तथा शब्दार्थबहुत्वात् यथैकस्यैव हरिशब्दस्य शक्रशाखामृगादयोऽनेकार्थाः एवं ध्यानशब्दस्यापि न विरोधः, 'ध्यै चिन्तायां' 'ध्यै कायनिरोधे 'ध्यै अयोगित्वे' इत्यादि, तथा जिनचन्द्रागमाचतदेवमिति, उक्त । च-आगमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥१॥ इत्यादि गाथाद्वयार्थः ॥८५-८६ ।। उक्तं ध्यातव्यद्वार, ध्यातारस्तु धर्मध्यानाधिकार एवोक्काः, अधुनाऽनुप्रेक्षाद्वारमुच्यते सुकमाणसुभाविधचित्तो चिंतेइ माणविरमेऽपि । णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपनो ॥ ७॥ ध्याख्या-शुक्लध्यानसुभावितचित्तश्चिन्तयति ध्यानविरमेऽपि नियतमनुप्रेक्षाश्चतस्रश्चारित्रसम्पन्नः, तत्परिणामरहितस्य तदभावादिति गाधार्थः।। ८७ ॥ ताश्चैताः दीप अनुक्रम [२१..] ॥६०८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~353 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक भासपदाराचाए तब संसारासुहाणुभावं च । भवसंताणमणन्तं वत्थूर्ण विपरिणामं च ॥ ८ ॥ व्याख्या-आश्रवद्वाराणि-मिथ्यात्वादीनि तदपायान्-दुःखलक्षणान्, तथा संसारानुभावं च, 'धी संसारों' इत्यादि, भवसन्तानमनन्तं भाविनं नारकाद्यपेक्षया, वस्तूनां विपरिणामं च सचेतनाचेतनानां 'सबढाणाणि असासयाणी त्यादि, एताश्चतस्रोऽप्यपायाशुभानन्तविपरिणामानुप्रेक्षा आद्यद्वयभेदसङ्गता एव द्रष्टव्या इति गाथार्थः ॥ ८८ ॥ उक्तमनुप्रेक्षाद्वारम्, इदानीं लेश्याद्वाराभिधित्सयाऽऽह सुकाए लेखाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए । घिरयाजियसेलेसिं लेखाईर्ष परमसुकं ॥ ८९ ॥ व्याख्या सामान्येन शुक्लायां लेश्यायां 'द्वे' आये उक्तलक्षणे 'तृतीयम्' उक्तलक्षणमेव, परमशक्कुलेश्यायां 'स्थिरता जितशैलेशं' मेरोरपि निष्पकम्पतरमित्यर्थः, लेश्यातीतं 'परमशुक्ल चतुर्थमिति गाथार्थः ॥ ८९॥ उक्तं लेश्याद्वारम् , है अधुना लिङ्गद्वारं विचरीषुस्तेषां नामप्रमाणस्वरूपगुणभावनार्धमाह अपहासमोहविवेगविक्षसम्मा तरस होति लिंगाई । लिंगिजह जेहिं मुणी सुकाप्रमाणोषणयवितो ॥२०॥ व्याख्या-अवधासम्मोहविवेकव्युत्सर्गाः 'तस्य' शुक्ध्यानस्य भवन्ति लिङ्गानि, 'लिजयते' गम्यते थैर्मुनिः शुक्लध्यानोतापगतचित्त इति गाथाक्षरार्थः ॥९०॥ अधुना भावार्थमाह चालिज बीभेद व धीरो न परीसहोवसरोहिं । मुहमेसु ग संमुशा भावेसुन देवमाषाम् ॥ ११ ॥ व्याख्या-चाल्यते ध्यानात् न परीषहोपसगैर्बिभेति वा 'धीरः' बुद्धिमान स्थिरो वा न तेभ्य इत्यवधलिड, 'सूक्ष्मेषु' दीप अनुक्रम [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~354 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...., आवश्यकहारिभद्रीया SOSESS प्रतिक्रमणाध्यानशतकम् प्रत सूत्रांक ॥६०९॥ अत्यन्तगहनेषु 'न समुह्यते' न सम्मोहमुपगच्छति, 'भावेषु' पदार्थेषु न देवमायासु अनेकरूपास्वित्यसम्मोहलिशामिति गावाक्षरार्थः ॥ ९१॥ देहविवित्र पेच्छह गप्पाणं तह य सहसंजोगे । देहोवहिनीसग निस्संगो समहा कुणा ॥ १२ ॥ व्याख्या-देहविविक्तं पश्यत्यात्मानं तथा च सर्वसंयोगानिति विवेकलिङ्गा, देहोपधिव्युत्सर्ग निःसङ्गाः सर्वथा करोति व्युत्सर्गलिङ्गमिति गाथार्थः ॥ ९२ ।। गत लिङ्गद्वारं, साम्प्रतं फलद्वारमुच्यते, इह च लाघवार्थं प्रथमोपन्यस्तं धर्मफलम[भिधाय शुक्भ्यानफलमाह, धर्मफलानामेव शुद्धतराणामाद्यशुक्लद्वयफलवाद्, अत आहे-- होति सुदासबसवरविणिजरामरमुहाई विवलाई । झाणवरस्स फलाई मुहाणुबंधीणि अम्मरस ॥ १३ ॥ व्याख्या-भवन्ति 'शुभाश्रवसंवरविनिर्जरामरसुखानि' शुभाश्रवः-पुण्याश्रवः संवरः-अशुभकर्मागमनिरोधः विनिर्जराकर्मक्षयः अमरसुखानि-देवसुखानि, एतानि च दीर्घस्थितिविशुद्धयुपपाताभ्यां 'विपुलानि विस्तीर्णानि, 'ध्यानवरस्य ध्यानप्रधानस्य फलानि 'शुभानुबन्धीनि' मुकुलप्रत्यायातिपुनर्बोधिलाभभोगप्रवज्याकेवलशैलेश्यपवर्गानुवन्धीनि 'धर्मस्य ध्यान-13 स्येति गाथार्थः॥ ९३ ॥ उक्तानि धर्मफलानि, अधुना शुक्मधिकृत्याह ते य विसेसैण सुभाषवादोऽणुतरामरसुदं च । दोन्हं सुशाण फलं परिनिशाण परिहाणं ॥ १४ ॥ व्याख्या-ते च विशेषेण 'शुभाश्रवादयः' अनन्तरोदिताः, अनुत्तरामरसुखं च द्वयोः शुक्लयोः फलमाद्ययोः परिनिर्वाण' मोक्षगमनं परिलाण'ति चरमयोद्धयोरिति गाथार्थः॥९४॥अथवा सामान्येनैव संसारप्रतिपक्षभूते पते इति दर्शयति दीप अनुक्रम ॥६०९॥ [२१..] ANS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम आसवदारा संसारहेश्यो ज ण धम्ममुळेसु । संसारकारणाई तमो धुर्व धम्मसुकाई ॥ १५ ॥ व्याख्या-आश्रवद्वाराणि संसारहेतवो वर्तन्ते, तानि च यस्मान्न शुक्लधर्मयोर्भवन्ति संसारकारणानि तस्माद प्रवीण ४ नियमेन धर्मशक्के इति गाथार्थः ॥ ९५ ॥ संसारप्रतिपक्षतया च मोक्षहेतुनिमित्यावेदयन्नाह संवरविपिनरामो मोक्सास पहो तवो पहो तासि । शाणं च पहाणगं तवरस तो मोक्खादे जयं ॥ ९ ॥ व्याख्या-संवरनिर्जरे 'मोक्षस्य पन्थाः' अपवर्गस्य मार्गः, तपः 'पन्धाः' मार्गः 'तयोः' संवरनिर्जरयो ध्यानं च प्रधानाङ्गं तपसः आन्तरकारणवात्, ततो मोक्षहेतुस्तद्ध्यानमिति गाथार्थः ॥ ९६ ॥ अमुमेवार्थ सुखप्रतिपत्तये दृष्टान्तैः प्रतिपादयन्नाह भयरलोहमीण कमसो जह मलकलंकपकार्ण । सोमायणवणसोसे साहेति अलाणलामा ॥ ९ ॥ व्याख्या-'अम्बरलोहमहीना' वखलोहाईक्षितीनां 'क्रमशः' क्रमेण यथा मलकलङ्कपतानां यथासमयं शोध्या(ध्य)पन-12 ट्रायनशोषान् यथासयमेव 'साधयन्ति' निर्वतयन्ति जलानलादित्या इति गाथार्थः ॥ ९॥ तह सोझाइसमस्या जीवंबरलोहमेइणिगयाणं । शाणजलाणल सूरा कम्ममलकळेकर्षकाणं ॥ १४ ॥ PI व्याख्या तथा शोध्यादिसमर्था जीवाम्बरलोहमेदिनीगतानां ध्यानमेव जलानलसूर्याः कमैव मलकलङ्कपङ्कास्तेषा४ मिति गाथार्थः ॥ ९८॥ किं च तापो सोसो भेलो जोगाण झाणको जहा नियपं । तइ तावसोसभेया कम्मस्सावि माइणो नियमा ॥ ९५ ॥ SEARCACAKACK [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~356 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...., प्रतिक्रमणाध्यानसतकम् प्रत सूत्रांक आवश्यक- व्याख्या-तापः शोषो भेदो योगानां 'ध्यानतः' ध्यानात् यथा 'नियतम्' अवश्य, तत्र ताप:-दुःखं तत एव शोषः- हारिभ- 18 दौर्बल्यं तत एव भेदः-विदारणं योगानां-बागादीनां, 'तथा' तेनैव प्रकारेण तापशोषभेदाः कर्मणोऽपि भवन्ति, कस्य :द्रीया 'ध्यायिन' न यहछया नियमेनेति गाथार्थः ॥ ९९ ॥ किं च॥६१०॥ जब रोगासयसमणं विसोसणाविरेषणोसहविदीहि । तह कम्मामयसमणं माणाणसणाहजोगेहि ॥ १०॥ व्याख्या-यथा 'रोगाशयशमन' रोगनिदानचिकित्सा 'विशोषणविरेचनौषधविधिभिः' अभोजनविरेकोषधप्रकारः, तथा 'कर्मामयशमन' कर्मरोगचिकित्सा ध्यानानशनादिभिर्योगैः, आदिशब्दाद् ध्यानवृद्धिकारकशेषतपोभेदग्रहणमिति गाथार्थः॥ १०० ।। किं च जद विरसंचिमिंधणमनको पक्षणपहिलो पुष वहह । तह कम्मेधणममियं खणेण झाणाणलो दहह ॥ १.१॥ व्याख्या-यथा 'चिरसञ्चितं' प्रभूतकालसश्चितम् इन्धन' काष्ठादि 'अनलः' अग्निः 'पवनसहितः' वायुसमन्वितः 'दूत' शीघ्रं च 'दहति भस्मीकरोति, तथा दुःखतापहेतुत्वात् कर्मवेन्धनं कर्मेन्धनम् 'अमितम्' अनेकभवोपात्तमनन्तं 'क्षणेन' समयेन ध्यानमनल इव ध्यानानल: असौ 'दहति' भैमीकरोतीति गाधार्थः ।। १०१॥ जह वा पणसंघाचा सणेण पचणाड्या विलिजति । प्राणपणापहूया तह कम्मघणा विलिजति ॥ १० ॥ व्याख्या-यथा वा 'घनसहाता" मेघौघाः क्षणेन 'पवनाहताः' वायुप्रेरिता विलय-विनाशं यान्ति-गच्छन्ति, 'ध्यान| पवनावधूता' ध्यानवायुविक्षिप्ताः तथा कमैव जीवस्वभावावरणाद् घनाः २, उक्तं च-"स्थितः शीतांशुवजीवः, प्रकृत्या दीप अनुक्रम CA [२१..] ६१०॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~357 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम भावशुद्धया । चन्द्रिकावच विज्ञान, तदावरणमभवद् ॥१॥” इत्यादि, 'विलीयन्ते' विनाशमुपयान्तीति गाथार्थः। ॥ १०२ ॥ किं चेदमन्यद्, इहलोकप्रतीतमेव ध्यानफलमिति दर्शयति नकसायसमुत्थेहि व वाहिजइ माणसेहिं दुपहिं । ईसाविसापसोगाइएहिं शाणोवगचित्तो ॥१०॥ व्याख्यान कपायसमुत्धेश्चन कोधाधुनश्च 'याध्यते' पीब्यते मानसर्दुःखैः, मानसग्रहणात्ताप इत्याधपि यदुक्तं तन्न बाध्यते 'ईर्ष्याविषादशोकादिभिः तत्र प्रतिपक्षाभ्युदयोपलम्भजनितो मरसरविशेष ईर्ष्या विषाद:-चैलव्यं शोकःदैन्यम् , आदिशब्दाद् हर्षादिपरिग्रहः, ध्यानोपगतचित्त इति प्रकदार्थमयं गाथार्थः ॥ १०३ ॥ सीवाणवाइएहि व सारीरेदि सुबहुप्पगारेहिं । शाणसुनिश्चलचितो न महिना निमारापेटी ॥ १४ ॥ व्याख्या-इह कारणे कार्योपचारात् शीतातपादिभिश्च, आदिशब्दात् क्षुदादिपरिग्रहः, शारीरैः 'सुबहुप्रकारैः' अनेक भेदैः 'ध्यानसुनिश्चलचित्त ध्यानभावितमतिर्न बाध्यते, ध्यानमुखादिति गम्यते, अथवा न शक्यते चालयितुं तत एव, 'निर्जरापेक्षी' कर्मक्षयापेक्षक इति गाथार्थः॥१०४ ॥ उक्त फलद्वारम् , अधुनोपसंहरन्नाह इस समगुणाधाणं दिहाविद्यमुहसाहणं झाणं । सुपसर्थ सदेयं नेयं शेयं च नियपि ॥ १.५॥ व्याख्या-'इय' एवमुक्तेन प्रकारेण 'सर्वगुणाधानम्' अशेषगुणस्थानं दृष्टादृष्टसुखसाधनं ध्यानमुक्तन्यायात् सुषु| है प्रशस्तं २, तीर्थकरगणधरादिभिरासेवितत्वात्, यतश्चैवमतः श्रद्धेयं नान्यथैतदिति भावनया 'ज्ञेयं ज्ञातव्य स्वरूपतः |'ध्येयम्' अनुचिन्तनीय क्रियया, एवं च सति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्यासेवितानि भवन्ति, 'नित्यमपि' सर्वकालमपि, [२१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रमणा.क्रियाधिकारः प्रत सूत्रांक आवश्यक आह-एवं तर्हि सर्वक्रियालोपः प्राप्नोति, न, तदासेवनस्यापि तत्त्वतो ध्यानत्वात् , नास्ति काचिदसौ क्रिया यया साधूनां हारिभ- 1ध्यानं न भवतीति गाथार्थः ॥ १०५ ॥ ग्रन्था १५६९६ ॥ समाप्तं ध्यानशतकं ॥ द्रीया पडिकमामि पंचहि किरियाहि काइयाए अहिगरणियाए पाउसियाए पारितावणियाए पाणाइवायकिरियाए ॥६११॥ (सूत्रम्) प्रतिक्रमामि पञ्चभिः क्रियाभिः-व्यापारलक्षणाभियोऽतिचारः कृतः, तद्यथा--काइयाए' इत्यादि, चीयत इति कायः, कायेन निवृत्ता कायिकी तया,सा पुनस्त्रिधा-अविरतकायिकी दुष्प्रणिहितकायिकी उपरतकायिकी,(च) तत्र मिथ्याहटेरविरतसम्यग्दृष्टेश्चाऽऽद्या अविरतस्य कायिकी-उत्क्षेपणादिलक्षणा क्रिया कर्मबन्धनिबन्धनाऽविरतकायिकी, एवमन्यत्रापि षष्ठीसमासो योग्यः, द्वितीया दुष्पणिहितकायिकी प्रमत्तसंयतस्य,सा पुनर्विधा-इन्द्रियदुष्पणिहितकायिकी नोइन्द्रियदुष्प-1 णिहितकायिकी च, तत्राऽऽद्येन्द्रियैः-श्रोत्रादिभिर्दुष्प्रणिहितस्य-इष्टानिष्ट विषयप्राप्ती मनाक्सङ्गनिर्वेदद्वारेणापवर्गमार्ग ४ प्रति दुर्व्यवस्थितस्य कायिकी, एवं नोइन्द्रियण-मनसा दुष्पणिहितस्याशुभसङ्कल्पद्वारेण दुर्व्यवस्थितस्य कायिकी, तृती याऽप्रमत्तसंयतस्य-उपरतस्य-सावधयोगेभ्यो निवृत्तस्य कायिकी, गता कायिकी १, अधिक्रियत आत्मा नरकादिषु येन मतदधिकरणम्-अनुष्ठानं बाह्यं वा वस्तु चक्रमहादि तेन निवृत्ता-अधिकरणिकी तया, सा पुनर्द्विधा-अधिकरणप्रवर्तिनी निर्वर्तिनी च, तत्र प्रवर्तिनी चक्रमहापशुबन्धादिप्रवर्तिनी, निर्वर्तिनी खड्गादिनिर्वर्तिनी, अलमन्यैरुदाहरणैः, अनयोरेवान्तःपातित्वात्तेषां, गताऽऽधिकरणिकी २, प्रद्वेषः-मत्स रस्तेन निवृत्ता प्राद्वेषिकी, असावपि द्विधा-जीवप्राद्वेषिक्यजीवप्रद्वेपिकी च, आद्या जीवे प्रद्वेषं गच्छतः, द्वितीया पुनरजीवे, तथाहि-पाषाणादौ प्रस्खलितस्तत्प्रद्वेषमावहति गता तृतीया ३, दीप अनुक्रम [२२] SSSSSSONGS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | .. क्रियायाः अधिकारः - ५ क्रिया: तथा २५ क्रिया: सविस्तरवर्णनं ~359 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२२] परितापन-ताडनादिवुःख विशेषलक्षणं तेन निवृत्ता पारितापनिकी तया, असावपि द्विधैव-स्वदेहपारितापनिकी परदेहपारितापनिकी च, आद्या स्वदेहे परितापनं कुर्वतो द्वितीया परदेहे परितापनमिति, तथा च अन्यरुष्टोऽपि स्वदेहपरितापन करोत्येव कश्चिजडः, अथवा वहस्तपारितापनिकी परहस्तपारितापनिकी च, आद्या स्वहस्तेन परितापनं कुर्वतः द्वितीया परहस्तेन कारयतः, गता चतुर्थी ४, प्राणातिपातः-प्रतीत, तद्विषया क्रिया प्राणातिपातक्रिया तया, असावपि द्विधा-स्वप्राणातिपातक्रिया परमाणातिपातक्रिया च, तत्राऽऽद्याऽऽत्मीयप्राणातिपातं कुर्वतः द्वितीया परप्राणातिपातमिति, तथा च कश्चिन्निर्वेदतः स्वर्गाद्यर्थ वा गिरिपतनादिना स्वप्राणातिपातं करोति, तथा क्रोधमानमायालोभमोहवशाच्च परमाणातिपातमिति, क्रोधेनाऽऽकुष्टः रुष्टो वा व्यापादयति, मानेन जात्यादिभिहींलितः, माययाऽपकारिणं विश्वासेन, लोभेन शौकरिकः, मोहेन संसारमोचकःस्माों वा याग इति, गता पञ्चमी ५। क्रियाऽधिकाराच्च शिष्यहितायानुपासा अपि सूत्रे अन्या अपि विंशतिः क्रियाः प्रदर्श्यन्ते, तंजहा-आरंभिया१परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ मिच्छादसणवत्तिया ४ अपचक्खाणकिरिया ५ दिठिया ६ पुढ़िया ७ पाडुच्चिया८ सामंतोवणिवाइया ९नेसस्थिया १० साहत्थिया ११ आणमणिया १२ |वियारणिया १३ अणाभोगवत्तिया १४ अणवकंखवत्तिया १५ पओगकिरिया १६ समुयाणकिरिया १७ पेजवत्तिया १८ दोसवित्तिया १९ ईरियावहिया २० चेति, तत्थारंभिया दुविहा-जीवारंभिया य अजीवारंभिया य जीवारंभिया-जं जीवे १ तद्यथा-भारम्भिकी पारिग्रहिकी मायाप्रत्यविकी मिथ्यादर्शनप्रत्यविकी समस्यास्यानक्रिया ष्टिना स्पष्टिमा प्रातीत्यिकी सामन्तोपनिपातिकी नैःशखिकी वहसिकी आज्ञापनी विदारणी अनाभोगप्रत्ययिकी भनक्कारक्षामयिकी प्रयोगक्रिया समुदान क्रिया प्रेमप्रत्यायिकी कैपप्रत्यायिकी ऐयापथिकी चेति । |तन्त्रारम्भिकी विविधा-जीवारम्भिकी अजीवारम्भिकी च, जीपारम्भिकी यजीवान् पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~360 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- आरंभइ अजीवारंभिया-अजीवे आरंभइ १, पारिग्गहिया किरिया दुविहा-जीवपारिग्गहिया अजीवपारिग्गहिया य, जीवपा- प्रतिक्रमहारिभ- रिग्गहिया-जीवे परिगिण्हइ, अजीवपारिग्गहिया-अजीवे परिगिण्हइ २, मायावत्तिया किरिया दुविहा-आयभाववंचणा य Pणा.क्रियाद्रीया द्र परभाववंचणा य, आयभाववंचणा अप्पणोच्चयं भावं गूहइ निवडीमतो उजुयभावं दंसेइ, संजमाइसिढिलो वा करण- धिकार | फडाडोवं दरिसेइ, परभाववंचणया तं तं आयरति जेण परो वंचिजइ कूडलेहकरणाईहिं ३, मिच्छादसणवत्तिया किरिया ॥६१२॥ दुबिहा-अणभिग्गहियमिच्छादसणवत्तिया य अभिग्गयिमिच्छादसणवत्तिया य, अणभिग्गहियमिच्छादसणवत्तिया असंणीण संणीणवि जेहिं न किंचि कुतिस्थियमयं पडिवण्णं, अभिग्गहियमिच्छादसणवत्तिया किरिया दुविहा-हीणाइ| रित्तदंसणे य तबइरित्तदसणे य, हीणा जहा-अंगुकृपबमेत्तो अप्पा जवमेत्तो सामागतंदुलमेत्तो वालग्गमेत्तो परमाणुमेत्तो हृदये जाज्वल्यमानस्तिष्ठति धूललाटमध्ये वा, इत्येवमादि, अहिगा जहा-पंचधणुसइगो अप्पा सधगओ अकत्ता अचेयणो [सू.] दीप अनुक्रम [२२] आरम्भयति, भजीवारम्भिकी अजीवाभारम्भवति, पारिमहिकी क्रिया द्विविधा-जीवपारिमहिकी मजीवपारिमहिकी च, जीवपारिमहिकी जीवान परिगृह्णाति अजीवपारिमहिकी अजीवान् परिगृहाति, मायाप्रत्यविकी क्रिया द्विविधा-मामभाववचनता च परभाववञ्चनताच, आत्मभाववचनता आत्मीयं भावं निगृहति निकृतिमान् ऋजुभावं दर्शयति, संयमादिशिषिलो वा करणास्फटाटोपं दर्शयति, परमावधानता तत्तदाचरति येन परो पश्यते कुटदेख. करणादिमिा, मिध्यादर्शनप्राययिकी क्रिया द्विविधा- अनभिगृहीतमिच्यादर्शनप्रत्यायिकी च अभिगृहीतमिथ्यावर्शनप्रणयिकी च, अभिगृहीतमिथ्यादशनप्रस्वयिकी असंशिनां संझिनामपि वैन किश्चित् तीथिकमतं प्रतिपक्ष, अभिगृहीतमिथ्यावनिप्रत्यषिकी किया द्विविधा-हीनातिरिक्तदर्शने च तव्यतिरिक्तदर्शने , हीना वधा भकुष्पर्वमात्र आत्मा यवमानः श्यामाकतन्दुहमानो वाकाप्रमात्रः परमाणुमात्रा अधिका पया पढनुपतिक मारमा सर्वगतो. कत्ता सचेतनः ॥६१२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~361 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक (सू.] इत्येवमादि, एवं हीणाइरित्तदसणं, तबइरित्तदसणं नास्त्येवाऽऽत्माऽऽत्मीयो वा भावः नास्त्ययं लोक न परलोकः असत्स्वभावाः सर्वभावा इत्येवमादि, अपञ्चक्खाणकिरिया अविरतानामेव, तेषां न किञ्चिदूविरतिर(तम)स्ति, सा दुविहाजीवअपञ्चक्खाणकिरिया अजीवऽपञ्चक्खाणकिरिया य, न केसुइ जीवेसु अजीवेमु य वा विरती अथित्ति ५, दिडिया किरिया दुविहा, तंजहा-जीवदिठिया य अजीवदिट्ठीया य, जीवदिट्ठीया आसाईणं चक्खुदंसणवत्तियाए गच्छइ, अजीवदिछिया चित्तकम्माईणं ६, पुठिया किरिया दुविहा पण्णत्ता-जीवपुठिया अजीवपुछिया य, जीवछिया जा जीवाहियार पुच्छइ रागेण वा दोसेण वा, अजीवाहिगार वा, अहवा पुछियत्ति फरिसणकिरिया, तत्थ जीवफरिसणकिरिया इत्थी पुरिस नपुंसगं वा स्पृशति, संघट्टेइत्ति भणिय होइ, अजीवेसु सुहनिमित्तं मियलोमाइ वत्थजायं मोत्तिगादि वा रयणजार्य स्पृशति ७, पाडुच्चिया किरिया दुविहा-जीवपाडुच्चिया अजीवपाडुचिया य, जीवं पडुच जो बंधो सा जीवपाडुच्चिया, |जो पुण अजीव पडुच्च रागदोसुम्भवो सा अजीवपाडुचिया ८, सामंतोषणिवाइया समन्तादनुपततीति सामंतोवणिवाइया एवं हीनातिरिक्तदर्शनं, तब्यतिरिक्तदर्शन, अप्रत्याश्यामकिपा-सा द्विविधा जीवाप्रत्याख्यान किपा अजीवाप्रत्याख्यानकिया च, न केषुचिनीचेषु भजीवेषु च वा विरतिरतीति, दृष्टिजा फिया द्विविधा, तबधा-जीवष्टिया व अजीवष्टिनाच, जीवष्टिया अप्रादीनां चक्षुदैन प्रत्ययाय गच्छति, अजीवष्टिजा साचित्रकर्मादीना, प्राधिकी, पृष्टिजा क्रिया द्विविधा प्रामा-जीवानिकी अजीवानिकी च, जीवानिकी या जीवाधिकार पश्यति राम्गेण वा द्वेषेण या, अणीनवाधिकार वा, अथवा स्पृष्टिजेति स्पर्मनक्रिया, तत्र जीवस्पर्शन क्रिया खिवं पुरुष नपुंसक संवठ्ठपतीति भणितं भवति, मजीयेषु सुखनि मिचं मृगकोमावि वनजातं मौक्तिकादि वा रखजातं, प्रानी विकी किया द्विविधा-जीवनातीयिकी अजीचप्राचीस्यिकी च, जीवं प्रतीत्य यो बन्धः सा जीवमातीत्यिकी, यः पुनरजीचं दिमतीत्य समझेपोजवा साजीवमातीखिकी, सामन्तोपनिपातिकी-सामन्तोपनिपातिकी दीप अनुक्रम [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~362 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रमणा. क्रि प्रत सूत्रांक आवश्यक- सा दुविहा-जीवसामंतोवणिवाइया य अजीवसामंतोवणिवाइया य, जीवसामंतोवणिवाइया जहा-एगस्स संडो तं जणो हारिभ- जहा जहा पलोपद पसंसइ य तहा तहा सो हरिसं गच्छइ, अजीवेवि रहकम्माई, अहवा सामंतोवणिवाइया दुविहा- द्रीया देससामंतोवणिवाइया य सबसामंतोवणिवाइया य, देससामंतोवणिवाइया प्रेक्षकान् प्रति यत्रैकदेशेनाऽऽगमो भवत्यसं-12 यतानां सा देससामंतोवणिवाइया, सवसामंतोषणिवाइया य यत्र सर्वतः समन्तात् प्रेक्षकाणामागमो भवति सा सवसा8 मतोवणिवाइया, अहवा समन्तादनुपतन्ति प्रमत्तसंजयाणं अन्नपाणं प्रति अवंगुरिते संपातिमा सत्ता विणस्संति ८, नेसस्थिया किरिया दुविहा-जीवनेसत्थिया अजीवनेसस्थिया य, जीवनेसत्थिया रायाइसंदेसाउ जहा उदगस्स जंतादीहिं, अजीवनेसस्थिया जहा पहाणकंडाईण गोफणधणुहमाइहिं निसिरह, अहवा नेसत्थिया जीवे जीवं निसिरइ पुतं सीसं वा, अजीचे सूत्रव्यपेतं निसिरह वखं पात्रं षा, सृज विसर्ग इति १०,साहथिया किरिया दुविहा-जीवसाहस्थिया अजीवसाहस्थिया ॥६१३॥ N दीप अनुक्रम [२२] ॥६१३॥ सा द्विविधा-जीवसामन्तोपनिपातिकी चाजीवसामन्तोपनिपातिकी च, जीवसामन्तोपनिपातिकी यथा एकस पारस्तं जनो यथा यथा प्रलोकते प्रशंसति च तथा तथा सहर्ष गढ़ति, अजीवामपि स्थकमादीनि, अथवा सामन्तोपनिपातिकी द्विविधा-देशसामन्तोपनिपातिकी च सर्वसामन्तोपनिपातिकी च, देशसामन्तोपनिपातकी-सा देशसामन्तोप निपातिकी, सर्वसामन्तोपनिपातिकी च-सा सर्वसामन्तोपनिपासिकी, अथवा प्रमत्त संयतामामपार्न प्रतिमना-IN |दिते संपातिमाः सवा विनश्यन्ति, नैःशखिकी क्रिया द्विविधा-जीवनैःशामिकी अजीचनैःशासिकी च, जीवनःशासिकी यथा राजादिसंदेषात् यथा यत्रादिभि|रुदकस्य, मजीयनैयानिकी यथा पाषाणकाण्डादीनि गोफण धनुरादि मिनिस्ज्यन्ते, अथवा नैवानिकी जीवे जी निसूजति पुर्व शिष्यं चा, भजीये निस-1 जति, स्वास्तिकी क्रिया द्विविधा-जीववाहसिकी बशीवस्वास्तिकीच. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~363 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...., प्रत सूत्रांक य, जीवसाहत्थिया जं जीवेण जीवं मारेइ, अजीवसाहत्थिया जहा-असिमाईहिं, अवा जीवसाहस्थिया जं जीवं सहस्थेण तालेइ, अजीवसाहस्थिया अजीवं सहत्थेण तालेइ वत्थं पत्तं वा ११, आणमणिया किरिया दुविहा-जीवआणम-18 णिया अजीवआणमणिया य, जीवाणमणी जीवं आज्ञापयति परेण, अजीवं वा आणवायेइ १२, वेयारणिया दुविहाजीववेयारणिया य अजीववेयारणिया य, जीववेयारणिया जीवं विदारेइ, स्फोटयतीत्यर्थः, एवमजीवमपि, अहवा जीवम-12 जीव वा आभासिएम विकमाणो दो भासिउ वा विदारेइ परियच्छावेइत्ति भणिय होइ, अहवाजीवं वियारेइ असंतगुणेहिं ४ एरिसो तारिसो तुमंति,अजीवं वा वेतारण बुद्धीए भणइ-एरिसं एयंति १३, अणाभोगवत्तिया किरिया दुविहा-अणाभोगआदि- यणा य अणाभोगणिक्खेवणा य, अणाभोगो-अन्नाणं आदियणआ-हणं निक्खिवण-ठवणं, तंगहणं निक्खिवणं वा। अणाभोगेण अपमजियाइ गिण्हह निक्खिवइत्ति वा, अहवा अणाभोगकिरिया दुविहा-आयाणनिक्खिवणाभोगकिरिया य [सू.] दीप अनुक्रम [२२] जीवखादस्ति की बजीवेन जीवं मारपति, मजीवसाहतिकी यथाऽस्यादिभिः, अथवा श्रीववाहसिकी पनीवं सहसेन सादयति, अजीयवाहसिकी। अजीवं स्वहस्तेन ताब्यति पात्रं चा, आज्ञापनी क्रिया द्विविधा-जीवाशापनिकी अजीवाशापनिकी च, जीधाज्ञापनी जीवमाशापयति परेण अजीचं वा5-13 ज्ञापयति, विक्रीणानो द्विविधा, जीवपिदारणिकी च अजीव विदारणिकी च, जीव चिदारणिकी जीवं विदारयति, एपमजीवमपि, अथवा जीवमजीथं वा अभाषिकेषु विक्रीणानो द्वैभाषिको वा विदारयति, प्रपा विधत्ते इति भणितं भवति, अमवा जी विचारयति भसनिर्गुणैरीरासायास्यमिति, अजीवं वा विप्रतारगबुमा भणति-ईसमेतदिति, मनाभोगप्रत्यायिकी क्रिया द्विविधा-अनाभोगादानजा अनाभोगनिक्षेषजा च, मनाभोगोझानं आदान प्रहर्ष निक्षेपणं स्थापन, | तदू महर्ण स्थापन वानाभोगेनाप्रमार्जितादि गृह्णाति निक्षिपति वा, अथवा भनाभोगक्रिया द्विविधा-आदाननिक्षेपामाभोगक्रिया च पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~364 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक कमणअणाभोगकिरिया य, तत्थादाणनिक्खिवणअणाभोगकिरिया रओहरणेण अपमज्जियाइ पत्तचीवराणं आदाणं प्रतिक्रमहारिभ- राणिक्खेवं वा करेइ, उक्कमणअणाभोगकिरिया लंघणपवणधावणअसमिक्खगमणागमणाइ १४, अणवखवत्तिया किरियाणा . किद्रीया |दुविहा-इहलोइयअणवखवत्तिया य परलोइय अणवखवत्तिया य, इहलोयअणवकखवत्तिया लोयविरुद्धाई चोरिकाईणियाधिकार। करेइ जेहिं वहबंधणाणि इह चेव पावेइ, परलोयअणवखवत्तिया हिंसाईणि कम्माणि करेमाणो परलोयं नावकंखइ १५, ॥६१४॥ पओयकिरिया तिविहा पण्णत्ता तं०-मणप्पओयकिरिया वइप्पओयकिरिया कायप्पओयकिरिया य, तत्थ मणप्पओयकिरिया अट्टरुद्दज्झाई इन्द्रियप्रसृतौ अनियमियमण इति, वइपोगो-मायाजोगो जो तित्थगरेहिं सावज्जाई गरहिओ तं सेच्छाए भासइ, कायप्पओयकिरिया कायप्पमत्तस्स गमणागमणकुंचणपसारणाइचेवा कायस्स १६, समुदाणकिरिया समग्गमुपादाण समुदाणं, समुदाओ अट्ठ कम्माई, तेसिं जाए उवायाणं कजई सा समुदाणकिरिया, सा दुविहा-देसोवघाय RAN दीप अनुक्रम [२२] AC% रमणानाभोगक्रिया च, तनादान निक्षेपानाभोगकिया रजोदरणेनाममाज्य पात्रचीवरादीनामादान निक्षेपं वा करोति, उक्रमणानाभोगक्रिया - नप्लवनधावनासमीक्ष्यगमनागमनावि, अनवकागप्रत्ययिकी क्रिया द्विविधा-ऐहलौकिकानप कागप्रत्यधिकी च पारलौकिकामवकालाप्रत्यषिकी च, ऐडकौकिका| नवकालगप्रत्यविकी कोकविनद्धानि चौर्यादीनि करोति यैवैधवन्धनानि इदैव प्रामोति, परलोकानवकालापत्यविकी हिंसादीनि कर्माणि कुर्वन् परलोक नावकाकृते, प्रयोगक्रिया विविधा प्राप्ता, तयथा-मनःप्रयोगक्रिया वाक्प्रयोगकिषा कायप्रयोगक्रिया च, सत्र मनःप्रयोगक्रिया प्रारीनभ्याधीन्द्रियमयतो अनिष- | मितमना इति, वारूपयोगा-वाग्योगः यस्तीर्थकरैः सावधादिर्गदितसं खेपा भाषते, कायप्रयोगकिपा कायेन प्रमत्तस्य गमनागमनाकुचनप्रसारणादिः चेष्टा कायत, सारानक्रिया समममुपादानं समुदानं, समुदायोऽष्ट कर्माणि, तेषां ययोगदान कियते सा समुदान किया, सा द्विविधा-देशोपधात ॥१४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~365 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२२] समुदाणकिरिया सपोवधायसमुदाणकिरिया, तत्थ देसोवघारण समुदाणकिरिया कज्जइ कोइ कस्सइ इंदियदेसोवघायं 8 करेइ, सबोवपायसमुदाणकिरिया सवपयारेण इंदियविणासं करेइ १७, पेजवत्तिया पेम्म राग इत्यर्थः, सा दुविहामायानिस्सिया लोभनिस्सिया य, अहवा तं वयणं उदाहरइ जेण परस्स रागो भवइ १८, दोसवत्तिया अप्रीतिकारिका |सा दुविहा-कोहनिस्सिया य माणनिस्सिया य, कोहनिस्सिया अप्पणा कुप्पइ, परस्स वा कोहमुपादेइ, माणणिस्सिया दूसयं पमज्जा परस्स वा माणमुप्पाएइ, इरियावहिया किरिया दुविहा-कजमाणा वेइजमाणा य, सा अप्पमत्तसंजयस्स वीय रायछउमत्थस्स केवलिस्स वा आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं निसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस्स आउत्तं भुंजमाणस्स आउ भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स निक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हनिवायमवि सुहुमा किरिया इरियावहिया कजइ, सा पढमसमए बद्धा विइयसमए वेइया सा बद्धा पुवा वेइया निजिण्णा सेअकाले अर्कमसे यावि भवइ । एयाओ पंचवीस किरियाओ॥ समुपानकिया सौंपचालसमुवानकिया, तत्र देशोपपातेन समुदानक्रिया क्रियते कश्चित् कस्यचित् इन्द्रियदेशोपपातं करोति, सर्वोपधातसमुदानकिया सर्वप्रकारेणेन्द्रियविनाशं करोति, प्रेमप्र त्यधिकी-सा द्विविधा-मायामिश्रिता कोभनिश्रिता च, अथवा तवचनमुनाइरति पेन परस्य रागो भवति, प्रेषप्रत्यषिकी, सा द्विविधा-कोपनिनिता च माननिश्रिता च, कोधमिश्रिता आत्मना कुप्यति परस्थ वा क्रोधमुत्पादयति, माननिश्रिता स्वयं मावति परस्य या मानमुपादयति, ४ाईयोपविकी क्रिया द्विविधा-किवाणा च पेचमानाच,सा अप्रमत्तसंपतस्य वीतरागच्छनास्थय केवलिनो वाऽऽयुक्तंगत आयुकं तिष्ठत आयुकं निषीदत आयुक्तं स्वग्यसंचत आयुकं भुझानस्थायुर्क भाषमाणस्यायुकं वस्त्रं पात्रं कम्बलं पादप्रोग्छनं गृङ्गतो निक्षिपतो वा यावचक्षुःपदमनिपातमपि (तः) सूक्ष्मा किया ईपिथिकी क्रियते, सा प्रयमे समये बद्धा द्विवीयसमये वेदिता सा बद्धा स्पृष्टा वेदिता निजीगो एयरकाले अकौशश्चापि भवति, एताः पविशतिः क्रियाः । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रतिक्रमगा. समित्यधिक प्रत हारिभद्रीया सूत्रांक ॥१५॥ पडिक्कमामि पंचहि कामगुणहिं-सद्देणं रूपेणं रसेणं गंधेणं फासेणं । पडिकमामि पंचहि महव्वएहि, -पाणाइवायाओ वेरमणं मुसाबायाओ वेरमणं अदिण्णादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ रमणं परिग्गहाओ वेरमणं । पडिकमामि पंचहिं समिईहि-ईरियासमिइए भासासमिइए एसणासमिइए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिइए उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्टाचणियासमिइए ॥ सूत्रं ।। प्रतिक्रमामि पञ्चभिः कामगुणैः, प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण हेतुभूतेन योऽतिचारः कृतः, तद्यथा-शब्देनेत्यादि, तत्र काम्यन्त इति कामाः-शब्दादयस्त एव स्वस्वरूपगुणबन्धहेतुत्वाद्गुणा इति, तथाहि-शब्दाद्यासक्तः कर्मणा वझ्यत इति भावना ॥ प्रतिक्रमामि पञ्चभिर्महानतः करणभूतैर्योऽतिचारः कृतः, औदयिकभावगमनेन यत्खण्डनं कृतमित्यर्थः, कथं पुनः करणता महाव्रतानामतिचारं प्रति ?, उच्यते, प्रतिषिद्धकरणादिनैव, किंविशिष्टानि पुनस्तानि ?, तत्स्वरूपाभिधित्सयाssह-प्राणातिपाताद्विरमणमित्यादीनि क्षुण्णत्वान्न विनियन्ते, प्रतिक्रमामि पञ्चभिः समितिभिः करणभूताभिर्योsतिचारः कृतः, तद्यथा-ईर्यासमित्या भाषासमित्येत्यादि, तत्र संपूर्वस्य 'इण् गता' वित्यस्य क्तिन्प्रत्ययान्तस्य समि- तिर्भवति, सम्-एकीभावेनेतिः समितिः, शोभनकायपरिणामचेष्टेत्यर्थः, ईर्यायां समितिरीर्यासमितिस्तया, ईविषये एकीभावेन चेष्टनमित्यर्थः, तथा च-ईर्यासमिति म रथशकटयानवाहनाकान्तेषु मार्गेषु सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुकविविक्तेषु पथिषु युगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनं कर्तव्यमिति, भाषणं भाषा तद्विषया समितिर्भापासमि दीप अनुक्रम CASSA [२३] ॥१५॥ व पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...., प्रत सूत्रांक [सू.] तितया उक्त च-भाषासमिति म हितमितासन्दिग्धार्थभाषणं" एषणा गवेषणादिभेदा शङ्कादिलक्षणा वा तस्यां समितिरेषणासमितिस्तया, उक्तं च-"एषणासमितिर्नाम गोचरगतेन मुनिना सम्यगुपयुक्तेन नवकोटीपरिशुद्धं ग्राह्य मिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समितिः, भाण्डमात्रे आदाननिक्षेपविषया समितिः सुन्दरचेष्टेत्यर्थः, तया, इह च सप्त भङ्गा भवन्ति-पत्ताइ न पडिलेहइ ण पमज्जइ, चउभंगो, तत्थ चउत्थे चत्तारि गमा-दुष्पडिलेहियं दुप्पमजियं चउभंगो, आइला छ अप्पसत्था, चरिमो पसत्थो, उच्चारप्रश्रवणखेलसिंघाणजल्लानां परिस्थापनिका तद्विषया समितिः सुन्दरचेष्टेत्यर्थः, तया, उच्चार:-पुरीष, प्रश्नवर्ण-मूत्रं, खेला-श्लेष्मा, सिवानं-नासिकोद्भवः श्लेष्मा, जल:-मला, अत्रापि त एव | सप्त भङ्गा इति, इह च उदाहरणानि, ईरियासमिईए उदाहरणं| ऐगो साह ईरियासमिईए जुत्तो, सकरस आसणं चलियं, सकेण देवमग्शे पसंसिओ मिच्छादिडी देवो असहतो। आगओ मच्छियप्पमाणाओ मंडुक्कलियाओ विउबइ पच्छओ य हत्थी, गई ण भिंदइ, हथिणा उक्खिबिय पाडिओ, न सरीरं पेहइ, सत्ता मे मारियजीवदयापरिणओ। अहवा ईरियासमिईए अरहण्णओ, देवयाए पाओ छिण्णो, अण्णाए पानादिन प्रतिलिखति न प्रमार्जयति, चतुर्भलिका, तत्र चतुर्थे चत्वारो गमा:-दुष्पतिले खितं दुष्यमार्जितं चतुर्भडी, आधाः पद अप्रशसाः, चरमः प्रशस्तः, २ एक साधुरीसिमित्या युक्तः, शक्रस्यासनं चलितं, शकेण देवमध्ये प्रशंसितः, मिथ्यादृष्टिदेचोऽश्रद्दधान आगतो मक्षिकाममाणा मण्डकिका चिकुवैति पृष्टत्तश्च इसी, गति न भिनत्ति, इलिनोरिक्षष्य पातिता, न शरीराब स्मृदयति, सात्वा मया मारिता इति जीवनयापरिणतः ।। अथवेयांसमितावरहन्नकः, देवतया पादश्विनः, अन्यथा दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: पञ्च समितिनाम् सविस्तर-वर्णनं ~368 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], + आवश्यकहारिभद्रीया प्रतिक्रमणा. समित्यधिक प्रत सूत्रांक ॥६१६॥ संधिओ ॥ भासासमिईए-साडू, भिक्खडा नयररोहए कोइ निग्गंथो बाहिं कडए हिडंतो केणइ पुढो केवइय आसहत्थी तह निचयोदारुधनमाईणं । णिविण्णाऽनिविण्णा नागरया बेंति में समिओ॥१॥ बेइ ण जाणामोत्ति सज्झायझाणजोग- वक्खित्ता। हिंडता न वि पेच्छह ? नविसुणह किह हु तो बेंति ॥ २॥-बहुं सुणेइ कण्णेहीत्यादि-वसुदेवपुषजम्मं आह- रणं एसणाए समिईए । मगहा नंदिग्गामो गोयमधिज्जाइचक्कयरो॥१॥ तस्स य धारिणी भज्जा गब्भो तीए कयाइ आहूओ। घिजाइ मओ छम्मास गम्भ धिज्जाइणी जाए ॥ २॥ माउलसंवडणकम्मकरणवेयारणा य लोएणं । नस्थि तुह एत्थ किंचिवि तो चेती माउलो तं च ॥३॥ मा सुण लोयस्स तुमं धूयाओ तिणि तेसि जेट्टयरं । दाहामि करे कम पकओ पत्तो य वीवाहो ॥४॥ सा नेच्छई विसण्णो माउलओ बेइ बिय दाहामि । सावि य तहेव निच्छद तइयत्ती निच्छए सावि ॥५॥ निविष्णनंदिवद्धणआयरियाणं सगासि निक्खंतो । जाओ छहखमओ गिण्हइयमभिग्गहमिमं तु ॥६॥ 1 संहितः ॥ भाषासमिती-साधुः, भिक्षार्थ नगररोधे कोऽपि निर्धन्धो बहिः कट के हिन्धमानः केनचित् पृष्टः-कियन्तोऽधा हलिनस्तपा निचयो दायचाम्यादीमाम् । निर्षिण्णा ननिर्विष्णा नागरकमियत समिताःमति नजानाम इति स्वाध्यायध्यानयोगबाक्षिप्ताः। द्विपमाना: नैव प्रेक्ष शृणुथ कथं नु तदा युवति ॥ २ ॥ बहु ऋणोति कर्णाभ्यामित्यादि । वसुदेवपूर्वजन्माइरर्ण एषगायां समिती । मग नन्दीग्रामो गौतमो विग्जातीयश्रकरः ॥१॥ तस्य च धारिणीभार्या गर्भस्तखाः कदाचिजातः । धिग्जातीवो मृतः पण्मासप विग्जातीषा जाते ॥२॥ मातुल संवर्धन कर्मकरणं विचारणा कोकेन । नास्ति तवात्र विचिदपि तदा मबीति मातुलतं ॥३॥मा लोकस्य स्वं दुहितरस्तिखतासां ज्येष्तरी । दास्यामि कुरु कर्म प्रकृतः प्रामक विवाहः ॥ ॥सा नेच्छवि विषण्णो मातुको ब्रवीति द्वितीयां दास्यामि । सापि च तथैव नेति तृतीयेति नेति सापि ॥ ५॥ निविपणो नन्दिवर्धनाचार्याणां सकायो निएकान्तः । जातः पहायक्षपको गृहाति चामिमहमिमं तु ॥६॥ दीप अनुक्रम ACCORRC-RAKX [२३] ॥१६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक चालगिलाणाईयं वेयावच्चं मए उ कायवं । तं कुणइ तिघसद्धो खायजसो सक्कगुणकित्ती ॥७॥ असद्दहेण देवस्स आगमो कुणइ दो समणरूवे । अतिसारगहियमेगो अडविठिओ अइगो बीओ॥८॥ बेति गिलाणो पडिओ वेयावचं तु सद्दहे जो उ । सो उद्देऊ खिप्पं सुयं च तं नंदिसेणेणं ॥९॥छट्ठोववासपारणयमाणियं कवल घेत्तुकामेण । तं सुयमेत रहसुडिओ य भण केण कजति ॥ १०॥ पाणगदवं च तहिं जंणत्थि तेण बेइ कजं तु । निग्गय हिंडतो कुणइ अणेसणं ४ नविय पेल्लेइ ॥ ११ ॥ इय एकवारबितियं च हिंडिओ लद्ध ततियवारंमि । अणुकंपाए तरतो तओ गओ तस्सगास तु| |॥ १२ ॥ खरफरुसनिहुरेहिं अकोसइ सो गिलाणओ रुहो । हे मंदभग्ग ! फुकिय तूससि तं नाममेत्तेणं ॥१३॥ साहुवगारित्ति अह समुद्दिसिउमाओ। एयाएऽवत्थाए तं अच्छसि भत्तलोभिल्लो ॥ १४ ॥ अमियमिव मण्णमाणो तं फरुसगिरं तु सो उ संभतो । चलणगओ खामेइ धुवह य तं असुइमललितं ॥१५॥ उदेह वयामोत्ती तह काहामी जहा हु अचिरेणं । बाळालानादीनां वैवावृष्यं मया कर्तव्यमेव । तस्करोति तीनश्रद्धा यातया शगुणकीर्तिः ॥ ७॥अनहानेन देवस्यागमः करोति हे श्रमणरूपे । अतिसारगृहीत एकोऽटम्या स्थितोऽतिगतो द्विवीपः ॥ 6वीति कानः पतितो यावत्वं तु अधाति पस्त । स उति क्षिप्रं श्रुतं च तचन्दिषेणेन ॥९॥ पटोपवासपारणकमानीतं कबलान गृहीतकामेन | तश्रुतमात्रे रमसोस्थितन भण केन कांवमिति ॥१०॥पानकदम्पं च तत्र यसाखि तेन मधीति कार्यत।। निर्गतो हिण्डमाने करोष्यनेपणां न च प्रेरयति ॥११॥ एवमेश्यारं द्वितीयं च हिणिदतो कम्धं तृतीयवारे । अनुकम्पमा स्वस्थन् ततो गतहासकाशं तु ॥१२॥ खरपरुषनिसाकोशति स ग्लानो रुधः। हेमन्दभाग्य ! जूधैव तुष्यसि स्वं नाममात्रेण ॥11॥ साधूपकार्यमहमिति नामाय समुश्विाचायातः। एतमा। | मवस्था व निविभकलोलुपः ॥10॥ अमृतमिव मन्यमानता परुषागिर तु स तु संभ्रान्तः । चरणगता यमपति प्रयासपति च तमचिमक्षितम् Pu५॥ उत्तिा बजाव इति तथा करिष्यामि यथाऽचिरेणैव । दीप अनुक्रम [२३] % + पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~370 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक SACROSS *HRE-400-5 त्यधिक आवश्यकता होहिह निरुआ तुम्भे बेती न वएमि गंतुं जे ॥ १६ ॥ आरुहया पिट्टीए आरूढो ताहे तो पयारं च । परमासुइदुग्गंध प्रतिक्रमहारिभ- मुबई पट्ठीए फरुसं च ॥१७॥ बेइ गिरं धिम्मुंडिय!, वेगविधाओ कओत्ति दुक्खविओ। इय बहुविहम कोसइ पए पए सोऽवि णा. समिद्रीया भगवं तु ॥ १८ ॥ण गणेई फरुसगिरं णयावित दुसइ तारिसं गंधं । चंदणमिव मण्णतो मिच्छामिह दुकडं भणइ ॥१९॥ ॥६१७॥ चिंतेइ किह करेमी किह हु समाही हविज्ज साहुस्स। इय बहुविहप्पयारं नवि तिपणो जाहे खोहे ॥२०॥ ताहे अभिरथुणतो सुरो गओ आगओ य इयरो य । आलोएइ गुरूहि य धन्नोत्ति तओ अणुसहो ॥ २१ ॥ जह तेणं नवि|पेलिय एसण इय एसणाइ जइयवं । अहवावि इमं अण्णं आहरणं दिद्विवादीयं ॥ २२ ॥ जह केइ पंच संजय तण्हछुहकिलंत सुमहमद्धाणं । उत्तिणा बेयालि य पत्ता गामं च ते एगं ।। २३ ॥ मग्गंति पाणगं ते लोगो य तहिं अणेसणं कुणाई। न गहिय न लद्धमियरं कालगया तिसाभिभूया य ॥२४॥ चउत्थीए उदाहरण-आयरिएण साहू भणिओ-गामं वच्चामो, भविष्यसि नीरोगस्वं मचीति शमोमिन गर्नु । आरोह पृष्टौ आरूढसदा ततः प्रचारं (विटा)। परमाशुचिदुर्गन्य मुवति पृष्टी परुषां च ॥ १७॥ अवीति गिरी धिम् मुण्डित ! वेगविषातः कृत इति दुःखापितः । इति बहुविधमाकोशति पदे पदे सोऽपि भगवांस्तु ॥ १८॥ न गणयति परुपगिर न चापि तं दूषयति तारशं गन्धम् । चन्दनमिष मन्यमानो मिथ्या मे इह दुष्कृतं भणति ॥१५॥ चिन्तयति कयं कुर्वे कथं च समाधिर्भवेत् साधोः।। | इति बहुविधप्रकार व शक्तो यदा क्षोभयितुम् ॥ २० ॥ तदाऽभिष्टुचन सुरो गत आगतश्तरश्च । आकोचयति गुरुभिश्च धन्य इति ततोऽमुशिष्टः ॥२१॥ यथा ता॥६१७॥ | तेन नैवोलविषयमेषशायो यतितम्यं । अथवापीदमन्यदाहारण दृष्टिवादिकम् ॥ २२ ॥ यथा केचित्पञ्च संयतास्तुष्णाशुधाभ्यां विश्यन्तो सुमहान्तमकावानम् । उत्तीर्णा विकाले च प्रामा ग्रामं च ते एकम् ॥ २३ ॥ मार्गयम्ति पानक ते कोकम तत्रानेषणां करोति । न गृहीतं न लब्धमितरत् काहगतास्तुपा भिभूताच ॥ २५॥ चतुर्थ्यामुदाहरण-आचार्येण साधुर्भणित:-प्रामं व्रजामः. दीप अनुक्रम PR4 [२३] * * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम है। उग्गाहिए संते केणइ कारणेण ठिया, एको एत्ताहे पडिलेहियाणित्ति काउं ठवेउमारद्धो, साहहिं चोहो भणह-किमित्थ | सप्पो अच्छइ १, सन्निहियाए देवयाए सप्पो विउविओ, एस जहण्णओऽसमिओ, अण्णो तेणेव विहिणा पडिलेहिता ठवेइ. सो उकोसो समिओ, एत्थ उदाहरणं-एकरस आयरियस्स पंच सीससयाई, तेसिमेगो से हिसुओ पम्याइओ, सो जो जो साहू एइ तस्स तस्स दंडगं निक्खिवइ, एवं तस्स उडियस्स अन्नो एइ अन्नो जाइ, तहावि सो भगवं अतुरियं अचवलं उरि हेडा य पमज्जिय ठवेइ, एवं बहुएणवि कालेण न परितम्मइ-चरिमाए समिईए पण्णत्तमिणं तु वीयरापहिं । आहरणं| धम्मरूई परिठावणसमिइउवउत्तो ॥१॥काइयसमाहिपरिछावणे य गहिओ अभिग्गहो तेणं । सकप्पसंसा अस्सद्दहणे | देवागमविउद्ये ॥ २॥ सुबहुं पिवीलियाओ बाहा जवावि काइयसमाही । अन्नो य उहिओ हूँ साहू बेती तओ गाढं ॥३॥ अहयं च काइयाओ बेई अच्छसु परिहवेमित्ति । निग्गए निसिरे जहियं पिवीलिया ओसरे तत्थ ।। ४ ॥ साहू य उवाहिते सति केनचित्कारणेन स्थिताः, एकोऽभुना प्रतिलिखितानीतिकृत्या स्थापयितुमारब्धः, साधुभिनॉदिनो भगति-किमन्न सतिष्ठति !, सनि हितया देयतया सपो विकुर्विता, एष जघन्योऽसमितः, अन्य स्तेनैव विधिना प्रतिलिख्य स्थापयति, सबकटता समितः, प्रोदाहरण-एक स्थाचार्यख पक्ष शिष्य शतानि, तेम्बेका श्रेष्ठिभुतः प्रमजितः, स यो यः साधुः आयाति तस्य तस्य दण्ड निक्षिपति, एवं समिधिसेम्य भावाति अभ्यो चाति, तथापि स भगवान भत्वरितमचपतमुपर्यवसाचप्रमुज्य स्थापयति, एवं बहनापि काटन न परित्ताम्यति । चश्माया समिती प्रज्ञप्तमि त चीतगगः । भाइरण धर्मरुचिः। पारिधापनिकीसमित्युपयुक्तः ॥1॥ काविकीसमाधिपारिष्टापनिकायां च गृहीतोऽभिप्रहस्तेन । शक्रप्रशंसा अथवाने देवागमो चिकुर्वति ॥ २ ॥ सुबहयः पीपिलिका बाधा जवादपि काविकीसमाथे पम्प स्थितः साधुर्मचीति ततो गाहम् ॥ ३॥ अहं च काविया मबीसि तिष्ठ परिष्ठापयामीति । निर्गतो म्युस्मजति यत्र पिपीलिका अवसर्पन्ति तत्र ॥ ॥ साधुश्च [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~372 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], -15 प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-किलामिजाइ पपिए ता वारिओ य देवेणं । सामाइए निसिद्धो मा पिय देवो य आउट्टो ॥ ५॥ वंदित्तु गओ बितियं तु प्रतिक्रमहारिभ- [दिडिवाइयं खुड्डए उ एको। तेण ण पहिय थंडिल्ल काइया लोभओ राओ॥ ६॥ थंडिलं न पेहियंती न वोसिरे देवयाणा . समिद्रीया | उज्जोओ। अणुपाएँ कओ से दिवा भूमित्ति चोसिरियं ॥ ७॥ एसो समिओ भणिओ अण्णो पुण असमिओ इमोद त्यधिक ॥६१८॥ भणिओ । सो काइयभोमाई एकेक नवरि पडिलेहे ॥८॥ नवि तिष्णि तिणि पेहे बेइ किमित्थं निविहो होजुहो। काऊण उट्टरूवं च निविट्ठा देवया तत्थ ॥९॥ सो उहिओ य राओ तत्थ गओ नवरि पेच्छए उर्दु । बितियं च गओ दूतत्थवि ततियंपि य तत्थषि णिविहो ॥१०॥ तो अपणो उहविओ तेसुंपि तहेव देवया भणिओ। कीस न वि सत्तवीस पहिसी ?सम्म पडिवण्णो ॥ ११ ॥ उच्चाराई एसा परिछावण वणिया समासेणं । बेइ किमेत्तियं चिय परिठप्पमुआहु| अण्णपि ॥ १२॥ भण्णइ अण्णंपत्थी किह तं किह वा परिडवेयवं । संबंधेणेएणं परिठावणिजुत्तिमायाया ॥१३॥ काम्यते अपीतवान् तदा वारितश्च देवेन । सामाविके निपिछो मा पा देवनावर्जितः ॥ ५॥ वन्दित्वा गतः द्वितीयं दृष्टियाविक क्षुलकरत्वेकः । तेन &न प्रेक्षितं काविकीस्थग्धि लोभतो रावी॥॥स्थतिं न मेक्षितमिति न ब्युरस्जति देवतयोयोतः । मनुकम्पया कृतः तख रष्टा भूमिरिति व्युत्सृष्टम् 10॥ एष समितो भणितोऽन्यः पुनरसमितीय भणितः । स काषिकभूम्यादि एकैकं पर प्रतिलिखति ॥ ८॥ नैव श्रीणि श्रीणि प्रत्युपेक्षते प्रवीति किमिहोदिपविष्टो भवेदुष्टः । कृवोट्ररूप चोपविष्टा देवता तत्र ॥ ९॥ स उस्थितश्च रात्रौ तत्र गतः पर प्रेक्षते वनम् । द्वितीयं च गतस्तत्रापि तृतीयमपि तत्राप्युपविष्टः । ॥ 1.॥ ततोऽन्य उत्थापितस्तेष्वपि तथैव देवतया भणितः । कथं नैव सप्तविंशतिं प्रत्युपेक्षसे । सम्प प्रतिपसः 1॥चारादीनामेषा पारिठापनिकी वर्णिता समासेन । मबीति किमेतावदेव पारिष्ठाध्यमुताहो अन्यदपि ॥ १२ ॥ भग्यतेऽन्यदप्यस्ति कथं तत् कचा परिहापयितव्यम् । संबन्धेनतेन पारिष्ठापनिकी नियुक्तिवावासा ॥1॥ दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3730 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक [सू.] पारिद्वावणियविहिं चोच्छामि धीरपुरिसपण्णतं । जणाऊण सुचिहिया परयणसार जबलइंति ॥१॥ व्याख्या-परितै:-सर्वैः प्रकारः स्थापन परिस्थापनम्-अपुनर्ग्रहणतया न्यास इत्यर्थः, तेन निवृत्ता पारिस्थापनिकी तस्या विधि:-प्रकार: पारिस्थापनिकाविधिस्तं 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, किं स्वबुद्ध्योत्प्रेक्ष्य , नेत्याह-धीरपुरुषप्रज्ञप्तम्' अर्थ-18 सूत्राभ्यां तीर्थकरगणधरप्ररूपितमित्यर्थः, तत्रैकान्ततो वीर्यान्तरायापगमाद्धीरपुरुषः-तीर्थकरो गणधरस्तु धी:-बुद्धिस्तया विराजत इति धीरः । आह-यद्ययं पारिस्थापनिकाविधि/रपुरुषाभ्यां प्ररूपित एव किमर्थं प्रतिपाद्यत इत्युच्यते-धीरपुरु-15 पाभ्यां प्रपञ्चेन प्रज्ञप्तः स एव संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहायेह सङ्ग्रेषेणोच्यत इत्यदोषः, किंविशिष्टं विधिमत आह-य 'ज्ञात्वा' विज्ञाय 'सुविहिताः' शोभनं विहितम्-अनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः, साधव इत्यर्थः, किं ?-प्रवचनस्य सारः प्रवचनस-* दोहस्तम् 'उपलभन्ति' जानन्तीत्यर्थः ॥ सा पुनः पारिस्थापनिक्योघतः एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपरिस्थाप्यवस्तुभेदेन द्विधा भवति, आह पदियनोएगेंदिवपारितावणिया समासओ दुविहा । एएसि तु पयाण पतेष परुवर्ण घोळ ॥ १॥ व्याख्या-एकेन्द्रिया:-पृथिव्यादयः, नोएकेन्द्रियाः प्रसादयस्तेषां पारिस्थापनिकी-एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपारिस्थाप-18 हानिकी, 'समासतः संक्षेपेण 'द्विधा' द्विप्रकारा प्रज्ञतोकेनैव प्रकारेण, 'एएसि तु पयाणं पत्तेय परूवर्ण वोच्छं' अनयोः । पदयोरेकेन्द्रियनोएकेन्द्रियलक्षणयोः 'प्रत्येक' पृथक् पृथक् 'प्ररूपणां स्वरूपकथनां वक्ष्ये-अभिधास्य इति गाथार्थः ॥२॥ तत्रैकेन्द्रियपारिस्थापनिकीप्रतिपिपादयिषया तत्स्वरूपमेवादी प्रतिपादयताह पुढची आज्काए तेक वाऊ वपस्सई चेव । पदिय पंचविहा सजाय तहा व अतजाय ॥३॥ दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~374 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- II व्याण्या-पृथिष्यकायस्तेजो वायुर्वनस्पतिश्चैव एवमेकेन्द्रियाः पञ्चविधाः, एक त्यगिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः 'पश्च- प्रतिक्रमहारिभ- 1 विधाः पञ्चप्रकाराः, एतेषां चैकेन्द्रियाणां पारिस्थापनिकी द्विविधा भवति,कथमित्याह-'तज्जाय तहा य अतजाय तज्जातद्रीया पारिस्थापनिकी अतज्जातपारिस्थापनिकी च, अनयोभावार्थमुपरिष्टादश्यतीति गाथार्थः ॥३॥आह-सति ग्रहणसम्भ- ठापनिवेऽतिरिक्तस्य परिस्थापनं भवति, तत्र पृथिव्यादीनां कथं ग्रहणमित्यत आह क्यधिक ॥६१९॥ दुविहं च होइ गहणं भाषसमुस्थं च परसमुत्थं च । एको कपि व दुविहं आभोगे सह भणाभोगे ॥१॥ व्याख्या-द्विविधं तु द्विप्रकारं च भवति 'ग्रहणं' पृथिव्यादीनां, कथम् ?-'आत्मसमुत्थं च परसमुत्थं च' आत्मसमुत्थं च स्वयमेव गृह्णतः परसमुत्थं परस्माद्तः , पुनरेकैकमपि द्विविधं भवति, कथमित्याह-'आभोए तह अणाभोए' |आभोगनम् आभोगः, उपयोगविशेष इत्यर्थः, तस्मिन्नाभोगे सति, तथाऽनाभोगे, अनुपयोग इत्यर्थः, अयं गाथाक्षरार्थः। ॥४॥ अयं पुनर्भावार्थो वर्तते-तस्थ ताव आयसमुत्थं कहं च आभोएण होज, साहू अहिणा खइओ विसं वा खइयं विसष्फोडिया वा उठिया, तत्थ जो अचित्तो पुढविकाओ केणइ आणिओ सो मग्गिजइ, णस्थि आणिलओ, ताहे अप्पणावि आणिजइ, तत्थवि ण होज अचित्तो ताहे मीसो, अंतो हलखणणकुडमाईसु आणिजइ, ण होज ताहे अडवीओ| पंथे बंमिए या दवदहुए वा, ण होज पच्छा सचित्तोवि घेप्पइ, आसुकारी वा कर्ज होजा जो लद्धो सो आणिजइ, एवं १ सन्न तावदात्मसमुत्थं कथं चाभोगेन भवेत् , साधुरहिमा दष्टो विषं वा खादितं विषस्फोटिका वोत्थिता, तत्र योऽचित्ता पृथ्वीकायः केनचिदानीतःस मायते, नास्त्यानीतलदारमनाप्यानीयते, तत्रापि न भवेदचित्तस्तदा मिश्रा, अन्तशो हलखननकुख्यादिभ्य मानीयते, न भवेचदाटवीतः पथि वल्मीकात् | दवदग्धाद्वा, न भवेत् पश्चात्सचित्तोऽपि गृझते, आशुकारि वा कार्य भवेत् यो लन्धः स भानीयते, एवं दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: पृथिकायिकादि षड् जीवनिकायस्य सविस्तर-वर्णनं ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत KAR सूत्रांक कालोपि जाणतो, अणाभोइएण-तेण लोण मग्गिय अचित्तंति काऊणं मीसं सचित्तं वा घेत्तृण आगओ. पच्छा णाय तत्व छडेय, खंडे वा मग्गिए एयं खंडंति लोणं दिन्नं, तंपि तहिं चेव विगिंचियर्ष, ण देज ताहे तं अप्पणा विगिंचियर्ष, एवं आयसमुत्थं दुविहंपि । परसमुत्थं आभोगेण ताव सचित्तदेसमडिया लोणं वा कजनिमित्तेण दिणं, मग्गिएण अणाभोगेण खंड मग्गिय लोणं देज तस्सेव दायब, नेच्छेज ताहे पुच्छिज्जइ-कओ तुन्भेहिं आणियं १, जत्थ साहइ तत्थ | विगिंचिज्जइ, न साहेज न जाणामोत्ति वा भणेज्जा ताहे उवलक्खेयर्ष वण्णगंधरसफासेहि, तत्थ आगरे परिदृविज्जइ, नस्थिर आगरो पंथे वा वर्दृति बिगालो वा जाओ ताहे सुकगं महुरगं कप्परं मग्गिज्जइ, ण होज कप्परं ताहे घडपत्ते पिप्पलपत्ते। वा काऊण परिविज्जइ १।आउकाए दुविहं गहणं आयाए णायं अणायं च, एवं परेणवि णायं अणायं च, आयाए जाणंतस्स | विसकुंभो हणियबो विसफोडिया वा सिंचियवा विसं वा खइयं मुफ्छाए वा पडिओ गिलाणो वा, एवमाइसु (कज्जेसु) [सू.] दीप अनुक्रम [२३] लवणमपि जानन् । भनाभोगिकेन-तेन लवर्ण मागितमचित्तमितिकृत्वा मिश्वं सचित्तं पा गृहीवागतः, पवाद ज्ञातं तवैव वक्तव्यं, सण्यायो या मागिताषामेषा माण्टेति लवर्ण वर्ग, तदपि तत्रैव व्यक्तव्यं, न वयातदारमना वक्तव्यं, एतदात्मसमुथं द्विविधमपि । परसगुत्थमाभोगेन तावत् सचित्तदेशा | मृत्तिका लवर्ण वा कार्याष वर्तमागिते अनाभोगेन खण्डायां मार्गितायां लवणं दद्यात् तमायेव दातव्यं,नेच्छेत् तदा पृच्छचते-कुतस्वयाऽऽमीतं , यतः कथयति तन्न स्यज्यते, म कथयेन जानाम इति वा भणेत्तदोपलक्षितव्यं वर्णगन्धरसस्पीः , तत्राकरे परिष्ठाप्यते नास्त्याकरः पथि ना वर्तन्ते विकालो वा जातस्तदा शुष्क मधुरै कपरं मागंयते न भवेत्कपर तदा बटपत्रे पिप्पलपत्रे वा कृत्वा परिष्ठाप्यते । अकाये विविध प्रहणमामना ज्ञातमज्ञातं च, एवं परेणापि ज्ञातमज्ञातंच, आत्मना सामानस्य विपकुम्भो हन्तव्यो विषस्फोटिका था सेक्कण्या विषं वा खादितं मूर्थयापि वा पतितो मकानो चा, एपमादिषु (कार्येषु.) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~376 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], ་ आवश्यक श्यक- हारिभद्रीया प्रतिक्रमणा. परि| धापनिक्यधिक ཟླ, ཟླ प्रत सूत्रांक ॥६२०॥ पुवमचित्तं पच्छा मीसं अहुणाधोयं तंदुलोदयाइ आउरे कज्जे सचित्तं पि, कए कजे सेसं तत्थेव परिठविजइ, न देज ताहे| पुच्छिज्जइ-कओ आणीयं ?, जइ साहेइ तत्थ परिठवेयचं आगरे, न साहेजा न वा जाणेजा पच्छा वण्णाईहिं उबलक्खेड तत्थ परिवेइ, अणाभोगा कोंकणेसु पाणियं अंबिलं च एगत्थ वेतियाए अच्छइ, अविरइया मग्गिया भणइ-एत्तो गिण्हाहि, तेण अंबिलंति पाणियं गहियं, णाए तत्थेव छुभेजा, अह ण देइ ताहे आगरे, एवं अणाभोगा आयसमुत्थं, परसमुत्थं जाणंती अणुकंपाए देइ, ण एते भगवंतो पाणियस्सरसं जाणंति हरदोदगं दिजा, पडिणीययाए वा देजा, एयाणि से वयाणि भजतुत्ति, णाए तस्थेव साहरियव्यं, न देज जओ आणियं तं ठाणं पुच्छिजइ, तत्थ नेऊ परिढविजइ, न जाणेज्जा वण्णाईहिं लक्खिज्जइ, ताहे णइपाणियं णईए विगिचेज्जा एवं तलागपाणियं तलाए अगडवाविसरमाइसु सहाणेसु विगिंचिजइ, जइ सुकं तडागपाणियं घडपत्तं पिप्पलपर्त वा अढेऊण सणियं विगिंचा, जह उज्जरा न जायंति, पत्ताणं| * * अनुक्रम * [२३] १ पूर्वमधि पश्चान्मित्रं अधुनाधीतं तन्दुलोदकादि आतुरे कार्य सचिचमपि, कृते कार्ये शेषं तत्रैच परिणाप्यते, न दद्याचदा पृच्छयते-कुत आनीतं ?, यदि कयवेत्तन्त्र परिधापषितम्धमाकरे, न कथ येन वा जानाति पश्चाद्वर्णादिमिरपलक्ष्य तय परिष्ठापयति, अनाभोगात् कोणे पानीषमम्लं चैकन वेदिकायां तिहतः, भपिरतिका मार्गिता भणति-अतो गृहाण, तेनाम्लमिति पानीयं गृहीतं, ज्ञाते तत्रैव क्षिपेत् , अथ न दद्याचदाऽऽकरे, एषमनाभोगादात्मसमुत्थं, परसमुत्थं जागानाऽनुकम्पया दद्यातले भगवन्तः पानीयस्य रसे जानन्ति दोदकं वद्यात् , प्रत्पनीकतया वा दद्यात् पताम्यस्य बलानि भजस्थिति, ज्ञाते तत्रैव संहतव्यं, न दद्याधत आनीतं तत्स्थानं पृष्म्यते तत्र भीत्या परिष्ठाप्यते, न जानीयाहूर्णादिभिलक्ष्यते तवा नदीपानीयं नां त्यज्यते एवं तटाक-5॥२०॥ पानीयं तटाके भवटवापीसरआदिषु स्वस्थानेषु त्यज्यते, यदि शुष्क तटाकपानीयं वटपत्रं पिपलपत्रं वाऽवष्टम्य शनैस्त्यश्यते यया प्रवाहा न जायन्ते, पत्राणा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~377 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक असईए भायणस्स कण्णा जाव हेहा सणियं उदयं अल्लियाविजइ ताहे विगिंचिजइ, अह कूओदयं ताहे जइ कूवतडा दउला तत्थ सणिय निसिरह, अणुलसिओ सुकतडा होज्जा उल्लगं च ठाणं नस्थि ताहे भाणं सिकरण जडिजइ, मूले दोरो वज्झइ, उसकावेउ पाणियं ईसिमसंपत्तं मूलदोरो उक्खिप्पइ, ताहे पलोट्टइ, नस्थि कूबो दूरे वा तेणसावयभयं होज्जा । ताहे सीयलए महुररुक्खस्स चा हेठा सपडिग्गहं वोसिरइ, न होज पायं ता उल्लियं पुहविकायं मग्गिता तेण परिहवेइ, असइ सुकंपि उण्होदएण उालेत्ता पच्छा परिहविजइ, निवाघाए चिक्खड़े खड़े खणिऊण पत्तपणालेण विगिंचइ, सोहि |च करेंति, एसा विही, जं पडिनियत्ताए आउकारण मीसे दिण्णं तं विगिंचेइ, संजयस्स पुवगहिए पाणिए आउक्काओ अणाभोगेण दिण्णो जइ परिणओ भुंजइ, नवि परिणमइ जेण कालेण धंडिलं पावइ विगिंचियवं, जत्थ हरतणुया पडेजा हतं कालं पडिच्छित्ता विगिचिजइ शतेउकाओ तहेव आयसमुत्थो आहोएण संजयस्स अगणिकाएण कजं जायं-अहिडको दीप अनुक्रम [२३] मसति भाजनस्व कर्णा वावधस्तात् (पश्चात् ) वानरूदक सिष्यन्ति तदा सयपते, अथ कूपोदक तदा यदि पतट पाईन निसज्यते, भसिच्चमानः शुष्कतटो भवेत् आईच स्थानं नास्ति तदा भाजनं सिककेन बध्यते, मूले दूवरको वध्यते, उध्यक्य पानीयमीषदसंग्राले मूलदवरक उत्क्षिप्यते, बदा प्रलोव्यते, नास्ति पो दूरे वा स्तेन मापदभवं भवेत् तदा शीतले मधुरवृक्षस्याधस्तान सप्रतिग्रहं ब्युरसत्यते, न भवेरपात्रं सदा पृथ्वीकार्य मार्गयित्वा तेन x परिष्ठापयति, असति शुष्कमप्युष्योदकेना बित्या पश्चात् परिष्ठाप्यते, निळधाते कर्दमे बटुं न नित्वा पत्रप्रणालिकया स्वज्यते, शुदि च कुर्वन्ति, एष। विधिः, यत् मत्यनीकतयाऽकायेन मिश्रयित्वा एतं तद्विविच्यते, यदि संयतेन पूर्व गृहीते पानीयेऽकायोऽनाभोगेन दत्तो यदि परिणतो भुश्यते, न परिणमति बेन कालेभ स्थण्डिलं प्राप्यते व कम्य, यत्र हरतनुकाः पतेथुख कालं प्रतीच्छव त्यज्यते । तेजस्कायस्तथैवात्मसमुष्य भाभोगेन संवतयामिकायेन कार्य जातं-अहिदष्टो पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~378 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], हारिभ-1 द्रीया प्रत सूत्रांक ॥२१॥ वा 'डंभिजइ फोडिया वा वायगंठी वा अन्नवृद्धिर्वा, बसहीए दीहजाईओ पविठ्ठो, पोट्टसूल वा तावेयचं, एवमाईहिंपतिक्रमआणिए कजे कए तत्थेव पडिछुडभइ, ण देति तो तेहिं कडेहिं जो अगणी तज्जाइओ तत्थेव विगिचिजइ, न होज सोवि | दाणा. परिन देज वा ताहे तज्जाएण छारेण उपछाइज्जइ, पच्छा अण्णजाइएणवि, दीवएसु तेलं गालिजइ वत्ती य निप्पीलिजा ष्ठापनिमलगसंपुडए कीरद पच्छा अहाउगं पालेइ, भत्तपञ्चक्खायगाइसु मल्लगसंपुडए काऊण अच्छत्ति, सारक्खिजद, कए कज्जे|| क्यधिक तहेव विवेगो, अणाभोगेण खेलमलगालोयच्छारादिसु, तहेव परो आभोपण छारेण दिज वसहीए अगणिं जोइक्खं वा करेज तहेव विवेगो, अणाभोएणवि एए चेव पूयलियं वा सइंगालं देजा, तहेव विवेगो ३ । बाउकाए आयसमुत्थं आभोएण, कहं १, वस्थिणा दिइएण वा कर्ज, सो कयाइ सचित्तो अञ्चित्तो वा मीसो वा भवइ, कालो दुविहो-निद्धो लुक्खो य, णिद्धो तिविहो-उक्कोसाइ, लुक्खोवि तिविहो-उक्कोसाइ, उकोसए सीए जाहे धंतो भवई ताहे. जाव पढमपोरिसी दीप अनुक्रम [२३] X ॥