Book Title: Kumarpal Charitra Sangraha
Author(s): Muktiprabhsuri
Publisher: Singhi Jain Shastra Shikshapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्यसाहित्यपुनःप्रकाशन-श्रेणी - ग्रन्थांक-७ भिन्न भिन्न विद्वत्कर्तृक एरमाहत विरुदरलंकृत-गुर्जरचौलुक्यचक्रवर्ति-नृपति कमारपाल चरित्र संग्रह -: दिव्याशीर्वाद :व्याख्यानवाचस्पति तपागच्छाधिपति में परमशासनप्रभावक-यूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा -; मार्गदर्शक :पू. आचार्य विजय पूर्णचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा पू. आचार्य विजय मुक्तिप्रभसूरीश्वरजी महाराजा -: पुनः प्रकाशक :श्री सुरततएगच्छ रत्नत्रयी आराधक संघ ट्रस्ट * विजय रामचन्द्रसूरि-आराधना भवन जोपीपुरा-सुरत Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्यसाहित्यपुनःप्रकाशन-श्रेणी - ग्रन्थांक - 7 कुमारपाल चरित्र संग्रह -: दिव्याशीर्वाद :व्याख्यानवाचस्पति-तपागच्छाधिपति - परमशासनप्रभावक-पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा -: सदुपदेशक :- वात्सल्यसिन्धु-सुविशालगच्छाधिपति, पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय महोदयसूरीश्वरजी महाराजा -: मार्गदर्शक :पू. आचार्य विजय पूर्णचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा पू. आचार्य विजय मुक्तिप्रभसूरीश्वरजी महाराजा -: पुनः प्रकाशक :श्री सुरततपगच्छ रत्नत्रयी आराधक संघ ट्रस्ट विजय रामचन्द्रसूरि-आराधना भवन गोपीपुरा-सुरत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय जिनशासनना महान ज्योतिर्थर, सुविशाल सुविहितमुनिगणगच्छाधिपति, संघस्थविर, संघसन्मार्गदेशक, संघपरमहितेषी, व्याख्यानवाचस्पति, सच्चारित्रसुपवित्रगात्र, पूज्यपाद, आचार्यदेव - श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजाना दिव्य आशीर्वादथी तेओश्रीना पट्टालंकार, सिंहगर्जनाना स्वामी, स्व. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय मुक्तिचन्द्रसूरीश्वरजीमहाराजानापट्टालंकारशासनप्रभावक, प्रशमरसपयोनिधि, पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयकुंजरसूरीश्वरजी महाराजानु वि.सं.२०५१नुंचातुर्मास मुंबई-लालबाग-रामबागमां थयु ते दरम्यान मारा वडिल बन्धु सिद्धहस्त लेखक पू.आ. भ. श्रीमद् विजय पूर्णचन्द्रसूरीश्वजी महाराजाओमने जणाव्यु के 'सुरत तपच्छ रत्नत्रयी आराधक संघ-ट्रस्ट'नी भावना छे के तेओना ट्रस्टमाथी ज्ञानखातानो सदुपयोग याय ते रीते प्राचिन ग्रन्यरत्नो झेरोक्ष-ओफसेट द्वारा पुनर्मुद्रित थई प्रगट थाय तो जे ग्रन्यो आजे अप्राप्त छे ते अर्वाचिन ज्ञानभंडारोने उपलब्ध बनी रहे ने . प्राचिन साहित्य वारसो आपणा ज्ञान-भंडारोमा अकबंध जलवाई रहे. सुरत तपगच्छ रत्नत्रयी आराधक संपनी भावनाने लक्ष्यमा लई सेवाभावी सुश्रावकमोहनलालजमनादासनासहयोगयीप्राच्यसाहित्यपुनःप्रकाशन श्रेणी-ग्रन्यांक 7 रुपे आ ग्रन्य प्रकाशित थई रहयो छे ते अनुमोदनीय छे. प्रत्येक संघो अन्ने प्रत्येक ट्रस्टो जो प्राचीन साहित्यना पुनरुध्धारमा रस लेता थई जाय तो जैनशासननो अमूल्य प्राच्यसाहित्य वारसो चिरंजीव बनी रहे ने ज्ञानद्रव्यनो खुब ज सुंदर सदुपयोग यतो रहे. सिंधी जेन ग्रंथमालाना सौजन्यपूर्वक आजे आ ग्रन्य प्रगट यई रहयो छे ते बदल ट्रस्टना ट्रस्टीओ ग्रंथमालाना ऋणी छे सुरत तपगच्छ रत्नत्रयी संघ ट्रस्ट प्रत्येक वर्षे ज्ञानोपासनानुं आईं शुभकार्य करी अनेक ट्रस्टोने ज्ञानोपासनानो आदर्श पूरो पाडे ओज शुभाभिलाषा - आ. विजय मुक्तिप्रभसूरि मोतीशा लालबाग जैन उपाश्रय पांजरापोल लेन, भुलेश्वर, मुंबई-४०० 004. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला ...................[ प्रन्यांक 41 ].................... भिन्नभिन्न विद्वत्कर्तृक परमार्हतबिरुदालङ्कृत - गूर्जरचौलुक्यचक्रवर्ति-नृपति कुमारपाल चरित्रसंग्रह கூகூகூர்கூர் கூகூகூகூக DI DALCHANDISINGH JumuWTAMIL MITHI Lumbbp4NINNI 5 श्री दान चढ़ाजा सिंधी / / SINGHI JAIN SERIES ..... ........[NUMBER 41] KUMARAPALA CHARITRASAMGRAHA (A COLLECTION OF WORKS OF VARIOUS AUTHORS RELATING TO LIFE OF KING KUMARAPALA OP GUJARAT) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF IMPORTANT JAIN CANONICAL, PHILOSOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE AND OTHER WORKS IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD RAJASTHANI. GUJARATI LANGUAGES, AND OF NEW STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS ESTABLISHED IX TE SACRED HEMORY OF THE SAINT LIKE LAN STE SRI DALCHANDJI SINGHI OF CALCUTTA BY HIS LATE DEVOTED SON DANASILA-SAHITYARASIKA-SANSKRITIPRIYA SRI BAHADUR SINGH Singhi DIRECTOR AND GENERAL EDITOR ACHARYA JINA VIJAYA Muni PUBLISHED UNDER THE EXCLUSIVE PATRONAGE OF SRI RAJENDRA SINGH SINGHI AND SRI NARENDRA SINGH SINGHI BY THE DIRECTOR OF SINGHI JAIN SHASTRA SHIKSHAPITH BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्नभिन्न-विद्वत्कर्तृक परमार्हतबिरुदालङ्कृत-गूर्जरचौलुक्यचक्रवर्ति - नृपति कुमारपाल चरित्रसंग्रह सङ्ग्राहक एवं संपादक आचार्य, जिनविजय मुनि ऑनररी मेंबर अमेगबोरिएपल सोसाईटी, जर्मनी; भाण्डारकर भोरिएण्टल रिसर्च इस्टीब्यूट पूना, (दक्षिण), गुजरात साहित्यसमा, महमदाबाद (गुजरात); विधेयरामन्द वैविक शोध प्रतिष्ठान, होसियारपुर, (पजाब) ऑनररी डायरेक्टर राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीबूट, जयपुर (राजस्थान) निवृत्त सम्मान्य नियामक भारतीय विद्या भवन, बम्बई प्रकाशनकर्ता-अधिष्ठाता सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई प्रथमावृत्ति [लिखाद 1950 प्रन्यांक 1] सर्वाधिकार सुरक्षित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः॥ // / अस्ति बनाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा / मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी // बहवो निवसन्स्यत्र जैना उकेशवंशजाः / धनाढ्या नृपसम्मान्या धर्मकर्मपरायणाः // श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् / साधुवत् सचरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः। बाल्य एव गतो यश्च कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् / कलिकातामहापुर्या धृतधर्मार्थनिश्चयः // कुशाग्रीयया सद्बुद्ध्या सद्वृत्त्या च समिष्ठया / उपाय॑ विपुलो लक्ष्मी कोट्यधिपोऽजनिष्ट सः। तस्य मनुकुमारीति सबारीकुलमण्डना / जाता पतिव्रता पत्नी शीलसौभाग्यभूषणा / श्रीबहादुरसिंहाख्यो गुणवांस्तनयस्तयोः / सञ्जातः सुकृती दानी धर्मप्रियश्च धीनिधिः // प्राप्ता पुण्यवता तेन पत्नी तिलकसुन्दरी / यस्याः सौभाग्यचन्द्रेण भासितं तत्कुलाम्बरम् // श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्य ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः / यः सर्वकार्यदक्षत्वात् दक्षिणबाहुवत पितुः // नरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः / सूनुरिन्द्रसिंहश्च कनिष्टः सौम्यदर्शनः // सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः / विनीताः सरला भन्याः पितुर्मार्गानुगामिनः // .. भन्येऽपि बहवस्तस्याभवन् स्वनादिवान्धवाः / धनैर्जनैः समृद्धः सन् स राजेव व्यराजत // अन्यच्चसरस्वत्या सदासको भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् / तत्राप्यासीत् सदाचारी तच्चित्रं विदुषां खलु // नाहकारो न दुर्भावो न विलासो न दुर्व्ययः / दृष्टः कदापि यद्गेहे सतां तद् विस्मयास्पदम् // भको गुरुजनानां स विनीतः सजनान् प्रति / बन्धुजनेऽनुरक्तोऽभूत् प्रीतः पोष्यगणेष्वपि // देश-कालस्थितिज्ञोऽसौ विद्या-विज्ञानपूजकः / इतिहासादि-साहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे / प्रचाराय च शिक्षाया दत्तं, तेन धनं धनम् // गत्वा सभा-समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदान्वितः / दावा दानं यथायोग्य प्रोत्साहिताश्च कर्मठाः // एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया / अकरोत् स यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः // अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे / कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं स कार्य मनस्यचिन्तयत् // पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग्-ज्ञानरुचिः स्वयम् / तस्मात् तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थ यतनीयं मयाऽप्यरन् / विचार्य स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् / श्रद्धेयानां स्वमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् // जैनज्ञानप्रसारार्थ स्थाने शान्ति नि के त ने / सिंघीपदाङ्कितं जैन ज्ञान पीठ मतीछिपत् // श्रीजिनविजयः प्राज्ञो मुनिनाम्ना च विश्रुतः / स्वीकतु प्रार्थितस्तेन तस्याधिष्ठायकं पदम् // तस्य सौजन्य-सौहाई स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः / वशीभूय मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् // कवीन्द्रेण रवीन्द्रेण स्वीयपावनपाणिना / रस-नागा-चन्द्राब्दे तत्प्रतिष्ठा व्यधीयत // प्रारब्धं मुनिना चापि कार्य तदुपयोगिकम् / पाठनं ज्ञानलिप्सूनां ग्रन्थानां प्रथनं तथा // वस्यैव प्रेरणा प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना / स्वपितृश्रेयसे चैषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका // उदारचेतसा तेन धर्मशीलेन दानिना / व्ययितं पुष्कलं द्रव्यं तत्तत्कार्यसुसिद्धये // छात्राणां वृत्तिदानेन नैकषां विदुषां तथा / ज्ञानाभ्यासाय निष्कामसाहाय्यं स प्रदत्तवान् // जलवाग्वादिकानां तु प्रातिकूल्यादसौ मुनिः / कार्य त्रिवार्षिकै तत्र समाप्यान्यत्रावासितः // तत्रापि सततं सर्व साहाय्यं तेन यच्छता / ग्रन्थमालाप्रकाशाय महोत्साहः प्रदर्शितः // नन्दे-निध्येके-चन्द्राब्दे कृता पुनः सुयोजना / ग्रन्थावल्याः स्थिरत्वाय विस्तराय च नूतना // ततो मुनेः परामर्शात् सिंघीवंशनभस्वता / भा विद्या भवना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता // भासीसस्य मनोवाम्छाऽपूर्वग्रन्थप्रकाशने / तदर्थ व्ययितं तेन लक्षावधि हि रूप्यकम् // दुर्विलासाद् विधेर्हन्त ! दौर्भाग्याचात्मबन्धूनाम् / स्वल्पेनैवाथ कालेन स्वर्ग स सुकृती ययौ / इन्दु-ख-शून्य-नेवाग्दे मासे भाषाढसज्ञके / कलिकाताख्यपुर्या स प्राप्तवान् परमां गतिम् // पितृभक्तश्च तस्पुत्रैः प्रेयसे पितुरात्मनः / तथैव प्रपितुः स्मृत्यै प्रकाश्यतेऽधुना तथा // पूर्व प्रन्यावलिः श्रेष्ठा प्रेष्ठा प्रज्ञावतां प्रथा / भूयाद् भूत्यै सतां सिंघीकुलकीर्तिप्रकाशिका // विद्वज्जनकृताहादा सच्चिदानन्ददा सदा / चिरं नन्दस्वियं लोके श्रीसैंधी प्रन्थपद्धतिः // 22 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः // सादिसिंहोऽमा यस्मिन् महा चातुर्य-रूप-लाबने राजन्यकुलतम .... ... :: :::: :: स्वस्ति श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः / रूपाहेलीति सन्नाम्नी पुरिका तत्र सुस्थिता / सदाचार-विचारान्यां प्राचीननृपतेः समः / श्रीमश्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः // सत्र श्रीवदिसिंहोऽभू राजपुत्रः प्रसिद्धिभाक् / क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाप्रणीः // मुज-मोजमुखा भूषा जाता यस्मिन् महाकुले / किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः // पत्री राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसंहिता / चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक् सौजन्यभूषिता / क्षत्रियाणी प्रभापूर्णा शौर्योद्दीप्तमुखाकृतिम् / यां दृष्ट्रव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् // पुत्रः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः / रणमल्ल इति चान्यद् यशाम जननीकृतम् // श्रीदेवीहंसनामात्र राजपूज्यो यतीश्वरः / ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः // मागतो मरुदेशाद् यो भ्रमन् जनपदान् बहून् / जातः श्रीवृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् // . तेनाथाप्रतिमप्रेरणा स तत्सूनुः स्वसनिधौ / रक्षितः शिक्षितः सम्यक्, कृतो जैनमतानुगः / दौर्भाग्यात् तच्छिशोबांड्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ / विमूढः स्वगृहात् सोऽथ यदृच्छया विनिर्गतः॥ तथाचभारवा नैकेषु देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् / दीक्षितो मुण्डितो भूय जातो जैनमुनिस्ततः / शाताम्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च / मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्वातत्वगवेषिणा // . अघीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः / भनेका लिपयोऽप्येवं प्रन-नूतनकालिकाः // ग्रेन प्रकाशिता के प्रन्या विद्वत्प्रशंसिताः / लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः॥ बहुभिः सुविद्वजिस्तन्मण्डलैश स सस्कृतः / जिनविजयनाम्नाऽयं विख्यातः सर्वत्राभवद् // " सस्य तो विश्रुति हास्वा श्रीमद्गाम्धीमहात्मना / आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात् स्वयमन्यदा // पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयः शिक्षणालयः / विद्यापीठ इति ख्यात्या प्रतिष्टितो यदाऽभवत् / गाचार्यस्वेन तत्रोचनियुक्तः स महात्मना / रस-मुंनि-निधीन्द्वन्दे पुरातवा ख्यमन्दिरे॥ वर्षाणामष्टक यावत् सम्भूप्य तत् पदं ततः / गत्वा जर्मनराष्ट्रे स तत्संस्कृतिमधीतवान् / तत भागस्य सँल्लमो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् / कारावासोऽपि सम्प्राप्तो येन स्वातन्यसारे। कमात् ततो विनिर्मुक्तः स्थितः शान्ति नि के तने / विश्ववन्धकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते // .. सिंधीपदयुतं जैन ज्ञानपीठं तदाश्रितम् / स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना // . श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता / स्मृत्यर्थ निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् // प्रतिष्ठितश्च तस्यासौ पदेऽधिष्ठातृसम्झके / अध्यापयन् वरान् शिष्यान् ग्रन्थयन् जैनवावायम् // तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना / स्वपितृश्रेयसे शेषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका // अथैवं विगतं तस्य वर्षाणामष्टकं पुनः / ग्रन्थमालाविकासार्थिप्रवृत्तिषु प्रयस्थतः // बाणे-रख-नेवेन्द्रन्दे मुंबाईनगरीस्थितः / मुंशीति बिरुदख्यातः कन्हैयालालपीसखः // प्रवृत्तो भारतीयाना विद्यानां पीठनिर्मिती / कर्मनिष्ठस्य तस्याभूत् प्रयतः सफलोऽचिरात् // विदुषां श्रीमतां योगात् पीठो जातः प्रतिष्ठितः / भारतीय पदोपेत विद्या भवन सम्शया // माहूतः सहकार्यार्थ स मुनिस्तेन सुहृदा। ततःप्रभृति तत्रापि तस्कार्ये सुप्रवृत्तवान् // . सजबनेऽन्यदा तय सेवाऽधिका अपेक्षिता / स्वीकृता प सद्भावेन साऽप्याचार्यपदाश्रिता। . मम्व-निध्याई-चन्द्राब्दे वैक्रमे विहिता पुनः / एतग्रन्थावलीस्थैर्यकृत् तेन नम्ययोजना // परामर्शात् ततस्तस्य श्रीसिंधीकुलभास्वता / भा विचाभव ना येय ग्रन्थमाला समर्पिता // प्रदत्ता दशसाहसी पुनस्तस्योपदेशतः / स्वपितृस्मृतिमन्दिरकरणाय सुकीर्तिना // देवादस्पे गते काले सिंचीवयों दिवंगतः / यस्तस्य ज्ञानसेवायां साहाय्यमकरोत् महत् // पितृकार्यप्रगत्पर्य यबशीसदात्मजैः / राजेन्द्रसिंहमुख्यैश्च सत्कृतं तद्वचस्ततः // पुण्यश्लोकपितुनर्नामा प्रन्यागारकृते पुनः / बन्धुज्वेहो गुणश्रेष्ठो बर्द्धलक्ष धनं ददौ // मधमालाप्रतिकार्य पितृवत् वय कांक्षितम् / श्रीसिंधीसत्पुत्रैः सर्व तगिराऽनुविधीयते // बिजनवाडादा सचिदानन्ददा सदा / चिरं नन्दत्वियं लोके जिन विजयभा र सी॥ .::::: .. . .. . .. ... Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम 83 किञ्चित् प्रास्ताविक प्रथम निबन्ध-राजर्षि कुमारपाल और महर्षि हेमचन्द्राचार्य 7-18 द्वितीय निबन्ध-राजर्षि कुमारपाल 19-36 1 अज्ञातकर्तृक पुरातन संक्षिप्त कुमारपालदेव चरित मूलादर्शलिखिताः परिशिष्टरूपाः कतिश्लोकाः 8 2 सोमतिलकसूरिविरचितं कुमारपालदेवचरितम् 9-33 कुमारपालगुणोत्कीर्तनश्लोकाः 3 पुरातनाचार्यसंगृहीत गद्य-पद्यमय कुमारपाल प्रबोधप्रबन्ध 35-111 ग्रन्थलेखनप्रशस्ति 112 4 चतुरसीतिप्रबन्धान्तर्गत कुमारपालदेवप्रबन्ध 112, 1-21 अजयपालप्रबन्ध 112, 22-24 5 सोमप्रभाचार्यकृत कुमारपालप्रबोध उद्धृत ऐतिहासिक सारात्मक संक्षेप 113-136. प्रथमप्रस्ताव 113-120 द्वितीय प्रस्ताव 121-125 तृतीय प्रस्ताव 125-128 चतुर्थ प्रस्ताव 129-131 पञ्चम प्रस्ताव 132-136 6 हेमचन्द्राचार्यकृत त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्रप्रथित कुमारपालचरितवर्णन 137-38 7 हेमचन्द्राचार्यकृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रप्रशस्ति 139-40 परिशिष्ट (1) कुमारपालचरित्रसंग्रहान्तर्गत उद्धरणरूपपद्यानामकाराद्यनुक्रमणिका 143-150 (2) कुमारपालचरित्रसंग्रहान्तर्गत विशेषनाम्नामकाराद्यनुक्रमणिका 151-160 (3) शुद्धिवृद्धिनिदर्शकपत्राणि 161-172 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक गुजरातके सुवर्ण युगका शिखरभूत परमार्हत चौलक्य नृपति कुमारपाल इतिहासविश्रुत है। अपने समयके भारतके मात बडे बापत विद्वान्, सर्वशास्त्रनिष्णात, अनेकानेकग्रन्यप्रणेता, राष्ट्रीयज्योतिःखरूप, जैनाचार्य हेमचन्द्रसरिके समुपदेशसे प्रतिबुख हो कर उसने अपने राजजीवनके उत्तर कालमें, जैन धर्मकी अणुव्रतग्रहणात्मक गार्हस्थ्यकार की थी। इसलिये तत्कालीन एवं उत्तर कालीन अनेक जैन विद्वानोंने उसके जीवनवृत्तको लक्ष्य कर प्राकृत, यभाषामें छोटे बडे अनेक ग्रन्थ-प्रबन्ध आदि ग्रथित किये हैं। इन ग्रन्थोंमेंसे कई अन्य अब तक प्रकाशमें बार कुछ अभी तक अप्रकाशित हैं / ऐतिहासिक साधन-सामग्री आदिकी उपयोगिताकी दृष्टि से, ये सब ग्रन्थ मापके हैं और प्रसिद्धि पाने योग्य है / हमने इतःपूर्व कुमारपालप्रतिबोध, प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबज्यकोष, पुरातनप्रवन्धसंग्रह भादि ग्रन्थोंका संपादन-प्रकाशन कर, एतद्विषयक सामग्रीको योग्य रूपमें प्रकाशित करनेका यथाशक्य प्रयास किया और उसी लक्ष्यानुसार, अब यह प्रस्तुत कुमारपालचरित्रसंग्रह नामका ग्रन्थ मी, सिंधी जैन अन्यमालाके 413 पुष्पके रूपमें, विद्वानोंके करकमलोंमें उपस्थित किया जा रहा है। . इस संग्रहमें जिन प्रबन्धों अथवा चरितों का संग्रह किया गया है उनमें से प्रायः बहुतसे अप्रसिद्ध और अज्ञात सात इतिहासके मध्ययन और अन्वेषणकी दृष्टि से, इनमें कुछ ऐसी नूतन विचारसामग्री भी विद्वानोंको उपन्य होगी जो बनी तक बात नहीं है। मारपालके इस प्रकार के प्रबन्धों - चरित्रों के अन्तर्गत जिनमण्डन गणीका बनाया हुआ संस्कृत कुमारपालप्रबन्ध विप्रसिद्ध और पठनीय रहा है। इस प्रबन्धका बहुत कुछ उपयोग, गुजरातके इतिहासके उत्साही आलेखक अंग्रेज मान किल्लॉक फार्बसने अपनी प्रसिद्ध अंग्रेजी पुस्तक रासमाला लिखते समय किया था। इसका पूर्ण गुजराती अनुवाद बडोदाकी गायकवाड सरकारकी ओरसे, कई वर्षों पहले प्रकाशित हुआ / इस प्रबन्धका हिन्दी भाषामें साररूप अवतरण खर्गवासी मुनिवर श्रीललितविजयसूरिने किया था जो 'कुमार पाल चरित'के नामसे बंबईके अध्यात्मज्ञानप्रसारक .म रा विक्रमसंवत् 1971 में प्रकाशित हुआ था। मुनिवर्य श्रीललितविजयजी मेरे एक बहुत बेहभाजन मुनिमित्र निरोधसे मैने, उक्त परितके प्रास्ताविक रूपमें एक छोटासा हिन्दी निबन्ध लिख डाला था जिसमें कुमारपाल और उसके गुरु बाचार्य हेमचन्द्र के विषयमें कुछ स्थूल स्यूल घटनाओंका उल्लेख किया था / वि. सं. 1970 के माचिन मासमें उस निबन्धके लिखते समय, मेरे सामने वह कोई प्रन्थसामग्री उपलब्ध नहीं थी जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया। यह मेरी प्राथमिक प्रस्तावना इसके साथ प्रकट की जा रही है। उस समयसे ही, कुमारपालविषयक साहिन जो जैन भण्डारों में छिपा पा था, उसको प्राप्त करनेकी और प्रसिद्धिमें लानेकी मेरी अभिलाषा बनी रही है और उसके फखरूप, उक्त रूपमें सोमप्रभाचार्यविरचित कुमारपालप्रतिबोध नामक बृहत्काय प्राकृत प्रन्थका 'गायकलाउस ओरिएन्टल सीरीज' द्वारा, तथा प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबन्धकोश, पुरातनप्रबन्धसंग्रह बादि प्रबन्धात्मक गतियोंको, इतःपूर्व प्रस्तुत सिंघी जैन अन्धमाला द्वारा प्रकाशन किया गया है और इसी उद्देश्यकी इतिक रूपमें प्रस्तुत चरित्रसंग्रह भी अब प्रकाशमें आ रहा है। : चौल्यचक्रवती नृपति कुमारपालको उसके धर्मगुरु कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रने राजर्षिकी उपाधि दी थी। इसको लक्ष्य करके मैंने राजर्षि कुमारपाल नामका एक निबन्ध गुजरातीमें लिखा था जिसमें कुमारपालके जीवन पर, बपन्त विवसनीय प्रमाणों के आधार पर, कुछ विशेष प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया था। वह निबन्ध भी इसके साथ प्रकट किया जा रहा है जिससे पाठकोंको इस प्रकारकी साहित्य - सामग्रीका उपयोग और महत्त्व लक्षित हो सकेगा। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक इस संग्रहमें संकलित एवं प्रकाशित कृतियोंका कुछ परिचय निम्न प्रकार है (1) संक्षिप्त कुमारपालचरित। इनमें पहला जो चरित है वह बहुत ही संक्षिप्त और साररूप है / इसके कुल 221 श्लोक है / इसका कर्ता कौन है सो बात नहीं हआ। पाटणके भंडारों में इसकी दो-तीन पुरानी प्रतियां हमारे देखनेमें आई, जिनमें सबसे जो पुरानी प्रति है वह वि. सं. 1385 की लिखी हुई कागजकी प्रति है / इस प्रतिके कुल 8 पत्र हैं जिनमें प्रथमके 6 पत्रों में यह संक्षिप्त कुमारपालचरित लिखा हुआ है और पिछले दो पन्नोंमें एक श्रावक और श्राविकाके व्रतग्रहणविषयक प्रकरण हैं। इसके अन्तमें जो उल्लेख है वह इस प्रकार है "संवत् 1385 वर्षे वैशाख वदि 2 रवौ सूराश्रावकेण परिग्रहपरिमाणं गृहीतम् / " इससे इतना तो निर्णित होता है कि उक्त प्रतिमें जो यह कुमारपाल चरित लिखा हुआ है इसकी रचना, इस समयसे पहलेकी है। कितनी पहलेकी है इसका निर्णय करनेका अभी तक और कोई पुष्ट प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं हुआ। परंतु इसमें जो संक्षिप्त चरितवर्णन है वह बहुत ही व्यवस्थित, संबद्ध और किसी प्रकारकी अतिशयोक्तिसे अस्पृष्ट है। अतः इसकी रचना कुमारपालकी मृत्युके बाद बहुत थोड़े ही समयमें हुई हो, ऐसा अनुमान किया जाय, तो उसमें हमें कोई बाधक प्रमाण नहीं दिखाई देता / इस चरितमें कुमारपालका, राज्यप्राप्तिके पूर्व तकका ही, चरित्र दिया गया है। राज्यप्राप्तिके बादका कोई वर्णन इसमें नहीं है / अन्तके 5 श्लोकोंमें सिर्फ इतना ही सूत्ररूपसे सूचित किया गया है कि-"राज्यगादी पर बैठने बाद कुमारपालने पहले उन सब अपने उपकारी जनोंको बुलाया और उनका यथोचित आदर-सन्मान किया। फिर बादमें यथासमय, आमके वृक्षों परका कर लेना माफ किया, निःसन्तान मरनेवालेके कुटुंबोंकी संपत्तिका जप्त करना बन्ध किया, सातों देशोंमें, सातों व्यसनोंका सेवन निषिद्ध किया, और 12 वर्ष पर्यंत सब प्राणियोंकी हिंसाका परिहार कराया। उत्तरमें तुरुष्क देश पर्यंत, पूर्वमें गंगाके तीर पर्यंत, दक्षिणमें विन्ध्याचल और पश्चिममें समुद्र पर्यंतकी पृथ्वी अपने शासनमें अधिकृत कर, और उसे जैन मन्दिरोंसे अलंकृत करके जैन धर्मका बाराधन करता हुआ वह वर्गमें गया / " कुमारपालके पूर्व जीवनके विषयमें जितना भी वर्णन अन्यान्य चारित्रों-प्रबन्धों आदिमें मिलता है उन सबमें हमें प्रस्तुत चरितगत वर्णन अधिक प्रमाणभूत और तथ्यरूप मालूम देता है / अन्यान्य चरित्र और प्रवन्ध लेखकोंने इसीके आधार परसे बहुत कुछ अपना वर्णन पल्लवित करके लिखा है। उदाहरणके तोर पर, प्रस्तुत संग्रहमें ही जो 2 रा चरित सोमतिलक सूरिकृत दिया गया है उसके प्रारंभका जो 195 श्लोक जितना भाग है वह इसी चरितका संपूर्ण शब्दशः अवतरण रूप है / इसी तरह उसके बाद, जो बडा चरित्रात्मक 3 रा कुमारपालप्रबोध प्रबन्ध है उसमें भी, कुमारपालके पूर्व जीवनका वर्णनात्मक भाग बहुत कुछ इसीके आधार परसे लिखा गया है और इसके बहुत सारे श्लोक मी उसमें यथावत् उद्धृत किये गये हैं। जिनमण्डन गणिकृत कुमारपालप्रबन्धमें भी इसके बहुतसे श्लोक उद्धृत हैं। इससे ज्ञात होता है कि उन अन्यान्य चरित्र-प्रबन्ध लेखकोंने इस संक्षिप्त चरितको कुमारपालके पूर्व जीवनके वर्णनके लिये विशेष आधारभूत और मौलिक मान कर, इसका पूरा उपयोग किया है / अतएव कुमारपालके चरित्रात्मक साधनोंमें यह एक बहुत प्रमाणभूत प्रबन्ध सा है इसमें कोई सन्देह नहीं / (2) सोमतिलकसूरिकृत कुमारपालचरित संग्रह का २रा चरित है वह सोमतिलकसूरिरचित है। ये आचार्य रुद्रपल्लीय गच्छके संघतिलकसूरिके शिष्य थे। यधपि इसमें इसकी रचनाके समयका ज्ञापक कोई निर्देश नहीं किया गया है तथापि सोमतिलकसूरिकी अन्य प्रन्यरचना परसे इनका निश्चित समय ज्ञात है, अतः इस चरितका रचनासमय अनुमानसे उस समयके आसपास सहज ही में समझा जा सके ऐसा है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्र संग्रह ... इस परितके प्रारंभ और अन्तिम उल्लेखसे ज्ञात होता है कि सोमतिलकरिकी यह रचना, उनके किसी अन्यगृहद् सत्यके अन्तर्भूत प्रथित की गई प्रतीत होती है। इनके बनाये हुए षड्दर्शनसमुच्चयलघुवृत्ति, सम्यक्त्वसप्ततिकावृत्ति बादि कई अन्य उपलब्ध होते हैं / त्रिपुरामारतीलघुस्तव पर मी इनकी बनाई हुई एक संस्कृत टीका है जिसको हम राबखान पुरातन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित कर रहे हैं। इसकी रचना वि. सं. 1397 में पूर्ण हुई है अतः विक्रमके 113 शतकका अन्तिमकाल, प्रस्तुत कुमारपालदेव चरितका समय सुनिश्चित हो सकता है / वि. सं. 1512 में लिखी गई प्राचीन एवं आदर्शभूत प्रतिके आधार पर इसका संपादन किया गया है। प्रत्यन्तरके रूपमें एक दूसरी प्रविका मी उपयोग किया गया है जो मुनिवर श्रीपुण्यविजयजीकी कृपासे प्राप्त हुई थी। यह प्रति भी वैसी पुरातन और यह चरित मी, दूसरे दूसरे चरित्रोंकी अपेक्षा संक्षिप्त ही है / इसके कुल 740 श्लोक हैं जिनमें प्रारंभके 200 छोकोंमें तो वही, कुमारपालके राज्य प्राप्त करनेके पूर्वका, जीवन वर्णित है और प्रायः उन्हीं शब्दोंमें है- जो उपर्युक प्रथमांक बाले संक्षिप्त चरित्रमें वर्णित है। बादके 500 श्लोकोंमें, कुमारपालके राजजीवनका वर्णन है जिसमें प्रायः उन सब मुख्य मुख्य प्रबन्धोंका सार दिया गया है जो प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि और प्रबन्धकोष बादि प्रन्यों में उपलब्ध है। पर कोई कोई बात बिल्कुल नई भी इसमें मिलती है / दृष्टान्तके लिये, 29 3 छ पर, लोक 612 से ले कर 633 तक में, नागपुर (मारवाड का आधुनिक नागोर) के जिस महामाण्डलिक कुमारके साप कुमारपालके युद्धका उल्लेख है वह और किसी प्रबन्धमें देखनेमें नहीं आया / इसी तरह पृ० 31 पर, श्लोक 674 से कर 185 तक में, राकापक्षीय आचार्य सुमतिरिके साथ हेमाचार्यका जो प्रसंग बतलाया गया है वह भी एक घिर प्रकारका नवीन बचान्त है। इसका थोडासा सूचन सिर्फ चतुरशीति प्रबन्धान्तर्गत कुमारपालप्रबन्धमें मिलता है [देखो, पृ. 112,22,653 वां प्रकरण ] पर, किन्हीं अन्य प्रसिद्ध चरित्रोंमें नहीं दृष्टिगोचर होता / समुच्चय रूपसे यह परित्र भी बहुत कुछ संबद्ध, व्यवस्थित और तथ्यपूर्ण है। इसका वर्णन क्रमबद्ध हो कर थोडेमें कुमारपालके जीवनका बच्छा परिचय देने वाला है। मालूम देता है, कि इसकी संकलना मुख्य करके इसके बाद, जो 3 रे अंकवाला बडा पारपालप्रबोधप्रबन्ध है उसके आधारसे की गई है। क्यों कि इसके अन्तके श्लोकमें, चरितकारने स्पष्ट लिखा है कि हमने पूर्जर नरेश कुमारपालका यह चरित्र संक्षेपमें लिखा है / जिनको विशेष रूपसे जाननेकी इच्छा हो वे 'कुमारपालप्रतिबोध' नामक ग्रन्थ से जानें। इसमें सूचित किया गया 'कुमारपालप्रतिबोध' अन्ध यही मालूम देता है जो प्रस्तुत संग्रहमें इसी परितके बाद, प्रकाशित है और जिसका पूरा नाम "कुमारपाल प्रबोध (अथवा प्रतिबोध) प्रबन्ध" है। [सातम्य टिप्पणी- ययपि मारपाल परित विषयक सबसे प्राचीन और बहुत बड़ा अन्य को सोमप्रभाचार्यकृत प्राकृत भाषामय है और जिसका सबसे पहले हमने बेई. वर्ष पूर्व संशोधन-संपादन किया और जो बगदाकी 'गायकवाडस् ओरिएन्टल सीरीझ' में प्रकाशित मा उसका नाम भी 'कुमारपालप्रतिपोष' ऐसा ही विशेष प्रसिद्ध हो गया है, परंतु प्रथकारने उसका मूल नाम तो 'जिनधर्म प्रतियोष ऐसा रखा है। इस प्रयकी ताडपत्रों पर लिखी हुई एक मात्र संपूर्ण प्रति जो पाटणके भंडारमें उपलब्ध है और जिसकी ... प्रतिपि.सं. 1458 में संभातकी हत्योषधशालामें भट्टारक श्रीजयतिलकसरिके उपदेशसे, कायस्थ ज्ञातीय महं. मंडलिकके पुत्र महताहै, उसके अन्तिम पुष्पिका लेखमें इस प्रन्थका निर्देश 'कुमारपाल प्रतिबोध पुस्तक' ऐसा किया गया है। इस लिये हमको हप्रवका यह नाम विशेष अन्वर्थक लगनेसे हमने इसी नामसे उसको मुद्रित एवं प्रकाशित करना उचित सोचा। परन्तु वास्तवमें इसका माम विनय प्रतिबोध' है और 'कुमारपाल प्रतिबोध' मामक वह अन्य है जिसको हम इस संग्रहमें 'कुमारपाल प्रतिबोध प्रबन्ध के मामले प्रवरहे। . देखो, अन्य का अन्तिम-प्रशस्तिगत-श्लोकऐकि-धि-सूर्यवर्षे शुचिमासे रविदिने सिताष्टम्याम् / 'जिनधर्मप्रतिबोधः' क्लप्तोऽयं गूर्जरेन्द्रपुरे॥ पृ. 136. इसी तरह प्रत्येक प्रस्तावके अन्तके पद्यमें भी यही नाम सूचित किया गया है। यवा-मिणधम्मप्पडिबोहे खमथिओ पढमपत्थावो / पृ० 11. जिनधम्मप्रतिषोधे प्रस्तावः पञ्चमः प्रोकः / पृ. 134 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किशित् प्रास्ताविक (3) कुमारपालप्रबोध-प्रबन्ध जैसा कि ऊपर वर्णन दिया गया है इस संग्रहके तीसरे ग्रन्थका नाम 'कुमारपालप्रबोध-प्रबन्ध' है / यह नाम हमने ग्रन्थकी प्रारंभिक कण्डिकाके उल्लेख परसे अङ्कित किया है। उसमें लिखा है कि- 'श्रीकुमारपालभूपालस प्रारम्यतेऽयं प्रबोधप्रबन्धः।' इस उल्लेखके सिवा प्रन्थमें और किसी जगह अथवा अन्तिम पुष्पिका लेखमें भी इसका खास नाम लिखा हुआ हमें प्राप्त नहीं हुआ। पूनामें उपलब्ध एक त्रुटित प्रतिमें प्रबोध इस शब्दकी जगह 'प्रतिबोध' ऐसा पाठ भी मिला है इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इसका नाम 'प्रतिबोध प्रबन्ध' भी हो सकता है और शायद इसी नामको लक्ष्य कर उक्त दूसरे नंबरके चरितके कर्ता सोमतिलकसूरिने यह लिखा है कि इसका विस्तार 'कुमारपालप्रतिबोध' शास्त्रसे जानना चाहिए। दोनों शब्दोंका अर्थ प्रायः एक ही है, इससे नाममें कोई विशेष मेद नहीं पडता / इस ग्रन्थका मुद्रण करते समय हमें प्रथम एक ही प्रति प्राप्त हुई थी जो पाटणके भण्डार की थी / इस प्रतिके अन्तमें जो 'प्रन्थलेखनप्रशस्ति' दी गई है और जिसको हमने इसके साथ मुद्रित किया है (देखो, पृ० 112) उससे ज्ञात होता है कि वि. स. 1464 में, देवलपाटक (काठियावाडके देलवाडा) में पंडित दयावर्द्धन नामके यतिवरके आदेशसे, श्रावक लोगोंने अपने गच्छके अनुयायियोंके पढनेके लिये इस चरितकी प्रतिलिपि करवाई थी। पाटणकी उक्त प्रति कुछ कुछ अशुद्ध थी इस लिये इसका संशोधन करनेमें हमें कुछ कठिनाई ही रही, तो भी यथामति पाठशुद्धि करनेका हमने पूरा प्रयत्न किया / प्रन्थका पूरा मुद्रण हो चुकने बाद, हमें बीकानेरसे साहित्यप्रिय श्रावकबन्धु श्रीयुत अगरचन्द्रजी नाहटाकी. तरफसे इस ग्रन्थकी एक और प्रति मिली जो वि० सं० 1656 की लिखी हुई है / उससे इसका मिलान करने पर हमें इन दोनोंमें परस्पर कहीं कहीं पाठभेद उपलब्ध हुए जिनमें कुछ तो मात्र शाब्दिक परिवर्तन स्वरूपके हैं और कुछ पंक्तियोंके और पद्योंके न्यूनाधिकत्व बतलाने वाले हैं। इनमेंसे जो पाठभेद कुछ खास विशेषत्व रखते हैं उनको हमने इसके साथ परिशिष्टके रूपमें दे दिये हैं। सबसे अधिक विशेषतावाला पाठभेद है वह प्रारंभके मंगलाचरणवाले श्लोकों ही का है। हमारे मुद्रित ग्रन्थमें मंगलाचरणके जो 4 पद्य मिलते हैं उनसे सर्वथा भिन्न प्रकारके 4 पथ इस बीकानेरवाली प्रतिमें प्राप्त होते हैं। (देखो परिशिष्ट A) / इसका कारण यह हो सकता है कि इस प्रन्यके संकलन कर्ताने पहले जो एक आदर्श तैयार किया होगा उसकी प्रतिलिपिवाली ये पाटण और पूनावाली प्रतियां होनी चाहिये। उसके बाद संकलन कर्ताने ग्रन्थमें जो कुछ थोडा बहुत पीछेसे संशोधन-परिवर्तन किया होगा उस आदर्शकी प्रतिलिपिवाली परंपराकी यह बीकानेरवाली प्रति होनी चाहिये / क्यों कि इस प्रतिके पाठ, हमारी मुद्रित प्रतिके पाठसे, शब्दसन्दर्भ और वाक्यरचनाकी दृष्टिसे कुछ विशेष परिमार्जित मालूम पडते हैं / ऐसे संकलनात्मक प्रन्थोंकी प्रतियोंमें इस तरहके विशेष पाठभेद, इस प्रकार किये गए संशोधन-परिवर्तनके कारण, प्रायः उपलब्ध होते रहते हैं। इससे इसमें कोई खास आश्चर्यकी बात नहीं है। बादमें हमें पूनामें भी इस ग्रन्थकी एक और तीसरी प्रति प्राप्त हुई जो भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटके राजकीय ग्रन्थ संग्रह में रक्षित है। यह प्रति त्रुटित है। प्रारंभके 10 पत्र बिल्कुल ही नहीं है और बीचके भी कुछ पत्र लुप्त हैं पर अन्तका पत्र विद्यमान है / यह प्रति वि. सं. 1482 की लिखी हुई है और भट्टारिक श्री जयतिलकसूरिके शिष्य पं. दयाकेशरगणिको, ओसवंशीय गोठी संग्रामकी पत्नी बाई जासने लिखा कर समर्पित की है। इसका यह पुष्पिका लेख इस प्रकार है। इति संवत् 1482 वर्षे फागुण शुदि पंचम्यां गुरौ श्रीमति श्री तपा पक्षे श्रीरत्नागरसूरीश्वराणां गच्छे महारिक श्रीजयतिलकसूरीस्व(श्व)राणां शिक्ष (व्य) पं० दयाकेशरिगणिवराणां श्रीओसवंश अं()गार गोठी संग्रामकस्य भार्या बाई जासू नाना लिषाप्य प्रददौ मुदा / चिरं नंदतु / Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्र संग्रह मालूम देता है कि इस प्रबन्धकी रचना प्रबन्धचिन्तामणि आदि जैसे कुछ पुरातन प्रकीर्ण प्रबन्धोंके वाधार पर की गई है। इसमें जो पद्यभाग है वह प्रायः सारा ही अन्यान्य ग्रन्थोंमेंसे उद्धृत किया गया है। जो गद्य भाग है वह कुछ संग्राहकका खयं संकलित किया हुभा और कुछ प्रथित किया हुआ है / ग्रन्थकर्ता अन्तमें कहते हैं कि कुछ तो गुरुमुखसे जो मुना उस परसे और कुछ जो लिखित रूपमें मिला है उसके आधारसे, मैंने यह कुमारपाल राजाका प्रबन्ध निर्मित किया है। जिनमण्डन गणीने अपने कुमारपाल प्रबन्धकी रचना प्रायः इसी प्रबन्धके आधार पर की मालूम देती है। वर्णन क्रम एवं, रचनाशैलीकी समानताके उपरान्त, बहुतसे वाक्यसन्दर्भ मी दोनोंमें एकसे मिलते हैं। जिनमण्डन गणीके कुमारपाल प्रबन्धकी रचना वि. सं. 1499 में पूर्ण हुई थी इसलिये वह प्रस्तुत प्रबोधप्रबन्धके बादकी रचना है इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं है। क्यों कि जिस प्रतिके आधार परसे यह प्रबन्ध यहां मुद्रित किया गया है उसकी प्रतिलिपि ही सं. 1464 में अर्थात् जिनमण्डन गणीकी रचना के 35 वर्ष पूर्व हुई थी। जैसा कि ऊपर सूचित किया गया है-यह प्रबन्ध भिन्न भिन्न प्राचीन चरितों-प्रबन्धोंके उद्धरणों और अवतरणोंका एक संग्रहात्मक संकलनसा है। इसके प्रारंभ भागमें, 200 पदों वाला वह संक्षिप्त चरित, जो इस संग्रहमें प्रथम कृतिके रूपमें मुद्रित किया गया है, पूर्ण रूपसे अन्तर्मपित कर लिया गया है / इसी तरहसे प्रबन्धचिन्तामणि आदि ग्रन्थोंमें जो वर्णन है उसके भी अनेक अंश यथावत् संकलित कर लिये गये हैं। इस प्रकार इस प्रबन्धमें चरित्रात्मक वर्णनके सिवा उपदेशात्मक और प्रचारात्मक उद्धरणोंका मी खूब संग्रह किया गया है और इसीलिये संग्राहक विद्वान्ने इसका नाम कुमारपालचरित्र या कुमारपालप्रबन्ध न रख कर कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध रखना योग्य माना है। - इस प्रबन्धमें कुमारपालके जीवनविषयकी मुख्य मुख्य घटनाओंका क्रमबद्ध वर्णन दिया गया है जिनका उल्लेख पूर्वकालीन चरित्र प्रन्थोंमें और प्रबन्धोंमें एक या दूसरे रूपमें मिलता है / साथमें प्रसंगोपात्त उपदेशात्मक उल्लेख मी विस्तृत रूपमें संगृहित किये गये हैं जिससे एक प्रकारसे धार्मिक कथाग्रन्थका स्वरूप इसे प्राप्त हो गया है। (४)चतुरशीतिप्रबन्धान्तगेत कुमारपालदेवप्रबन्ध - यह इस संग्रहमें 5 वीं कृति है / राजशेखर सूरिने जो प्रबन्धकोश नामक ग्रन्थ बनाया है उसमें कुल मिला कर 24 प्रबन्ध हैं जिसके कारण उस ग्रंथका दूसरा नाम चतर्विशतिप्रबन्ध मी सुप्रसिद्ध है। इसी तरहका एक चतुरशीतिप्रबन्ध नामका भी संग्रहात्मक ग्रन्थ है जिसमें कुल 84 प्रबन्धोंका संग्रह है। यह प्रबन्ध पूर्ण रूपमें मुझे कहीं नहीं देखनेमें आया / पूनाके राजकीय ग्रन्थसंग्रहमें एक प्राचीन प्रति उपलब्ध है जो खण्डित है। इसमें बहुतसे ऐसे ऐतिहासिक प्रबन्ध हैं जो प्रबन्धचिन्तामणिमें प्राप्त होते हैं। पुरातन प्रबन्धसंग्रह नामक ग्रन्थके संपादनमें, हमने जिस प्रकारके 3-4 प्रबन्धात्मक प्रकीर्ण संग्रहों परसे, ऐतिहासिक प्रबन्धोंका संकलन किया है उसी प्रकारके और प्रायः वैसे ही विषयोंके फुटकल प्रबन्ध, इस संग्रहमें मिलते हैं। इनमेंसे कुमारपाल राजाके जीवनके साथ संबन्ध रखनेवाले प्रबन्धोंको एकत्र रूपमें यहां पर संकलित किये हैं। जिस प्रतिपरसे यह संकलन किया गया है, वह है तो अच्छी पुरानी- हमारे अनुमानसे वि० सं० 1500 के पूर्वकी लिखी हुई होनी चाहिये-पर अशुद्ध बहुत है / इसकी भाषा मी बहुत सादी, कुछ अपभ्रष्ट और एक प्रकारसे बोलचालकी संस्कृत है जो लोकगम्य देश्य भाषाका अनुकरण सूचित करती है। मालूम देता है कि संस्कृत भाषा के प्रारंभिक शिक्षार्थियोंके पठन निमित्त, इसका संकलन किया गया है। इस संकलनमें, कुमारपालके जीवनके विषयकी कुछ ऐसी छोटी छोटी घटनाएं भी संगृहीत हैं जो अन्य प्रबन्धोंमें दृष्टिगोचर नहीं होती। भाचार्य हेमचन्द्रसूरिके प्रबन्धकी मी कुछ ऐसी बातें इस प्रबन्धमें लिखी हुई मिलती हैं जो अन्यत्र अप्राप्य हैं। यद्यपि ये बातें गौण वरूपकी हैं परन्तु कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक तथ्योंको भी प्रदर्शित करती हैं। (5) सोमप्रभाचार्यकृत कुमारपालप्रतियोध संग्रहगत 5 वी रचनामें, सोमप्रभाचार्यकृत प्राकृत बृहत्काय ग्रन्थ कुमारपालप्रतिवोधका ऐतिहासिक सारभाग संकलित है। इस ग्रन्थकी एकमात्र प्राप्त पूर्ण प्रति पाटणके भण्डारमें सुरक्षित है जो ताडपत्रों पर, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक वि० सं० 1458 में गुजरातके प्रसिद्ध पुरातन नगर खंभायतमें लिखी गई है। मुख्य करके प्राकृत भाषामें इसकी रचना की गई है और प्रन्यका विस्तार प्रायः 8800 श्लोकपरिमाण जितना विशाल है / इसके कर्ता सोमप्रभाचार्य हैं जिनने वि० सं० 1241 में इसकी रचना पूर्ण की। ये आचार्य स्वयं राजा कुमारपाल और आचार्य हेमचन्द्रके केवल सम-समयवर्ती ही नहीं थे अपितु उनके साथियोंमेंसे थे, अतः इनकी इस रचनाका ऐतिहासिक महत्त्व बहुत अधिक है। इस ग्रन्थका सर्वप्रथम संपादन मेरे द्वारा हो कर, बडौदाके [ भूतपूर्व ] गायकवाड राज्यकी सुप्रसिद्ध प्राध्यप्रन्थमाला-गायकवाडस् ओरिएन्टल सिरीझ-में, ई०स०१९२० में प्रकाशन हुआ। उस संपादनमें, मैंने ग्रन्थगत जितना ऐतिहासिक भाग था उसका पृथक् तारण कर, परिशिष्टके रूपमें संकलित कर दिया था, जिससे इस ग्रन्थका, जो जिज्ञासु विद्वान् केवल ऐतिहासिक वस्तु जाननेकी दृष्टिसे ही उपयोग करना चाहे, उनको सरलतासे वह प्राप्त हो सके / वह ग्रन्थ अब प्रायः अप्राप्य सा है। अतः उसका वह ऐतिहासिक सारभागरूप संकलन हमने यहां पर पुनर्मुद्रित कर दिया है। कुमारपालके इतिहासके विषयमें अन्वेषण और अनुसन्धान करनेवाले विद्वानों-लेखकोंको इसका अवलोकन अत्यावश्यक है। कुमारपालके जीवन चरितका, सूत्र रूपमें परन्तु सर्वथा प्रामाणिक ऐसा, सबसे पहला निरूपण, इसी ग्रन्थमें मिलता है / इस ग्रन्थके प्रास्ताविक रूपमें हमने ग्रन्थकारके परिचयको लक्ष्य कर एक संस्कृत वक्तव्य लिखा है तथा साथमें अन्यके परिचयको लक्ष्य कर इंग्रेजी वक्तव्य भी दिया है। जिज्ञासुओंके अध्ययन और अवलोकनके निमित्त ये दोनों वक्तव्य मी इस प्रास्ताविकके साथ प्रकट कर दिये जाते हैं। रासमाला नामक गुजरातके इतिहासका प्रधान और पहला ग्रन्थ अंग्रेज विद्वान् किन्लॉक फार्बसने अंग्रेजीमें लिखा जिसका गुजराती भाषान्तर पढ कर मेरे मनमें कुमारपालके इतिहासके मौलिक साधनोंका अध्ययन, अवलोकन, अन्वेषण आदि करनेकी विशेष रुचि उत्पन्न हुई / सौभाग्यसे मुझे इस परमाईत नृपतिकी राजधानी अणहिलपुर पाटणमें ही कुछ वर्षों तक रहनेका सुयोग मिला और मेरी अल्प-स्वल्प ज्ञानपिपासाकी परितृप्तिमें परमोपकारकका स्थान पाने वाले स्वर्गवासी परममुनिपुङ्गव प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराज तथा उनके ज्ञानरसिक, ग्रन्थोद्धारक, सुशिष्य मुनिवर श्रीचतुरविजयजी महाराजके सात्विक सान्निध्यमें, वहांके बहुमूल्य एवं विशिष्ट समृद्धिपरिपूर्ण भिन्न भिन्न ज्ञानभण्डारोंके निरीक्षणका यथेष्ट अवसर मिला / उसी. समयसे मैंने, अन्यान्य साहित्यिक सामग्रीके साथ कुमारपालविषयक साहित्यका भी संग्रह आदि करना प्रारंभ किया। प्रायः 45 वर्ष जितने जीवनके विशेष कालमें, जो कुछ इस विषयकी सामग्री में प्राप्त कर सका उसे यथासाधन प्रकाशमें रखनेका प्रयत्न करता रहा। इस प्रयत्नके फलस्वरूप, जितने प्रबन्ध, चरित आदि प्रकाशित हुए हैं उनका कुछ निर्देश, इस प्रास्ताविकके प्रारंभमें ही किया जा चुका है / प्रस्तुत संग्रह भी उसी लक्ष्यका एक और विशिष्ट फल है। अभी एक और भी ऐसा संग्रह अवशिष्ट है-पर शायद अब उसे मैं प्रकाशमें रखनेका अवसर न पा सकूँगा। इस अवशिष्ट संग्रहमें, मेरा लक्ष्य प्राचीन गुजराती-राजस्थानी भाषामें कुमारपाल विषयक जितना साहित्य उपलब्ध है उसे एकत्र कर एक सुसंपादनके रूपमें प्रकाशित करना है। बहुतसी सामग्री तो संकलित रूपमें तैयार की हुई पडी है-परंतु अब मन और शरीर दोनों इसके लिये उतने उत्साहित नहीं दिखाई पडते। इस संग्रहका मुद्रणकार्य प्रारंभ करते समय मेरे मनमें, इसके साथ कुमारपालका एक संपूर्ण एवं प्रमाणभूत विस्तृत इतिहास लिखनेका संकल्प था; क्यों कि इस विषयकी सबसे अधिक सामग्री आज तक मेरे ही द्वारा संपादित हो कर प्रकाशमें आई है और जो कुछ अवशिष्ट सामग्री है उसका भी प्रायः सर्वाधिक संकलन एवं संचय मेरे समीप है। महान् गुजरात और विशाल राजस्थानके इतिहासमें कुमारपालका राज्यशासनसमय सर्वोत्तम युग जैसा रहा है / सारे पश्चिम भारतका वह सुवर्णयुग था। समृद्धि, संस्कृति, स्वप्रभुत्व और सौराज्यकी दृष्टि से वह युग अपनी चरम सीमापर पहुंचा हुआ था / कुमारपाल एक अत्युच्च आदर्शजीवी राजा था। उसने अपने राज्यको-राष्ट्रको सुसंस्कारसंपन्न, समृद्धिपरिपूर्ण एवं सर्वसुखसुलभ बनानेका यथेष्ट प्रयत्न किया और उसमें यथेच्छ सफल हुआ। इस युगके इतिहासका यथार्थ चित्रण हमारे लिये बहुत प्रेरणादायक और गौरवप्रदर्शक है। पर इस इतिहासके आलेखनका कार्य मेरे लिये अब शक्य नहीं मालूम देता। मेरी मन:कामना है कि हमारी संपादित एवं प्रकाशित इस सामग्रीका उपयोग कर, कोई अधिक सुयोग्य विद्वान् ऐसा सुन्दर इतिहास लिख कर इस लक्ष्यकी परिपूर्ति करे। भनेकान्तविहार / ममदाबाद -मुनि जिन विजय Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गवासी मुनिवरश्री ललितविजयसूरिसंकलित -हिन्दी 'कुमारपालचरित'के प्रारम्भमें लिखित प्रस्तावनाराजर्षि कुमारपाल और महंर्पि हेमचन्द्राचार्य सन्स्यन्ये कवितावितानरसिकास्ते भूरयः सूरयः, मापस्तु प्रतिबोध्यतें यदि परं श्रीहेमसरेगिरा। उन्मीलन्ति महामहांस्यपि परे लक्षाणि ऋक्षाणि खे, नो राकाशशिनं विना बत भवत्युजागरः सागरः॥ खर्गे न क्षितिमण्डले न वडवावके न लेमे स्थिति, त्रैलोक्यैकहितप्रदाऽपि विधुरा दीना दया या चिरम् / चौलुक्येन कुमारपालविभुना प्रत्यक्षमावासिता, निर्भीका निजमानसौकसि वरे केनोपमीयेत सः॥ अखिलविद्यापारंगत, सकलशास्त्रनिष्णात, सर्वतंत्रखतंत्र, कलिकाल-सर्वज्ञ भगवान् श्रीहेमचंद्रसूरीश्वर तथा उनके परमभक्त, परमाईत, धर्मात्मा, अति दयालु, चौलुक्य-चूडामणि, गुर्जरधराधिपति, राजर्षि श्रीकुमारपालदेव के भव्यजनमनोरंजक, लोकोत्तर, पवित्र जीवनचरित्रके विषयमें, पूर्व कालके अनेक जैन विद्वानोंने विविध ग्रंथ लिखे है और इन महापुरुषोंके अगणित गुणगणका मुक्त कण्ठसे भक्तिभरित गान कर खनामको कृतार्थ किया है। भावी प्रजाजनोंको, भक्तिका मार्ग दिखला कर, आत्मिक शक्तिके अभ्युदय करनेमें अत्यंत अवलंबन दिया है। हमारे सनने और देखनेमें आज तक जितने ग्रंथ आये हैं, उनके नामादि पाठकोंके जाननेके लिए यहाँ लिखे जाते हैं 1. कुमारपालप्रतिबोध, सोमप्रभाचार्यकृत / इसका दूसरा नाम जिनधर्म-प्रतिबोध-हेमकुमारचरित्र भी है / इसके कर्ता श्रीसोमप्रभाचार्य बडे भारी विद्वान् थे / इन्होंने एक काव्य लिखा है जिसके सौ तरहसे अर्थ किए हैं। इस निमित्त इन्हें 'शतार्थी' की बहुविद्वत्तासूचक उपाधि मिली थी / इनकी कवित्वशक्ति बहुत अच्छी थी। जिन्होंने इनकी बनाई हुई 'सूक्तिमुक्तावली'-जिसका अपर नाम सिंदूर प्रकर है-का पाठ किया है वे इस बात __ को अच्छी तरह जानते हैं। ये संस्कृतके समान प्राकृत भाषाके भी पूरे पारंगत थे। महाराज कुमारपालदेवके राज्यत्व कालमें 'सुमति नाय चरित्र' नामक एक बहुत बडा ग्रंथ प्राकृतमें लिखा है / इस 'कुमारपाल चरित्र में भी बहुत भाग प्राकृत ही है। विक्रम संवत् 1241 में इस ग्रंथकी समाप्ति हुई है / अर्थात् महाराज कुमारपालकी मृत्युसे 11 वर्ष बाद यह ग्रंथ लिखा गया है / ग्रंथ बहुत बड़ा है / श्लोकसंख्या कोई इस की 9000 के लगभग होगी। 2. मोहपराजयनाटक, यशपालमंत्रीकृत / सुप्रसिद्ध युरोपीय पंडित प्रो. पीटरसन ( Prof. Peterson ) ने, पूनाकी डेक्कन कालेज (Deccan College )के विद्यार्थीयों के सन्मुख श्रीहेमचंद्राचार्यके विषयमें एक व्याख्यान दिया था। उसमें, इस ग्रंथके विषयमें बोलते हुए उन्होंने विद्यार्थीयोंसे कहा था कि-"इस तुम्हारी कॉलेजके, उस अगले दिवानखानेके ही 'पुस्तक संग्रह' में एक पुस्तक पडी है, जिसमें यह वृत्तांत लिखा हुआ है कि, कुमारपाल राजाने किस वर्ष के किस महिने और किस दिनको जैन धर्म स्वीकार किया। क्रिश्चीयन लोगोंके 'पिलप्रीम्स प्रोप्रेस' नामक पुस्तककी तरह, अलंकार रूपसे, कुमारपाल राजाके जैन धर्ममें दीक्षित होनेका वर्णन किया गया ... है। यह पुस्तक नाटकके रूपमें ताडपत्र पर लिखी हुई है, और 'मोहपराजय' इसका नाम है। हेमचंद्राचार्यसे संबंध रखने वाले इतिहास पर, प्रकाश डालने वाली पुस्तकोंमेंसे, यह पुस्तक सबसे प्राचीन है / इस पुस्तकके 1 विद्वानोंके अवलोकनार्थं वह काव्य हम यहां उद्धृत करते हैं कल्याणसार सवितान हरेक्षमोह कांतारवारणसमान जयाद्यदेव / धर्मार्थकामद महोदय वीर धीर सोमप्रभाव परमागम सिद्धसूरे // इस काम्यके ऊपर खोपश व्याख्या है जिसमें पृथक् पृथक् 10. रीति से व्याख्यान लिखे हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपाल चरित्र संग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य कर्ताका नाम यशःपाल है। कुमारपाल राजाकी मृत्युके बाद, उसके राज्यका खामी जो अजयपाल हुआ था, उस का यह एक प्रधान था / इस 'मोहपराजय' नाटकमें, कुमारपाल राजाके साथ, धर्मराज और विरतिदेवी की पुत्री कृपासुन्दरी का पाणिग्रहण, तीर्थंकर महावीर और आचार्य हेमचंद्रकी सन्मुख, कराया गया है। जैन धर्मकी इस . बढी भारी विजय की मिति संवत् 1216 के मार्गशीर्ष मासकी शुक्ल द्वितीया है-अर्थात् ईवीसन् 1960 में, कुमारपाल राजाने प्रकट रूपसे जैन धर्मका स्वीकार किया था / इस तारीखके निश्चयमें संशयित होनेका कोई मी .. कारण नहीं है, क्यों कि यह पुस्तक ईखीसन् 1173 से 1176 के बीचमें-अर्थात् इस उपर्युक्त तारीखके बाद 16 वर्षके अंदर ही लिखी हुई होनी चाहिए।" 3. प्रबंधचिंतामणि, मेरुतुंगाचार्यकृत / यह ग्रंथ बहुत अच्छा है। संस्कृत भाषामें, गद्यमें, इस की रचना की गई है। इसमें अनेक ऐतिहासिक घटनाओंका उल्लेख है / राजतरंगिणीके ढंग पर लिखा हुआ है। . आधुनिक पाश्चात्य विद्वानोंने इस ग्रंथको अन्य सब ऐतिहासिक लेखोंसे, अधिक विश्वसनीय माना है / गुजरातके इतिहासके लिए तो केवल यही एक आधारभूत ग्रंथ है। इसका इंग्रेजीमें अनुवाद करा कर, बंगालकी 'रॉयल एशियाटिक सोसाइटी'ने प्रकट किया है / इसके अंतमें कुमारपाल व हेमचंद्राचार्यका विस्तृत वर्णन है / संवत् 1361 के फाल्गुन मासकी शुक्ल पूर्णिमाको, काठीयावाडके प्रसिद्ध नगर 'वढवाण में इसकी समाप्ति हुई थी। 4. प्रभावकचरित्र, प्रभाचंद्राचार्यकृत / इस ग्रंथमें, जगत्में जैन धर्मकी प्रभावना करने वाले अनेक प्रभावक पूर्वर्पियोंके जीवन चरित्र हैं। सारा ग्रन्थ संस्कृत पद्यमय है / कविता बडी रमणीय है / संस्कृत-साहित्यके प्रेमियोंको ' अवश्य अवलोकन करने लायक है। इसमें पूर्व कालके 23 जैन महात्माओंका वर्णन है। अंतमें हेमचंद्राचार्यका भी विस्तारसे उल्लेख है। 5. कुमारपालचरित्र, जयसिंहसूरिरचित / 6. कुमारपालचरित, श्रीसोमतिलकसूरिकृत / 7. कुमारपालचरित्र, श्रीचारित्रसुंदरकृत। 8. कुमारपालचरित्र, हरिश्चंद्रकृत (प्राकृत!)। 9. चतुर्विशतिप्रबंध, श्रीराजशेखरसूरिकृत / 10. कुमारपालरास (गुजराती) श्रीजिनहर्ष कृत। 11. कुमारपालरास (गुजराती) श्रावक ऋषभदास रचित / इन पुस्तकोंके अतिरिक्त 'विविधतीर्थकल्प' 'उपदेशतरंगिणी' तथा 'उपदेशप्रासाद' आदि बहुतसे अन्य ग्रंथों में मी इन महापुरुषोंका वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ-गणनामें हमें अभी एक और महत्ववाले ग्रंथका नाम लिखना बाकी है-जो कि इस प्रस्तुत चरित्र का मूलभूत है। इसका नाम है 'कुमारपालप्रबंध' / संवत् 1499 में, तपगच्छाचार्य महाप्रभावक श्रीसोमसुंदरसूरीश्वरजीके सुशिष्य श्रीजिनमंडन गणिने इसकी रचना की है। सारा ग्रंथ सरल और सरस संस्कृतमय है। गद्य और पद्यसे मिश्रित है। बीच-बीच में प्राकृत पद्य भी प्रसंगवश उद्धृत किए गए हैं। इस ग्रंथका चरित्रात्मक भाग, केवल कविकी कल्पना मात्र है, ऐसा नहीं है; परंतु यथार्थ ऐतिहासिक घटना खरूप है / इसका प्रमाण पाठकोंको इससे मिल सकेगा कि, इस चरित्रको विश्वसनीय और उपयोगी समझ कर, बडौदाके विद्याविलासी नृपति श्रीसयाजीराव महाराजने, पारितोषिक दे कर, विद्वान् श्रावक श्रीयुत मगनलाल चूनिलाल वैद्य (बडौदा) द्वारा, गुजराती भाषामे अनुवाद करा कर, राज्यकी तर्फसे छपवा कर प्रकाशित किया है। इस पुस्तकमें गुजरातके इतिहासकी बहुतसी उपयोगी बाते हैं। अणहिलपुर-पाटन नगरकी स्थापना (विक्रम संवत् 802) से ले कर कुमारपाल राजा (सं. 1230) पर्यंतकी गुर्जरराज्यप्रवृत्ति विगेरे इसमें संक्षिप्तसे वर्णन की गई है। सिद्धराज जयसिंहका, बंगालके महोबकपुर (महोत्सवपुर) के राजा मदनवर्माके साथ, समागम होनेका उल्लेख इसी ग्रंथमें मिलता है, जो बात, जनरल Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य कनिंगहाम (General Cunnigham), के 'हिंदुस्थानका प्राचीन भूगोल' (The Ancient Geography of India) वाली हकीकतको पुष्ट करती है / जुदा जुदा देशोंको जीतना, विद्या-कला-कौशल्य आदिका देशमें प्रचार करना, नीति और धर्ममय जीवन बितानेके लिए प्रजाको अनेक तरहसे प्रवृत्त करना, हिंसा, व्यसन आदि अधःपात कराने वाले बालोंका सर्वथा नाश कराना और सोमेश्वर, शत्रुजयादि विविध तीर्थोका जीर्णोद्धार कराना व अनेक नवीन मंदिरों का बनवाना-इत्यादि विविध विषयोंका मनोहर विवेचन इस पुस्तकमें किया गया है। अधिक क्या ! उस समयकी राजकीय, धार्मिक और सामाजिक स्थितिका एक उत्तम चित्ररूप यह प्रबंध है। इसी ही 'कुमारपालप्रबंध' के ऊपरसे लेखकने (ख० मुनि ललितविजयजीने) संक्षेपमें, यह 'कुमारपालचरित' विशेष कर राजपूताना और पंजाबादि देशवासी जैनी भाईयोंके हितार्थ हिंदीमें लिखा है। इस पुस्तकमें दो ऐसे महान् पुरुषोंका वर्णन है कि जिनकी समानता करने वाले उनके बाद, फिर इस भारतवर्षमें कोई हुए ही नहीं / इन पुण्य प्रभावकोंके संपूर्ण गुणोंका वर्णन तो साक्षाद् बृहस्पति भी करनेको समर्थ नहीं है, परंतु 'शुमे यथाशक्ति यतनीयम्' इस सूक्तिके अनुसार प्रबंधके मूल लेखक (श्रीजिनमंडनगणि) ने, इन महात्माओं के प्रति अपना भक्तिभाव प्रकट करनेके लिए, पूर्व ग्रंथों द्वारा तथा वृद्ध जनोंके मुख द्वारा, जो कुछ वृत्तांत श्रवणगोचर हुआ उसको भावी प्रजाके हितार्थ पुस्तक रूपमें लिख कर, अपनी परोपकार वृत्ति प्रकट की / इन प्रातःस्मरणीय महर्षि और राजर्षि के आदर्श जीवनका एक क्षण भी ऐसा नहीं है कि जिसका जानना अनुपयुक्त हो, परंतु पूर्वकालीन भारतीयोंका, आधुनिकोंकी तरह इतिहास तत्त्वकी तरफ विशेष लक्ष्य न होने से, इन महात्माओंके समग्रजीवनचरित्ररूप अमृतका पान कर, हम अपनी आत्माको संतुष्ट नहीं कर सकते / इस प्रबंधमें जिन बातोंका उल्लेख है, वह केवल खास खास विशेष घटनाओंका ही समझना चाहिए। ___ यहां पर हम यदि, पाठकोंके सुबोधार्थ इन महापुरुषोंके पवित्र चरित्रका कुछ सारांश लिख देवें तो, संभव है विशेष उपयुक्त होगा। महर्षि श्रीहेमचंद्राचार्य स्तुमत्रिसंध्यं प्रभुहेमसूरेरनन्यतुल्यामुपदेशशक्तिम् / अतीन्द्रियज्ञानविवर्जितोऽपि यः क्षोणिभर्तुळधित प्रबोधम् // -श्रीसोमप्रभाचार्य। विक्रम संवत् 1145 की कार्तिकी पूर्णिमाको, सकलसत्वसमूहको अद्वितीय आह्वाद उत्पन्न करने वाला, सांसारिक विषयोंके आंतरिक दाहसे संतप्त आत्माओंको शांति पहुंचाने वाला, सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप बलौकिक रनोंको अपने गर्भ में रखने वाले पवित्र जैनधर्मरूप महासागरकी, आनंदोत्पादक भगवती अहिंसाखरूपिणी / तरंगोंको अखिल भूमंडल में फैलाने वाला, भव्यजनरूप कमनीय कुमुदोंको विकखर करने वाला और अपनी अपूर्व बालज्योत्सा द्वारा, अज्ञानांधकारसे आछन्न भारत धराको उज्वल करने वाला, तथा जिसका प्रकाश शाश्वत रहने पाला / ऐसे लोकोत्तर चंद्रके समान, इस महामुनींद्र हेमचंद्रका, प्राचीदिक्सदृश पूजनीया देवी पाहिनीके पवित्र गर्मसे अवतार हुआ था / 'जगत में, जब जब धर्मकी कोई विशेष हानि होने लगती है तब तब, उसकी रक्षा करने के लिए अवश्य ही किसी महाज्योति-युगप्रधानका अवतार होता है। इस प्राकृतिक नियमानुसार, जब जैन धर्ममें विशेष क्षीणता पहुंचने लगी, परस्पर सांप्रदायिक झगडोंकी जड जमने लगी, विपक्षिओंकी ओरसे अनेक प्रकारके प्रहार पड़ने लगे और जैनोंका आत्मसंयम शिथिल होने लगा, तब, समाज कोई न कोई ऐसी व्यक्तिकी अपेक्षा कर रहा था कि जो अपने सामर्थ्य द्वारा, जैनधर्म पर घिरे हुए, इस विपत्ति रूप बादलका संहार करे / समाजके इस मनोरषको भगवान् हेमचंद्रने पूर्ण किया। इस प्रचंड गति वाले महान् दिव्य वायुके सामर्थ्यसे वह मेघाडंबर उड गया / Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वकम्य दीक्षाग्रहण चंदगच्छके मुकुट खरूप श्रीदेवचंद्रसरिने अपने ज्ञानबलसे, इस व्यक्तिद्वारा जैन धर्मका महान् उदय होने वाला जान कर, नव वर्ष वाले इस छोटेसे बच्चको ही, संवत् 1154 में चारित्ररूप अमूल्य रन सौंप दिया। पाठकों को यह पढ कर आश्चर्य होगा कि इतना छोटा बच्चा साधुपनेकी जिम्मेदारियोंको क्या समझता होगा और साधुजीवनकी कठिनाईयोंको कैसे सहन कर सकता होगा! तथा बहुतसे अज्ञान मनुष्य इस बात पर उपहास्य ही करेंगे / परंतु यह एक उनकी अज्ञानजन्य भूल ही समझना चाहिए / महापुरुषोंका चरित्र लौकिक न हो कर लोकोत्तर होता है; यह अवश्य ध्यानमें रखना चाहिए। चाहे वे वय और शरीरसे भले ही छोटें हों, परंतु सामर्थ्य उनका बहुत बड़ा होता है। वे अपने समकालीन लाखों मनुष्यों जितनी शक्ति, अकेले ही धारण करे रहते हैं। जगत्में उनकी पूजा अपूर्व गुणोंके कारण ही होती है; वय या शरीरके निमित्तसे नहीं / 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः / यदि जगत्का इतिहास ध्यानसे देखा जाय तो इस बातके प्रमाणभूत बहुत से उदाहरण मिलेंगे / भारतवर्ष में अनेक ऐसे महापुरुष हो गए हैं, जिन्होंने, साधारण जनसमाजकी धर्मचक्षुमें दीख पडने वाली बाल्यावस्थामें ही, अपूर्व कार्य किए हैं। श्रीशंकराचार्य तथा महाराष्ट्रीय भक्तशिरोमणि ज्ञानदेव जैसे समयं पुरुषों ने 15-16 वर्ष जैसी अल्प वय में ही, गहनतत्त्वपूर्ण भाष्य लिख डाले थे, कि जिनको समझनेके लिए मी साधारण मनुष्योंकी तो आयु ही खतम हो जाती है। जैनाचार्य श्रीअभयदेवरि, सोमसुंदरसूरि आदि अनेक पुरुषोंने बाल्यावस्था में ही बडे बडे प्रतिष्ठित आचार्यादि पद प्राप्त किये थे। प्रो. पीटरसन, इस अल्पवयमें दीक्षा देने वाली बात ऊपर लिखते हैं कि-"देवचंद्रने इस छोटेसे बच्चेको दीक्षा दे कर अपना शिष्य बना लिया-यह आश्चर्य जैसा मालूम देगा, परंतु इसमें आश्चर्य होने का कोई कारण नहीं है / इस प्रकारकी प्रपा, इस देश (भारतवर्ष ) में तथा अन्य देशों में, प्राचीन कालसे चली आ रही है, और चल रही है।.........पुस्त उम्र वालेको ही साधु बनाना चाहिए, यह नियम है अच्छा, परंतु अन्य समी धर्मोमें देखा जायगा तो इस तरह अल्पवय वाले ही, बहुतसे नवीन भाचार्य पसंद किए गए मालूम देंगे।" विद्याभ्यास . पूर्व जन्मके सुसंस्कार और क्षयोपशमकी प्रबलताके कारण थोडे समयमें ही, हेमचंद्र मुनिने सर्व शाखाका अध्ययन कर, पूर्ण पांडिल्य प्राप्त कर लिया। स्मरण-शकि और धारणा-शकि बहुत तीन होनेसे अल्प परिश्रमसे ही अपार ज्ञान संपादन कर लिया। विद्याभिरुचि अत्यंत तीन होने के कारण भगवती सरखती देवी प्रसन्न हो कर, सयं वर प्रदान करने के लिए आई थी! जितेन्द्रियता आपका आत्मसंयमन और इंद्रियदमन अल्पत उत्कट था। इतनी अल्प वयमें, इस प्रकारकी वैराग्य इचिका अस्तित्व होना, अत्यंत अश्चर्यकारक है। संसार भरमें, सबसे कठिन पास्य नियम ब्रह्मचर्य है। जिनका वर्णन रोमांच खडे हो जाय ऐसे घोर तपोंको, असंख्य वर्षों तक तपने काले बडे बडे योगी मी, इस दुष्कर नियमकी कठोर परीक्षा में, अनुत्तीर्ण हो गए हैं। उसी ब्रह्मचर्यको, पूर्ण रूपसे, हेमचंद्र मुनिने किस तरह धारण किया था, यह इस चरित्रांतर्गत पधिनी (पृष्ट 25) वाले वृत्तांतके पढनेसे, अच्छी तरह बात हो जाता है। धन्य है, इस महापुरुषकी सत्त्वशीलताको। पूर्ण ब्रह्मवृत्तिको / निर्विकार दृष्टिको ! और उत्कृष्ट योगिताको! अहो ! कितनी जितेन्द्रियता ! कैसी मनोगुप्ति ! कितना बडा दृढ संकल्पबल ! सच है इस प्रकारकी सचरितताके विना अद्भुत विधायें का प्राप्त हो सकती है, और जगत्का भला मी कहांसे हो सकता है ! इस महात्माके ब्रह्म तेजसे कोयलोंका ढेरे मी सुवर्णमय हो जाता पा! (पृष्ठ 23) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य आचार्यपद प्राप्ति इस प्रकार हेमचंद्र मुनिके ज्ञानबल और चारित्रबलकी उत्कृष्टताका प्रवाह जैन संघमें सर्वत्र प्रसर गया / 'लव जैन धर्मकी विजयपताका थोडे ही समयमें सारे भूमंडलमें उडने लगेगी- इस प्रकार संघमें आनंदवार्ता प्रयतेने लगी। संघके आग्रहसे तथा शासनकी महिमा बढानेके लिए, गच्छाधिपति श्री देवचंद्रसूरिने नागपुर नगरमें, संवत 1162 के सालमें हेमचंद्रमुनिको आचार्यपद पर अभिषिक्त किया। ___ शासनोद्धार करनेकी प्रतिज्ञा जब आपको आचार्यपद दिया गया और जैन धर्मकी धुरा कंधे पर रखी गई, तब शासनकी स्थिति देख कर थापके मनमें अनेक प्रकारके विचार उप्तन्न होने लगे / जैनधर्म का उद्धार और प्रचार जगत् में किस तरह होयह बात दिन और रात मनमें घुलने लगी। हरएक उपायसे भी परमात्माके शासनकी वैजयन्ती पताकाको, एक दफे फिर मी, भारतवर्षमें फरकानी चाहिए, ऐसा पूर्ण उत्साहके साथ आपने दृढ संकल्प किया / जब तक कोई राजा महाराजा इस धर्मका नायक न हो, तब तक यह संकल्प सिद्ध होना मुश्किल है-ऐसा विचार कर, किसी महाराजको प्रतिबोध करनेके लिए, मंत्राराधन कर, देवतासे वर माँगा / आपके प्रबल मनोबलसे, संतुष्ट हो कर देवताने भी ईप्सित वर प्रदान किया। गुर्जरपति सिद्धराजका समागम . विविध देशोंमें विहार करते हुए और उपदेशामृत द्वारा अनेक भव्य जीवोंको प्रतिबोध करते हुए, क्रमसे राज्यनगर अणहिलपुर-पाटणमें प्रवेश किया। इस समय महाराज सिद्धराज जयसिंह यहां पर प्रजाप्रिय. नृपति थे। धीरे धीरे सारे शहरमें तथा राजदरबारमें आपकी विद्वत्ताकी ख्याति फैलने लगी, जिसे सुन कर महाराज मी आपके दर्शनके लिए उत्कंठित हुए। प्रसंगवश एक दिन आपका और महाराजका समागम हुआ। राजा आप की विद्वत्ता और सच्चरितता पर बडा मुग्ध हुआ। 'आप कृपा कर निरंतर यहाँ आया करें और धर्मोपदेश द्वारा हमें समार्ग बताया करें। इस प्रकारकी राजाकी विज्ञप्ति, धर्मकी प्रभावनाके निमित्त, स्वीकार कर ली / राजाकी इच्छानुसार, आपका आगमन निरंतर राज्यसभामें होता था / नाना प्रकारकी तत्त्वचर्चाएं हुआ करती थीं। देश-देशांतरोंसे बनेक मतोंके विद्वान् अपनी विद्वत्ताका परिचय देनेके लिए सिद्धराजकी सभामें उपस्थित होते थे / सबके साथ हेमचंद्राचार्यका वाद-विवाद होता था, और उसमें सदा आप ही का जय होता था। - जैनधर्ममें अटल श्रद्धा आपका आत्मा जैन धर्ममें पूर्ण रंगा हुआ था / आर्हत धर्म पर आपकी अटल श्रद्धा थी। यदि, जैन धर्मकी बयाचनिको सर्वत्र फैलानेके लिए, रसातलमें मी जाना पड़े, तो, आप वहां जानेके लिए भी तैयार थे। इस प्रकार जैनधर्म पर जो आपका विश्वास था वह धार्मिक-मोह जन्य नहीं था, किंतु जैनधर्मकी सत्यताके कारण पा। आप एक स्तुतिमें वीतराग महावीर प्रभुकी स्तवना करते हुए कहते हैं कि न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु / यथावदाप्तात् परीक्षयाच त्वामेव वीर ! प्रभुमाश्रिताः स्म // वर्षाद- वीर ! केवल श्रद्धा-अंधश्रद्धा से ही तेरेमें हमारा पक्षपात है तथा केवल द्वेषमात्रसे ही अन्योंमें हमारा बनादर है, ऐसा नहीं है; किंतु परीक्षापूर्वक, हमारा यह व्यवहार है / जैन धर्मके सिद्धान्तोंको आप अखंडनीय ते थे, और अपने ज्ञानबलसे उनकी अखंडनीयता. समस्त प्रवादियोंके सामने, अकाट्य प्रमाणों द्वारा, बडी निर्भीकता के साप, सिद्ध करते थे। इसी ही स्तुतिमें आप अन्यत्र कहते हैं कि- इमां समक्षं प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे / न वीतरागात्परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकांतमृते नयस्थितिः // Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य अर्थात्-प्रतिपक्षियोंके सन्मुख बडी गर्जना करके कहता हूं कि, जगत्में वीतरागके सदृश तो कोई अन्य देव नहीं है और अनेकांत (स्याद्वाद-जैन ) धर्मके सिवा कोई सत्य तत्व नहीं है / निःपक्षपातता हम ऊपर कह आये हैं कि, आपकी जो धार्मिक श्रद्धा थी वह पक्षपातपूर्ण न हो कर, तास्त्रिकी थी / इस का प्रमाण, सिद्धराजने जब आपको यह पूच्छा था कि-'जगत्में कौनसा धर्म संसारसे मुक्त करनेवाला है ?? इसके उत्तरमें आपने जो ब्राह्मण पुराणान्तर्गत संखाख्यानका अधिकार सुनाया और धर्मगवेषणाके लिए जो निःपक्षपात भाव प्रकट किया वह आपके जीवनके निष्कर्षका एक असाधारण उदाहरण है / इस प्रसंग ने आपके जीवनको अत्यंत महान् सिद्ध कर दिया है। यदि आप, उस समय इस प्रकारका मध्यस्थता सूचक जवाब न दे कर, जिस धर्मके ऊपर आपका पूर्ण विश्वास था, उसीका नाम लेते, तो आपको कौन रोकने वाला था ! ऐसा विद्वानोंमें कौन था जो आपके कथनको खंडित कर सकता! किन्तु आप यह अच्छी तरह जानते थे कि जो भव्य और निःपाक्षपाती धर्मेच्छु होगा उसको तो, गवेषणा करने पर, निस्संदेह जैनधर्म सत्य धर्म ही प्रतीत होगा / क्यों कि आपने भी खयं जैनधर्मको सत्यताके कारण ही खीकार किया था। प्रो. पीटरसन इस विषयमें लिखते हैं कि-"सिद्धराजको धर्मसंबंधी जो शंकायें होती थीं, उनको, वह अन्य आचार्योंकी माफक, जैनाचार्य हेमचंद्रको मी पूछता था, और जब, अन्य आचार्य, राजाके मनको संतुष्ट कर सके ऐसा जवाब नहीं दे सकते थे, तब हेमचंद्र अनेक दृष्टांतों द्वारा, ऐसा रमणीय उत्तर देता था कि, जिससे सिद्धराजका मन खुश खुश हो जाता था।" एक समय सिद्धराजके मनमें यह शंका हुई कि 'जगत्में मनुष्यका स्थान कैसा है तथा मनुष्यका उद्देश्य क्या है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है ?" जुदा जुदा अनेक धर्माचायोंके पाससे उसने इसका जवाब मांगा परंतु किसीसे संतोषकारक जवाब न दिया गया। सब ही ने उत्तर देनेके समय, अपना मत श्रेष्ठ बतला कर, अन्य धर्मोकी निन्दा की। अंतमें सिद्धराजने निराश हो कर, हेमचंद्राचार्यसे इसका जवाब मांगा, तब, उसने एक बहुत अच्छा दृष्टांत दे कर सिद्धराजकी शंकाका निराकरण किया ।...........सिद्धराज इस जवाबको सुन कर बहुत खुश हुआ।" हेमचंद्राचार्यके इस निष्पक्षपातपन पर प्रो. पीटरसन स्वयं बडा मुग्ध हुआ था। सिद्धराजका अवसान इस प्रकार, महाविद्वान् श्रीहेमचंद्राचार्यके सहवाससे, सिद्धराजके मनमें, जैनधर्मके विषयमें, बहुत कुछ आदर उत्पन्न हो गया था / यद्यपि, स्पष्ट रूपसे उसने अपने कुलधर्मका त्याग नहीं किया था, तथापि, जैनधर्मकी तरफ उसका भक्तिभाव विशेष हो गया था। वह हेमचंद्राचार्यको बडी आदरकी दृष्टि से देखता था / 'सिद्ध-हैमशब्दानुशासन' नामक महान् व्याकरण प्रन्थ आपने इसीके कथनसे बनाया था। यह राजा बडा न्यायी और विद्याविलासी था। 