६२२॥ १वादयते स्फोटिका वा यातनन्धियों मनवृतियां, बसती दीर्घजातीयः प्रविष्टः, उदरशूलं पा तापवितव्य, एवमादिभिरानीते कार्य कृते तत्रैव प्रतिक्षिप्यते, न दद्यात्तदा तैः काहयोऽग्नितजातीयस्तत्रैव खज्यते, न भवेत् सोऽपि न दद्याद्वा तदा तजाम क्षारेणाच्छाद्यते, पदन्यजातीयेनापि, दीपेभ्यः तेलंगाल्यते वर्तिनिष्पीब्यते महासंपुढे शिवते पत्राबधायुषर्फ पालयति, भक्तमत्याख्यानाविषु महकसंधुटे कृत्वा तिष्ठति, संरचवते, कृते कायें तथैव विवेका, अनाभोगेन श्लेष्ममलकलोचक्षारादिष, विष पर भाभोगेन दद्यात् , वसती अभि ज्योविवा कुर्यात् तथैव विवेकः । अनाभोगेनापि एते व पूपतिको वा सामारी दद्यात् तथैव विवेकः ॥ वायुकाय आत्मसमुस्थमाभोगेन, कथं, पसिना इत्या वा कार्य, स कदाचित् सचित्तोऽचिनो वा मिश्रो वा भवति, कालो द्विविधःस्निग्धो रक्षा, निग्धधिविधा-कृष्टादि, रूक्षोऽपि त्रिविधः-उस्कृष्टादिः, उत्कृष्टे शीते यदा मातो भपति तदा यावत् प्रथमपीरुपी पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~379 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्रत सूत्रांक ताव अचित्तो वितियाए मीसो ततियाए सचित्तो, मज्झिमए सीए वितियाए आरद्धो चउत्थीए सचित्तो भवइ, मंदसीए| तइयाए आरद्धो पंचमाए पोरिसीए सचित्तो, उहकाले मंदउण्हे मज्झे उक्कोसे दिवसा नवरि दो तिणि चत्तारि पंच य, एवं वस्थिरस दझ्यस्स पुषद्धंतस्स एसेव कालविभागो, जो पुण ताहे चेव धमित्ता पाणियं उत्तारिजइ, तस्स य पढमे हत्थसए अचित्तो वितिए मीसो तइए सचित्तो, कालविभागो नत्थि, जेण पाणियं पगतीए सीयलं, पुर्ष अचित्तो मग्गिजइ पच्छा मीसो पच्छा सचित्तोत्ति । अणाभोएण एस अचित्तोत्ति मीसगसचित्ता गहिया, परोवि एवं चेव जाणतो वा देजा अजाणतो वा, णाए तस्सेव अणिच्छते उबरगं सकवार्ड पविसित्ता सणियं मुंचइ, पच्छा सालाएवि, पच्छा वणणिगुंजे महुरे, पच्छा संघाडियाउवि जयणाए, एवं दइयस्सवि, सचित्तो वा अचित्तो वा मीसो वा होउ सबस्सवि एस विही, मा अण्णं विराहेहित्ति ४ । वणस्सइकाइयस्सवि आयसमुत्थं आभोएणं गिलाणाइकजे मूलाईण गहण होजा, अणाभोएण [सू.] दीप अनुक्रम [२३] तावदचित्तो दिदीवाषां मिधरतूतीपाषां सचित्तः, मध्यमे शीते द्वितीयाया आरभ्य धनुध्याँ सचिसो भपति, मन्वशीते तृतीयसा आरम्य पाम्या पौरष्या सचित्तः, उष्णकाले मन्योष्णे मध्ये उत्कृष्ट दिवसाः परं ही श्रीन चतुरः पन च, एवं बस्नेदेतेः, पूर्वध्मातस्वैप एव कालविभागः, यः पुनस्तदैव ध्माया पानीय उचायते, तस्य च प्रथमे हस्तपाते अचित्तो द्वितीये मिश्रस्तृतीये सचित्तः, कालविभागो नाति, येन पानीयं प्रकृया पीतल, पूर्वमचित्तो मायते पश्चामिश्रा पश्चात्यविध इति । अनाभोगेन एषोऽचित्त इति मिश्रसचित्तौ गृहीती, परोऽप्येवमेव जानम्बा दयाहनानम्बा, हाते ती एव अनियति अपवरर्फ सकपाटं प्रविश्य शनैर्मुच्यते, पक्षात पाहायामपि, पवाङ्कननिकुञ्ज मधुरे, पश्चात् माटिकायामपि यतनया, एवं दृतेरपि, सचिचो वाऽचित्तो वा मिश्रो चा भवन्तु सर्वखाप्येष विधि, मान्य विरासीदिति । वनस्पतिकाधिकला आत्मसमुत्थमाभोगेन क्लानादिकार्याय मूलादीनां ग्रहणं भवात, भनाभोगेन पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं २०५], प्रतिक्रमणा. परिठापनिक्यधिक प्रत सूत्रांक आवश्यक- गाह म गहियं भत्ते वा लोहो पडिओ पिट्ठर्ग वा कुक्कुसा वा, सो चेव पोरिसिविभागो, दुकुडिओ चिरपि होजा, परो आलगेण ५ मिसियगं चबलगमीसियाणि वा पीलूणि कूरओडियाए वा अंतो छोटूर्ण करमदएहिं वा समं कंजिओ अन्नयरो बीय- द्रीयाकाओ पडिओ होजा, तिलाण वा एवं गणं होज्जा, निबं तिलमाइसु होजा, जइ आभोगगहियं आभोगेण वा दिन्नं ॥६२२॥ विवेगो, अणाभोगगहिए अणाभोगदिपणे वा जइ तरह विगिंचिउँ पढम परपाए, सपाए, संथारए लडीए वा पणओ हवेजा ताहे उहं सीयं व णाऊण विगिंचणा, एसोवि वणस्सइकाओ पच्छा अंतोकाए एसि विगिंचणविही, अल्लगं अल्लुहै गखेत्ते सेसाणी आगरे, असइ आगरस्स निवाघाए महुराए भूमीए, अंतो वा कप्परे वा पत्ते वा, एस विहित्ति ॥ अत्र तजातातज्जातपारिस्थापनिकी प्रत्येकं पृथिव्यादीनां प्रदर्शितैव, भाष्यकारः सामान्येन तलक्षणप्रतिपादनायाहवृतजायपरिषणा आगरमाईसु होइ बोद्धव्वा । अतजायपरिट्ठवणा कप्परमाईसु योद्धब्बा ॥ २०५ ॥ (भा०) व्याख्या-तजाते-तुल्यजातीये पारिस्थापनिका २ सा आगरादिषु परिस्थापनं कुर्वतो भवति ज्ञातव्या, आकरा: गृहीतं भक्त वा लोः पतित:पिष्टं वा +फुकसावा, स एव पौरुषीविभागः, दुष्कटः चिरमपि भवेत् , पर माई केण मिश्रित चपलकमिश्रितानि वा | पीवनि कूरकोटिकाया (क्षिप्रचटिकायो) वाऽन्तः क्षित्वा करमः समं वा काजिकः सम्पतरो वा बीजकायः पतितो भवेर, तिलानां चैवं ग्रहणं भवेत् । | निम्बं तैलादिषु भवेत् , बधाभोगगृहीतमाभोगेन वा दत्तं विवेकः, अनाभोगगृहीतेऽमाभोगदत्ते वा यदि शक्यते स्पर्कु प्रथम परपाने खपाचे, संस्तारके लायां | | वा पनको भवेत् तदोष्णं शीतं वा ज्ञात्वा त्यागः, एषोऽपि वनस्पतिकाधिकः, पश्चादन्तःकाय एषां विकविधिः, आईमाई कक्षेत्रे शेषाणि आकरे, असल्याकारे निबांधाते मधुरायाँ भूमौ, भन्तर्वा कपरस्य वा पात्रस या एष विधिरिति। *टुक, + कणिका. 62-%AREE दीप अनुक्रम 24 [२३] ॥२२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~381 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५], प्रत सूत्रांक पृथिव्याद्याकराः प्रदर्शिता एव, अतजातीये-भिन्नजातीये परिस्थापनिका २ सा पुनः कर्परादिषु यथा (योग) परिस्थापन ४ कुर्वतो बोद्धव्येति गाधार्थः॥ गतेकेन्द्रियपरिस्थापनिका, अधुना नोएकेन्द्रियपारिस्थापनिका प्रतिपादयन्नाह __णोएगिदिएहि जा सा सा दुविहा बोट आणुपुत्रीए । तसपाणे मुबिहिया ! नायचा नोतसेदि च ॥५॥ व्याख्या-एकेन्द्रिया न भवन्तीति नोएकेन्द्रियाः-वसादयस्तैः करणभूतैरिति तृतीया, अथवा तेषु सत्सु तद्विषया वेति सप्तमी, एवमन्यत्रापि योज्यं, याऽसौ पारिस्थापनिका सा 'द्वि(वि)धा' द्विप्रकारा भवति 'आनुपूया' परिपाव्या,12 द्वैविध्यमेव दर्शयति-तसपाणेहिं सुविहिया णायबा णोतसेहिं च' वसन्तीति त्रसाः साश्च ते प्राणिनश्चेति समासस्तैः18 करणभूतैः सुविहितेति सुशिष्यामन्त्रणम् , अनेन कुशिष्याय न देयमिति दर्शयति, ज्ञातव्या-विज्ञेया 'नोतसेहिं च' असा हान भवन्तीति नोत्रसा-आहारादयस्तैः करणभूतैरिति गाथार्थः ॥५॥ तलपाणेहिं जा सा सा दुविदा होह माणुपुत्रीए । वियलिदियतसेहि जाणे पश्चिदिएहिं च ॥६॥ व्याख्या-वसपाणिभिर्याऽसौ सा द्वि(वि)धा भवति आनुपूा, 'विकलेन्द्रिया' द्वीन्द्रियादयश्चतुरिन्द्रियपर्यन्तास्तैश्च, 'जाणि'त्ति जानीहि पञ्चेन्द्रियैश्चेति गाथार्थः ॥६॥ विगलिदिएहि जा सा सा तिविहा बोद आणुपुडीए । वियतिवचउरो बावि व सजाया तहा अतजाया ॥ ७ ॥ व्याख्या-विकलेन्द्रियोऽसौ सा त्रिविधा भवति आनुपूर्व्या, वियतियचउरो याविय' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाँवाधिकृत्य, सा च प्रत्येक विभेदा, तथा चाह-तजाय तहा अतज्जाया' तज्जाते-तुल्य जातीये या क्रियते सा तजाता, दीप अनुक्रम KARANACEACY [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], प्रत सूत्रांक तथा अतज्जाता-अतजाते या क्रियत इति गाथार्थः ॥७॥॥ भावार्थस्त्वयं-बेइंदियाणं आयसमुत्थं जलुगा गंडाइसु आवश्यक कजेसु गहिया तस्थेव विगिंचिजह, सत्तुया वा आलेबणनिमित्तं ऊरणियासंसत्ता गहिया विसोहित्ता आयरे विगिचेति, णा. परि द्रीया असइ आगरस्स सत्तुएहिं समं निवाघाए, संसत्तदेसे वा कत्थइ होज अणाभोगगहणं तं देसं चेव न गंतवं, असिवाईहिछापनि लगमेजा जत्थ सत्तुया तत्थ कूरं मग्गइ (पं० १६०००), न लहइ तद्देवसिए सत्तुए मग्गइ, असईए वितिए जाव ततिए, क्यधिक ॥१२॥ असइ पडिलेहिय २ गिण्हइ, वेला वा अइकमइ अद्धाणं वा, संकिया बा मते घेप्पंति, बाहिं उज्जाणे देउले पडिसयरस वा। बाहिं रयत्ताणं पत्थरिऊर्ण उवरि एक घणमसिणं पडलं तत्थ पल्लच्छिंजति, तिन्नि ऊरणयपडिलेहणाओ, नस्थि जइ ताहे पुणो पडिलेहणाओ, तिणि मुढिओ गहाथ जइ सुद्धा परिभुजंति, एगमि दिहे पुणोवि मूलाओ पडिले हिजंति, जे तत्थ पाणा ते मल्लए सत्तुएहिं समं ठविगंति, आगराइसु विगिंचइ, नत्थि बीयरहिएसु विगिंचाइ, एवं जत्थ पाणयंपि बीयपाए । दीप अनुक्रम [२३] | पहीन्द्रियाणामामसमुत्थं जलीका गण्डाविषु कार्येषु गृहीता सबैष साज्यते, सकुका वा आलेपन निमित्तं कर्णिका संसका गृहीता विशोध्याकरे यजति,असत्याकारे। ४सकैः समं निम्यांचाते, संसकदेशे वा कुलचित् भवेदनाभोगग्रहण से देश मेवन गाठेव , अशिवादिभिर्गपछेन बन सकुकाममा रो मायंते, म लभ्यते तदेव सिकान सक्तुकान् मार्गयति, असति देतीविकान् पावचाविकान् , असति प्रतिलिख्य २ गृह्णाति, पेला वाऽतिकामति अध्वानं वा (प्रतिपत्रा), शङ्किता। वा मानके गृहाति, बहिरुथानात् देवकुले प्रतिश्रयस्य वा बहिः रजवाणं प्रतीर्य उपकं घनममृणं पटलं तत्र प्रच्छादयति, विकृत्व अरणिकाप्रतिलेखना. नास्ति यदि तदा पुनः प्रति लेखना, तिम्रो मुष्टीहीखा यदि शुद्धा परिभुज्यन्ते, एकल्यां रष्टायां पुनरपि मूलात् प्रतिलेखपति, ये तब प्राणिनो महफे सक्तः समं स्वायन्ते, भाकरादिषु त्वज्यन्ते, न सन्ति बीजरहितेषु त्यजति, एवं पत्र पानीयमपि द्वितीषयावे. ||६२शा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3830 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम पंडिलेहित्ता जग्गाहिए छुब्भइ, संसत्तं जायं रसरहिं ताहे सपडिग्गई वोसिरउ, नस्थि पार्य ताहे अंबिलिं पाडिहारिय। मग्गज, णो लहेज सुक्यं अंबिलिं उल्लेऊणं असइ अण्णांमेवि अंबिलिवीयाणि छोहण विगिंचइ, नस्थि बीयरहिएस विगिंचाइ, परछा पहिस्सए पाटिहारिए वा अपाडिहारियं वा तिकालं पडिलेहेइ दिणे दिणे, जया परिणयं तहा विगिंचइ, भायणं च पडिअपिज्जा, नस्थि भायणं ताहे अडवीए अणागमणपहे छाहीए जो चिक्खालोतस्थ खई खणिऊण निच्छिई। लिंपित्ता पत्तणालेणं जयणाए छुभइ, एकसि पाणएणं भमाडेइ, तंपि तत्थेव छुटभइ, एवं तिनि वारे, पच्छा कप्पेइ सहकठेहि य मालं करेंति चिक्खिल्लेणं लिंपइ कंटयछायाए य उच्छाएइ, तेण य भाणएणं सीयलपाणयं ण लयइ, अवसावणेण कूरेण य भाविजइ, एवं दो तिणि वा दिवसे, संसत्तगं च पाणयं असंतत्तगं च एगो न घरे, गंधेण विसंसिज्जइ, संसत्तं च गहाय न हिंडिज्जइ, विराहणा होज, संसत्तं गहाय न समुद्दिसिज्जइ, जइ परिस्संता जे ण हिंडंति ते लिंति, जे प्रतिलियोहाहि के शिष्यते, संसक्तं जातं रसजैलदा सप्रतिग्रहं व्युत्सृजत, नासि पात्रं तदा चिनिणिको प्रातिहारिकी मार्गयतु, न लभेत शुष्का चिचिणिका आईवित्वा असति भन्यमिमपि चिजिणिकाबीनानि क्षिस्वा बिवियते, मास्ति बीजरहितेषु सम्यते, पवार प्रतिभये प्रातिहारिके वा अप्राति हारिक वा त्रिकाल प्रतिलिखति दिने दिने, बदा परिणतं तदा विविधते, भाजनं च प्रत्यर्पते, नास्ति भाजनं तदाऽटण्यामनागमनपधे पायाषा या कर्दमता गतै खनित्या निश्छिनं लिया पानाहेन यतनया क्षिपत्ति, एकशः पानीपेनादयति, तदपि तत्रैव क्षिपति, एवं बीन् बारान्, पक्षात कापयति लक्ष्णकाटेश्व मातं करोति कर्दमेन लिम्पति कण्टकपछायया चाण्डादयति, तेन च भाजनेन शीतलपानीयं न लाति, अवनावणेन करेण च भाव्यते, एवं डी ग्रीन पा दिव| सान्, संसक्तं च पामकमसंसकं चैको न धारयेत्, गन्धेन विशवते, संखच गृहीत्वा न हिणवते, विराधना भवेत, संसकं गृहीत्वा न भुज्यते, यदि परिश्रान्ताहि ये न हिण्डन्ते से कान्ति, ये [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3840 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], 10- - 0 2 प्रत सूत्रांक आवश्यक- पाणा दिछा ते मया होजा, एगेण पडिलेहियं बीएण ततिएण, सुद्धं परिभुजंति, एवं चेव महियस्सवि गालियदहियस्स प्रतिक्रमहारिभ- |नवणीयस्स य का विही?, महीए एगा उही छुब्भइ, तत्थ तत्थ दीसंति, असइ महियरस का विही ?, गोरसधोवणे, णा. परिद्रीया तपच्छा अण्होदयं सियलाविज्जइ, पच्छा महुरे चाउलोदए, तेसु सुद्धं परिभुजइ, असुद्धे तहेव विवेगो दहियस्स, पच्छओ | ठापनिउयन्ता णियत्ते पडिलेहिजइ, तीराए सुत्तेसुवि एस विही, परोवि आभोयणाभोयाए ताणि दिजा ॥ तेइंदियाण गहणं शाक्यधिक ॥६२४॥ सत्यपाणाण पुवभणिओ विही, तिलकीडयावि तहेव दहिए वा रल्ला तहेव छगणकिमिओवि तहेव संधारगो वा गहिओ घुणाइणा णाए तहेव तारिसए कडे संकामिजइ, उद्देहियाहिं गहिए पोत्ते णस्थि तस्स विगिचणया, ताहे तेसिंवि लोढाइजइ, तत्थ अइंति लोए, छप्पइयाउ विसामिजति सत्तदिवसे, कारणगमणं ताहे सीयलए निवायाए, एवमाईणं तहेव | आगरे निवाघाए विवेगो, कीडियाहिं संसत्ते पाणए जइ जीवंति खिप्पं गलिजइ, अहे पडिया लेवाडेणेव हत्थेण उद्धरेयबा, [सू.] -५ दीप अनुक्रम -५ [२३] प्राणिनो रयाले मता भवेयुः, एकेन प्रतिलेखितं द्वितीयेन तृतीपेन, शुद्ध परिभुजन्ति, एवमेव गोरखस्थापि गालितस्य पक्षी नवनीतख च कोविधिः , तक्रस्काउटा क्षिध्यते तब तत्र श्यन्ते, असति तके को विधिः १, गोरसधारनं, पादुण्णोदकं शीतलीयते पश्चात् मधुरं तन्दुलोदक, तेषु शुद्ध परि | भुज्यते, अशुद्ध तथैव विवेको दमः, पश्चात् गच्छन्त आगच्छन्तः प्रतिलेखयन्ति. (उदध्यादेः) तीरादिषु सुप्लेष्वपि एप विधिः, परोऽध्याभोगानाभोगाभ्यां तानि दद्यात् ॥ श्रीनिवाण महणं सक्नुपाणिना पूर्वभणितो विधिः तिलकोटका अपि तथैव दक्षि याला तव गोमयकमयोऽपि तथैव संस्कारको वा | गृहीतो घुणादिभिः ज्ञाते तथैव साहशे काहे संशाम्यन्ते, बदहिकाभिहीते पोते नास्ति तस्य विवेकः, सदा सासामपि भपतारण कियते, तत्रापयान्ति स्वस्थाने, पढ़पदिका विश्वाम्यन्ते सप्त दिवसान , कारणे गमनं तदा शीतले नियांधाते, एवमादीनां सधैवाकरे निर्माघाते विवेका, कीटिकाभिः संसक्त पानीवे यदि जीवन्ति क्षिप्रं गास्यते, अधापतिता लेपकतैव हस्तेनोवतव्याः ||६२४॥ CAD5 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०५...], प्रत सूत्रांक | अलेवडयं चेव पाणयं होइ, एवं मक्खियावि, संघाडएण पुण एगो भत्तं गेण्हइ मा चेव छुन्भइ, बीओ पाणयं, हत्थो। अलेवाडओ चेव, जइवि कीडियाउ मझ्याउ तहवि गलिज्जति, इहरहा मेहं उवणंति मच्छियाहि वमी हवइ, जइ तंदुलोयगमाइसु पूयरओ ताहे पगासे भायणे छुहित्ता पोत्तेण दहरओ कीरइ, ताहे कोसएणं खोरएण वा उक्कहिजइ, धोवएण पाणएण समं विगिंचिजइ, आउकार्य गमित्ता कडेण गहाय उदयस्स ढोइजइ, ताहे अप्पणा चेव तत्थ पडइ, एबमाइ तेइंदियाणं, पूयलिया कीडियाहिं संसत्तिया होज्जा, सुकओ वा कूरो, ताहे झुसिरे विक्खिरिजइ, तहेव तत्थ ताओ पविसंति, मुहुसयं च रक्खिज्जइ जाव विषसरियाओ। चरिंदियार्ण आसमक्खिया अखिंमि अक्खरा उकहिजइत्ति घेषइ, परहत्थे भत्ते पाणए वा जइ मच्छिया तं अणेसणिज, संजयहत्थे उद्धरिजइ, नेहे पडिया छारेण गुंडिजाइ, कोत्थलगारिया वा वच्छत्थे पाए वा घरं करेजा सबविवेगो, असइ छिंदित्ता, अह अन्नंमि य घरए संकामिजंति, संथारए मंकुणाणं दीप अनुक्रम [२३] अलेपकदेव पानीयं भवति, एवं मक्षिका अपि, संघाटकेन पुनरेको भकं गृहाति, मैव पप्तन् , द्वितीयः पानीयं, हलो लेपलदेव, यद्यपि कीटिका मृतास्तथापि गाड्यन्ते, इतरथा मेधामुपहन्युः मक्षिकाभिरान्तिर्भवति, यदि तन्दुलोदकादिपु पूतरकास्तदा प्रकाशे भाजने विस्वा पोतेनाच्छादनं क्रियते, ततः कोशेन क्षौरकेण वा निष्काश्यन्ते, लोकेन पानी येन समं त्वज्यन्ते, अकार्य प्रापथ्य काहेन गृहीत्वोदकाये विषन्ते, तदात्मनैव तत्र पतन्ति, एवमादिश्रीन्द्रियाणा, |पूलिका कीटिकाभिः संसका भये, शुष्को वा क्रः, सदा सुषिरे विकीर्यते, तयैव ताः प्रविशन्ति, मह च रपन्ते यावद्विमस्ताः । चतुरिनियाणा म मधमक्षिका अदणः पुषिको निष्कापायन्ति इति गृह्यन्ते, परहमते भक्त पानी वा यदि मक्षिकातदनेषणीयं, संयवासे उनियन्ते, जे हे पतिताः क्षारेणावगुण्ड्यन्ते कोस्थलकारिका वा बने पाने वा गृहं कुर्यात् सर्वविवेका, असति छित्त्वा, अथान्यस्मिन् गृहे वा संक्राम्यन्ते, संसारके मरकुणानां पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~386 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...., प्रतिक्रम प्रत दीया परिस्थापनिका सूत्रांक आवश्यक पुचगहिए तहेव घेप्पमाणे पायपुछणे वा, जइ तिन्नि वेलाउ पडिलेहिजतो दिवसे २ संसजा ताहे तारिसएहिं चेव कहेहि हारिभ संकामिति, दंडए एवं चेव, भमरस्सवि तहेव विवेगो, सअंडए सकट्ठो विवेगो, पूतरयस्स पुषभणिओ विवेगो, एवमाइ | जहासंभवं विभासा कायवा । गता विकलेन्द्रियत्रसपारिस्थापनिका, अधुना पश्चेन्द्रियत्रसपारिस्थापनिका विवृण्वन्नाह॥६२५॥ पंचिदिएहिं जा सा सा दुविधा होइ माणुपुशीए । मणुहि च सुविहिया, नायमा मोषमणुएदि ॥ ८॥ व्याख्या-पश्च स्पर्शादीनीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः-मनुष्यादयस्तैः करणभूतस्तेषु वा सत्सु तद्विषयाऽसौ पारिस्थापनिका सा द्विविधा भवत्यानुपूर्व्या, मनुष्यैस्तु सुविहिता! ज्ञातव्या, 'नोमनुष्यैश्च' तियेग्भिः, चशब्दस्य व्यवहितः। सम्बन्ध इति गाथाक्षरार्थः, ॥८॥ भावार्थ तूपरिष्टावक्ष्यामः ॥-. मशुपछि खलु जा सा सा दुविहा होइ आणुपुत्रीए । संजयमणुएदि तह नायबामसंजएहिं च ॥९॥ व्याख्या-मनुष्यैः खलुः याऽसौ सा द्विविधा भवति आनुपूर्ध्या संयतमनुष्यैस्तथा ज्ञातव्याऽसंयतैश्चेति गाथार्थः ॥९॥ भावार्थ तूपरिष्टाद्वक्ष्यामः संजयमणुएहिं जा सा सा सुविधा होद माणुपुत्रीए । सचित्तीं सुपिहिया ! अधिरोहिं च नायक ॥10॥ व्याख्या-'संयतमनुष्यैः' साधुभिः करणभूतैर्याऽसौ पारिस्थापनिका सा द्विविधा भवत्यानुपूा, सह चित्तेन वर्तन्त | पूर्वगृहीते तथैव गृह्यमाणे पादप्रोम्छने वा यदि तिम्रो बाराः प्रतिलिण्यमानो दिवसे दिवसे संसृज्यते तदा तादृशैरेव का?ः संकाम्यन्ते, दण्डकेऽप्येजाबमेव, अमरस्यापि विवेकसधैव विवेकः, साण्डे सकाराव विवेकः, पूतरकस्य पूर्वभाणितो विवेकः, एवमादि वासंभवं विभाषा कर्तव्या। दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~387 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], प्रत -- 1 सूत्रांक RAJASCANCATCCAS इति सचित्तास्तैः-जीवद्भिरित्यर्थः, सुविहितेति पूर्ववत् 'अच्चित्तेहिं च णायवत्ति अविद्यमानचित्तैश्च-मृतरित्यर्थः, ज्ञातव्या-विज्ञेयेति गाथाक्षराधः ॥ १०॥ इत्थं तावदुद्देशः कृतः, अधुना भावार्थः प्रतिपाद्यते, तत्र यथा सचित्तसंयताना ग्रहणपारिस्थापनिकासम्भवस्तथा प्रतिपादयन्नाह ___अणभोग कारणेण च नपुंसमाईसु होइ सञ्चित्ता । वोसिरणं तु नपुंसे सेसे कालं पढिक्खिजा 1॥ व्याख्या-आभोगनमाभोगः-उपयोगविशेषः न आभोगः अनाभोगस्तेन 'कारणेन वा' अशिवादिलक्षणेन 'नपुंसका|दिषु' दीक्षितेषु सत्सु भवति 'सचित्ता' इति व्यवहारतः सचित्तमनुष्यसंयतपरिस्थापनिकेति भावना, आदिशब्दाज्जड्डा| दिपरिग्रहः, तत्र चायं विधिः-योऽनाभोगेन दीक्षितः स आभोगित्वे सति व्युत्सृज्यते, तथा चाह-वोसिरणं तु नपुंसे'त्ति व्युत्सृजन-परित्यागरूपं नपुंसके, कर्तव्यमिति वाक्य शेषः, तुशब्दोऽनाभोगदीक्षित इति विशेषयति, 'सेसे कालं पडिक्खिजत्ति शेषः कारणदीक्षितो जड्डादिा, तत्र 'कालन्ति यावता कालेन कारणसमाप्तिर्भवत्येतावन्तं कालं जड्डादौ वक्ष्यमाणं च प्रतीक्ष्येत, न तावद्धुत्सृजेत् इति गाथाक्षरार्थः ॥ ११ ॥ अथ किं तत्कारणं येनासी दीक्ष्यत इति ?, तत्रानेकभेदं| कारणमुपदर्शयन्नाह असिषे मोमोयरिए रापबुढे भए व भागाढे । गेलने तिमो नाणे बदसणचरिते ॥१२॥ व्याख्या-'अशिर्व' व्यन्तरकृतं व्यसनम् 'अवमौदर्य दुर्भिक्षं 'राजद्विष्ट' राजा द्विष्ट इति 'भयं' प्रत्यनीकेभ्यः 'आगाढं' भृशम, अयं चागाढशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते अशिवादिषु 'ग्लानत्वं' ग्लानभावः 'उत्तमार्थी' कालधर्मः, दीप अनुक्रम [२३] 565%AX पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~388 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], द्रीया प्रत सूत्रांक ॥६२६॥ C 'ज्ञान' श्रतादि तथा 'दर्शन' तत्प्रभावकशास्खलक्षणं 'चारित्र' प्रतीतम्, एतेष्वशिवादिषूपकुरुते यो नपुंसकादिरसी|S दीक्ष्यत इति, उक्तं च-रायदुभएसुं ताणह णिवस्स वाऽभिगमणा । वेजो व सयं तस्स व तप्पिस्सइ वा गिलाणस्स णाध्य ॥१॥ गुरुणोच अप्पणो वा णाणाई गिण्हमाणि तप्पिहिई । अचरणदेसा णिन्ते तप्पे ओमासिवेहिं वा ॥२॥ एएहिं कार- परिस्थापराणेहिं आगाढेहिं तु जो उ पञ्चावे। पंडाई सोलसयं कए उ कजे विगिचणया॥३॥' जो सो असिवाइकारणेहिं पबाविज्जइ नपुं. | निका. सगो सो दुविहो-जाणओ य अजाणओ य, जाणओ जाणइ जह साहूर्ण न वट्टइ नपुंसओ पवावेडं, अयाणओ न जाणइल तत्व जाणओ पण्णविजइ जह ण वर तुझ पवजा, णाणाइमग्गविराहणा ते भविस्सइ, ता घरत्थो चेव साहूर्ण वट्टम |तो ते विउला निजरा भविस्सइ, जइ इच्छइ लहं, अह न इच्छद तो तस्त अयाणयस्स य कारणे पवाविजमाणाणं है इमा जयणा कीरइ कडिपए य छिहली कत्तरिया भंड लोय पाडे य । धम्मकहसचिराउल बबहारविकिंवणं कुजा ॥ दार ॥ १५॥ व्याख्या-कडिपट्टगं चास्य कुर्यात् , शिखां चानिच्छतः कर्तरिकया केशापनयनं 'भंडु'त्ति मुण्डनं वा लोच वा पार्ट राजविष्टभयेषु वाणार्याय नृपस्य चाऽभिगमनार्थम् । वैद्यो चा स्वयं तस्य चाप्रति जागरिष्यति वा ग्लानम् ॥१॥ गुरोर्चाऽमनोचा ज्ञानावि गृह्णतस्तप्स्यति । भचरणदेशानिर्गच्छतः तप्स्यति अवमाशिषेषु पा ॥ २ ॥ एतेष्वागाडेपु कारणेषु तु यस्तु प्रमाजयति । पपडादि पोशाकं कृते तु कायें विवेकः ॥ ३ ॥ यः सोऽशिवादिकारणैः प्रत्राज्यते नपुंसकः स विविधः-ज्ञायकोजायकल, जावको जानाति यथा साधूनां न कापते नपुंसकः प्रचाजयितुं अज्ञायको न जानाति, तत्र ज्ञायकः प्रज्ञाप्यते यथा न वर्तते तव प्रवज्या, ज्ञानादिमार्गविराधना ते भविष्यति, तहे स्थित एवं साधूनां (अनुग्रहे) बर्तस ततसे विपुलाP २६॥ निर्जरा भविष्यति, यदीरति लाएं, अथ नेच्छति तदा तस्थाज्ञायकस्य च कारणे प्रवाश्यमानानामियं यतमा क्रियते । MARCRACK दीप अनुक्रम ARSEX [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], ) प्रत सूत्रांक ४च विवरीयं धर्मकथा संझिनः कथयेत् राजकुले व्यवहारम् , इत्थं विगिश्चनं कुर्यादिति गाथाक्षरार्थः ॥१।। भावार्थस्त्वयं-1 पवयंतस्स कडिपट्टओ से कीरइ, भणइ य-अम्हाण पञ्चयंताण एवं चेच कर्य, सिहली नाम सिहा सा न मुंडिजइ, लोओ ण कीरइ, कत्तरीए से केसा कपिजंति, छुरेण वा मुंडिज्जइ, नेच्छमाणे लोओवि कीरह, जो नजइ जणेण जहा एस नपुंसगो, अनजतेवि एवं चेव कीरइ जणपञ्चयनिमित्त, वरं जणो जाणतो जा एस गिहत्थो चेव । पाढरगहणेण दुविहा सिक्खा-हणसिक्खा आसेवणसिक्खा य, तत्थ गहणसिक्खाए भिक्खुमाईणं मयाई सिक्खविनंति, अणिच्छमाणे जाणि ससमए परतिस्थियमयाई ताणि पादिजंति, तंपि अणिच्छंते ससमयवत्तवयाएवि अन्नाभिहाणेहिं अत्थविसंवादणाणि पाढि जति, अहवा कमेणं जालस्थपलस्था से आलावया दिजंति, एसा गहणसिक्खा, आसेवणसिक्खाए चरणकरणं ण गाहिजइ, किंतु-वीयारगोयरे घरसंजुओ रत्तिं दूरे तरुणाणं । गाहेह ममंपि तो थेरा गाहिंति जत्तेण ॥१॥रगकहा [सू.] दीप अनुक्रम %25-4-5%2-562-56-5-%25%25 [२३] प्रमजतः कटिपहालस्य क्रियते, भगति -प्रमाकं प्रबजतामेवमेव कृतं, सिहली नाम शिखा सा म मुख्यते, कोचो न क्रियते, कर्तयां तख केशा करप्षन्ते, क्षुरप्रेण वा मुण्मयते, अनिच्छति होचोपि क्रियते, यो ज्ञायते जनेन ययैष नपुंसका, अज्ञायमानेअपि एवमेव क्रियते जनप्रत्ययनिमित, वरं जनो जानानु यथैप गृहस्थ एव । पाठप्रहणेन द्विविधा शिक्षा ग्रहणशिक्षा आसेवनाशिक्षा च, सन ग्रहणशिक्षायां भिक्षुकादीनां मतानि शिक्ष्यन्ते, अनिच्छति यानि खसमये परतीर्षिकमतानि तानि पाठ्यन्ते, सदपि अनिच्छति खसमयरक्तव्यतामपि कन्यानिधानरर्थविसंवादनानि पाख्यन्ते, अथवा क्रमेण विपर्यस्तास्ती भालापका दीयन्ते, एषा ग्रहणशिक्षा, भासेवनशिक्षायां चरणकरण न माझते, किन्तु विचारगोचरा, स्थविरसंधुतो रात्री दूरे तरुणानां, पाठय मामपि (यदा भणति) तदा स्थविरा ग्राहयन्ति यनेन ॥॥ वैराग्यकथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...., आवश्यक- प्रत द्रीया ॥२७॥ सूत्रांक विसयाण य जिंदा उणिसियणे गुत्ता चुकखलिए य बहुसो सरोसमिव तज्जए तरुणा ॥२॥ सरोसं तजिज्जइ वरं प्रतिक्रमविप्परिणमंतो,-'धम्मकहा पादिति व, कयकज्जा वा से धम्ममक्खंति-मा हण परपि लोयं अणुवया दिक्ख णो तुझणाध्य. ॥१॥ सन्नित्ति दारं ॥ एवं पन्नविओ जाहे नेच्छइ ताहे-'संनि खरकंमिया वा भेसिति, कओ इहेस संविग्गो? निवसङ्के वा परिस्थाप निका दिक्खिओं एएहिं अनाएँ पडिसेहो ॥१॥ सण्णी-सावओ खरकमिओ अभद्दओ वा पुवगमिओ तं भेसेइ-कओ एस४ तुज्झ मज्झे नपुंसओ?, सिग्धं नासउ, मा णं ववरोवेहामोत्ति, साहुणोवि तं नपुंसर्ग वयंति-हरे एस अणारिओ मा ववरोविजिहिसि, सिग्धं नस्ससु, जइ नहो लई, अह कयाइ सो रायउलं उवहावेजा-एए ममं दिक्खिऊण धाडति एवं, सो, |य ववहारं करेजा 'अन्नाए' इति जइ रायउलेणं ण णाओ एएहिं चेव दिक्खिओ अन्ने वा जार्णतया नस्थि ताहे भण्णइ-17 [सू.] दीप अनुक्रम SACROSSACXXX [२३] विषयाणां च निन्दा, साथान निषीदने पक्षा, स्थकिते च बहुशः सरोचमिव तर्मयन्ति सरुणाः ॥ २॥ सरोपं तपते पर विपरिणमन्-'धर्मकथाः पाठ | यन्ति वा, कृतकार्या वा ती धर्ममाक्यान्ति-मा जहि परमपि लोकं अनुक्तानि दीक्षा न तब ॥१॥ संज्ञीति द्वार ॥ एवं प्रशापितो यहा नेच्छति तदा संझिनः परकर्मिका वा भापन्ति, कुत इष संविप्नः १ नृपशि दीक्षित्वा वा एतैरहाते प्रतिषेधः॥1॥ संशी-श्रावकः खारकर्मिको यथाभनको वा पूर्वश-IX२७॥ पितस्तं भापयति-कृत एष युष्माकं मध्ये नपुंसका', की नश्यतु, मा तं व्यपरोपिष, साधचोऽपि तं नपुंसकं वदन्ति-हंडो मेषोऽनार्यो व्यपरोपीदिति शीनं नश्य, यदि मष्टो लाई, भय कदाचित् स राजकुलमुपतिष्ठेत-पते मोदीक्षयित्वा निवांटयन्ति एवं, सच ज्यवहारं कारयेत, अशात इति यदि राजकुलेन न ज्ञातमेतैरेव दीक्षितोऽन्ये वा शायका न सन्ति सदा भणन्ति पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~391 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...., प्रत सूत्रांक दिन एस समणो पेच्छह से नेवत्थं चोलपट्टकाइ, किं अम्ह एरिस नेवत्थंति ?, अह तेण पुर्व चेव ताणि नेच्छियाणि ताहे भण्णइ-एस सयंगिहीयलिंगी, ताहे सो भणइ ममाविमो मि एएहिं चेत्र पढिसेहो, किंचाहीतं !, तो । छळियकदाई कह करथ नई काथ छलियाई १॥४॥ पुग्नावरसंजु चेरणाकरं सर्ततमविरुद्ध । पोराणमद्धमागहमासानिययं हवा सुतं ॥ १५ ॥ जे सुतगुणा कुत्ता सविपरीयाणि गाहए पुधि । निच्छिपणकारणाणं सा पेप विनिधणे जयणा | 100 गाथात्रयं सूत्रसिद्धं, अह कयाई सो बहुसयणो रायवल्लहो वा न सका विगिंचिउँ तत्थ इमा जयणा काबालिए सरक्खे ताणियवसहलिंगरूवेणं । वेढुंबगपाइए काय विदीय बोसिरणं ॥ १७ ॥ 