49 वर्ष तक राज्यभार वहन कर संवत् 1199 में, इसने देह छोड दिया। हेमचंद्राचार्यका विहार जब तक, सिद्धराज जीवित था तब तक, बहुत कर के आपका निवास, पाटन ही में रहता था। यद्यपि शामि, मुनिजनोंको चिरकाल पर्यंत, एक स्थानमें रहनेका निषेध किया है, परंतु आप उत्सर्ग - अपवाद और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके पूर्ण ज्ञाता थे / अतः आपने, अनेक प्रकारसे जैन धर्मकी प्रभावना होनेका महान् लाभ समझ कर, राजाके उपरोधसे, अधिक समय तक, पाटनमें ही रहना स्वीकार किया था। गुरु महाराज और जैन संघकी मी यही इच्छा थी। जब सिद्धराजका देहपात हो गया. तब आपने थोडे समयके लिए, पाटन छोड दिया और अन्य प्रदेशोंमें विचरण किया। इस विहारकालमें आपने जैनधर्मकी बहुत प्रभावना की / हजारों मनुष्योंको जैनधर्मका Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य स्वीकार कराया। अपने अनुपम उपदेश द्वारा, प्रजाजनोंको नैतिक और धार्मिक जीवनका सन्मार्ग दिखाया। अवकाशके समयमें अनेक ग्रंथोंकी रचना कर, जैन-साहित्यकी शोभामें असाधारण अभिवृद्धि की और भारतकी भावी प्रजाके ऊपर अत्यंत उपकार किया। पुनः पाटनमें प्रवेश सिद्धराजके मरने बाद गुर्जरभूमिके अधिपति महाराज कुमारपाल देव हुए। कितनेक वर्षों तक तो वह, अपने राज्यकी सुव्यवस्था करनेमें तथा शत्रुओंका मानमर्दन करनेमें लगे रहे / दिग्विजय कर अनेक राजाओंको, अपनी आज्ञाके वशवर्ती किये / राज्यकी सीमा भी बहुत दूर तक बढाई / जब राज्य निष्कंटक हो गया और किसी प्रकारका उपद्रव न रहा तब, आप शांतिसे प्रजाका पालन करने लगे / देशमें सर्वत्र शांति फैल गई और कला कौशलकी वृद्धि होने लगी / यह सब वृत्तांत, जब भगवान् हेमचंद्राचार्यको ज्ञात हुआ, तब, उनको अत्यंत खुशी हुई; चित्त बडा प्रसन्न हुआ। शासनोद्धारकी की हुई प्रतिज्ञाके पूर्ण होनेका अवसर, नजदीक आया हुआ समझ कर, पुनः पाटन नगरको पवित्र किया। श्रीसंघने, इस समय आपका पुरप्रवेश बडे समारोहसे कराया / आपके आगमनसे शहर में सर्वत्र हर्ष छा गया / प्रतिज्ञा पूर्ण, सफल मनोरथ कुमारपाल महाराजको, पूर्वावस्थामें - राज्यप्राप्तिके पूर्वमें-आपने अनेक संकटोंसे बचाये थे / इस कारण वे, आपके उपकारभारसे तो दबे हुए थे ही; इस समय आपने, पुनः महाराजको एक प्राणांत भयसे रक्षित किया, जिससे, उस उपकारभारकी सीमा, अत्यंत बढ गई। आपकी इस प्रकार निष्कारण परोपकारिताको जान कर, महाराज बडे प्रसन्न हुए / आपकी तरफ उनका भक्तिभाव अत्यंत बढ गया / पूर्वमें जो वचन दे चूके थे, उसका स्मरण हो आया / उदयन मंत्री द्वारा सूरीश्वरजीको अपने पास बुलाए और चरणोंमें मस्तक रख कर कहा- भगवन् ! आपने जो जो उपकार, इस क्षुद्र प्राणी पर किये हैं, उनका बदला तो मैं अनेक जन्मों द्वारा भी नहीं दे सकता, परंतु इस समय, जो कुछ मुझे आपकी कृपासे मिला है, उसे खीकार कर, उपकारके अपार भारको कुछ हलका कर, इस सेवक को उपकृत कीजिए / इस राज्य और राजाके आप ही स्वामी है। यह तन, यह मन और यह धन सब आप ही की सेवामें समर्पित है / इस अनुचरकी यह तुच्छ प्रार्थना स्वीकार करें।" राजाके इन नम्र वाक्योंको सुन कर सूरीश्वर अत्यंत आनंदित हुए / मनोरथोंके सफल होनेका समय सामने आया हुआ देख, क्षण भर, आनंदके अपार सागरमें, निमग्न हो गये। आप उत्कृष्ट योगी थे / अत्यंत निःस्पृही थे। महा दयालु थे / केवल परोपकारके निमित्त ही आपका अवतार हुआ था। आपको न धनकी जरूरत थी, न मानकी / न राज्यकी इच्छा थी न पूजाकी। अभिलाषा थी आपको केवल संसार मात्रके प्राणियोंको अभय दान दिलाने की; और परमात्मा महावीरके पवित्र शासनकी वैजयंती पताकाको, इस भूमंडलमें उडती हुई देखनेकी / आपकी यह भव्य भावना, कल्पवृक्ष समान सर्व इच्छाओंको पूर्ण करनेमें समर्थ और तत्पर, ऐसे महाराजाधिराज कुमारपाल देव द्वारा, पूर्ण होगी; ऐसा जान कर राजासे कहा-“राजन् ! भिक्षा मांग कर, लूखे सूके अन्न द्वारा उदरपूर्ति करने वाले, जंगलों और शून्य गृहोंमें भूमिमात्र पर पडे रहने वाले और केवल परमात्माका ध्यान धरने वाले हम योगियोंको, तुमारा राज्य तो क्या परंतु देवाधिपति महेंद्रका महाराज्य मी, तुच्छ सा प्रतीत होता है / हमारे ब्रह्मानंदके अनंत सुख आगे, समग्र संसारका वैभव भी सदमात्र ही प्रतीत होता है तो फिर, परिणाममें विरस ऐसे इस तुच्छ राज्यको ले कर हम क्या करें! हमने जो तुम्हारे ऊपर कुछ उपकार किया है वह खार्थसाधनके लिए नहीं, किंतु, भावी कालमें तुम्हारे द्वारा, जगत्का महान् उपकार होने वाला समझ कर, हमारा मुख्य कर्तव्य जो संसारकी सेवा करना है उसका पालन करनेके लिए, हमने तुम्हारी सहायता की है। पूर्व मुकृतके योगसे अब तुम्हें उत्तम संयोग मिले हैं, इससे, इनके द्वारा, संसारको मुख पहुंचा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य कर अपने प्रजापति पदको सार्थक करो / यदि, हमारे उपकारका बदला चुकानेकी ही, तुम्हारी दृढ इच्छा है, तो हमारी इच्छा पूर्ण करो। हम जगत्में अहिंसा और जैन धर्मका पूर्ण रूपसे उत्कर्ष देखना चाहते हैं; इस लिए, हमारी इन तीन आज्ञाओंका पालन करो, जिससे तुम्हारा और तुम्हारी प्रजाका कल्याण हो / प्रथम तो, अपने राज्यमें प्राणीमात्र का वध बंध कर सब जीवोंको अभय दान दो। दूसरा, प्रजाकी अधोगतिके मुख्य कारण, जो दुर्व्यसन-बूत, मांस, मद्य, शिकार, आदि हैं, उनका निवारण करो / तीसरा, परमात्मा महावीरकी पवित्र आज्ञाओंका पालन कर, उसके सत्य धर्मका प्रचार करो / " महाराज कुमारपाल बडे कृतज्ञ थे, भव्य थे, दयालु थे, और अल्प-संसारी थे। अल्प ही समयमैं मुक्ति जाने वाले होनेसे उनके विशुद्ध हृदयमें, हेमचंद्राचार्यके इस वचनामृतसे बोधि-बीज अंकुरित हो गया। महाराजने सूरीश्वरजीके चरणोंमें फिर मस्तक रख कर कहा-"भगवन् ! आपकी सर्व आज्ञायें मुझे शिरसा वंद्य हैं! जीवित पर्यंत इन पवित्र आज्ञाओंका उत्कृष्टतया पालन करनेमें, पूर्ण प्रयत्न करूंगा / आप ही मेरे स्वामी, गुरु और प्राण खरूप हैं।" सूरीश्वरजीको, महाराजके इन वचनोंसे जो आनंद हुआ उसके वर्णन . करनेकी शक्ति किसमें है। जैनधर्मका साम्राज्य महाराज कुमारपालने उसी क्षणसे, गुरु महाराजकी आज्ञाओंको अमलमें लानेकी शुरुआत की / धीरे धीरे आपने अपने सारे राज्यसे हिंसा राक्षसी को देशनिकाला दिया। यहां तक कि, मनुष्य 'मर' और 'मार' इन शब्दोंको भी भूल गये! पशुसे ले कर कीडी और जूं जैसे अतिक्षुद्र प्राणी पर्यंतके किसी जीवको, कोई मनुष्य कष्ट नहीं पहुंचा सकता था / मनुष्य जातिके अवनतिके कारणभूत दुर्व्यसनोंका भी देशसे बहिष्कार कराया। अनीतिका नाम सुनता भी प्रजा भूल सी गई! महाराज निरंतर सूरीश्वरका धर्मोपदेश सुनने लगे। उनकी दिन प्रति दिन जैनधर्ममें श्रद्धा बढने लगी। उनको जगतजंजाल मिथ्या भासने लगा, संसारकी विरसताका अनुभव होने लगा। थोडे ही समय आपने जैन शास्त्रोक्त उत्कृष्ट गृहस्थ जीवन पालनेके लिए, द्वादशवत स्वरूप श्रावक धर्म अंगीकार किया / अनेक प्रकारसे जैनधर्मकी प्रभावना करने लगे। जैन समाज फिर एक दफह चतुर्थ काल के आ जानेका अनुभव करने लगा। सर्वत्र जैनधर्मकी जय जय ध्वनि होने लगी। यह सब देख कर हेमचंद्राचार्य अपने जीवनको सफल समझने लगे / अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई देख, स्वीय आत्माको कृतकृत्य मानने लगे / वीतरागके सत्यधर्मका इस प्रकार उत्कर्ष सत् युगकी अपेक्षा कलियुगको ही आप श्रेष्ठ कहने लगे। महाराज कुमारपालके नित्यपाठार्थ जो आपने 'वीतरागस्तोत्र' लिखा है, उसमें आप कहते हैं कि यत्राल्पेनापि कालेन त्वद्भक्कैः फलमाप्यते / कलिकालः स एकोऽस्तु कृतं कृतयुगादिभिः॥ अर्थात्-हे वीतराग ! जिस कलियुगमें, अल्प समयमें ही तेरे भक्त श्रेष्ठ फल प्राप्त कर लेते हैं, वह कलिकाल ही हमारे लिए तो सदा रहो! हमें उस सत् युगसे क्या मतलब है कि जिसमें, तेरे धर्मके विना व्यर्थ ही संसारमें मारे मारे फिरते थे। आगे चल कर आप कलिकालमें भी वीतरागके शासनकी एकच्छत्रताका वर्णन करते है कहते हैं कि श्राद्धः श्रोता सुधीर्वक्ता युज्येयातां यदीश तत् / त्वच्छासनस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं कलावपि // अर्थात-हे देव! यदि. शुद्ध श्रद्धासे निर्मल है अंत:करण जिसका ऐसा, श्राद्ध तो श्रोता हो, और सकलशास्त्रपारंगत तत्त्वपारीण ऐसा, वक्ता हो, तो कलिकालमें भी तेरे शासनका एकच्छत्र साम्राज्य हो सकता है। यह श्लोक बडे मार्केका है, इसमें भगवान् श्रीहेमचंद्राचार्यने अपने जीवनका अनुभव प्रगट किया है / वे कहते हैं कि जहाँ, युगान्त. र्यर्ती सकल शास्त्रका पारगामी (मेरे समान) जैन धर्मका वक्ता - उपदेशक है, और चौलुक्यचक्रचूडामणि महाराज श्रीकुमारपाल देव जैसा श्रोता- श्रावक है, तब इस कलिकालमें भी जैन शासनका, एकच्छत्र साम्राज्य हो इसमें आश्चर्य क्या / Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य सूरीश्वरकी ज्ञानशक्ति-ग्रंथनिर्माणकार्य भगवान् हेमचंद्राचार्यके जीवनको जगत्में शाश्वत प्रकाशित रखने वाला और अन्य धर्मियोंको भी आश्चर्य उत्पन्न करने वाला, उनका अगाध ज्ञानगुण था। उनके जैसा सकल शास्त्रोंमें पारंगत, ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा। इस अपरिमित ज्ञानशकिसे मोहित हो कर, तत्कालीन सर्व धर्मके विद्वानोंने 'कलिकालसर्वज्ञ' जैसी महती उपाधि, उनको समर्पण की थी। सचमुच ही आप 'कालिकालसर्वज्ञ' थे, इसमें जरा भी अत्युक्ति नहीं। इस बातकी सध्यता आपकी अपार ग्रंथरत्नराशी, आज मी जगतको करा रही है। आपके ग्रंथोंके समूहको देख कर पाश्चात्य विद्वान् भी, विस्मित होते हैं। वे भी आपको 'ज्ञान के महासागर' (Ocean of the Knowledge) कह कर उल्लिखित करते हैं। कहा जाता है कि आपने अपने जीवन कालमें 35000000 (साढे तीन कोड) लोक प्रमाण ग्रंथ लिखे थे। परंतु भारतवासियोंके दुर्भाग्यसे बहुतसे ग्रंथ तो कालके कराल गालमें दब गये-नष्ट हो गये / इतना होने पर भी, जितने ग्रंथ वर्तमान कालमें विद्यमान हैं, वे भी थोडी संख्या वाले नहीं हैं। विद्यमान प्रथश्रेणी ही आज विद्वत्समूहको विस्मय करा रही है। विद्याके सकल विषयोंमें आपकी अबाधित गति थी। कोई भी विषय ऐसा नहीं था कि जिसका आपने अव-. गाहन नहीं किया हो या जिसके ऊपर, अपनी चमत्कारिक लेखिनी न उठाई हो ! व्याकरण, न्याय, काव्य, कोष, अलंकार, छंद, नीति, स्तुति इत्यादि सब विषयों पर आपने एक या अनेक ग्रंथ लिखे हैं। कई कई ग्रंथ तो ऐसे अपूर्व है कि जिनकी समानता करने वाले, भारतमें दूसरे ग्रंथ ही नहीं हैं। हमारी बहुत इच्छा थी कि, हम इस लेखमें बापके ग्रंथोंका विस्तारसे उल्लेख करेंगे। परंतु लेख बढ जानेके कारण, स्थानाभाव हो जानेसे, इस इच्छाको पूरी नहीं * कर सके / आपके ग्रंथोंका समूह इतना बडा और विचित्र है कि यदि उसका विस्तारसे विवेचन किया जाय तो एक बडी पुस्तक ही बन जाय / शिष्यश्रेणि और शरीरांत सूरि भगवान्का शिष्यसमूह बहुत बडा और प्रभावशाली था / साधुसमुदायमें, प्रबंधशतकर्ता श्रीरामचंद्र, . महाकवि श्री बालचंद, अनेकविधासंपन्न श्री गुणचंद्र, विद्याविलासी श्री उदयचंद्र - इत्यादि मुख्य थे। श्रावकसमुदायमें, महाराज श्री कुमारपाल देव, महामात्य श्री उदयन, राजपितामह आम्रभट, दंडनायक श्री वाग्भट, राजघरट्ट श्री चाहर, सोलाक इत्यादि अनेक राजवर्गीय तथा लक्षावधि प्रजावर्गीय श्रीमंतादि थे। इस प्रकार बहुत समय तक अपने ज्ञानपुंजके पवित्र प्रकाशसे सूरीश्वरजीने भारत को प्रकाशित किया। अपने वायुकी समाप्तिका समय प्राप्त हुआ देख, भगवान्ने सकल शिष्यगणको समीपमें बुलाया। आत्मिक उन्नतिके विषयमें विविध प्रकारके हितकर वचनों द्वारा अमृततुल्य उपदेश दिया, जिसे सुन कर महाराज कुमारपालका हृदय भर आया / सूरि महाराजने उनको सांत्वन करनेके लिए अनेक मिष्ट वचन कहे। अंतसमयमें आपने निरंजन, निराकार और सहजानंदित परमात्माका पवित्र ध्यान धरते हुए बहिर्वासनाका त्याग किया। विशुद्ध आत्मपरिणतिमें रमण करते हुए, निर्मल समाधिसहित दशम द्वारसे प्राणत्याग किया। संवत् 1229 में सारे समाजको शोकसमुद्रमें डूबो कर, इस भूमंडल परसे कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् श्रीहेमचंद्राचार्यरूप वह लोकोत्तर चंद्र, अस्त हो गया ! उपसंहार पाठको। सूरि भगवानके इस चरित्र-सारांशसे आपको यह ज्ञात हो जायगा कि, वे कैसे प्रभावशाली पुरुष थे, उनमें कैसे कैसे गुणोंका सनिपात हुआ था ! सचमुच ही वे एक अद्वितीय महात्मा थे / उनके गुणोंका वर्णन करते हुए प्रो. पीटरसन लिखते हैं कि-"हेमचंद्र एक बडे भारी आचार्य थे / दुनियाके किसी भी पदार्थ पर उनका तिल मात्र भी मोह नहीं था; तथा उस महापुरुषने अपनी बडी आयु और जोखमदार जिंदगीको बुरे कार्मोमें न लगा कर, संसार का भला करनेमें बीताई थी। उनके किये हुए पकयोंके बदल इस देशकी प्रजाको उनका बड़ा भारी उपकार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य मानना चाहिए / " विदेसी विद्वान् प्रोफेसरके इन वचनोंमें हम इतने शब्द और मिलायेंगे, और कहेंगे कि-"वे एक बडे भारी महात्मा थे, पूर्ण योगी थे, उत्कृष्ट जितेन्द्रिय थे, अत्यंत दयालु थे, महापरोपकारी थे, पूरे निःस्पृही थे, निःपक्षपाती थे, सत्यके उपासक थे, और कलिकालमें सर्वज्ञ थे।" आपके जीवनसे, 'संसारका बहुत उपकार हुआ, जैनधर्मका उद्धार हुआ और सत्यका प्रचार हुआ। नमन है महात्मन् ! तुम्हारे पवित्र जीवनको! वंदन है भगवन् ! आपके सम्यग ज्ञान, दर्शन और चारित्र को !! राजर्षि श्री कुमारपाल देव / सत्वानुकम्पा न महीमा स्यादित्येष कृप्तो वितयः प्रवादः / जिनेन्द्रधर्म प्रतिपद्य येन, श्लाध्यः स केषां न कुमारपालः // - श्रीसोमप्रभाचार्यः / - व्यावहारिक जीवन महाराज कुमारपाल देव इस कलियुगमें एक अद्वितीय और आदर्श नृपति थे। वे बडे न्यायी, दयालु, परोपकारी, पराक्रमी और पूरे धर्मात्मा थे। विक्रम संवत् 1149 में इनका जन्म हुआ था और संवत् 1199 में राज्याभिषेक हुआ था। एक पुरातन पट्टावलीमें राज्याभिषेककी तिथी 'मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी' लिखी है / राज्यप्राप्तिके बाद लगभग 10 वर्षपर्यंत आपने राज्यकी मुव्यवस्था करनेका, और उसकी सीमा बढानेका प्रयत्न किया / दिग्विजय करके आपने अनेक बडे बडे राजाओंको अपनी प्रचंड आज्ञाके अधीन किये। आप अपने समयमें एक अद्वितीय विजेता और वीर राजा थे। भारतवर्ष में, उस समय आपकी बराबरी करने वाला और कोई राजा नहीं था। आपका राज्य बहुत बड़ा था। श्री हेमचंद्राचार्यने 'महावीरचरित' में आपकी आज्ञाका पालन "उत्तर दिशामें तुरकस्थान, पूर्वमें गंगा नदी, दक्षिणमें विण्याचल और पश्चिममें समुद्र पर्यत" के देशोंमें होना लिखा है / प्रोफेसर मणीलाल नभुभाई द्विवेदी लिखते हैं कि-"गुजरात यानि अणहिल्लवाडके राज्यकी सीमा बहुत विशाल मालूम देती है / दक्षिणमें ठेठ कोलापुरके राजा उसकी आज्ञा मानते थे, और भेंट भेजते थे। उत्तरमें काश्मीरसे भी भेटें आती थी। पूर्वमें चेदी देश तथा यमुना पार और गंगा पार के मगधदेश पर्यंत आज्ञा पहुंची थी। और पश्चिममें सौराष्ट्र तथा सिंधु देश तथा पंजाब का मी कितनाक हिस्सा गुजरातके ताबेमें था / 'राजस्थान इतिहास' के कर्ता कर्नल टॉड साहब को, चितौडके किलेमें, राणा लखणसिंहके मंदिरमें एक शिलालेख मिला था, जो संवत् 1207 का लिखा हुआ है। उसमें महाराज कुमारपालके विषयमें लिखा है कि “महाराज कुमारपालने अपने प्रबल पराक्रमसे सब शत्रुओंको दल दिये, जिसकी आज्ञाको पृथ्वी परके सब राजाओंने अपने मस्तक पर चढाई / जिसने शाकंभरीके राजाको अपने चरणोंमें नमाया। जो खुद हथियार पकड कर सवालक्ष (देश) पर्यंत चढा और जिसने सब गढ़पतियोंको नमाया। सालपुर (पंजाब) तक को भी उसने उसी तरह वश किया / " (वेस्टर्न इण्डिया, टॉड कृत) इन सब प्रमाणोंसे महाराज कुमारपालके राज्यके विस्तारका खयाल हो जाता है। भारतवर्षमें. इतने बड़े साम्राज्यको भोगने वाले राजा बहुत कम हुए। आपकी राजधानी अनहिलपुर-पाटन, भारतके उस समयके सर्वोत्कृष्ट नगरोंमें से, एक थी। वह व्यापार और कला-कौशलसे बहुत बढी चढी थी, समृद्धिके शिखर पहुंची हुई थी। राजा और प्रजाके सुंदर महालोंसे तथा पर्वतके शिखरसे ऊंचे और मनोहर देवभुवनोंसे अत्यंत अलंकृत थी। हेमचंद्राचार्य ने 'द्याश्रय महाकाव्य में इस नगरी का बहुत वर्णन किया है / सुना जाता है कि उस समय इस नगर में 1800 तो कोडाधिपति रहते थे। इस प्रकार महाराज एक बडे भारी महाराज्यके खामी थे / Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य आप प्रजाका पालन पुत्रवत् करते थे। अपने राज्यमें एक भी प्राणीको दुःखी नहीं रखना चाहते थे। प्रजा भापको 'राम' का ही दूसरा अवतार समझती थी / प्रजाकी अवस्था जाननेके लिए, गुप्त वेशसे आप शहरमें भ्रमण करते थे। हेमचंद्राचार्य कहते हैं कि-"दरिद्रता, मूर्खता, मलिनता इत्यादिसे जो लोक पीडित होते हैं वे मेरे निमित्तसे हैं या अन्यसे ! इस प्रकार औरोंके दुःखोंको जाननेके लिए राजा शहरमें फिरता रहता था।" इस प्रकार जब गुप्त भ्रमणमें महाराजको जो कोई दुःखी हालतमें नजर पडता था, तो आप झट अपने स्थान पर आ कर, उसके दुःख र करनेकी चेष्टा करते थे। 'द्याश्रय महाकाव्य' के अंतिम सर्ग (20) में भगवान श्रीहेमचंद्र लिखते हैं कि"महाराज कुमारपालने एक दिन रास्तेमें, एक गरीब मनुष्यको, चिल्लाते हुए और जमीन पर गिरते-पडते हुए ऐसे 5-7 बकरोंको खींच कर ले जाता हुआ देखा / महाराजने पूछा कि-'इन मरे हुए जैसे बिचारे पामर प्राणियोंको कहाँ ले जाता है ! / ' उस मनुष्यने कहा-'इनको कसाईके यहाँ बेच कर, जो कुछ पैसा आएगा, उससे उदरनिर्वाह करूंगा।' यह सुन कर महाराज बडे खिन्न हुए और सोचने लगे कि-'मेरे दुर्विवेकसे ही इस तरह लोक हिंसामें प्रवृत्त होते हैं, इस लिए धिक्कार है मेरे प्रजापति नाम को इस प्रकार अपनी आत्माको ठपका देते हुए राजभवन में आए और अधिकारियोंको बुला कर सखत आज्ञा दी की-'जो झूठी प्रतिज्ञा करे उसे शिक्षा होगी, जो परस्त्रीलंपट हो उसे, अधिक शिक्षा होगी, और जो जीवहिंसा करे उसे, सब से अधिक कठोर दंड मिलेगा-इस प्रकारकी आज्ञापत्रिका सारे राज्य में भेज दो।' अधिकारियोंने उसी वखत उक्त फरमान सर्वत्र जाहिर कर दिया। इस प्रकार सारे महाराज्य में- यावत् त्रिकटाचल ( लंका) पर्यंत-अमारीघोषणा कराई। इसमें जिनको नुकसान पहुंचा उनको तीन तीन वर्ष तकका अन्न दिया / मद्यपानका प्रचार भी सर्वत्र बंध कराया। *यज्ञ-यागमें भी पशुओंके स्थान पर अन्नका हवन होना शुरु हुआ ! एक दिन महाराज सोये हुए थे, इतने में किसीके रोनेकी अवाज सुनाई दी / आप ऊठ कर अकेले ही उस स्थान पर पहुंचे / जा कर देखा तो एक सुंदर स्त्री रोती हुई नजर पडी / उसे पूछने पर मालूम हुआ कि, वह एक धनाढ्य गृहस्थकी स्त्री है, उसका पति और पुत्र दोनों मर गये / वह इस लिए रोती थी कि-'राज्यका पूर्वकालसे यह क्रूर नियम चला आता है कि संततिहीन मनुष्यकी मिल्कतका मालिक राज्य है-अतः इस नियमानुसार मेरी जो संपत्ति है वह सब राज्य ले लेगा तो फिर मैं अपना जीवन किस तरह बिताऊँगी / इस लिए मुझे भी आज मर जाना अच्छा है।' महाराजने यह सुन कर उसे आश्वासन दिया और कहा कि-'तूं मर मत / राजा तेरा धन लेगा। सुखपूर्वक तूं अपनी जिंदगीको धर्मकृत्य करनेमें बिता / ' खस्थान पर आ कर महाराजने मनमें सोचा कि इस प्रकार, राज्यके क्रूर नियमसे प्रजा कितनी दुःखी होती होगी ! आपका अंतःकरण दयासे भर आया। प्रजाके इस त्रास को नहीं सहन कर सके। आपने अधिकारियोंको बुला कर कहा कि-निष्पुत्र मनुष्यकी मृत्युके बाद, उसकी संपत्ति राज्य ले लेता है यह अत्यंत दारुण नियम है। इससे प्रजा बहुत पीडित होती है, इस लिए यह नियम बैध करो। चाहे भले ही मेरे राज्यकी ऊपजमें लाख-दो-लाख तो क्या परंतु कोड-दो-क्रोड रुपयेका भी क्यों न घाटा आ जाय। अधिकारियोंने आपकी आज्ञाको मस्तक चढाया और उसी क्षण सारे राज्यमें इस कायदेकी क्रूरता दाब दी गई, जिससे प्रजाके हर्पका पार नहीं रहा / तथा कर-दंड वगैरह भी आपने बहुत कम कर दिये थे / इस प्रकार आपने अपनी प्रजाको अत्यंत सुखी की थी। * इस बात पर गुजरातके प्रख्यात विद्वान् , सद्गत प्रो. मणिलाल नभुभाई द्विवेदी लिखते हैं कि-"कुमारपालने जबसे अमारी घोषणा (जीवहिंसा बंध ) कराई तबसे यज्ञयागमें भी मांसबलि देना बंध हो गया, और यव तथा शालि होमनेकी चाल शुरु हुई / लोगोंकी जीव जाति ऊपर अत्यंत दया बढी। मांसभोजन इतना निषिद्ध हो गया कि, सारे हिंदुस्थान (बंगाल, पंजाब, इत्यादि) में, एक या दूसरे प्रकारसे, थोडा बहुत भी मांस, हिंदु कहलाने वाले, उपयोगमें लाते हैं, परंतु गुजरातमें तो उसका गंध भी लग जाय तो, झट बान करने लग जाते हैं। ऐसी वृत्ति लोगों की उस समयसे बंधी हुई आज पर्यंत चली जा रही है।" (देखो 'बाश्रयकाव्य' का गुजराती भाषांतर, गायकवाड सरकारका छपाया हुभा।) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य धार्मिक-जीवन / - यहाँ तक हमने आपके व्यावहारिक-सामाजिक जीवनका उल्लेख किया। अब कुछ थोडे से शब्द, धार्मिकआध्यात्मिक जीवनके विषयमें, कह कर; इस प्रस्तावनाकी समाप्ति करेंगे। आप जिस प्रकार नैतिक और सामाजिक विषयोंमें औरोंके लिए आदर्शखरूप थे, उसी प्रकार धार्मिक विषयों में भी आप उत्कृष्ट रूपमें धर्मात्मा थे, जितेन्द्रिय थे और ज्ञानवान थे। श्रीमान् हेमचंद्राचार्यका जबसे आपको अपूर्व समागम हुआ तभी से आपकी चित्तवृत्ति धर्मकी तरफ जुडने लगी। निरंतर उनसे धर्मोपदेश सुनने लगे / दिन प्रतिदिन जैनधर्म प्रति आपकी श्रद्धा बढने तथा दृढ होने लगी / अंतमें संवत् 1216 के वर्षमें, शुद्ध श्रद्धानपूर्वक जैनधर्मकी गृहस्थ - दीक्षा स्वीकार की। सम्यक्त्वमूल द्वादश व्रत अंगीकार कर, पूर्ण श्रावक बने ! उस दिनसे निरंतर त्रिकाल जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करने लगे / परमगुरु श्रीहेमचंद्राचार्यकी विशेष रूपसे उपासना करने लगे, और परमात्मा महावीरप्रणीत अहिंसाखरूप जैनधर्मका आराधन करने लगे / आप बडे दयालु थे, किसी भी जीवको कोई प्रकारका कष्ट नहीं देते थे। पूरे सत्यवादी थे, कभी भी असत्य भाषण नहीं करते थे। निर्विकार दृष्टिवाले थे, निजकी राणियोंके सिवाय संसार मात्रका स्त्रीसमूह आपको माता, भगिनी और पुत्रीतुल्य था / आपने महाराणी भोपलदेवीकी मृत्युके बाद आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया था / राज्यलोभसे सर्वथा पराङ्मुख थे / मद्यपान, तथा मांस और अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण कभी नहीं करते थे। दीन दुःखी जनोंको और अर्थी मनुष्योंकों निरंतर अगणित द्रव्य दान किया करते थे / गरीब और असमर्थ श्रावकोंके निर्वाहके लिए दरसाल लाखों रुपये राज्यके खजानेमें से दिये जाते थे। लाखों रुपये व्यय कर जैन शास्त्रोंका उद्धार कराया और अनेक पुस्तक-भंडार स्थापन किये / हजारों पुरातन देवमंदिरोंका जीर्णोद्धार करा कर तथा अनेक नये बनवा कर भारत-भूमिको अलंकृत की / तारंगादि तीर्थक्षेत्रों परके दर्शनीय और भारतवर्षकी शिल्पकलाके अद्वितीय नमूने रूप, विशाल और अत्युच्च, मंदिर आज भी आपकी जैनधर्म प्रियताको जगत्में जाहीर कर रहे हैं / इस प्रकार आपने जैनधर्मके प्रभावको जगत्में बहुत बढाया / संसारको सुखी कर अपने आत्मा का उद्धार किया। एक अंग्रेज विद्वान् लिखता है की-“कुमारपालने जैनधर्मका बडी उत्कृष्टतासे पालन किया और सारे गुजरातको एक आदर्श जैन राज्य बनाया।" अपने गुरु श्रीहेमचंद्राचार्यकी मृत्युसे छः महीने बाद, वि. सं. 1230 में, 80 वर्षकी आयु भोग कर, इस असार संसार को त्याग, स्वर्ग प्राप्त किया। , अंतिम निवेदन पाठक ! हमने ऊपर जिन दो महापुरुषोंका संक्षेपमें वर्णन किया है उन्हीं पुण्यात्माओंका जीवनविस्तार इस कुमारपाल चरित्रमें है। इसको अच्छी तरह पढिये और अपनी आत्माको निर्मल करिये / हर एक समाज और देशकी उत्कृष्ट संपत्ति उसके आदर्श पुरुष ही है। मनुष्य जीवनको उन्नत करनेके लिए महात्माओंका पवित्र जीवनचरित्र ही एक सर्वोत्तम साधन है / जिस समाज और देशको, अपने पूर्वकालीन समर्थ पुरुषोंके प्रचंड सामर्थ्यका खयाल नहीं है, उनके सुकृत्योंका अभिमान नहीं है और उनकी आज्ञाका पालन नहीं है, वह समाज और देश कमी उन्नति पर नहीं पहुंच सकता। इसलिए, प्रिय जैनबंधुओ! ऐसे महात्माओंके जीवनचरित्रोंको पढ कर आप अपने पूर्वजोंके गुणों और सुकृत्योंको अपने हृदयमें स्थापन करो, उनकी पवित्र आज्ञाओंका पालन करो और गये हुए जैन-धर्मके गौरवको, अपने पुरुषार्थ द्वारा एक दफह फिर पीछा ला कर, जगत्को उसका सर्वश्रेष्ठत्व बतला दो। अंतमें, इस चरित्रके लेखक स्नेहास्पद श्रीयुत मुनिवर ललितविजयजी महाराजका मैं उपकार मानता हूं कि जिनके प्रसंगसे, इस प्रस्तावना द्वारा मुझे महापुरुषोंके गुणानुवाद करनेका यह सुअवसर मिला। बीर सं. 2440 (वि.सं. 1970) आश्विन कृ.५ जैनउपाय, महेसाणा (उत्तर गुजरात) -मुनि जिन विजय Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल [गुजरातकी सुप्रतिष्ठित 'गुजरातीसाहित्यपरिषत्' द्वारा, वि. सं. 1995 में, गुजरातकी प्राचीन राजधानी अणहिलपुर पाटण में, 'हमसारखतसत्र के रूपमें एक विद्वत्सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उस सत्र में पढ़नेके लिये मैंने राजर्षि कुमारपाल नामका गुजराती भाषामें निबन्ध लिखा था जो मेरे संपादकत्वमें प्रसिद्ध होने वाले 'भारतीयविद्या' नामक संशोधनात्मक त्रैमासिक पत्रके वर्ष 1, अंक 3 में प्रकट हुआ था। उस गुजराती निबन्धका हिन्दी अनुवाद, बनारसकी 'जैन संस्कृति संशोधन समिति' (Jain Culture and Research Society) ने सन् 1949 में प्रकाशित किया था। प्रस्तुत 'कुमारपाल चरित्र संग्रह के विषयक माथ, इस प्रवन्धका विशिष्ट सम्बन्ध होनेसे हम यहां पर इसको भी संग्रहित कर देना उचित समझते हैं। इस निवन्धके पढनेसे विज्ञ पाठकोंको प्रस्तुत विषयमें कुछ विशेष ऐतिय तथ्य ज्ञात हो सकेंगे। इसके लिये मैं उक्त समितिके मंत्री प्राध्यापक पंडितवय्ये श्रीदलमुखभाई मालवणियाके प्रति अपना कृतज्ञभाव प्रकट करना चाहता हूं। -मुनि जिन विजय] कुमारपाल- एक धीरोदात्त नायक राजा कुमारपालका जीवन गुजरातके इतिहासमें महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। केवल गुजरातमें ही नहीं बल्कि भारतीय इतिहासमें भी उसका विशिष्ट स्थान है / वह एक साधारण नरेश न था। उसमें अनेक असाधारणताएँ विद्यमान थीं। मनुष्य जीवनकी ऊँची-नीची सभी दशाएँ उसके जीवन में निहित थीं। उसे सुख और दुःखकी अनेक अनुभूतियाँ हुई थीं। उसका जीवन एक महाकाव्यके समान था जिसमें शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त इस प्रकार सभी रसोंका परिपाक हुआ था। उसकी जीवनरूप कवितामें माधुर्य, ओज और प्रसादका अनोखा सम्मिश्रण था। देशत्याग, संकट, सहाय-असहाय, क्षुधा-तृपा, भिक्षायाचन, हर्ष, शोक, अरण्याटन, जीवितसंशय, राज्यप्राप्ति, युद्ध, शत्रुसंहार, विजययात्रा, नीतिप्रवर्तन, धर्मपालन, अभ्युदयारोहण और अन्तमें अनिच्छित भावसे मरण -- इत्यादि एक महाख्यायिकाके वर्णनके लिए आवश्यक सभी रसोत्पादक सामग्री उसके जीवनमें विद्यमान थी। काव्य-मीमांसकोंने काव्यके लिए जो धीरोदात्त नायककी रम्य कल्पना की है उसका वह यथार्थ आदर्श था / उसका जीवन अपकर्ष और उत्कर्षका क्रीडाक्षेत्र था / उसका पूर्ण इतिहास हमें उपलब्ध नहीं है। जो कुछ थोड़ी बहुत ऐतिहासिक सामग्री उप लब्ध है वह अपूर्ण, अस्तव्यस्त और किश्चित् अतिशयोक्तिवाली है; तो भी इस सामग्री परसे गुजरातके किसी दूसरे राजाकी अपेक्षा उसका अधिक विस्तृत और प्रमाणभूत इतिहास प्राप्त हो सकता है। गुजरातके बाहर भी किसी पुराने भारतीय राजाका इतना विस्तृत जीवनवृत्त प्राप्त नहीं है / इस सामग्रीसे उसके कुल, वंश, जन्म, बाल्यावस्था, यौ.वन, देशाटन, संकटसहन, राज्यप्राप्ति, राजशासन, धर्माचरण आदि बातोंका यथार्थ परिचय मिलता है / उसके राज्यके प्रधान पुरुपों, मुख्य प्रजाजनों, धर्मगुरुओं और विद्वानोंका परिचय भी इस उपलब्ध सामग्रीसे मिल सकता है। उसके लोकोपयोगी और धर्मोपयोगी कार्योंकी रूपरेखा भी इसमें है / मैं यहाँ उसीका कुछ दिग्दर्शन कराना चाहता हूँ। कुमारपालके जीवनकी सामग्री .. ऐतिहासिक दृष्टिसे कुमारपालके राजजीवनका जो रेखाचित्र मैं खींचना चाहता हूँ उसकी सामग्री प्रमाणभूत और सर्वथा विश्वसनीय है / इस सामग्रीका श्रेय प्रायः कुमारपाटके थोड़े या बहुत संपर्कमें आने वाले व्यक्तियोंको है। इसमें मुख्य सूत्रधार हैं कुमारपालके गुरु और गुर्जर विद्वानोंके मुकुटमणि आचार्य हेमचन्द्र / हेमचन्द्राचार्यके व्यक्तित्व और कार्यके विषयमें बहुत कुछ कहा जा चुका है / उसका पुनः कथन और पिष्टपेषण अनावश्यक है / इन्होंने 'संस्कृतद्वयाश्रय' काव्यके अन्तिम पाँच सोंमें और 'प्राकृतद्वयाश्रय'के आठ सोंमें कुमारपालका काव्यमय जीवन चित्रित किया है। हेमचन्द्रका यह चित्रण कुमारपालके राज्याभिषेकसे प्रारम्भ होता है / इसमें ऐतिहासिक घटनाओंका उल्लेख नहींके बराबर है। फिर भी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल उसके राजजीवनका रेखांकन करनेके लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। याश्रय काव्यमें कवित्वकी कोई ऊँची उड़ान नहीं है, इसका कारण है ऐसे काव्योंकी पद्धति / ऐसे काव्योंमें अर्थानुसारी शब्दरचना नहीं होती किन्तु शब्दानुसारी अर्थरचना होती है / जिस प्रकारके शब्दप्रयोग व्याकरणके क्रममें चले आ रहे हैं, उन्होंने उसी प्रकारके शब्दोंकी रचनाके लिए, उपयुक्त अर्थोंको कुमारपालके राजजीवनमेंसे चुन लिया और श्लोकबद्ध कर दिया। इतने ही अंशोंमें इस काव्यका कवित्व है। इसके अतिरिक्त सरसताकी दृष्टिसे कही जाने वाली कोई विशेष बात उसमें नहीं है। किन्तु हमारे लिए तो प्रस्तुत विषयको दृष्टिसे काव्यविभूतिकी अपेक्षा यह सादी शब्दरचना ही अधिक उपयोगी है। हेमचन्द्राचार्य द्वारा वर्णित कुमारपालका दूसरा वर्णन 'त्रिषष्टि-शलाकापुरुष-चरित्र'के अन्तिम 'महावीरचरित्र में है। इसकी रचना हेमचन्द्राचार्यने कुमारपालकी प्रार्थनासे की थी और यही उनके जीवनकी अन्तिम कृति है। जन धर्म खीकार करनेके पश्चात् कुमारपालने जैसा कुछ उसका आचरण किया है उसका बहुत थोड़ा किन्तु सारभूत वर्णन इस ग्रन्थमें है। __ हेमचन्द्राचार्यके पश्चात् दूसरी सामग्री 'मोहराजपराजय' नामक नाटकके रूपमें है / यह नाटक कुमारपालके उत्तराधिकारी अजयपाल या अजयदेवके एक मन्त्री मोढवंशीय यशःपालका बनाया हुआ है और यह गुजरात और मारवाड़ की सीमा पर स्थित थारापद - इस समय थराद - नगरके 'कुमार विहार' नामक जैन मन्दिरमें महावीर यात्रामहोत्सवके समय खेला गया था। कुमारपालने जैन धर्मका खीकार कर जीवहिंसा, शिकार, जुआ और मद्यपान आदि जिन दुर्व्यसनोंका निषेध कराया था उस कथावस्तुको ले कर इस नाटककी रचना हुई है / इस नाटकका संकलन हृदयंगम और कल्पनामनोहर है / इसमें कोई ऐसा स्पष्ट ऐतिहासिक उल्लेख नहीं है किन्तु बहुत सी विशिष्ट बातें ऐसी हैं जो ऐतिहासिक दृष्टिसे उपयोगी हो सकती हैं और इसीलिए वे प्रमाणभूत मानी जा सकती हैं। तीसरी कृति सोमप्रभाचाय कृत 'कुमारपालप्रतिबोध' है / कुमारपालकी मृत्युके 11 वर्ष पश्चात् , पाटनमें ही प्रसिद्ध राजकवि सिद्धपालके धर्मस्थान में ही यह रचना पूणे हुई थी। खयं हेमचन्द्राचायेकं तीन शिष्य-महेन्द्र, वर्धमान और गुणचन्द्र-ने इस ग्रन्थको आद्योपान्त सुना था। यह ग्रन्थ है तो बहुत बड़ा-करीब 8-9 हजार श्लोकका किन्तु इसमें ऐतिहासिक सामग्री करीब 200-250 श्लोक जितनी ही है / इस ग्रन्थकारका उइंश कुमारपालका विस्तृत जीवन चरित्र लिखनेका नहीं था किन्तु हेमचन्द्राचार्यने जिन धर्मकथाओं द्वारा कुमारपालको जैन-धर्माभिमुख बनाया था उन्हीं कथाओंको लक्ष्य कर एक कथासंग्रहात्मक ग्रन्थ बनानेका था / ग्रन्थकार उसका निर्देश प्रारम्भमें ही कर देते हैं। वे कहते हैं कि-"इस युगमें हेमचन्द्रसूरि और कुमारपाल दोनों असंभव चरित्र वाले पुरुष हुए हैं। इन्होंने जैनधर्मकी महती प्रभावना द्वारा कलियुगमें सत्ययुगका अवतार किया है। यद्यपि इन दोनों पुरुषोंका जीवन सम्पूर्णतया मनोहर है लेकिन मैं सिर्फ जैनधर्मके प्रतिबोधक विषयमें ही कुछ कहना चाहता हूँ।" इस प्रकार इस ग्रन्थका उदेश भिन्न होने के कारण इसमें ऐतिहासिक विवरणकी विशेष आशा नहीं की जा सकती; तो भी प्रसंगवश इसमें भी कहीं कहीं ऐसा विवरण मिलता है जो कुमारपालका रेखाचित्र अंकित करनेके लिए बहुस महत्त्वपूर्ण है। इन तीनों समकालीन-अथवा जिन्होंने कुमारपालके राज्यशासनको स्वयं अच्छी तरह देखा था-ऐसे पुरुषोंका ही आधार मैंने इस निबंधमें लिया है। यदि कहीं पर उत्तरकालीन कृतियोंका आधार लिया गया है तो वह केवल मूल घटनाको साधार प्रमाणित करनेके लिए। कुमारपालका धर्मसंस्कार हमारे देशके इतिहासमें कुमारपालके धार्मिक जीवनके विषयमें एक प्रकारकी अज्ञानता या गैर समझ फैली हुई है / हेमचन्द्राचार्य के उपदेशोंसे प्रभावित हो कर कुमारपालने जैनधर्मका पूर्णतया अंगीकार किया था और वह एक परमाईत राजा बना Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल था यह सत्य कथा, संकीर्ण मनोवृत्ति वाले बहुतसे अजैन विद्वानोंको रुचिकर प्रतीत नहीं हुई और इसका खण्डन करनेके लिए भ्रमपूर्ण लेखादि लिखे जाते रहे हैं, किन्तु उसके जैनत्व की बात उतनी ही सत्य है जितनी कि उसके अस्तित्व की है। इस विषयका विवरण प्रकट करनेवाली सामग्री अपने आपमें ही इतनी प्रतिष्टित है कि उसको सत्य सिद्ध करनेके लिए किसी दूसरे सबूत की आवश्यकता नहीं है / तथ्यदर्शी यूरोपियन विद्वानोंने तो इस बातको कभी का सिद्ध कर दिया है किन्तु हम लोगोंकी धार्मिक संकीर्णता बहुत बार सत्य दर्शनमें बाधक होती है / इसी कारण हम लोग अनेक दोषोंके शिकार हो गए हैं। कुमारपाल जैन हो तो क्या और शैव हो तो क्या - मुझे तो उसमें कोई विशेषता नहीं प्रतीत होती। महत्त्व है तो उसके व्यक्तित्वका / सिद्धराज जैन न था, वह एक चुस्त शैव था इससे अगर मैं सिद्धराजका महत्त्व न समझू तो समझ लो कि मेरी सारासारविवेक बुद्धिका दिवाला निकल गया है / अमुक व्यक्ति अमुक धर्मका अनुयायी था इतने मात्रसे हम उसके व्यक्तित्वको परखने और अपनाने की उपेक्षा करें तो हम अपनी ही जातीयता - राष्ट्रीयताका अहित करते हैं। शव हो, या वैष्णव, बौद्ध हो या जैन- धर्म से कोई भी हो- जिन्होंने अपनी प्रजाकी उन्नति और संस्कृतिके लिए विशिष्ट कार्य किया है वे सब हमारे राष्ट्र के उत्कर्षक और संस्कारक पुरुष हैं / ये राष्ट्रपुरुष हमारी प्रजाकीय संयुक्त अचल सम्पत्ति हैं। अगर इनके गुणोंका यथार्थ गौरव हम लोग न समझें तो हम उनकी अयोग्य प्रजा सिद्ध होंगे। शैव, बौद्ध, जैन ये सारे मत एक ही आर्यतत्त्वज्ञानरूपी महावृक्षकी अलग अलग दार्शनिक शाखाओंके समान हैं। वृक्षकी विभूति उसकी शाखाओंसे ही है और जब तक वृक्षमें सजीवता मौजूद है उसमें शाख-प्रशाखाएं निकलती ही रहेंगी। शाखा-प्रशाखाओंका उद्गम बन्द हो जाना वृक्षके जीवनका अन्त है / धर्मानुयायी और मुमुक्षु जन पक्षियोंके समान हैं जो शान्ति और विश्रान्तिके लिए इस महावृक्षका आश्रय ग्रहण करते हैं। जिस पक्षीको जो शाखा ठीक और अनुकूल प्रतीत हो वह उसीका आश्रय लेता है और शान्ति प्राप्त करता है / जिस प्रकार कोई पक्षी, अनुकूल न होने पर एक शाखा छोड़ कर दूसरी शाखाका आश्रय लेता है उसी प्रकार विचारशील मानव भी स्वरुचि अनुसार किसी एक धर्मका त्याग कर धर्मान्तर ग्रहण करता है और मनःसमाधि प्राप्त करता है / कुमारपालने भी मनःसमाधि प्राप्त करनेके लिए ही धर्मपरिवर्तन किया था। सात्त्विका रूपसे किया गया धर्मपरिवर्तन दोषरूप नहीं, गुणरूप होता है / ऐसे धर्मपरिवर्तनसे नवीन बल और उत्साहका * चार होता है। प्रजाकी मानसिक और नैतिक उन्नति होती है। जैन धर्मका स्वीकार कर कुमारपालने जो प्रजाक अनन्य कल्याण किया था वह दूसरी तरहसे करना संभव न था / उसके धर्मपरिवर्तनने प्रजाके पारस्परिक विद्वेषको कम किया और सामाजिक उत्कर्षको आगे बढ़ाया / वस्तुतः उस जमाने में आजके समान धर्मपरिवर्तनकी संकुचित विचारश्रेणी नहीं थी। सामाजिक दृष्टिसे धर्मपरिवर्तन कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है। गुजरातके अनेक प्रतिष्ठित कुटुंबोंमें जैन और शैव दोनों धौंका पालन किया जाता था। किसी घरमें पिता शैव था तो पुत्र जैन, किसी घरमें सास जैन थी तो वधू शैव / किसी गृहस्थका पितृकुल जैन था तो मातृकुल शैव और किसीका मातृकुल जैन था तो पितृकुल शैव / इस प्रकार गुजरातमें वैश्य जातिके कुलोंमें प्रायः दोनों धौके अनुयायी थे / इसलिए इस प्रकारका धर्मपरिवर्तन गुजरातके सभ्य समाजमें बहुत सामान्य सी बात थी / राज्यके कारोवारमें भी दोनों धर्मानुयायियोंका समान स्थान और उत्तरदायित्त्व था / किसी समय जैन महामात्यके हाथमें राज्यकी बागडोर आती तो कभी शैव महामात्यके हाथमें। लेकिन इससे राजनीतिमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं होता था। शवों और जैनोंकी कोई अलग अलग समाजरचना नहीं थी / सामाजिक विधि-विधान सब ब्राह्मणों द्वारा ही नियमानुसार संपन्न होते थे। शैव कुटुम्बों और जैन कुटुम्बोंकी कुलदेवी एक ही होती पी और उसका पूजन-अर्चन दोनों कुटुम्ब वाले कुलपरम्परानुसार एक ही विधिसे मिल कर करते थे। इस प्रकार सामाजिक दृष्टिसे दोनोंमें अमेद ही था। सिर्फ धर्मभावना और उपास्य देवकी दृष्टिसे थोडासा मेद था। शैव अपने इष्टदेव शिवकी उपासना और पूजा-सेवा करते, जैन अपने इष्टदेव जिनकी पूजा-अर्चना करते / शिवपूजकोंके कुछ वोंमें मद्यमांस जाग्य नहीं माना जाता था परन्तु जैनोंमें यह वस्तु सर्वथा त्याज्य मानी जाती थी। कोई भी अगर जैन बनता तो Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 राजर्षि कुमारपाल उसका अर्थ यही होता था कि उसने मद्य-मांसका सेवन त्याग दिया है और इसका त्याग कर उसने जीवहिंसा न करनेका मुख्य जैन व्रत लिया है / शैव और जैन दोनों मुख्य रूपसे गुजरातके प्रजाधर्म थे, तो भी सामान्य रूपसे राजधर्म शैव ही माना जाता था और गुजरातके राजाओंके उपास्य देव शिव थे / राजपुरोहित शिवधर्मी नागर ब्राह्मण और राजगुरु शिवोपासक तपस्वी थे। किन्तु अणहिलपुरके संस्थापक वनराज चावड़ासे ले कर कर्णवाघेला तक गुजरातके हिन्दू राज्य कालमें, जैन धर्मके अनुयायियोंका सामाजिक दर्जा सबसे ऊँचा था। प्रजावर्गमें जैन जन विशेष प्रतिष्ठित एवं अग्रणी थे। राज्यशासनमें भी उनका हिस्सा सबसे अधिक था। इससे राजाओंके शैव होने पर भी जैन धर्म पर उनकी सदैव आदर दृष्टि रहती थी। विद्वान् जैन आचार्य राजाओंके पास निरन्तर आते रहते थे और राजा लोग भी अपने गुरुओंके समान ही उन्हें आदर देते कई बार तो राजकुटुम्बोंमेंसे भी कोई कोई जैन धर्मकी संन्यास दीक्षा धारण कर लेता था। अनेक राजपुत्र जैन आचार्योंके पास शिक्षा ग्रहण करते थे / इस प्रकार राजा लोग जैनोंके साथ सब प्रकारसे निकट सम्बन्धमें रहते थे। उससे इनके मनमें धर्म-सम्बन्धी किसी भी प्रकारका भेदभाव नहीं रहता था। शैव धर्मका आदर्श प्रतिनिधि सिद्धराज भी जैनोंसे काफी सम्ब- . न्धित था। सिद्धपुरमें रुद्रमहालयके साथ-साथ उसने 'रायविहार' नामक आदिनाथका जैन मन्दिर भी बनवाया था। गिरनार पर्वत पर नेमिनाथका जो मुख्य जैन-मन्दिर आज विद्यमान है वह भी सिद्धराजकी उदारताका ही फल है। सोमनाथकी यात्राके साथ उसने गिरनार और शत्रुञ्जय तीर्थकी भी उसी भावसे यात्रा की थी / शत्रुञ्जय तीर्थका खर्च चलानेके लिए उसने बारह गांव उसके साथ लगा देनेके लिए अपने महामात्य अश्वाकको आज्ञा दी थी। इससे प्रतीत होता है कि सिद्धराजके हृदयमें जैन-धर्मके लिये किसी प्रकारकी तुच्छ भावना नहीं थी। उसमें और कुमारपालमें जो अन्तर था वह यही कि सिद्धराज अपने मनमें शैव धर्मको मुख्य मानता था और जैन धर्मको गौण; कुमारपाल अपने पिछले जीवनमें जैन-धर्मको मुख्य मानने लगा था / सिद्धराजके इष्टदेव अन्त तक शिव ही थे; किन्तु कुमारपालके इष्टदेव पिछले जीवनमें जिन थे / उसने जिनको अपना देव और आचार्य हेमचन्द्रको सद् गुरु, आप्तपुरुष और कल्याणकारी माना था। इसी प्रकार अहिंसा प्रबोधक धर्मको अपना मोक्षदायक धर्म मान कर श्रद्धापूर्वक उसका स्वीकार किया था। इस तरह वह जैन धर्मका एक आदर्श प्रतिनिधि बन गया था। इतनी पूर्व भूमिकाके बाद अब मैं कुमारपालके राजजीवनका रेखाचित्र उपस्थित करना चाहता हूँ। . अशोक और कुमारपाल कुमारपालका राजजीवन कई बातोंमें मौर्य सम्राट अशोकसे मिलता जुलता है। राजगद्दी पर आरूढ़ होने पर जिस प्रकार सम्राट अशोकको अनिच्छासे प्रतिपक्षी राजाओंके साथ लड़ना पड़ा उसी प्रकार कुमारपालको भी अनिच्छासे प्रतिपक्षी राजाओंके साथ लड़नेके लिए बाध्य होना पड़ा। राज्यसिंहासनारोहणके बाद तीन साल तक अशोकका शासन अस्त-व्यस्त रहा / यही हाल कुमारपालका भी था / जिस प्रकार अशोक 7-8 वर्ष तक शत्रुओंको जीतने में व्यग्र रहा उसी प्रकार कुमारपालको भी इतने ही समय तक शत्रुओंके साथ युद्ध करनेमें लगा रहना पड़ा। इस तरह आठ-दस वर्षके युद्धोपरान्त, जीवनके शेष भागमें जिस प्रकार अशोकने प्रजाकी नैतिक और सामाजिक उन्नतिके लिए कई राजाज्ञाएं निकाली और राज्यमें शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाये रखनेका प्रयत्न किया था, उसी प्रकार कुमारपालने भी स प्रकार अशोक पहले शैव और फिर बौद्ध हो गया उसी प्रकार कुमारपाल भी पहले शैव था, फिर जैन हो गया। अशोकके समान ही कुमारपालने भी स्वीकृत धर्मके प्रचारके लिए अपनी सारी शक्ति लगा दी थी। जिस प्रकार अशोकने बौद्ध-धर्म प्रतिपादित शिक्षाएँ तथा उच्च धार्मिक नियमोंका स्वीकार कर 'परमसुगतोपासक'की पदवी धारण की; उसी प्रकार कुमारपालने भी जैन-धर्मप्रतिपादित गृहस्थके जीवनको आदर्श बनाने वाले आवश्यक अणुव्रतादि नियमोंका श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके 'परमाहत'का पद प्राप्त किया। अशोकके समान ही प्रजाको दुर्व्यसनोंसे हठानेके लिए कुमारपालने कई राजाज्ञाएँ निकालीं थीं। अशोकके बौद्ध स्तूपोंकी भांति कुमारपालने भी कई जैन विहारोंका निर्माण कराया / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल निर्वशके धनका त्याग इन सबके उपरान्त कुमारपालने एक विशेष कार्य किया था / प्राचीन कालकी राजनीतिके अनुसार लावारिस पुरुषकी सम्पत्ति उसके मरनेके बाद राजाकी हो जाती थी और इस कारण मरने वालेके, माता. स्त्री आदि आश्रित जन अनाथ और निराधार बन जाते थे तथा मृत्युसे भी अधिक दुःख भोगते थे। इस कर राजनीतिसे कई अबलाएँ जीवित रहने पर भी मरी हुईके समान हो जाती थीं। जले पर नमक छिडकने वाली इस दुष्ट प्रथाको कुमारपालने अपने राज्यमें एक आदेश निकाल कर बन्द करा दिया। कदाचित् ऐसा कार्य अशोकने भी न किया हो। कुमारपालको इस कुनीतिकी निष्ठुरताका पता किस भांति चला उसका वर्णन हेमचन्द्राचार्य अपने द्याश्रयमें इस प्रकार करते हैं किसी रात्रिके समय जब राजा अपने महलमें सो रहा था तब उसे दूरसे एक स्त्रीका बहुत करुण क्रन्दन सुनाई पडा। इस बातको जानने के लिए चौकीदारके नील वर्ण वस्त्र धारण कर राजा महलसे निकला और कोई न पहचान ले इस तरह धीरे-धीरे उस करुण रुदनकी तरफ चला गया। वह जा कर क्या देखता है कि पेडके नीचे एक स्त्री गलेमें फन्दाडाल कर मरनेकी तैयारी कर रही है और रो भी रही है / राजाने धीरेसे उसके पास जा कर आदर पूर्वक मधुर वचनोंसे पूछा कि क्या बात है / विश्वास पा कर स्त्रीने कहा-'मेरे पतिदेव इस शहरमें परदेशसे व्यापार करनेके लिए आए थे और मैं भी उनके साथ थी। इस सुशासित शहरमें हम लोगोंने व्यापार करते करते बहुत सम्पत्ति इकट्ठी कर ली। इसी बीच में मैंने एक पुत्रको जन्म दिया। हम लोगोंने उसका भरण-पोषण किया / उसे शिक्षित बनाया। योग्य उम्रमें एक अच्छे कुलकी लडकीके साथ उसका पाणिग्रहण करा दिया। जब मेरा पुत्र वीस वर्षकी अवस्थाका हुआ तब उसके पिता वर्ग सिधार गए और उनके शोकसे पुत्र इतना विह्वल हो गया कि वह भी थोडे दिनों बाद मुझे अनाथ बना कर पिताके मार्ग पर चला गया। अब मेरी सारी सम्पत्ति नियमानुसार राज्यकी सम्पत्ति हो जायगी और मेरा जीवन बरबाद हो जायगा। मैं उस करुण अवस्थाको नहीं देखना चाहती इसीलिए मरना चाहती हूँ। राजा स्त्रीके इस कथनको सुन कर करुणा हो ऊठा और उसको आश्वासन देते हुए कहने लगा-माता! तुम अपने घर जाओ और इस तरह अपना अपघात मत करो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि राजा तुम्हारी सम्पत्ति नहीं लेगा / तुम अपने धनसे य अपना कल्याण करो।' इतना कह कर राजाने अपने महलोंकी ओर चल दिया और सवेरा होने पर मन्त्रियोंको बुला कर अपने राज्यमें यह घोषणा करने की आज्ञा दी कि-'प्राचीन जमानेसे चली आई यह राज्यप्रथा, कि लावारिस पुरुषकी मृत्युके पश्चात् उसकी सम्पत्ति राज्यकी हो जाय, बन्द की जाती है और आजसे यह राजाज्ञा जाहिर की जाती है कि ऐसी संपत्ति राज्यका कोई भी कर्मचारी न ले / राजाकी आज्ञानुसार मन्त्रियोंने इस आज्ञापत्रकी घोषणा सारे राज्यमें करा दी और मृतक-धन लेना बन्द कर दिया। प्रबन्ध कर्ताओंके अनुमानसे इससे राज्यमें एक रोडकी वार्षिक आमदनी होती थी परंत राजाने इसका तनिक भी लोभ न करते हुए इस अधर्म और प्रजापीडक प्रथाको हमेशाके लिए बन्द कर दिया। मन्त्री यशःपालने अपने नाटकमें इससे भी बढ कर हृदयङ्गम वर्णन किया है / हेमाचार्यने तो अमुक घटनाको लक्ष्यमें रख कर ही काव्यकी पद्धतिके अनुसार सिर्फ सूचना मात्र की है। यशःपालने उसमें कई ऐतिहासिक घटनाओंको भी अन्तर्निहित किया है / यह नाटक एक रूपक है इसलिए इसमें ज्यादा वास्तविकताका तो न होना स्वाभाविक ही है / यशःपालका वर्णन इस प्रकार है-'एकदिन जब राजा अपने स्थान पर बैठा हुआ था उसने एक विशाल मकानसे स्त्रीका करुण रुदन सुना / थोडी देर बाद नगरके चार महाजनोंने आ कर राजासे निवेदन किया कि नगरका कुबेर नामक एक कोट्यधीश निःसन्तान मर गया है इस लिए उसकी सम्पत्ति लेनेके लिए अधिकारी पुरुष भेजिए और हम लोगोंको उसकी अन्त्येष्टि क्रिया करनेकी आज्ञा प्रदान कीजिए। सेठकी मृत्युका समाचार सुन कर राजा बहुत उद्विग्न Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल होता है और जीवनकी अस्थिरताका गम्भीर विचार करने लगता है। साथ ही साथ मृतके कुटुम्बकी करुण दशा और राज्यकी क्रूर नीतिका बीभत्स चित्र देखता है / आशाषन्धादहह सुचिरं संचितं क्लेशलक्षैः केयं नीतिर्नुपतिहतका यन्मृतखं हरन्ति / क्रन्दन्नारीजघनवसनाक्षेपपापोत्कटानाम् आः किं तेषां हृदि यदि कृपा नास्ति तत्किं त्रपाऽपि // राजा कुछ विचार कर कहता है कि मैं वहीं आता हूँ। तत्पश्चात् राजा पालकीमें बैठ कर राजभवनसे भी अधिक सशोभित और विशाल ऐसे कुबेरके भवनके पास आया। महलके ऊपर कोट्यधीशताका सचन करने प्रकारकी ध्वजाएं फहरा रही थीं / एक दरवाजे पर शहरके सैंकडों सेठ शोकविह्वल दिखाई पड़ रहे थे और घरके अन्दरसे रुदनका करुण खर आ रहा था / घरके बाहर खडे हुए सेठोंको देख कर राजाने अग्रणी सेठसे पूछा कि सब लोग बाहर क्यों खडे हुए हैं / सेठका उत्तर था कि हम लोग राजाकी आज्ञाकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजाने कहा इसमें राजाज्ञाकी क्या आवश्यकता है ! सेठने उत्तर दिया- राज्यनियमानुसार जब राज्याधिकारी सारी सम्पत्तिको अपने अधिकारमें कर ले उसके बाद हमें घरमें जाना चाहिए / अन्यथा हम लोग दण्डके भागी होते हैं / राजा पालकीसे ऊतर कर घरमें जाता है और सेठ उसकी सारी ऋद्धि समृद्धिका उसे परिचय कराता है / राजमहलोंमें भी अलभ्य ऐसी वस्तुएं सेठके मकानमें पा कर राजा आश्चर्यचकित हो जाता है / तत्पश्चात् राजा कुबेरकी माताके पास जा कर बैठता है और कुबेरकी मृत्युके बारेमें सारी हकीकत पूछता है। कुबेरके मित्र सारी हकीकत कहते हैं-'परदेशमें व्यापार चलानेके लिये कुबेर पाटनसे भरुच गया था और वहाँसे 500 नावोंमें माल भर कर परदेश चला गया था / वहाँ पर सारा माल बेच कर 4 करोड रुपयेका अन्य माल प्राप्त किया। वहाँसे खदेश आते समय रास्तेमें एक भयंकर तूफान आया और उससे सब नावें नष्ट - भ्रष्ट हो गई और कुछ इधर- उधर भटकती भरुच बंदरगाह पर पहुँची। कुबेरका क्या हाल दुआ यह अभी तक पता नहीं लगा इसी लिए यह ऐसा प्रसंग उपस्थित हुआ है। राजा यह सब सुन कर सहानुभूति पूर्ण स्वरसे कुबेरकी माताको आश्वासन देता है-'माता! इस तरह अविवेकीकी तरह शोकसे विहल मत बनो। आकीटाद्यावदिन्द्रं मरणमसुमतां निश्चितं पान्धवानां . 'सम्बन्धश्चैकवृक्षोषितबहुविहगव्यूहसांगत्यतुल्यः। प्रत्यावृत्तिम॒तस्योपलतलनिहितप्लुष्टबीजप्ररोह- . प्रायः प्राप्येत शोकात् तदयमकुशलैः क्लेशमात्मा मुधैव // __माता उत्तर देती है-'पुत्र ! सब समझती हूँ, लेकिन पुत्रका मृत्युशोक सब विस्मरण करा देता है।' राजा कहता है कि-माता ! मैं भी तुम्हारा ही पुत्र हूँ इसलिए शोक करना अच्छा नहीं है।' इतनेमें राज्यके नौकरोंने कुबेरके घरका सारा धन इकट्ठा करके राजाके सामने ढेर लगा दिया। राजा उसका निषेध करता हुआ महाजनोंसे कहता है कि-'मैं आजसे मृतजनोंका धन राजभण्डारमें लेनेका निषेध करता हूँ। यह कितनी अधम नीति है कि जो मनुष्य अपुत्र मर जाय उसके धन हडपनेकी इच्छा रखने वाले राजा उसके पुत्रत्वको प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं।' राजा वहांसे महलमें आ कर मंत्रियों द्वारा सारे शहरमें घोषणा करवाता है कि निःशूकैः शकितं न यनृपतिभिस्त्यक्तुं कचित् प्राक्तनैः पन्याः क्षार इव क्षते पतिमृती यस्यापहारः किल / आपाथोधिकुमारपालनृपतिर्देवो रुदत्या धनं विभ्राणः सदयः प्रजासु हृदयं मुश्चत्ययं तत् खयम् / / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल कविप्रतिभासे चित्रित इस चित्रमें नामनिर्देश भले ही काल्पनिक हो परन्तु यह सारा चित्र काल्पनिक नहीं है। इसमें वर्णित घटना अनैतिहासिक नहीं है / इस घटनाके अनुरूप अवश्य ही कोई घटना घटी होगी। यह चित्र कुमारपालकी महानुभावताको उत्तम रूपमें प्रतिबिम्बित करता है। इस प्रकार मृत-ख-मोचन द्वारा प्रजाहितका कार्य करके कुमारपालने उस कीर्तिको प्राप्त किया जिसे सत्ययुगमें होने वाले रघु, नहुष, नाभाग और भरत आदि परम धार्मिक राजा भी प्राप्त नहीं कर सके / इसीसे प्रसन्न हो कर आचार्य हेमचन्द्र उसकी प्रशंसा करते हैं न यन्मुक्तं पूर्व रघु-नहुष-नाभाक-भरत प्रभृत्युर्वीनाथैः कृतयुगकृतोत्पत्तिभिरपि / विमुश्चन् सन्तोषात् तदपि रुदतीवित्तमधुना कुमारक्षमापाल ! त्वमसि महतां मस्तकमणिः॥ अपुत्राणां धनं गृह्णन् पुत्रो भवति पार्थिवः। त्वं तु सन्तोषतो मुश्चन् सत्यं राजपितामहः॥ गुजरातका वह सर्वोपरि आदर्श राजा था। वह जैसा वीर, नीतिनिपुण और दुर्धर्ष था वैसा ही संयमी, धर्मपरायण और सौम्यं भी था। उसमें अनुभवकी विशालताके साथ साथ गंभीर तात्त्विक बुद्धि भी कम न थी। वह त्यागीके साथ मितव्ययी और पराक्रमीके साथ क्षमावान् भी था। सिद्धराज और कुमारपाल गुजरातके साम्राज्यके दो ही सर्वोत्कृष्ट प्रभुत्वशाली राजा हुए -सिद्धराज और कुमारपाल / दोनोंके पराक्रम और कौशलसे गुजरातका गौरव चरम सीमा पर पहुँच गया था। प्रबंधकारोंका कहना है कि सिद्धराजमें 98 गुण थे और दो दोष थे और कुमारपालमें थे 98 दोष और 2 गुण / ऐसा होने पर भी कुमारपाल श्रेष्ठ था / सिद्धराजने गुजरातके नागरिकोंके लिए महास्थान बनाये तो कुमारपालने उनका संरक्षण करनेके लिए दुर्गोंका निर्माण कराया / सिद्धराज ने गुजरातके पराक्रमका गुञ्जन करने वाली महायात्राएं की तो कुमारपालने उन यात्राओंकी चिरस्मृतिके लिए महाप्रशस्तियोंकी रचना करवाई / सिद्धराजने गुजरातके गौरवधाम गिरनारके ऊपर महातीर्थकी स्थापना की तो कुमारपालने गुजरातके आबाल वृद्धोंको यात्रा सुलभ बनानेके लिए उस पर सीढियोंका निर्माण कराया / सिद्धराजने अगर गुजरातकी गुरुताके महालयोंका निर्माण किया तो कुमारपालने उन महालयों पर खर्णकलश और घजदंड चढा कर उन्हें सुप्रतिष्ठित किया / कुमारपाल गुजरातकी गरिमाका सर्वोपरि शिखर था। इसके समयमें गुजरातवासी विद्या और विभुतामें, शौर्य और सामर्थ्यमें, समृद्धि और सदाचारमें, धर्म और कर्ममें, उत्कृष्टता पर पहुँच गये थे। उसके राज्यमें प्रकृतिकातर वैश्य भी महान् सेनापति हुए, द्रव्यलोलुप वणिग्जन भी महाकवि हुए और ईर्षापरायण ब्राह्मण तथा निन्दापरायण श्रमण भी परस्पर मित्र हुए। व्यसनासक्त क्षत्रिय भी संयमी साधक बने और हीनाचारी शूद्र धर्मशील बने / धर्मसहिष्णुता उत्साहप्रवर्तक धर्मपरिवर्तनके पश्चात् मी धर्मसहिष्णुता जितनी उसके राज्यमें थी वैसी किसीके राज्यमें दृष्टिगोचर महीं हुई / कदाचित् भारतके प्राचीन इतिहासमें वह एक ही पहला और अन्तिम उदाहरण होगा कि हेमचंद्र जैसा जैन धर्मका महन् आचार्य शिव मंदिरमें श्रद्धालु शैवकी तरह यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया। बीतवोषकलपासचे भवान् एक एव भगवन्नमोऽस्तु ते॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल ऐसी अद्भुत कल्पना और अनुपम रचना द्वारा शिवकी स्तुति करता है / गंड बृहस्पति जैसा महान् शैव मठाधीश जैनाचार्यके चरणोंमें वन्दन करके चतुर्मासीमासीत्तव पदयुगं नाथ ! निकषा कषायप्रध्वंसाद्विकृतिपरिहारव्रतमिदम् / इदानीमुद्भिद्यन्निजचरणनिर्लोटितकले ____ जलक्लिनरत्नैर्मुनितिलक ! वृत्तिर्भवतु मे // ऐसी स्तुति द्वारा एक सुशिष्यकी भांति अनुग्रहकी याचना करता है। इतिहासके सैकड़ों प्रबन्धोंमें खोजने पर वह एक ही राजा ऐसा मिलता है जो कुलपरंपराप्राप्त 'उमापतिवरलन्धप्रौढप्रताप' बिरुदमें अभिमान करता हुआ भी खरुचिखीकृत 'परमार्हत' बिरुदसे अपनेको कृतकृत्य मानता है। जिस आदरभावसे वह सोमेश्वरके पुण्यधामका जीर्णोद्धार करता है उसी आदरसे उसके पडोसमें पार्श्वनाथके जैन चैत्यकी भी स्थापना करता है। कुमारपाल गुजरातकी गर्वोन्नत राजधानी अणहिलपुरमें शंभुनाथके निवासार्थ 'कुमारपालेश्वर' और पार्श्वनाथके लिए 'कुमारविहार' नामक दो मंदिरोंका निर्माण एक दूसरेके समीप ही करता है। इससे बढ कर धार्मिक सहिष्णुताका उदाहरण मिलना कठिन है। ___कुमारपाल खभावसे ही धार्मिकवृत्ति वाला था, इससे उसमें दया, करुणा, परोपकार, नीति, सदाचार और संयमकी वृत्तियोंका विकास उच्च प्रकारका हुआ था / उसमें ये बहुतसे गुण पैतृक ही होने चाहिए। उसके प्रपिता के पिता क्षमराज ने-जो पराक्रमी भीमदेवका ज्येष्ठ पुत्र और सिद्धराजके भोगपरायण पिता / भ्राता था,-पिता द्वारा दी गई राजगद्दीका अस्वीकार कर अपने छोटे भाई कर्णको राज्य दे दिया आर स्वयं मंडूकेश्वर तीर्थमें जा कर तपखीके रूपमें शंकरकी उपासनामें लीन रहते हुए जीवन सफल बनाया। उसका पुत्र देवप्रसाद भी राजकाजकी झंझटोंसे दूर रह कर खयं पिताका अनुकरण करता रहा और जिस समय विलासी कर्णका असमयमें अवसान हुआ तो वह इतना उद्विग्न हो उठा कि सजीव देहसे चितामें प्रवेश कर गया / कुमारपाल का पिता त्रिभुवनपाल भी एक सदाचारी और धर्मपरायण क्षत्रिय था। सिद्धराजके लिए वह अत्यन्त आदरणीय पुरुष था। उसके नीतिपरायण जीवनका प्रभाव सिद्धराजके खच्छन्द जीवन पर अंकुशका काम करता था। इस प्रकार कुमारपालको अपने पूर्वजोंसे उत्तम गुणोंकी अमूल्य निधि मिली थी। हेमचन्द्र जैसे महान् साधु पुरुष के सत्संगसे वह धर्मात्मा 'राजर्षिकी लोकोत्तर पदवीके महान् यशका उपभोक्ता हुआ। हेमचन्द्रसूरिने उसके यश को अमर बनानेके लिए 'अभिधान चिन्तामणि' जैसे प्रमाणभूत शब्दकोशके सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में उसके लिए कुमारपालचौलुक्यो राजर्षिः परमार्हतः। मृतवमोक्ता धर्मात्मा मारिव्यसनवारकः // ऐसे उपनाम प्रथित कर सार्वकालिक संस्कृत वाङ्मय में उसके नाम को सार्वभौमिक शाश्वत बना दिया। . श्रमणोपासक कुमारपाल इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि कुमारपाल अपने अंतिम जीवनमें एक चुस्त जैन राजा था। उसने जैनधर्म प्रतिपादित उपासक अर्थात् गृहस्थ श्रावक धर्मका दृढ़ताके साथ पालन किया था। ऐतिहासिक कालमें कुमारपाल के सदृश जैन धर्मका अनुयायी राजा शायद ही कोई हुआ हो / जैन साहित्यमें यों तो बहुतसे राजाओंका जैन होनेका जिक्र आता है। उदाहरणके तौर पर उज्जयिनीका विक्रमादित्य, प्रतिष्ठानपुरका सातवाहन, वलभी का शिलादित्य, मान्यखेटका अमोघवर्ष, गोपगिरिका आमराज-इत्यादि राजा जैन धर्मके अनुरागी थे। लेकिन ये सब राजा अगर जैन धर्मके अनुरागी बने होंगे तो इतने ही अर्थमें कि उन्होंने जैन धर्म और उनके अनुयायियों में अपना सविशेष अनुराग या पक्षपात बताया होगा: समय समय पर जैन गुरुषोंको सबसे ज्यादा भादर प्रदान Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल किया होगा और उनके उपदेशसे प्रभावित हो कई एक जैन मन्दिरों आदिका निर्माण भी कराया होगा। कुछ उससे आगे बढ़ कर वर्षके अमुक दिनों या महीनों में जीवहिंसा प्रतिबंधक राजाज्ञाएँ निकाली होंगी और स्वयं भी मद्य-मांसका सेवन न करनेकी प्रतिज्ञाएँ की होंगी। लेकिन कुमारपालके समान गृहस्थ धर्मके आदर्श रूप सम्पूर्ण बारह व्रतोंका तो किसीने अंगीकार नहीं किया होगा। - उसके द्वारा अंगीकार किये गए उन द्वादश व्रतोंका सविस्तर वर्णन, जैन प्रबंधोंमें नाना उदाहरणोंके साथ दिया गया है / उदाहरणोंमें कुछ अतिशयोक्ति भले ही हो लेकिन मूल वात मिथ्या नहीं है-यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है और जो बात स्वयं हेमचन्द्र ही लिखते हैं उसमें असत्यको अवकाश ही कहाँ ? मन्त्री यशःपाल और सोमप्रभाचार्य की जिन कृतियोंका परिचय मैंने ऊपर दिया है उनके वर्णनोंसे यह प्रतीत होता है कि कुमारपालने विक्रम संवत् 1216 में हेमचन्द्राचार्यके पास सकलजनसमक्ष जैन धर्मकी गृहस्थ-दीक्षा धारण की थी। इस दीक्षाके धारण करते समय उसने मुख्य रूपसे ये प्रतिज्ञाएँ ली थीं: राज्यरक्षा निमित्त युद्धके अतिरिक्त यावत् जीवन किसी प्राणीकी हिंसा न करना, शिकार नहीं खेलना / मद्य और मांसका सेवन नहीं करना / प्रतिदिन जिन प्रतिमाकी पूजा-अर्चना करना और हेमचन्द्राचार्यका पदवन्दन करना / अष्टमी और चतुर्दशीके दिन सामायिक और पौषध आदि विशेष व्रतोंका पालन करना, रात्रिको भोजन न करना; इत्यादि इत्यादि। अमारी घोषणा ऐमी प्रतिज्ञाएँ लेनेके पश्चात् उसने अपने राज्यमें, दूसरे लोगोंको भी धर्मके मोटे नियमोंका पालन करवानेके लिए घोषणा करवाई थी। उसमें सबसे मुख्य आज्ञा थी जीवहिंसाके प्रतिबंधकी। हमारे देशमें बहुत प्राचीन कालसे दो कारणोंसे हिंसा होती आ रही है - एक है धर्मके निमित्त अर्थात् यज्ञयागादि धार्मिक कर्मकाण्ड और देवी देवताओंकी बलीके निमित्त; और दूसरी भोजनके निमित्त / कुमारपालने इन दोनों प्रकारकी जीवहिंसाका निषेध करनेके लिए राजाज्ञाएँ जाहिर की। हेमचन्द्राचार्यके द्वयाश्रय काव्यमें आए हुए वर्णनसे प्रतीत होता है कि मांसाहारके निमित्त होने वाली जीवहिंसाका निषेध तो कुमारपालने कदाचित् श्रावक धर्मके व्रतोंका अंगीकार करनेके पहले ही कर दिया था। शाकम्भरीके चाहमान राजा अर्णोराज और मालवाके परमार राजा बल्लालदेवको पराजित करनेके पश्चात् एक दिन कुमारपालने रास्तेमें किसी दीन-दरिद्र ग्रामीण मनुष्यको कसाई खानेकी ओर कुछ बकरे ले जाते देखा / उससे पूछताछ की और वस्तुस्थितिका ज्ञान होने पर, उस पामर मनुष्य और उन पशुओंकी ऐसी दशा देख कर राजाके मनमें बोधिसत्त्वके समान करुणाभाव उत्पन्न हुआ। उसके मनमें यह विचार आया कि ये लोग दुष्ट जाति वाले और कुत्तोंके समान धर्मविमुख है / ये अपने इस पापी पेटके लिए प्राणियोंका हनन करते हैं। वास्तवमें इसमें शासन करने वालेका ही दोष है। चूंकि यथा राजा तथा प्रजा। मुझे धिक्कार है कि मैं सिर्फ अपने सुखके लिए प्रजासे कर लेता हूँ लेकिन प्रजाकी रक्षाके लिए नहीं / इत्यादि विचार कर उसने अपने अधिकारियोंको आज्ञा दी कि मेरे राज्यमें जो कोई भी जीवहिंसा करे उसको चोर और व्यभिचारीसे भी अधिक कठोर दण्ड दिया जाय / आर्य प्रजामें जो लोग मांसाहारी हैं वे भी जीवहिंसाको घृणास्पद तो मानते ही हैं, क्यों कि दयामूलक धर्मकी भावना हमारी प्रजामें कई सदियोंसे रूढ हो गई है / 'अहिंसा परमो धर्मः' का सिद्धान्त भारतके सभी धर्म थोडे बहुत अंशमें खीकार करते हैं। इससे मांसाहारी मनुष्य जिह्वा इन्द्रियकी लोलुपताके कारण राजाज्ञाको मनसे भले ही अप्रिय समझते हों; तो भी प्रकट रूपसे उसका विरोध करनेकी नैतिक हिम्मत नहीं कर सकते। इसलिए वे बोल नहीं सकते / लेकिन धर्मके बहाने जीवहिंसा करने वालोंकी स्थिति अलग ही होती है। उनकी हिंसाको धर्मशास्त्रोंका, सनातन परंपराका, रूढियोंका और जनतामें व्याप्त अन्धश्रद्धाका यथेष्ट समर्थन प्राप्त होता है / इससे राजाज्ञाके विरुद्ध ये कुछ विरोध प्रकट करें तो सर्वथा अपेक्षित ही है। परन्तु गुजरातकी कुछ सामाजिक विशेषताओंके कारण तथा तत्का Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल लीन जैनोंके सामाजिक प्रभुत्वके कारण इस वर्गकी ओरसे भी इस आज्ञाका विशेष विरोध नहीं हुआ और कुमारपालको विशेष उपद्रवका सामना नहीं करना पडा। किन्तु विरोधका सर्वथा अभाव भी न था। कुछ प्रबंधकारोंके कथनसे प्रतीत होता है कि पाटणकी अधिष्ठात्री कण्टेश्वरी माताके राजपूजारियोंने कुमारपालको अपने निश्चयमें एक बार दोल कर दिया था। उन्होंने बताया था कि नवरात्रिमें नगर देवीकी पशबलि द्वारा पूजा होनी चाहिए: नही तो देवी कुपित होगी और उसके कोपसे राजा और राज्य पर भयानक आपत्ति आ जायगी / राजाने अपने महामात्य . वाग्भट्टसे, जो कुल परंपरासे जैन था, इस विषयमें सलाह मांगी। महामात्य चाहे कितना भी शूर वीर और राजनीतिज्ञ रहा हो आखिर था तो वणिग् ही। उसने सोचा-कहीं ऐसा न हो कि देवी वास्तवमें कुपित हो जाय तथा राजा और राज्य पर कोई आफत आ पडे / इससे धर्म और जाति दोनों की भारी अपकीर्ति होगी। इस तरहकी कितनी ही कल्पनाओंके वशीभूत हो, उसने चतुरतासे अस्पष्ट खर और अव्यक्त भावसे कहा कि 'देव! दीयते' अर्थात् पशुबलि तो दी जाती है। ऐसी स्थितिमें क्या किया जाय / लेकिन कुमारपाल तो क्षत्रिय था। 'प्राण जाय पर वचन न जाई' इन संस्कारोंका पार्थिव पिण्ड था। संसारके सामने ली हुई प्रतिज्ञा और जाहिर की गई आज्ञाओंका भङ्ग सच्चा क्षत्रिय कैसे होने दे / प्रतिज्ञापालन क गौरवके सामने, क्षत्रियके हृदयमें जिन्दगी और सम्पत्ति तृणके समान है। महामात्य वाग्भट्टका अदिग्ध उद्गार सुन कर कुमारपाल खिलखिला उठा और मर्मयुक्त खरसे बोला-'मनिन् वाणिगसि यदेवं श्रूषे' '-महामात्य ! वगिर हो, इससे ऐसा बोलते हो। भले ही राज्य और जिन्दगी सब नष्ट हो जायँ परन्तु ली हुई प्रतिज्ञा नहीं टूट सकती। राजाकी इस व्याकुल दशाका हेमचंद्रसूरिने अपनी अद्भुत कुशलता और व्यावहारिक बुद्धिसे एक अच्छा और सरल हल निकाल लिया / उनने 'एक पन्थ दो काज' वाली कहावत सिद्ध की। अपनी उस अद्भुत कलाका मन्त्र धीरे से उनने राजाके कानमें इंक दिया और राजा हर्षसे गद्गद् हो उठा / बलिपूजाके अवसर पर राजा थोडेसे पशुओंको साथ ले कर माता कण्टेश्वरीके मन्दिरमें पहुँचा और पूजारियोंसे कहने लगा कि-'मैं ये पशु माताको बलि चढानेके लिए लाया हूँ। इनको मैं माताके सामने जिन्दा रखता हूँ। अगर माताको इनके मांसकी अवश्यकता होगी तो वह खयं ही अपना भक्ष्य ले लेगी। आप लोगोंको भक्ष्य तैयार करनेका परिश्रम उठानेकी आवश्यकता नहीं है।' यह कह कर राजाने माताके मन्दिरमें पशुओंको भर दिया और बाहरसे ताला तगा दिया / दूसरे दिन प्रात:काल राजपरिवारके साथ राजा आया आर हजारों लोगोंकी उपस्थितिमें माताके मन्दिरका दरवाजा खोल कर देखा तो पता चला कि रात्रिको बन्द किये हुए पशु मन्दिरके अन्दर शान्तिसे जुगाली कर रहे हैं। माताने एकका भी भक्षण नहीं किया / राजाने सबके सामने उपदेश दिया कि-'माताको पशुओंके मांसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है / उसको इनकी भूख नहीं है / अगर उसको भूख होती तो इन पशुओंका निश्चय रूपसे उसने भक्षण किया होता / इससे पता चलता है कि माताके बदले ये पूजारी इन पामर पशुओंके मांसके भूखे हैं। लेकिन यह भूख अब मेरे राज्यमें नहीं मिट सकती। यह कह कर राजाने देवी-देवताओंके निमित्त होने वाली जीवहिंसाका भी समूल उच्छेद कर दिया। कुमारपालकी इस अहिंसा प्रवर्तक साधनाकी सफलता देख कर ब्राह्मण पण्डित श्रीधर एक विशेष प्रसंग पर हेमाचार्यकी स्तुति करता हुआ कहता है कि पूर्व वीरजिनेश्वरे भगवति प्रख्याति धर्म स्वयं प्रज्ञावत्यभयेऽपि मनिणि न यां कर्तु क्षमः श्रेणिकः / अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यधात् यस्यासाथ वचस्सुधां स परमः श्री हेमचन्द्रो गुरुः // अर्थात्-साक्षात् भगवान महावीर जिसको धर्मका बोध करने वाले थे और अभयकुमार जैसा प्रज्ञावान् पुत्र खयं जिसका मत्री था वह राजा श्रेणिक भी जो जीवरक्षा न कर सका वह जीवरक्षा, जिनके वचनामृतका पान करके कुमारपाल राजा अनायास ही साध सका, हेमचन्द्र बास्तवमें एक परम महान् गुरु है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल 25 स्वयं आचार्य हेमचन्द्र भी, उक्त महावीरचरित्र नामक पुराणग्रन्थमें महावीरके मुखसे कुमारपालके विषयमें भविष्यकथन सूपसे वर्णन करते हुए लिखते हैं कि पाण्डप्रभृतिभिरपि त्यक्ता या मृगया नहि / स स्वयं त्यक्ष्यति जनः सर्वोऽपि तवाज्ञया / हिंसानिषेधके तस्मिन् दूरेऽस्तु मृगयादिकम्। अपि मत्कुट-यूकादि नान्त्यजोऽपि हनिष्यति॥ तस्मिन्निषिद्धे पापविरण्ये मृगजातयः। सदाऽप्यविनरोमन्था भाविन्यो गोष्ठधेनुवत् // जलचरस्थलचरखेचराणां स देहिनाम् / रक्षिष्यति सदामारि शासने पाकशासनः॥ ये पाजन्मापि मांसादास्ते मांसस्य कथामपि / दुःस्वामिव तस्याज्ञावशान्नेष्यन्ति विस्मृतिम् // भगवान् महावीर अपने शिष्योंसे कहते हैं कि-भविष्यमें कुमारपाल राजा होने वाला है उसकी आज्ञासे. सब मनुष्य मृगयाका त्याग करेंगे। जिस मृगयाका पांडुके सदृश धर्मिष्ठ राजा भी त्याग न कर सके और न करवा सके / हिंसाका निषेध करने वाले इस राजाके समयमें शिकारकी बात तो दूर रही खटमल और जूं जैसे जीवोंको, अन्त्यज जन भी दुःख नहीं पहुँचा सकेंगे। इस प्रकार मृगयाके विषयमें निषेधाज्ञा होने पर, मृग आदि पशु निर्भय हो कर बाड़ेमें गायोंकी तरह चरने लगेंगे। इस प्रकार जलचर प्राणियों, पशुओं और पक्षिओंके लिए वह सदा अमारि रखेगा और उसकी ऐसी आज्ञासे आजन्म मांसाहारी भी दुःखप्नकी तरह मांसको भूल जाएँगे। ... कुमारपालकी ऐसी अमारिप्रिय वृत्ति देख कर उसके पड़ोसी और अधीन राजाओंने भी अमारि प्रवर्तनकी उदोषणा करनेके लिए कई आज्ञाएं जाहिर की थी जिसके प्रमाणमें कई शिलालेख मारवाड़ की परली सरहदमें मिलते हैं। कुमारपालकी इस अहिंसाप्रवर्तक नीतिका यह फल है कि वर्तमानमें, जगत्में सबसे ज्यादा अहिंसक प्रजा गुजराती प्रजा है और सबसे अधिक परिमाणमें अहिंसा धर्मका पालन गुजरातमें होता है। गुजरातमें हिंसक-याग प्रायः तभीसे बन्द हो गए हैं और देवी देवताओंके लिए होने वाला पशु-वध भी, दूसरे प्रान्तोंकी तुलनामें, गुजरातमें बहुत कम है / प्रायः गुजरातका संपूर्ण शिष्ट और उच्च समाज चुस्त निरामिषभोजी है। गुजरातका प्रधान किसान वर्ग भी मांसत्यागी है / भले ही अतिशयोक्ति हो, और उसका उपहास भी हो, परन्तु मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि इसी पुण्यमय परम्परा के प्रतापसे जगत्के सबसे श्रेष्ठ अहिंसामूर्ति महात्माको जन्म देनेका अद्वितीय गौरव भी गुजरातको प्राप्त हुआ है। मद्यपानका निषेध जीवहिंसाके साथ साथ जिन दूसरी पाप प्रवृत्तियोंका कुमारपालने अपनी प्रजामें निषेध कराया था उनमें मुख्य मद्यपानकी प्रवृत्ति मी थी। मद्य मनुष्य जातिका एक बहुत बड़ा शत्रु है, यह सब जानते हैं। पौराणिक कालमें यादवो का नाश भी मद्यपानसे ही हुआ था ऐसा पुराणोंमें वर्णन आता है। ऐतिहासिक कालमें भी मद्यपानके कारण अनेक साट् और उनके साम्राज्य नष्ट होनेके उदाहरण यथेच्छ प्राप्त हो सकते हैं। वर्तमानमें क्षत्रिय जातिका जो भयंकर पतन हुआ है और हो रहा है, उसमें मद्यका ही सबसे ज्यादा हाथ है। हमारी गरीब और परिश्रमी जनताकी जो इतनी बात दशा हुई है उसमें मद्य भी एक मुख्य कारण है, यह हम लोग अच्छी तरह जानते हैं। मथके इस बुरे असरको अल्पमें रख कर मध्य कालमें कितने ही मसलमान सम्राटोंने इसका जो तीव्र निषेध किया था उससे इतिहासके पाठक अपरिचित नहीं है। अमेरिका जैसे भौतिक संस्कृतिके उपासक राष्ट्रने भी इस बीसवी सदीमें इस उन्मादक मद्यपानको रोकके लिए राजाज्ञाका उपयोग किया है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल प्रबन्धगत प्रमाणोंसे प्रतीत होता है कि कुमारपाल जैन धर्मानुयायी होनेसे पहले मांसाहार तो करता था लेकिन मद्यपानकी तरफ उसे हमेशासे घृणा रही है। यहाँ तक कि उसके कुलमें भी यह वस्तु त्याज्य समझी जाती थी। हेमचन्द्रके योगशास्त्र में आये हुए एक उल्लेखसे प्रतीत होता है कि चौलुक्य कुलमें मद्यपान ब्राह्मण जातिकी तरह ही निन्य था। चौलुक्योंके पुरोगामी चावड़े पूरी तरहसे मद्यपायी थे। स्वयं अणहिलपुरका संस्थापक वनराज भी मद्य - प्रिय था। उसके पीछे उसके द्वारा निर्माण कराये गये अणहिलपुरके राजमहलोंमें मदिरा देवीका खूब सत्कार होता था और उसीका यह परिणाम हुआ कि यादवोंकी भांति चावड़ा वंशका भी नाश हो गया। यह बात मोहराजपराजय नाटक के कर्ता मन्त्री यशःपाल अप्रकट रूपसे बताते हैं / अंतिम चावड़ा राजा सामंत सिंहका राजसिंहासन किस भांति चौलुक्य वंशके प्रतिष्ठाता मूलराजके हाथमें आया, उसका सारा विवरण प्रबन्धचिन्तामणि में दिया है। उससे भी चावड़ों के मद्यपानकी बात स्पष्ट रूपसे ज्ञात होती है। जुएका निषेध मद्यनिषेधके साथ जुआ खेलनेकी मनाही भी कुमारपालने उतनी ही सख्तीसे की थी। धूतको ले कर पांडव जैसोंको भी कितना कष्ट भोगना पड़ा था और उसी प्रकार नल जैसे राजा पर कैसी आपत्ति आई थी-ये सब कथाएँ कुमारपालने हेमचन्द्रसूरिसे कई बार सुनी थीं और खयं ने भी आसपासके लोगोंमें इसका कुपरिणाम देखा था। इसलिए उसने चूत क्रीड़ा पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया / यशःपाल मन्त्रीके कथनसे प्रतीत होता है कि उस समय लोगोंमें. जुएका दुर्व्यसन अत्यधिक फैला हुआ था। बड़े बड़े राजपुरुष भी इस व्यसनमें फंसे हुए थे। ऐसे राजपुरुषोंमें से कुछ लोगोंका स्पष्ट निर्देश भी किया गया है, जो बहुत ही उपयोगी है। इस निर्देशके अनुसार मेवाड़का राजकुमार, सोरठके राजाका भाई, चन्द्रावतीका अधिपति, नाडोलके राजाका दौहित्र, गोधराके राजाका भतीजा, धाराके राजाका भानजा, शाकंभरीके राजाका मामा, कोंकणके राजाका सौतेला भाई, कच्छके राजाका साला, मारवाड़के राजाका दौहित्र और खुद चालुक्य नृपति अर्थात् कुमारपालका कोई पितृव्य आदि जैसे व्यक्ति थे। इस उल्लेखसे प्रतीत होता है कि अणहिलपुरके सम्राट्की सेवामें रहने वाले सारे अधीन राजाओंके प्रतिनिधी इस व्यसनमें पूरी तरह आसक्त थे / निकम्मे बैठे हुए इन लोगोंको दसरा और कोई क्या काम हो सकता था। प्रतिदिन नियत किये हुए दो तीन घण्टे राजाके उपस्थित हों और अपनी हाजिरी दे दें / उसके उपरान्त शांतिके समयमें ऐसे राज-प्रतिनिधियों को कोई काम न था। इसलिए उनका समय ऐसे ही दुर्व्यसनोंमें खर्च होता था। आज भी ऐसे लोगोंमें ऐसी ही स्थिति हम पाते हैं / इसी धूतको ले कर जुआरियोंमें आपसमें अनेक प्रकारके भयंकर कलह होते थे, मारामारी होती थी और नाना प्रकारके अश्लील कार्य होते थे। कुमारपालको यह वस्तुस्थिति अच्छी तरह मालूम थी। ऐसे दुष्परिणामोंसे प्रजाको बचानेके लिए उसने चुतनिषेध की राजाज्ञा जाहिर की थी। वेश्याव्यसनकी उपेक्षा इस प्रकार जिस राजनीतिको कुमारपालने चलाया उसमें एक मुख्य बात नजर नहीं आती; वह है वेश्याव्यसन के विषयमें / कुमारपालको इसकी कल्पना तो होनी ही चाहिए। मध और चूत की भांति यह त्यसन 11 प्रा हितकी दृष्टि से उतना ही अनिष्टकारी है और धर्मशास्त्रोमें भी इसकी अनिष्टता भली भांति वर्णित है / कुमारपालने, चाहे कुछ भी कारण हो, इस व्यसनकी उपेक्षा की थी। मोहराजपराजय नाटकमें इस विषयमें भी एक निर्देश मिलता है / उपरोक्त प्रकारसे जब कुमारपालने सब दुर्व्यसनोंका बहिष्कार कराया तब वेश्याव्यसन को भी भय लगा; परन्तु राजा उसकी उपेक्षा करता हुआ कहता है कि- 'वेश्याव्यसनं तु बराकमुपेक्षणीयम् / न तेन किश्चिद् गतेन स्थितः। वा' - अर्थात् बेचारे वेश्याव्यसनकी तो उपेक्षा करनी चाहिए। इसके रहने और जानेमें कुछ भी नहीं है। यह निर्देश गुजरातकी उस समयकी वेश्याविषयक स्थिति पर प्रकाश डालता है / उस समय समाजमें, दूसरे व्यसनों की भांति, वेश्या-व्यसन बहुत निय Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल 31 नहीं समझा जाता था। समाजके शिष्ट कहलाने वाले वर्गके साथ वेश्याओंका बहुत सम्बन्ध रहता था। उसी प्रकार वेश्याओंकी स्थिति भी आजकी भांति हलकी और व्यभिचार पोषक न थी। वेश्याओंका स्थान समाजमें एक प्रकारसे उच्च समझा जाता था। राज दरबारमें हमेशा उनकी उपस्थिति रहती थी। देवमन्दिरोंमें भी नृत्य संगीत आदिके लिए उनकी उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी / व्यक्तिगत और सार्वजनिक महोत्सवोंमें भी उनका स्थान पहला रहता था / कला और कुशलताकी वे शिक्षिकाएं मानी जाती थीं / लक्ष्मीदेवीके कृपापात्र राजपुत्रादि उनसे कलाका अभ्यास करते थे। अनेक राजा ऐसी कलाधाम वेश्याओंको अपनी प्रियतमा भी बनाते थे। स्वयं कुमारपालका पितृकुल भी, ऐसी ही एक, वेश्यावर्गमेंसे अवतीर्ण कलानिधी राजरानी की संतति था। उसके दरबार में भी यह वेश्यावर्ग काफी परिणाममें और अच्छी स्थितिमें विद्यमान था। इसलिए उनकी प्रवृत्तियोंके विषयमें किसी भी प्रकारका विधि-निषेध करनेका कुछ भी विचार नहीं किया होगा। इस प्रकार कुमारपालने जैनधर्ममें दीक्षित हो कर जैन सिद्धान्तोंके अनुसार कई स्थूल धार्मिक और नैतिक नियम जाहिर किये थे और प्रजा द्वारा इन नियमोंका पालन करानेके लिए पूरी सावधानी रखी थी। हेमचन्द्र आचार्यका कहना है कि उसके अहिंसाके आदेशका पालन करनेके लिए अन्त्यज जन भी जू माकड़ आदि तककी हत्या नहीं करते थे। इस कथनमें भले ही कुछ अतिशयोक्ति होगी, लेकिन राजा इस विषयमें पूरा पूरा सतर्क था इसमें कोई शंका नहीं है / प्रबन्धोंमें जो एक यूंकाविहार मन्दिर बंधवानेका इतिहास मिलता है उससे इस बातकी पुष्टि होती है। ___ कुमारपालने इस प्रकारके नैतिक कार्य करनेके उपरांत जैन धर्मके प्रचार और प्रसारके लिए जगह जगह सैकड़ों मन्दिरोंका निर्माण कराया था / शत्रुजय और गिरनार जैसे जैन तीर्थोंकी यात्रा बड़े शाही ठाठके साथ संघ निकाल कर की थी। वह राजधानीमें प्रति वर्ष बड़े बड़े जैन महोत्सवोंका भी आयोजन किया करता था और दूसरे शहरोंमें मी महोत्सवोंके आयोजनकी प्रेरणा दिया करता था। राजर्षिकी दिनचर्या .. वह राजकाजको नियमित रूपसे देखता रहता था। उसकी दिनचर्या व्यवस्थित थी। विलास या व्यसनका उसके जीवनमें कोई स्थान न था / वह बहुत दयालु और न्यायपरायण था / अंतरसे वास्तवमें मुमुक्षु था और ऐहिक कामनाओंसे उसका मन उपशांत हो गया था। राजधर्म समझ कर वह राज्यकी सब प्रवृत्तियाँ देखता था लेकिन उनमें उसकी आसक्ति न थी। उसकी दिनचर्याके संबंधमें हेमचन्द्राचार्यने 'प्राकृतद्याश्रय' काव्यमें और सोमप्रभाचार्यने 'कुमारपाल प्रतिबोध' नामक ग्रन्थमें जो बताया है उससे पता लगता है कि- वह प्रातःकाल सूर्योदयके पहले ही शय्या त्याग करके सबसे प्रथम जैनधर्ममें मंगलभूत अरिहंत, सिद्ध, आचार्यादि पाँच नमस्कार पदोंका स्मरण करता था। तदुपरान्त शरीरशुद्धिकी क्रिया वगैरहसे निवृत्त हो कर अपने राजमहलके गृहचैत्यमें पुष्पादिसे जिन प्रतिमाकी पूजा करके स्तवनके साथ पञ्चाङ्ग नमस्कार करता था। वहाँसे निकल कर वह तिलकावसर नामक मण्डपमें जा कर सुकोमल गद्दी पर बैठता था / वहाँ उसके सामने दूसरे सामंत राजा आ कर बैठते थे और पासमें चामर धारण किये हुए वारांगनाएँ खड़ी रहती थीं। उसी समय राजपुरोहित या दूसरे ब्राह्मण आ कर आशीर्वाद देते थे और उसके मस्तक पर चन्दनका तिलक करते थे। तत्पश्चात् ब्राह्मणोंसे तिथिवाचन सुन कर उन्हें दान दे कर बिदा करता था और तुरंत ही फर्यादें सुनता था। यह कार्य समाप्त कर वह राजमहलोंकी ओर जाता और वहाँ अपनी माता और माताके समान ही राजवृद्धाओंको नमस्कार करके आशीर्वाद प्राप्त करता था। तदनन्तर फल-फूल आदिसे राजलक्ष्मीकी पूजा करवाता था और दूसरे देवी देवताओंकी जो प्रतिमाएँ राजमहलमें थीं, उनकी स्तुति वगैरह कराता था। वृद्ध स्त्रियोंको सहायतार्थ धन बाँटता था / उसके बाद व्यायाम शालामें जा कर व्यायामसे निपट कर स्नान करके वस्त्रालंकार धारण करता था और फिर राजमहलके बाहरके भागमें आता था। वहाँ पर पहलेसे ही सवारीके लिए सुसज्जित राजगज पर आरूढ़ हो, समस्त सामंत, मत्री Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 राजर्षि कुमारपाल बादिके परिवार सहित, अपने पिताके पुण्यनामांकित 'त्रिभुवनपालविहार' नामक महाविशाल और अतिमन्य जैन मन्दिरमें जिसको उसने करोड़ों रुपये खर्च करके बनवाया था, दर्शन और पूजा करने जाता था / जिस समय वह जिनमूर्तिका अभिषेक कराता था उस समय रङ्गमण्डपमें वारांगनाएँ आडम्बरके साथ नृत्य और गान करती थीं। जिन मन्दिस्में पूजाविधि समाप्त करके वह हेमचन्द्राचार्यके चरण वंदन करता और चंदन, कपूर एवं स्वर्ण कमलों द्वारा उनकी पूजा करता / उनके मुखसे यथावसर धर्मबोध सुन कर वहाँसे राजमहलकी ओर लौट जाता था / लौटते समय वह हाथी पर न चढ़ कर घोड़े पर सवार होता था। और अपने स्थान पर पहुँचता था। तदनन्तर याचकों आदिको यथायोग्य दान दे कर भोजन करता था। उसका भोजन बहुत ही सात्त्विक होता था / जैन धर्मके अनुसार वह बहुत बार एकाशन आदि तप करता था और हरे शाकादि खादिष्ट पदार्थोंका त्याग करता था। भोजनोपरान्त वह आरामगृह में बैठता था और वहाँ प्रसंगवश विद्वानोंके साथ शास्त्र और तत्त्व सम्बन्धी चर्चा करता था। तीसरे प्रहर वह अपने शाही ठाठके साथ राजमहलोंसे शहरके राजमार्गोंमें होता हुआ बाहर घड़ी दो घडी उद्यान क्रीड़ा करने जाता था। उस उद्यानको संस्कृतमें राजवाटिका, गुजरातीमें रायवाड़ी और राजस्थानी भाषामें रेवाड़ी, कहते हैं। संध्या समय वह वहाँसे राजमहलकी ओर लौटता और महलोंमें आ कर देवकी आरती आदिका संध्याकर्म करता। तत्पश्चात् एक पाट पर बैठ कर वाराङ्गनाओंके नृत्य और गान सुनता था। स्तुतिपाठक और चारणलोग उसकी खूब स्तुति करते थे / वहाँसे वह सर्वावसर नामक मुख्य सभा-मण्डपमें आ कर सिंहासन पर बैठता था / सभी राजकीय और प्रजावर्गीय सभाजन उपस्थित होते थे। राजा और राज्यके कल्याणके लिए राजपुरोहित द्वारा मन्त्र पाठ हो जाने पर चामर धारण करनेवाली स्त्रियां आसपास चामरादि उपकरण धारण करके खड़ी हो जाती थीं। तदुपरान्त मङ्गलवाय बजते थे और दूसरी स्त्रियां अपने अपने कामके लिए उपस्थित होती थीं। तत्पश्चात् वारांगनाएं राजाके वारणे लेती थीं और दूसरे सामन्त एवं अधीन राजा हाथ जोड़ कर खड़े रहते थे / राजाके सन्मुख राज्यके दूसरे महाजन-जैसे श्रेष्टिवर्ग, व्यापारी, प्रधान ग्रामजन आदि आ कर बैठते थे / परराज्योंके जो दूत आते थे वे दूरी पर सबसे पीछे बैटते थे। नीराजना विधि पूरी होनेके पश्चात् वारांगनाएँ एक तरफ बैठ जाती थीं और सम्पूर्ण सभा एकाग्र हो राज्य कार्यकी प्रवृत्ति देखती थीं। राज्य कार्यमें सबसे पहले सान्धिविग्रहिक अर्थात् विदेश मंत्री ( Foreign minister) परराज्योंके. संबंधोंकी कार्यवाही निवेदन करता था / किस राजाके साथ क्या संधि हुई है, कौनसे राजाने क्या इष्ट, अनिष्ट किया है, किसके ऊपर फौजें भेजी है, किन फौजोंने क्या किया है, कौन शत्रु मित्र होता है- इत्यादि परराज्योंके साथ संबंध रखनेवाली सब बातें निवेदन करता था। राजा यह सब सुन कर उस संबंधमें उपयुक्त विचार व्यक्त करता था। तत्पश्चात् दूसरी सारी राज्य कार्यवाही होती थी। उसको सुन कर भी यथायोग्य विचार करता और अन्त में सभाको विसर्जित कर यथावसर शयनागारमें जा कर शय्याधीन होता था। जैन धर्मके व्रतोंका स्वीकार करने पश्चात् वह बहुत बार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता था और पूर्ण रूपसे एकपत्नीव्रतधारी था। इस विषयमें वह पहलेसे ही बहुत सदाचारी था। इसी कारण तदाश्रित समस्त राजवर्गीय जनोंमें उसका बहुत प्रभाव था / इस तरह कुमारपालकी दिनचर्या नियत थी / विशेष अवसरों पर इस दिनचर्यामें जो फेरफार होता था वह प्रासंगिक होता था। प्रजाजनोंके आनन्दके लिए गजयुद्ध या मलयुद्ध एवं ऐसे ही दूसरे खेलोंका कार्यक्रम जब होता था उस समय राजा अपने राजवर्गके साथ वहाँ बैठता था और खेलोंको देखता था और अपने कार्यक्रममें फेरफार करता था। रथयात्रा आदि धार्मिक उत्सवोंमें भी वह इसी प्रकार भाग लेता था। कुछ पर्च दिवसोंके प्रसङ्ग पर रात्रिमें मन्दिरोंमें नाट्यप्रयोग या संगीतोत्सव होते थे उनमें भी वह उपस्थित रहता था। विद्या प्रेम कुमारपालके जीवन पर दृष्टिपात करनेसे पता चलता है कि वह सिद्धराज जितना प्रतिभाशाली और विद्यारसिक तो न था, तो मी बुद्धिमान् तो था ही। उसे युवावस्थामें विद्याप्राप्तिका अवसर ही कहाँ मिला था ! उसकी * युवावस्थाका Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल मुख्य भाग सिद्धराजसे अपनेको बचानेके लिए भटकने और कष्ट सहनेमें ही व्यतीत हुँआ था। पचास वर्षकी उम्रमें उसके भाग्यका परिवर्तन हुआ और वह गुजरातके विशाल साम्राज्यका भाग्यविधाता बना / राज्यप्राप्तिके पश्चात् मी उसके 5-6 वर्ष तो विपक्षियोंको जीतने में ही गये अर्थात् 56.57 वर्षकी अवस्थामें उसका सिंहासन स्थिर हुआ और उसके प्रतापका सूर्य सहस्रकिरणके समान तपने लगा। इस उम्रमें अध्ययनके लिए कितना अवकाश मिल सकता था। तथापि प्रबन्धकार कहते हैं कि इतना होने पर भी अवसर मिलने पर अति परिश्रम करके उसने संस्कृतका अच्छा अभ्यास कर लिया था और उससे वह विद्वानोंकी तत्त्वचर्चामें यथेष्ट भाग ले सकता था। हेमचन्द्राचार्यके द्वारा उसीके लिए बनाये गये योगशास्त्र और वीतरागस्तोत्रका वह प्रतिदिन खाध्याय करता था / योगशास्त्रमें हेमचन्द्र द्वारा किये गये उल्लेखसे प्रतीत होता है कि उसे योगकी उपासना प्रिय थी और इसलिये उसने कई योगशास्त्रोंका परिशीलन किया था। 'त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र' नामक ग्रन्थ जो तीर्थकर आदिके जीवन पर प्रकाश डालता है, हेमचन्द्राचार्यने कुमारपालकी खास प्रेरप्पासे ही बनाया था, यह तो ऊपर बता दिया गया है / इससे प्रतीत होता है कि उसे ऐसे ग्रन्थ पढ़नेका शौक था। कदाचित् प्राचीन बातें जाननेकी जिज्ञासा उसके अन्दर बहुत परिमाणमें विद्यमान थी। राज्यप्राप्तिके पहले एक बार जब वह भटकता भटकता चित्तौड़ के किले पर जा पहुँचा तो वहाँ पर स्थित एक दिगम्बर विद्वानसे उसने किले के विषयमें सारी हकीकत पूछी थी। उसी प्रकार राज्यप्राप्तिके पश्चात् जब उसने एक बड़ा संघ ले कर गिरनारकी यात्रा की थी और जूनागढ़में दशदशार मंडप आदि प्राचीन स्थल देख कर उसने उस विषयमें हेमचन्द्राचार्यसे प्राचीन विवरण बतानेकी विज्ञप्ति की थी। आचार्य हेमचन्द्रका प्रभाव कुमारपाल बहुत भावुक प्रकृति वाला पुरुष या / भावुक होनेके कारण ही वह इस प्रकारकी धार्मिक वृत्तिमें दृढ़ श्रद्धाशील बना था / हेमचन्द्रके प्रति उसकी अनन्य भक्ति थी। इसके कई कारण थे-प्रवासी दशामें हेमचन्द्रकी प्रेरणासे खंभातके मंत्री उदयनकी सहायता मिलना, आचार्य द्वारा भविष्यमें उसे राज्यगद्दी मिलनेका विश्वास दिलाना, निराश जीवनको आशांकित बनाना और राज्यप्राप्तिके पश्चात् मी उसको समय समय पर अपनी विद्या शक्तिके बलसे पाश्चर्य चकित करना / इस प्रकारके प्रभावको ले कर वह हेमचन्द्रका अनन्य अनुरागी हो गया था / ज्यों ज्यों थाचार्यसे उसका विशेष मिलना जुलना होता रहा और उनके चारित्र, ज्ञान, तप, आदिके बलसे उसका विशिष्ट परिचय होता गया त्यों त्यों वह उनका श्रद्धालु शिष्य होता गया। जब उसे यह विश्वास हो गया कि आचार्यका जीवनध्येय केवल परोपकार वृत्ति है और इतने बड़े सम्राटसे मी, दो सूकी रोटी प्राप्त करने तककी मी इनकी अभिलाषा नहीं है, तब तो उसने अपने सम्पूर्ण आत्माको आचार्यके चरणों में समर्पित कर दिया और इस महर्षिके आदेशसे खयं मी 'राजर्षि' बन गया। राजनीतिनिपुणता ... / यद्यपि कुमारपाल बड़ा पराक्रमी पुरुष था तो भी मिथ्या महत्त्वाकांक्षी न था। उसका साम्राज्य विस्तार सहज ही उतना हो गया था। साम्राज्य विषयमें उसकी नीति आक्रमणात्मक नहीं बल्कि रक्षणात्मक थी। परराज्यों पर उसे परिस्थितियोंसे बाध्य हो कर ही चदाई करनी पड़ी। वह महत्त्वाकांक्षी न था तो मी खाभिमानी तो था ही। जहाँ आत्मसम्मानको थोडी सी मी ठेस पहुँचती थी तो वह उसे सहन नहीं कर सकता था और राजनीतिका भी पूर्ण अनुभवी था / जिस मनुष्यके विशेष प्रयत्नसे उसे राजगदी प्राप्त करनेका सौभाग्य मिला था और जो उसका एक निकट का सगा बना हुआ था, वैसे कान्हरदेव को भी, जब अपनी पूर्वावस्थाको उपलक्ष्य कर उपहास करता देखा तब उसका तत्काल गात्रभा करा कर उसे निर्जीव बना दिया और उसी प्रकार दूसरे कांटोंका मी तत्काल जीवित नाश करवा दिया। पूर्वावस्थामें भले ही वह रङ्ककी तरह मटका हो परन्तु अब भाग्यने उसे राजा बनाया है और वह भाग्यदत्त राज्यका रक्षण अपनी शमशेरके बलसे करने में समर्थ है, यह खाभिमान उसके पौरुषमें परिपूर्ण था और इस अभिमानका प्रभाव बतानेके लिए उसने अपने भाप्तजनों Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्षि कमाल को मी मष्ट करनेमें देर नहीं की / इसके विपरीत जिस साजण कुम्हारने एक समय उसे कांटोंके ढेरमें छिपा कर सिद्धराज के सैनिकोंसे उसकी रक्षा की थी, राज्य मिलते ही उसे अपनी सेवामें बुला कर उसके उपकारके बदले सात सौ गाँवके पट्टेवाले चितौड़की वार्षिक आमदानी उसके लिए निश्चित कर दी। उसका ऐसा बर्ताव देख कर अन्दरके विरोधी थर्रा गये और सारा विरोधभाव छोड़ कर उसकी अनन्य सेवा करने लगे। ऐसे विरोधियोंमें चाहड़ नामक एक कुलीन राजकुमार अग्रणी था जो राज्यकी सेनामें बहुत माना जाता था और जिसे सिद्धराजने अपने पुत्रकी तरह पाला पोषा था / वह कुमारपालका सान्निध्य छोड़ कर शाकम्भरीके गर्विष्ठ राजा अर्णोराजकी सेवामें चला गया और उसे कुमारपालके विरुद्ध खड़ा करके उसके राज्यकी जड़ को उखाड़नेके लिए गुजरातकी सीमा पर लड़ाईके मोर्चे खड़े किये / कुमारपालके भविष्यके लिए यह अत्यन्त विषम परिस्थति थी। उसके सामन्तोंमें से बहुतसे, ऊपरसे तो उसके पक्षमें थे परन्तु अन्दरसे विपक्षमें थे / चाहड राजकुमारकी चालाकीसे मालवाका खामी बल्लालदेव भी दूसरी तरफसे आक्रमण करनेके लिए तैयार हुआ था और इससे कुमारपालकी स्थिति सरौतेके बीच रही हुई सुपारीके समान हो गई / परन्तु कुमारपालके भाग्यबलसे उसके वे समी राज्यभक्त कर्मचारी, जिनकी नियुक्ति उसने राज्य सँभालते ही की थी, समर्थ और विश्वासी निकले / उनकी कुशलत से गुजरातकी जनता नये राजाकी ओर पूर्ण सहानुभूति रखने लगी और सैनिकवर्ग भी पराक्रमी और रणवीर राजाकी छत्रछायामें उन्नतिकी आशासे उत्साहित हुआ / कुमारपालने अपने विश्वासी सेनाध्यक्ष काकभटके सेनापतित्वमें चुने हुए सैनिकोंकी एक फौज मालवामें बल्लालके विरुद्ध भेज दी और स्वयं अपने सारे सामन्तोंको ले कर मारवाड़के 3 का सामना करनेके लिए चल पड़ा / सामन्तोंमें मुख्य चन्द्रावतीका महामण्डलेश्वर विक्रमसिंह था / उसने आबूके पास, ही कुमारपालकी हत्या करनेका षड्यन्त्र रचा, परन्तु कुमारपालने उस षड्यन्त्रको तुरन्त पहचान लिया और वहाँ नहीं ठहरता हुआ सीधा शत्रुकी सेनाकी ओर चला गया। लेकिन समराङ्गणमें भी उसने अपने कुछ सामन्तों और सैनिकोंको शत्रुपक्षकी ओर मिले हुए देखा / कुमारपालने अपने भाग्यका पासा पलटनेके लिए सामयिक कुशलताका उपयोग कर एक ही झपाटेमें शत्रुके ऊपर आक्रमण कर दिया और पहले ही वारमें उसे आहत कर शरणागत होनेके लिए बाध्य बनाया / बल्लालके ऊपर चढ़ाई करने वाले सेनापतिने भी उतनी ही जल्दी शत्रुका शिरश्छेद करके कुमारपालकी विजयपताका उज्जयिनीके राजमहल पर फहरा दी। उस समयके गुजरातके पड़ोसी और प्रतिस्पर्धी मारवाड़ और मालवाके दोनों महाराज्योंको सिद्धराज जयसिंहने ही गुर्जरपताकाके नीचे ला दिया था; परन्तु उसकी मृत्युके पश्चात् गद्दी पर आने वाले नवीन राजा कुमारपालके वास्तविक खरूपसे अज्ञात रहने वाले इन राज्योंने गुजरातकी पताकाको उखाड़ फेंक देनेका प्रयत्न किया और इस प्रयत्नको कुमारपालने अपने पराक्रमसे निष्फल कर दिया। परन्तु उसके भाग्यमें तो और भी अधिक सफलता लिखी हुई थी / गुजरातकी दक्षिणकी सीमा पर कोंकणका राज्य था। उसकी राजधानी बम्बईके पास ठाणापत्तन थी और वहाँ शिलाहार वंशी राजा राज करते थे / इस कोंकण राज्यके दूसरी तरफकी दक्षिण सीमा पर कर्णाटकके कदम्ब वंशियोंका राज्य था जिनकी राजधानी गोपाक पहन (वर्तमान पोर्तुगीज बंदर, गोवा) थी। सिद्धराजकी माता मयणल्ला देवी इस राजवंशकी कन्या थी अतः कर्णाटक और गुजरातके बीच गादा सम्बन्ध था / इन दो सम्बन्धी राज्योंके बीच में आने वाला कोंकणका राज्य गुजरातके साथ युद्ध नहीं कर सकता था / अतः सिद्धराजके समयमें तो उसका गुजरातके साथ मैत्रीभाव ही रहा था / पर सिद्धराजकी मृत्युके पश्चात् जब कुमारपाल सिंहासनारूढ़ हुआ तब यह मैत्रीभाव विच्छिन्न हो गया और मारवाद और मालवाके राजाओंको कुमारपालके सामने सिर ऊँचा करते देख कर कोंकणके गर्विष्ठ राजा मल्लिकार्जुनको भी गुजरात पर आक्रमण करनेकी अभिलाषा जागृत हुई / कुमारपालने उसके इस मनोरथको निष्फल बनानेके लिए मन्त्रिराज उदयनके पुत्र दण्डनायक (सेनापति) आंबड भट्टको सेनापति बना कर एक फौज कोंकणकी ओर रवाना की / मारवाड और मालवा आदि प्रदेशोंकी रक्षाके लिए गुजरातकी बहुत सेना रुकी हुई थी अतः आंबडके पास उचित सैन्य प्रखर था और इसीलिए प्रथम चदाईमें गुजरातकी सेनाको हार खा कर पीछे लौटनेके लिए बाध्य होना पड़ा। पाल्नु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साविकमारपाक अब पीछेसे मारवाड़ भादिकी तरफसे बड़ी संख्यामें सेना आ पहुँची तब फिर से उसी दंडनायकके आधिपत्यमें गुजरातकी एक प्रचल सेना कोंकणचक्रवर्तीका दर्प चूर्ण करनेके लिए दूने उत्साहसे रवाना हुई। रणभूमिमें दोनोंके बीच घमासान पर दुधा और अन्तमें गुजरातियोंकी जय होनेके कारण सेनानायक आंबडके गलेमें विजयदेवीने वरमाला डाल दी। राजपितामह बिरुदधारक मल्लिकार्जुनका गर्वोन्नत मस्तक, गुजरातके एक दयाधर्मी वणिक सुभटने अपनी तीक्ष्ण तलवार से कमलपुष्पकी भांति काट लिया और उसे खर्ण पत्रमें लपेट कर श्रीफलकी भांति अपने खामीको अर्पित किया / कुमारपालने उसके पराक्रमके प्रभावका सत्कार करनेके लिए उस निहत राजाका प्रिय विरुद आंबड भट्टको अर्पित कर उसे 'राजपितामह' बनाया / इस प्रकार कोंकणराजका उच्छेद होने पर कुमारपालकी राज्यसत्ता दक्षिण प्रांतमें दूर दूर तक फैल गई थी और कदाचित् सह्याद्रिके सुदूर शिखर तक गुजरातका ताम्रचूड विजयध्वज फहराने लगा था। गुजरातके साम्राज्यकी सीमा को बताने वाली इतनी बड़ी विशाल रेखा भारतवर्षके मानचित्रमें केवल कुमारपालके पराक्रमने ही अङ्कित की थी। उसके समकालीन भारतीय राजाओंमें कुमारपाल सबसे बड़े राज्यका खामी था / हेमचन्द्राचार्य उसके राज्यकी चतुस्सीमाओंका इस प्रकार वर्णन करते हैं. स कौबेरीमातुरुष्कमैन्द्रीमात्रिदशापगाम् / याम्यामाविन्ध्यमावापि पश्चिमां साधयिष्यति॥ अर्थात् -कुमारपालकी राजाज्ञा उत्तरमें तुरुष्क लोगोंके प्रान्त तक, पूर्वमें गङ्गा नदीके किनारे तक, दक्षिणमें विन्ध्याचल तक और पश्चिममें समुद्र तक मानी जाती थी। प्रबन्धकारोंके अनुसार हेमाचार्य द्वारा बताई गई उस चतु:सीमामें कोंकण, कर्णाटक, लाट, गूर्जर, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्धु, उच्चा, भम्भेरी, मारवाड़, मालवा, मेवाड़, कीर, जाल सपादलक्ष, दिल्ली, जालन्धर और राष्ट्र महाराष्ट्र इत्यादि अठारह देशोंका समावेश होता था। एक दूसरी जगह .. मी हेमचन्द्रसूरि कुमारपालने जिन देशोंको जीता था उसका निर्देश करते हैं / जैसे कि जिष्णुश्चेदिदशार्णमालवमहाराष्ट्रापरान्तान् कुरुन् / सिन्धूनन्यतमांश्च दुर्गविषयान् दोर्वीर्यशक्त्या हरिः। चौलुक्यः परमाहेतः विनयवान् श्रीमूलराजान्वयी // इत्यादि। कुमारपाल अपने राज्यका कार्यभार संभालनेमें कई तरहसे सफल हुआ / उसके लगभग तीस वर्षके राज्यकालमें प्रजाने अद्वितीय शान्ति और उन्नति प्राप्त की थी। देश समृद्धिके शिखर पर पहुँच चुका था। किसी भी प्रकारका खचक्र सम्बन्धी या परचक्र सम्बन्धी उपद्रव नहीं हुआ। लक्ष्मी देवी के समान ही प्रकृति देवी भी उसके राज्य पर प्रसन्न थी और उसके समयमें देशमें एक मी दुष्काल नहीं पड़ा / उसकी ऐसी भाग्यसफलता प्रत्यक्ष देखने वाले आचार्य सोमप्रभ इस बात पर विशेष जोर दे कर लिखते हैं स्वचक्रं परचक्रं वा नानर्थ कुरुते कचित् / दुर्भिक्षस्य न नामापि श्रूयते वसुधातले // गुणवर्णना आचार्य हेमचन्द्र उसके सर्व गुणोंके समुच्चयका परिचय बहुत ही परिमित और सर्वथा यथार्थ शब्दोंमें अपनी अन्तिम रचनामें इस प्रकार देते हैं - कुमारपालो भूपालश्चौलुक्यकुलचन्द्रमाः। भविष्यति महाबाहुः प्रचण्डाखण्डशासनः // स महात्मा धर्मदानयुद्धवीरः प्रजां निजाम् / ऋद्धिं नेष्यति परमां पितेव परिपालयन् // Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि कुमारपाल जुरप्यतिचतुरः शान्तोऽप्याज्ञादिवस्पतिः। क्षमावानप्यधृष्यश्च स चिरं मामविष्यति // स आत्मसदृशं लोकं धर्मनिष्ठं करिष्यति / विद्यापूर्णमुपाध्याय इवान्तेवासिनं हितः॥ . शरण्यः शरणेच्छनां परनारीसहोदरः। प्राणेभ्योऽपि धनेभ्योऽपि स धर्म बहु मंस्यते // पराक्रमेण धर्मेण दानेन दययाज्ञया / अन्यैश्च पुरुषगुणैः सोऽद्वितीयो भविष्यति // यहाँ पर हेमचन्द्रसूरि भविष्य पुराणकी वर्णन पद्धतिके अनुसार महावीरके मुखसे कुमारपालका भावी वर्णन इस प्रकारसे करवाते हैं कि- "चौलुक्य वंशमें चन्द्रमाके समान सौम्य और महावाहु एवं प्रचंड रीतिसे अपना अखंड शासन चलाने वाला कुमारपाल राजा होगा। वह धर्मवीर, दानवीर और युद्धवीरके गुणों से महात्मा कहलायेगा और पिताकी भाँति अपनी प्रजाका पालन करके उन्हें परम सम्पत्तिशाली बनायेगा। वह खभावसे सरल होने पर भी अति चतुर होगा, क्षमावान होने पर भी वह अधृष्य होगा और इस प्रकार चिरकाल तक पृथ्वीका पालन करेगा। जिस प्रकार उपाध्याय अपने शिष्यको पूर्ण विद्यावान् बनाता है उसी प्रकार कुमारपाल भी अपने समान दूसरे लोगोंको भी धर्मनिष्ठ बनायेगा / शरणार्थियोंको शरण देने वाला, परखियोंके लिए भाईके समान निष्काम एवं प्राण और धनसे भी धर्मको ज्यादा मानने वाला होगा / इस प्रकार पराक्रम, धर्म, दान, दया, आज्ञा और इसी प्रकारके दूसरे पौरुष गुणोंमें अद्वितीय होगा।" हेमचन्द्ररि द्वारा आलेखित गुणोंके इस रेखाचित्रमें वास्तविकताकी दृष्टिसे किंचित् मी व्यंग्य नहीं है, यह बात कुमारपालके जीवनके विषयमें जिन मुख्य मुख्य बातोंका मैंने यहाँ वर्णन किया है उनसे निस्सन्देह सिद्ध होती है। गुर्जरेश्वरोंके राजपुरोहित नागरश्रेष्ठ महाकवि सोमेश्वर कीर्तिकौमुदी नामक अपने काव्यमें कुमारपालकी कीर्ति-कथाका वर्णन करते समय हेमचन्द्रके उपरोक्त 5-6 श्लोकोंके भावका निचोड़ देता है और वह हेमाचार्यके भावसे भी ज्यादा सत्त्वशाली है / सोमेश्वर कहता है कि-. पृथुप्रभृतिभिः पूर्वैर्गच्छद्भिः पार्थिवैर्दिवम् / खकीयगुणरत्नानां यत्र न्यास इवार्पितः // न केवलं महीपालाः सायकैः समराङ्गणे / गुणैलॊकंपृणैर्येन निर्जिताः पूर्वजा अपि // अर्थात् - "पुराण कालमें पृथु आदि जितने महागुणवान् राजा हो गये हैं उन्होंने अपने गुणरूपी रत्नों की धरोहर खर्गमें जाते समय मानों कुमारपालको सौंप दी हो, ऐसा प्रतीत होता है। [यदि ऐसा न होता तो इस कलिकालोत्पन्न राजामें ऐसे सात्त्विक गुणोंका समुच्चय कहाँसे होता !] कुमारपालने अपने बाणोंसे समरांगणमें राजाओंको ही नहीं जीता था अपितु लोकप्रिय गुणोंसे अपने पूर्वजोंको भी जीत लिया था।" सोमेश्वरका यह कथन कुमारमालकी जीवनसिद्धिके भावको संपूर्ण रूपसे व्यक्त करने वाला उत्कृष्ट रेखाचित्र है। गुजरात की पुरातन संस्कृतिके सर्वसंग्रहालयमें यह चित्र केन्द्रस्थानकी शोभा प्राप्त करे / * * Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् प्रचुरेनु " " शर " 30 जि 4 भूयवह पत्र पति मुद्रितपाठः *पाठमेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा 1 6 कर्णदेवे भीमदेवे 35 16 मरुदेवि मरुदेवा B 22 रायाम राया अमञ्च " 18 प्रथमोः प्रथमो B 9 ससामन्तेन समानं तेन A * प्रवरेक्षु B 12 बलचंडह बलवंडह A " प्रणामागतेन्द्रस्था प्रणामागतसुरपतिस्था B 13 नहु तह A 19 त्वात् प्रथमभगवान् त्यात प्रथमो B 14 जु पई कुहु तह A 20 ग्रामाभिरामे प्रामाभिगमे B नागपुरह नायउरुविह A 22 श्रीशीलसूरयः धीशीलगुणसूरयः B चालुकवह चालकवह A 23 झोलिकं , °झोलिकायां B वालएकु वालु एकु A 24 समीपस्थत समीपस्थां त° B कुमरह कुमरु A 36 6 कोऽपि कापि B जिप्पर जिप्पहिं A सशर B मंडलीय मंडलिउ A " 7 प्रोक्त सेन प्रोक्त B " 27 होहु होउ हु A . 9 चत्वारिंशतानि चत्वारि शतानि B ज A " 11 कुब्जस्थिति कुब्जराज्यस्थिति B " 31 ‘याहडिई बाहुडिइहिं A 17 श्रीशील[गुण] श्रीशीलगुण B फुद A कृता चके B विग्गाहिं विग्गह A " 18 प्रसादः। प्रसादः कृतः। B भुयवA " 19 लंकृत लंकृतं B जुत्तु जंतु A " 21-23 'गूर्जराणामिदं' इत्यारभ्य 'प्रसिद्धिरभूत्' " 5 सरिस्यूं...निश्चंत सरिसऊं इत्येतदन्तः पाठः B पुस्तके नास्ति। घयर काई सुहहि निथिंतु // A " 24 भूयराजराज्यम्। भूयगडदेवराज्यम् / B 35 2 'खयं कृतार्थः' इत्येतस्य पूर्व इदमधिकं पद्यम् " 25 चापोत्कटकुले चापोत्कटराजकुले B संवत्सर (वर्षाणि) वर्षाणि B . ज्योतिश्चिदानन्दमयस्वरूप, " दोहितृसन्ताने दौहित्रसन्ताने B .. निरूप्यते यन्मुनिभिः समाधौ। 27 श्र...त्य(भूयड) राजस्य श्रीभूयडराजस्य B हेतुर्महानन्दपदस्य सेतु 28 'तत्पुत्रचन्द्रादित्य इति पाठ: B आदर्श न वर्तते / भवाम्बुधेस्तज्जयति प्रकामम् // 1 // B 30 °चरियं चारियं B 4-9 द्वितीय-तृतीय-चतुर्थश्लोकस्थाने पद्यद्वयमिदम् " 34 कृते शो कृतशो B ब्राह्मी परब्रह्ममयस्वरूपा, 37 7 तस्याकाण्ड तस्या अकाण्ड B ' संसेवनीया सुमनःसमूहै। नक्षत्रमूले जात° 'नक्षत्रे मूलजात B स्वताततुल्या शिवतातिरस्तु, 8 स राज्ये .परं चतूरूपधरा स्वयं या॥ स कुमारोराज्ये B ." 10 ग्रहीतुं (त) प्रहीतं B येषां प्रसादेन समीहितार्थाः, सिद्ध्यन्ति सर्वे विबुधाधिपानाम् / 11 भिषेकः। भिषेको मूलराजस्य। B . भीमहरून कल्पतरूपमानान, 15 'एकादशवारांनासितमूलराजसैन्यः।' बन्दे सदानन्दनसावधानान् // B स्थाने 'तेन एकादशकृत्वलासितो " 11 पदेशविवेक °पदेशप्रवेकविवेक B मूलराजः ससैन्यः।' इति B पाठः / 14 तस्य प्रति तस्य राक्षः प्रति° B " 17 श्मश्रुणि श्मश्रुणि B *मस्या श्रेण्या यत्र यत्र A B आदि प्रतिसंज्ञा न निर्दिष्टा तत्र तत्रापि मुद्रिताशुदपाठस्थाने उपलब्धः शुद्धपाठो ज्ञेयः / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . धृत्वा B ត្រូវ am - स कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध पत्र पनि मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठभेदः शुद्धपाठो वा 9 लभमानाथ 'लभमाना B 40 20 छित्त्वा , 11 वती। जय °वती।माताच राजानम " " सरलर्षि शनकैर्दि B ततो जय° B 25 अस्माकं अस्माकमपि B . " कर्णः। स्व. कर्णः। स च स्व. B " कमपि व्या कमपि जैन व्या B व्रत B " 12 तस्मिन्मन्दादरे तस्यां मन्दादरः। जयतस्मि .. केशिनृपस्तु तस्मि B 32 व्याहरता, ध्याहृतम्, B 33 क्रुद्धं [नृपं] निरादरपरो निरादरतापरो B युद्धे नृपती B " वचनादव वचनात् तदव B 14 प्राणान् प्राणानपि B . " निर्माय, द्वात्रि निर्माय, दैवशत्या " थुः श्रीउद घुः काष्ठचिन्ता श्रीहेमचन्द्राचार्या द्वात्रि B कारितवती / श्रीउद B " 34 लेखित्वा प्रात' लेखयति स्म / प्रात: B 17 हतिषु हन्तृषु B 12 हेमं ततो राजा प्रवर्तयत् // ' इत्यस्य स्थाने 18 न्यायात् तदाप्रहादेव शात्वा मात्राग्रहादेव B हेमचन्द्राख्यं स व्यधापयत् // Pb इति पाठः। दृग्मात्रेण दृग्मात्रेणापि B 13 अथान्यस्मि अथान्यदान्यस्मि B 14 श्रीसिद्धराजो हे श्रीजयसिंहदेवो हे B 19 तामसम्भावयन्, तां न सम्भावयति। अन्यदा क° B 16 °सर्वस्वः, सदैव सर्वस्वो बभूव / सदैव B चिकीर्षवे, स चिकीर्षतो राक्षः स B भाषमाणः, किय भाषते स्म / किय° B विमृश्य विमृशता B तस्मिंस्तथाकते, स तया तथाकृते. .. सति स B कोशाधिपस्तदा कोषाध्यक्षस्तदा B पशुपतिर्भवा पशुपतिर्भगवान् भवा' B 33 अथ च रा अथ रा B 22 तरोच्छायायां पु तरोर्मूले तच्छायान्तःपुं B , रणहिल्लप रणहिल्लाख्यप B 23 निक्षिपन्ती, निक्षेपयामास / B 15 पुनः सजनः सज्जनः पुनः B 30 युधिष्ठिरोवाच युधिष्ठिर उवाच B 18 ग्रीष्म ग्रीष्मे B द्वैपायनोवाच द्वैपायन उवाच B. " 19 शरद्व्य शरव्य° B 2 चापि वापि B " 23 सप्तविंशतितमश्लोकानन्तरमिदमधिकं पद्ययुग्मम्- ___" 16 सोमेश्वरं श्रीसोमेश्वरं B जयति यदुवंशकेतुः 19 'सा' इत्यस्योपरि 'कार्पटिकभाया' इति B शिवहेतुः सकण(सकलकर्म)कुलकेतु(तुः)। आदर्श टिप्पणी। विषयदु(२)लवननेमिः 42,43 29-35,1-5 एतत्पडिगता षोडशमी कण्डिका समप्राऽपि शतनेमिधरार्चितो नेमिः॥१॥ Pa B प्रत्योर्नास्ति / [न] यान्ति नामग्रहणेन येषां 6 पालदायो पालादयो B केषां न[राणां] दुरितानि तानि / 8 प्रीमल प्रेमल° B तपःप्रभावाः प्रथयन्तु ते नो " 23 'क्षयाहे' इत्यस्योपरि 'श्राद्धदिने' इति B पुस्तके टिप्पणी भद्राणि भद्रेश्वरसूरिपादाः // 2 // Pa B 26 धौतापोती. धौतपोती B // 27 सोधयिष्यति शोधयिष्यति B " 27 नष्ट्रा नंष्ट्रा B , तदा तद् B 31 नाशितोऽनाशितो नाशितो नाशितो B 28 श्रीमान्... राज्य श्रीजयसिंहदेवास " 'नाशितो' इत्यस्योपरि 'निष्काशितः' इति B भादर्श श्रीमान् राज्य B टिप्पणी। " 29 बर्षरकश्चाथ बर्बरको यक्ष: B " प्रागकस्मात् प्रगेऽकस्मात् B 1 ऽस्ति / ततो °ऽस्ति निधिः। ततो B" " जगी ययौ B 32 लिाकारमिति °लिशान्तरमिति B4 3 प्रन्थिस्तत् श्रुत्वा प्रन्थि तच्छुत्वा B 40 15 सर्वदर्शनेषु सर्वदर्शनिषु B 4 सहाप्रैषी सह प्रैषी B 16 वर्जिता ऽऽवर्जिताः B... " 6 रूपनाण रुप्यनाण B Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये B " " ऽतः इत: B हेतुमथो B 48 1 पृष्टः B TIFTS B " 6 जंघेs. शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा 44 6 विलोक्य यावदेकवि-विलोकयति / स तावदे- 47 17 सार्वभूमो सार्वभौमो B शतिसहयानिष्ठा कविंशति सङ्ग्यानि , 20 निर्भरवेषं निर्जरवेषं B तानि ना B " 10 नाशे , 26 स्नानं किं दानं स्नानं किं ज्ञान कि " 14 वाच्छ (त्स) ल्यात् वात्सल्यात् B दान B 17 सुंदर! ___ पृच्छ्य त सुन्दरि ! B पृच्छत B 25 सुप्त्वा सुप्त्वा च B हेतुरथो 26 नृपात्मजः नृपात्मज| B "31 पाटला पेटला B , लक्षणवतः लक्षणयुजः B चिन्हानि चिह्नानि B सा B 35 तां च वाणी तां तद्वाणी B " "मृ (नि) यते नियते B 7 सार्वभूमस्ततो सार्वभौमस्ततो , 17 राजा राझ्या B मन्त्री मन्त्रीन् B , 21 त्वत्तन त्वत्तनुं B 9 प्राज्याज्यक्रयाय प्राज्यकेदारक्रि- 49 6 बकरी बष्करी° B यायै B 11 सर्वप्र सर्वाःप्र° B " 10 पृच्छन् पृष्टवान् B 13,14 पूरुषम् // 8 // पूरुषम् // 8 // __'कर्णावत्यां' इत्यस्योपरि 'आशापल्या' इति B क्षीर युग्मम् / / क्षीर B प्रतौ टिप्पणी। 