31 व्याख्या-'कावालिए'त्ति वृथाभागीत्यर्थः, कापालिकलिङ्गरूपेण तेन सह भवति, 'सरक्खो'त्ति सरजस्कलित रूपेण, भौतलिङ्गरूपेणेत्यर्थः, 'तबपिणपत्ति रक्तपट्टलिङ्गरूपेण इत्थं 'वेडुंबगपचइए नरेन्द्रादिविशिष्टकुलोद्गतो वेडुम्बगो भण्यते, तस्मिन् प्रत्रजिते सति कर्तव्यं 'विधिना' अक्कलक्षणेन 'व्युत्सृजन' परित्याग इति गाथार्थः ॥ १७ ॥ भावार्थस्स्वयं दीप अनुक्रम [२३] नैय श्रमणः प्रेक्षय तस्य नेपथ्य बोलपट्टकादि, किम साकमीशं नेपथ्यामिति?, अथ तेन पूर्वमेव तानि नेष्टानि तदा भण्यते-एप स्वयंगृहीतलिक, तदा स भणति-अध्यापितोऽस्म्येतिरेव प्रतिषेधः, किंवाधीत?, ततः उलितकथादि कथयति यतिः क ()लितादि ॥१॥ वापर संयुक्तं वैराग्यकर खतन्त्रमविरुद्धम् । पौराणमर्धमागधभाषानियतं भवति सूत्रम् ॥ २ ॥ ये सूत्रगुणा उक्कासाद्विपरीतानि ग्राहयेत् पूर्वम् । निस्तीर्णकारण्यानो सैव त्यागे यतना ॥३॥ अथ कदाचित स बहुस्सजनो राजपालभो वा न शक्यते विवेक सोपा यतना. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~392 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], 1% आवश्यकहारिभद्रीया प्रतिकमणाध्य परिस्थाप प्रत निका सूत्रांक ॥६२८॥ दीप अनुक्रम निववलमबहुपक्संमि वावि तरुणवसहामिणं बेति । भिन्नकहाओ भट्ठाण यह इह वच परतिस्थी ॥ १८ ॥ तुमए समग आमंति निगमो भिक्खमाइलक्वेणं । नासइ भिक्सुकमाइसु छोरण तमोवि विपलाइ ॥ १९॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धं, ऐसा नपुंसगविगिंचणा भणिया, इयाणि जडवत्तथया तिविहो य होइ जसो भासा सरीरे व करणजडो य । भासाजडो सिविडो जलमम्मण एलमूओ य ॥२०॥ व्याख्या-तत्थ जलमूयओ जहा जले बुद्धो भासमाणो बुडबुडेइ, न से किंचिषि परियच्छिजइ एरिसो जस्स सद्दो सो जलमूओ, एलओ जहा बुधुएइ एलगमूओ, मम्मणो जस्स वायाउ खंचिजइ, एसो कयाइ पचावेज्जा मेहावित्तिकाउं| जलमूयएलमूया न कप्पंति पवावे, किं कारणं देखणनाणपरिरो तवे व समिईमु करणजोए य । उवविद्वपिन गेहद जलमूओ एलमूओ य ॥२१॥ गाणायता दिक्या भासाजडो अपचलो तस्स । सो व पहिरो य नियमा गाहण उडाह अहिगरणे ॥ २२ ॥ तिविहो सरीरजडो पंथे भिक्से य होह संदणए । एएदि कारणेहि जडस न कप्पई दिक्दा ॥ २३ ॥ माणे पलिमयो भिक्खायरिवाए अपरिहत्यो य । दोसा सरीरजर्ल्ड गच्छे पुण सो अणुण्णाओ ॥ २४ ॥ गाथाचतुष्क सूत्रसिर्ज, कारणंतरेण तत्थ य अण्णेवि इमे भवे दोसा, एष नपुंसकचिचेको भणितः, इदानी जड़वकम्यता-तत्र जलमूको यथा जले भूढितो भाषमाणः बूडबूदायते, न तस्स किचिदपि परीक्ष्यते ईटशो यस्य शब्दः स जलमूकः, एडको यथा जुलूपते पडकमूकः, मन्मनो यस्य वाधः स्वकम्ति, एष कदाचित् प्रनाउयते मेधाचीतिकृत्वा, जलमूलैडकमूको न करूप्येते प्रमाजयितुं, किं कारणम्-कारणान्तरेण तत्र चान्येऽ पीमे भवेयुदोषा। [२३] ॥६२८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], प्रत सूत्रांक नमस्सासो अपरकमो बगेछन्नलाधवग्गिा हिन्दए । जडरस य आगाढे गेलण असमाहिमरणं च ॥ २५॥ सेएक कक्षमाई कुच्छे ण धुवणुप्पिलावणा पाणा । नत्थि गलयो य चोरो निदिय मुंटाइवाए य ॥२६॥ इरियासमिई मासेसणा य आयाणसमिइगुत्तीसु। नदि ठाइ चरणकरणे कम्मुदपणं करणडो॥ २७॥ एसोचिन दिक्खिन जस्सगेणमह दिविखओ होजा । कारणगएण केण तत्य विहिं उपरि धोक्छामि ॥ २८॥ गाथाचतुष्कं निगदसिद्धं, तत्थ जो सो मम्मणो सो पधाविजइ, तत्थ विही भणइ मोर्चे गिलाणकर्ज तुम्मेई पडियरह जाव छम्मासा । एकेके छम्मासा जस्स व वई विागचणया ॥ २९॥ एकेकेसु कुले गणे संघे छम्मासा पडिचरिजइ जस्स व दई बिगिचणया जडुत्तणस्स भवइ तस्सेव सो अहवा जस्सेव दहुँ लट्ठो भवइ तस्स सो होइन होइ तओ विगिंचणया, सरीरजडो जावज्जीवपि परियरिजइ जो पुण करणे जडो कोसं तस्प होति छम्मासा । कुल्लाणसंघनिवेषण एवं तु विहितहि कुजा ॥ ३०॥ इयं प्रकटार्थेव, एसा सचित्तमणुयसंजयविगिंचणया, इयाणिं अचित्तसंजयाणं पारिछावणविही भणइ, ते पुण एवं होज्जा आसुकारगिलाणे पम्पसाए व आणुपुतौए। अचित्तसंजयाणं बोय्हामि बिहीद पोसिरणं ॥21॥ दीप अनुक्रम [२३] तत्र यः स मन्मनः स प्रवाज्यते, रात्र विधिर्भग्यते-एकैकेषु कुले गणे सङ्के षण्मासान् परिचर्यते 'यस वा दृष्ट्वा विवेकः जड (मूक) त्वस्य भवति तस्यैव सः, अथवा यसैव वालटो भवति तख स (आभापो) भवति न भवत्ति विवेकः, पारीरजडो यावजीवमपि परिचर्यते । एपा सचिसमनुष्यसंथत विवेचना, इदानीमचित्तसंवताना पारिजापनविधिर्भण् पत्ते, ते पुनरेवं भवेयु: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~394 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७२] भाष्यं [२०५...], आवश्यक हारिभ- द्रीया प्रतिक्रमणाध्यक परिस्थापनिका - प्रत सूत्रांक - ॥६२९॥ दीप अनुक्रम व्याख्या-करणं-कारः, अचित्तीकरणं गृह्यते, आशु-शीघ्र कार आशुकारः, तद्धेतुत्वादहिविषविशूचिकादयो गृह्यन्ते, तैयः खल्वचित्तीभूतः, 'गिलाणे'त्ति ग्लान:-मन्दश्च सन् य इति, 'प्रत्याख्याते वाऽऽनुपूा' करणशरीरपरिकर्मकरणानुक्रमेण भक्के वा प्रत्याख्याते सति योऽचित्तीभूत इति भावार्थः, एतेषामचित्तसंयतानां 'वक्ष्ये' अभिधास्ये 'विधिना | जिनोकेन प्रकारेण 'व्युत्सृजन' परित्यागमिति गाथार्थः ॥३१॥ एव व कालगभी मुणिणा सुत्तत्वगहिवतारेणं । न दु कायन विसामो काया विहीर पोसिरणं ॥३२॥ व्याख्या एवं च एतेन प्रकारेण 'कालगते' साधी मृते सति 'मुनिना' अन्येन साधुना, किम्भूतेन ?-'सूत्रार्थगृहीतसारेण' गीतार्थनेत्यर्थः, 'नहु' नैव कर्तव्यः 'विषादः स्नेहादिसमुत्थः सम्मोह इत्यर्थः, कर्तव्यं किन्तु 'विधिना' प्रवचनोक्तेन प्रकारेण 'ध्युत्सृजन' परित्यागरूपमिति गाथार्थः ॥ ३२ ।। अधुनाऽधिकृतविधिप्रतिपादनाय द्वारगाथाद्वयमाह | नियुक्तिकार:पडिलेहणा दिसा गंतएं य काले दिया य राओय। कुसपडिमा पाणगणियत्तणे यतर्णसीसेउवगैरणे ॥१२७२॥ उठाणणामहणे पोहिणे काउसग्गकरणे य । खमणे य असज्झाए तत्तो अवलोयणे चेव ॥१२७३।। दारं ॥ I व्याख्या-'पडिलेहण'त्ति प्रत्युपेक्षणा महास्थाण्डिल्यस्य कार्या 'दिसत्ति दिग्विभागनिरूपणा च 'णतए यति गच्छ-1 मपेक्ष्य सदौपग्रहिक नन्तक-मृताच्छादनसमर्थ वस्त्रं धारणीय, जातिपरश्च निर्देशोऽयं, यतो जघन्यतस्त्रीणि धारणीयानि, चशब्दात्तथाविध काष्ठं च प्रामु,'काले दिया य राओ य'त्ति काले दिवा च रात्री मृते सति यथोचितं लाञ्छनादि कर्तव्यं | [२३] ॥१२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ प्रतिलेखना, दिशा इत्यादि १६ द्वारानाम् वर्णनं क्रियते ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३] भाष्यं [२०५...], प्रक्षेप [१] 5 प्रत - सूत्रांक [सू.] CR5 दीप अनुक्रम कुसपडिमति नक्षत्राण्यालोग्य कुशपडिमाद्वयमेकं वा कार्य न वेति 'पाणगि'त्ति उपघातरक्षार्थं पानक गृह्यते, 'नियत्तणे हायति कथञ्चित्स्थाण्डिल्यातिकमे भ्रमित्वाऽऽगन्तव्यं न तेनैव पथा, 'तणे'त्ति समानि तृणानि दातव्यानि, 'सीस'ति ग्राम यतः शिरः कार्य 'उवगरणे'त्ति चिह्नार्थ रजोहरणाद्युपकरणं मुच्यते, गाथासमासार्थः ॥१२७२॥ 'उहाणे'त्ति उत्थाने | सति शवस्य ग्रामत्यागादि कार्य 'णामग्गहणे'त्ति यदि कस्यचित् सर्वेषां वा नाम गृह्णाति ततो लोचादि कार्य 'पयाहिणे' त्ति परिस्थाप्य प्रदक्षिणा न कार्या, स्वस्थानादेव निवर्तितव्यं, 'काउसम्गकरणे'त्ति परिस्थापिते वसती आगम्य कायोसर्गकरणं चासेवनीयं 'खमणे य असञ्झाए' रत्नाधिकादौ मृते क्षपणं चास्वाध्यायश्च कार्यः, न सर्वस्मिन् , 'तत्तो अवलोयणे चेव' ततोऽन्यदिने पूरिज्ञानार्थमवलोकनं च कार्य, गाथासमासाथैः ॥१२७२।। अधुना प्रतिद्वारमवयवार्थः प्रतिपा-14 द्यते, तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहजहियं तु मासकप्पं वासावासं च संवसे साहू । गीयत्वा पदम चिय तत्थ महाथंडिले पेहे ॥१॥ (प्र.)॥ ___ व्याख्या-'यत्रैव' मामादौ मासकल्पं 'वासावासं च वर्षाकहपं संवसन्ति 'साधवः गीतार्थाः प्रथममेव तत्र 'महास्थाण्डिल्यानि' मृतोशनस्थानानि 'पेहेत्ति प्रत्युपेक्षेत त्रीणि, एप विधिरित्ययं गाथार्थः॥ इयं चान्यकर्तृकी गाथा, दिग्द्वारनिरूपणायाह दिसा अवरदक्षिणा दक्निमा यसवरा य दक्षिणा पुछा । अवरुतरा व पुना उत्तरपुचतरा ॥३३॥ पारपाणपक्षमा बीयाए भत्तपाण ण लहति । तइयाएँ उबद्दीमाई नस्थि चारधी सम्झाओ ॥३४॥ पंचमिया असंदिगडीए गणविभषणं जाण । सत्तमिए गेल मरणं पुण भहामी विति ॥ ३५ ॥ 4 [२३] *4244 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~396 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०५...], आवश्यक हारिभ प्रत द्रीया सूत्रांक ॥६३०॥ ईमीणं वक्खाणं-अवरदक्षिणाए दिसाए महायंडिलं पहियवं, एतीसे इमे गुणा भवंति-भत्तपाणउवगरणसमाही प्रतिक्रम. भवइ, एयाए दिसाए तिणि महाथंडिलाणि पडिलेहिजंति, तंजहा-आसण्णे मज्झे दूरे, किं कारणं तिणि पडिलेहिजति !,Aणाध्य. वाघाओ होज्जा, खेत्तं किटं, उदएण वा पलावियं, हरियकाओ वा जाओ, पाणेहि वा संसतं, गामो वा निविडो सत्थो। परिस्थापवा आवासिओ, पढमदिसाए विजमाणीए जइ दक्षिणदिसाए पडिलेहिंति तो इमे दोसा-भत्तपाणे न लहंति, अलहंते निका. संजमविराहणं पायंति, एसणं वा पेल्लंति, जं वा भिक्खं अलभमाणा मासकप्पं भंजंति, वच्चंताण य पंथे विराहणा दुविहासंजमायाए तं पावेंति, तम्हा पढमा पडिलेहेयबा, जया पुण पढमाए असई वाघाओ वा उदगं तेणा बाला तया बिइया पडिले हिज्जति, बिइयाए विजमाणीए जइ तइयं पडिलेहेइ तो उवगरणं न लहंति, तेण विणा जं पावंति, चउत्था दक्खिणपुवा तत्थ पुण सम्झायं न कुर्णति, पंचमीया अवरुत्तरा, पताए कलहो संजयनिहत्थअण्णउत्थेहिं सद्धिं, तस्थ उड्डाहो। दीप अनुक्रम [२३] 1 आसां व्याख्यान-अपरदक्षिणा दिशि महासण्दिल प्रत्युपेक्षितम्य, अस्या इमे गुणा भवन्ति-भक्तवानोपकरणसमाधिर्भवति, एतस्यां दिशि त्रीणि | स्थण्डिलानि प्रतिलिख्यन्ते, तद्यथा-आसने मध्ये दुरे, किं कारणं त्रीगि स्थग्लिानि प्रतिलिसयन्ते, व्याथातो भवेत् क्षेत्र वा कृष्ट उदकेन वा प्लावितं हरिसकायो या जातः प्राणिमिवां संसकं ग्रामो घोपितः सार्थों वाऽऽवासितः, प्रथमदिशि विद्यमानायो यदि दक्षिणदिशि प्रतिलिसन्ति तदेमे दोषा:-भक्तपानं | न लभन्ते, भलभमाने संयमविराधना प्रामवन्ति एषणां चा प्रेरयन्ति, बङ्का भिक्षामलभमाना मासका भजन्ति मजतां च पथि विराधना द्विविधा-संषमस्या मनः तां प्रामुवन्ति, सम्मान, प्रथमा प्रतिलेखितम्या, बदा पुनः प्रथमायामसत्यां व्याघातो वा बद सेना पालाः सदा द्वितीया प्रतिलिस्यते,द्वितीयस्थां विद्यमानायां यदि तुतीयाँ प्रतिलिसति तदोपकरणं न लभन्ते, तेन विना यत् प्रानुवन्ति, चतुर्थी दक्षिणपूर्ण तन्त्र पुनः स्वाध्यायं न कुर्षन्ति, पचमी अपरोत्तरा, एसपी कलाहः संपतगृहस्थाम्बतीथि सार्थ, तनोड्डाहः पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~397 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०५...], प्रत सूत्रांक likcharitr [सू.] विराहणा य, छडी पुवा, ताए गणभेओ चारित्तभेओ वा, सत्तमिया उत्तरा, तत्थ गेलण्णं जं च परियावणाइ, पुत्तरा अर्णपि मारेति, एए दोसा तम्हा पढमाए दिसाए पडिलेहेयचं, तीए असइ बिइयाए पडिलेहेयवं, तीए सो चेव गुणो जो पढमाए, बिइयाए विजमाणीए जइ तइयाए पडिलेहेइ सो चेव दोसो जो तइयाए, एवं जाव चरिमाए पडिलेहे-11 | माणस्स जो चरिमाए दोसो सो भवइ, विइयाए दिसाए अबिजमाणीए तझ्याए दिसाए पडिलेहेयर्थ, तीए सो चेव गुणो जो पढमाए, तइयाए दिसाए विजमाणीए जइ चउत्थं पडिलेहेइ सो चेव दोसो जो चउत्थीए, एवं जाव चरिमाए दोसो सो भवइ, एवं सेसाओवि दिसाओ नेयवाओ । दिसित्ति बिइयं दारं गयं, इयाणि 'णतए'त्ति, वित्थारायामेणं जं पमाणं भणियं तओ विधारणवि आयामेणवि जं अइरेगं लहइ चोक्खसुइयं सेयं च जत्थ मलो नस्थि चित्तलं वा न भवइ सुइयं सुगंधि ताणि गरछे जीविजयकमणनिमित्तं धारेयवाणि जहन्नेण तिन्नि, एग पत्थरिजइ एगेण पाउणीओ बझंति, तइयं १ निराधना च, पट्टी पूर्वा, तस्यां गणभेदश्चारित्रभेदो चा, सप्तम्वुत्तरा, तत्र ग्लान बच परितापनादि, पूर्वोत्तराऽन्यमपि मारपति, पते दोषासम्मान | प्रथमायाँ दिशि प्रति लेखितम्ब, तस्याममयां द्वितीयखां प्रतिलेखितव्यं, तस्यां स एवं गुणो यः प्रथमायो, द्वितीयस्यां विद्यमानायो यदि तृतीयस्यां प्रतिक्षित सति स एवं दोषो बस्तृतीयस्या, एवं यावच्चारमायो प्रतिलिखतो पधारमा दोषः स भवति, द्वितीयायां दिशि विद्यमानायां तृतीयस्था दिशि प्रतिसि. तव्यं, तस्यां स एव गुणो वः प्रथमाया, तृतीयखां दिशि विरामानायां यदि चतुर्थी प्रतिलिखति स एव दोषो यश्रतुथ्यो, एवं बावच्चरमाया दोषः स भवति, एवं शेषा अपि दिशो नेतन्या:, दिगिति द्वितीयं द्वारं गतं । इदानीमनन्तकमिति-विस्तारायामाभ्यां यत्प्रमाणं भणितं ततो विसारेणापि भाषामेनापि यदतिरे। कचत् लभते चोक्षं शुचितं च यन्त्र मलो नास्ति चित्रयुक्तानि वा न भवन्ति शुचीनि सुगन्धीनि तानि गच्छे जीवितोपक्रमानिमित्तं धारषितम्यानि जपायेन । श्रोणि, एकं प्रस्थीयते एकेन प्राप्तो बध्यते तृतीय दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], आवश्यक- हारिभद्रीया राणाध्यक प्रत सूत्रांक ॥३ ॥ वरि पाउणिजंति, एयाणि तिष्णि जहण्णेण उक्कोसेण गच्छ णाऊण बहुयाणेवि पिप्पंति, जइ ण गेण्हा परिछत्तै पावेइ प्रतिक्रम आणा विराहणा दुविहा, मइलकुले णिजते दडे लोगो भगइ-इहलोए चेव एसा अवस्था परलोप पावतरिया, चोक्खु-। |सुइएहिं पसंसति लोओ-अहो लहो धम्मोत्ति परजमुवगच्छति सावयधम्म पडिवज्जति, अहवा णथि तयंति रयणीए अचित्तसंनीणेहामित्ति अच्छावेइ तत्थ उड्डाणाई दोसो, तत्थ विराहणा णामं कस्सइ गिण्हेज्जा तत्थ विराहणा, तम्हा घेत्तवाणियतमनणतयाणि, ताणि पुण वसहा सारवेंति, पक्खियचाउम्मासियसंवच्छरिए पडिले हिजति, इहरहा मइलिजति दिवसे दिवसे पडिलेहिजताणि, एत्थ गाहा पुत्रं दधाकोयण पुश्विं गहणं च णतकहस्स । गच्छमि एस कप्पो अनिमि ते होउयकमणं ॥ ३५॥ इमीसे अक्खरगमणिया-पुर्व ठायंता चेव तणडगलछाराइ दवमालोएंति, पुषिं गहणं च कहस्स तत्थ अन्नत्थ वा, तत्थ : कस्स गहणे को विही ? वसहीए ठायंतओ चेव सागारियसंतयं वहणकई पलोएं ति, किंनिमित्तं वहणकई अवलोइज्जइ?,18 सुपरि प्रानियते (प्राचार्यते), एतानि वीणि जयन्येन जाकर्षण गच्छं ज्ञात्वा चहुकाम्यपि गुमन्ते, बदिन गृह्णाति प्रायश्चित्तं प्रामोति-आशा विराधना द्विविधा, मलिनकुचेलान् नीयमानान् दृष्ट्वा कोको भणति-इहलोक एषाप्रथा परलोके पापतरा, शुचिचोक्षः प्रशंसति कोका-अहो कष्टो धर्म इति | प्रवम्यामुपगछन्ति श्रावकधर्म प्रतिपद्यन्ते, अथवा नास्त्यनन्तकमिति रजन्यो नेष्यामीति स्थापयति तत्रोथानादिदोषः, तब विराधना नाम कजिद्गलीयान ॥६३२॥ तत्र चिराधना, तमाद प्रदीतष्पान्यनन्तकानि, सानि पुनर्वृषभा रक्षन्ति, पाक्षिकचातुर्मासिकांवत्सरिकेषु प्रतिलिस्यन्ते, इतरथा मसिनश्यन्ते दिवसे दिवसे | प्रतिलिण्यमानानि, अन गाथा-अखा अक्षरगमनिका पूर्व तिष्ठन्त एव तुगलक्षारादि द्रव्यमालोकयन्ति, पूर्व ग्रहणं च काख तनापत्र वा, तत्र काष्ठख प्रहणे को विधिः-बसती तिनेव सागारिकसर बहनकाष्ठं प्रलोकयति, किं निमित्तं वइनकाई अवलोक्यते!.. दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~399 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०५...], प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम कोइ अनिमित्तमरणेण काल करेज राओ ताहे जइ सागारियं वहणकट्ठ अणुण्णवणवाए त उहवेति ता 'आउज्जोओ'12 आउज्जोयणाई अहिगरणदोसो तम्हा उ न उडवेयबो, जइ एगो साहू समत्थो तं नीणे ताहे कई न घेप्पड़, अह न तरह तो जत्तिया सके। तो तेण पुर्वपहिलेहिएण कडेग नीणेति, तं च कई तस्थेव जइ परिठवेंति तो अपणेण गहिए अहिंगरणं, सागारिओ वा तं अपेच्छतो एएहिं नीणियंति पदुोवोच्छेयं कडगमदाई करेजा तम्हा आणेय, जइ पुण आणेत्ता तहेब पवेसंति तो सागारिओ दट्टणा मिच्छत्तं गच्छेजा, एए भणंति जहा अम्ह अदिण्णं न कप्पइ इमं चणेहिं गहि-18 यति, अहवा भणेज-समणा ! पुणोवि तं चेव आणेहत्ति, अहो णेहि हदुसरक्खावि जिया, दुगुंछेजमयगं वहिऊण मम घरं आणेन्ति उड्डाहं करेजा वोच्छेयं वा करेजा, जम्हा एए दोसा तम्हा आणेत्ता एक्को तं घेत्तूण बाहिं अच्छंति, सेसा अइन्ति, जइ ताव सागारिओ ण उठेइ ताहे आणित्ता तहेव ठवेंति जह आसी, अह उडिओ ताहे साहेति-तुन्भे पासुतेल्लया टू कबिदनिमित्तमरणेन कालं कुर्यात रात्री सदा यदि सागारिक वाहनम्माष्टस्य अनुज्ञापनाय तमुस्थापयन्ति तदा 'अकायोद्योती अकायोथोतादयोऽधिकरणदोषास्तमायोत्थापयितव्या, ययेकः साधुः समर्थस नेतुं तदा काई न गृह्यते, अब न पाकोति तदा यावन्तः शकुवन्ति ततः तेन पूर्वमतिलिखितेन कानुन नयन्ति, तथ काई सबै यदि परिक्षापयन्ति ततोऽन्येन गृहीतेऽधिकरणं, सागारिको वा तपश्यन् पुतैनीतमिति प्रद्विष्टो न्युदं कटकमदादि कुर्यात् तस्मा स्ति तदा सागारिको दा मिथ्यात्वं गच्छेत् , एते भणन्ति यथाऽस्माकमदर्स न करूपते इदं चैभिगृहीतमिति, अथवा IA भणेत-श्रमणाः! पुनरपि तदेवानवतेति, अहो अनी भिर्विट्सरजस्का अभिजिता, जापनीयस्त के वहित्वा मम गृह मानयन्तीयुडाई कुर्षात म्युच्छेवं वा कुर्यात्, | यम देते दोषास्तस्मादानीय एकतासीरवा बहितिष्ठति, शेषा भायाम्ति, यदि ताचसापारिको नोत्तिष्ठति (नोस्थितः) तदानीय तधैव स्थापयन्ति यधाऽऽसीत , भयोस्थितस्तदा कथयन्ति-यूयं प्रसुप्ता [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~400 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०५...], प्रतिक्रमपाध्य प्रत आवश्यक- हारिभ- द्रीया ॥३२॥ अचित्तसं सत्राक अम्हेंहिं न उठविया, रत्तिं चेव कालगओ साह, सो तुम्भच्चयाए वहणीए णीणिओ, सा कि परिठविजउ आणिजउ, जंसो भणइ तं कीरइ, अह तेहिं अजाणिज्जतेहिं ठविए पच्छा सागारिएण णायं जहा एएहिं एयाए वहणीए परिवि परिहवियन्ति, तत्थ उद्धरुठ्ठो अणुणेयबो, आयरिया कइयवेण पुच्छंति-केणइ कर्य, अमुएणंति, किं पुण अणापुच्छाए करेसि, सो सागारियपुरओ अंबाडे ऊण निच्छुडभइ कइयवेण, जइ सागारिओ भणइ-मा निच्छुभन, मा पुणो एवं कुज्जा, तो लई, अह भणइ-मा अच्छउ पच्छा सो अण्णाए वसहीए ठाइ, चितिजिओ से दिजउ, माइडाणेण कोइ साहू भणइ-मम एस नियओ जइ निच्छुडभइ तो अहपि गच्छामि, अहवा सागारिएणं समं कोइ कलहेइ, सोवि निच्छुन्भइ सो से बितिजओ होइ, जइ बहिया पञ्चवाओ बसही वा नस्थि ताहे सधे गति । गंतकहदारं गये इयाणिं कालेत्ति दारं, सो य दिवसओ कालं करेज राओ वा- -" व्यपारि दीप अनुक्रम [२३] अशाभिनथापिताः, रामायेच कालगतः साधु, स त्वदीयया बहन्या नीतः, सा किं परिहाध्यतामानीयता (वा), पत् स भणति तत् क्रियते, अथ तैरज्ञायमानः स्थापिते पश्चात् सागारिकेण ज्ञातं ययौरेतया बहम्पा परिठाप्य परिस्थापितमित्ति, तत्र तीबरोषोऽनुनेतम्या, भाचार्याः कैतवेन पृच्छन्तिकेन कृतं १, अमुफेनेति, कि पुनरनाळया करोपि, ससागारिकस्य पुरतो निभस्य जिसकाश्यते कैसवेन, यदि सागारिको भणे-मा निष्कापी, मा पुन रेवं कुर्याः, सदा कर, अथ भणति-मा तिहत पश्चात् सोन्यसा वसती तिष्ठति, द्वितीयतस्य दीयते, मातृस्थानेन कश्चित् साधुभणति-ममैच निजको परि। ४ निष्काश्यते तदादमपि गतामि, अथवा सागारिकेण सह कश्चित् कलहयति, सोऽपि निष्काश्यते, स त द्वितीयो भवति, यदि बहिः प्रस्थपायो वसतियार नास्ति रहास निर्गठन्ति । अनन्तकाकारद्वारं गतं, इदानीं काल इति द्वार, सच दिवसतः काल कुर्यात् रात्रीचा - 20 ॥३२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~401 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०५...], -% * प्रत सूत्रांक [सू.] -04456 सहसा कालगर्थमी मुगिणा सुत्तस्थगहियसारेण । न विसाओ कायचो काया जिद्दीइ बोसिरणं ॥३०॥ सहसा कालगर्यमित्ति आसुक्कारिणा जपेतं कालगो निकारण कारणे भवे निरोहो । उयणबंधणजमगणकाइयमते य हायरडे ॥३८॥ भाविहुसरीरे पंता वा देवया उडेजा । काइयं हव्यहत्थेष मा बढे बुज्म गुज्झया! ॥३१॥ वितासेज हसेज व भीमं वा अट्टहास मुंचेजा । भीएणं तत्थ उ कायश्च विही बोखिरण ॥ ४० ॥ इमीणं वक्खाणं-'जं वेलं कालगओ'त्ति जाए बेलाए कालगओ दिया वा राओ वा सो ताहे वेलाए नेयबो 'निकार'त्ति एवं ताव निकारणे 'कारणे भवे निरोहो त्ति कारणे पुणो भवे निरोहो नाम-अच्छाविजइ, किं च कारणं, रत्ति ताव आरक्खिय तेणयसावयभयाइ वारं वा ताव न उग्घाडिज्जइ महाजणणाओ वा सो तमि गामे णयरे वा दंडिगाईहिं वा आयरिओ वा सो तमि जयरे सहेसु वा लोगविक्खाओ वा भत्तपच्चक्खाओ या सण्णायगा वा से भणति-जहा अहं अपुच्छाए ण णीणेयधोत्ति, अहवा तंमि लोगस्स एस ठवणा-जहा रतिं न नीणियबो, एएण कारणेण रत्तीए ण णीणिज्जइ, सहसा कालगते इखाशुकारिणा. आसां व्याख्यानं-'वस्था बेलायो कालगतः' इति यस्या बेकायो कालगतो दिवा वा रात्री पास तथा बेलायां नेतन्यः "निष्कारण' इति एवं तावनिष्कारणे 'कारणे भवेविरोधः' इति कारणे भवेत् निरोधो नाम स्थाप्यते, किंच कारणं ?, रात्रौ तावत् आरक्षकाः सोन आपदभवानि द्वार वा साचोदयाव्यते महाजनम्यायो वा स तभिमन् प्रामे नगरे वा दण्डिकादिभिवाऽऽहतो या सतगिरे आवेषु वा कुलेषुलोक| विख्यातो वा प्रत्याख्यातभक्तो वा सज्ञातीया वा तस्स भणन्ति-यवस्माकमनापृच्छया न नेतथ्य इति, अथवा तमिन् लोकस्यैषा स्थापना यथा रात्री न नेतण्या, एतेन कारणेन रात्रौ न नीयते. 10 दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~402 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], प्रत ཟླ, ཟླ་ सूत्रांक आवश्यक-18 दिवस ओवि चोक्खाणं तयाणं असईए दंडिओवा एइ नीइ वा तेण दिवसओ संविक्खाविजइ, एवं कारणेण निरुद्धस्स ४४ प्रतिक्रमहारिभ- इमा विही 'छेयण बंधण' इत्यादि, जो सो मओ सो लंछिजइ, 'बंधण'न्ति अंगुहाइ बझंति, संथारो वा परिवणनि णाध्य द्रीया मित्तं दोरोहिं उग्गाहिजइ, 'जग्गण'न्ति जे सेहा बाला अपरिणया य ते ओसारिजंति, जे गीयस्था अभीरू जियनिद्दा अचित्तसंउवायकुसला आसुकारिणो महाबलपरकमा महासत्ता दुद्धरिसा कयकरणा अप्पमाइणो एरिसा ते जागरंति, 'काइयमत्ते यतमनु॥६ ॥ प्यपारिक यत्ति जागरंतेहिं काझ्यामत्तो न परिविजह हत्थउडे'त्ति जइ उठेइ तो ताओ काइयमत्ताओ हत्वउडेणं काइयं गहाय | सिंचंति, जइ पुण जागरंता अञ्छिदिय अवंधिय तं सरीरं जागरंति सुर्वेति वा आणाई दोसा, कहं ?-'अण्णाइडसरीरे' अन्याविष्टशरीरं सामान्येन तावद् व्यन्तराधिष्ठितमाख्यायते विसेसे पुण पंता वा देवया वा उडेजा, पंता नाम पडणीया, सा पंता देवया छलेजा कलेवरे पविसि उठेज वा पणचए वा आहाविज वा, जम्हा एए दोसा तम्हा छिदिउंबंधिउं वा अनुक्रम CCCC [२३] दिवसेऽपि चोक्षाणामनन्तकानामसरखे दधिको वाऽध्याति गच्छति पा तेन दिवसे प्रतीक्ष्यते, एवं कारणेन निरुद्धखैष विधिः-छेदनबन्धने 'त्यादि। यः स मृतः स लाध्यते, बन्धनमिति अहुष्टी बभ्येते, संसारको वा पारिठापनिकीनिमिचं दवरकैरुहाझते, जागरण मिति ये शैक्षा बाला अपरिणताब तेऽपसार्यन्ते, ये गीतायां अभीरयो जितनिधा उपायकुशला आशुकारिणो महावलपराक्रमा महासचा दुर्धर्षाः कृतकरणा अप्रमादिनः इदशास्ते जान्नति, काविकीमात्रं चेति जाग्रद्धिः काषिकीमात्रकं न परिष्ठाप्यते, इनपुटश्रेति ययुत्तिष्ठति तवा ततः काविकीमात्रकात् इस्तपुटेन काषिी गृहीत्वा सिञ्चन्ति, यदि पुनजामतोच्छिावाऽबङ्गा तत् शारीर जाग्रति स्वपन्ति वा माज्ञादयो दोषाः, कथम् -'अन्धाविष्टशरीरं-विशेषे पुनः प्रान्ता वा देवता वोत्तित् , प्रान्ता दानाम प्रवनीका, सा प्रान्ता देवता छलेत् कडेवरे प्रविश्योत्तिष्ठेत् अन्त्येवाऽधायेद्वा, यमावेते दोपास्तम्मात् छिरपा बङ्गा वा ॥३३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~4030 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...., प्रत सूत्रांक जोगरेयर्ष, अह कयाइ जागरंताणवि उहिज्जा ताहे इमा विही 'काइयं डबहत्येणं' जो सो काइयमत्तओ ताओ काइयपासवणं 'डचण(हत्थे)णे'ति वामहत्थेण वा, इमं च बुचइ-'मा उहे वुझ गुज्झगा' मा संथाराओ उठेहित्ति, बुझ मा पमत्तो भव, गुनगा इति देवा, तहा जागरंताणं जइ कहचि इमे दोसा भवंति वित्तासेज हसेज व भीमं वा अट्टहास मुंचेजा' तत्थ वित्तासणं-विगरालरूवाइदरिसणं हसणं-साभावियहार्स चेव भीम बीहावणयं अट्टहासं भीसणो रोमहरिसजणणो सहोतं मुंचेज वा, तत्थ किं काय ?- अभीएण' अवीहतेणं 'तत्थ' वित्तासणाईमि 'कायर्व करेयवं विहीए पुवृत्ताए पडिवजमाणाए वा 'वोसिरण ति परिहवणं, तत्थ जाहे एव कालगओ ताहे चेव हत्थपाया उज्जुया कजंति, पच्छा थद्धा न तीरंति उज्जुया करेज, अच्छीण सेस मीलिजति, तुडे व से मुहपोत्तियाए बझइ, जाणि संधाणाणि अंगुलि अंतराणं तत्थ ईसि | [सू.] दीप अनुक्रम [२३] जागरितम्य, भय कदाचित् आप्रतामपि उचिठेत् तदैयो विधि:-काधिकी वामहलेन' यः स काविकीपतहस्त मात् कायिकी-प्रवर्ण 'होणं' कामहसेन या, इदं चोच्यते-मोति बुध्यस गुमक, मा संसारकात्तिति, पुषस मा प्रमतो भूः, गुखका इति देवाः, तथा जामता अदि कथचिदिमे | दोषा भवन्ति-वित्रासयेत् इसेवा भीम वा बहहार्स गुबेत, तत्र चित्रासणं-विकराकरूपादिदर्शने दसन-स्वाभाविकदास्यमेव भयानक भीम मारहास भीषणो | रोमहर्षजननः भारदस्त मुजेदा, तत्र किं कर्तव्यं, अभीतेन-अरिभ्यता तत्र विश्रासने करीब विधिना पूर्वोकन प्रतिपाद्यमानेन म्युत्सर्जनमिति परिष्ठापन, तत्र लायंदेव कालगतस्तदेव हस्तपादी की क्रियेते, पक्षान सम्धीम तीते रजुको विधातुं, अक्षिभ्यः शेष निमीलति, तुडे या तस्स मुखपोतिका बध्यते, पानि |संधामानि अत्यन्तराणां सत्रेचर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~404 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] नावश्यक हारिभद्रीया ॥६३४॥ [भाग-३०] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ४ ], मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] भाष्यं [२०५...], फालिज्जइ, पायगुडेसु हत्थंगुडएस य बज्झर, आहरणमाईणि कहिज्जंति, एवं जागरंति, एसा विही कायवा । कालेत्ति दारं सप्पसंग गयं, इयाणि कुसपडिमत्ति दारं, तत्थ गाहा दो िय दिवसेचे दम्भमया पुचा व कायद्वा । समखेतंसि उ एक्को अवभीए ण कायो ॥ ४१ ॥ सार्द्धक्षेत्रे, नक्षत्र इति गम्यते, दर्भमयौ पुत्तलकौ कार्यों, समक्षेत्रे च एकः, 'अवहुभीए ण कायबो'त्ति उपार्द्धभोगिष्वभीचिनक्षत्रे च न कर्तव्यः पुचलक इति गाथाक्षरार्थः ॥ ४१ ॥ एवमन्यासामपि स्वबुद्ध्याऽक्षरगमनिका कार्या, भावार्थ तु वक्ष्यामः प्रकृतगाथाभावार्थ:- कालगए समणे णक्खत्तं पलोइज्जइ, जइ न पलोएति असमाचारी, पलोइए पणयाली समुहुत्तेसु नक्खत्तेसु दोण्णि कज्जंति, अकरणे अन्ने दो कहेइ, काणि पुण पणयालीसमुहुत्ताणि १, उच्यतेतिष्णेच उतराई पुणश रोहिणी बिसाहा व एए छ नक्खता पणयामुडुचसंजोगा ॥ ४२ ॥ तीसमुहुत्ते पुण पण्णरससु एगो कीरइ, अकरणे एगं चेव कढई, तीसमुहुत्तियाणि पुण इमाणि अल्मिणिकित्सियमिय सिर पुस्यो मह फन्गु हत्य चित्ता य अणुराह मूल सादा सवणचनिहा प भवया ॥ ४३ ॥ तह रेवति एए पारस हवंति तीसइमुहुता नक्खत्ता नायता परिचयविहीय कुसलेणं ॥ ४४ ॥ १ पाठ्यते, पादाङ्गुषु इस्ताङ्गुष्ठेषु च बध्यते, आहरणादीनि कम्पन्ते, एवं जाप्रति एष विधिः कर्त्तव्यः काल इति द्वारं सप्रसङ्गं गतं इदानीं कुशप्रति मेति द्वारं तत्र गाथा काळाते श्रमणे नक्षत्रं प्रकोयते, यदि न प्रलोक्यतेऽसमाचारी, प्रलोकिते पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्चेषु नक्षत्रेषु द्वे क्रियेते, अकरणे अन्यौ द्वौ मारवति, कानि पुनः पञ्चचत्वारिंशम्मुहूर्त्ताति ?, त्रिंशन्मुहूर्त्तेषु पुनः पञ्चदशसु एकः क्रियते, अकरणे एकं मारयत्येव त्रिंशन्मुर्षिकावि पुनरिमालि ४प्रतिक्रमणाध्य० अचित्तसंयतमनुव्यपारि० ~ 405 ~ ||६३४|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...., प्रत सूत्रांक [सू.] पनरसमुहुत्तिएमु पुण अभीइंमि य एकोविन कीरइ, ताणि पुण एयाणि सयभिसया भरणीओ भदा अस्सेस साइ जेहा य । एए छ नक्सत्ता पनरसमुदत्तसंजोगा ॥ ४५ ॥ कुसपडिमत्ति दारं गर्य, इयाणि पाणयंति दारं मुत्तस्थतदुभयविक पुरको घेतूण पाणय कुसे य । गच्छद य जादो परिङयेऊण आवमणं ॥ ४६॥ इमाए वक्खाणं-आगमविहिष्णू मत्तएण सम असंसठ्ठपाणयं कुसा य समच्छेया अवरोप्परमसंवद्धा हत्थचउरंगुलप्प-18 माणा घेत्तुं पुरओ (पिट्टओ) अणवयक्खंतो गच्छइथंडिलाभिमुहो जेण पुर्व थंडिल्लं दिई, दन्भासइ केसराणि चुणाणि वा घिपति, जइ सागारियं तो परिवेत्ता हत्थपाए सोएंति य आयमंति य जेहिं बूढो, आयमणग्गहणेणं जहा जहा उड्डाहो| न होइ तहा तहा सूयणति गाथार्थः ॥ ॥ इयाणिं नियत्तणित्ति दारं चंदिलवाषाएणं भवावि अणिच्छिए अणाभोगा । भमिऊण वागळे तेणेब पहेण न नियते ॥ १७ ॥ एवं निजमाणे थंडिल्लस्स वाघाएण, वाघाओ पुण तं उदयहरियसंमीसं होजा अणाभोगेण वा अनिच्छिय डिलं तो| पबदामुद्दतिकेषु पुनरभिजिति चैकोऽपि न कियते, तानि पुनरेतानि । कुशप्रतिमेति द्वारं गतं, इवानों पानीयमिति द्वारं, अस्या व्याख्यानभागमविधिशो मात्रकेण समम संखएपानीयं कृशाश्व समच्छेदान् परस्परमसंवद्वान् हस्तचतुरनुलप्रमाणान् गृहीत्या पुरतः पृष्ठतोऽपश्यन् गच्छति स्पण्टिका णोनि वा गृशम्ते, यदि सागारिक सदा परिष्ठाय हस्तपादयोः शौचकुर्वन्ति आचामन्ति च वैयूंढा। आचमनग्रहणेन यथा यथोट्टाहो न भवति तया सूचनामिति । इदानी निवर्जनमिति द्वारं, एवं नीयमाने स्थण्डिलस्य व्याघातेन, व्याघातः पुनस्तत् उवकहरितसंमि भवेत् अनाभोगेन वाऽनिष्ट स्खण्टिलं सदा दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~406 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०५...], हारिभद्रीया % प्रत सूत्रांक प्रतिक्रमणाध्य अचित्तसंयतमनु व्यपारि० % ॥६३५॥ मिऊण पयाहिणं अकरेंतेहिं उवागच्छियब, जइ तेणेव मग्गेण नियत्तंति तो असमायारी, कयाइ उडेजा, सो य जओ ४ चव रहेइ तओ चेव पहावेइ, पच्छा जो चेव उठेइ तओ चेव पहावेइ, जओ गामो तओ पहावेज्जा, तम्हा भमिऊण जओ थंडिलं उवहारिय तत्थ गंतवं, न तेणेव पहेणं, नियत्तणित्ति दार कुसमुही एगाए भोच्छिषणाइ एस्थ धाराए । संथारं संघरेजा सत्य समोर कायनी ॥१८॥ व्याख्या-जाहे थंडिलं पमज्जियं भवई ताहे कुसमुट्ठीए एगाए अबोच्छिष्णाए धाराए संथारो संथरिजइ, सो य| ४ सपथ समो कायबो, विसमंमि इमे दोसा विसमा जह दोज तणा अवारि माझे व हेहओ वापि । मरणं गेळपणे वा तिण्हपि । निहिसे तस्थ ॥१५॥ अपरि भावरियाणं मजो वसहाण हेडि भिक्खूर्ण । तिहंपि रक्रमणका सनस्थ समाज कायदा ॥५०॥ गाथाद्वयमपि पाठसिद्धं, जइ पुण तणा ण होज्जा तो इमो विही जत्थ य नस्थि तणाई शुष्णेहिं तस्य केनरेहिं ना । कामचोऽस्य कमारो देह तकार च बंधेजा ॥ ५॥ 82-%-2-6 दीप अनुक्रम % 4 [२३] आस्वा प्रदक्षिणमकुर्वनिरूपागन्तव्यं, यदि तेनैव मार्गेण निवर्तन्ते तदाऽसामाचारी, कदाचिदुतिछेत्, सच यौवोत्तित् तत एवं प्रधावति, | पश्चायत एवं उत्तिष्ठति तत एवं प्रधावति, यतो प्रामलत एवं प्रधावेत, तस्मात् भ्राम्या वत्र स्थण्डिलमवपारितं तत्र गन्तब्य, न तेनैव पधा, निवर्सनेति द्वार । बदा स्वधिक प्रमाणितं भवति तदा कुशमुश्कयाअयुक्छिनया धारया संस्तारकः संस्तीर्यते, सच सर्वत्र समः कर्मयः, विषमे इमे पोषाः । यदि पुनस्तृणानि न भवेयुस्तदेष विधिः ॥६३५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~407 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०५...], प्रत सूत्रांक व्याख्या-जस्थ तणा न विजंति तत्थ चुण्णेहिं नागकेसरेहिं वा अबोच्छिन्नाए धाराए ककारो काययो हेवा य तकारो। बंधेययो, असइ चुण्णाणं केसराणं वा पलेवयाईहिंवि किरइ । तणत्ति दारं गये, इयाणिं सीसत्ति दारं, तत्थ जाए दिखाएँ गामो तत्तो सीस तु होह कायन । उद्धेतरक्खणहा एस विही से समासेणे ॥ ५२ ॥ इमीए वक्खाणं-जाए दिसाए गामो परिहविजतस्स तओ सीसं कायब, पडिस्सयाओऽवि णीणंतेहिं पुर्व पाया णीणेयवा पच्छा सीसं, किंनिमित्तं-?, 'उहेंतरक्खणहा' जओ उडेइ तओ चेव गच्छइ सपडिहुत्ते गच्छंते अमंगलंतिकट्ठ । सीसत्ति | दारं, इयाणि उवगरणेत्ति दारं चिडा वगरण दोसा स भवे अधिधकरणमि । मिच्छच सो व राया व कुणा गामाण वहकरणं ॥ ५३॥ इमीए वक्खाणं-परिहाविजते अहाजायमुवगरणं ठवेयवं-मुहपोतिया रयहरणं चोलपट्टओ य, जई एवं न ठवेंति | असमाचारी आणाविराहणा, तत्थ दिवे जणेण दंडिओ सोचा कुविओ कोवि उदविओत्ति गामवहणं करेज मिच्छत्तं दीप अनुक्रम SCORCASEARSAष्टकर [२३] यत्र तृणानि न विद्यन्ते तत्र चूर्णेनोगकेशौर्वाऽव्युश्छिन्नया धारया ककारः कर्तव्यः अधस्ताच तकारो बन्यः, असरसु चूर्णेषु के शरेषु वा प्रलेपादिभिरपि क्रियते । तृणानीति द्वारं गतं, इदानी पीमिति द्वारं, सन-अस्या व्याख्यान-वस्यां दिशि प्रामः परिष्टापयतस्तयां शीर्ष कर्तव्य, प्रतिक्रयादपि नीयमानः। पूर्व पादी निष्कापावितम्यौ पश्चाच्छी, किनिमिर्च !, अत्तिछतो रक्षार्थ, यत उत्तिष्ठति तत एवं गच्छति समविपक्षे (परावृत्य ) गच्छत्व मालमितिकृत्वा । शीर्ष मिति द्वारं, इदानीमुपकरणमिति प्रारं, भस्था व्यासपानं-परिवाषमाने ययाजातमुपकरणं स्थावं मुखपत्रिका रजोहरणं चोलपटकन, योन स्थापभावन्ति असामाचारी आज्ञाविराधना, तत्र दृष्टे जनेन दद्धिकः श्रुत्वा कुपितः कोऽध्युपत्रावित इति नामवधं कुर्यात मिवावं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~408 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], - प्रत सूत्रांक 6-2017 CANCERTA यतम ॥३६॥ आवश्यक- वा गरछेका, जहा उजेणयस्स तपणियलिंगेणं कालगयरस मिच्छत्तं जायं तपणियपरिसेवणाए , पच्छा आयरिएहिं प्रतिक्रमहारिभ- पडिबोहिओ, जस्स वा गामस्स सगासे परिविओ सो गामो कालेण पडिवहरं दवाविजइ दंडिएण, एए दोसा जम्हा | | णाध्य द्रीया अचिन्धकरणे । खबगरणेत्ति दारं गये, इयाणि उहाणेत्ति दारं, तत्थ गाहाओ अचित्तसंवसहि निवेसण साही गाममझे व गामदारे य । अंतरजवाशंतर निसी हिया वहिए बोच्छ ॥ ५४॥ वसहि निवेसणसाही गामदं व गाम मोत्तहो । मंडलकंदुरेसे निसीरिया घेव रज तु ॥ ५५ ॥ इमीणं वक्खाणं-कलेवरं नीणेजमाणं वसहीए चेव उठेइ वसही मोत्तवा, निवेसणे उद्देइ निवेसणं मोत्तर्ष, निवेसणंति एगद्दारं वइपरिक्खित्तं अणेगघरं फलिहियं, साहीए उठेइ साही मोत्तबा, साही घराण पंती, गाममझे उढेइ गामद्धं |मोत्तब, गामदारे उद्देइ गामो मोत्तवो, गामस्स उज्जाणस्स य अंतरा उद्देइ मंडलं मोतबं, मंडलंति विसयमंडलं, उजाणे | उद्देइ कंडं मोत्तवं, कंडंति देसखंड मंडलाओ महलतरं भण्णइ, उजाणस्स य निसीहियाए य अंतरा उद्देइ देसो मोत्तबो, वा गच्छत् , यथोजयिनीकस्य तवष्णिक (तर्णिक) लिलेन कागतख मिश्यावं जातं तच्चनिकपरिषेवणया, पञ्चावाचायः प्रतिबोधितः, यस्य वा | ग्रामस्य सकाशे परिछापितः स प्रामः कालेन प्रतिवैरं दाप्यते दण्डिकेन, एते दोषा यस्मादचिहकरणे। पकरणमिति द्वारं गतं, इदानीमुस्थानमिति द्वार, दातन्त्र गाथे-अनयोपांख्यानं कलेचरं निष्काश्यमानं बसताचेवोत्तिपति वसतिक्किथा, निवेशने उत्तिष्ठति निवेशनं मोक्तन्यं निवेशनमिति एकद्वारा ॥६६॥ वृतिपरिक्षिप्ताउनेकगृह फलहिका, पाटके इतिहति पाटको मोकव्यः, पाटको (शाखा) गृहाणां पक्किम, ग्राममध्ये उत्तिष्ठति मामा मोक्तवर्ष, ग्रामद्वारे उत्ति-15 [इति प्रामो मोक्तम्या, मामखोचानख चान्तरोसिष्ठति मण्डल मोकप, मण्डलमिति विषयमण्डलं (देशख लघुतमो विभागा), ज्याने प्रतिष्ठति कापलं सा(लघुतरो भागा) मोक्तम्ब, कामिति देशाखण्डं मण्डलाबृहत्तरै भण्यते, उद्यानस्य नैवेधियावान्तरोत्तिष्ठति देशी (प) मोक्तव्या. दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~409 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६], HAA प्रत सूत्रांक निसीहियाए उदइ रज मोत्तवं, एवं ता निजतस्स विही, तमि परिछविए गीयत्था एगपासं मुहुत्तं संविक्खंति, कयावि | परिहविओवि उडेजा, तत्थ निसीहियाए जइ उहेइ तत्थेव पडिओ उवस्सओ मोत्तबो, निसीहियाए उजाणस्स य अंतरा जइ पडइ निवेसणं मोत्तवं, उज्जाणे पडद साही मोत्तवा, उजाणस्स गामस्स य अंतरा जइ पडइ गामद्धं मोत्सवं, गामदारे पडइ गामो मोत्तवो, गाममझे पडद मंडलं मोत्तवं, साहीए पडइ कंडो मोत्तयो, निवेसणे पडद देसो मोत्तबो, बसहीए पडइ रज मोत्तवं, तथा चाह भाष्यकार:वचंते जो उ कमो कलेवर पवेसणंमि वोचत्यो । णवरं पुण णाणत्तं गामदारंमि बोव्वं ॥२०६॥ (भा०)॥ अत्र विपर्यस्तक्रमेऽङ्गीकृते तुल्यतैव नानात्वं, तथा च निर्गमनेऽपि ग्रामद्वारोत्थाने ग्रामपरित्याग उक्तः, इहापिस एवेति तुल्यता, निजूढो जइ बिइयं वारं एत्ति दो रजाणि मोत्तवाणि, तइयाए तिणि रज्जाणि, तेण परं बहुसोऽवि वारे | पविसते तिष्णि चेव रजाणि मोत्तवाणि असिवाइकारणेहि सत्य वसंताण जस जो उ तवो । अभिगहियाणभिगहिमओ सा तस्स उ जोगपरिखुट्टी ॥ ५६ ॥ धिक्यामुनिष्ठति राज्य मोक्तव्यं, एवं तावत् नीयमाने विधिः, तस्मिन् परिष्ठापिते गीतार्धा एकपा मुहू प्रतीक्षन्ते, कदाचित् परिष्ठापितोऽप्युत्तिCछन्, तन भेषेधिक्यामुलिसि यदि सत्रैव पतित उपाश्रयो मोक्तव्यः, नषेधिस्या उचानस्य चान्तरा यदि पतति निवेशनं मोकव्यं, उघाने पतति शाखा पाटको) मोकव्याः, उद्यानख ग्रामस्स चान्तरा यदि पतति यामाधैं मोक्तव्यं, ग्रामद्वारे पतति मामो मो कम्यः, प्राममध्ये पतति मण्डल मोक्तव्यं, शासनायो | पतनि कापडं मोक्तव्यं, निवेशने पतति देशो मोक्तव्यः, वसती पतति राज्यं भोक्तव्यं । नियूदो यदि द्वितीयमपि वारमायाति के राज्ये मोकव्ये तृतीयस्यो श्रीणि राज्यानि, ततः परं बहुशोऽपि वारा प्रविशति त्रीण्वेष राज्यानि मोक्तव्यानि. दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६३७॥ [सू.] COMAGAR | इमीए वक्खाणं-जइ पहिया असिवाईहिं कारणेहिं न निग्गच्छति ताहे तत्थेव बसंता जोगबुष्टि करेंति, नमोकारहत्ता प्रतिक्र पोरिसिं करेंति, पोरिसित्ता पुरिमहूं, सइ सामत्थे आयंबिलं पारेइ, असइ निवीयं, असमत्थो जइ तो एक्कासणयं, एवं | मणा० | सबिइयं, पुरिमहतित्ता चउत्थं, चउत्थाइत्ता छई, एवं विभासा । उहाणेत्ति गयं, इयाणिं णामगहणेत्ति दारं परिष्ठापपिण्डद णार्म एगस्स दोण्हमहवापि होज मधेसि । विप्पं तु लोयकरणं परिष्णगणभेषवारसम ॥ ५ ॥ नासमितिः इमीए वक्खाणं-जावइयाणं णामं गेहद तावझ्याणं खिप्पं लोयकरणं 'परिण'ति बारसमं च दिजइ, अतरंतस्स दसम अहमं छह चउत्थाइ वा, गणभेओ य कीरइ, ते गणाओ य णिन्ति । णामग्गहणेत्ति दारं गयं, इयाणि पयाहिणेत्ति दारं जो जहियं सो तसो नियत्तइ पवाहिणं न कायचं । वडाणाई दोसा बिराहणा बालबुद्राई ॥ ५ ॥ इमीए वक्खाणं-परिवेत्ता जो जओ सो तओ चेव नियत्तति, पयाहिणं न करेइ, जइ करिति उठेइ विराहणा बालघुडाईणं, जओ सो जदहिमुहो ठविओ तओ चेव धावइ । पयाहिणेत्ति पयं गयं, इयाणिं काउस्सग्गकरणेत्ति दारं गाहा असा ग्यास्थान-पदि बहिरशिवादिभिः कारण निर्गपछन्ति तवा तत्रैव वसन्तो योगविं कुर्वन्ति, नमस्कारीयाः पौरुषर्षी कुर्वन्ति, पौरुषीथाः पुरि-IN |मार्थ, सति सामध्ये आचामान्लं पारयति, असत्ति निर्विकृतिक, समर्थों यदि तदैकाशनक, एवं सहितीथ, पूर्वाधायाश्चतुर्थ, चतुर्थीयाः षष्ठं, एवं विभाषा ll उस्थाममिति गतं, इदानीं नामग्रहणमिति द्वार, अम्या व्याख्यान-धावतां नाम गृहाति तावतां क्षिप्रं लोचकरण परिज्ञा' मिति द्वादशमन दीयते, अशक्यतो | दशमोऽष्टमः षष्ठः चतुर्थादिर्वा, गणभेदन क्रियते, ते गणाच नियोन्ति । नामप्रहणमिति द्वारं गतं, इदानी प्रदक्षिणेतिद्वार-अस्था व्याख्यान-परिहाय यो यत्र सतत एव निवर्तते प्रदक्षिणां न करोति, यदि कुर्धन्युखिष्ट्रति निराधना बालवृद्धादीनां, यतः स यदभिमुखः स्थापितमात एवं धावति । प्रदक्षिणेति पदं गतं, (इदानी कायोत्सर्गकरणमिति द्वार गाथा. दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~411 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] गडाणाई दोसा व होति तस्येव कासगंमि । आगम्मुवस्सयं गुस्सगासे विही सगो ॥ ५९॥ 8 इमीए वक्खाणं-कोइ भणेजा-तत्थेव किमिति काउस्सग्गो न कीरइ?, भण्णंति-उहाणाई दोसा हवंति, तओ आगम्म है चेइहरं गच्छंति, चेइयाई वंदित्ता संतिनिमित्तं अजियसैतित्वयं पढ़ति, तिण्णि वा थुइओ परिहायमाणाओ कहिजति, तओ आगंतु आयरियसगासे अविहिपारिद्वावणियाए काउस्सग्गो कीरइ, पतावान् वृद्धसम्प्रदायः, आयरणा पुण ओमच्छगरयहरणेण गमणागमणं किर आलोइज्जइ, तओ जाव इरिया पडिकमिजइ तओ चेइयाई बंदित्तेत्यादि सिवे विही, असिवे न कीरइ, जो पडिस्सए अच्छा सो उच्चारपासवणखेलमत्तगे विगिंचइ वसहिं पमजइत्ति काउस्सग्गदारं गयं इयाणिं खमणासज्झायस्स दारा भण्णंति मणे व असहाय राहणिय महाणिणाय निवगा था। सेसेसु माथि प्रमण नेव असाहय हो ॥ ६॥ व्याख्या-क्षपणं अस्वाध्यायश्च जइ 'राइणिओं'त्ति आयरिओत्ति 'महाणिणाओ'त्ति महाजणणाओ नियगा वा दीप अनुक्रम [२३] १ अस्या पास्थानं कवि भणेन्-तत्रैव किमिति कायोत्सगों न कियते ?, भन्यते-उत्थानादयो दोषा भवन्ति, तत आगम्य चैत्यगृहं गच्छन्ति, चैत्यानि पन्दित्या शान्तिनिमित्तमजितशान्तिसवं पठन्ति, तिसो पा स्तुतीः परिहीयमानाः कथयन्ति, तत आगाचार्यसकाशेऽविधिपरिष्ठापनित्य कायोत्सर्गः फियते। आचरणा पुनरुन्मतकरजोहरणेन गमनागमनं किलाकोच्यते, ततो यावदीयाँ प्रतिक्रम्यते सतीत्यानि पन्दिस्वेत्यादि शिवे विधिः, अशिये न फियते, यः प्रतिअये तिपति स उच्चारप्रश्रवणक्षेममात्रकाणि शोधयति वसति प्रमाणपति इति कायोत्सर्गद्वार गतं, इदानी सपणास्वाध्याययोरि भण्येते-यदि रातिक इति भाचार्य इति महानिनाद इति महाजनज्ञातो निजका वा. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया ४ प्रतिक्रमणा० परिष्ठापनासमितिः प्रत सत्राक ॥६३८॥ सण्णायगा वा से अस्थि, तेसि अधितित्ति कीरइ, 'सेसेसु नस्थि खमण' सेसेसु साहुसु न कीरइ खमणं, णेव असज्झाइयं होइ, सज्झाओवि कीरइत्ति भणिय, एवं ताव सिवे, असिवे खमणं नस्थि जोगबुडी कीरइ, काउस्सग्गो अविहिविगिचणि- याए ण कीरद, पडिस्सए मुहुत्तयं संचिक्खाविज्जद जाव उवउत्तो, तत्थ अहाजायं न कीरइ, तत्थ जेण संथारएण णीणिओ सो विकरणो कीरइ, जइन करेंति असमाचारी पबहुइ, अहिगरणं आणेज वा देवया पंता तम्हा विकरणो कायदो, खमणासज्झाइगदारा गया, अवलोयणेत्ति दारं अवरजयरस सत्तो सुत्तत्यविसारएहि धिरएहिं । अवलोयग्य कायञ्चा सुहासुहगइनिमित्तहा ॥१॥ जं दिखि विकविर्ष माल सरीरयं अक्सुयं तु संचिक्से । तं दिसि सिर्व वयंती सुत्ताविसारया धीरा ॥ १२ ॥ एएसिं वक्खाणं-'अवरुज्ज (रज) यस्स'त्ति बिइयदिणंमि अवलोयणं च काय, सुहासुहजाणणस्थं गइजाणणत्वं च, तं पुण कस्स घेप्पड़ -आयरियस्स महिड्डियरस भत्तपञ्चक्खाइयरस अण्णो वा जो महातवस्सी, जं दिसं तं सरीर कहियं त दीप अनुक्रम [२३] सज्ञातीया या तस्य सन्ति, तेषामतिरिति क्रियते, 'शेपेषु नास्ति अपर्ण' शेषेसु साधुषु न कियते क्षपणं, नेवास्वाध्याषिकं भवति, स्वाध्यायोऽपि क्रियते | इति भणिसं, एवं तावत् विये, अशिवे क्षपणं नास्ति योगवृद्धिः क्रियते, कायोत्सर्गोऽविधिपारिठापनिक्य न क्रियते, प्रतिनये गृह प्रतीक्ष्यते यावदुपयुषः तत्र यथाजातं न क्रियते, तत्र बेन संसारकेण निष्काशितः सोऽविकल्प्यः क्रियते, यदि न कुर्वन्ति असामाचारी प्रवर्धते, अधिकरणमानयेहा देवता प्रान्ता तस्माद्विकरणः कर्तव्या, क्षपणास्वाध्यायद्वारे गते, अवलोकनमिति द्वार, एतयोपियानं-द्वितीय दिनेऽवलोकनं च कर्तव्यं शुभाशुभज्ञानार्थ गतिज्ञानार्थं च,x तत् पुनः पास गृह्यते । भाचाख महर्थिकख प्रत्याक्षातभक्तस्य भन्यो वा यो महातपसी, पस्यो दिशि तच्छरीरक कष्ट ॥३८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~4134 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक दिस सुभिक्खं सुहविहारं च वदंति, अह तस्थेव संविक्खियं अक्खुर्य ताहे तमि देसे सिर्व सुभिक्खं सुहविहारं च भवइ, जइदिवसे अच्छइ तइवरिसाणि सुभिक्खं, एयं सुहासुह, इयाणि ववहारओ गई भणार्मि एस्थ व धतकरणे विमाणिको जोइसिओ वाणभंतर समंमि । गट्टाए भवणवासी एस गई से समासेण ॥ ५३॥ निगदसिद्धैव, व्याख्यातं द्वारगाथाद्वयं, साम्प्रतं तस्मिन्नेव द्वारगाथाद्वितये यो विधिरुक्तः स सर्वः क्व कर्तव्यःकवा न कर्तव्य इति प्रतिपादयन्नाह एसा व विही सच्चा कापमा सिमि जो जहि वसइ । असिवे खमण विवली फारसा प वजेजा ॥ १४ ॥ व्याख्या-एसेति अणंतरवक्खायविही मेरा सीमा आयरणा इति एगहा, 'कायदा' करेयवा तुशब्दोऽवधारणे ववहियसंबंधओ कायवो एवं, कमि ? "सिर्वमित्ति प्रान्तदेवताकृतोपसर्गवर्जिते काले 'जो' साहू 'जहिं खेत्ते वसइ, असिवे | कह ? असिवे खमणं विवज्जइ, किं पुण, जोगविवडी कीरइ, 'काउस्सगं च बजेजा' काउस्सग्गो पन कीरइ ।। साम्प्रतमुक्तार्थोपसंहारार्थ गाथामाह एसो दिसाविभागो नायबो दुविहदवहरणं च । गोसिरणं अवलोषण सुहासुहगई विसेसो थ ॥१५॥ तस्यां दिशि मुभिक्षं मुखविहारच वदन्ति, यदि तच तत् कृष्टं अक्षुपणं तदा तस्मिन् देशे विशवं सुभिक्षं सुख विहारश्च भवति, यतिदिवसान् तिष्ठति ततिवर्षाणि सुभिक्षं, एतत् शुभाशुभ, इवानी व्यवहारतो गतिं भजामि-अनन्तरो व्याख्यातविधिः मर्यादा सीमा आचरणेपेकार्थाः, कर्तव्या, व्यवहितः संबन्धः कर्तव्य एन, कस्मिन् ?,-पः साधुर्यत्र क्षेत्रे वसति, अशिवे कथं ?-अशिवे क्षपणं विकायते, किंपुनः, योगविवृद्धिः क्रियते, 'कायोत्सर्ग च चर्जयेत्' कायोतत्सर्गश्च न क्रियते। दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~414 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यकता व्याख्या-'एसो' इति अणंतरदारगाहादुयस्सऽत्यो कि ?-'दिसाविभागो णायवों दिसिविभागो नाम अचित्तसंज-18|४प्रतिकहारिभजयपरिहायणियविहिं पइ दिसिप्पदरिसणं संखेवेण दिसिपडिबजावणंति भणिय होइ, अहवा दिसिविभागो मूलदारगहणं, मणा द्रीया | सेसदारोवलक्षणं चेयं दहवं, अचित्तसंजयपारिद्वावणियं पइ एसो दारविवेओ णायबोत्ति भणियं होइ, 'दुविहदवहरणं परिष्ठाप नासमितिः ॥६३९॥ चे'ति दुविहद णाम पुवकालगहियं कुसाइ णायवमिति अणुवट्टए, 'वोसिरण ति संजयसरीरस्स परिठवणं 'अवलोयणं' विझ्यदिणे निरिक्खणंति 'सुहासुहगइविसेसो यति सुहासुहगतिविससो वंतराइसु उववायभेया यत्ति भणियं होइ, एसा अचित्तसंजयपारिहापणिया भणिया, इयाणिं असंजयमणुस्साणं भण्णइ, तत्थ गाहा भरसंजयमणुएहि जा सा दुविधा व आणुपुरीए । सचित्तेहिं सुविहिया ! अश्चित्तेहिं च नाया ॥ ५५॥ इयं निगदसिद्धव, तत्थ सचित्तेहिं भण्णइ, कहं पुण तीए संभवोत्ति , आह कपडगरूयस्सर बोसिरणं संजयाण बसहीए । उदयपद बहुसमागम विपजाहालोषण कुजा ॥६॥ दीप अनुक्रम ॥३९॥ [२३] अनन्तरगाधाद्विकस्वार्थः, कि, 'दिविभागो ज्ञातम्या' दिग्विभागो नामाचित्तसंयतपारितापनिकी विधि प्रति दिकपदर्शनं संक्षेपेण विषयतिपाद नमिति भणितं भवति, अथवा दिग्विभाग इति मूलद्वारग्रहण, शेषद्वारोपलक्षणं पैतत् द्रष्टयप, अचिप्ससंयतपारिष्ठापनिकी प्रति एष द्वारविवेको ज्ञातव्य इति भनितं भवति, द्विविधद्रव्यहरणं चेति द्विविधान्यं नाम पूर्वकालगृहीतं कुशादि ज्ञातव्यमिति अनुवर्तते, प्युसर्जनमिति संयतपारीरस्य परिकापन, भवVलोकनं द्वितीय दिवसे निरीक्षणमिति शुभाशुभगतिविशेषो व्यन्तरादिपूपपातमेदाश्चेति भणितं भवति । एषाऽपितसंपतपारिकापनिकी भणिता, बदामीम संयत मनुष्याणां भव्यते, तत्र गाथा-तत्र सचिरोभण्यते, कथं पुनस्तस्याः संभव इति ?, भाइ. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~415 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत 4 सूत्रांक - [सू.] व्याख्या-काइ अविरइया संजयाण बसहीए कप्पडगरूवं साहरेजा, सा तिहिं कारणेहिं हुन्भेजा, किं-एएसि दाउड्डाहो भवउत्ति छुहेज्जा पडिणीययाए, काइ साहम्मिणी लिंगत्थी एएहिं मम लिंगं हरियंति एएण पडिणिवेसेण कप्पह गरूवं पडियस्सयसमीवे साहरेजा, अहवा चरिया तबण्णिगिणी बोडिगिणी पाहुडिया वा मा अम्हाणं अजसो भविस्सइ ४ तओ संजओवस्सगसमीवे ठवेजा एएर्सि उड्डाहो होउत्ति, अणुकंपाए काइ दुकाले दारयरूवं छडिउंकामा चिंतेइ-एए भगवंतो सत्तहियद्वाए उवडिया, एतेसिं वसहीए साहरामि, एए सिं भत्तं पाणं वा दाहिति, अहवा कहिंवि सेज्जायरेसु वा इयरघरेसु वा छुभिस्संति, अओ साहुवस्सए परिवेज्जा, भएण काइ य रंडा पजस्थवइया साहरेजा, एए अणुकंपिइहिंति, तस्थ का विही-दिवसे २ वसही वसहेहिं चत्तारि वारा परियंचियचा, पशुसे पओसे अधरण्हे अडरत्ते, मा मा एए दोसा दाहोहिंति, जद विगिचंती दिहा ताहे पोलो कीरइ-एसा इत्थिया दारयरूवं छोकण पलाया, ताहे लोगो पइ पेच्छइ य तं| काचिदविरतिका संयताना बसती कापथकरूपं संहरेत् , सा निभिः कारणैः क्षिपेत् , कि, एतेषामबाहो भवत्पिति क्षिपेत् प्रत्पनी कतया, काचित् | साधर्मिणी विनाधिनी एनर्मम लिङ्ग हतमिति एतेग प्रति निवेदोन कम्पकस्थकरूपं प्रतिश्रयसमीपे संहरेत् , मधवा परिका तर्णिकी माह्मणी प्राभूतिका बाऽसाकमयशो मा भूत्ततः संवतोपाश्रयसमीपे स्थापयेत् एतेषां उडाहो भवरिवति, अनुकम्पया काविष्काले दारकरूपं त्यकामा चिन्तयति-रते भगवन्तः सावहितार्थायोपस्थिताः, एनेपां बसती संहरामि, एते भक्तं पानं वा दास्यन्ति, अथवा कुत्रचित् काय्यासरेषु वा इतरगृहेषु वा निक्षेप्यन्ति, अतः साधूपाश्रये परिस्थापयेत्, भवेन काचिन रण्डा मोषितपतिका संहरेत् एतेऽनुकम्पयिष्यन्ति, तत्र को विधिः, दिवसे दिवसे वसतिवृषभानुः कृत्वः पातम्या-प्रत्यूषसि प्रदोषे अपराहे अर्धरात्रे, मा मा एते दोषा भूवन् , यदि त्वजन्ती र सदा रावः क्रियते-एषा खी दारकरूपं वक्त्वा पलायिता, सदा कोक एति पृच्छति च ता. -29 दीप अनुक्रम 454 [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥६४०॥ तोहे सो लोगो जं जाणउ तं करेउ, अह न दिहा ताहे विगिंचिजइ, उदयपहे जणो वा जत्थ पएसे पए निग्गओ अच्छा प्रतिक्रतस्थ ठवेसा पडिचरइ अण्णओमुहो जहा लोगो न जाणइ जहा किंचि पडिक्खंतो अच्छइ, जहा तं सुणपण काएण वा मणा० मज्जारेण वा न मारिजइ, जाहे केणइ दिई ताहे सो ओसरह । सचित्तासंजयमणुयपरिडावणिया गया, इयाणिं अचि चि- परिठाप|त्तासंजयमणुयपरिहावणिया भण्णइ तनासमितिः पक्षिणीयसरीरहणे वणीमगाईसु होइ अचिता । तोचेक्खकालकरणं विष्पजहविर्गिचर्ण कुजा ॥ १८ ॥ | व्याख्या-पडिणीओ कोइ वणीमगसरीरं छुहेज जहा एएसिं उड्डाहो भवउत्ति, वणीमगो या तस्थ गंतूण मओ.| केणइ वा मारेऊण एत्थ निदोसति छडिओ, अविरदयाए मणुस्सेण वा उक्कलंबियं होजा, तत्थ तहेव बोल करेंति, लोगस्स कहिज्जइ, एसो पाहोत्ति, उकलंबिए निविण्णेण वारेताणं रडताणं मारिओ अप्पा होजा ताहे दिवेण कालक्खेवो कायचो, पडिलेहिऊण जइ कोइ नस्थि ताहे जत्थ कस्सइ निवेसणं न होइ तत्थ विगिंचिजइ उपेक्खेज वा, पओसो वइ संचरइ तदास लोको यमानानु सस्करोतु, अथ न दृष्टा तदा त्यज्यते, उदकपधे जमो था पत्र प्रवेशे प्रगे निर्गतस्तिति तत्र स्थापयित्वा प्रतिचरति अन्यतोमुखो यथा लोको न जानाति यथा किजित् प्रतीक्षमाणस्तिष्टति, यथा तत् शुना काकेन वा मानारेण वाम मार्पते, यदा केनचिदृष्टं तदा सोऽपसरति । सचित्तासंयतमनुष्यपरिठापना गता, इदानीमचिसासंयतमनुजपरिष्ठापना भव्यते-प्रत्वनीकः कश्चित् बनीपकशरीरं क्षिपेत् पतेषामहारो भवविति, वनीपको वा तवागत्य मृता, केनचिट्ठा मारयित्वानिदोषमिति स्यक्ता, अविरतिकया मनुष्येण वोजचं भवेत् तत्र तथैव पं कुर्वन्ति, लोकाय कथ्यते-एष नष्ट ॥६४०॥ इति, अब निविष्णेन वारयत्सु रटासुमारित आस्मा भवेत् तदा रटेन काल-क्षेपः कवयः, प्रतिलिस्य यदि कोऽपि नासिवरा यत्र कस्यचिनिवेशनं न भवति तत्र त्यज्यते उपेक्ष्यते वा, प्रदोषो वर्त्तते संचरति दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~417 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] र लोगो ताहे निस्संचरे विवेगो जहा एत्थ आएसे ण उवेक्खेयवो ताहे चेव विगिंचिजइ अइपहाए संचिक्खावेत्ता अप्पसागारिए विगिंचिजइ, जइ नत्थि कोइ पडियरइ, अह कोइ पडियरइ तस्सेव उवरि छुम्भइ, एवं विष्पजहणा, विगिचणा णामं जं तत्थ तस्स भंडोवगरणं तस्स विवेगो, जइ रुहिरं ताहे न छड्डेजइ, एकहा वा विहा वा मग्गो नजिहित्ति, ताहे || बोलकरणविभासा । अचित्तासंजयमणुयपारिद्वावणिया गया, इयाणिं णोमणुयपारिठावणिया भण्णइ- . जोमणएहिं जा सा तिरिएहि सा प होइ दुविहा उ । सचित्तेहि सुधिहिया ! अधिरोहिं च गायचा ॥ ५५॥ निगदसिद्धा, दुविहंपि एगगाहाए भषणइ चावलोषगमाईहिं जलचरमाईण होइ सचित्ता । जलथलबहकालगए अचिसे विगिंधर्ण कुजा ॥ ७० ॥ इमीए वक्खाणं-णोमणुस्सा २ सचित्ता अचित्ता य, सचित्ता चाउलोदयमाइसु, चाउलोदयगहणं जहा ओघनि-8 जुत्तीए तत्थ निवुजुओ आसि मच्छओ मंडुक्कलिया वा, तं घेतूण थेवेण पाणिएण सह निजइ, पाणियमंडुक्को पाणिय ठी लोकः सदा निस्सञ्चारे विवेको यथाऽनादेशे नोपेक्षितम्यस्तदैव त्यज्यते अतिप्रमाते प्रतीक्षवापसागारिके त्यज्यते, यदि नाति कोऽपि प्रसिचरति, अथ | कोऽपि प्रतिवरति तस्यैवोपरि क्षिप्यते, एवं विग्रहानं, विवेको नाम यतन्त्र तख भाण्डोपकरणं तख खागा, यदि रविरं तदा न खज्यते, एकधा विधा वा मार्गों ज्ञास्यते इति, तदा बोलकरणविभाषा । अचिचासयतमनुजपारिष्ठापनिकी गता, इदानीं नोमनुजपारिठापनिकी भण्यते-द्विविधमप्येकगाथया मण्यने-अस्सा व्याख्यान-नोमनुष्या (विधा) सचिता अचित्ता च, सचित्ता तन्दुलोदकाविध, सन्दुलोदकग्रहणं यथा ओधनियुको तत्र द्धित मासीत् मत्स्यो मण्डूकिका वा, हां गृहीत्वा लोकेन पानी येन सह नीयते, पानीषमण्डूको जलं दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक-दण उद्वेइ, मच्छओ बला छुम्भइ, आइग्गहणेण संसहपाणएण वा गोरसकुंडए वा तेल्लभायणे वा एवं सच्चित्ता, अञ्चित्तालाप्रतिक्रहारिभ- अणिमिसओ केणइ आणीओ पक्खिणा पडिणीएण वा, धलयरो उंदुरो घरकोइलो एवमाई, खहचरो हंसवायसमयूराई, मणा० द्रीया जत्थ सदोस तत्थ विवेगो अप्पसागारिए बोलकरणं वा, निद्दोसे जाहे रुच्चइ ताहे विगिंचइ । तसपाणपारिहावणिया परिष्ठापगया, इयाणि णोतसपाणपारिडावणिया भण्णइ नासमितिः ॥६४१॥ गोतसषाणेहिं जा सा दुपिहा होइ आणुपुजीए । आहारमि सुविहिना ! नाषक्षा नोमनाहारे ॥1॥ णोतस निगदसिद्धा, नवरं नोआहारो उवगरणाइ, तत्थ आहारमि उजा सा सा तु विहा होइ आणुपुत्रीए । जाया व मुबिहिया ! नायजा तह अजाया व ॥ २ ॥ 'आहारे' आहारविषये याऽसौ पारिस्थापनिका सा 'द्विविधा' द्विप्रकारा भवति 'आनुपूा परिपाच्या, द्वैविध्यं दर्शयति-'जाया चेव सुविहिया ! णायचा तह अजाया य तत्र दोषात् परित्यागार्हाहारविषया या सा जाता, ततश्च जाता दचिव 'सुविहिता' इत्यामन्त्रणं प्राग्वत् , ज्ञातव्या, तथाऽजाता च, तत्रातिरिक्तनिरवद्याहारपरित्यागविषयाऽजातोच्यत इति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ तत्र जातां स्वयमेव प्रतिपादयन्नाह | ॥६४२॥ दीप अनुक्रम [२३] SlesC094 ट्रोत्तिष्ठति, मत्स्यो क्लारिक्षप्यते, आदिमहणेन संपृष्टपानीवेन वा गोरसकुण्डे वा तैल भाजने वा एवं सचिसा, अचिता-अनिमेषः केनचिदानीतः ४ पक्षिणा प्रत्यनीकेन वा, स्वलचरो मूषको गृहकोकिला एवमादि, खेचरः हंसवायसमयूरादि, यत्र सदोषस्तत्र विवेकोऽल्पसागारिके रावकरण का, निषि यदा रोचति तदा स्वायते । बसमापपारिष्ठापनिकी गता, इदानी नोत्रसप्राणपारिष्ठापनिकी भण्यते. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', 139-%* प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम माहाकम्मे व तहा लोदविसे भाभिमोगिए गहिए । एएण होइ जाया चोच्छ से विही वोसिरणं ॥ १॥ व्याख्या-आधाकर्म-प्रतीतं तस्मिन्नाधाकर्मणि च तथा 'लोहविसे आभिओगिए गहिए'त्ति लोभावहीते 'विसे'त्ति। विषकृते गृहीते 'आभिओगिए'त्ति वशीकरणाय मन्त्राभिसंस्कृते गृहीते सति कथश्चिन्मक्षिकाव्यापत्तिचेतोऽन्यथात्वादिलिअतश्च ज्ञाते सति 'एतेन' आधाकर्मादिना दोषेण भवति 'जाता' पारिस्थापनिका दोषात्परित्यागार्हाहारविषयेत्यर्थः, 'वोच्छं से विहीए वोसिरणं'ति वक्ष्येऽस्या विधिना-जिनोक्न ब्युत्सर्जनं-परित्यागमित्यर्थः ॥७३॥ एगंतमणादाए अहिले विहे गुरुवइहे । छारेण अकमित्ता निहाणं सावर्ण पुजा ॥ ४ ॥ व्याख्या-एकान्ते 'अनापाते' ख्याधापातरहिते 'अचेतने चेतनाविकले 'स्थाण्डिल्ये भूभागे 'गुरूपदिष्टे' गुरुणा व्याख्याते, अनेनाविधिज्ञेन परिस्थापनं न कार्यमिति दर्शयति, 'छारेण अक्कमित्ता' भस्मना सम्मिश्य 'तिहाणं सावणं कुजत्ति सामान्येन तिस्रो धाराः श्रावणं कुर्यात्-अमुकदोषदुष्टमिदं व्युत्सृजामि एवं, विशेषतस्तु विषकृताभियोगिकादेरेवापकारकस्यैष विधिः, न स्वाधाकर्मादेः, तद्गतं प्रसङ्गेनेहैव भणिष्याम इति गाथार्थः ॥ ७४ ॥ अजातपारिस्थापनिकी प्रतिपादयन्नाह भायरिए व गिलाणे पाहुणए दुहहे सहसलाहे । एसा खलु अजाया बोछे से विहीएँ पोखिरणं ॥ ७५ ॥ व्याख्या-आचार्य सत्यधिकं गृहीतं किश्चिद्, एवं ग्लाने प्राघूर्णके दुर्लभे या विशिष्टद्रव्ये सति सहसलाभे-विशिष्टस्य दाकथशिलाभे सति अतिरिक्तग्रहणसम्भवः, तस्य च या पारिस्थापनिका एषा खलु 'अजाता' अदुष्टाधिकाहारपरित्यागविकषयेत्यर्थः, 'वोच्छं से विहीऍ बोसिरणं' प्राग्वदिति गाथार्थः ।। ७५ ।। [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~420 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यकते एप्तमणावाए अचित्ते इंडिले गुरुवइडे । आलोए तिषिण पुंजे तिहाणं साधणं कुला ॥ ७ ॥ प्रतिकहारिभ- व्याख्या-पूर्वार्द्ध प्राग्वत् 'आलोए'त्ति प्रकाशे त्रीन् पुञ्जान् कुर्यात् , अत एव मूलगुणदुष्टे त्वेकमुत्तरगुणदुष्टे तु मणा द्रीया द्वाविति प्रसङ्गः, तथा 'तिड्डाणं सावणं कुजत्ति पूर्ववदयं गाथार्थः ॥ ७६ ॥ गताऽऽहारपारिस्थापनिका, अधुना नोआ-लापरिष्ठापहारपारिस्थापनिका प्रतिपादयति नासमितिः ॥६४२॥ जोनाहारंमी जा सा सा दुरिहा होइ आणुपुत्रीए । उपवरणमि सुविहिया ! नायचा नोपयगरणे ॥ ७ ॥ निगदसिद्धा, नवरं नोउपकरणं श्लेष्मादि गृह्यते, उपगरण मि जजा सा सा दुरिहा होइ आणुप्रचौए । जाया येव सुविहिया ! नायब तह अजाया य ॥ ७ ॥ निगदसिद्धैव, नवरमुपकरणं वस्त्रादि, आया व बायपाए का पाए व चीवर कुजा । अजायवस्थपाए वोचत्थे तुच्छपाए य॥1॥(प्र.)॥ व्याख्या-जाता च वस्त्रे पात्रे च वक्तव्या, चोदनाभिप्रायस्तावद्वखे मूलगुणादिदुष्टे वङ्कानि पात्रे च चीवरं कुर्यात्, अजाता च वक्तव्या-वखे पात्रे च 'वोचत्थे तुच्छपाए य' चोदनाभिप्रायो वस्त्रं विपर्यस्त-ऋजु स्थाप्यते पात्रं च ऋजु ॥६४२॥ स्थाप्यत इति, सिद्धान्तं तु वक्ष्यामः, एष तावदू गाथार्थः॥ इयं चान्यकर्तृकी गाथा। दुखिहा जापमजाया अभियोगपिसे व सुखसुद्धा य । पुगं च दोणि तिणि य मूलत्तरमबजाणा ॥ ५ ॥ व्याख्या-द्विविधा जाताअजातापारिस्थापनिका-आभिओगिकी विषे च अशुद्धा शुद्धा च, तत्र शुद्धा अजाता भवि दीप अनुक्रम [२३] SCIRCORNA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम प्यति, अयं च प्राग्निर्दिष्टः सिद्धान्त:-'एगं च दोपिण तिपिण य मूलुत्तरसुद्धि जाणाहि' मूलगुणाऽसुद्धे एको ग्रन्धिः पात्रे च रेखा, उत्तरगुणासुद्धे द्वौ, शुद्ध त्रय इति गाथार्थः ॥ अवयवार्थस्तु गाथाद्वयस्याप्ययं सामाचार्यभिज्ञैगीत इति-उवगरणे णोउवगरणे य, उवगरणे जाया अजाया य, जाया वत्थे पाए य, अजायावि वत्थे पत्ते य, जाया णाम वस्थपायं मूलगुणअसुद्धं उत्तरगुणअसुद्धं वा अभिओगेण वा विसेण या, जइ बिसेण आभिओगियं वा वत्थं पायं वा खंडाखडि काऊण | विगिंचियर्ष, सावणा य तहेव, जाणि अइरित्ताणि वस्थपायाणि कालगए वा पडिभग्गे वा साहारणगहिए वा जाएज | पत्थ का विगिचणविही, चोयओ भणइ-आभिोगविसाणं तहेव खंडाखंडि काऊण विगिंचणं मूलगुणअसुद्धवत्थस्स एक वक कीरइ, उत्तरगुणअसुद्धस्स दोणि वंकाणि, सुद्ध उजुयं विगिंचिजइ,पाए मूलगुणऽसुद्धे एग चीरं दिज्जइ, उत्तरगुण* असुद्धे दोन्नि चीरखंडाणि पाए छुम्भंति, सुद्धं तुच्छं कीरइ-रित्तयति भणियं होइ, आयरिया भणंति-एवं सुद्धपि असुद्धं | भवइ, कह !, उज्जुयं ठवियं, एगेण वंकेण मूलगुणअसुद्धं जायं, दोहिं उत्तरगुणअसुद्धं, एकवंकं दुबक वा होजा दुर्वक उपकरणे नोउपकरणे च, उपकरणो जाता जाता च, जाता बस्ने पात्रेच, अजाताऽपि वस्ने पात्रे च, जाता नाम बत्रपात्र मूलगुणाशुदमुत्रगुणाशुई या अभियोगेन वा विषेश वा, यदि विषेशाभियोगिकंवा पलं पान वा खादशः कृत्वा परिष्ठापनीयं, रेवान तथैव, यान्यतिरिक्कानि बसपात्राणि कालगते बा प्रतिभा वा साधारणगृहीते वा याचेत, अत्र कः परिष्टापनविधिः-चोदको मणति-आभियोगिकविषयोः तथव खण्डशः कृत्वा विवेकः मूलगुणाखवखल्य एकं वर्क क्रियते, उत्तरगुणाशुद्धस्स हे बके, अतराजुकं त्यज्यते, पात्रे मूलगुणाशुचे एकं चीधरं दीयते, उपसरगुणाशुद्धे द्वे चीवरखण्डे पाने झिप्येते, शुलं तुच्छ क्रियते-रिकमिति भणितं भवति, भाचार्या भणन्ति-एवं शुद्धमपशुई भवति, कध, ऋजुकं खापित, एकेन वक्रेण मूलगुणाशुद्धं जातं, बाभ्यामुत्रगुणाशुद्ध, एकवनं द्विवकं वा भवेत् द्विवर्क [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~422 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', ཟླ, ཟླ་ प्रत सूत्रांक द्रीया ॥६४३॥ MCALCROSSA एकवक वा होजा, एवं मूलगुणे उत्तरगुणो होजा उत्तरगुणे वा मूलगुणो होजा, एवं चेव पाएवि होजा, एगं चीवरं प्रतिक्रनिग्गय मूलगुणासुद्धं जायं, दोहिं विणिग्गएहिं सुद्ध जायं, जे य तेहिं वत्थपाएहिं परिभुंजिएहिं दोसा तेसिं आवत्ती| कामगाध्य. | भवइ, तम्हा जं भणियं ते तं न जुत्तं, तओ कह दाई विगिंचियवं?, आयरिया भणंति-मूलगुणे असुद्धे वत्थे एगो गंठी पारिष्ठापकीरइ उत्तरगुणअसुद्धे दोपिण सुद्धे तिष्णि एवं वत्थे, पाए मूलगुणअसुद्धे अंतो अहए एगसण्डिया रेहा कीरइ, उत्तरगु निकी असुद्धे दोषिण, सुद्धे तिणि रेहाओ, एवं णायं होइ, जाणएण कायवाणि, कहिं परिडवेययाणि ?-एगंतमणावाए सह पत्ताधरयत्नाणेण, असइ पडिलेहणियाए दोरेण मुहे बज्झइ, उद्धमुहाणि ठविति, असइ ठाणस्स पासलियं उविजइ, जओ वा आगमो तओ पुष्फर्य कीरइ, एयाए विहीए विगिंचिजइ, जइ कोइ आगारो पावद तहावि बोसडाऽहिगरणा अनुक्रम [२३] SORSt वैकवक भवेत् , एवं मूलगुण बन्चरगुणो भवेत् उत्तरगुणे वा मूलगुणो भवेत् , एवमेव पात्रेऽपि भवेत् , एक चीवर निर्गतं मूलगुणाशुई जातं, योविनिर्ग तबो शुदं जातं, ये च तेषु वसपात्रेषु परिभुम्यमानेषु दोषालेपामापत्तिभवति, तस्मात् यद् भणितं स्वया सन युक्त, ततः कथं दचा (चिर) विवेतम्या, भाचायो भणन्ति-मूलगुणाशुद्ध चक्षे एको प्रन्धिः क्रियते उत्तरगुणाशुद्धौ शुद्ध त्रयः एवं वने, पाने मूलगुणाशुद्ध अन्तरसले एका लक्षणा रेषा कियते उत्तरगुणाशुद्ध दे मुद्दे तिस्रो रेसाः, एवं ज्ञातं भवति, जानानेन कर्तव्यानिक परिष्ठापनीयानि !, एकान्तेऽनापाते सह पात्रवन्धरजस्त्राणाम्या, असत्या पात्रमतिलेख निकाया दबरकेण मुलं बध्यते, उर्ध्वमुखानि स्थाप्यन्ते, असति स्थाने पाचवर्ति स्थाप्यते, यतो वाऽऽगमनं ततः (तस्यां दिशि) पुष्पकं (पृर्छ) क्रियते, एतेन विधिना खज्यते, यदि कनिदपवादः प्राप्नोति तथापि व्युत्पधारः अधिकरणमाश्रित्य ॥४३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~4234 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] 4900-55 सुद्धा साहुणो, जेहिं अण्णेहिं साहहिं गहियाणि जइ कारणे गहियाणि ताणि य सुद्धा जावजीवाए परिभुंजंति, मूलगुणउत्तरगुणेसु उप्पण्णे ते विगिंचइ, गतोपकरणपारिस्थापनिका, अधुना नोउपकरणपारिस्थापनिका प्रतिपाद्यते, आह च नोश्वगरणे जा साचाविदा होइ आणुपुरीए । उचारे पासपणे खेले सिंघाणए येव ॥ ८॥ व्याख्या-निगदसिद्धैव, विधि भणति बचारं कुरंतो कार्य तसपाणरक्षणहाए । कायदुवदिसाभिग्गहे य दो चेवऽभिगिण्हे ॥ १ ॥ पुर्वि तसपाणसमुहिएहि परवं तु होइ चाभंगो। पठमपर्य पसव्वं सेसानि उ अप्पसस्थाणि ॥ २॥ इमीणं वक्खाणं-जस्स गहणी संसज्जइ तेण छायाए बोसिरियवं, केरिसियाए छायाए ?-जोताव लोगस्स उवभोगरुक्खो तत्थ नवोसिरिजइ, निरुवभोगेवोसिरिजइ, तत्थविजा सयाओ पमाणाओ निग्गया तत्थेव बोसिरिजइ, असइ पुण निग्गयाए तस्थेव वोसिरिजइ असति रुक्खाणं कारण छाया कीरइ तेसुपरिणएसु वच्चइ, काया दोषिण-तसकाओथावरकाओय,जइ पडि-1 लेहेइविपमज्जइऽवि तो पगिदियाविरक्खिया तसावि, अह पडिलेहेइ न पमजइ तो थावरा रक्खिया तसा परिचत्ता, अह न शुद्धाः साधनः, चैरन्यैः साधुभिहीतानि यदि कारणे गृहीतानि तानि च शुखानि यावजीवं परिभुञ्जन्ति, मूलगुणोत्तरगुणेषु (शुढेष) वत्पनेषु तानि विविच्यन्ते-अनयोच्यांख्यान-यख ग्रहणी संसज्यते तेच छायायां व्युत्वष्टव्यं, कीडश्यां छायायां ?, वस्तावल्लोकस्योपभोगवृक्षरतत्र न ब्युस्मृज्यते, निरुपमोगे व्युत्सृज्यते, तत्रापि या स्वकीयात् प्रमाणात् निर्गता तत्रैव खुवायते, असत्या पुनर्निर्गतायां तत्रैव ध्युत्ज्यते असत्सु क्षेषु कायेन छाया किपते वेषु परिणतेषु अन्यते, कायौ डौ-बसका यः स्थावरकायच, यदि प्रतिलेखथत्यपि प्रमार्जयत्यपि तदैकेन्द्रिया अपि रक्षिताखसा अपि, अथ प्रतिलेखपति न प्रमायति तदा स्थावरा रक्षिताः, साः परित्यक्ताः, अथ में दीप अनुक्रम [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~424 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], हारिभ प्रत सूत्रांक आवश्यक- पडिलेहेइ पमजइ थावरा परिचत्ता तसा रक्खिया, इयरत्थ दोवि परिचत्ता, सुप्पडिलेहियसुष्पमजिएसुवि पढमं पयंप्रतिक्र तपसत्थं, बिझ्यतइए एकेकेण चउरथं दोहिवि अप्पसत्थं, पढमं आयरियवं सेसा परिहरियबा, दिसाभिग्गहे-'उभे मूत्र- मणाध्य. द्रीया पुरीषे च, दिवा कुर्यादुदमुखः।रात्रौ दक्षिणतश्चैव, तस्य आयुर्न हीयते ॥ १॥ दो चेव एयाउ अभिगेण्हंति, डगलगहणे | पारिष्ठाप तहेब चउभंगो, सूरिये गामे एबमाइ विभासा कायवा जहासंभवं ॥ अधुना शिष्यानुशास्तिपरां परिसमाप्तिगाथामाह- निकी० ॥६४४॥ गुरुमूलेवि वसंता अनुकूला जे न होति गुरूर्ण । एएसि तु पयाण दूररेण से होलि ॥४॥ व्याख्या-'शुरुमूले' गुर्वन्तिकेऽपि 'वसन्तः' निवसमानाः अनुकूला ये न भवन्त्येव गुरूणाम् , एतेषां 'पदानां' उक्त-12 लक्षणानां, तुशब्दादन्येषां च दूरंदूरेण ते भवन्ति, अविनीतत्वात्तेषां श्रुतापरिणतेरिति गाथार्थः ॥ पारिस्थापनिकेयं समाप्तेति ॥ पडिकमामि छहिं जीवनिकाएहिं-पुतविकारणं आउकाएक तेउकारणं बाउकाएणं चणस्सइकाएणं| तसकाएणं । पडिकमामि छहिं लेसाहि-किण्हलेसाए नीललेसाए काउलेसाए तेउलेसाए पम्हलेसाए सुक्कलेसाए ॥ पडिकमामि सत्तहिं भयवाणेहिं । अहहिं मयहाणेहिं । नवहिं बंभचेरेगुत्तीहिं । दसविहे समणधम्मे ।। एक्कारसहिं उबासगपडिमाहिं । वारसहिं भिक्खुपडिमाहिं । तेरसहिं किरिपाठाणेहिं का॥४४॥ प्रतिलेखपति प्रमाजयति स्थावराः परिल्यकाः असा रक्षिताः, इतरत्र येऽपि परित्यकार, सुमत्युपेक्षितसुप्रमानितयोरपि प्रथमं पदं प्रश, Disतीयतृतीयपोरेककेन चतुर्थ द्वाभ्यामपि प्रयास, प्रथममाचरितम्य शेषाः परिहयाः , दिगभिरहे- एपेते अभिगृहोते, दगलकमाणे तव चतुर्भजी, सूर्ये प्रामे एवमादि विभाषा कसंख्या यथासंभवं । दीप अनुक्रम [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~425 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत -61-9645698- सूत्रांक प्रतिक्रमामि पशिजीवनिकायैःप्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण हेतुभूतैर्यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतः, तद्यथा-पृथिवीकाये-18 CIनेत्यादि । प्रतिक्रमामि पहिश्याभिः करणभूताभियों मया दैवसिकोऽतिचार: कृतः, तद्यथा-कृष्णलेश्ययेत्यादि-कृष्णा-1 दिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दःप्रयुज्यते ॥१॥ कृष्णादिद्रव्याणि तु सकलप्रकृतिनिष्यन्दभूतानि, आसां च स्वरूपं जम्धूखादकदृष्टान्तेन ग्रामघातकदृष्टान्तेन च प्रतिपाद्यते-जह जंबुतरुवरेगो सुपरफलभरियनमियसालग्गो। दिहो छहिं पुरिसेहिं ते बिती जंबु भक्खेमो ॥१॥ किह पुण! ते बेंतेको आरुहमाणाण जीवसंदेहो । तो छिंदिऊण मूले पाडे, साहे भक्खेमो ॥२॥ बितिआह एदहेणं किं छिण्णेणं तरूण अम्हंति । साहा महल छिंदह तइओ बेंती पसाहाओ॥३॥ गोच्छे चउत्थओ उण पंचमओ बेति गेण्हह फलाई। छहो बेंती पडिया एएचिय खाह घेत्तुं जे॥४॥ दिहतस्सोवणओ जो बेति तरूवि छिन्न मूलाओ। सो वट्टइ किण्हाए सालमहला उ नीलाए ॥५॥ हवाइ पसाहा काऊ गोच्छा तेऊ फला य पम्हाए । पडियाए सुकलेसा अहवा अण्णं उदाहरणं ॥६॥ [सू.] 0-१५ दीप अनुक्रम [२४] बघा जम्मूतवर एका मुपकालभारनमशालामः I दृष्टः पतिः पुरुषैसे बुनते जम्मूः भक्षयामः ॥1॥ पुनः तेषामेको पवीति भारुहता | जीवसंदेहः । स युधिय मूला पातयामस्ततो भक्षयामः ॥ २ ॥ द्वितीय माह-एतावता तरुणा छिसेनामाकं किम् ।। शाखा महती किस तूतीयो पवीति प्रशाखाम् ॥ ३॥ गुच्छान् चतुर्थः पुनः पक्षमो प्रवीति गृहीत फलानि । यो अदीति पतितानि एतान्येव सादामो गृहीत्वा ॥४॥टान्तस्योपनयो-यो अधीति तरुमपि छिन्न्त मूलात् । स वर्गते कृष्णाषा शाखां महती तु नीलायाम् ॥५॥ भवति प्रशाखा कापोती गुण्डान् लैजसी फलानि च पनाथाम् । पतितानि | शुक्ललेश्या अथवाऽन्यदुदाहरणम् ॥६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: षड़ लेश्याया: वर्णनं ~426 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६४५॥ RockSCACAAg चोरा गामवहत्थं विणिग्गया एगो बेति पाएह । पेच्छह सर्व दुपयं च चप्पयं वाधि॥७॥ बिइओ माणुस पुरिसे य ४प्रतिकतइओ साउहे चउरथे य । पंचमओ जुझंते छडो पुण तस्थिमं भणइ ॥८॥ एक ता हरह धणं बीयं मारेह मा कुणह एवं। मणाध्यक | केवल हरह धणंती उपसंहारो इमो तेसिं ॥९॥ सवे मारेहत्ती व सो किण्हलेसपरिणामो । एवं कमेण सेसा जा चरमो सुकलेसाए ॥१०॥ आदिलतिणि एत्थं अपसत्था उवरिमा पसस्था उ । अपसत्थासुं वट्टिय न वट्टियं जं पस-1 स्थासुं ॥११॥ एसऽइयारो एयासु होइ तस्स य पडिक्कमामित्ति । पडिकूलं बट्टामी जं भणियं पुणो न सेवेमि ॥ १२॥४ प्रतिक्रमामि सप्तभिर्भयस्थानः करणभूतों मया देवसिकोऽतिचारः कृत इति, तत्र भयं मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामस्तस्य स्थानानि-आश्रया भयस्थानानि-इहलोकादीनि, तथा चाह सङ्ग्रहणिकार: इहपरलोबादाणमकहाबाजीवमरणमसिलोए'ति अस्य गाथाशकलस्य व्याख्या-'इहपरलोअत्ति इहलोकभयं परलोकभयं, तत्र मनुष्यादिसजातीयादन्यस्मान्मनु दीप अनुक्रम [२४] चौरा ग्रामवधाथै विनिर्गता एको पीति पातयत । वं पश्यत तं सर्व द्विपदं च चतुष्पदं वापि ॥ ७॥ द्वितीयो मनुष्यान् पुरुषांश तृतीया सायु|धान चतुर्थन । पञ्चमो युध्यमानान् षष्ठः पुनमसनेदं भगति ॥ ६॥ एकं तावद्वरत धनं द्वितीयं मारयतमा कुरुत्वम् । केवलं हरत धनं उपसंहारोऽयं तस्य ॥९॥ | सर्वान् मारयतेति वर्तते स कृष्णलेश्यापरिणामः । एवं क्रमेण शेषाः यावचरमः शुक्ललेश्यायाम् ॥10॥ आचास्तिोश्याप्रशस्ता उपरितनाः प्रशस्तास्तु । | अप्रपास्तासु उत्तं न वृत्तं प्रशस्तासु यत् ॥1॥ एषोऽतिचार एतासु भवति तस्माच प्रतिकाम्यामि । प्रतिकूल पणे पगणितं पुनर्न सेचे ॥॥ ५ ॥६४५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | सप्त भय, अष्ट मद आदीनां वर्णनं ~427 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत 20CTRESS सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२४] प्यादेरेव सकाशात् भयमिहलोकभयं, विजातीयात्तु तिर्यग्देवादेः सकाशाद्य परलोकभयम्, आदीयत इत्यादान-धन | ते तदर्थं चौरादिभ्यो यद्यं तदादानभयम्, अकस्मादेव-बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिष्वेवावस्थितस्य राध्यादौ भयम् अकस्माद्यं, 'आजीवे' ति आजीविकाभयं निर्धनः कथं दुर्भिक्षादावात्मानं धारयिष्यामीत्याजीविकाभयं, मरणाद्यं मरणभयं प्रतीतमेव, 'असिलोगोत्ति अश्लाघाभयम्-अयशोभयमित्यर्थः, एवं क्रियमाणे महदयशो भवतीति तनयान प्रवतत इति गाथाशकलाक्षरार्थः ॥ मदः-मान [ग्रन्थाग्रं० १६५००] स्तस्य स्थानानि-पर्याया भेदामदस्थानानि, इह च प्रतिक्रमामीति वर्तते, अष्टभिर्मदस्थानः करणभूतैयों मया देवसिकोऽतिचारः कृत इति, एवमन्येष्वपि सूत्रेवायोज्य, कानि पुनरष्टौ मदस्थानानि ?, अत आह सहणिकार: जाईकुलबलरूवे तवईसरिए सुए लाहे ॥१॥ अस्य व्याख्या-कश्चिन्नरेन्द्रादिः प्रत्रजितो जातिमदं करोति, एवं कुलबलरूपतपऐश्वर्यश्रुतलाभेष्वपि योज्यमिति ॥ नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभिः, शेषं पूर्ववत्, ताश्चेमाः वसहिकहनिसिजिदिये कुईतरपुर्वकीलियर्पणीए । मामायाहरिविभूसणा य नव बंभगुतीयो ॥१॥ व्याख्या-ब्रह्मचारिणा तद्गुप्त्यनुपालनपरेण न स्त्रीपशुपण्डकसंसक्ता वसतिरासेवनीया, न स्त्रीणामेकाकिनां कथा कथनीया, न स्त्रीणां निषद्या सेवनीया, उत्थितानां तदासने नोपवेष्टव्यं, न स्त्रीणामिन्द्रियाण्यवलोकनीयानि, न स्त्रीणां कुड्यान्तरितानां मोहनसंसक्तानां क्वणितध्वनिराकर्णयितव्यः, न पूर्वक्रीडितानुस्मरणं कर्तव्यं, न प्रणीतं भोक्तव्यं, SAS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~428 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रतिक्रममणाध्य प्रत सूत्रांक 64 दीप अनुक्रम [२४] आवश्यक-1 स्निग्धमित्यर्थः, नातिमात्राहारोपभोगः कार्यः, न विभूषा कार्या, एता नव ब्रह्मचर्यगुप्तय इति गाथार्थः ॥ श्रमणःहारिभ- प्राग्निरूपितशब्दार्थस्तस्य धर्मः-क्षान्त्यादिलक्षणस्तस्मिन् दशविधे-दशप्रकारे श्रमणधर्मे सति तद्विषये वा प्रतिषिद्धकरणाद्रीया दिना यो मयाऽतिचारः कृत इति भावना । दशविधधर्मस्वरूपप्रतिपादनायाह साहणिकार:॥६४६॥ खंती व मरवजय मुत्ती तव संजमे य योद्धछ । सर्च स्रोयं भाकिंधणं च च च जएधम्मो ॥१॥ क्षान्तिः श्रमणधर्मः, क्रोधविवेक इत्यर्थः, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, मृदोर्भावः मार्दवं मानपरित्यागेन वर्तनमित्यर्थः, तथा ऋजुभाव आर्जव-मायापरित्यागः, मोचनं मुक्तिः, लोभपरित्याग इति भावना, तपो द्वादशविधमनशनादि, संयमश्चाश्रवविरतिलक्षणः 'बोद्धव्यः' विज्ञेयः श्रमणधर्मतया, सत्यं प्रतीतं, शौचं संयम प्रति निरुपलेपता, आकिचन्यं च, कनकादिरहिततेत्यर्थः, ब्रह्मचर्य च, एष यतिधर्मः, अयं गाथाक्षरार्थः ॥ अन्ये वेवं वदन्ति-खंती मुत्ती अजब मद्दव तह लाघवे तवे चेव । संयम चियागऽकिंचण बोद्धधे बंभचेरे य ॥१॥ तत्र लाघवम्-अप्रतिबद्धता, त्यागःसंयतेभ्यो वस्त्रादिदानं, शेषं प्राग्वत् , गुप्त्यादीनां चाऽऽद्यदण्डकोकानामपीहोपन्यासोऽन्यविशेषाभिधानाददुष्ट इति ॥ एकादशभिरुपासकप्रतिमाभिः करणभूताभिर्योऽतिचार इति, उपासकाः-श्रावकास्तेषां प्रतिमा:-प्रतिज्ञा दर्शनादिगुणयुक्ताः कार्या इत्यर्थः, उपासकप्रतिमाः, ताश्चैता एकादशेति दसणवयसामाय पोसहपटिमा भवंभ सचित्ते । भारमपेसतदिह मजए समणभूए य॥३॥ ॥६४६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: दशविध-श्रमणधर्मस्य वर्णनं ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक व्याख्या-दर्शनप्रतिमा, एवं व्रतसामायिकपौषधप्रतिमा अब्रह्मसचित्तआरम्भप्रेष्यउद्दिष्टवर्जकः श्रमणभूतश्चेति, अयमासां भावार्थ:-सम्मईसणसंकाइसलपामुक्कसंजुओ जो उ । सेसगुणविप्पमुक्को एसा खलु होति पडिमा ॥१॥ |बिझ्या पुण वयधारी सामाइयकडो य तइयया होइ । होइ चउत्थी चउद्दसि अहमिमाईसु दियहेसु ॥२॥ पोसह चउविहंपी पडिपुण्णं सम्म जो उ अणुपाले । पंचमि पोसहकाले पडिमं कुणएगराईयं ॥३॥ असिणाणवियडभोई पगासभोइत्ति जं भणिय होइ । दिवसऔं न रत्ति भुंजे मउलिकडो कच्छ णवि रोहे ॥४॥ दिय बंभयारि राई परिमाणकडे अपोसहीएस । पोसहिए रतिमि य नियमेणं बंभयारी य॥५॥ इय जाव पंच मासा विहरइ हु पंचमा भवे पडिमा । छट्टीए बंभयारी ता विहरे जाव छम्मासा ॥६॥ सत्तम सत्त उ मासे णवि आहारे सचित्तमाहारं । जं जं हेछिल्लाण तं तो परिमाण सबंपि ॥७॥ आरंभसयंकरणं अहमिया अहमास बजेइ । नवमा णव मासे पुण पेसारंभे विवजेइ ॥८॥ [सू.] ACCOS दीप अनुक्रम [२४] १ शङ्काविदोषशल्यामुक्तसम्बस्व संयुतो यस्तु । शेषगुणविषमुक्त एषा खलु भवति प्रतिमा ॥ ॥ द्वितीया पुनर्वतधारी कृतसामायिका तृतीया भवति । भवति चसुर्थी चतुर्दश्यष्टम्यादिषु दिवसेषु ॥ २ ॥ पोषधं चतुर्विधमपि प्रतिपूर्ण सम्यग् यस्तु अनुपालयति । पञ्चमी पोषधकाले प्रतिमा करोयेकरात्रिकीम् ॥ ३ ॥ बखानो दिवसभोजी प्रकाशभोजीति यज्ञाणितं भवति । दिवसे न रात्री मुझे कृतमुकुलः कपर्छ नैव बध्नाति ॥ १ ॥ दिवा अझचारी | रात्री कृतपरिमाणोऽपोषधिकेषु । पोषधिको रात्रौ च नियमेन ब्रह्मचारी च ॥ ५॥ इति पावन पञ्च मासान् विहरति पञ्चमी भवेत् प्रतिमा । षायां ब्रह्मचारी | तावत् विहरेत् यावत् षण्मासाः॥६॥ सप्तमी सव मासान् नैवाहारयेत् सचिशमाहारम् । यद्यदधस्तनीनां तदुपरितनासु सर्वमपि ॥ ७॥ बारसाभय खर्यकरणं अष्टम्यां मष्ट मासानू वर्जयति । नवमी नव मासानू पुन: प्रेपारम्भान् विवर्जयति ॥6॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: एकादश-श्रावकप्रतिज्ञाया: वर्णनं ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', प्रतिकमणाध्य प्रत सूत्रांक 4%25-45% 81%256 [सू.] आवश्यक-हादसमा पुण दस मासे उद्दिडकयंपि भत्त नवि मुंजे । सोहोई छुरमुंडो छिहलिं वा धारए जाहिं ॥९॥ निहियमत्थजायं| हारिभ- पुच्छंति नियाण नवरि सो आह । जइ जाणे तो साहे अह नवि तो बैंति नवि जाणे ॥ १०॥ खुरमुंडो लोओ वा रयद्रीया हरण पडिग्गरं च गेण्हित्ता । समणभूओ विहरे णवरि सण्णायगा उवरिं ॥ ११॥ ममिकारअवोच्छिन्ने बच्चइ सपणा दयपल्लि दटुंजे । तत्थवि साहुब जहा गिण्हइ फासुं तु आहारं ॥ १२ ॥ एसा एक्कारसमा इक्कारसमासियासु एयासु । पण्ण॥६४७॥ 5 वणवितहअसद्दहाणभावाउ अइयारो ॥१३॥ KI द्वादशभिर्भिक्षुप्रतिमाभिः प्रतिपिद्धकरणादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृत इति, क्रिया प्राग्वत् , तत्रोद्गमोत्पादनैषणादिशुद्धभिक्षाशिनो भिक्षवः-साधवस्तेषां प्रतिमाः-प्रतिज्ञा भिक्षुप्रतिमाः, तामा द्वादश मासाई सर्तता पडमाबितिसत्त (सत्त) राइदिणा । अहराई एगराई भिक्खूपडिमाण बारसगं ॥१॥ मासाद्याः सप्तान्ताः 'प्रथमाद्वित्रिसप्त (सप्त) रात्रिदिवा' प्रथमा सप्तरात्रिकी, द्वितीया सप्तरात्रिकी, तृतीया दशमी पुनर्देश मासान् उद्दिष्टकृतमपि भर्फ नैव भुते । स भवति धुरमुण्डः शिखां वा धारयति यखाम् ॥ ९॥ पन्निहितमर्थजातं पृच्छतां निज़ानां परं स ब्रवीति । यदि जानाति तदा कथयति अथ नैव ब्रवीति नैव जाने ॥१०॥धुरगुण्डो लोचो वा रजोहरणं पतहहं च गृहीत्वा । श्रमणभूतो विहरति |नवर सज्ञातीयानामुपरि॥1॥ ममीकारेन्युग्छिो मजति सज्ञातीयपली एम् । तत्रापि साधुवत् यथा गृहाति प्रामुकं त्याहारम् ॥ १२॥ एकादशी एकादशमासिकी एतासु । वितधमज्ञापनाऽश्रद्धानभावात्वतिचारः ॥ १३ ॥ मासाद्याः समान्ताः प्रथमा द्वितीया तृतीया सतरानिन्दिवमामा । अहोरात्रिकी एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [२४] G ||६४७॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | द्वादश-भिक्षुप्रतिज्ञाया: वर्णनं ~431 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक | सप्तरात्रिकी, अहोरात्रिकी, एकरात्रिकी, इदं भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकमिति । अयमासां भावार्थ:-डिवज्जइ संपुण्णो संघयणधिइजुओ महासत्तो । पडिमाउ जिणमयंमी संमं गुरुणा अणुण्णाओ ॥१॥ गच्छेच्चिय निम्माओ जा पुवा दस भवे असंपुण्णा । नवमस्स तइयवत्थु होइ जहष्णो सुयाभिगमो ॥२॥ वोसहचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेब जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवयं तस्स ॥३॥ गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवजे मासियं महापडिमं । दत्तेगभोयणस्सा पाणस्सबि एग जा मासं ॥४॥ पच्छा गच्छमईए एव दुमासि तिमासि जा सत्त । नवरं दत्तीवुडी जा सत्त उ सत्तमासीए ॥ ५॥ तत्तो य अहमीया हवइ हूँ पढमसत्तराईदी। तीय चउत्थचउत्थेणऽपाणएणं अह विसेसो ॥६॥ तथा चाऽऽगमः-“पढमसत्तराईदियाणं भिक्खूपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पड से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वे"त्यादि, उत्ताणगपासल्लीणसज्जीवावि ठाणे ठाइत्ता । सहउवसग्गे घोरे दिवाई तत्थ अविकंपो ॥७॥ [सू.] दीप अनुक्रम [२४] प्रतिपयते एता। संपूर्णः संहनगपतियुतो महासत्वः । प्रतिमा जिनमते सम्म गुरुणाऽनुशातः॥1॥ एवं निष्णातो थावत् पूर्वाणि वश भवेयुरसंपूर्णानि । नवमस्य तृतीयं बरतु भवति जयन्यः श्रुताधिगमः ॥२॥ ब्युस्सृष्टस्यक्तदेहः उपसर्गसहो यथते जिनकपी । एषणा अभिगृहीता भक्त चालेपत्तय गच्छाद्विनिष्क्रम्य प्रतिपद्यते मासिकी महाप्रतिमाम् । दत्तिरेका भोजनस पानस्याप्येका यावन्मासः॥४॥पबाद गच्छमाय हिमासिकी निमासिकी बावत सप्तमासिकी । नवरं दत्तिवृद्धिः यावत् सप्तव सप्तमाथाम् ॥ ५॥ सतनामी भवति प्रथमसराबिन्दिया । तखो चतुर्थचतर्थेनापानकेनासी विशेषः ॥॥ प्रथमा सप्तराविन्दिवां भिक्षुपतिमा प्रतिपक्षस्थानमारस्य कल्पतेऽथ चतुर्थेन भनापानकेन पाहिमामय घेत्यादि, उत्तानः पार्वती नैपधिको वाऽपि स्थान स्थित्वा । सहते उपसर्गान् घोरान् दिव्यादीन् तत्राविकम्पः ॥ ७॥ CAMERICS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~432 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रतिक आवश्यक हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥६४८॥ दोच्चावि एरिसश्चिय बहिया गामाझ्याण णवरं तु । उक्कुडलगंडसाई इंडाइतिउच ठाइत्ता ॥८॥ तच्चाएवि एवं णवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासणमहवावी ठाइज व अंबज्जोया ॥९॥ एमेव अहोराई छई भत्तं अपाणयं णवरं ।। गामणयराण बहिया वग्धारियपाणिए ठाणं ॥ १०॥ एमेव एगराई अहमभत्तेण ठाण बाहिरओ। ईसीपन्भारगए अणि-M मिसनयणेगदिहीए ॥३॥ साहु दोवि पाए वग्धारियपाणि ठायई ठाणं । वाघारि लंवियभुओ सेस दसासु जहा भणियं ॥४ । त्रयोदशभिः क्रियास्थानः प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण हेतुभूतैर्योऽतिचारः कृत इति, क्रिया पूर्ववत्, करणं क्रिया, कर्मबन्धनिवन्धना चेप्टेत्यर्थः, तस्याः स्थानानि-भेदाः पर्याया अर्थायानोंयेत्यादयः क्रियास्थानानि, तानि पुनत्रयोदश: भवन्तीति, आह च सङ्घहणिकार: महाहा दिसाऽकम्हा दिवी घे मोर्सऽदिग्णे व । मभयमाणमैने मायोलोहे "रियांहिया ॥३॥ ध्याख्या-अर्थाय क्रिया, अनर्थाय क्रिया, हिंसाय क्रिया, अकस्मात् क्रिया, 'दिडिय' त्ति दृष्टिविपर्यासक्रिया च सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा, मृषाक्रियाऽदत्तादानक्रिया च, अध्यात्मक्रिया, मानक्रिया, मित्रदोषक्रिया, मायाक्रिया, लोभक्रिया द्वितीयाऽपीटश्येव यहिनामादीनां परं तु । उत्तुङकासनो बक्रकाष्ठशायी चा दण्डावतिको वा स्थित्वा ॥ ८ ॥ तृतीयस्यामप्येवं परं स्थानं तु तत्र योदोहिका । बीरासनमथचाऽपि विष्टेहाऽऽनकुब्जो वा ॥ ९॥ एवमेवाहोरात्रिकी पष्ठं भक्तमपानकं परम् । मामनगरयोपैहिस्तात् प्रलम्ब भुजस्तिष्ठति स्थानम् - 11. ॥ एवमेकरात्रिकी अष्टमभक्तेन स्थानं बहिः । ईषत्प्रारभारगतोऽनिमिषनयन एकदृष्टिकः ॥1॥ संहृत्य वावपि पादौ प्रलम्बितभुजतिष्ठति स्थानम् । 'पाधारि' हम्बितभुजः शेष दशासु यथा भणितम् ॥ २॥ दीप अनुक्रम [२४] | ॥६४८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | त्रयोदश-क्रियास्थानानाम् वर्णनं ~433 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक पिथक्रिया, अयमासां भावार्थ:-तसथावरभूएहिं जो दंड निसिरई हु कन्जंमि । आय परस्स व अछा अट्टादंड तयं ति ॥१॥ जो पुण सरडाईयं थावरकायं च वणलयाईयं । मारेत्तुं छिंदिऊण व छडे एसो अणहाए ॥२॥ अहिमाइ दि वेरियस्स व हिसिसु हिंसइव हिंसिहिई । जो दंडं आरब्भइ हिंसादंडो भवे एसो ॥३॥ अन्नहाए निसिरइ कंडाइ अन्न माहणे जो उ । जो व नियंतो सस्सं छिंदिजा सालिमाई य ॥४॥ एस अकम्हादंडो दिद्विविवजासओ इमो होइ। जो मित्तममित्तती का घाएइ अहवावि ॥ ५॥ गामाईघाएसु व अतेण तेणेति वावि घाएज्जा । दिहिविवज्जासे सो किरि याठाणं तु पंचमयं ॥ ६॥ आया णायगाइण वावि अट्ठाएँ जो मुसं वयइ । सो मोसपचईओ दंडो छटो हवइ एसो &॥७॥ एमेव आयणायगअट्ठा जो गेण्हइ अदिन्नं तु । एसो अदिश्नवत्ती अज्झस्थीओ इमो होइ ॥ ८॥ नवि कोवि किंचि भणई तहविहु हियएण दुम्मणो किंपि । तस्सऽज्झत्थी संसइ चउरो ठाणा इमे तस्स ॥ ९॥ कोहो माणो माया (सू.] दीप अनुक्रम [२४] सस्थावरभूतेषु यो निसृजति कार्वे । आत्मनः परस्य वार्धाय अर्थदण्ड से बुवते ॥1॥ यः पुनः सरटादिकं स्थावरकायं च वनलतादिकम् । मारा विरवा हिचा वा त्यजति एषोऽनाय ॥ २ ॥ अनादेरिणो वा महसीत् हिनाक्षि वा हिसिष्यति । यो पदमारमते हिंसादण्डो मवेदेषः ॥ ३ ॥ अन्यापर्याय निसृजति कण्डादि अन्यमाहन्ति यस्तु । यो वा गच्छन् श छिन्यात् शाल्यादीं ॥ ४ ॥ एषोऽकमाण्डो रष्टिविपर्यासतोऽयं भवति । यो मित्रममिश्रमितिकृत्वा धातयत्यथवाऽपि ॥ ५॥ मामाविधातेषु वा अस्तेनं तेनमिति वाऽपि घातयेत् । इष्टिविपर्यासात् स क्रियास्थानं तु पश्चमम् ॥ ६॥ आमाथै शातीयादीनां वाऽध्याय यो मृषा वदति । समृधाप्रत्याथिको दण्डो भवत्येपः षष्ठः ॥ ७॥ एषमेवारमझातीमार्थ यो गृह्णात्य दत्तं तु । एषोऽदत्तप्रवषोऽध्यारमस्थोऽयं मवति ॥ ॥ नैव कोऽपि किश्चिद्रणति तथापि हृदये दुर्मना किमपि । तस्याध्यात्मस्थः पौसति चत्वारि स्थानानीमानि तस्य ॥ ९॥ क्रोधो मानो माय Herohin पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~4344 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', प्रत - सूत्रांक 4-% दीप अनुक्रम [२५]] आवश्यकलोहो अज्झस्थकिरिय एवेसो । जो पुण जाइमयाई अढविहेणं तु माणेणं ॥ १०॥ मत्तो हीलेइ परं सिंसइ परिभवइ दाप्रतिक्रहारिभमाणवत्तेसा । मायपिइनायगाईण जो पुण अप्पेवि अवराहे ॥११॥ तिचं दंडं करेइ डहणंकणबंधतालणाईयं । तं मित्त मणाध्य द्रीया दोसवत्ती किरियाठाणं हवइ दसमं ॥ १२ ॥ एकारसमं माया अण्णं हिययंमि अण्ण वायाए । अण्णं आयरई या स क॥६४९|| |म्मुणा गूढसामत्थो ॥ १३ ॥ मायावत्ती एसा तत्तो पुण लोहवत्तिया इणमो । सावजारंभपरिग्गहेसु सत्तो महंतेसु ॥१४॥ तह इत्थी कामेसु गिद्धो अप्पाणयं च रक्खंतो। अण्णेसि सत्ताणं वहबंधणमारणे कुणइ ॥१५॥ एसो उ लोहवित्ती इरियावहियं अओ पवक्खामि । इह खलु अणगारस्सा समिईगुत्तीसुगुत्तस्स ॥ १६ ॥ सययं तु अप्पमत्तस्स भगवओ &ाजाव चक्खुपम्हंपि । निवयइ ता सुहुमा विहु इरियावहिया किरिय एसा ॥ १७॥ चोहसहि भूयगामेहिं पन्नरसहि परमाहंमिएहिं सोलसहिं गाहासोलसएहिं सत्तरसविहे संजमे अट्ठारस[विहे अचंभे एगूणवीसाए णायज्झयणेहिं बीसाए असमाहिठाणेहि ॥ सोमोऽध्यात्मकिय एषः । यः पुनजातिमदादिनाअष्टविधेन तु मानेन ॥10॥ मत्तो हीलयति पर निन्दति परिभवति मानप्रस्थयिकी एपा । माता| पितृजातीयानां यः पुनररूपेऽष्यपराये ॥11॥तीनं करोति दण्डं दहनानवम्धतासनादिकम् । तत् मित्रद्वेषप्रत्यधिक क्रियास्वानं भवति दशमम् ॥ १२ ॥ | एकादशमं माया अन्यत् हृदये अन्याचि । अन्यदाचरति स कर्मणा गूढसामभ्यः ॥ १३॥ मायानत्वविक्वेषा ततः पुनर्लोभमस्यविषयेषा । सायद्यारम्भपरि-16॥४९॥ प्रहेषु सक्तो महासु ॥ ४ ॥ तथा श्रीकामेषु गृन भारत्मानं च रक्षन् । अन्येषां सवानां वधमारणाकनबन्धनानि करोति ॥ १५॥ एष तुकोभवत्यधिक ईर्यापथिकमतः प्रवक्ष्यामि । इद खश्चनगारस्य समितिगुप्तिसुगुप्तस ॥ १६ ॥ सततं त्यामतस्य भगवतो यायचक्षु-पक्ष्मापि । विपतति तावत् सूक्ष्मा ईयोपथिकी क्रियैषा ॥१७॥ SCkA0% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~435 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...., प्रत SAGAR सूत्रांक दीप अनुक्रम [२५]] चतुर्दशभिर्भूतग्रामः, क्रिया पूर्ववत् , भूतानि-जीवास्तेषां ग्रामाः-समूहा भूतग्रामास्तैः, ते चैवं चतुर्दश भवन्ति एगिदियमुटुमियरा सणियर पणिदिया व समीतिचऊ । पजत्तापज्जता भेएणं चोदसणामा ॥३॥ व्याख्या-एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सूक्ष्मेतरा भवन्ति, सूक्ष्मा बादराश्चेत्यर्थः, संज्ञीतराः पञ्चेन्द्रियाश्च, संझिनोऽसंज्ञिनश्चेति भावना, 'सबीतिच'त्ति सह द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियैः, एते हि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन चतुर्दश भूतग्रामा भवन्ति, स्थापना चेयं सामाबाद पापा एवं चतुर्दशनकारो भूतग्रामः प्रदर्शितः, अधुनाऽमुमेव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह येऽप प स नहणिकार:ते उप | ते प चपाचप| उसे प संप सं संप । मिच्छविही सामायणे य तह सम्ममिच्छदिही व अविरसम्मदिही विस्थाविरए पमचे ॥1॥ तत्तो य अप्पमतो नियंहिअनियहिवायरे सुहमे । उवसंतस्त्रीणमोदे छोइ संजोगी जोगी य॥२॥ गाथाद्वयस्य व्याख्या-कश्चिद्भूतग्रामो मिथ्यादृष्टिः, तथा सास्वादनश्चान्यः, सहैव तत्त्वश्रद्धानरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनः, कणघण्टालालान्यायेन प्रायः परित्यक्तसम्यक्त्वः, तदुत्तरकालं पडावलिकाः, तथा चोकम्-"उवसमसंमत्तातो चयतो मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसंमत्तं तदंतरालंमि छावलियं ॥१॥" तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च अपामसम्यक्रवात् व्यवमानस्ख मिथ्यात्वमप्रामुवतः। सास्वादनसम्यक्त्वं तदन्तराळे पावलिकाः॥1॥ SAGAR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | जीवानाम् १४ भेदानां वर्णनं ~4364 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥६५०॥ 440-440 [सू.] % सम्यक्त्वं प्रतिपद्यमानः प्रायः सञ्जाततत्त्वरुचिरित्यर्थः, तथाऽविरतसम्यग्दृष्टि:-देशविरतिरहितः सम्यग्दृष्टिः, विरता- प्रतिक्रविरत:-श्रावकग्रामः, प्रमत्तश्च प्रकरणात्प्रमत्तसंयतयामो गृह्यते, ततश्चाप्रमत्तसंयतमाम एव, 'णियट्टिअणियट्टिवायरो' तिमणाध्य. निवृत्तिबादरोऽनिवृत्तिवादरश्च, तत्र क्षपकश्रेण्यन्तर्गतो जीवग्रामः क्षीणदर्शनसप्तकः निवृत्तिवादरो भण्यते, तत ऊर्च लोभाणुवेदनं यावदनिवृत्तिवादरः, 'सुहुमेत्ति लोभाणून वेदयन् सूक्ष्मो भण्यते, सूक्ष्मसम्पराय इत्यर्थः, उपशान्तक्षीणमोहः श्रेणिपरिसमाप्तावन्तर्मुहूर्त यावदुपशान्तवीतरागः क्षीणवीतरागश्च भवति, सयोगी अनिरुद्धयोगः भवस्थकेवलिग्राम इत्यर्थः, अयोगी च निरुद्धयोगः शैलेश्यां गतो इस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रकालं यावत् इति गाथाद्वयसमासार्थः॥ व्यासार्थस्तु प्रज्ञापनादिभ्योऽवसेयः॥ पञ्चदशभिः परमाधार्मिकैः, क्रिया पूर्ववत्, परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च २, संक्लिष्टपरिणामत्वात्परमाधार्मिकाः, तानभिधित्सुराह सङ्ग्रहणिकार: भने संवैरिसी चेव, सामे म सबले हय । रुद्दोवेकाले य, महाकौलेत्ति आवरे ॥१॥ असिपेते णकुंभे", पौल वेयरणी इय । खसरे महायोसे," एए पचरसाहिया ॥ २ ॥ इदं गाथाद्वयं सूत्रकृन्नियुक्तिगाथाभिरेव प्रकटार्थाभियाख्यायते-धाडेंति पहावेंति य हणंति बंधंति (विधतिविध्यन्ति) तह निसुंभंति । मुंचंति अंबरतले अंबा खलु तत्थ नेरइया ॥ १॥ ओह्यहए य तहियं निरसण्णे कप्पणीहिं ॥६५॥ धाटयन्ति (प्रेरयन्ति ) प्रधावयन्ति (भ्रमयस्ति) च मन्ति अनन्ति तथा भूमौ पातयन्ति । मुश्चन्ति मम्बरतळात् मम्बाः खलु वा नैरविकान् । | | उपहत्तपत्तान् सन्नच निःसंज्ञान् कल्पनीभिः दीप अनुक्रम [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: परमाधार्मिकानां १५ भेदानां वर्णनं ~437 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२५] [भाग-३०] “आवश्यक" - मूलसूत्र -१ / ३ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] भाष्यं [ २०६...]., कंप्पंति । बिदलियचडुलयछिन्ने अंबरिसा तत्थ नेरइए ॥ २ ॥ साडणपाडणातुन्नण ( तोदण ) विंधण ( बंधण ) रज्जूतल (लय) प्पहारेहिं । सामा नेरइयाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं ॥ ३ ॥ अंतगयफेफ (यकीक) साणि य हिययं कालेजफुप्फुसे खुण्णे । सबला नेरइयाणं पवतयंती अपुण्णाणं ॥ ४ ॥ असिसत्तिकुंततोमरसूलतिसूलेषु सूचियासु । पोति रुद्दकम्मा नरयपाला तहिं रोहा ॥ ५ ॥ जंति अंगमंगाणि ऊरू बाहू सिराणि करचरणे । कप्पंति कप्पणीहिं उवरुद्दा पावकम्मरए ॥ ६ ॥ मीरासु सुंडएसु य कंड्स पर्यणगेसु य पर्यति । कुंभीसु य छोहीसु य पयंति काला उ नेरइया ॥ ७ ॥ कप्पिति कागिणीमंसगाणि छिंदंति सीहपुच्छाणि । खायंति य नेरइए महाकाला पावकम्मरए ॥ ८ ॥ हत्थे पाए ऊरू बाहू य सिरं च अंगुवंगाणि । छिंदंति पगामं तु असिनेरइया उनेरइए ॥ ९ ॥ कण्णोडनासकरचरणदसणथणपू अऊरुबाहूणं । छेयणभेयणसाडण असिपतधर्हि पाडिंति ॥ १० ॥ कुंभीसु य पइणीसु य लोहीसु कंडुलोहकुंभीसु । कुंभी उ नरयपाला हति पर्थिािन् अवयस्त नैरविकान् ( कुर्वन्ति ) ॥ २ ॥ शासनपातयनयनानि रजतमहारैः श्यामा नैरविका प्रवर्तयन्ति अपुण्यानाम् ॥ ३ ॥ अन्गतकी कसाति हृदयं कालेयक फुप्फुसानि चूर्णयन्ति । शबला नैरविकाणां प्रवर्त्तयत्यपुण्यानाम् ॥ ४ ॥ असिशक्तिकुन्ततोमरशुल त्रिशुलेषु सूचिचितिका प्रोतयन्ति रुकमणिस्तु नरकपालास्तत्र रोहाः ॥ ५ ॥ भजन्ति अङ्गोपाङ्गानि करुनी बाहू शिरः करौ चरणौ । कम्पन्ते कल्पनीभिः उपरुद्राः पापकर्मरताः ॥ ६ ॥ दीर्घचुलीषु पुण्ठकेषु च कुम्भीषु च कन्द्रषु प्रचनकेषु ( अपण्डेषु च पचन्ति । कुम्भीषु च कीदीषु च पचन्ति कालास्तु नारकान् ॥ ७ ॥ कल्पन्ते काकिणी (लक्षण) मांसानि छिन्दन्ति सिंहपुच्छान् (पृष्ठिवत् ) सायन्ति च नैरविकान् महाकालाः पापकर्मरतान् ॥ ८ ॥ हस्ती पादी ऊरुणी बाहू च शिरः अङ्गोपाङ्गानि जिन्दन्ति प्रकाममेव अनिरकपालास्तु नैरविकान् ||९|| कर्णो नासिकाकर चरणदशनस्तनपूतोवाहूनाम् छेदनमेदनशातनानि असिपत्रधनुर्भिः पातयन्ति ॥ १० ॥ कुम्भीषु च पचनीषु च लोहीपु कन्यूलोदकुम्भीषु कुम्भकास्तु नरकपाळा अन्ति पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], हारिभ द्रीया प्रत मणाध्य सूत्रांक SHRESS पाइति नरएसु ॥ ११॥ तडतडतडस्स भुंजति भजणे कलंबुवालुयापहे । वालुयगा नेरइया लोलेंति अंबरतलमि ॥१२॥ भावसपूयरुहिरफेसडिवाहिणी कलकलंतज उसोतं । वेयरणिनिरयपाला नेरइए ऊ पवाहति ॥१३॥ कति करगतेहिं| कप्पति परोप्परं परसुएहिं । संबलियमारुहती खरस्सरा तत्थ नेरइए ॥ १४ ॥ भीए य पलायंते समंतओ तत्थ ते निरु भति । पसुणो जहा पसुबहे महधोसा तस्थ नेरइए ॥ १५ ॥ षोडशभिगोंथापोडशैः सूत्रकृतागायश्रुतस्कन्धाध्ययनटूि रित्यर्थः, क्रिया पूर्ववत्, तानि पुनरमून्यध्ययनानि समयो थालीय उपसम्मपरिग्णधीपरिष्णा य । निरयविभेतीवीरत्वो ये कुक्षीला परिहासा ॥1॥ बीरियधमांसमोही मग्गासमोसरण महतई "गंभो । जमईवं तह गावासोले समं होह मझयण ॥ २ ॥ गाधाद्वयं निगदसिद्धमेव, सप्तदशविधे संयमे, सप्तदशविधे-सप्तदशप्रकारे संयमे सति, तद्विषयो वा प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृत इति, क्रियायोजना पूर्ववत् , सप्तदशविधसंयमप्रतिपादनायाह पाचयन्ति नरकेषु ॥11॥ तडतडतडकुर्वन्तो भूजन्ति घाटे कदम्बवालुकापूष्ठे । वालुका नैरपिकपालाः कोलयन्त्यम्बरतले ॥१२॥ वसापूषधि-४ कारकेशास्षिवाहिनी कलकलजलश्रोतसम् । बैतरणीनरकपाला नैरपिकांस्तु प्रयाहयन्ति ॥३॥ कश्यन्ते ककचैः पयन्ति परस्परं परशुभिः । शामलीXमारोहपन्ति खरखरामा नैरविकान् ॥ १४॥ भीतान पलायमानान् समन्ततसत्र ताशिरुन्धन्ति । पशून् यथा पशुपधे महाघोषाला नैरविकान् ॥१५॥ दीप अनुक्रम [२५]] ॥१५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~439~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ལླཡྻཱ ཡྻ सूत्रांक अनुक्रम [२५] [भाग-३०] “आवश्यक" - मूलसूत्र -१ / ३ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ४ ], मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] भाष्यं [ २०६.... दविदअगर्थिमारुयैवणस्स "भिति" चरणिदिजीवो" प्येमजणे परिमेो ॥ १ ॥ 1 व्याख्या - पुढवाइयाण जाव य पंचेंदियसंजमो भवे तेसिं संघट्टणाइ न करे तिविहेणं करणजोएणं ॥ १ ॥ अज्जीबेहिवि जेहिं गहिएहिं असंजमो हवइ जइणो । जह पोत्थदूसपणए तणपणए चम्मपणए य ॥ २ ॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडी य। एवं पोत्ययपणयं पण्णत्तं वीयराएहिं ॥ ३ ॥ बाहल हुतेहिं गंडीपोत्थो उ तुलगो दीहो । कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेयवो ॥ ४ ॥ चउरंगुलदीहो वा वट्टागिइ मुट्ठिपोत्थओ अहवा । चउरंगुलदीहोच्चिय चउरस्सो वावि विष्णेओ ॥ ५ ॥ संपुडओ दुगमाई फलगावोच्छं छिपाडिता हे । तणुपत्तूसियरूवो होइ छिवाडी बुहा बेति ॥ ६ ॥ दीहो वा इस्सो वा जो पिहुलो होइ अप्पबाहुले । तं मुणिय समयसारा छिवाडिपोत्थं भणतीह ॥ ७ ॥ दुविहं च दूसपणयं समासओ तंपि होइ नायचं । अप्पडिलेहियपणयं दुष्पडिलेहं च विष्णेयं ॥ ८ ॥ अध्पडिले हियदूसे १ पृध्यादयो यावच पञ्चेन्द्रियाः संयमो भवेतेषाम् संघनादि न करोति त्रिविधेन करणयोगेन ॥ १ ॥ अनीवेष्वपि येषु गृहीतेषु असंयमो भवति यतेः यथा पुस्तकदूष्यपचके तृणपञ्चके धर्मपथके च ॥ २ ॥ गण्डी कच्छपी मुष्टि: संपुटफलकस्तथा सूपरटिका च एतत् पुस्तकपञ्चकं प्रसे वीतरागैः ३ ॥ बाल्यष्टकवर्गण्डीपुस्तकं तु तुल्यं दीर्घम् । कच्छपी अन्ते तनुकं मध्ये पृथु मुणितव्यम् ॥ ४ ॥ चतर दीर्घ वा वृताकृति मुष्टिपुस्तकमथवा । चतुरदीर्घमेव चतुरसं वाऽपि विशेयं ॥ ५ ॥ संपुटः फलकानि द्विकादीनि पश्ये पाटिकामधुना । तनुपत्रोच्छ्रितरूपं भवति पाटिका बुधावते ॥ ६ ॥ दीर्घो वा ह्रस्वो वा यः पृथुर्भवत्यल्पवाल्यः । तं ज्ञातसमयसाराः पाटिकापुस्तकं भणन्सीह ॥ ७ ॥ द्विविधं च दूष्यपञ्चकं समासतस्तदपि भवति ज्ञातम्पम् । अप्रतिलेखितपञ्चकं दुष्प्रतिलेखं च विज्ञेयम् ॥ ८ ॥ अमतिले खितदूष्यपचके पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः संयमस्य १७ भेदानां वर्णनं ~ 440 ~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], यावश्यक- हारिभ- द्रीया प्रतिक्रम मणाध्य. प्रत सूत्रांक ॥६५२॥ दीप तूली उवहाणगं च नायब । गंडुवहाणालिंगणि मसूरए चेष पोत्तमए ॥९॥ पल्हवि कोयवि पावार णवयए तहा य दाढि- गालीओ। दुप्पडिलेहियदूसे एयं बीयं भवे पणयं ॥१०॥ पल्हबि हत्थुत्थरणं कोयवओ रूयपूरिओ पडओ। दढिगालि धोयपोती सेस पसिद्धा भवे भेया ॥ ११ ॥ तणपणयं पुण भणियं जिणेहिं जियरायदोसमोहेहिं । साली वीही कोद्दव-14 रालग रण्णेतणाई च ॥ १२ ॥ अलएलगाविमहिसी मिगाणमइणंच पंचमं होइ । तलिगा खल्लग बज्झे कोसग कत्ती य बीयं तु ॥ १३ ॥ अह वियडहिरन्नाई ताइ न गिण्हइ असंजमो साहू । ठाणाइ जत्थ चेते पेहपमजित्तु तत्थ करे ॥१४॥ एसा पेहुवपेहा पुणो य दुविहाउ होइ नायबा । वावारावावारे वावारे जह उ गामस्स ॥ १५ ॥ एसो उविक्खगोह अवावारे जहा विणस्संतं । किं एयं नु उवेक्खसि दुविहाए वेत्थ अहिगारो ॥१६॥ वावारुवेक्ख तहियं संभोइय सीयमाण चोपड। चोएई इयरंपी पावयणीयंमि कजंमि ।। १७ ।। अबावार उपेक्खा नवि चोएइ गिहिं तु सीयंते । कम्मेसुं तूली उपधानकं च ज्ञातव्यम् । गण्डोपधाममालिशिनी मसूरकश्चैव पोतमयः ॥ ९ ॥ पल्हवी (मण्डत्तिः) कौतपी भावारो नववक तथा दैद्रागाली तु । दुष्प्रतिलिखितष्ये एतद्वितीयं भवेत् पथकम् ॥ १०॥ पल्हवी हसासरणं कौतपो रूतपूरितः पदः । वंद्रागाली धौतपोतं शेषौ प्रसिधौ भवेता भेदौ ॥1॥ तृणपत्र पुनर्भणितं जिनैर्जितरागद्वेषमोहैः । शालिनीहिः कोइवः रालकोअपयतमानि ॥१२॥ भोटकगोमहिषाणां मुगाणामजिनं च पभम भवति । तलिका खलको वः कोशः कर्तरी च द्वितीयं तु ॥ १३॥ अथ हिरण्यविकटादीनि (अजीयाः) तानि न गृहाति असंघमः (मत्वाव) साधुः। स्थानादि यत्र चिकीत प्रेक्ष्य प्रमाधय सत्र धात् ॥१४॥ एषा प्रेक्षा उपेक्षा पुनर्द्विविधा तु भवति ज्ञातम्या । व्यापारेऽण्यापारे व्यापारे यथैव (इनिय) ग्रामस्थ ॥ १५ ॥ एष उपेक्षका मध्यापारे यथा विनश्यत् । किमेततूपेक्षसे द्विविधयाऽप्यत्राधिकारः ॥१६॥ व्यापारोपेक्षा तत्र सांभोगिकान् सीइतनोदयति । |चोदयति इतरमपि प्रावचनीये कायें ॥७॥ अन्यापासेपेक्षा नैव चोदयति गृहिणं तु सीदन्तम् । कर्मसु अनुक्रम [२५]] ॥६५२।। पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~441 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक CRECORNER बहुविहेसुं संजम एसो उक्साए ॥ १८ ॥ पाए सागारिएK अपमजित्तावि संजमो होइ । ते चेव पमजते असागारिए संजमो होइ ॥ १९ ॥ पाणेहिं संसत्तं भत्तं पाणमहवावि अविसुद्धं । उवगरणपत्तमाई जं वा अइरित्त होजाहि ॥२०॥ तं परिठवणविहीए अवहटु संजमो भवे एसो । अकुसलमणवइरोहे कुसलाण उदीरणं जं तु ॥२१॥ मणवइसंजम एसो काए पुण जं अवस्सकजमि । गमणागमणं भवई तओवउत्तो कुणइ संमं ॥ २२ ॥ तवज कुम्मस्सव सुसमाहियपाणिपायकायरस । हवई य कायसंजमो चिहतस्सेव साहुस्स ॥ २३ ॥ अष्टादशप्रकारे अब्रह्मणि-अब्रह्माचर्ये सति तद्विपयो वा प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृत इति, क्रिया पूर्ववत् , तत्राष्टादशविधाब्रह्मप्रतिपादनायाह सत्रहणिकार: मोरालियं च दिवं मणवरकाएण करणजोएर्ण । अणुभोषण कारपणे करणेणहारसा ॥१॥ व्याख्या-इह मूलतो द्विधाऽब्रह्म भवति-औदारिक तिर्यग्मनुष्याणां दिव्यं च भवनवास्यादीनां, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, मनोवाकायाः करणं विधा, योगेन त्रिविधेनैवानुमोदनकारापणकरणेन निरूपितं, पश्चानुपूर्योपन्यासः, बहुविधेषु संयम एष उपेक्षायाः ॥ १८॥ पादौ सागारिकेषु भामाज्यापि (अप्रभूजत्यपि) संयमो भवति । तायेव प्रमार्जयति असागारिके का संयमो भवति ॥ १९ ॥ प्राणिभिः संसक्तं भर पानमथवाऽप्यविशुद्धम् । उपकरणपात्रादि यहाऽतिरिक्त मपेत् ॥ २० ॥ तत् परिठापनविधिनाऽपहत्यसंयमो मवेदेषः । भकुशलमनोवाचोरोघे कुशलयोरुदीरयं बनु ॥ २१ ॥ मनोवाइसंथमावती काये पुनयंदवश्यकायें । गमनागमनं भवति बदुपयुक्तः करोति सम्यक् ॥ २२ ॥ तदर्ज कूर्मवेव सुसमाहितपाणिपादकावस्य । भवति च कायसंयमस्तिष्ठत एव साधोः ॥ २३ ॥ RECXRAccx दीप अनुक्रम [२५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | अब्रह्मचर्यस्य १८ भेदानां वर्णनं ~442 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], % प्रत % सूत्रांक -% आवश्यक- अब्रह्माष्टादशविधं भवति, इयं भावना-औदारिक स्वयं न करोति मनसा ३, नान्येन कारयति मनसा ३, कुर्वन्तं नानु-४४प्रतिकहारिभ |मोदते मनसा ३, एवं वैक्रियमपि । प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाचैकोनविंशतिभिज्ञाताध्ययनैरिति वेदितव्यं, पाठान्तरं द्रीया वा-'एगूणवीसाहिं णायज्झयणेहिति' एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, क्रिया पूर्ववत् , ज्ञाताध्ययनानि ज्ञाताधर्मकथान्तर्वर्तीनि, ॥५॥ तान्येकोनविंशति अभिधानतः प्रतिपादयन्नाह साहणिकारः उक्सित्तणोए संधारे, 'भो मे व सेलेए । तु व रोहिणी माली, मोगदी "दिमा इय ॥ १॥ दावेदवे उदगणाएं, मधुके तेली इय । नंदि फैले अवरैःका, ओयो" म डरिया ॥ २ ॥ गाथाद्वयं निगदसिद्ध, विंशतिभिरसमाधिस्थानः, क्रिया प्राग्वदेव, तानि चामूनि-देवदवचारऽपमंजिय दुप-४ मजियऽइरित्तसिजासणिए । राइणियपरिभासिय थेरबभूओवघाई य ॥ १ ॥ संजेलणकोहणो पिढिमंसिएँ'ऽभिक्खऽभिक्लमोहारी । अहिकरणकरोईरण अकाल सम्झायकारी या ॥ २॥ ससरखेपाणिपाए सईकरो कलह झंझंकारी य । सूरैप्पमाणभोती वीसइमे एसांसमिए ॥३॥ गाथात्रयम् , अस्य व्याख्या-समाधानं समाधि:-चेतसः नस्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थः, न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि-आश्रया भेदाः पर्याया असमाधिस्थानान्यु च्यन्ते, देवदवचारि दुयं दुयं निरवेक्खो वच्चंतो इहेव अप्पाणं पडणादिणा असमाहीए जोपड, अन्ने य सत्ते बाधते -र दीप अनुक्रम [२५]] सततचारी दुतं दुतं निरपेक्षो वजन देवात्मानं पतनादिनाऽसमाधिना योजयति अन्याय सत्यान् बापमानान् पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: असमाधिस्थानानां २० भेदानां वर्णनं ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत % सूत्रांक असमाहीए जोएइ, सत्तवहजणिएण य कंमुणा परलोएवि अप्पाणं असमाहीए जोएइ, अतो द्वत २गन्तृत्वमसमाधिकारणत्वादसमाधिस्थानम्, एवमन्यत्रापि यथायोग स्वबुद्ध्याऽक्षरगमनिका कार्येति, अपमजिए ठाणे निसीयणतुयट्टणाइ आयरतो अप्पाणं विग्छुगडंकादिणा सत्ते य संघट्टणादिणा असमाहीए जोएइ, एवं दुपमजिएवि आयरतो, अइरित्ते सेज्जाआसणिएत्ति अइरित्ताए सेजाए घंघसालाए अण्णेवि आवासेंति अहिगरणाइणा अप्पाणं परे य असमाहीए जोएइ आसण-पीढफलगाइ तंपि अइरित्तमसमाहीए जोपड, रायणियपरिभासी राइणिओ-आयरिओ अण्णो वा जो महल्लो जाइसुयपरियायादीहिं तस्स परिभासी परिभवकारी असुद्धचित्तत्तणओ अप्पाणं परे य असमाहीए जोयइ, थेरोवघाई थेरा-आयरिया गुरवो ते आयारदोसेण सीलदोसेण य णाणाईहिं उवहणति, उवहणतो दुइचित्तत्तणओ अप्पाणमण्णे य असमाहीए जोएइ, भूयाणि एगिंदिया ते अणद्वाए उवणइ उवहणतो असमाहीए जोएइ, संजलणोत्ति मुहुत्ते २ रूसइ % % *% दीप अनुक्रम [२५]] %% % समाधिना योजयति, समयधजनितेन च कर्मणा परलोकेऽपि आत्मानमसमाधिना योजयति , अप्रमाणिते स्थाने निषीदनवम्वर्तनाचाचरन् । [आमान निकषादिना सत्याल संघहनादिनाऽसमाधिना योजयति २, एवं दुष्पमाणिते याचरन् ३, अतिरिक्तशय्यासनिक इति मतिरिकायां शय्यायां धन(वृहत) शालायां मन्येऽस्यावासयन्ति अधिकरणादिनात्मानं परांश्वासमाधिना योजयति, भासनं-पीठफलकादि सदष्यतिरिकमसमाधिना योजयति । रालिकपरिभाषी रात्रिकः-आचार्यः भन्यो वा यो महान् जातिश्रुतपर्यायादिभिः तस्य परिभाषी-पराभवकारी अशुद्धचित्तत्वात् आत्मानं परांबासमाधिना योज यति ५, स्थविरोधाती स्थचिरा:-आचार्याः गुरवः तान् आचारदोपेग शीलदोषेण च ज्ञानादिभिरुपहन्ति, उपनन् दुष्टचित्तस्वादास्मानं परांश्च असमाधिना प्रायोजयति , भूता एकेन्द्रियाः तान् अनर्धापोपहन्ति उपमन्न अलमाधिना योजयति, संबलन इति मुह २ रुण्यति -%% 8 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~4444 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रतिक्रमणाभ्य० प्रत आवश्यक हारिभ. द्रीया १६५४॥ सूत्रांक संतो अप्पाणमण्णे य असमाहीए जोएइ, कोहणोत्ति सइ कुद्धो अच्चंतकुद्धो भवइ, सो य परमप्पाणं च असमाहीए जोएइ, एवं क्रिया वक्तव्या, पिहिमंसिएत्ति परंमुहस्स अवण्णं भगइ, अभिक्खभिक्खमोहारीति अभिक्षणमोहारिणी| भासं भासइ जहा दासो तुमं चोरो वत्ति जं वा संकियं तं निस्संकियं भणइ एवं चेवत्ति, अहिगरणकरोदीरण अहिगरणाई करेति अण्णेसिं कलहेइत्ति भणियं होति यन्त्रादीनि वा उदीरति, उपसंताणि पुणो उदीरेति, अकालसज्झायकारी य कालियसुयं उग्घाडापोरिसीए पढइ, पंतदेवया असमाहीए जोएइ, ससरक्खपाणिपाओ भवइ ससरक्षपाणिपाए सह सरक्खेण ससरक्खे अथंडिल्ला थंडिल्लं संकमंतो न पमज्जइ धंडिल्लाओवि अथंडिलं कण्हभोमाइसु विभासा ससरक्खपाणिपाए ससरक्खेहिं हत्थेहिं भिक्खं गेण्हइ अहवा अणंतरहियाए पुढवीए निसीयणाइ करेंतो ससरक्खपाणिपाओ भवति,सई करेइ लं असंखडबोलं करेइ विगालेवि महया सद्देण र वएइ वेरत्तियं वा गारस्थिय भासं भासइ, कलहकरेत्ति अप्पणा कलह करे। दीप अनुक्रम [२५]] रुष्यन् सामानमम्यांमासमाधिना बोजवति कोधन इति सकृत् कुदः अत्यन्तकुरो भवति, सच परमात्मानं चासमाधिना योजयति५, पृष्ठमांसाद इति पराक्मुखखावण भणति१०,अभीक्षणमभीक्षणमणधारक इति अभीक्ष्णमवधारिणी भाषा भाषते वधा दासस्त्वं चोरोति यहा शातितं तत् निःशहितं भणति एवमे ऐतिमधिकरणकर उदीरकः अधिकरणानि करोति भन्येषां कलहयतीति भणितं भवति, यन्त्रादीनि वोदीरपति, उपशान्तानि पुनरुदीरवति १२-१३,मकाला स्वाध्यायकारीच कातिकश्रुतं चोटपाटपौरुष्यां पठति, मान्तदेवताऽसमाधिना योजयेत् १४, सशस्वपाणिपादो भवति सरजस्कपाणिपादः सहरजसा सरजस्कः अवडिलात् स्थण्डिकं संक्रामन् न प्रमार्जयति स्थग्लिादपि अस्पपिडलं कृष्णभूमादिषु विभाषा ससरजस्कपाणिपादः ससरजस्काभ्यां हस्ताभ्यो भिक्षा ग्रहाति अययाऽनन्तहितायां पृथ्वयां निषीदनादि कुर्वन् ससरजस्कपाणिपादो भवति १५, शब्दं करोति-कलहबोलं करोति विकालेऽपि महता पादेव वदति वैरात्रिक या गाईस्थभाषां भाषते १६, कलहकर इति आरमना कलई करोति 45 *RELA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~445 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] दात करेइ जेण कलहो भवइ, झंझकारी य जेण २ गणरस भेओ भवइ सबो वा गणो झंझविओ अच्छइ तारिसं भासइ करेइ वा, सूरप्पमाणभोइत्ति सूर एव पमाणं तस्स उदियमेत्ते आरद्धो जाव न अस्थमेइ ताव भुंजइ सम्झायमाई ण करेति. पडिचोइओ रूसइ, अजीरगाई य असमाहि उपजइ, एसणाऽसमिएत्ति अणेसणं न परिहरइ पडिचोइओ साहि दासम भंडइ, अपरिहरंतो य कायाणमुबरोहे वट्टइ, बटुंतो अप्पाणं असमाहीए जोएइत्ति गाथात्रयसमासार्थः ॥ विस्तरस्तु दशाख्याद् अन्धान्तरादवसेय इति, एकवीसाए सबलेहिं बावीसाए परीसहेहिं तेवीसाए सूयगड ज्झयणेहिं चउचीसाए देवेहिं पंचवीसाए भावणाहिं छब्बीसाए दसाकप्पवयहाराणं उद्देसणकाले हिं सत्तावीसविहे अणगारचरिते अहाबीसविहे आपारकप्पे एगणतीसाए पावसुयपसंगेहिं तीसाए मोहणियठाणेहिं एगतीसाइ सिद्धाइगुणेहिं बत्तीसाए जोगसंगहेहि (सूत्रं) । एकविंशतिभिः शबलैः क्रिया प्राग्वत्, तत्र शबलं चित्रमाख्यायते, शबलचारित्रनिमित्तस्वात् करकर्मकरणादयः क्रियाविशेषाः शवला भण्यन्ते, तथा चोक्त-अवराहमि पयणुए जेण र मूलं न वच्चई साहू । सबलेंति तं चरित्तं तम्हा सबलत्तणं ति ॥१॥ तानि चैकविंशतिशबलस्थानानि दर्शयन्नाह तरकरोति येन कलहो भवति १५, मध्यकारी च वेन येन गणरूप भेदो भवति सनों वा गणोशक्षितो वर्तते तारशं भापते करोति वा 1, सूर्यप्रमाणभोजीति सूर्य एवं प्रमाणं तसोदयमानादारब्धा यावत् नासमपति तावत् भुनकि स्वाध्यायादि न करोति, प्रतिचोदितो रुष्यति, अजीर्णस्वादि चासमाधिस्त्पद्यते१९, INएपणाऽसमित इखनेषणा न परिहरति प्रतियोदितः साधुभिः समं कलयति,अपरिहरेश्व काथानासुपरोधेपति, पर्तमान आत्मानमसमाधिना योजयति २०अप-| दीप अनुक्रम [२६] ANSARKASEAR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: २१ शबल-दोषाणां स्वरुपम् एवं व्याख्या: ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रतिक्रमणाध्य प्रत सूत्रांक ॥६५५॥ माइहाणसवले मानसिकलेलु। गवीसो तंजा व हत्यकर्म खते मेहुणं च सेवते । राई च मुंजमाणे आहामं च भुजते ॥1॥ ततो य रोपि की पामित्र अमिहई छी । मुंजते | सबले क पचविलयभिक्सर य॥९॥ उमासम्भत्तरमो गणा गर्ण संकर्म काते थे । माखभंतर तिणि पगलेपाक करेमांगो॥३॥ मासम्भंतरओ चा माइयाणाई तिनि करेमाणे । पाणाइवायहि बुब्बते मुसं वयंते ॥४॥ गिण्हते व अदिग्णं आउहि तह अणंतरहियाए । पुढवीय ढाणसेज मिसीहियं| वात्रि चेतेइ॥५॥ एवं ससणिवाए ससरक्याचित्तर्मतसिललेलुं । कोलावासपहा कोल धुणा तेसि आवासो॥६॥ संबसपाणसवीभो जाव 3 संताणए भवे तहिये । ठाणाइ चेयमाणो सबले आवहिनीए व ॥७॥ आँवधिमूलकदे पुष्फे य फले व बीयहरिए । मुंजते सबलेए सहेच संवारसतो ॥८॥ देसे दगले कुवं तहमााण दसय परिसम्तो। आयसीवदर्ग बम्बारियहत्थमने य॥१॥ दबीए भावणेण पदीयंतं भत्तपाण पेत्तर्ण । भुंजह सबका एसो । इगवीसो होइ नौयो । आसां व्याख्या-हत्यकर्म सयं करेंति परेण वा करेंते सवले १, मेहुणं च दिवाइ ३ अइकमाइसु तिसु सालंबणे य सेवंते सबले २, राई च भुंजमाणेत्ति, एत्थ चउभंगो-दिया गेण्हइ दिया भुंजइ हा[४] अतिकमाइसु ४ सबले, सालंबणे राधे मतनुके येन तु न मूलं मजति साधुः । शवलयति तत् चारित्रं तस्मात् पावलचं भुवते ॥॥ तयधातु हस्तकम कुर्वति मैथुनं च सेवमाने । रात्री च भुनाने आधाकर्म च भुभाने. ततन राजपिण्दं की प्रामित्वं मभिहतमाच्यम् । मुआने पावस्तु प्रत्याख्यावाभीक्ष्णं भुनक्तिधा२।। षण्मास्यभ्यन्तरतो | गणाद् गर्ण संक्रमं कुर्वत्र । मासाभ्यन्तरे श्रीश्च दकलेपास्तु कुर्वन्॥३॥मासाभ्यन्तस्तो वा मातृस्थानानि श्रीणि कुर्वन् । प्राण्यातिपातमाया कुर्वन् मृषा वर्दश्च॥३॥ गृहति चाद भाकया तथाऽनन्तर्दितायो। पृथ्व्यां स्थानं शय्या नैषेधिकी वाऽपि करोति ॥ ५ ॥ एवं सस्निग्धायाँ सरजस्कचित्तवपिछलालेलुनि । कोलावासप्रतिष्ठा कोला पुणास्तेषामावासः ॥ ६॥ साण्डसमाणसबीजो यावत् ससंतागको भवेत् तत्र । स्थानादि कुर्वन् शबल आकुहदैव ॥७॥ माहवा मूलकम्दान्त पुष्पाणि च फलानि च वीजहरितानि च राजानः शबल एष तथैव संवरखरखाम्तः ॥८॥ दश दकलेपान् कुर्वन् तथा दश मातृस्थानानि च वान्तः । माकुवा शीतोदकं प्रलम्बिते (अल्पवृष्टी) हस्तमात्रेण च॥१॥दा भाजनेन वा (उदकाण) दीयमानं भकपाने गृहीत्वा । भुनक्ति वावळ एप एकविंशतितमो भवति ज्ञातम्यः॥1॥ हाकर्म स्वयं करोति परेण वा कारयत्ति शवलो मैथुनं च विण्यादि अतिक्रमादि मिश्चिभिः सालम्पनी सेवमानःशबलः, रात्रौ च भुआने, मन चतुभंगी-दिवा गृहाति दिवा भुझे अतिक्रमादिषु शवला सालम्बने दीप अनुक्रम [२६] ॥६५५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~447 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक पुण जयणाए, संनिहिमाईसु पडिसेवणाए चेव, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं ३, आहामं च भुंजते' प्रकटार्थ ४ रायपिंड ५ कीय दापामिव ७ अभिहड ८ अच्छेज ९ पसिद्धा 'पञ्चक्खियभिक्ख भुंजइ य असई पञ्चक्खिय २ भुंजए सबले १०, अंतो छण्हें । मासाणं गणाओ गणसंकर्म करेंते सबले अण्णत्व णाणदंसणचरित्तट्टयाए ११, 'मासम्भंतर तिण्णि य दगलेवे ऊ करेमाणे लेवोत्ति नाभिप्पमाणमुदगं, भणियं च-"जंघद्धा संघट्टो णाभी लेवो परेण लेवुवरि"त्ति, अंतो मासस्स तिनि उदगलेवे | द उत्तरते सवले१२,तिण्णि य माइहाणाई पच्छायणाईणि कुणमाणे सवले १३,आउट्टिआए-उपेत्य पुढवाइ पाणाइवार्य कुणमाणे सबले१४, मुसं वयंते सबले१५, अदिण्णं च गिण्हमाणे सबले १६, अर्णतरहियाए सचित्तपुढवीए ठाणं काउस्सग सेज सयणं निसीहियं च कुणमाणे सबले, ससणिद्धे दगेण ससरक्खा पुढविरएण, चित्तमंतसिला सचेयणा सिलत्ति भणियं होति, दालेलू लेख, कोला-धुणा तेसिमावासो धुणखइयं कई, तत्थ ठाणाई करेमाणे सवले, एवं सह अंडाईहिं जं तत्थपि ठाणाइ| [सू.] दीप अनुक्रम [२६] पुनर्थतनया, सबिध्यादेः प्रतिषेवगाया मेव, आधाकर्मणि च भुझाने, राजपिण्डं शीतं प्रामिसं अभिहतं आच्छेचं प्रसिद्धानि प्रत्यारस्यावाभीषणं भुनक्ति च-असकृत् प्रत्याश्याय २ मुले शबलः, अन्तः पण मासानां गणार गणसंक्रमं कुर्वन् सबलः अन्यत्र ज्ञानवर्षानचारित्रार्थात्, मासाभ्यन्तरे त्रीबोदकलेपान कुर्वन् , लेप इति नाभिभमाणमुदक, भणितं च-जा संघटो नाभिर्लेपः परतो छेपोपरीति, अन्तः मासस्य वीनुदकालपानुत्तरन् शवला, त्रीणि च मातस्थानानि प्रच्छावनादीनि कुर्वन् शबलः, ज्ञावा पृश्यादिप्राणातिपातं कुर्वन् शाबलः, एष पदन् शबला, अदत्तं च गृहन् शबला, अनन्तहितायां सचित्त-13 पृथ्षा स्थान कायोरसग शय्या (वसति) शायन पेषिकी च कुर्वन् चाबलः, सस्निग्धोदकेन सरजस्क: पृथ्वीरजसा चितमती शिला सचेतना शिलेति । भगि भवति, लेलु-लेष्टुः, कोका-पुणाः तेषामावासो घुणमादितं काई, तत्र स्थानादि कुर्वन् शबलः, एवं सहाण्डादिभिः यत् तत्रापि स्थानादि पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रतिक्रमणाध्य २१शबलाः प्रत सूत्रांक ॥६५६॥ [सू.] |चएमाणो सबले १७,आउट्टिआए मूलाई भुंजते सबले१८,वरिसस्संतो दस दगलेवे य माइहाणाई कुबते सबले,१९-२०सीओदगवग्धारिय हत्थमत्तेण गलतेणंति भणिय होइ,एवं दबीए गलतीए भायणेण य दिजंतं घेत्तूण भुंजमाणे सबले२१अयं च समासार्थः ब्यासार्थस्तु दशाख्यग्रन्थान्तरादवसेयः,एवमसम्मोहाथै दशानुसारेण सबलस्वरूपमभिहितं, सङ्ग्रहणिकारस्त्वेवमाह परिसंतो बस मासस 'तिमि दावमाइलाणोई । भाउडिया करेंतो बेहालियर्यादिपमेहुण्णणे ॥१॥ निसिभकामे नियपिंद कीयमाई मंभिक्खेसंवरिए । कंदाई भुजंते उदग्लहरथाइ महणं ॥२॥ सचित्तसिलाकोले परविनिमाई ससिणिद्ध संसरक्यो । छम्मासंतो गणसंकर्म च करवममिद सबले ॥३॥ अस्य गाथात्रयस्यापि व्याख्या प्राग्निरूपितसवलानुसारेण कार्या । द्वाविंशतिभिः परीषहै।, क्रिया पूर्ववत् , तत्र "मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः" (तत्त्वा० अ०९सू०८) सम्यग्दर्शनादिमार्गाच्यवनार्थ ज्ञानावरणीयादिकर्मनिर्जरार्थं च परि-समन्तादापतन्तः क्षुत्पिपासादयो द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षाः सोढव्या:-सहितव्या इत्यर्थः, परीषहाँस्तान स्वरूपेणाभिधित्सुराह मुद्दा पिासो सीषणहं साधेला सरियो । परियानिसीहियों से जी मेहोस योजावणी ॥१॥ दीप अनुक्रम [२६] ॥६५६॥ कुर्वन् मामला, शाया मूलादि भुझानः शबला, वर्षखाम्तश दकलेपान् वा च मातृस्थानानि पुर्षन् शामला, शीतोदकार्यहस्तमात्राभ्यो गलदम्यामिति । भणितं भवति, एवं दयां गलन्या भाजनेन च दीयमानं गृहीत्या भजामः पायल: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | २२ परिषहाः, तेषां स्वरुपम् एवं व्याख्या: ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', प्रत सूत्रांक [सू.] 24- अलाभ रोम तणफासा मकसकारपरीसहा । णा औषणाणसमत्तं इह बावीस परीसहा ॥२॥ व्याख्या-क्षुत्परीपहा-शुढेदनामुदितामशेषवेदनातिशायिनी सम्यग्विषहमाणस्य जठरान्त्रविदाहिनीमागमविहितेनान्धसा शमयतोऽनेषणीयं च परिहरतः क्षुत्परीषहजयो भवति, अनेषणीयग्रहणे तु न विजितः स्यात् क्षुत्परीपहः, १, एवं पिपासापरीषहोऽपि द्रष्टव्यः २, 'सीय'ति शीते महत्यपि पतति जीर्णवसनः परित्राणवर्जितो नाकल्प्यानि वासांसि परिगृह्णीयात् परिभुञ्जीत वा, नापि शीतार्तोऽग्निं ज्वालयेत् अन्यज्चालितं वा नाऽऽसेवयेत् , एवमनुतिष्ठता शीतपरीप|हजयः कृतो भवति ३, 'उण्हं' उष्णपरितप्तोऽपि न जलावगाहनस्तानव्यजनवातादि वाञ्छयेत्, नैवातपत्रायुष्णत्राणायाऽऽददीतेति, उष्णमापतितं सम्यक् सहेत, एवमनुतिष्ठतोष्णपरीपहजयः कृतो भवति ४, 'दंस'त्ति दंशमशकादिभिर्दश्यमानोऽपि न ततः स्थानादपगच्छेत् , न च तदपनयनाथै धूमादिना यतेत, न च व्यजनादिना निवारयेदिति, एवम नुतिष्ठता देशपरिषहजयः कृतो भवति ५, एवमन्यत्रापि क्रिया योज्या, 'अचेल'त्ति अमहाधनमूल्यानि खण्डितानि जीर्णा४ानि च वासांसि धारयेत् न च तथाविधो दैन्यं गच्छेत् , तथा चागमः- परिजुष्णेहिं बथेहि, होक्खामित्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्ख, इति भिक्खू न चिंतए ॥१॥' इत्यादि ६, 'अरतित्ति विहरतस्तिष्ठतो वा यद्यरतिरुत्पद्यते तत्री पन्नारतिनाऽपि सम्यग्धर्मारामरतेनैव संसारस्वभावमालोच्य भवितव्यं, 'इत्थी'त्ति न खीणामङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानहसितल४ालितनयनविभ्रमादिचेष्टां चिन्तयेत्, न जातुचिच्चक्षुरपि तासु निवेशयेत् मोक्षमार्गार्गलासु कामबुद्धयेति ८, 'चरिय'त्ति परिजीणेषु वनेषु भविष्याम्पचेक्षकः । अथवा सचेलको भविष्यामीति भिक्षु चिन्तयेत् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~450 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', प्रत सूत्रांक आवश्यक-18 वर्जितालस्यो ग्रामनगरकुलादिष्यनियतवसतिनिर्ममत्वः प्रतिमासं चर्यामाचरेदिति ९, 'निसीहिय'त्ति निषीदन्त्यस्यामिति ४ प्रतिकहारिभ निषद्या-स्थानं तत् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितां वसति सेवेत पश्चाद्धाविनस्त्विष्टानिष्टोपसर्गान् सम्यगधिसहेत १०, 'सेज'त्ति मणाध्य. द्रीया शय्या संस्तारकः-चम्पकादिपट्टो मृदकठिनादिभेदेनोच्चावचः प्रतिश्रयो वा पांशूत्करप्रचुरः शिशिरो बहुधर्मको वा तत्रा २२ परि पहाः नोद्विजेत ११, 'अक्कोस'त्ति आक्रोशः-अनिष्टवचनं तच्छ्रुत्वा सत्येतरालोचनया न कुप्येत १२, 'वहत्ति वधः-ताडनं दापाणिपाष्णिलताकशादिभिः, तदपि शरीरमवश्यंतया विध्वंसत एवेति मत्वा सम्यक् सहेत, स्वकृतकर्मफलमुपनतमित्ये-12 वमभिसंचिन्तयेत् १३, 'जायण'त्ति याचन-मार्गणं, भिक्षोहिं वस्त्रपात्रानपानप्रतिश्रयादि परतो लब्धव्यं सर्वमेव, शाली-13 नतया च न याचा प्रत्याद्रियते, साधुना तु प्रागल्भ्यभाजा सञ्जाते कार्य स्वधर्मकायपरिपालनाय याचनमवश्यं काये| मिति, एवमनुतिष्ठता याज्यापरीपहजयः कृतो भवति १४, 'अलाभ'त्ति याचितालाभेऽपि प्रसन्नचेतसैवाविकृतवदनेन भवितव्यं १५, 'रोग'त्ति रोगः-ज्यरातिसारकासश्वासादिस्तस्य प्रादुर्भावे सत्यपि न गच्छनिर्गताश्चिकित्सायां प्रवर्तन्ते, गच्छवासिनस्वल्पबहुत्वालोचनया सम्यक् सहन्ते, प्रवचनोक्तविधिना प्रतिक्रियामाचरन्तीति, एवमनुतिष्ठता रोगपरी पहजयः कृतो भवति १६, 'तणफास'त्ति अशपिरतुणस्य दर्भादेः परिभोगोऽनुज्ञातो गच्छनिर्गतानां गच्छनिवासिनां च, तत्र येषां शयनमनुज्ञातं निष्पन्नानां ते तान् दर्भान भूमावास्तीय संस्तारोत्तरपट्टकौ च दर्भाणामुपरि विधाय शेरते, |चौरापहृतोपकरणा वा प्रतनुसंस्तारपट्टकावत्यन्त जीर्णत्वात् , तथापि तं परुषकुशदर्भादितृणस्पर्श सम्यक् सहेत १७, दीप अनुक्रम MORRORS [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~451 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], - प्रत - - सूत्रांक (सू.] 'मल'त्ति स्वेदवारिसम्पत्किठिनीभूतं रजो मलोऽभिधीयते, स वपुषि स्थिरतामितो ग्रीष्मोप्मसन्तापजनितधर्मजलादादातां गतो दुर्गन्धिमहान्तमुद्वेगमापादयति, तदपनयनाय न कदाचिदभिलषेत्-अभिलाषं कुर्यात् १८, 'सकारपरीसहे'त्ति | सत्कारो-भक्तपानवलपात्रादीनां परतो लाभः पुरस्कार:-सद्भूतगुणोत्कीर्तनं वन्दनाभ्युत्थानासनप्रदानादिव्यवहारश्च, तत्रासत्कारितोऽपुरस्कृतो वा न द्वेष यायात् १९, 'पण्ण'त्ति प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा-बुद्ध्यतिशयः, तत्प्राप्तौ न गर्वमुद्ध८ हेत् २०, 'अण्णाणं ति कर्मविपाकजादज्ञानान्नोद्विजेत २१, 'असंमत्त'ति असम्यक्त्वपरीपहः, सर्वपापस्थानेभ्यो विरतः प्रकृष्टतपोऽनुष्ठायी निःसङ्गाश्चाहं तथापि धर्माधर्मात्मदेवनारकादिभावान्नेक्षे अतो मृषा समस्तमेतदिति असम्यक्त्वपरीषहः, तत्रैवमालोचयेत्-धर्माधर्मों पुण्यपापलक्षणी यदि कर्मरूपौ पुद्गलात्मको ततस्तयोः कार्यदर्शनानुमानसमधिगम्यत्वं, अथ क्षमाक्रोधादिकी धर्माधौं ततः स्वानुभवत्वादात्मपरिणामरूपत्वात् प्रत्यक्षविरोधा, देवारस्वत्यन्तसुखासक्तवान्मनुष्य|लोके कार्याभावात् दुषमानुभावाच न दर्शनगोचरमायान्ति, नारकास्तु तीनवेदनाताः पूर्वकृतकमादयनिगडबन्धनव-| | शीकृतत्वादस्वतन्त्राः कथमायान्तीत्येवमालोचयतोऽसम्यक्त्वपरीषहजयो भवति, 'बावीस परीसह'त्ति एते द्वाविंशतिपरीषहा इति गाथाद्वयार्थः ॥त्रयोविंशतिभिः सूत्रकृताध्ययनैः, क्रिया पूर्ववत् , तानि पुनरमूनि ___पुंडरीयकिरियाणं माहारपरिण्यैपचक्वाणकिरियाँ थ । अणगौर इनालंद सोलसाई च तेषीसं ॥ १ ॥ गाथा निगदसिद्धैव ॥ चतुर्विंशतिभिर्देवैः, क्रिया पूर्ववत्, तानुपदर्शयन्नाह दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~452 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रतिक्रममणाध्य २५भावनाः प्रत सूत्रांक आवश्यक भवणपणजोहोमाणिया व सभापंचएगविहा । इद चयीसं देवा केह पुण ति मरईता ॥ १ ॥ हारिभ इयमपि निगदसिद्धैव ॥ पञ्चविंशतिभिर्भावनाभिः, क्रिया पूर्ववत् , प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाव्रतसंरक्षणाय | द्रीया भाव्यन्त इति भावनाः, ताश्चेमा:॥६५८॥ ____इरिषासमिए सवा जए, उबेह भुंगेज व पाणभोवर्ण । आयाणनिस्खेवदुगुंठ संजए, समाहिए संजमए मणोवई ॥३॥ अहस्ससचे अणुपीइ भासएः | जे कोहलोहभयमेव चजए । स दोहरा समुपेहिया सिया, मुणी हु मोसं परिवजए सथा ॥ २ ॥ सयमेव व उगहजायणे; पदे मतिमं निसम्म सद भिक्खु बग्गई । अणुपणाविय भुजिज पाणभोयणं, जाइला साहमियाण उमाहं ॥ ३ ॥ आहारगुचे अविभूसियप्पा, इरिथ न निझाइन संथवेना युद्धो गुणी खड़कह न कुमा, धम्माणुपही संधए बंभचेरं ॥ ४ ॥ जे सदस्वरसगंधमागर, फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गिहीपदोस न करेज पंदिए, स होई दंते विरए अकिंचणे ॥५॥ गाथाः पञ्च, आसां व्याख्या-ईरणम् ईर्या, गमनमित्यर्थः, तस्यां समितः-सम्यगित ईर्यासमितः, ईर्यासमितता प्रथमभावना यतोऽसमितःप्राणिनो हिंसेदतः सदा यता-सर्वकालमुपयुक्तः सन् 'उवेह भुंजेज व पाणभोयण"उवेह'त्ति अवलोक्य भुञ्जीत पानभोजनं, अनवलोक्य भुञ्जानः प्राणिनो हिंसेत, अवलोक्य भोक्तव्यं द्वितीयभावना, एवमन्यत्राप्यक्षरगमनिका कार्या, दि आदाननिक्षेपौ-पात्रादेग्रहणमोक्षौ आगमप्रसिद्धौ जुगुप्सति-करोत्यादाननिक्षेपजुगुप्सकः,अजुगुप्सन् प्राणिनो हिंस्यात् तृती यभावना, संयतः-साधुः समाहितः सन् संयमे 'मणोवईत्ति अदुष्टं मनः प्रवर्तयेत् , दुष्टं प्रवर्तयन् प्राणिनो हिंसेत् चतुर्थी | भावना, एवं वाचमपि पश्चमी भावना, गताः प्रथमवतभावनाः। द्वितीयत्रतभावनाः प्रोच्यन्ते-'अहस्ससचे त्ति अहास्यात् दीप अनुक्रम [२६] ॥६५८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: पञ्च महाव्रतानां २५ भावनाया; वर्णनं ~453 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] [भाग-३०] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १२७३...] भाष्यं [ २०६...], सत्यः, हास्यपरित्यागादित्यर्थः, हास्यादनृतमपि ब्रूयात्, अतो हास्यपरित्यागः प्रथमभावना, अनुविचिन्त्य - पर्यालोच्य भाषेत, अन्यथाऽनृतमपि ब्रूयात् द्वितीयभावना, यः क्रोधं लोभं भयमेव वा त्यजेत् स इत्थम्भूतो दीर्घरात्रं- मोक्षं समुपेक्ष्य-सामीप्येन द्रष्टा (दृष्ट्वा) 'सिया' स्यात् मुनिरेव मृषां परिवर्जेत सदा, क्रोधादिभ्योऽनृतभाषणादिति भावनात्रयं गता द्वितीयत्रतभावनाः । तृतीयत्रतभावनाः प्रोच्यन्ते-'स्वयमेव' आत्मनैव प्रभुं प्रभुसंदिष्टं वाऽधिकृत्य अवग्रहयाञ्चायां प्रवर्तते अनुविचिन्त्यान्यथाऽदत्तं गृह्णीयात् प्रथमभावना, 'घडे मइमं निसम्म त्ति तत्रैव तृणाद्यनुज्ञापनायां चेष्टेत मतिमान् निशम्य आकर्ण्य प्रतिग्रहदातृवचनमन्यथा तददत्तं गृह्णीयात्, परिभोग इति द्वितीया भावना, 'सइ भिक्खु उग्गह 'ति सदा भिक्षुरवग्रहं स्पष्टमर्यादयाऽनुज्ञाप्य भजेत, अन्यथाऽदत्तं संगृह्णीयात् तृतीया भावना, अनुज्ञाप्य गुरुमन्यं वा भुञ्जीत पानभोजनम्, अन्यथाऽदत्तं गृह्णीयात् चतुर्थी भावना, याचित्वा साधर्मिकाणामवग्रहं स्थानादि कार्यमन्यथा तृतीयप्रतविराधनेति पञ्चमी भावना, उक्तास्तृतीयत्रतभावनाः । साम्प्रतं चतुर्थव्रतभावनाः मोच्यन्ते - ' आहारगुत्ते ति आहारगुप्तः स्यात् नातिमात्रं स्निग्धं वा भुञ्जीत, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात् प्रथमा भावना, अविभूषितात्मा स्याद्-विभूषां न कुर्याद्, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात् द्वितीया भावना, खियं न निरीक्षेत तदव्यतिरेकादिन्द्रियाणि नाssलोकयेद्, अन्यथा ब्रह्मविराधकः स्यात् तृतीया भावना, 'न संथवेज'त्ति न ख्यादिसंसक्तां वसतिं सेवेत, अन्यथा ब्रह्मविराधकः स्यात् चतुर्थी भावना, बुद्धः - अवगततस्त्रः मुनि:- साधुः क्षुद्रकथां न कुर्यात् स्त्रीकथां स्त्रीणां | वेति, अन्यथा ब्रह्मविराधकः स्यात् पञ्चमी भावना, धम्म (धम्माणु) पेही संघए बंभचेरं 'ति निगदसिद्धम्, उक्ताश्चतुर्थत्र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 454 ~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥६५९॥ [भाग-३०] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] भाष्यं [ २०६...], तभावनाः । पञ्चमव्रतभावनाः प्रोच्यन्ते यः शब्दरूपरसगन्धानागतान् प्राकृतशैल्याऽलाक्षणिकोऽनुस्वारः, स्पर्शाच संप्राप्य मनोज्ञपापकान् इष्टानिष्टानित्यर्थः, गृद्धिम्-अभिष्वङ्गलक्षणां, प्रद्वेषः प्रकटस्तं न कुर्यात् पण्डितः, स भवति ४ दान्तो विरतोऽकिश्चन इति, अन्यथाऽभिष्वङ्गादेः पश्चममहाव्रतविराधना स्यात्, पञ्चापि भावनाः, उक्ताः पञ्चमहाव्रतभावनाः, अथवाऽसम्मोहार्थं यथाक्रमं प्रकटार्थाभिरेव भाष्यगाथाभिः प्रोच्यन्ते - " पणवीस भावणाओ पंचन्ह महवयाणमेयाओ । भणियाओ जिणगणहरपुज्जेहिं नवर सुत्तंमि ॥ १ ॥ इरियासमिइ पढमा आलोइयभत्तपाणभोई य । आयाणभंडनिकखेवणा य समिई भवे तइया ॥ २ ॥ मणसमिई वयसमिई पाणइवायंमि होंति पंचेव । हासपरिहार अणुवीइ भासणा कोहलोहभयपरिण्णा ॥ ३ ॥ एस मुसावायरस अदिन्नदाणस्स होंतिमा पंच । पहुसंदिट्ट पहू वा पढमोग्गह जाएँ + अणुवीई ॥ ४ ॥ उग्गहणसील विइया तत्थोग्गेण्हेज उग्गहं जहियं । तणडगलमलगाई अणुष्णवेज्जा तहिं तहियं ॥ ५ ॥ तच्चमि उग्गहं तू अणुण्णवे सारिउग्गहे जा उ । तावइय मेर काउं न कप्पई बाहिरा तस्स ॥ ६ ॥ भावण चउत्थ साईमियाण सामण्णमण्णपाणं तु । संघाडगमाईणं भुंजेज्ज अणुण्णवियए उ ॥ ७ पंचमियं गंतृणं साहम्मियउग्गहं अणुण्णत्रिया ठाणाई चेएजा पंचैव अदिष्णदाणस्स ॥ ८ ॥ बंभवयभावणाओ णो अइमायापणीयमाहारे । दोच्च अविभूसणा ऊ विभूसवत्ती न उ हवेज्जा ॥ ९ ॥ तच्चा भावण इत्थीण इंदिया मणहरा ण णिज्झाए । सयणासणा विचित्ता इत्थिपसुविवज्जिया सेज्जा ॥ १० ॥ एस चउत्था ण कहे इत्थीण कहं तु पंचमा एसा । सद्दा रूवा गंधा रसफासा पंचमी एए ॥ ११ ॥ रागद्दोसविवज्जण अपरिग्गहभावणाड पंचेव । सङ्घा पणवीसेवा एयासु न वट्टियं जं तु ॥ १२ ॥ ४ प्रतिक मणाध्य० २५भावनाः ~ 455 ~ ॥६५९॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत 35 सूत्रांक (सू.] हा पड्विंशतिभिर्दशाकल्पव्यवहाराणामुद्देशन कालः, किया पूर्ववत् , तानेवोद्देशनकालान्-श्रुतोपचारान् दर्शयन्नाह सनहणिकार दस उदेसणकाला बखाण कप्पस्स होंति छच्चेव । दस चेव ववहाररस बहोति सोधि यीसं ॥३॥ निगदसिद्धा । सप्तविंशतिप्रकारेऽनगारचारित्रे सति-साधुचारित्रे सति तद्विषयो वा प्रतिषिद्धादिना प्रकारेण योऽ- | तिचारः कृत इति प्राग्वत् , सप्तविंशतिभेदान् प्रतिपादयन्नाह सग्रहणिकार: वामिवियाणं च निगहो भावकरणसचं च । खमयाविराणायाधिय मणमाईणं गिरोहो य॥१॥ कायाण छोगाण उत्तया वेषणाऽहियासणया । तइ मारपंतियऽहियासणा व एएणमारगुणा ॥२॥ गाथाद्वयम्, अस्य व्याख्या-त्रतषटुं-प्राणातिपातादिविरतिलक्षणं रात्रिभोजनविरतिपर्यवसानम्, इन्द्रियाणां च श्रोत्रादीनां निग्रहः-दष्टेतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणमित्यर्थः, भावसत्यं-भावलिङ्गम् अन्तःशुद्धिः, करणसत्यं च बाह्य प्रत्युपेक्षणादिकरणसत्यं भण्यते, क्षमा क्रोधनिग्रहः, विरागता लोभनिग्रहः, मनोवाकायानामकुशलानामकरणं कुशला-1 नामनिरोधश्च, कायानां-पृथिव्यादीनां पर्दू सम्यगनुपालनविषयतयाऽनगारगुणा इति, संयमयोगयुक्तता, वेदनाशीतादिलक्षणा तदभिसहना था, तथा मारणान्तिकाऽभिसहना च-कल्याणमित्रबुद्ध्या मारणान्तिकोपसर्गसहनमित्यर्थः एतेनगारगुणा इति गाथाद्वयार्थः । अष्टाविंशतिविध आचार एवाऽऽचारप्रकल्पः, क्रिया पूर्ववत् , अष्टाविंशतिभेदान् दर्शयति सत्धपरिष्णा कीगो विजो य सीबोसेणिज संमतं । आवंति (वविमोहो हाणमुच महापरियों व ॥१॥ पिंडेसंगसिजि रियों भासजाया व वैयपाएसा । उहपडिमा सरोकासयं भीषणपिसीओ॥२॥ अग्यमणुग्यो भाणा तिविहमो जिसीह तु । इय अठ्ठावीसविहो आयारपकप्पणामोऽयं ॥३॥ ACCIDDOMDASEARRAO दीप अनुक्रम [२६] MARCH पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | अनगार (साधु) चारित्राणां २७ भेदानां वर्णनं ~4560 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३०] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/३ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक आवश्यक हारिभ द्रीया ॥६६०॥ दीप अनुक्रम [२६] गाथात्रयं निगदसिद्धमेव, एकोनत्रिंशभिः पापश्रुतप्रसः, क्रिया पूर्ववत्, पापोपादानानि श्रुतानि पापश्रुतानि प्रतिक जातेषां प्रसङ्गाः-तथाऽऽसेवनारूपा इति, पापश्रुतानि दर्शयन्नाह सत्रहणिकार कामणाध्य २९ पापभनिमित्तंगाई दिनुपातलिक्खभोमं च । अंगसरं लक्खणणं च तिविहं पुणोकेकं ॥१॥ श्रुतानि मुक्त "विसी तह पत्तियं च पावसुय अउणतीसविहं । गंधानाधु औ धवेबसंतसं ॥ २ ॥ गाथाद्वयम्, अस्य व्याख्या-अष्ट निमित्ताङ्गानि दिव्यं-व्यन्तराघट्टहासादिविषयम् , उत्पात-सहजरुधिरवृष्ष्यादिविषयम् , अन्तरिक्ष-ग्रहभेदादिविषयं, भीम-भूमिविकारदर्शनादेवास्मादिदं भवतीत्यादिविषयम्, अङ्गम्-अङ्गविषय स्वर-स्वरविषय, व्यञ्जन-मषादि तद्विषय, तथा च-अङ्गादिदर्शनतस्तद्विदो भाविन सुखादि जानन्त्येष, त्रिविधं पुनरे*कै दिन्यादि सूत्रं वृत्तिः तथा वार्तिकं च, इत्यनेन भेदेन-दिवाईण सरूवं अंगविवजाण हॉति सत्तण्हं । सुत्तं सहस्स है लक्खो य वित्ती तह कोडि वक्खाणं ॥१॥ अंगस्स सयसहस्सं सुत्तं वित्ती य कोडि विन्नेया । वक्खाणं अपरिमियं इयमेव य वत्तिय जाण ॥२॥ पापश्रुतमेकोनशिद्विध, कथम् ?, अष्टौ मूलभेदाः सूत्रादिभेदेन त्रिगुणिताश्चतुर्विंशतिः गन्धर्वादिसंयुक्ता एकोनत्रिंशद्भवन्ति, 'बधुति वास्तुविद्या 'आउ'न्ति वैद्यक, शेष प्रकटार्थ ॥ ॥६६॥ दियादीनां स्वरूपमऋविजिताना भयति सप्लानाम् । सूर्व सहसं लक्षं च वृश्चितथा कोटी व्याख्यानम् ॥1॥ स पातसहसं सूर्य वृत्तिल कोटी |विशेषा । प्याख्यानमपरिमित्तं इदमेय वाचिक जानीहि ॥२॥ ORGAON | ... पापश्रुत-प्रसङ्गानां २९ भेदानां वर्णनं भाग 'आवश्यक'-मूलसूत्र [१/३] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) | ~457 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१० ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ 27 ३३० ४६६ ४४२ | | | | | | * की वी का न म म म न को कई सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ 38 | ५२८ ५६० ३९४ ~459 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः आगम [40/3] भाग-३०, नियुक्ति:- (९५२ से १२७३.अपूर्ण) + (अध्ययन १ से ४.अपूर्ण) शेष नियुक्ति-१२७३ एवं शेष अध्ययन-४ भाग-३१स्य आरंभे वर्तते] पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “आवश्यक मूलसूत्र” (मूलसूत्र-१/३) [मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्त: > “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग-30 ~460~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचमा अरवर आली पण त्या त्या भागात मोठया रायमाणमा 50 आगम 16 OT ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता S N पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी EM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] movie प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/9825306275 ~462~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता OFILE OFF OEM ~463~ श्री आगम मंदिर पालिताणा For Out Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आजम मूल संशोधक म पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब गम आगम आगम आगम आजम आगम 40 “आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: [3] आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आजम आगम आणमा ~4640