15 विलक्षोऽप्यसौ विलक्षोऽथ स B 19 नमस्कुर्वन, कया नमस्कुर्वन्नेकया B 21 पंचासठी पंचासडी Pa // 12 साधर्मिकत्वाद् 'साधर्मिक! त्वां वन्दे' , हीयाई हियाहं B . चवन्दे / पृष्ट इति भणित्वा पृष्ट B 22 ढड्डसी दढसी Pa " 14 इष्टक इष्टकचित्तं B , , जे पत्तिजह ताई जे विससई तिया B 1 धिपत्वं धिपत्यं B 23 पाहित्थी 3-4 "रम्भा' यावत्'मेला' // 2 // ' पर्यन्तपाठस्थाने . पाहिं थी B , वंकडी किम पत्तिजि वंकुडी किमु पसिना रम्भा त्रिदशेषु शक्रः। नदीपु गङ्गा पुरुषेषु तास तासु B रामः, काव्येषु माघः कविकालिदासः , 24 नीयसिरि घड उबडावि नियसिरि घडा यह B // 1 // B , घड उवडावि घडउ चडावि Pa , 19 व्ययो .. दिह जे पास दिइंज पासु B व्यये B 28 दुर्ग भद्रो दुर्ग भट्टो Pa . , 20 स्वसन्देह ससन्देहा B दुर्गभट्टो Pb . , 21-22 न॥१६॥ श्वान न॥ 16 // यदुक्तम् , , दुर्ग भद्रो वादीश्वरो दुर्गभट्टोऽवादीतश्वान B तो B , 25 श्यडिम्भानि त्वमप्यधाः 30 स्तपति 'स्तप्यति B भ्यधाः B 33 कुल्याकल्पाः कुल्यातुल्याः B 25 विक्रीयते विक्रियते B " 35 नत्वा , मत्वा तत्र गत्वा , 27 श्रुत्वेन , नमश्चकार तीर्थम्। B " 30 गतः को स्थित्वा को B 1 स्तदीक्ष्य स्तद्वीक्ष्य B , 4 निषिद्धः कुमार' निषिद्धय कुमर' B -3 कासी निर्भर काशी निर्जर B 77 विलोकयत् व्यलोकयत् B 6 विभावयत् व्यभावयत् B ,8,14 कुडंगेश्वर कुण्डगेश्वर' B विभावयत् (न्) , 12 दर्शन दर्शनि B भवे B 14 स्फुटितं स्फटितं B , 11. कुमारश्चिन्त' कुमारोऽचिन्त: B श्रुत्वेम B " , भवेत् Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठः कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध का पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा 5. 19 'यैरप्येतद् भुवनवलयं निर्जितं लीलयव / 53 गले गलं B 20 तेऽप्येतस्मिन् गुरुभवहृदे वुद्धद' इत्येतत्पाठस्थाने शङ्गलमृगं शालं मृगं B निर्जित्यैतद्भवनवलयं ये विभुत्वं प्रपन्नाः। दारुणः दारूणां B संसारेऽस्मिन् सरसविलसद्भुद एतादृशः B वर्णाप्तअन वर्णाप्ताऽन B °वितं निवेदयन् वितं तं न्यवेदयत् B पारितोपके पारितोपिके B यदस्माकं यद्यस्माकं B. दुदयनाङ्गजः °दुदयनस्याङ्गजः B 23 स्थानान्येष स्थानाधेष B 24 सौधनि सौधे नि B °देवो महा °देवनामा महा Pa 'सागरा 'गरा' Pa 33 'सेव्यपादा 'सेव्यमानपादा B विस्मृताःश्रीहेम- श्रीहेमसूरयोऽप्या१ °सीदं चिन्तयन् सीदमचिन्तयत् B सूरयः। जग्मुः / उदयनेनो४ कामाक्षी कामाक्षा° B त्सवः कृतः। Pa 6 दवीयसि दवीयसी B , स्युर्यदिरे स्युर्यदीमा B ___, 23 कदाचिद् गुरुभि कदाचित् तेनोचे च 8 दैवकं वापि दैविकं चापि Pb युष्मान् प्रिया (?) सस्मार / ततो 10 क्रोधी भवति क्रोध उत्पद्यते B 14 राज्यं गुरुमि Pa राज्यं च B " गुरुभिरुचे गुरुभिर्मन्त्री ऊचे B 15 [शून्यं] शून्यं B तत्रभवताम् / तदा तत्रभवद्भिस्तदा B , सङ्कटे लोकैः सङ्कटे पतितैर्लोकः B चिठडिका चिडिका B 16 ‘स जाति यावत् 'अस्मदीय' इति पाठस्थाने , . नृप! B सजातिस्मरणो नागः सप्तफणालङ्कृतोऽस्मदीय " 32 प्रत्युपचिकि . प्रत्युपचिकी इति B पाठः 17 सोऽयं तदिदं B 54,55 1-36,1-28 चतुस्त्रिंशत्तमीसमस्तकण्डिकास्थाने Pb पुरमध्येपुरमध्ये बभ्राम। B प्रतावीदृशो लघुतमः पाठ उपलभ्यते३० माहूतौ माहृतौ B ततो राजा दिग्विजयं चकार / विन्ध्याचलं यावद 32 °माहूतः 'माहृतः B दक्षिणदिर्श पश्चिमां सुराष्ट्रा-ब्राह्मणवाहक-पश्चनददेशान्, 'मावर्योत्तरीया 'माचाम्योत्तरीया B उत्तरस्यां कास्मीरादिदेशानसाधयत्, प्राच्यां कुरु-सूरसेन'मावार्योत्तरीया Pb कुशावर्त-पाश्चाल-विदेह-दशार्ण-मगधादीनसाधयत् / 8 पादातिरथ पादातरथ 54 2 राष्ट्रा-कर्णाट-तिलंगा राष्ट्रा-तिलंगा B कोट्याभिको कोट्यादिको B " देशाना विन्ध्या देशानाविन्ध्या 9 च्छटकुंकुभिर्मदै °च्छटकंकुभिमदै B प्राप्तः श्री . प्राप्तश्री° B स्थितः। सितः। B 4-5 विधिच्छु (त्सुः) विध्यान्निद्रा B रेऽनात्मक्ष रे रे अनात्मज्ञ B निद्रा तद्वचं तद्वचः B °नुपात 'नुयात-B धूतकारेषु द्यूतकारेच B °पङ्क-B , 28 स्पृशेत स्पृश्येत B श्वांसकूट यांशकूट° B , 30 सोलाक स सोलाक B " 21 कटकैरथो कटके रथो B " 31 द्रमाणा द्रम्माणा B वराङ्गना वाराङ्गना B 52,53 30-34,1-6 त्रिंशत्तमी कण्डिका समग्रा Pb प्रती न विद्विषां विदुषां विद्विषां च विदुषां B धर्तते, अप्रे पञ्चत्रिंशत्तमीकण्डिकायाः पूर्व चोपलभ्यते।। च सिञ्चत् सूर्यो च कुर्वन् शौर्यो B 53 1 समादिष्टः, अटवी / समादिष्टः-तं मृग सिञ्चत् सिञ्चन् Pa मानय / अटवी B " 34 तीर्थका तीथिका B , , गीतादिकृष्टि 'गीताऽऽकृष्टि B 55 7 शाखशालिनः शमशालिन: B Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" जन्मो प्रहरन् B " 22 14 शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठोपा विदेहा विदेह B 58 7 विरोधादित्यभ्यधाव- विरोधादामिगः सुहितं सकल सुहितं हितं सकल B प्राह-Pa धर्माशिषां धर्माशिर्ष B " 24 गतेऽतिभुजाना गते तु भुजाना B चिन्तां चकार चिन्तयाञ्चकार B 4-5 गाथेयं Pa पुस्तके नास्ति , 25 निनिन्द: निनिन्द B 13 नादीयतेति नादीयते इति B' मुनिदेशनां मुनिकृतां देशनां B " 15-17 107-108 तमौ श्लोकी Pa आदर्श न विद्यते। 30 मसृणोत् . . मशृणोत् B " 20 सटिता शटिता B 564-5 सप्ताशीतितमः श्लोकः षष्ठपतिगत भूपः। इत्यस्य र्जन्मो (न्म) पश्चात् Pa प्रतौ वर्तते 59,60, 23-34, 1-34, 1-18 एतदन्तर्गतः समप्रोऽपि तवान्तिकम् . तवान्तिके Pa ग्रन्थसन्दर्भः Pa प्रतौ नोपलभ्यते / चतुरङ्गनृपवत् चतुरङ्गनृपकं B 59 20 आचेलक उहे आचेलकुद्दे B " युष्मादाशय युष्मदाय° B " 1 कुर्वाणां कुर्वाणा B प्राहरन् 5 ते सर्वे तूष्णीं द्विजाः तूष्णि सैन्यमुत्तार्य 'यथाक्रमं सैन्यमु कृत्वा स्थिताः स्थिता: B त्तार्य Pa. " 6 प्रोक्तम्-शुद्रा प्रोक्तम्-देव! शुदा B * पल्लवता पल्लविता B 28 उर्वशीगर्भस उर्वशीकुक्षिस B 27 परं विरलः परः पुरोविरल: पुमान् B प्रमदा प्रमोदा B केसरिकिसोर केशरिकिशोर B 'मानो नितरां द्विजान् °मानो विजातीनितरत्रिशती त्रिशतीं B द्विजान B मनुभारान् मणभारान् B "" षण् मूडकांस्तु षण्मूटकांस्तु B " 23 'अथ श्रीसोमेश्वरस्य' इत्यत आरभ्य षडशीतिकोटीः चतुर्दशः कोटीश्चतुर्दश B तमपत्रस्य सप्तमपतिपर्यन्तो ग्रन्थसन्दर्भः Pb पुस्तके न वर्तते। 2 प्रीतेन प्रीणितेन B परिजन परजन B 'माश्च पाप्य तेन 'माश्च तेन B ___ भ्यर्थयन् भ्यर्थयन्(त्) याचकेभ्यः भट्टेभ्यः B नृपतेऽत्र नृपतेरत्र B सञ्च सव्व B द्विजा द्विजादयो B क्षितिभृतां क्षितिरुहां B भूपीठ भूपीठे B रत्येव रत्यैव B चिरतरातु चिरन्तनातु B पालपुत्रः, अहं पालस्य पुत्रः, श्रीसोमेश्वरलिजे, श्रीसूरिः सोमेश्वरत्वष्टादेश अहं त्वष्टादश° B एते . लिङ्गम् , तदा एते B 21 तुरुष्क तुरुष्का B चित्तस्य श्री चित्तस्य भूपस्य श्री B 23 समग्रा पतिः Pa आदर्श नास्ति मेनालंकृततनवो दमनेनालङ्कततनयो 24 सुरिमाता सूरिभिर्माता B गुरवो नृप B * " देवी प्रव्रजिता देवी नानी प्रकाशं प्रकाशितवन्तः- B प्रवाजिता B कैलास कैलाश B 26 तद्विमानभने तद्विमाने भग्ने B " 16 इत्यादिश्य शिव इत्यादिशन् / ततः ." श्रीसरय श्रीहेमसूरय B शिव B 30 विचिन्तयन्तः श्रीमदु विचिन्तयन्तु / इत्यु आह्वान आह्वान (ह)न-B दयनस्य निवेदितम्। मन्त्राभ्यास मन्त्रन्यास B ततः श्रीमदु B. " मभ्यर्च्य 'मभ्यर्चितवन्तः B " 5 वयं वरं B / मूर्तित्रयो मूर्तिस्त्रयो B 4. त्रिणमा बेत्रिणामा B " ब्रह्मा नृप ..ब्रह्म-B Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगेहिं 63 11 " 8 सुहमा न B कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध पत्र पनि मुद्रितपाठः पाठभेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा 62 26 १५३तमात् श्लोकादारभ्य १६७तमलोकपर्यन्तं पञ्चदश- 66 13 तुल्यमहिंसया॥ तुल्यं युधिष्ठिर! B श्लोकानां स्थाने Pb पुस्तके केवलमिदं श्लोकचतुष्टयं " तुल्यं समं B समस्ति न मैत्रीसदृशं दानं नास्ति तृष्णापरो' हंसवाहो भवेद् ब्रह्मा वृषवाहो महेश्वरः। व्याधिन B गरुडवाहो भवेद् विष्णुरेका मूर्तिः कथं " 26 इति जीवदया इति जीवदयां सर्वे भवेत् / अब्जहस्तो भवेद् ब्रह्मा शूलपाणि सर्वपां मता वदन्ति B महेश्वरः / शङ्खचक्रधरो विष्णुरेका मूर्तिः जोगेहिं / कथं भवेत् // एका मूर्तिस्त्र०। परस्परविरु- " दुस्सय दुसय° B द्धानामेका मूर्तिः कथं भवेत् // भवबीजाकर मेदाः। र्भेदाः / B जनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य / ब्रह्मा " नवधा संयमः नवधा जीवसंयमः B वा विष्णुर्वा शिवो जिनो०॥ गृहस्थ . गृहस्था B कान्विते राज्ञि कान्वितेन राशा B" विरतान विरतानां B 'लोक्यमाने 'लोक्यमाना B सुह(हु)मा 12 °चार्येषु निषण्णेसु °चार्या निषण्णाः। सावराह सऽवराह B सत्सु, भू अथ भू B यादयः; "याः; B. जल्पन् तुला लपन राजा उपविष्टः। अथ द्वि अथ धर्मस्य द्वि. B तत्र तुला B संमय संयम B प्रविश्यः न प्रविश्येति वभाण उ कम्म उण धम्म B. धीराधौरेयगोचरम् धीरधौरेयगौरवम् B नाट्येश्वर 'नाट्येश्वरो B 33 ब्रह्मचारी च ब्रह्मचारीव B काह मनि विभंतडी काहउं मनि विभअजीय म यरिया B तडी, जी म° 1B 68 26 यरीया 28 करणं B करणो 20 'पयु अन्जवि जइ पय अजय जय न न B 'भवति'इत्यस्य पश्चादधिकः पाठः-खंती सुहाण 33 तिरोभूते भूपतौ उन्म तिरोभूतो भूपतिः। मूलं // B मायाविलम्बि मायावलम्बि B तत उन्म° B " 33-34 यावदिति वाच- यावत् किश्चिद् वद श्रुत्वा घ्युत्वा B मुवाच ता ति ता° B मिलिताक्षा मीलितामा B 34 भिमानोऽतीव पादो° °भिमानः 'इह पादो°B मुक्तिस्त्री मुक्तिश्री: B 64 2 वृत्तो क्षमा वृत्ती श्रीहेमरि- 70 नयानः नमानैः B क्षमा B °न्तरे कश्चिद् म्तरेऽवसरपाठकः दहरो च हरो B विद्वान् प° पं° B 18 प्रदायात् प्रभावात् B 71 11 निवेसीयं निवेसियं B परब्रह्मवादिनो म परप्रवादा म° B R " 13 हिअंच राइणं। °हिअंतदितराण / B प्रपद्यन् प्रपद्य B रोगाध्वान्तं रोगो ध्वान्तं B 179-180 तमे द्वे पद्ये B आदर्श न स्तः / मापात्तमात्रं यत् प° मापातमात्रेण प° B " 20 प्रज्ञा दुःप्रज्ञा / असन्तोषवतां असन्तोषवतः B 24 क्षेत्रकथा चित्रकथा B °ष्यजेड °ध्यजे(जै)ड " 27 भोजन भोजन (नाः) कौत्तिकं पुत्तिकं B 28-30 पङ्कित्रितयगतः पाठः B आदर्श नोपलभ्यते / अथ-चि अथ मांसम्-चि B 32 भूयांसि भूयांसो उपजंति उप्पजंति B 66 1 'न्तरे कश्चित् प° स्तरेऽवसरपाठकः मणूय मणुय° B प.B सव्वा य सव्वा उ B " 7 अथ धर्म अथ राजा धर्म B लूणो अ लोढा लूणओलोढा B 9 " 12 " 33 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ले शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् पर पति मुद्रितपाठः पाठभेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रिततपाठः पाठभेदः शुद्धपाठो वा 3 32 गिरिकन गिरिकन्निB 1 अथ राजा - अथान्यदा राजा B 33 खिल्लुहडो खिल्लोडो B , 9 घितब्यो चित्तव्यो B विरुदाई तहटक विरुहाई तह ढक 12 गाहपओंगेय। गाहगपओगे। B पत्थूलो वत्थुलो B ___ सहयं 'सहगयं B 2 सूअरवल्ली सूअरवल्लो B देहट्रिओ देहटिओ B 11 त्रैलोक्यशेष त्रैलोक्याशेष B . 4 अणाईयं अणाइयं B 9-20 'गई अन्नायफलं हिम- गई हिमविसकरगे य द्विधा द्विमेदाः-B विस-करगे य / मट्टी सव्वमट्टी य। रयणी 13 कोऽपि कन्दो कोकनदो B राई भोयण-ब भोयणगं चिय, ब° B (कोकनदो?) घोलवडां घोलवडा B °पदेशिकी। 'पदेशिकी सजा। B च तह अभक्खयाणि चयह अभक्खाणि B °चुतुरिन्द्रि °चतुः पञ्चेन्द्रि: B पिप्पलप्लक्ष 'पिप्पलोदुम्बरप्ल पशमजनया पशमजन्यया B क्षB गम्भुभव गम्भुम्भव B निमित्तात् °निमित्तत्वात B .378 तमीगाथानन्तरम् 'वायुः सर्वत्र' इति B आदर्श दीनाम् // 13 // दिग्रहार्थम् // 13 // B टिप्पणी। [अनन्तं] अनन्तकायं B एति ति B विषविषवाणिज्य- B 'रित्तिया रित्तया B तिःशुभं बत फलं 'तिः सुमानवगतिः असंखयं सा पह य असंख अंसा पह अंस शुक्ले B सअसं असं° B रुजान्तिके रुगन्तके B . ____, 32 तिलुक्क ति(ते)लुक परत्था परत्थ B सामाईयव सामाईवय B 81 5 तम्हा य सा वि. तम्हा सया वि. B भावोऽइवायस्स भावोववायस्स B तइयसिखावयं तइयं सिक्खावयं B विहियम B 'पात्राच्छदन बध्यते बाध्यते B अविहियसव्व पुप्फफले 23 [बायरा] उस्साईणं / पुप्फे फले B पूर्णहृदः पूर्णश्च हृदः B उस्साईणं बायरा। B , पुढविसरी दात्रा लेयं पुढवि-तससरी B दात्रा, न लेयं B ___ कायओगहण काओ गहण B गो तुरंगो गो-तुरङ्गी B प्रत्युपष्ट गत्युपष्ट B यज्ञारम्भ यत् सारम्भं B मोक्षसौख्यं कृ. बदराणां मोक्षः शस्यं कृ. B. बादराणां B ___°करणम्, तत् करणं प्रासादे, __ मितामिः मिलिताभिः B रात्रः। रात्रम् / B सबाह्य सद्वाह्य B इत्यादिकाल: इत्यादिकः काल: B 35-32 जिनबिम्ब" इस्यत जिनबिम्बाऽऽगम-साधु विखंभ विक्खंभ B आरभ्य 'पुण्यकृत्येषु' साध्वीभक्तिसाधर्मिक रसः (रसत्यागः) इत्येतदन्तपाठस्थने- वात्सल्यादिषु B , 32 विगई बला विगई बला B भोअ° सोअ° B मीसविवेगे सीसविवेगे B कणिका कणिका B सम्बन्धयो सम्बद्धयो B इतिओ इत्तिओ B त (ज) स्थ जत्थ B अणुइंति अणुहुंती B. विहिसम पात्राच्छादन R अवि यह सव्व. " 24 तत् B AL रसा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध पति मुद्रितपाठः पाठभेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा . 85 4 अणताहि व ताहि वि व B 91 20 राज्ञोऽग्रे स्वरू ' राज्ञोऽप्रे कैबित" 8 प्रीणन क्षीणन B त्स्व रू° B सम्यक्त्वीप सम्यक्त्वमौप° B , 21 निष्कासितः निष्काशितः B ओसप्पिणी उस्सप्पिणी B 25 'अनागसि इत्यस्योपरि B पुस्तके 'अपापे' इति टिप्पणी प्रमादस्तपः प्रमादास्तपः B 31 पुत्र सपुत्र B 'ऽधिगत.' इत्यतः 30 पङ्किगत प्रणामेन' 2 श्रद्धया सा . श्रद्धया स्वभोजनइत्यन्तः पाठः B आदर्श नास्ति / मध्यात् सा B सायराणं सायरेणं B. , 7 उलं(२) उरं B सज्जाठाणं सिज्जाठाणं B °मवालेन्दु "मवालेन्दु B भावबंधं भावबंधुं B चित्तकं °चिन्तकं B देशे समस्तपुण्यप्रदेशे समस्तपुण्यप्रदेशे त्यादिशेस्ते त्यादिशत् / ते B देशे B ___ कृपारद कूपारपारह B वशवन्दी च समु °वशंवदी B च कस्मिन् समु B पृच्छंस्तै शासने देवीव पृच्छस्तै' (पृष्टैस्तै) °शासनदेवीव B राज्यत्वम् राजत्वम B प्राप्तेषु सिंहा प्राप्तेषुपौषधशालायां परिभूयं परिभूतं B सिंहा B सरसि °सरसी B निपण्णस निषण्णः स B °भिधा / य भिधा[पुत्री]ीय. 26 तत तत्र B __°सीमन्तकर्मणि म सीमन्तकमणिम B कुलेऽपि विमले कुलेऽतिविमले B सोपहासं सैवं सोपहासमेवं B 32 दापितम् / ततः दापितं श्रीगुरुभ्यः। 3 पुत्रं पवित्र पुत्रः पवित्रः B. ततः B रागम् रागम् (गः). . , 34 आदिमूर्ति वि आदिमूर्ति वि. B प्रदानं सम्प्रदानं B प्रवेशे प्रवेशम् B द्वादशाधिकषोडश बारसोलोत्तरावर्षे 13 दागताः। दागताः श्रीहेम 1216 वर्षे मार्गशुदि मार्गसुदि Pa, चन्द्राः / B साक्षि स साक्षिकं स B कृतातिर्याव कृतार्तयो याव B विंशति वीत विंशतिर्वीत B श्रीरैवतादेवत तिकालक्ष श्रीरैवतदैवत° B तिलक्ष B नावसान् नावासान् B. , 32 साधयत साधयन् B तद्भणितेरनन्तरं . तद्भणितानन्तरं B ___तः। नवीनं 'तः / तदभ्यर्थनया नरेन्द्रवरं नरेन्द्रो वरं B नवीनं B अन्य . सोऽन्य B अउब्ध (व्वी) अउव्या B मयानि निस्वा मयनिस्वा B °धारधीरधीः धारधीः B प्रक्षरान् प्रक्षरां B प्रमाणं प्रणामं B वाणारस्यां नृ 17 वाणारस्यां तेन पित्रा ऽन्त्यजात् नि? " °ऽन्त्यजगृहेषु नि B " सा हिंसा कन्या सरोवरटोडक °सरोवरतोडक° B तस्मै नृB धर्मः'। धर्मस्तत्त्वम्। B 94 1 स्वमूर्ति-श्रीकुमार- स्वमूर्ति श्रीकुमारगतः। गतो देववोधिः। B पालमूर्ति पालमूर्ति B बढ़ा सप्रमुदित उ° बद्धा उ° B पितापा पितुः पा B ऽभूवन् / ' °ऽभूवम् / ' B स्त्वमभि स्त्वामभि B कथयिष्यते कथयिष्यामः B 11 प्रियानमारि प्रियाममारि° B निष्कासितो निष्काशितो B. , सारेरपि मारिन मारेरपि मारिन B 18 मालवदेशं मालषकदेशं B. 21 स्तत्र रक्षकाः स्तत्रारक्षका: B " 12 60000 " 23 " 29 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो. शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् पत्र पति मुद्रितपाठः पाठभेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा एपमे B 100 1 अद्यापि स्था' अद्यापि सन्ति स्थाB 5 पात्रमात्रेण °पानमात्रेण B . , , श्रीचालुक्य श्रीचौलुक्य° B मीति' श्रीगुरुवचसा मि' इति वचसा " करणेपु करणीयेषु B. गुरुभ्यो मो• B 4-5 'अथ सौराष्ट्र' अथ सुराष्ट्रादेशीयं प्राणित्राणे व्य प्राणित्राणव्य° B इत्यारभ्य द्विणिगिणी द्विणिगिणन् B 'विग्रहीतुं' यावत् सउरनामानं विग्रहीतुं Pa शाम श्याम B निलंसुः पुरः नन्तुं स पुरः B भाविभावो भावी भावो B 7 प्रदीपवृत्ति- प्रदीपयर्ति-B काननम् // महा काननम् // गुरुरु- ., 8 प्राविशन् प्रविशन् B वाच-महा° B , स्त्याजितः। स्त्याजितो चर्तिम् / 33 शक्ती शस्तो B तB 98 3 लक्ष्मी व्ययः लक्ष्मीर्व्ययः B 13 स करणं सकरुणं 98 4 राजानं वि राजानं तथाविधं , 14-15 श्रीशत्रुअयप्रासाद- श्रीशत्रुञ्जये पाषाणवि. B पापाणमयनि मयप्रासादनि B 7 परलोकोप पररोगोप B 16 प्राह-आ प्राह-देव! आ° B , 15 पृथिवीमानृणाय न पृथिवीमनृणां कतै " 21 समसृपं (समरनृप) समरनृपं B , 22 चोक्तं B उक्तं B नृ , 18 गुरोः पुरो नृप गुरोश्चरणयोर्नुप° B , 25 द्वात्रिंशत्स्वर्ण द्वात्रिंशद रूप्यदन्तपदेशादनन्तरं पदेशदानानन्तरं B युताः स्वर्ण B , 21 . °चार्यरुक्तवति चायें उक्तवति B " 28 विद्युत्पाताद्विदीर्णे विद्युद्धातात् समुद्रनिषेध्य पुनः पाताद्विदीर्णे प्रासादे 23 निषिध्य B पुनः B चाविज्ञपत्। चाजिशपत् / " 33 न्यास्थत् / न्यास्थात् B राजाऽप्य राक्षाप्य° B 1 हिनेषु' इत्यत आरभ्य इति तीर्थोद्धारप्रबन्धः' क्षुरिकां प्राह क्षुरिकां दृष्ट्वा प्राह B इत्येतत्पर्यन्तपाठस्थाने B प्रतावयं पाठःगतः / श्रीकुमार- गतः श्रीकुमारपाला। पालभट्टे भद्दे B एवं पारद्धयेऽपि कोटी सप्तनवतिलविपस्यूत्कार' विषफूत्कार' B क्षयुता(ते) क्षव्ययना (अत्र व्ययिते?) श्रीशत्रुञ्जयस्योपत्यकायां वाहडपुरं नगरं ताहि 'तव B न्यास्थत् / तत्र नृपतिपितुर्नाम्ना त्रिभुवन२० करेसिई करेस्यई B पालविहारे श्रीपार्श्वनाथ स्थापितवान् / तीर्थB आदर्श उत्तरार्धमीटक् पूजाकृते चतुर्विशत्यारामान , नगरपरितोष खूटा विणु खीषा नहीं बडि म खूटा टालि॥ देवकुलस्य प्रासवासादिकं च कारयामास / प्रासादे कलशध्वजप्रतिष्ठायां श्रीपत्तनादि२५ लात्वा रण° लात्वा युद्धाय डुढौके श्रीसई निमन्त्रणापूर्वमानीय महता महेन नृपःारण B 1211 सर्वमकारयत् / स्नात्रपूजारात्रिकावचिरं B सरेकश्चित् कविः-किं कृतेन न यत्र त्वं, यत्र 27 पिधाय, रण पिधाय, तं प्रेरयित्वा त्वं किमसौ कलि। कलौ घेद्भवतो जन्म, . कलिरस्तु कृतेन किम् // 1 // लक्षमुचित" , दुक्षिप्तकरण 'दुरिक्षतकिरणं B दानम्। , 30 कर्षणं टोप्या कर्षणस्थाने टोप्या B 101 1 अथो विश्वविश्वैक- अयोदयनपुत्रेण आं० 32 कोट कोड B सुभटेन 00 हलु B " ,' पर रण B Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध पत्र पडि मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा 101 14 पाल: स० पालनृपः स B 102 26 °समयं चन्द्रोदयं समये चन्द्र उदय B 15-16 'अशन' इत्यत आरभ्यः 'कारयित्वा' इत्येतत्प- , 28 तेऽपि प्रे तेऽपि पूर्वप्रे B र्यन्तः पाठः B पुस्तके नोपलभ्यते। 29 इति जनो इति लोके सर्वत्र जनो B , 16 कलशरोपण कलशारोपण B. 30 राजा तेषां विप्रदीनां राजा 22-25 'केनापि' इत्यत आरभ्य श्रीसङ्घलोकाः' इत्येतदन्तः तदेव देवबोधेस्तदेव B . पाठः B प्रती न वर्तते। ... 32 विनीतासने विनीतानगरीप्रत्यासत्रे B .. 33 जिनं नत्वा श्री जिनस्तुति कृत्वा ,32-33 'श्रुत्या भक्ताद्यर्थ खादिमादिशकटानि भृत्वा श्री B तत्र गतः। प्रभुं प्रणम्य धर्मदेशानां श्रुत्था 102 3 द्रव्यलक्ष द्रव्यलक्षे B भक्ताद्यर्थ सा" इत्येतत्पाठस्थाने B प्रती एता८ 'नृपं प्रा 'नृपं प्रति प्रा B दृशः पाठो वर्तते___ 'सप्तशती' यावत् 'पवित्रीकृताः' पर्यन्तः पाठः श्रुत्वा सार्धद्वादशस्वर्णकोटीप्रीतिदानं दत्त्वा B प्रतो नास्ति। विविधखादिमस्वादिमादिभृतशकटानि लातस्य भ्राता तस्य कनीयान् भ्राताB त्वा सपरिकरः समवसरणे गतः / समग्रश्रीगुरूणां पार्थे धर्म-श्रीगुरुन् वन्दित्वा राजचिह्नानि परिहत्य कृतप्रदक्षिणात्रयविधिः देशनामशृणोत् / धर्मदेशनामित्य प्रभुं प्रणम्येति धर्मदेशनां शुश्राव / यथा शृणोत् / B -"भो भो भव्वसत्ता! मा चिट्ठह विसय: . , 18 'निश्च // ' इत्यतः पश्चादिदं गाथानवकं B पसत्ता / अणेगदुहसयसहस्सदारुणो संसाआदर्शेऽधिकमुपलभ्यते रप्पबंधं, मा करेह एयम्मि पडिबंधं / विसइस्स न होइ दया, विसई सच्चं चएइ दूरेण / कि... ... ...तं,मा तम्मि मुच्छावह चित्तं। लेह अदत्तं विसई, सेवेइ य मेहुणं पावो // 1 // विरसावसाणा कामभोगा, तप्पसत्तार्ण तिव्वारंभपरिग्गहमहाहिगरणाइ कुणइ विसयंधो। जायंति पए पए[व]सणसंजोगा / संझजाई अह अइपावो, जह न तवं कुणइ छड्डेवि // 2 // भरागसरिसं जुव्वणं, मा करेह तम्मि पुचि उ दुकयकम्मं, वेइत्ता अह तवेण सोहित्ता। उम्मत्तं मणं / खणदिट्ठनट्ठो इमो संजोगो, मा पावेइ जिओ मोक्खं, न हु कम्म निष्फलं किंपि // 3 // करेह तम्मि गुरुओ मणरंगो। कुसग्गजलसुइरमवि रायलच्छी, भुत्ता अइविरस होइ पजते / चंचलमाऊ, उजमह धम्म कार्ड। धम्मो जइ छहिऊण न तवं, कीरहता नेइ नरयम्मि // 4 // चेवित्थः सरणं, जोः रक्खइ जम्मजरामरणं / माय पिय पुत्त बंधव सकजकुसला हियाइ कीरति / देह सुरासुररिद्धिं, करे सयलसमीहिय. न मरंतस्सुबयारो, तिलतुसमित्तो विहुज(कु?)णंति॥५ सिद्धिं / आवईओ निवारेइ, संसारसायरजं तस्स मरंतस्स य, कोइ सहाओ न होइ जीवस्स / मुत्ताइ / वियरे मुक्खं, जम्मि पाविजह तेण सभवणेसु गर्य, सव्वं पि जिणेहिं परिचत्तं // 6 // अणंतं सुक्खं / ता सव्वहा पयदृह धम्मे, जतेण समं न य जंति बंधवा नेय मायपियपुत्ता। मा रमह पावे कम्मे / इति भुत्वा पत्ती य बलं विउलं, धणं व जं संचियं निश्चं // 7 // श्रीभरतः परमसंवेगसमारूढः श्रीप्रभुं प्रणम्य एसोसं(अ)सारधम्मो, पिओसयत्थो जियाण सव्वाण / सार्थमानान(सार्धमानीत)भक्तापर्थ सा B नाऊण जिणा एयं, इट्ट मुत्तूण पव्वया // 8 // 103 2 श्रीभरतं श्रीभरतेश्वरं B जंजेण कयं कर्म, सुहं व असुई व तेण भुत्तव्य , , प्राह-मा प्राह-राजन् मा B कम्मफलेणिह जीवा, कम्मे खपिए तओ मुक्खो॥९॥ , 7 अयं अमी B , 19 इत्यादि श्रु इत्यादि धर्मदेशनां , 'शुद्ध'इतिकाकिण्या शुद्धाः इति काकण्या श्रु' B रत्नेन क० रत्नेन तेषां क. B 102 20-21 अत्र पामराशिल' अत्र देवबोधिल• B , 10 ब्रह्मचारि ब्रह्मचारी B , 25 मन्तादिवृत्तो मन्तादिपरिवृतो B,, तेषां जिन तेषां जिने जिन B Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . R वास. B , 26 शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् पति मुद्रितपाठः पाठभेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठोपा 11 13 यावा आवट्टा B , 10 'रागमिः 'रागुरुमिः B . अणुमजणा अणुसज्जणा B 11 हेमखड हेमखंड B 50"" बभूवः बभूवुः 16-18 'सचिवै' इत्यत आरभ्य तदेव शोचामि' 1. सामिसेय जम्माभिसेय° B इत्येतदन्तः पाठः B पुस्तके नास्ति / , 12 गयग्गपए गयग्गपयए B विरहाविप विरहव्यप B , 13 पास , 21 कमलवने कमलवनं B 28 भगीरथः भागीरथ: B विलप्य विलिप्य B 2 मानः / यस्मिन्त्र- मानो यावत् षष्ठार- 110 8 प्यवसरावे. प्यवसरे वे B संख्याता ऋषभ केऽशीतियोजनवि- , 18 सप्तविंशतिदि सप्तदि° B स्तीणों मूले भवि- , 21-24 'सर्वशं' इति पद्य Pa प्रतावेवोपलभ्यते / ष्यति / तस्मिन्नसङ्ख्या- 111 1 नाऽभूद्भ' ता अतीता ऋषभ B नाऽभून म° B , 3 मण्डलेष्वष्टा मण्डलेषु विपुलेवा 105 4 खिलादयो खिल्लादयो B , 6. निजैनो व्ययम् निजैनोव्ययम् , 9 .पाण्डवानां पाण्डवादीनां B , 7-12 'कर्णाटे' इत्येतदारभ्य 'वर्जनम्' इत्येतदन्त श्लोक , 12 चैत्याद् °चैत्याधस्ताद B त्रितयं B प्रतौ नास्ति / ", 13-14 कल्की दत्तो कल्किपुत्रो दत्तो B एकादशोत्तरशततमपत्रस्थमुद्रितसमस्तपाठस्थाने Pa , 14 2214 अन २२१४वर्षान B आदर्श निम्नलिखितः पाठः समस्ति, 20 इति तीर्थ इति श्रीशत्रुञ्जयतीर्थ B संवद्विक्रमतोऽनन्दगिरिशे सम्प्राप्य राज्य.. 21 'अस्य' इत्यत आरभ्याष्टोत्तरशततमपत्रस्यैकादशीपतिः श्रियं, हिंसां सव्यसनां.................. पर्यन्तः पाठः Bप्रतौ पञ्चपञ्चाशत्तमपत्रानुपलब्धे. !पलब्धः / भुक्त्वाऽखिले भूतले। निर्माप्याप्रतिमांश्चतु देशशतीसल्यान् विहारान् नभोवह्नया...... __ पालेन द्वासप्तति- पालदेवेन द्वासप्तति वत्सरे स सुकृती प्राप व्ययम् (1) // इति सामन्ता भू सामन्तभू B.. श्रीकुमारपालप्रबन्ध समाप्तः। सं० 1485 _ 'कारिता / १४४४न इत्येतत्पाठस्थाने - ॥छ॥छ॥ 'कारिता / देशनामानि-कर्णाटे गुर्जरे लाटे, 112-2216 रूसंतुलिंगिणो रूसेइ हेमसूरी उ।B सौराष्ट्र कच्छसैन्धवे / उच्चायां चैव भम्मेयों, सवे। मारवे मालवे तथा // 1 // कोङ्कणे च तथा राष्ट्र, कीरे जालन्धरे पुनः / सपादलक्षे " , 15 सड सडि B मेवाडे, दीपे जालन्धरेऽपि च // 2 // जन्त- " , सुमतसूरिहिं नो नहु चत्ता पुत्रनामभयं सप्तव्यसनानां निषेधनम् / वादनं मुक्का। गच्छेण // B म्यायघण्टाया रुदतीधनवर्जनम् // 3 // 115 13 वाग्टदेवेन वाग्भटदेवेन B १४४४न B कुमारपालप्रबोधप्रबन्धसमाप्त्यनन्तरं [पत्र 111] B पुस्तकेऽय१०८१५ फाटितवान् / पाटितम् / B मधिकः पाठः केनापि पश्चात् समुल्लिखितःकृत्यौ कृत्यैः B कृतकृत्यौ B “अथ अजयपालराज्यम् / श्रीहेमचन्द्रद्वेषाद् रामचन्द्रादौ , 22. कृतकृत्या 26 तत्सङ्ग सत्सङ्ग B तप्तलोहविष्टरासनयातना लोको वक्ति। "., जनानुरागः जनानुरागी B जो करिवराण कुंभे पाए दाऊण मुत्तिए दलह। 19.2 परमेश्वरम् प(पा)रमेश्वरम् सो सीहो विहिवसओ जंबूपरिपिल्लणं सहह // 1 // .. स्थाणु स्थाणु B रामा 'महिपीढहं सचराचरह, जिण सिरि दिन्हा पाय / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रयोधप्रबन्ध पत्र. पडि मुद्रितपाठः पाठमेदः शुद्धपाठो वा पत्र पति मुहितपाठः - पाठमेदः शुद्धपाठो वा तसु. अस्थमीय दिणेसरह, होइ ति होउ चिराय // भग्नम्। पाट्कारं श्रुत्वा व्याघुट्योवाच-रेहताशाः! अस्मा. इत्युदीर्य दशनै रसनां छिन्दन् मृतः / एवमाद्रितः राज- दपि कुनृपात् कुपात्रा यूयम्, अनेनात्मीये पितरि मृते विहाराणां पातनम् / लघुक्षुल्लकानाहाय्य प्रातम॑गयाभ्यासं तद्धर्मस्थानानि पातितानि, भवद्भिः पुनरहं पदशतमपि कारयति, 'पूर्वमेते चैत्यपरिपाटीमकार्षः' इत्युपहासात् / गच्छन्न प्रतीक्षितः। राजा ललज्जे / चैत्यानां रक्षा कारिता। बालचन्द्रोऽपि 'गोत्रहत्याकारापकः' इति ब्रुवद्भिाह्मण- तस्य कुत्सितस्य राज्ञो मातापुत्रयोर्बलाद्विप्लव कारयितुं नॅपचित्तादुत्तारितः / प्रासादपातनं दृष्ट्रा लोकोऽत्यन्तं रुचिरुत्पन्ना / वण्ठा(ण्ठाना)कारयति / एकदकेन घण्ठेन खिद्यते / प्रपञ्चेन रक्षा कारिता। कथम्? नृपवल्लभः कौतुकी / छन्नधृतकङ्कलोहकर्तिकया जने मृतः। वर्ष 3 मास 1 दिन शीलणो भूरिहेमदानेन प्रार्थितः। स इष्टकं सौधमेकं कृत्वा धवलितं चित्रितं च / पुत्राः पञ्च / कर्णे एवमेवमुपराज 28 / मूल [राज] राज्यं वर्ष२ मास 1 दिन 24 / भीमराजकर्त्तव्यम् / राजान्ते शीलणोऽवक-'देव ! राजाशा मे राज्यं वर्ष 60 मास ५दिन 7 / तिहुणपालराज्यं वर्ष२ दिन १२वीसलदेवराज्यं घर्ष १८मास ७दिन 7 / अर्जुनदेवराज्यं शिरसि स्थिता, पुत्रपौत्रवान् जातः, यद्यादेशः स्यात् तदा तीर्थेषु यामि। वर्ष 13 मास ७दिन 23 / सारंगदेवराज्यं वर्ष 21 मास८। राजा- यथारुचिश्चेष्टस्व / नृपे पश्यति पुत्रा भाषिताः _ एवं वर्ष 24 (671) मास 9 राजान पत्तने / ततो म्लेच्छ एतन्मे सौधं यनतो रक्ष्यम् / तैस्तथैवोक्तम। अग्रे किय- राज्यम् // कल्याणमस्तु ॥छ / संवत् 1663 वर्षे कार्तिक तीमपि भुवं यावद् याति तावत् तैस्तत् सौधं लकुटैर्हत्वा वदि 9 शुक्रवासरे // शुभं भवतु लेखकपाठकयोः // * अत्र शुद्धि-वृद्धिपत्रके निर्दिष्टानां प्रतीनामित्थ संज्ञापरिचयःA जैन-आत्मानन्दसभा (भावनगर) ग्रन्थसंग्रहस्था प्रतिः / B शेठियासंग्रह (बिकानेर ) स्था प्रतिः। Pa भाण्डारकररीसर्चइन्सीटयूट (पूना ) प्रन्थसंप्रहस्था प्रतिः / Pb . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञातकर्तृकं पुरातनं संक्षिप्तं कुमारपालदेवचरितम्। ormer प्रणम्य श्रीमहावीरं सर्वशं पुरुषोत्तमम् / कुमारपालदेवस्य चरितं किञ्चिदुच्यते // 11. अस्त्यत्र गूर्जरात्रायां नानाऽणहिल्लपत्तनम् / पुरं तत्र नृपो भीमदेवो देवोपमर्द्धिकः // क्षेमराज-कर्णदेवी तत्पुत्रौ भिन्नमातृकौ / परस्परं प्रीतिभाजौ यथा राघव-लक्ष्मणौ // कर्णमातुस्ततस्तेन भीमदेवेन चैकदा / प्रतिपन्नं राज्यदानं श्रीकर्णस्य लघोरपि // वशीकर्तुमिव स्वर्ग कर्णदेवे दिवंगते / राज्यक्षमे क्षेमराजे कर्णे राज्यं न वाञ्छति // राम इव क्षेमराजः स्मृत्वा भाषां पितुस्ततः / कर्ण महोपरोधेन स्वयं राज्ये न्यवीविशत् // पालयन्नन्यदा राज्यं परनारीसहोदरः / चचाल देवयात्रायां कर्णः कर्ण इवापरः // श्रीदेवपत्तनादर्वाग् गव्यूतैः सप्तभिः स्थितः / प्रासादं सोमनाथस्य दृष्ट्वाऽभिग्रहमग्रहीत् // 'यथा पापक्षयं हारं चन्द्रादित्याख्यकुण्डले / श्रीतिलकमङ्गदं च परिधीय समाहितः // यदा सोमेश्वरं देवं पूजयिष्यामि भक्तितः / भोक्ष्ये तदाशनं पानं ताम्बूलमपि नान्यथा // ' खात्वा प्रभासे श्रीकर्णो यदाऽयाचत भूषणम् / कोशाध्यक्षस्तदा स्माह नादिष्टं भवद्भिस्ततः // 11 आभरणं पत्तनेऽस्थाद् विखिन्नश्च ततो नृपः / तदा मदनपालाख्यो मण्डलीकोऽब्रवीदिति // 12 मा विषीद महाराज! मत्रसिद्धधरा यतः / मया सन्ति सहानीताः श्रीधनेश्वरसूरयः॥ 13 अथ राज्ञाऽभ्यर्थितैस्तैरणहिल्लाख्यपत्तनात् / आकृष्टिमत्रेणाकृष्याभरणं तत् समर्पितम् // सम्पूर्णाभिग्रहो राजाऽप्याह सूरिवरं प्रति / युष्माभिर्जीवितं दत्तं ममाभिग्रहपूरणात् // गृहाण तदिदं राज्यमित्युक्तः सूरिरब्रवीत् / रक्ष जीववधं राजन् ! नवरात्रद्वयेऽपि हि // तथेति कृत्वा संसाध्य सुराष्ट्रामण्डलं नृपः / चकार वामनस्थल्यां सज्जनं दण्डनायकम् // ततो मदनपालेन विज्ञप्तः कर्णभूपतिः / सार्द्ध धनेश्वराचार्यैरारूढो रैवताचलम् // सज्जनोऽपि स्वगुरुभिः श्रीभद्रेश्वरसूरिभिः / चतुर्विधेन सङ्घन सार्द्ध राजानमन्वगात् // श्रीनेमिभुवनं जीणं वीक्ष्य काष्ठमयं ततः / सज्जनो गुरुणादिष्टो जीर्णोद्धारकृते कृती // यथा-रायामच-सिट्ठी कुडंबिए वावि देसणं काउं। जिन्ने पुवाययणे जिणकप्पी वावि कारवइ // जीर्णोद्धाराय विज्ञप्तः सज्जनेन नृपस्ततः / सुराष्ट्रोद्राहितं दत्त्वाऽणहिल्लपुरमाययौ // अथ भद्रेश्वरः सूरिः सजनेन सहाष्टमम् / तपः कृत्वाऽम्बिकादेवीमाह्वानयददीनधीः // प्रत्यक्षीभूय साऽप्युचे युवाभ्यां किमहं स्मृता / सूरिराह नेमिचैत्यमुद्धरिष्यति सज्जनः।। तदेनमनुजानीहि पाषाणखनिमादिश / अम्बाप्यूचे भवत्वेतदल्पायुः सज्जनः पुनः // दण्डाधिपः प्राह कार्यस्तीर्थोद्धारो विशेषतः / परलोकप्रस्थितानां पाथेयं धर्म एव यत् // Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम् / सम्पानुज्ञां ततो लब्ध्वा पाषाणस्य खनिं च सः। श्रीनेमिचैत्यं षण्मास्यां कलशान्तमकारयत् // ज्येष्ठस्य सितपञ्चम्यां शिरो.त्र्तोऽथ सज्जनः / अम्बादेवीवचः श्रुत्वा जातपञ्चत्वनिश्चयः // आदिश्य परशुरामं स्वपुत्रं ध्वजरोपणे / भद्रेश्वरगुरोः पार्थे संस्तरे व्रतमग्रहीत् // दिनाष्टकं पालयित्वाऽनशनं सज्जनो मुनिः / दिवं जगाम पुत्रोऽथ ध्वजारोपं व्यधापयत् // . 62. अथ पञ्चत्वमापन्ने कर्णदेवमहीपतौ / श्रीमान् जयसिंघदेवस्तस्स राज्येऽभ्यषिच्यत // चतुःसमुद्रमर्यादा मही तेन वशीकृता / सिद्धो बर्बर क श्चास्य सिद्धराजस्ततोऽभवत् // श्रीहेमसूरीनभ्यर्थ्य सर्वविद्याविशारदान् / व्याकरणं सिद्धहेमचन्द्राख्यं स व्यधापयत् // 63. इतश्च क्षेमराजस्य पुत्रो देवप्रसादकः / तस्य पुत्रास्त्रिभुवनदेवादयस्त्रयोऽभवन् // त्रिभुवनपालस्याभूत् सुतैका तनयास्त्रयः / आधः कुमरपालाख्यो राज्यलक्षणलक्षितः // महीपालः कीर्तिपालस्तथा प्रेमलदेव्यभूत् / श्रीकृष्णभटदेवेन योदूढा मोढवासके // 36 मार्या भोपलदेवीति कुमारस्य बभूव च / अत्रान्तरे सिद्धराजो दैवज्ञं पृष्टवानिति // 'मम पट्टे को भविता ?, सोऽप्यूचेऽस्ति महाभुजः / मध्ये दधिस्थलिकां यस्ते भ्रातृव्यनन्दनः // 38 राज्यं न मम पुत्रस्य जीवति भ्रातृनप्तरि / तत्तं ज्ञात्वा हनिष्यामीत्यचिन्तयदयं नृपः // ततोऽसौ पादचारेण कपोतीमुद्बहन् स्वयम् / गत्वा प्रभासे पुत्रार्थ सोमनाथमनाथयत् // 40 सोमनाथोऽप्यथोवाच मया राज्यधरः पुरा / सृष्टः कुमारपालोऽस्ति तदलं पुत्रयाजया // . सविषादस्ततो भूपो व्यावृत्तः पत्तनं प्रति / अस्मिन् जीवति पुत्रोऽपि न मे भावीत्यचिन्तयत् // 42 मत्रिणे कथयचैतत् सोऽप्यूचे युक्तमेव तत् / 'यदा पूर्व देव ! यूयं विजेतुं मालवान् गताः॥ 43 घाटे वुद्धल्लिकायाश्च संरुद्धे जसवर्मणा / युष्माभिओपितश्चाहं पारापतप्रयोगतः // 44 त्रिभुवनपालस्यैतत् तदा राज्यं समर्प्य ते / त्वत्समीपेऽहमायातस्तेन राज्यं वशीकृतम् // 45 निर्जित्य जसवर्माणं त्वय्यातेऽपि वक्ति सः / राज्यं दास्ये स्वपुत्राय हत्वा सिद्धनरेश्वरम् // 46 इति मत्रिवचः श्रुत्वा क्रुद्धः सिद्धाधिपस्ततः / त्रिभुवनपालदेवं घातयामास घातकैः॥ 47 कुमारपालोऽप्यवन्त्यां प्रेष्यन्त भ्रातृपितृव्यकान् / भार्या भोपलदेवीं तु दधिस्थल्याममुञ्चत // 48 खयं तु त्रिपुरुषाणां मठाधिपतिसन्निधौ / कपटेन जटाधारी भूत्वा श्रीपत्तने स्थितः // 49 सिद्धराजोऽपि तत्रस्थं ज्ञात्वा तं च कथञ्चन / क्षयाहे कर्णदेवस्य द्वात्रिंशत्तापसैः सह // 50 तं निमत्र्य मठाधीशं पतया धावन् पदौ स्वयम् / ददर्श राजचिह्नानि कुमारपालपादयोः॥ 51 उपलक्ष्य कुमारं तं राज्ञा पृष्टो मठाधिपः / अवोचत त्रयस्त्रिंशत् तापसा वयमास्महे // 52 नानाविधैर्भक्ष्यभोज्य राजा सम्भोज्य तानथ / धौतपौतीकृते तेषां भाण्डागारे स्वयं गतः / / अत्रान्तरे कुमारोऽपि गृहीत्वा कुण्डिकां करे / उत्क्रान्तिब्याजतो नष्ट्वाऽचालीत् प्रति दधिस्थलीम् // 54 सिद्धराजोऽप्यदृष्ट्वा तं पृष्ठेऽप्रैषीच साधनम् / आसन्नसाधनं दृष्ट्वा कुमारो हालिकं जगौ // 55 रक्ष मामिति तेनापि सञ्छन्नः कण्टकाभरैः / तमदृष्ट्वा सैन्यमपि गतं व्यावृत्य पत्तने // 56 निःसृत्याथ कुमारोऽपि मुण्डाप्य विकटा जटाः / गत्वा दधिस्थली रात्रौ मिलितः सजनैः समम् // 57 आकार्य घोसरिविप्रं कुलालं सज्जनं तथा / गन्तुं देशान्तरं ताभ्यां सह यावदमत्रयत् // 58 तावदुआगरोद्विनौ जनकावूचतुस्तयोः / 'भवतां मत्रणैर्दग्धा कथं जागरिका मुधा // 59 अथवा कुमारपालस्य यदि राज्यं भविष्यति / तत्कथं योसरे! तुभ्यं लाटदेशं प्रदास्यति.॥ 60 किश्च रे सज्जन! तव चित्रकूटस्य पट्टिकाम् ? / ' बबन्ध शकुनग्रन्थि तच्छ्रुत्वा राजनन्दनः॥ 61 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 पुरावनं संक्षिप्तं सजनं भोपलदेव्या सह प्रैषीदवन्तिकाम् / स्वयं योसरियुक्तस्तु चेले देशान्तरं प्रति // 62 आधेऽह्नि करौटग्रामे उषित्वा जातलङ्घनौ / अच्छचोल्यां द्वितीयेऽह्नि प्रयाती प्रहरदये // 63 कुमारो बोसरिं प्राह अब सादोजनं कथम् / सोऽप्याहास्ति जननी मे सा मे दास्यति भोजनम् // 64 यतः-प्रतिदिनप्रयनसुलभे भिक्षुकजनजननि साधुकल्पलते।। नृपनतिनरकतारिणि भगवति भिक्षे ! नमस्तुभ्यम् // इत्युक्त्वा वोसरिर्भिक्षां कृत्वाऽऽयातस्तदन्तिके / करम्भकुम्भी संगोप्य भिक्षासुंडीमुपानयत् // 66 भुक्त्वोभावपि सुप्त्वाथ पूर्वमुत्थाय योसरिः / करम्मं यावदनाति कुमारोऽचिन्तयत् तदा // 67 अहोऽस्याङ्नता येन सुप्ते मय्येककोऽत्यसौ / जीणे करम्भे सोऽप्याहोत्तिष्ठ भुंक्ष्व नृपात्मज! // 68 ऊचे कुमारः किं पूर्वमेकाकी भुक्तवान् भवान् / स ऊचेऽद्य मम भिक्षागतस्योक्तं स्त्रियैकया // 69 'करम्भकुम्भं हे विप्र! रात्रावुद्घाटितं [स्थितम्] / गृहाण यदि ते कार्य न पुनर्दूषणं मम // 70 गोपितः स मयादाय स्वयं भुक्त्वा परीक्षितः / वरं भवतु मे मृत्यू रक्षणीयो भवान् पुनः॥ राज्ये दास्ये तव ग्राममेनमुक्त्वेति राजसूः / प्राप्तो डांगुरकग्रामे साध्वीलक्ष्मीश्रियो मठे // 72 तया च क्षुधितो ज्ञात्वा भोजितश्चारुमोदकैः / तयैवार्पितपाथेयः पेटलापद्रकं गतः // तत्रेश्वरवणिग्वाट्यां प्रविष्टस्य पटी गता / न लब्ध्वा चाटुभिरपि विषादोऽस्य ततोऽभवत् // प्रावृत्य बोसरिपटीं स्तंभतीर्थे गतस्ततः / श्रीहेमसूरीन् पप्रच्छ कदा सेत्स्यति वाञ्छितम् // 75 तेऽप्यूचुः कतिपयैस्ते वर्षे राज्यं भविष्यति / स प्राह राज्यसन्देहो मृ(मि)यते तु क्षुधयाऽधुना // 76 14. इतश्चागादुदयनो गुरून्नन्तुं सुतैः सह / आख्यायाऽऽम-बप्पहयोदृष्टान्तं हेमसूरिमिः // 77 प्रोवाचेति कुमारोऽयं भविता परमार्हतः / सार्वभौमस्ततोमत्रिन् ! सन्मान्योऽतिमहादरात् // 78 * कुमारोऽप्युदयनस्य गृहे तिष्ठन्नथान्यदा / केनाप्युक्तः सिद्धराजः प्रेषीत् तं प्रति घातकान् // 79 तच्छ्रुत्वा कुमारो भीतः प्राणत्राणकृते कृती / एकाकी निशि निर्गत्य जगाम वटपद्रके // . . 80. विशोपकैकचणकान् कडूवणिज आपणे / क्षुधातॊ भक्षयित्वाऽसौ खड्गमड्डाणकं ददौ // निर्द्रव्यं राजपुत्रं तं विलोक्य वणिगूचिवान् / खड्गेनालं मङ्गलीके भवन्तु चणकास्तव // कन्नालीसिद्धपरके जटीभूत्वाऽथ सोऽगमत / सिद्धेश्वरपूजनार्थ स्थापितस्तन्निवासिभिः॥ तत्रैकदा शाकुनिकं मारवं पृष्टवानसौ / वाञ्छिताप्तिः कदा मे स्यात्, सोऽप्यूचे प्रातरापतेः // 84 प्रातमिलित्वा शकुनान्वेषणाय गतावुभौ / मुनिसुव्रतचैत्योद्धं दृष्ट्वा दुर्गा स्थितौ ततः // शुभचेष्टाऽकरोदुर्गाऽमलसारे स्वरद्वयम् / स्वरत्रयं च कलशे दण्डे स्वरचतुष्टयम् // 86 दृष्टः शाकुनिकोऽवोचत् सिद्धिस्ते वाञ्छिताधिका / भाविन्येव विशेषात्तु जिनभक्तिप्रभावतः // 87 वः सम्पूज्य कुमारस्तं मुक्त्वा तापसव्रतम् / गत्वाऽवन्त्यां खजनानां मिलितः सिद्धराट्भयात् // 88 गत्वा कोल्लापुरेऽद्राक्षीद् दानभोगादिसद्गुणम् / सर्वार्थसिद्धं योगीन्द्रं सेवित्वा चाप्यतोषयत् // 89 उवाच योगी मत्रौ स्त एकः साम्राज्यदायकः / खेच्छया धनदाताऽन्य आद्यः सोपद्रवः पुनः // 90. सत्त्वसारः कुमारोऽथ मनं जग्राह राज्यदम् / उक्तेन तेन विधिना पूर्वसेवा व्यधत्त च // ततः कृष्णचतुर्दश्यां गत्वा पितृवने निशि / शबस्य वक्षसि न्यस्य वह्निकुण्डं स्वयं पुनः // 92 उपविश्य तस्य कयां यावत् होमं ददाति सः / करालमूर्तिः प्रत्यक्षस्तावत् क्षेत्राधिपोऽवदत् // 93 मामनभ्यर्च्य रे धृष्ट ! किमारब्धं मुमूर्षुणा / इति श्रुत्वापि निःक्षोभः सोऽपि जापं समापयत् // 94 तदा च भूत्वा प्रत्यक्षा महालक्ष्मीरवोचत / गूर्जरानाधिपत्यं ते दत्तं वस्तु पञ्चभिः / 954 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम् / सिद्धमत्रः कुमारोऽथ नत्वा सर्वार्थयोगिनम् / कल्याणकटके देशे क्रमात् कांचीपुरी ययौ // 96 __पुष्पेषु जातिनगरीषु कांची नारीषु रंभा पुरुषेषु विष्णुः / सतीषु सीता द्रुषु कल्पवृक्षो जिनस्तु देवेषु नगेषु मेरुः // ..:65. कुमारः कौतुकात् तस्मात् भ्रमन् परिसरेऽन्यदा / कबन्धमेकमद्राक्षीत् वैरिणापास्तमस्तकम् // 98 ___ तत्पार्चे मिलितः स्त्रीणां शुश्रावान्योऽन्यजल्पितम् / 'अहो केशकलापोऽस्य अहो श्रवणलम्यता // 99 अहो घनत्वं कूर्चस्याहो ताम्बूलव्यसनिता / अहो विरलदन्तत्वं!' श्रुत्वैति च स ता जगौ // 100 कथमेतत् ततस्ताश्चावोचत्-'किं चित्रमत्र यत् / दीर्घ वेणीसलं पृष्ठे स्कन्धे कुण्डलयोः किणे // 101 आनाभि हृदि गौरत्वाद् दृष्यते स्मश्रुणः सलम् / ताम्बूलव्यसनाच्चैपोऽङ्गुष्ठश्चूर्णेन चर्चितः // 102 नित्यं विरलदन्तानां क्षित्यारक्ता कनिष्ठिका / ' तच्छ्रुत्वा चिन्तयदसौ बहुरत्ना वसुन्धरा // 103 कृत्वा स्नानं कुमारोऽथ सरस्यमृतसागरे / तीरदेवकुले गत्वाऽर्च्यमानं ददृशे शिरः // 104 तस्येतिवृत्तं पृष्टश्च कश्चन स्थविरोऽवदत् / 'पुरेह प्रवरो राजा कारिते सरसि स्वयम् // 105 पद्मकोशाद् विनिर्गत्य शीर्षमेकं सकुण्डलम् / त्रिःकृत्वो ब्रुड ती त्युक्त्वा निमजद् ददृशेऽन्वहम् // 106 तदर्थ पण्डितैः पृष्टैः प्राप्य मासचतुष्टयम् / तद् ज्ञातुं प्रस्थिता विप्राश्चत्वारो वृद्धसन्निधौ // 107 यतःयदेकः स्थविरो वेत्ति न तत्तरुणकोटयः। नृपं यो लत्तया हन्ति वृद्धवाक्यात् स पूज्यते // .. ततो गत्वा मरौ देशे स्थविरः कोऽप्यपृच्छ्यते / स्वपिता दर्शितस्तेन तेनापि स्वपितामहः॥ 109 सविंशतिशतवर्षदेशीयस्यास्य सन्निधौ / विगैरप्रच्छि शीर्षस्य ब्रुड ती त्युक्तिकारणम् // 110 सोऽप्यूचे भोजयित्वा तान् शुनीडिम्भचतुष्टयम् / गृह्णीतेदं महामूल्यं शुद्ध्यत्यध्वव्ययो यतः // 11 लोभाद् विप्रा अपि कटौ कृत्वा तांश्चलनाक्षमान् / व्याघुटन्तं वृद्धमूचुः स सन्देहस्तथैव नः // 12 संशयश्छिन्न एवायमित्युक्ते तेन तेऽभ्यधुः / कथं स ऊचे शास्त्रज्ञा अपि तदपि वित्थ न // यत उक्तम्श्वानगईभचाण्डालमद्यमांसरजस्वलाः। स्पृष्ट्वा देवलकं चैव सचेलस्लानमाचरेत् // शास्त्रनिषिद्धः संस्पर्शो विप्राणां युज्यते कथम् / तेऽप्यूचुबहुमूल्यानि श्वडिम्भानि त्वमप्यधाः // ततोऽस्माभिर्गृहीतानि लोभाद् विक्रियते न किम् / ऊचे वृद्धस्तदेवेदं विश्वं ब्रुडति लोभतः॥ इति ते छिन्नसन्देहाः कुमारहागताः पुनः / पण्डितैः पुस्तकेष्वेष लिखितोऽर्थः सविस्तरः॥ राज्ञोऽदर्शि नृपोऽप्याह सत्यमेतत् शिरो यदि / श्रुत्वैनमर्थ न पुनः सरसो निस्सरिष्यति // तथाकृते तथायाते चैत्यं निर्माप्य भूभुजा / देवस्थाने स्थापितं च शीर्षमेतत् प्रसिद्धये // 19 तच्छुत्वा विविधाश्चर्यदर्शनाजातनिश्चयः / किञ्चित्कालं कुमारोऽपि काभ्यां स्थित्वा विनिर्ययौ // 120 66.. मल्लिनाथजनपदे स्थित्वा कोलम्बपत्तने / सोमनाथेन कोलम्बस्वामी स्वप्ने न्यगद्यत // 21 भविष्यो गूर्जरात्रायाः स्वामी श्वस्तव पत्तने / समेष्यति जटाधारी विधेयं तस्य पूजनम् // 22 चतसृषु दिक्षु मुक्तैः पुरुषैः पुरसीमनि / यथोक्तलक्षणो वीक्ष्य कुमारो भक्तिपूर्वकम् // आहूय नृपतेः पार्थे समानिन्ये ततो नृपः / अभ्युत्थाय स्वकीयार्द्धासने तं स न्यवेशयत् // 24 निगद्य शम्भोरादेशं राज्ञा राज्ये निमत्रितः / निषेध्य कुमरस्तस्य पार्थे तस्थौ यथासुखम् // .. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनं संक्षिप्त सोचे (1) तथापि तेऽभीष्टं कुमार ! किं करोम्यहम् / कुमारः प्राह येनात्र ज्ञायते मे समागमः // 26 दशगव्यूतिविस्तारे कोलम्बपत्तनान्तरम् / भूमीमप्राप्य राज्ञाऽथ सङ्कोच्य निजमन्दिरम् // 27 कुमारपालेश्वराख्यः प्रासादस्तत्र कारितः / कुमारपालनामाकं नाणकं च प्रवर्तितम् // 28 17. ततः कुमारो निर्याय प्रतिष्ठानपुरं गतः / द्विपञ्चाशद्वीरकूपाद्याश्चर्याणि तु वीक्ष्य सः // 29 प्राप्तः क्रमेणोजयिन्यां निजस्वजनसन्निधौ / भ्रमंस्तत्रान्यदा यातः कुडंगेश्वरमन्दिरे // 130. प्रणम्य लिङ्गं तन्मध्ये व्याप्तं सप्तफणाकुरैः / वीक्ष्य प्रशस्ति तन्मध्ये गाथामेतामवाचयत् // 31 - पुन्ने वाससहस्से सयंमि वरिसाण नवनवइ अहिए। होही कुमरनरिंदो तुह विकमराय ! सारिच्छो // आत्मनो नामसाम्यं च वर्षाणां वीक्ष्य पूर्णताम् / गाथार्थ कुमारोऽपृच्छजैनदर्शन(नि)सन्निधौ // 33 सोऽप्याख्यत-'पूर्वमत्रासीत सिद्धसेनदिवाकरः। विक्रमादित्यभपस्य तेनाऽभ्यर्थनया किल॥ 34 // द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिकाभिर्वीतरागः स्तुतस्ततः / कुडंगेश्वरलिङ्गं च स्फुटितं तस्य मध्यतः // : 35 आविरभूद्धरणेन्द्रः श्रीपार्श्वप्रतिमाकरः / तं दृष्ट्वा विक्रमादित्यभूजानिः परमार्हतः // . . 36 तेनैकदा सिद्धसेनः पृष्टः किं कोऽपि भारते / अतः परं जैनभक्तः सार्वभौमो भविष्यति // 37 श्रुतज्ञानेन विज्ञाय गाथेयं गुरुणोदिता / राज्ञा च लेखितात्रैव-' तच्छ्रुत्वा कुमारोऽवदत् // . . .38. 'आर्हतानामहो शक्तिरहो ज्ञानमहो व्रतम् / अहो परोपकारित्वं किममीषां हि नाद्भुतम् // ' 39.. 68. ततः सज्जन-भोपल्लदेवी-बोसरिभिः सह / धृत्वा निर्भरवेषं स उज्जयिन्या विनिर्ययौ // 140 मध्ये दशपुरं भूत्वा चित्रकूटनगं गतः / शान्तिचैये श्वेतभिक्षो रामचन्द्रस्य सन्निधौ // जातचित्रश्चित्रकूटदुर्गोत्पत्तिमपृच्छत / रामोऽप्यूचे-'इतः कोशत्रयेऽभून्मध्यमा पुरी // 42 तत्र चित्राङ्गदो राजा सोऽन्यदाऽभिनवैः फलैः / योगिना व्याघ्रयुक्तेन षण्मासावधि सेवितः // 43 पृष्टो हेतू रहो राज्ञा योग्यूचे मत्रसिद्धये / द्वात्रिंशल्लक्षणवतः सान्निध्यात् तेऽभवच्च सः॥ 44 // यतः कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ चित्रनगोपरि / मम सिद्ध्यति मन्त्रश्चेत् त्वं तत्रोत्तरसाधकः // ओमित्युक्त्वा नरेन्द्रेण स योगीन्द्रो व्यसृज्यत / राजपत्यान्तरितया तच्छ्रुत्वाऽवाचि मत्रिणे // 46 उवाच मत्री ज्ञाप्योऽहं यदा तत्र व्रजेन्नृपः / ततो यथोक्तवेलायां खड्गव्यग्रकरो नृपः॥ 47 एकाकी निर्ययौ छन्नो राजा ज्ञात्वा च मत्र्यपि / दक्षो नरेन्द्ररक्षार्थ नृपेणालक्षितोऽन्वगात् // 48 . नृपोऽपि चित्रशैलाग्रमारूढो वीक्ष्य योगिनम् / व्याघ्रं च होमसामग्री ततोऽजल्पत् करोमि किम् // 49 // रक्षार्थ होमसामग्र्या मुक्त्वा तत्र नरेश्वरम् / योगी जलार्थ सव्याघ्रः क्षीरकूपं गतः स्वयम् // 150 . इतश्च प्रकटीभूय नत्वोचैर्मत्रिणा नृपः / देवोपकरणैरेभिः साध्यते स्वर्णपूरुषः // 51 तत्तं सिसाधिषुर्योगी होमित्वा त्वत्तनु ध्रुवम् / ततो यतस्व रक्षायै इत्युक्त्वाऽन्तरितोऽथ सः॥ 52 राज्ञा सह ततः सात्वा जलमानीय योगिना / विलेपनैर्विलिप्याङ्गं होमार्थ ज्वालितोऽनलः // 53 उक्तश्च राजा-त्वं देव ! प्रतिपन्नैकवत्सलः / तदस्य वह्निकुण्डस्य देहि प्रदक्षिणात्रयम् // राजा सशस्तं प्राह-'त्वं योगिन् ! अग्रतो भव / ' ततो योगी तथा कुर्वन्न च्छलं प्राप भूपतः // 55 अथ व्यावृत्य सहसा नृपं यावज्जुहोति सः / तावन्नृपेन्द्र-मत्रिभ्यां स एवाग्नौ हुतो हठात् // व्याघ्रोऽप्यनुप्रविष्टस्तं जातोऽथ स्वर्णपूरुषः / सम्पूज्य तं गृहीत्वा च राजाऽगात् मध्यमां पुरीम् // 57 पन्छन् यथेच्छं द्रविणं ख्याति स प्राप सर्वतः / ततः स्वऋद्धिरक्षार्थमादिदेशेति मत्रिणे // 58 54.. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम् / यया चित्रगिरेः पार्थे कूटशैलोऽस्ति दुर्गमः / तस्योपरि महादुर्ग कारयाभङ्गुरोधमः // मत्रिणाऽपि तथारब्धे यावच्चेचीयते दिवा / तावन्निपतति रात्रौ पण्मासा इति जज्ञिरे॥ तथाप्यभङ्गुरोत्साहं नृपं कूटाचलाधिपः / उवाच माग्राम्य (?) दुर्गमत्र कर्तुं न कोऽप्यलम् // 61 प्राणात्ययेऽपि कर्ताऽस्मि नृपेणोक्ते सुरोब्रवीत् / यद्येवं निश्चयस्तर्हि कुरु चित्रनगोपरि // .. 62 दुर्गस्य नाम मध्ये तु देयं मे नाम भूपते ! / ततश्चित्राङ्गदश्चके दुर्ग चित्रनगोपरि // चित्र-कूटेति दत्ताख्यं देवेन तदधिष्ठितम् / कोटीध्वजानां यन्मध्ये सहस्राणि चतुर्दश // लक्षेश्वराणां योग्या च कारिता तलहट्टिका / वापीकूपसरोमुख्यं शेषं देवेन निर्मितम् // 69. इतश्च स्वर्णपुरुष सिद्धं चित्राङ्गदस्य तम् / ग्रहीतुं कन्यकुजेशः शम्भलीशनृपो बली // 66 अरोत्सीद् दुर्गमागत्य ततश्चित्राङ्गदोऽपि हि / नियत्रितपुरद्वारो लसत्युपरि निर्भयः // 67 चाराः कौरिकवेषेण वर्षेः कतिपयैः पुरम् / प्रविश्य शुश्रुवुर्वार्ता गृहे शुल्काधिकारिणः // 68 गवाक्षस्था मत्रिपुत्री लालयन्ती सुतं निजम् / भाषते तात! किं नैते मुच्यन्ते वणिजारकाः // 69 हसित्वा तत्पिताहैते न वत्से ! वणिजारकाः / शम्भलीशचमूरेषाऽवात्सीद् दुर्गजिघृक्षया // 170 वत्से ! जन्म यदा तेऽभूत् तदेदं सैन्यमागतम् / त्वमूढा पुत्रवती वत्से ! जाता चैतत् तथैव तु // 71 तच्छ्रुत्वा शम्भलीशोऽपि ससैन्यो दुर्गगोपुरे / प्रोक्तो गवाक्षस्थवर्करीवेश्यया यतः॥ 72 गंडूपदः किमधिरोहति मेरुशृङ्गं किंवा रवेरजगरो निरुणद्धि मार्गम् / .. शक्येषु वस्तुषु बुधाः श्रममारभन्ते दुर्गग्रहग्रहिलतां त्यज शम्भलीश!॥ 73 अथापसृत्य राज्ञाऽपि प्रेषिता गूढपूरुषाः / समर्प्य प्राभृतं तस्याः प्रोचुः स्वामिनि ! नः प्रभुः // 74 जित्वा चित्राङ्गदं दुर्ग जिघृक्षुस्त्वत्प्रसादतः / तत् प्रसीदादिशोपायं साऽपि हृष्टा जगाद तान् // 75 सर्वाः प्रतोलीरुद्घाट्य पूरितार्थिमनोरथः। भुते चित्राङ्गदो नित्यमागन्तव्यं तदा त्वया // विवृणोमि गवाक्षस्था यदा केशानहं तदा / ज्ञेया भोजनवेलाऽथ तं ज्ञात्वा शम्भलीशकः॥ 77 वर्करीगणिकाभेदात् द्वितीये जगृहेऽह्नि तम् / दुर्गतश्च चित्राङ्गदो गृहीत्वा स्वर्णपूरुषम् // क्षीरकूपे ददौ झम्पां तच्छ्रुत्वा शम्भलीशराट् / क्षीरकूपाजलं कृष्ट्वा दृष्ट्वा तं स्वर्णपूरुषम् // . यावत् कर्षयते तावत् पुनः पूर्णः स कूपकः / विलक्षः सोऽथ चित्राङ्गसुतं वाराहगुप्तकम् // 180 संस्थाप्य च स्वयं राज्ये कन्यकुब्जं पुनर्गतः / स्वभार्याग्रेऽपठदुर्ग (2) भद्रो वादीश्वरोऽन्यदा // 81 _ 'चित्रकूटमिदं भद्रे ! पृथिव्यामेकलोचनम् / द्वितीयलोचनस्यार्थे तपस्तपति मेदिनी // 82 कुमारः सपरीवारस्तच्छ्रुत्वाऽऽरुह्य तं नगम् / विस्मितः सर्वतो वीक्ष्य दिग्नागान् संजगाद च // 83 शैलाः सर्वे गण्डशैलानुकाराः वृद्धा ग्रामाः क्षामधामोपमानाः / कुल्यातुल्याः प्रौढसिन्धुप्रवाहाः संदृश्यन्ते दूरतोऽत्राधिरूढः॥ 610. ततस्तदीक्षासोत्कण्ठः कन्यकुब्जपुरं ययौ / चूतानां लक्षशो वीक्ष्य लक्षारामान् सविस्मयः / / 85 पप्रच्छ कञ्चित् किं चूता दृश्यन्ते गणनातिगाः / सोऽप्यूचे न करोत्रास्ति चूतानां तद् घना अमी // 86 राज्येऽहमपि चूतानां कर मोक्ष्ये खनीवृति / विचिन्त्येति कुमारोऽगात् कासीं निर्भरवेषभृत् // 87 भ्रमन्नेकेन वणिजा वस्त्रायः सत्कृतः कृती / द्वितीयेऽह्नि लुण्ट्यमानं तगृहं वीक्ष्य दुःखितः // 88 कंचित् पप्रच्छ किमिदं सोचेऽद्यापुत्रको वणिक् / मृतोऽसौ तद्गृहं तेन लुण्ट्यते राजपूरुषैः // 89 कुमारोऽचिन्तयदसौ धिग्! राज्यं यदपुत्रिणाम् / म्लेच्छानामिव सर्वखं राजा गृह्णाति पुत्रवत् // 190 - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनं संक्षिप्त 99 राज्ये नाहं ग्रहीष्यामि स्वदेशे स्वमपुत्रिणाम् / प्रतिज्ञायेति कुमारो गतः पाटलीपुत्रके // ततो राजगृहे याते वीक्ष्य वैभारपर्वतम् / श्रुत्वा समवसरणस्थानान्येष विसिष्मये // नवद्वीपकदेशेषु गत्वाऽजयपुरं ययौ / ततोऽपि कामरूपेऽगात् कामाक्षेक्षणकौतुकी // ततोऽगात् तत्र यत्रास्ति सर्परूपेण भूपतिः / भौतिकं दैविकं चापि यद्राज्ये न भयं भवेत् // कुमारोज्गाचर्मकारयालचंडापणेऽन्यदा / उपानदर्थ तेनापि सादरं पूर्वनिम्मितम् // प्रधानमुपानयुग्मं कुमारः परिधावितः / एतन्मूल्यं न मेऽस्त्यूचे, चर्मकारस्ततोऽवदत् // उपानयुगलमेतत् युज्यते तव पादयोः / मूल्येनालं तव स्वामिन् ! मङ्गलीके मया कृतम् // हृष्टस्तच्छुभवाक्येन शुश्राव कुमरस्तदा / पत्तने पादुकाराज्यं मरणात् सिद्धभूभृतः // कुमारपालभूपालं शृणोषि पत्तने यदा / शीघ्रमेयास्तदामत्र्य मोचिकं कुमरस्ततः // उज्जयिन्यां सानुचरो गत्वाऽखण्डप्रयाणकैः / कन्नालीसिद्धपुरेऽगालात्वाशेषकटुम्बकम् // 111. तत्र पूर्वप्रतिपन्नमातुलस्य द्विजन्मनः / गृहे मुक्त्वा स्वकुटुम्बं एकाकी पत्तने ययौ // 201 गत्वाऽऽवासे कृष्णभटदेवस्य भगिनीपतेः / रात्रौ ननाम कुमरो भगिनीं प्रेमलदेविकाम् // 202 मातेति प्रत्यभिज्ञाय तयापि नापितः स्वयम् / स्नाननीरे वीक्ष्य स्नातां दुर्गा शाकनिकोऽवदत // 203 सप्ताहान्तं भवान् राजा प्रमाणं शकुनो यदि / तदाकर्ण्य भगिन्यापि विज्ञप्तं पत्युरात्मनः // 204 मण्डलेशः कृष्णदेवः कुमारं परिरभ्य तम् / तवैव राज्यं नान्यस्य मा विषीदेत्युवाच सः॥ 2057 महीतटदेशाधीशं विजयपालराणकम् / मित्रमाकार्य कृष्णेन पर्यालोचः कृतस्ततः // 206 अग्रे प्रधानैश्चौलुक्यौ द्वौ स्तो राज्यार्थमाहूतौ / महीपाल-रत्नपालौ राज्यं त्वस्यैव मे मतिः // 207 द्वितीयेऽह्नि प्रधानानां ज्ञापयित्वेति तौ ततः / आजुहावतुः कुमारं श्रीजयसिंहमेरुके // 208 ततः प्रधानैः सम्भूय पूर्व राज्यार्थमाहूतः / महीपालस्तान् नत्वाऽऽह दत्तादेशं करोमि किम् ? // 209 तं विसृज्य रत्नपालस्तैराहूतो महेश्वरम् / प्रणम्य सचिवादींश्च प्राञ्जलिः प्राह पूर्ववत् // 210 . विसृष्टः सोऽप्यथाहूतः कुमारपाल ईश्वरम् / नत्वा सहेलमावर्योत्तरीयाञ्चलसञ्चयम् // तानाह्रास्ताभिपेकाय मृगेन्द्रासनमास्थितः / ततः कृष्णादिभिः प्रोचे परामर्श विमुच्य भोः!॥ अत्रार्थ मा विलम्बध्वं कार्य चेजीवितेन वः / तद्भीतैस्तैस्तथा चक्रे कुमारगुणरञ्जितैः॥ . 13 मौक्तिकसेतिका क्षिप्ता तच्छीर्षेऽभूत् सपल्लिका / कृष्णभटदेवमुख्यैस्ततो राजेत्यसौ नतः // 14 श्रीकुमारपालदेवो वेष्टितो मण्डलेश्वरैः / पट्टहस्तिसमारूढो मेघाडम्बरमण्डितः // चामरैर्वीज्यमानस्तु गृह्णन् पौरजनाशिषः / प्रतीच्छन् पौरजनानाशु राजप्रासादमासदत् // कृतोपकारानाकार्य सर्वान् सर्वहितस्ततः / कृतज्ञः कृतवान् राजा तेषां पूजां यथोचितम् // सहकारकरो मुक्तस्त्यक्तं च रुदतीधनम् / व्यसनानि निषिद्धानि सप्त देशेषु सप्तसु // वधो निषिद्धो वर्षाणि द्वादशाखिलदेहिनाम् / विश्वंभरा तेन तेने जैनप्रासादमण्डिता // स कौबेरीमातुरष्कं पूर्वामात्रिदशापगाम् / याम्यामाविन्ध्यमावाड़ि पश्चिमां साध्वसाधयत् // 220 / कुमारपालदेवस्स किमेकं वर्ण्यते क्षितौ / जिनेन्द्रधर्ममाराध्य माहेन्द्रं यो दिवं ययौ // 221 // इति श्रीकुमारपालचरितं समाप्तम् // छ / 19 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम् / मूलादर्श लिखिताः परिशिष्टरूपाः कति श्लोकाः / येषां कम्पितमन्तरात्मभिरपि श्रुत्वा तयोः सङ्गतं, ____दृष्टं गूर्जरराज कौतुकमिदं चेतः समुत्कण्ठते / उद्योगे भवतश्चलद्गजघटासट्टभाराकुल- . प्रश्यद्भवलये महीतलभुजां किं किं करिष्यन्ति ते // मः किंचन काश्यपीधव ! भव श्रोतुं क्षणं सोधमः, केयं त्वय्यपि राज्ञि निर्मलकले चन्द्रस्य राजश्रुतिः / शान्तं शान्तमथो सितैर्गुणशतैरेकास्तु भाषानिशं, - युष्मद्वंशनिवेशकारणमिदं चन्द्रो ननु श्रीपदम् // बाई कामु न होइ याहि परही रूपातिरेकार्पितं, ____जाते ताहि कुतस्तनुत्रिनयनप्लुष्टाङ्गयष्टिर्जडि / इन्द्रोऽप्येष कि होइ ताहि विलसच्चक्षुःसहस्रं वपुः, ___ जाणं...रि कुमारपालनृपतिर्मूर्तो नयः क्ष्मातले // शीतांशुर्वपुभारसम्भृतरसं खं मण्डलं खण्डशः, क्षीणं वीक्ष्य बत प्रतापवसते पादाश्रितो यद्भवेत् / तेनैवोपनयेन पुष्टिघटनापात्रं पुनः स्यादसौ, . साध्यं किञ्चि(च)दिनस्य किन्तु कमलोलासैकहेतोः स्वयम् // अप्यकाङ्गपरिग्रहस्य भवतः सप्ताङ्गराज्यश्रिया, श्रुत्वा कर्षणकेलिकौशलकलाप्रौढक्रमं विक्रमम् / क्षोणीपाल कुमारपाल ! जलधिमध्ये निलीनो हरिः, खां लक्ष्मी भुजवज्रपञ्जरगतां धत्ते भयव्याकुलः // एक्कह पाली माटि वीसलस्सउ झगडउ कियउ। कुमरपाल रणहाटि बीजी वार कु वहुरिस्थइ / / . -वीसलमारणे / कुमरपाल म चिंति करि चिंतिउ किं पि न होइ / जिणि तउं रजि थप्पिउ चिंत करेस्यइ सोइ // -चाहडागमे / 6 7 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं कुमारपालदेवचरितम् / // नमः श्रीवीतरागाय // जब भीकुमारपालदेवचरित्रं व्याक्रियते / प्रपालयन्तोऽपि कलौ धरित्री स्वमजका एव परे' नरेन्द्राः / कुमारपालः परमाईतस्तु लोकं तथा खं च समुद्दधार // तथा हि११. स्वस्ति श्रीगोर्जरो देशो न लेशो यत्र पाप्मनाम् / पुरं सुरपुरप्रायं तत्राणिहिल्लपत्तनम् // अमूव भूपतिर्भीमदेवो भीमपराक्रमः / आतपत्रायितं मूर्भि ययशश्चन्द्रमण्डलम् // विमातृजी क्षेमराज-कर्णदेवी तदङ्गजौ / मिथः प्रीतिपरीणद्धौ दस्राविव बभूवतुः // भीमे दिवंगते क्षेमराजो राज्यक्षमो पि] हि / पित्रादेशात प्रीतितश्च कर्ण राज्ये न्यवीविशत // 5 राज्यं पालयतस्तस्य नीत्या कर्णमहीपतेः / जातोऽङ्गजो जयसिंहदेवनामा विविक्तधीः॥ श्रीकणे धुगते दैवाद् बालकोऽपि स एव हि / अभ्यषिच्यत' सामन्तैर्बलीयान् पुण्यवैभवः // वशीकृत्य चतुःसिन्धुसमर्यादां वसुन्धराम् / सिद्धवर्वरकः सोऽभूत् सिद्ध रा ज इति श्रुतः // 8 सिद्धराजः श्रीहेमसूरीनभ्यर्थ्य सादरम् / श्रीसिद्धहेमचन्द्राख्यं शब्दशास्त्रमचीकरत् // 9 इतश्च६९. देवप्रसाद' इत्यासीत् क्षेमराजस्य नन्दनः / तत्पुत्रश्च त्रिभुवनपालदेवा' प्रजाहितः // 10 // त्रयोऽभूवन् सुतास्तस्य प्रशस्यगुप्पसम्पदः / आद्यः कुमारपालोऽभूत् सार्वभौमगुणालयः // महीपाल-कीर्तिपालो जातौ तस्यानुजावुभौ / पदक्रमाविव स्पष्टं वेदवाक्यस्य संहतौ // 12 'भार्या भोपलदेवीति' भनी प्रेमलदेव्यभूत् / श्रीकृष्णभटदेवेन योदूढा मोडवासके // 13 अन्यदा सिद्धराजेन्द्रः पट्टे को भविता मम / दैवज्ञमिति पप्रच्छ सोऽपि ज्ञात्वेदमब्रवीत् // ग्रामे दधिस्थलीनाग्नि यस्ते प्रातृत्र्यनन्दनः / समृद्धमपि ते राज्यं तदायत्तं भविष्यति // तं हत्वाऽपि करिष्यामि निजराज्यं वपुत्रसात् / इति श्रीसिद्धभूपालः पुत्रप्रातिकुतूहली // पादचारेण कापोतीमुद्बहन् स्कन्धयोर्द्वयोः / प्रभासतीर्थे सद्भक्त्या सोमनाथमयाचयत्" // 17 उक्तं सोमेश्वरेणापि पर्याप्तं पुत्रकाम्यया / सृष्टः कुमारपालोऽस्ति मया राज्यधरः पुरा // 18 जीवत्यमुष्मिन्नो पुत्रसंपत्तिर्भविता" मम / चिन्तयन्निति भूपालो विषण्णः प्राप पत्तनम् // 19 रहस्सं मत्रिणोऽवोचत् सोऽप्याख्यदु देव ! युज्यते / विजेतुं मालवान् यूयं यदा पूर्वमुपस्थिताः॥ 20 // उद्धे बुद्धिल्लिकाघट्टे यशोवर्ममहीभृता / राज्यं न्यस्य त्रिभुवनपालेऽहमपि तत्क्षणात् // 21 1Bममो वीतरागाय। 2 Bअत्र च। 3 B पर। 4 B अस्ति। 5 A अभिषिच्यत्। 6 B देवपासार। 1B पाल: देवः। 8A भावलदेवी। 9 B मोढवासके। 10 A"मयात्रयत् / 11 B भवता / 15. .पा.१.२ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम् / युष्माकमाज्ञया युष्मत्समीपमुपतस्थिवान् / वशीकृतमिदं राज्यं तेनास्मिन्नन्तरे तव // 22 त्वय्यायातेऽपि निर्जित्य शत्रून् स किल भाषते / सिद्धराजं निहत्याहं दास्य' राज्यं स्वसूनवे // 22 विशिष्येति वचः क्रुद्धो नृपत्रिभुवनाभिधम् / घातकैर्षातयामास शेषेष्वपि जिघांसुधीः॥ 24 ततः कुमारपालोऽपि प्रेष्यावन्त्यां कुटुम्बकम् / मायाँ मुक्त्वा दधिस्थल्यां स्वयं पत्तनमभ्यगात्॥२५ स्थितं(तः 1) जटाधरीभूय मठे त्रिपुरुषाभिधे / तं ज्ञात्वा सिद्धभूपोऽपि क्षयाहे कर्णभूपतेः // 26 द्वात्रिंशता जटाभृद्भिः साधं गेहे निमश्य च / प्रत्येकं क्षालयामास तेषां पादौ नृपः स्वयम् // 27 विलोक्य राजचिह्नानि कुमारपालपादयोः / गूढाकारेङ्गितो' राजा वरभोज्यैरभोजयत् // 28 वधोपायचिकीद्धौंतोत्तरीयाहरणच्छलात् / यावत् कोशगृहेऽगच्छत् कुमारोऽपि हि तावता // 29 आदाय कुण्डिकां पाणौ वान्तिव्याजेन तत्क्षणम् / निर्गत्य सौधतोऽचालीद् ग्राम प्रति दधिस्थलीम् // 30 तमदृष्ट्वा नरेन्द्रोऽपि प्रजिघाय चमू स्यात् / तामासन्नां विभाव्योचे हालिकं रक्ष मामिति // 31 आच्छाद्य कण्टकैः सोऽपि ररक्ष क्षणमात्रतः / गुणाय खलु कल्पन्ते कण्टका अपि कहिंचित् // इतस्ततः परिभ्रम्य नृपसैन्यं न्यवर्तत / पुण्येषु जागरूकेषु जात्यन्धाः खलु शत्रवः॥ 33 कुमारोऽपि विनिर्गत्य दूरीकृत्योत्कटा जटाः / संजग्मे स्वजनैः सार्धं गत्वा ग्रामं दधिस्थलीम् // 34 भूयोऽपि पत्तनात् त्रस्तो भाण्डान्तर्विनिवेशनात् / सज्जनेन कुलालेन रक्षितो योगिरूपमाक् // 35 तथैव बटुरूपेण गतं ग्रामे यशोधने / दधिभाण्डेषु रक्षित्वा बोसरिर्मित्रतामगात् // . 36 सार्द्ध कुलाल-विप्राभ्यां सुहृद्भ्यामेकदा पुनः / समगंस्त' कुटुम्बस्य राज्योपायचिकीरथ // सज्जनेन कुलालेन विप्रबोसरिणा च सः / साधं मत्रयते यावत् देशान्तरविधित्सया // 38 तावत् तन्मत्रणोद्विनौ पितरावूचतुस्तराम् / किमनुत्पन्नपुत्रस्य नामवजागरौ मुधा // यद्वा राज्ये कुमारस्य बोसरे! लाटनीवृतम् / लप्स्यसे सज्जन ! त्वं च चित्रकूटस्य पट्टिकाम् // 40 श्रुत्वेति शकुनग्रन्थि बध्वा च नृपनन्दनः / सार्ध बोसरिणाऽचालीद् देशान्तरदिदृक्षया // 41 स्थितौ करौटकग्रामे प्रथमेऽह्नि बभक्षितौ / आछउल्यां पुनः प्राप्तौ यामयुग्मे परेचविः // 42 कुमारपालः प्राह स्म भोजनं कथमद्य भोः! / अस्ति मे शाश्वती माता भिक्षेत्याख्याय बोसरिः॥४३ प्रविश्य ग्राममादाय भिक्षां प्राप्तस्तदन्तिके / करम्बमाण्डं निकुत्य भिक्षाशुण्डीमदर्शयत् // भोजनान्ते क्षणं सुप्तो बोसरिमित्रवत्सलः / करम्बं बुभुजे यावदेकाकी पूर्वमुत्थितः // .. अल्पनिद्रः कुमारोऽपि तत् तथा वीक्ष्य चकृपे / अहो ! विप्रस्य सर्वेष्टा भोजनस्पृहयालुता // 46 विप्रोऽपि भोजने जीणे कुमारं प्राह भुज्यताम् / किमेकाकी पुरो भोक्षीरिति पृष्टः" पुनर्जगौ // 47 उक्तमिभ्यस्त्रिया मेऽद्य भिक्षां कर्तुमुपेयुषः / स्थितमस्थगितद्वारं भक्ष्यभाण्डमिदं निशि // ममात्रादूषणं भद्र ! गृह्यतां यदि वाञ्छसि / मेदं स्वादूषितं तेन प्रथमं भुक्तवान् स्वयम् // यतः-'यस्याधारण जीवन्ति शतानि खलु देहिनाम् / स एव शतनाशेऽपि रक्षणीयः प्रयत्नतः॥' अतः परीक्षितमिदं युक्तं भोक्तुं तथैव हि / अभ्यनन्द कुमारोऽपि मित्रं प्राणप्रियो भवान् // ग्राममेनं तवैवाहं दास्ये राज्ये सति ध्रुवम् / ततो डांगुरिकग्रामे संप्राप्तः सुहृदा सह // तत्र लक्ष्मश्रिया साध्व्या कृपयाऽभोजि मोदकैः / ग्रामेऽगात् पेटलापद्रे" तयैवार्पितशम्बलः // 53 39 1B राज्यं दास्ये। 2 B ख्ययाहे। 3A 'काराशितो। 4 B क्षणमाधवः। 5A बहुरूपेण। 6 A 'प्रियाभ्यां / TA समागत। 8 A प्रामयुग्मे। 9 B त्याख्यायि। 10 B पृष्टं। 11B वेटलापरे / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 60 श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं तत्रेश्वराभिधानस्य वणिजो वाटिकान्तरे / प्रविष्टः पक्कमाकन्दफलवृन्दजिघृक्षया // दृष्ट्वा च वणिगुद्दाल्य पटीं प्रसभमगृहीत् / न लेभे निःकृपात् तस्मात् पटीं चाटुशतैरपि // अयाक्रान्तो विषादेन निपादेनेव सत्रपः / कुमारः स्तंभतीर्थेऽगात् पटीं प्रावृत्य बोसरेः॥ 3. तत्र श्रीपूर्णतल्लाख्यगच्छोदधिसितद्युतीन् / कुमारपालः श्रीहेमचन्द्रसूरीनवन्दत // ज्ञानेन लक्षणैश्चापि विज्ञाय गुरवोऽपि हि / अनुगृह्याशिपं राज्यं शशंसुमितवत्सरैः // 58. अयोदयननामा खोपासको मत्रिसत्तमः / तदाऽभिवन्दितुं सूरीन् समियाय सुतैः सह // ऊचिरे गुरवो मत्रिन् ! कालाद् विक्रमभूभुजः / वर्षेनवनवत्योरेकादशशतैर्गतैः // मार्गशीर्षस्य कृष्णायां चतुर्थी मेषगे विधौ / मीने लग्ने कुमारस्य राज्यप्राप्तिर्भविष्यति // सार्वभौमो ह्यसामान्यो भविता परमार्हतः / तद् ध्रुवं मान्य एवायं समयः खलु दुर्लभः // ययाखैरं कुमारोऽपि तिष्ठनुदयनालये / प्रेषितान् सिद्धराजेन तत्राश्रौषीच घातकान् // ततो निर्गत्य पाथेयरहितो वटपद्रके / ग्रामे कचिद्देवकुलच्छायायां समुपाविशत् // खबिलान्मूषकस्तत्र द्रम्ममेकमुपाहरत् / तं मुक्त्वा बहिरन्यं च प्रविश्य पुनरानयत् // क्रमेण जाता द्वात्रिंशत् कृत्वैकं पुनरानने / बिलान्तः प्रविवेशाथ कुमारोऽपि व्यचिन्तयत् // यथैष' बहिरानिन्ये तथाऽन्तरपि नेष्यति / पशूनां चेष्टितं यस्मात् कार्याकार्यबहिर्मुखम् // पाथेयवर्जितोऽहं तद् द्रम्मान् मुञ्चे वृथा किमु / यदुक्तं पुरुषार्थेषु स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता // 68 // इत्यादत्ते कुमारस्तान् यावत्तावत् स मूषकः / सत्वरं बहिरायातो नेक्षते द्रम्मपुंजिकाम् // ततो दिङ्मूढवत् तत्र धत्तूरित इवाभ्रमत् / घातं घातं भुवः पृष्ठं खरवत् स लुलोठ च // मूर्छित्वा पुनरुत्थाय भ्रान्त्वा च परितो दिशः / मूषकः पञ्चतां प्राप बलीयान् मोहविभ्रमः॥ भ्रमन्नुर्वीमविश्रान्तं भीतभीतो नृपाङ्गजः' / त्रिदिनक्षुधितः क्वापि प्रान्तरे प्रातरेकदा // मुत्कलाप्य वधूं किञ्चिदिभ्यपुत्रं निजे गृहे / गच्छन्तं मुक्तधौरेयं भोजनासीनमैक्षत // -युग्मम् / 73 // जग्मुषे तत्र दीनाय कुमाराय नवोढया / दत्तं भर्तुरपगुत्य करम्बं करुणाजुषा // तृप्तस्ततो गतः क्वापि ग्रामेऽत्यर्थं बुभुक्षितः / "कडुयानामधेयस्य वणिजः प्रापदापणे // विशोपकैकचणकान् गृहीत्वा बुभुजे खयम् / मूल्यं मार्गयते तस्मै खड्गमड्डाणकं" ददौ // सदाचारं राजपुत्रं विमृश्य वणिगूचिवान् / आदत्व करवालं खं माङ्गल्ये चणकास्तव // तामेवोपकृतिं तस्य मन्वानोऽवसरोचिताम् / जटीभूय स कन्नाली-सिद्धपुर्यामथागमत् // सविताऽपि दिने क्षीणे पराश्रयमपेक्षते / इति सिद्धेश्वरार्चायां "नियुक्तस्तत्र तस्थिवान् // एकदा मरुदेशीयं तत्र शाकुनिकं जगौ / कदाचित् पदवीप्राप्तिर्ममापि भविता किमु // प्रातर्गतौ मिलित्वोभौ शकुनान्वेषणाय तौ / दुर्गा ददृशतुजैनचैत्योर्ध्वं शुभचेष्टिताम् // श्यामा स्वरद्वयं चक्रे चैत्यस्यामलसारके / ऊर्ध्व चटन्ती कलशे स्वरत्रयमुदाहरत् // शान्तचेष्टा पुनर्दण्डे चके खरचतुष्टयम् / शकुनज्ञोऽपि दृष्ट्वेति मुदितस्तमवोचत / मनीषितादप्यधिका कार्यसिद्धिर्भविष्यति / जिनधर्मप्रभावात्तु विशेषप्रतिभा तव / / सन्तोष्य शकुनाभिज्ञं कुमारो मधुरांतरः / गत्वोजयिन्यामेकान्ते सञ्जग्मे खजनैः सह // 85 भीत्या श्रीसिद्धराजस्य क्वाप्यवस्थातुमक्षमः / सर्वार्थसिद्धियोगीन्द्रं गत्वा कोलापुरेऽमजत् // 86 70 76 78 2 * 1B हाथ। 2 B पटी। 3 B मीनलगे। 4 A यद्येष। 5 B कार्य। 6A भ्राम्यं / 7 Bात्मनः / BBान्तरे कदा। 9 B जम्मचे तव दीठाव। 10 B कुडुआ। 11 B °मुडाणकं / 12 B नियुक्त। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 98 कुमारपालदेवचरितम् / सद्भावभक्तितुष्टन योगिनाऽभाणि राजसूः / मत्पार्थे सिद्धमत्रौ स्तः स्वतत्रौ निजकर्मसु // एको राज्यप्रदः' किन्तु साधने सदुपद्रवः / द्वितीयो धनदाताऽस्ति स्वस्तिकृद् भाग्यशालिनाम् // 88. . आदाय राज्यदं मत्रं कुमारः सत्त्वशेवधिः / निर्मिमें निर्मलस्वान्तः पूर्वसेवां यथोचिताम् // ततः कृष्णचतुर्दश्यां पलिव्याकुलपाणिकः / शषं वयमुपादाय गतः पितृवनान्तरे // पह्निकुण्डमथ न्यस्य परासोर्हदि यावता / होमं ददाति तस्यैवोपविश्य च कटीतटे // क्षेत्रपालः करालास्यः प्रत्यक्षस्तावताऽवदत् / किमारब्धमनात्मज्ञ ! मामनभ्यर्च्य रे त्वया ? // 92 श्रुत्वापीत्थं स निःक्षोभः खविधेयमपू पुरत् / प्रत्यक्षाऽथ महालक्ष्मीस्तमुवाच कृतादरम् // . साम्राज्यं गूर्जरात्रायाः पञ्चभिर्वत्सरैस्तव / भविष्यतीत्यथादिश्य महालक्ष्मीस्तिरोदधे // ततो दवीयसी राज्यप्राप्ति ज्ञात्वा नृपाङ्गभूः / जातदेशान्तरालोककुतूहलविविक्तधीः // " 64. समग्रपुरनिर्याससंभारिव निर्मिताम् / कल्याणकटके देशे ययौ कान्तीं महापुरीम् // तस्याः परिसरेऽनेकवैचित्र्यसुभगे भ्रमन् / कबन्धं कस्यचित् पुंसोीक्षांचक्रे विमस्तकम् // पुंरत्नमवधीत् कश्चिदेनं चौरो' धनाशया / यद्वा विराधितः शत्रुः शिरोवर्जममुं व्यधात् // विमृशन्निति तत्पार्धे कुमारो यावदागमत् / अन्योऽन्योक्तिमथाश्रौषीत् तत्र संगतयोषिताम् // 99 श्लाघ्यः केशकलापोऽस्य कटरे कर्णदीर्घता / चारु कूर्च सताम्बूलं मुखं विरलदन्तकम् // 100.. श्रुत्वेति विस्मितो राजसूनुः कथममूः स्त्रियः / कबन्धस्यास्य सत्केशकर्णादिव्यक्तिभाषिकाः // 101 तत्पृष्टास्ता अपि प्रोचुश्चित्रं चेत् श्रूयतामिह / पृष्टे वेणीसले केशदैर्घ्य व्यक्तीकरोति नः // स्कन्धौ किणाङ्कितौ लक्ष्मीकुरुतः कुण्डलश्रियम् / आनाभिगौरं वक्षोऽस्य श्मश्रुसंघनतां वदेत् // 103 चूर्णेन चर्चितोऽङ्गुष्ठस्ताम्बूलं "ज्ञापयत्यलम् / विरलत्वं च दन्तानां क्षतिरक्ता कनिष्ठिका // 104 ततः स मानी मन्वानो बहुरत्नां वसुन्धराम् / भ्राम्यन्नथो गतः कापि सरस्यमृतसागरे // खात्वा तत्र च तत्तीरे गते देवकुले क्वचित् / पूज्यमानं ददर्शोच्चैर्मस्तकं सविभूषणम् // 106 पृष्टाः पुराविदः प्राहुः - 'पुरेह प्रवरे" नृपः / मण्डितं पमिनीखण्डैः सरोवरमखानयत् // 107 तत्र चाहर्निशं पद्मकोशान्निर्गत्य मस्तकम् / 'एकेन ब्रुडती' त्यक्त्वा निमज्जन्तं स वीक्षते // 108 जाताश्चर्येण भूपेन पृष्टाः सर्व विचक्षणाः / न च कश्चन" निर्णेतुं शशाक किमपि स्फुटम् // 109 अथाभाषिष्ट भूपालो विप्रान् ग्रासोपजीविनः / पाण्मास्यन्तर्निर्णयध्वं राज्यं वा त्यजतां मम // 110 मोहाहंकारमात्सर्यैः परायत्ततया ध्रुवम् / पक्काऽपि नो मतियूनां जायते दीर्घदर्शिनी // इति ते पण्डिता" ज्ञात्वा स्थविरान् दर्शिनः पुनः / पाहैषुश्चतुरो विप्रांस्तत् प्रष्टुं मरुमण्डले // 12 गतास्ते तां भुवं वर्षैः षष्टयातिकान्तसम्भवम् / वाहयन्तं हलं "कश्चिद् ददृशुः स्थविरं नरम् // 13 यावता" प्रष्टुकामास्ते काका इत्यालपन्ति तम् / स तावजनको मेऽस्ति पुरस्तादिति तान् जगौ // 14 नूनं जीवन् पिताऽमुष्य भवितेति विमृश्य ते / विस्मिता "वृद्धसम्प्राप्तिमुदिताः पुरतो ययुः // 15 "स्कन्धन्यस्तोरणं "वर्षानशीतिमतिगामुकम् / चारयन्तमजाः सर्वपलितं ददृशुर्नरम् // तात ! त्वामनुगच्छामः संशयानाः परं हृदि / यावत् तमाहुः सोऽप्यूचे पुरस्तातोऽस्ति पृच्छ्यताम् // 17 शतादुपरि वर्तेत" किमायुरिति वादिनः / प्राप्ताश्चित्रहृदः पर्णकुटीरकमयास्पदे // 18 1A राजप्रदः। 2 B निर्ममे। 3 A हृदयावनौ। 4 B रिह। 5 B वैचित्र्यमभरो / 6 B विक्कधीः / 7A चोर। 8 B "वेणीयलं। लक्ष्या। 10B ख्यापयत्यलं। 11B प्रवरो। 12 B कथिन। 13 B पहिर्ता / 11B किचित। 15B यावत्पप्रष्ट / 16 A वृद्धि। 17 B स्कन्धे। 18 A वर्षामशीति। 19 B यतेन / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. 31 33 // श्रीमोमतिलकसूरिविरचित मुअरचं सजयन्तं वेष्टितं श्वानडिम्भकैः / पितामह ! इति प्रोचुस्तं दृष्ट्वा परमायुषम् // पप्रच्छुरथ तं सर्वोदन्तज्ञापनपूर्वकम् / ‘ए के न ब्रुड ती'त्युक्त्वा शिरोनिर्गमकारणम् // विदेश इत्यगणितशूद्रदोषानमूनथ / आभीरो भोजयामास दक्षिणेत्यपदेशतः॥ ददौ च जातिवत्तेभ्यः श्वानडिम्भचतुष्टयम् / महामूल्यमिदं मार्गव्ययो वो येन शुद्ध्यति / बामणा अपि लोभेन गृहीत्वा तानथार्भकान् / तदुच्छिष्टं पपुस्तकं वृद्धदाक्षिण्यषाधया // अथ कट्यामुपादाय डिम्भांस्ते 'चलनाक्षमान् / प्रस्थिता निजदेशाय वृद्धेनानुगतास्ततः॥ कियन्तमपि पन्थानं सह गत्वा गरीयसि / व्यावर्तमाने तेऽप्यूचुः स सन्देहस्तथैव नः // वर्षीयानाह सन्देहापनोदायैव सर्वकम् / मया चेष्टितमेतावत् तन्न बुद्धं बुधैरहो!॥ वानगर्दभचाण्डालमद्यभाण्डरजस्खलाः / स्पृष्ट्वा देवलकं चैव सचेलं नानमाचरेत् // 27 न ज्ञानमेतद् 'ज्ञातं चेत् किं स्पृष्टाः शुनका अमी / बहुमूल्यत्वलोभनेत्युक्ते स पुनरभ्यधात् // वक्तुं भवत्सु विज्ञेषु युक्त्यैव खलु युज्यते / सर्वप्रसिद्धमेवेदं विश्वं ब्रुडति लोभतः // इति ते तेन वृद्धेन छिन्नसन्देहमोदिनः / विदधुः पुस्तकारूढमर्थमेनं सविस्तरम् // 130 ततो 'विज्ञापयामासुर्विज्ञाः सर्व महीपतेः / तेनोचे सत्यमेवं चेन्न पुनर्निर्गमिष्यति // तदर्थे श्राविते शीर्ष निवृत्तं मजनात् पुनः / प्रसिद्ध्यै स्थापितं चैये कुमार ! तदिदं शिरः // ' इत्यादिसारासारार्थविवेचनकुतूहली / योगीव भुवि बभ्राम कुमारो बहुवेपभृत् // 65. देशे श्रीमल्लिनाथाख्ये गतः कोलम्बपत्तने / सोमनाथेन तत्रत्याधीशः स्वप्ने न्यगपत // 34 प्रातरत्रैष्यति स्वामी भविष्यो गूर्जरावनेः / जटाधारी तदभ्यो दुर्लभा तादृशा नराः // 35 तेनापि स्थापिताः सर्वदिक्षु तद्दर्शिनो नराः / उपलक्ष्य समानिन्ये नृपपर्षदि तैरपि // 36 निवेश्यार्वासने भूमिपालेनाऽपि स सादरम् / राज्यार्धमर्थयांचके तदुक्त्वा शम्भुवाचिकम् / / 37 निषिध्य राज्यं तत्रास्थात् कुमारोऽपि यथासुखम् / भूयोऽप्यभ्यर्थितः प्राह कीर्तनं मे विधापय // 38 // दशगव्यूतविस्तारिवासे कोलम्बपत्तने / भूमिसङ्कोचतो राजा संक्षिप्य निजमन्दिरें // कुमारपालनामाकं प्रवर्त्य वरनाणकम् / कुमारपालेश्वराख्यं चारु चैत्यमचीकरत्॥-युग्मम् / 140 66. कीर्त्या प्रकाशयन् विश्वं प्रतिष्ठानपुरं गतः / द्विपञ्चाशतो वीराणां स स्थानाश्चर्यमैक्षत // 41 पुनरुज्जयिनीं प्राप्य संगतोऽभिजनैर्निजैः' / अन्यदा तत्पुरोद्याने कुडलेश्वरमासदत् // व्याप्तं सप्तफणैर्लिङ्गं तन्मध्ये स प्रणम्य च / प्रशस्ति वाचयंस्तत्र गाथामेनामवाचयत् // 43 पुन्ने वाससहस्से सयम्मि वरिसाण नवनवह अहिए। होही कुमरनरिंदो तुह विकमराय ! सारिच्छो // विमृश्य नामसादृश्यं वर्षाणां चापि पूर्णताम् / अन्वयुक्त तदर्थं स जैनान् सर्वज्ञपुत्रकान् // पूर्व प्रभावको जज्ञे सिद्धसेनो दि वा क रः / बुद्धिदर्पण' सोऽप्राक्षीदन्यदा खगुरूनिति // भवन्ति प्राकृता ग्रन्थाः पण्डितानां त्रपाकराः / प्राकृतं सर्वसिद्धान्तं संरकृतं करवाण्यहम् // प्रायश्चित्तं त्वया प्राप्तं वत्स! पारांचिकाभिधम् / कि नाभवन् न श्रुता वा प्राचीनाः सर्ववदिनः // 48 बालस्त्रीमढमाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम। अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥ P3 __ 1A दक्षिणत्युपदेशतः। 2 B चालना।B शानमनद ज्ञानं। 4 B विज्ञपया। 5 B°गन्यूति / 6B भरि। 7 Asपि निजजनः। 8 A बुद्धिदर्पणः। 9 B सर्वदेहिनः / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 स्व . . कुमारपालदेवचरितम् / ततो द्वादशवर्षाणि प्रायश्चित्तेन तेन सः / अव्यक्तवेषो भ्रमितुं निर्जगाम स्वगच्छतः // पप्रमन्नवमे वर्षे कुडङ्गेश्वरमासदत् / बहुशोऽपि जनैरुक्तो न शम्भुं प्रणनाम सः // आगतो विक्रमादित्यो भूपतिस्तमदो वदत् / न किं सर्वजगत्पूज्यं शम्भुं नत्वा कृतार्थ्यसि // स प्राह मत्प्रणामस्य भवद्देवो न सासहिः / कथमित्यूचुषि क्ष्मापे स स्पष्टमपठन्मुनिः॥ खयंभुवं भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षरभावलिङ्गम् / अव्यक्तमव्याहतविश्वदोषमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् // इत्यादि षोडशाधीते यावद्वात्रिंशकाम(ग?)ताः। पुस्फोट तावता लिङ्गं सूर्यालीढमिवाम्बुजम् // 55 द्वात्रिंशिकासु पूर्णासु द्वात्रिंशति च तत्क्षणम् / उद्ययौ धरणाधीशः श्रीपार्श्वप्रतिमाकरः॥ विभाव्यातिशयं दृष्टो विक्रमादित्यभूपतिः / तात्त्विकी देशनां श्रुत्वा संजज्ञे परमाईतः // शेषं वर्षत्रयीसाध्यं प्रायश्चित्तं महात्मनः / मुमोच सको धर्मस्य सर्वखं हि प्रभावना // अन्यदाऽतिशयज्ञानी स पृष्टस्तेन भूभुजा / किं भावी 'कलिकालेऽपि कोऽपि जैनो नरेश्वरः॥ 59 तदुक्तां गाथिकामेनां मण्डपेऽलेखयन्नृपः / जनेष्वेव कुमारोऽपि मेने ज्ञानं ततः परम् // 160 67. ततो पोसरि-भोपल्लदेवी-सजनसंयुतः / विधाय 'मझनेपथ्यमुज्जयिन्या विनिर्ययौ // 61 मध्ये कृत्य दशपुरं चित्रकूटपुरे ततः / शान्तिचैसे गुरो रामचन्द्रस्य वसतौ गतः // विलोक्यालिहं दुर्गमन्वयुक्त तदुद्भवम् / चित्राङ्गदनृपोपज्ञं शुश्राव स्वर्णपूरुषम् // 13 कन्यकब्जपुरं प्राप्तो बहुभूतैरधिष्ठितम् / दृष्ट्वा लक्षाम्रमारामं तत्रत्यानन्वय सः॥ तैरूचे सहकाराणां करो नात्रत्यमण्डले / अतोऽधिष्ठायका यत्र वसन्ति निरुपद्रवाः // 65 राज्ये जाते खदेशेऽहं मोक्ष्ये चूतकरं ध्रुवम् / विमृशनिति भूपालसूनुर्वाराणसी ययौ // वणिजा केनचित्तत्र वस्त्राणि ददिरे मुदा / लुण्यमानं द्वितीयेऽति तद्गृहं वीक्ष्य कंचन // पप्रच्छ किमिदमिति ?, प्रोचे तेनापि कोऽप्यसौ / अपुत्रोऽस्ति मृतस्तेन लुण्ठ्यते राजपूरुषैः // तहुःखवीक्षणोत्पन्नकृपश्चेतस्यकल्पयत् / न ग्रहीष्याम्यहं खीयराज्ये धनमपुत्रिणाम् // 69 मध्येऽथ पाटलीपुत्रं पुरं राजगृहं गतः / वैभारगिरिमारुक्षत् पश्यचित्रपरंपराम् // ययौ जयपुरे स्थाने नवद्वीपकनीवृति / कामरूपे ततोऽगच्छत् कामाक्षावीक्षणक्षणी॥ प्रशास्ति नागरूपेण यत्र राज्यं महीपतिः / भीत्या भौतिकदेवस्या'वर्जिते तत्र सोज्गमत् // 'बालवण्डाभिधानस हट्टे चर्मकृतो ययौ / उपानयुगलं रम्यं स तस्स पादयोन्य॑धात् / / ईगुपानदुचितं वेतनं दातुमक्षमः / इत्युक्ते कुमारणोच्चैश्चर्मकारोऽपि तं जगौ // तवैव पादयोः पनरूपयोरुचितं बदः / चेन्नास्ति मूल्यं तन्मेऽस्तु प्राभृतं तव पादयोः // यदा कुमारपालाख्यं राजानं गूर्जरावनौ / श्रोताऽसि चर्मकार ! त्वं शीघ्रमेयास्तदा मुदा // 68. अथ श्रीपत्तने सिद्धनृपधुगमने सति / आकर्ण्य पादुकाराज्यं विदंश्च समयं निजम् // प्रतिपन्नमातुलस्य सदनेऽपि द्विजन्मनः / कन्नाली-सिद्धपुरके मुक्त्वा सर्व कुटुम्बकम् // . कुमारपाल: श्रीकृष्णभटस्स भगिनीपतेः / गत्वा गृहे निशि निजां भगिनी पत्तनेज्नमत् // 79 -त्रिभिर्विशेषकम् / जामिः" प्रेमलदेवी तु गौरवेण सहोदरम् / संसप्य" भोजयामास स्नेहकृत्यमिदं यतः // 180 - - न / 1B "विश्वरोष। 2B निशाननाः। 30 किलकाले। 4 A"भावल। 5Aशेखनेपव 7 Bक्यावर्जिते। 8A पालना 9Bs 10 A यामि। 11 A बाप्प। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं श्यामां शाकुनिकस्तस्य स्मातां खानीयवारिणि / निरीक्ष्य सप्तदिवसाभ्यन्तरे राज्यमाख्यत // विज्ञप्तं तद्भगिन्याऽपि पत्युरपोऽपि पक्षभाक् / अस्यैव राज्यं नान्यस्येत्यूचे मण्डलनायकः // ततो महीतटाभिख्यदेशाध्यक्षेण सादरम् / राजानकेन विजयपालेनालोचमाचरत् // शुमेऽह्नि मिलितानेकप्रधानजनमण्डिते / प्रासादे श्रीजयसिंहह्मरी द्वावपि संगतौ // प्रधानरथ राज्यार्थमाहूतः परमार्हतः / महीपालः स तान् नत्वा प्राहादेशं प्रदत्त मे // तं दीनमित्यवज्ञाय रत्नपालमजूहवन् / नत्वा शम्भु ततस्तांश्च सोऽपि प्रोवाच पूर्ववत् // अथो कुमारपालाख्य आहूतः सोऽपि धीरदृक् / महेश्वरं नमस्कृत्य संवृत्य च पटाञ्चलान् // 87 सिंहासनसमासीनस्तानाह खजनानिव / क्रियतामभिषेको भोम्ततः कृष्णभटादयः॥ 88 मन्वाना राज्यधौरेयं गुणप्राज्यमजेयकम् / अभिषेकविधिं चक्रुर्मङ्गलध्वनिपूर्वकम् // -विशेषकम् / 89 तच्छीर्षे क्षेपिता मुक्ता सेतिकाऽभूत सपलिका / ततो जय जयेत्युक्त्वा नमे कृष्णभटादिमिः॥ 19 // कुमारपालभूपालो नान्दीनिर्घोषपूर्वकम् / पट्टहस्तिसमारूढो मण्डितो मण्डलेश्वरैः // धार्यमाणसितच्छत्रो वीज्यमानश्च चामरैः / गृह्णन् पौराशिषः प्राप राजप्रासादमण्डपम् ॥-युग्मम् / 92 कृतोपकारानाहाय्य सर्वानुपचकार सः / मुमोच सहकाराणामाज्ञासारः करं रयात् // अपुत्रिणां सर्वथापि मुक्त्वा निधनवद्धनम् / स धर्मी' विजयी राजा दिक्षु यात्रामसूत्रयत् // स प्राचीमादितः सिन्धुमाविन्ध्यं दक्षिणामपि / पश्चिमामासमुद्रं च कौबेरीमाम्लिशोऽजयत् // 95 // पञ्चाशद्वर्षदेशीयः प्रौढबुद्धितया नृपः / सर्वदेशखरूपज्ञः स्वयं साम्राज्यमन्वशात् // 69. 'तद्वधार्थमथामात्यवृद्धा भूपच्छलैषिणः / सान्धकारप्रतोलीषु मुमुचुर्घातकान् रहः // भाग्याकृष्टन केनापि ज्ञापितेऽर्थे महीपतिः / प्रविवेशापरद्वारा पुण्यं कुत्र न रक्षकम् // कृतद्रोहानथामात्यान् प्राहिणोद् यमपर्षदि / प्रभुतायाः परो धर्मो 'निग्रहानुग्रहो यतः॥ स कृष्णभटदेवस्तु सहजैः शालकोद्भवैः / सर्वदावसरे जाते नर्ममाण्युदाहरत् // 20.. रहस्यभाणि भूपेन सर्वमान्योऽसि भावुक ! / न च वाच्यमवाच्यं तु ममेत्थं मूलपर्षदि // 201 स तूत्कटतया मेने ममापि वचसा खलु / लजितोऽयं न जानाति तामवस्थां पुरातनीम् // 202 न वेद यन्नृपा-मि-स्त्री-विप्राः कस्यापि न खकाः / तथैव पुनराह स्म भाव्यं केन निषिध्यते // 203 परेद्यवि नृपादिष्टैमल्लैरङ्गैः श्लथीकृतैः / नेत्रयुग्मं च' निष्काश्य मन्दिराभरणीकृतम् // 204 ततो भीमभयभ्रान्तैः सामन्तैः स समन्ततः / सिषेवे सततं भक्ति विभाति भयं विना // 610. पूर्वोपकारकत्वेन स कृतज्ञशिरोमणिः / आलिगोदयनी चक्रे प्रधानौ मतिसत्तमौ // 206 उदयनस्य सूनुश्च वाग्भटो बुद्धिवाग्भटः / महामात्य[:] कृतस्तेन शतशाखो गरीयसाम् // 207 तद्वन्धुश्वाहडः सिद्धनरेन्द्रस्य सुतोपमः / नाज्ञां कुमारपालस्य भेजेऽल्पायुरिवौषधम् // 208 किन्तु मन्तुत्रपामम इव कालकटाक्षितः / गत्वा सपादलक्षीयक्षोणीपतिमशिश्रयत्॥ 209 श्रीमत्कुमारपालस्य सामन्तामात्यमण्डलम् / दानाद्यैर्भेदयामास सिन्धुपूर इवावनिम् // 210 // अन्यदा गूर्जरेशेन रणोत्कर्ष चिकीर्षुणा / तेन सीमान्तमानिन्ये स्वामिनः सबलो नृपः // 11 श्रीमत्कुमारभूपोऽपि चतुरङ्गचमूवृतः / अभ्यमित्रीणतां भेजे रौद्रो रस इवापरः // धरित्र्यां सजमानायां निर्णीते रणवासरे / कुमारपालभूपेन कस्मादप्यपराधतः // .. संतर्जितः पट्टहस्तिसादी वरचोउलिगाभिधः / अङ्कशं परितत्याज प्रतिज्ञामिव "निष्कुलः // 14 •एष श्लोकः पतितः A आदर्शे। 1 B धर्मविजयी। 2 A °माम्लेच्छेशो। 3 A तद्वधार्थ महामाल्यवृद्धा। 4A 'छलेक्षिणः / B"निग्रहानुपही। 6 B निवेदय। 7 B विनिःकाश्य। 8A सुकृतज्ञ। 9 B मशिधियत् / 10 A निष्कलः / Je 99 205 // 12 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम्। 42020 तत्पदे नृपतिश्चक्रे वक्रेतरगुणं नवम् / सादिनं सामलामिख्यं कार्य भाग्यानुसारि यत् // कलहपश्चाननाख्यं सोऽपि प्रक्षरितं गजम् / विधाय सायुधं तत्र नृपासनमसजयत् // तत्रासीनश्च चौलुक्यचक्रवर्ती रणोत्सुकः / ददर्श विघटमानं सैन्यं चाहडभेदतः // समयज्ञस्तदा राजाऽऽदिदेश गजसादिनम् / एकाकिना मयैवाद्य योद्धव्यं रिपुभूभुजा // दूरात् सपादलक्षीयमुपलक्ष्य क्षितीश्वरम् / दधावे संमुखं तार्क्ष्य इव नागजिघृक्षया // खगजेन गजं शत्रोदन्तादन्ति नियोजितुम् / पुरतः प्रेरयेत्याशु निपादिनमभापत // तथा तमप्यकुर्वाणमूचे विघटितोऽसि किम् / सोऽपि विज्ञापयांचके राजानं रचिताजलिः // निषादी सामलो नाम करी चायं कदाचन / न शक्यते चालयितुं मर्यादाया इवाम्बुधिः // 22 किन्त्वग्रेऽस्ति गजारूढः कुमारश्चाहडो बली / हक्काया यस्य भज्यन्ते मदान्धा अपि सिन्धुराः॥ ततः कुमारपालोऽपि सिन्धुरश्रवणोपरि / खोत्तरीयं निचिक्षेप जयकेतुपटोपमम् // पुरः सृत्वा' गजोऽपि द्राक् दन्ताभ्यां प्रतिदन्तिनः / पद्यामिव व्यधादन्तः सञ्चाराय' जयश्रियः॥ चाहडः पूर्वभेदेन जानन् व(१ च)उलिगाभिधम् / यावता गूर्जरेशस्य गजमभ्येतुमिच्छति // 26 अपसार्य गजं तावत् सामलस्तमपातयत् / जगृहे तलवर्गीयैर्जीवग्राहं च पत्तिभिः॥ तमारोप्य गजे राजा जितं जितमिति ब्रुवन् / जयस्य सूचकं सद्यश्चेलाञ्चलमचालयत् // विष्वक् पलायमानेषु शत्रुसैन्येषु तत्क्षणम् / तदीयं सारमादाय निवृत्तो गूर्जरेश्वरः // . 611. आलिगाय कुलालाय स कृतज्ञतया ददौ / ग्रामसप्तशतीयुक्तां चित्रकूटस्य पट्टिकाम् // ते पुनर्निजवंशेन लजमाना समृद्धितः / अद्यापि ख्यातमात्मानं स ग रा इत्यजूहवन् // आच्छाद्य कण्टकैः क्षेत्रे यैस्तदानीं स रक्षितः / निजाङ्गरक्षकास्ते तु कृता विश्वस्तिभाजनम् // 32 612. सोलनामाथ गन्धर्वः स्वगीतकलयैकदा / सषोडशं द्रम्मशतं लेभे सन्तोषितान्नपात् // लजितस्तेन दानेन सोलकोऽप्यवहेलया / बालकेभ्यो ददौ तद्धि समादाय सुखाशिकाम् // राज्ञा निर्वासितो देशाद् गतो वाराणसी पुरीम् / भूमीन्द्रं जयतचन्द्रं शिश्राय गुणरागिणम् // 35 कलासन्तोषितात् तस्मान्मानशृङ्गारपूर्वकम् / गजेन्द्रं हस्तिनीयुक्तं गृहीत्वा पुनरागमत् // कुर्वन्नुपायने सर्व तं गन्धर्व पुनर्नृपः / मानयामास सन्तो हि सद्यो गुणिषु वत्सलाः // लब्धप्रतिष्ठः सोलाकः सोलासकलयोल्वणः / 'गान्धर्वज्ञानसीमायां सर्वत्र ख्यातिमासदत् // अन्यदा गायनाः केऽपि स्वकलोत्कर्षकाङ्क्षिणः / कृतबुम्बारवं राजपर्षयेवं बभाषिरे // देव ! त्वद्देशसीमायामुषिता मुषिता वयम् / पृष्टे केनेति भूभा हरिणैरिति तेब्रुवन् // ज्ञात्वा गान्धर्वकौशल्यव्यञ्जिका इति तद्गिरः / नृपोऽप्युलासितैकश्रुः सोलाकमुखमैक्षत // सोऽपि विज्ञपयांचके देव ! युक्तममी पुनः / दर्शयन्तु निजांश्चौरान वयमादातुमीश्महे // सोलाकेन समं तेऽथ प्रस्थिताः काननान्तरे / दर्शितास्तैर्मृगाः कण्ठे खेलत्कनकशृङ्खलाः॥ सोलाको गातुमारेभे काकलीध्वनिपेशलम् / सञ्जाता हरिणाश्चित्रलिखिता इव तत्क्षणम् // 44 खपुराभिमुखं गायन्नपासर्पद् यथायथा / प्रतिभूभिरिवाकृष्टा मृगा जग्मुस्तथातथा // 45 मध्येकृत्य पुरं 'राजमार्गे त्रिपथचत्वरान् / नीता राजसभां सभ्यस्तस्करा इव ते क्रमात् // सर्वेऽपि विस्मिता लोकास्तद्विलोक्य कुतूहलम् / मृगा न विविदुः किञ्चिद्गीतैकाग्र्येण मोहिताः॥ 47 36 1B स्मृत्वा / 2 A संचराय। 3 A जमाह। 4 B गन्धर्व। 5 B सोलास मुख। 6 B वैश्यत / TA राजमार्ग। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xx 56 6PM श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं योगिनामिव तेषां तु निरुद्धेन्द्रियवर्त्मनाम् / जगृहे भूषणं हैमं गलादुत्सार्य लीलया॥ पृष्टास्तदा नरेन्द्रेण प्रभुश्रीहेमसूरयः / प्ररोहणावधिं शुष्कतरोगीतकलां जगुः / / *सोलाकेन तथेत्युक्ते भूमिपालस्तदादिशत् / कौतुकं दर्शयास्माकं पट्टबन्धं गृहाण // सोलाकोऽपि समानाय्य श्रीमदर्बुदपर्वतात् / शुष्का विरहकाख्यस तरोः शाखा नृपाङ्गणे // कुमारमृत्तिकाक्लप्तालवाले च नियोज्य ताम् / प्रोलसत्पल्लवां चक्रे गीतनादामृतप्लवैः॥ साधितः सचमत्कारं प्रभुश्रीहेमसूरिभिः / सोलाकः श्रीनरेन्द्रेण गन्धर्वाधिपतिः कृतः // 13. कदाचिदन्यदा सर्वावसरावस्थितं नृपम् / कोऽपि कुंकुणदेशीयः सिषेवे मागधोत्तमः // सोऽन्यदा कुंकुणाध्यक्षमल्लिकार्जुनभूपतेः / 'राज पिता मह' इति पपाठ विरुदं सुधीः॥ 55 अमर्षणः क्षमेन्द्रोऽपि बद्धवैर इवोरगः / सभासम्मुखमैक्षिष्ट कठोरतरया दृशा // ज्ञात्वा भर्तुरभिप्रायमाम्बडः सचिवाग्रणीः / चकाराञ्जलियन्धेन नमस्कारं' नरेशितुः // सभायां तु विसृष्टायां भूपतिर्विकसन्मनाः / पप्रच्छाअलिबन्धस्य कारणं सोऽप्यदोऽवदत् // स कोऽपि विद्यते मेव सभायां यो निहत्य तम् / समानयेदिति श्रुत्वा मुदितो गूर्जरापतिः॥ तमेव बहुसामन्तसहितं सैन्यनायकम् / विधाय प्रेषयामास कुंकुणान् काम्यसिद्धये // कादम्बिनी समुत्तीर्य नदी शिबिरमात्मनः / यावदावासयामास खामिसम्भावनाबली // तावदश्वखुरैः पृथ्वी जयभम्भामिवापराम् / वादयंस्तत्र संजग्मे मल्लिकार्जुनभूपतिः // प्रवृत्ते समरे सैन्यमाम्बडस्य दिशोदिशि / दुग्धं नकुलसञ्चारादिव वित्रोटमासदत् // पलाय्य धीसखः कृष्णवदनः कृष्णवस्त्रभृत / कृष्णच्छत्रः पुरासन्नमागत्य त्रपया स्थितः॥ सेनानिवेशः कस्यायमिति पृष्टे महीभुजा / विद्विषा परिभूतस्य श्रीमदाम्बडमत्रिणः // विस्मितस्त्रपया तस्य सप्रसादं पुनर्नृपः / तमेव कृत्वा सैनान्यं प्रैषीद् बहुदलान्वितम् // कालुम्बिनी समुत्तीर्य पद्याबन्धेन मत्रिराट् / युयुधे सह तेनैव स्वयं वीररसोत्कटः // 67 // प्रहारैः सिन्धुरस्कन्धान्निपात्यादाय मस्तकम् / रक्षामिव खशौर्यस्य स्वर्णेन तदयत्रयत् // आगच्छन् भृगुकच्छादिहट्टेषु न्यस्य मस्तकम् / प्रेक्षणं कारयामास जये को नाभिमन्यते // आलोचनापदेऽमुष्य मदस्थानस्य धीसखः / हेमसूरिगिरा तत्र तत्र चैत्यान्यचीकरत् // आज्ञां कौ मा र पा ली यां मण्डले तस्य दापयन् / आनर्च चरणौ राज्ञस्तच्छिरःकमलेन सः॥ द्वासप्तत्या निषण्णेषु सामन्तेषु च पर्षदि / सर्वस्खमुपदीचक्रे तदीयं भूभुजः पुरः॥ 720 तथा च 'शृङ्गारकोटिः' शाटिका गुणकोटियुक् / पटो 'माणिक्य'नामा तु हारः 'पापक्षयंकरः॥ 73 'योगसिद्ध्यभिधा' सिप्रा चतुष्टयमिदं तथा / षण्मूटका मौक्तिकानां चतुर्दन्तः सितो गजः // 34 द्वात्रिंशत्कलशा हैमा हेम्नां कोट्यश्चतुर्दश / सविंशति शतं पात्रप्रमदानामढौकत // 14. प्रीतस्तस्यावदातेन भूपतिः सर्वसाक्षिकम् / 'राज पितामह' इति तस्मै तद्विरुदं ददौ // 76 श्रीहेमचन्द्रसूरीन्द्राः कदाचित् पत्तनेऽन्यदा / स्वमात्रे पाहिणीनाम्यै सवतानशनं ददुः॥ 77. एककोटिनमस्कारपुण्ये मातुरुदीरिते / कारिताऽऽराधना पूज्यैर्दुःप्रतीकारितोचिता // जाते प्राणव्यये क्लुप्तं विमानं भविकैर्वरम् / महोत्सवेन महता सञ्चचार यदा पुनः॥ त्रिपूरुषमठस्याग्रे जटाधारिभिरुत्कटैः / स्वभावजातिवैरेण तद्विमानमभज्यत // 280 * A पतितोऽयं श्लोकः A आदर्शे। 1B चमत्कार। 2 B कालंबिणीं। 3 3 B सहितेनैव। 4 B कलशा हेमकोव्यः / 5 B°मढौकयत् / 6 B °दानेन। 7 A प्रतीकारोचिता। . . 66 270 71 75 79 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम् / यतः- 'कार्जु करेवा माणुसह बीजॅ मागु न अत्थि। कइ आपणि' पहु थाईई कइ पहुं कीजइ हत्थिं // उन्मूलनीयास्तत्त्वज्ञैर्धमद्विष्टा यथातथा / विमृश्येति च सूरीन्द्रा राजसङ्गतिकाङ्गिणः // कुमारपालभूभर्तुस्तस्थुषो मालवावनौ / स्कन्धावारमलंचक्रुर्जानाना आयतौ हितम् // राजप्राप्तिनिमित्तस्य वक्तृन् सूरीन् समागतान् / श्रीमानुदयनो गत्वा स्मारयामास भूपतेः॥ तेनाप्यनुमता जग्मुः सूरयो राजपर्षदि / आशीर्वादोक्तिवैचित्र्याद् विस्मितः 'स्माह भूपतिः // सदैव समुपेतव्यं देवतावसरक्षणे / इत्युक्ते सादरं राज्ञा सूरयस्तं बभाषिरे // भुञ्जीमहि वयं भैक्ष्यं जीणं वासो वसीमहि / शयीमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः॥ भूपः प्रोवाच युष्माभिः परलोकहितेच्छया / मैत्र्यं विधातुमिच्छामि मधुना माधवो यथा // ‘एको मित्रं भूपतिर्वा यति'ति यदुच्यते / उभयोस्तद्धितार्थाय करयोः पुष्पदामवत् // 'अनिषिद्धमनुमत'मिति जानन्नदापयत् / अस्खलितप्रचाराय प्रभूणां सर्वद्यकम् // जाते गमागमे खैरं प्रस्तावोक्तिमनोहरैः / स्नेहोऽधिकमवर्द्धिष्ट वार्द्धि-चन्द्रमसोरिव // . एकदा च यशश्चन्द्रगणिना प्रत्युपेक्षितम् / आसनं हेमसूरीणां रजोहरणयुक्तितः // . अज्ञातपरमार्थेन तद् दृष्ट्वाऽयुजि भूभुजा / दशाभिः स्पृश्यते डिम्भ इव किं न्विदमासनम् // प्रभुभिर्जगदे जीवरक्षार्थो ह्ययमुद्यमः / सस्मेरमाह भूपोऽपि किमदृष्टैरुपक्रमः // बभाषिरे महात्मानो राजन् ! सैन्यं चतुर्विधम् / रिपावुपस्थिते सज्जीक्रियते पूर्वमेव वा // व्यवहारो यथा राज्ये सुखकारणमायतौ / ज्ञेयस्तथायं धर्मेऽपि सिद्धये धर्मचारिणाम् // इत्याद्यनेकयुक्तीभिर्मुदितो भूभृदेकदा / पप्रच्छोदयनामात्यं पितृवंशादिकं प्रभोः // 0615. शक्रपत्तनसंकाशे देशेऽर्धाष्टमनामनि / संकेतनमिव श्रीणां पुरं धन्धुककाभिधम् // तत्रास्ति मोढवंशीयश्चाचिगो व्यवहारिकः / तज्जाया पाहिणि म चतुःषष्टिकलागृहम् // चामुण्डाया गोत्रदेव्या आद्याक्षरपवित्रितः / तयोः पुत्रश्चांगदेवनामा जातोऽष्टवत्सरः॥ श्रीदेवचन्द्रसूरीन्द्राः पत्तनात् तीर्थयात्रया / प्रस्थितास्ते क्रमात् प्रापुर्धन्धुक्ककमहापुरम् // श्रीमोढवसतो तेषां तस्थुषां सोऽपि बालकः / सवयोभिः समं क्रीडन् समियाय सुलक्षणः // 302 चांगदेवस्ततः सिद्धाविव भाग्यपराक्रमः / सिंहासनोपरि स्थाष्णुनिषिद्यायामुपाविशत् // यदि क्षत्रकुले जातः 'सार्वभौमस्तदा नृपः / वणिग्-विप्रान्वये जातो महामात्यः पुनर्भवेत् // पुण्ययोगेन चेदस्य यतित्वमुपतिष्ठते / दुर्युगेऽपि तदाऽमुष्मिस्तुर्य युगमुपानयेत् // धात्वेति धर्मवन्मुख्यव्यवहारिभिरावृताः / सूरयस्तत्पितुर्गेहं जग्मुर्जङ्गमतीर्थवत् // पतौ देशान्तरस्थेऽपि पाहिणिधर्मदीपिका / आनन्दमेदुरं चके सा संघ स्वागतादिमिः // 307 ज्ञात्वा समागमे हेतुं गृहे पतेरभावतः / विषादानन्दसम्मिश्रां सुदती सा दशामगात् // धन्याऽस्मि यस्या मे गेहे समीयुः पुरुषा अमी। मिथ्यादृष्टिः पतिः किन्तु तादृशोऽपि गृहे न हि // 309 किं करोमि कथं वक्त्रं दर्शयामि गुरोः पुरः / ध्यायन्तीति गुरुं नत्वा तस्थौ किंचिदवाम्मुखी // 310 कैश्विदूचे शुभे ! तावन्निजदोषं निराकुरु / त्वं 'देहि तनयं शेषकार्ये पतिः प्रमाणता // 1B आदर्श पाठमेदाः-१ कन्ज. 2 बीजउ. 3 मग्गु, 4 आथि. 5 आपुणि. 6 प्रभु. 7 थाइय. प्रभु.. हाथि। 1B श्रीमानुदय[1] गत्वा च। 2 B विस्मिताश्चाह / 3 B मनोरसः। 4B व्यावहारिकः। 5A सार्वभूप। 6Bधनवन्। 7 Bदेह / 301 306 308 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 26 // श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं चांगदेवस्ततः पृष्टः शिष्योऽमीषां भविष्यसि ? / ओमित्युक्ते ददौ माता गुरुभ्यस्तनयं मुदा // प्रस्थिता गुरवस्तीर्थयात्रायां पुनरागताः / चांगदेवं सहादाय भेजुः कर्णावतीं पुरीम् // तत्रास्मदीयगेहेऽसौ सत्रागार इव श्रियाम् / रममाणः सुखं तस्थौ भृङ्गवचन्दने वने // समेतः खगृहं श्रुत्वा पुत्रोदन्तं स चाचिगः / दर्शनावधिसंन्यस्तभोज्यः कर्णावतीं पुरीम् // श्रीदेवचन्द्रसूरीणां पौषधालयमागतः / सक्रोधोऽपि मनाक् चक्रे नमस्कारं विचक्षणः॥ तावदावर्जयांचक्रुर्गुरवो विविधोक्तिभिः / यावतोदयनामात्यस्तं नीत्वाऽभोजयद् गृहे // स दुकूलत्रिकं लक्षत्रयं पुत्रसमन्वितम् / तदुत्सङ्गे न्यधान्मत्री गौरवेण गरीयसा // चाचिगः स्माह मूल्येन पर्याप्तं मितवर्तिना / अनयॊ मत्सुतस्तस्मात् तव भक्तिर्गरीयसी // दत्तस्तुभ्यं मया पुत्रश्चाचिगेनेत्युदीरिते / परिरभ्य समाचष्ट निगदन् साधु साध्विति / / सखे मह्यं वितीर्णोऽसौ महा?ऽपि तवाङ्गजः / अपमानपदं भावी योगिमर्कटवन्नमन् // गुरुभिः पुनराप्तोऽसौ ग्राहितः सकलाः कलाः / रत्नं वैकटिकेनेव नेष्यतेऽनय॑तापदम् // इति सम्बोधितः सोऽपि गुरुभ्यः सुतमर्पयत्' / दीक्षामहोत्सवं प्रेम्णा स एवाचीकरत् पुनः // चकुस्तस्याभिधा हेमचन्द्रेति गुरवो मुदा / जातः क्रमेण शास्त्रान्धिकुम्भयोनिरसौं मुनिः॥ न्यस्तः सूरिपदे योग्य'-इत्यस्य चरितं नृपः / आकर्योदयनामात्यान्मुमुदे तद्गुणक्षणी // निष्कलङ्कगुणग्रामसन्ततप्रीणितान्तरः / भूपः श्रीहेमसूरीन्द्रान् सदैव हृदये दधौ // पूर्वोपकारतस्तादृग्गुणग्रामाच सङ्गतम् / तयोर्नित्यमशोभिष्ट माणिक्य-स्वर्णयोरिव // 15. एकदा भूभुजा सार्धमुपविष्टां वरस्त्रियम् / व्यावर्तिपत सूरीन्द्रा द्वारतोऽपि विलोक्य ताम् // अनीतिमिव राज्यार्थी प्रभूणां सङ्गमेच्छया / विससर्ज नरेन्द्रोऽपि तामन्तःपुरयोषिताम् // गुरवोऽप्यागमन् दृष्ट्वा तथा मिथ्यानिवेशतः / विरोधादामिगः प्राह पुरोधाः पुरतः प्रभोः॥ . ___ विश्वामित्र-पराशरप्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशिन स्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः / आहारं सघृतं पयोदधियुत ये भुञ्जते मानवा . स्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भः समालोक्यताम् // श्रुत्वेति प्रभवोऽप्याहुः स्वभावः प्राणिनामयम् / किन्तु विज्ञाततत्त्वानां विशेषः श्रूयतामिह // सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् / पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि कामीभवत्यनुदिनं बत कोऽत्र हेतुः॥ इत्युक्तियुक्त्या सूरीन्द्रैः कृते तस्मिन्निरुत्तरे / 'अमी सूर्य न मन्यन्ते' केनाप्युक्ते पुनर्जगुः // अधामधामधामानं वयमेव स्वचेतसि / यस्यास्तव्यसने प्राप्ते त्यजामो भोजनोदके // पयोदपटलच्छन्ने नाश्नन्ति रविमण्डले / अस्तंगते तु भुञ्जाना अहो ! भानोः सुसेवकाः // इत्यं दुर्वावदूकानां मुखमुद्रापटीयसः / तानेव मेने भूपालः सर्वागममहोदधीन् // 617. पप्रच्छ चैकदैकान्ते भक्तिमन्धरया गिरा / कथंचिदपि जायेत चिरस्थायि यशो मम // विमृश्य प्रभवोऽप्यूचुर्विक्रमादित्यभूपवत् / जगदानृण्यतः सोमनाथचैत्योद्धृतरथ // ___1B मार्पयत्। 2 B योनिरय। 3 B भोजिनोऽपि / 32 37 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम्। तदैव स्थापिते श्रेष्ठमुहूर्ते मुदितो नृपः / 'निजपञ्चकुलं प्रेष्य चैत्यारम्भमचीकरत् // समियायान्यदा पञ्चकुलप्रस्थापिता द्रुतम् / विज्ञप्तिः खरशिलाया निशानन्दसूचिका // विज्ञप्तिं दर्शयन् प्रीतः प्रभून् प्राह नराधिपः / निर्विघ्नं स्याद् यथा चैत्यं 'प्रसाद्यादिश्यतां तथा // 42 प्रभवोऽप्यभिनन्दन्तस्तमाहुः शृणु भूपते ! / 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' प्रयत्नोऽत्र हितावहः // "विचार्याब्रह्मसेवाया यदि वा मद्य-मांसयोः / गृहाण नियमं चैत्ये कलशारोपणावधि // तत्क्षणादुदकक्षेपपूर्वकं मद्य-मांसयोः / जग्राह नियमं सन्तः सर्वत्र प्रभविष्णवः / / वर्षद्वयेन सञ्जाते प्रासादे कलशावधौ / मुमुक्षुर्नियमं राजा सूरीन्द्रानन्वमन्यत // . प्रभुस्तदेव तद्यात्रापर्यन्ते कृतकार्यिणः / युज्यते नियमो मोक्तुमित्युक्त्वा वसतिं ययौ // तद्गुणैरुल्लसन्नीलीरागः श्रीगूर्जरापतिः / प्रशशंस तमेवैकम् ; गुणाः कस्स न वलभाः // उपभूपमथ प्रोचुर्जातमत्सरिणो द्विजाः / पटुचाटुपरः सर्वां राज्ञां प्रीणाति मानसम् // . नो चेत् प्रातरुपेतोऽयं वाच्यो यात्रां न चैष्यति / अस्मद्धर्मममी यस्माद् दूषयन्ति पदे पदे // खयमभ्यर्थितः प्रातर्यात्रार्थ भूभुजा प्रभुः / ऊचे वैद्योपदिष्टं चाभीष्टं चेदमुपस्थितम् // सहजोत्कण्ठिताः प्रायो यात्रायै यतयो नृप ! / सिताक्षेपप्रकारोऽयं पायसे यन्निमत्रणम् // सुखासनवाहनादि किं युष्मद्भ्यः प्रदीयताम् / नृपेणोक्ते, वयं देव ! निरारम्भपरिग्रहाः // गच्छतः पादचारेण शोभामपलभामहे / प्रस्थाय परमद्यैव 'नमन्तस्तीर्थमण्डलीम् // देवपत्तनप्रवेशे भवद्भिर्मिलनेच्छवः / अनुमत्या नरेन्द्रस्य ततः श्रीहेमसूरयः // .. शत्रुञ्जयोजयन्तादितीर्थमालां कृतादरम् / नमन्तः सपरीवारा निरूपितदिनोपरि // मिलिता गूर्जरेशस्य प्रवेशे पत्तनस्य च / जहर्ष सोऽपि केकीव दृष्ट्वा सूरीन् घनानिव // बृहस्पत्यभिधानेन गण्डेनानुगतो नृपः / गाढं सोमेश्वरं लिङ्गमालिलिङ्गानुरागवान् // श्रीजैनादपरं देवं नामी वन्दन्त इत्यसौ / मिथ्यादृग्वचसा भ्रान्तो भूपः सूरीनभाषत / 'भगवन् ! यदि युज्येत तदेतैलिभिः स्वयम् / अर्चयन्तु प्रभु शम्भु' समयज्ञस्ततो गुरुः // तदैवोद्गमनीयेन भूपादिष्टेन भूषितः / आरुह्य चैत्यदेहल्यां शम्भुं दृष्ट्वेदमभ्यधात् // 'अहो ! दिष्ट्याद्य दृष्टोऽसौ कैलासवसतिः 'भुः / उपहारप्रकारास्तत् क्रियन्तां द्विगुणा इति // आह्वाननादिमुद्राभिDसैरंशादिभिश्च सः / पञ्चोपचारैरभ्यर्च्य शिवं शैवागमोक्तिभिः // कर्पूरागुरुनैवेद्यवस्तुभिर्द्विगुणीकृतैः / स्वयमानर्च सूरीन्द्रः शम्भुं विधिवदादरात् // सामन्तशतसंयुक्ते विस्मिते राज्ञि पश्यति / दण्डप्रणामपूर्व स स्तोतुमेवं प्रचक्रमे // ___ यत्र तत्र समये यथा तथा योसि सोऽस्यभिधया यया तया। वीतदोषकलुषः स चेद् भवानेक एव भगवन् ! नमोऽस्तु ते॥ भवबीजाकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य / ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै // इत्यादि हेमसूरीणां स्तुत्यनन्तरमादरात् / भूपोऽपि शम्भुमभ्यर्च्य न्यपदद् दानमण्डपे // तुलापुरुषदानानि' गजदानानि भूरिशः / विधाय कृतकृत्यात्मा नृपः प्रोचे प्रभूनिति // न सोमेशसमं तीर्थ न महर्षिर्भवत्समः / मत्समो नास्ति राजाऽन्यस्तदस्मिन्मिलिते त्रिके॥ 1B निजं। 2 B प्रसद्या / 3 B विचार्य ब्रह्म। 4 B कलशावधि / 5 B मनन्तः। 6 B वसति प्रभुः। 7A दानादि। 370 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिठकसूरिविरचितं 99 79 85 46 किंचिन्मुक्तिप्रदं देव ! तत्त्वमाविःकुरु प्रभो ! / विमृश्य गुरवोऽप्यूचुरलं पौराणिकोक्तिभिः // शम्भुमेव 'तदिदानी प्रकटीकरवाण्यहम् / जानीते तन्मुखेनैव मुक्तिमार्ग यथा मवान् // किमेतदपि जाघट्टि संशयाने नृपेऽवदत् / एकाग्रमानसावावां सर्व संघटते ततः // किन्तु कृष्णागुरुः क्षेप्यस्त्वया ध्यानं मया पुनः / तावद् विधेयं प्रत्यक्षः शम्भुर्भवति यावता // क्षणाद्दीपेषु शान्तेषु धूपधूमे च सर्पति / द्वादशात्मप्रकाशाभे महत्तेजसि जाग्रति // जलाधारोपरि क्षमापो जात्यजाम्बूनदद्युतिम् / चर्मचक्षुर्दुरालोकं ददर्शकं तपखिनम् // 76 आपादमस्तकं स्पृष्टा मुनिं निस्तन्द्रया दृशा / पञ्चाङ्गं चुम्बितक्षोणिः प्राञ्जलिः प्राह तं नमः॥ कृतार्थे नयने मेऽद्य जगतीश ! तवेक्षणात् / किन्तु मुक्तिप्रदं तत्त्वमुक्त्वा को कृतार्थय // 78 अथाविरासीद् दिव्या गी राजन्नेष महामुनिः / सर्वदेवावतारश्च सर्वज्ञश्च कलावसौ // तदुक्तः सरलः पन्था ज्ञातव्यो मुक्तिदायकः / शम्भाविति तिरोभूते तस्थौ चित्रमना नृपः // 380 // सूरीन्द्रोऽपि श्लथोन्मुक्तप्राणायामो' विकस्वरः / राजनित्यवदत् तावत् त्यक्तराज्यमहामदः // पादावधार्यतां जीव ! खामिन्निति वदन्नृपः / यत्कृत्यमादिशानम्रमौलिः प्राञ्जलिरभ्यधात् // तत्रैव मदिरा-मांसनियमं जीवितावधिम् / दत्त्वा क्षमापतेः प्राप्तो नाम्नाऽणहिल्लपत्तनम् // तत्र सर्वोपधाशुद्धसिद्धान्तोपनिषद्विरा / सम्यक्त्वं ग्राहयामास सम्प्रतेरिव भूपतेः // प्रबन्धान् यो ग शास्त्रा दी नाकर्ण्य द्वादशवतीम् / प्रत्यपादि स भूपालः पिपासुः सरसीमिव // त्रिषष्टेः शलाकापुंसां चरित्राणि गुरोर्मुखात् / श्रावं श्रावं जैनधर्ममेकच्छत्रमयं व्यधात् // 318. शुद्धसम्यक्त्वपूतात्मा महानवमीपर्वणि / कुमारपालभूपाल आमिगादिभिराख्यत // देवी कंटेश्वरी गोत्रदेवी खं भाव्यमीहते / एकं छागशतं चैको महिषः प्रतिपद्दिने // एतावदेव द्विगुणं द्वितीये दिवसे पुनः / तृतीये त्रिगुणं यावन्नवमे नव संगुणम् // तदुक्तं हेमसूरिभ्यस्तैः सानाऽभ्यर्थिता च सा / नवाहं यावदादत्स्व भोगं अगादिमूल्यजम् // 390 कपूरागुरुपीयूपः प्रीयन्ते खलु देवताः / राक्षसा एव तुष्यन्ति मांसशोणितकीकसैः // इत्थमुक्ताऽपि सामाऽसौ न तुतोष यदा सुरी / कीलनं यत्रणं मोरबन्धनं दर्शितं तदा // शान्ताऽप्यथैकदा चाटुमांसाहारमयाचत / भवनान्तस्ततस्तस्याः क्षेपिता महिषैडकाः // देवी कदर्थिता सर्वां रात्रि मूत्रमलस्रवैः / पुरोहितादयः सर्वे बभूवुर्मुद्रिताननाः // श्रीहेमसूरिध्यानेन स्वभावप्रीणिता सुरी / सांनिध्यकारिणी जाता यदूचे केनचिन्नृपः // 955 या पूर्व नवमीमहेषु महिषस्कन्धत्रुटत्कीकस- . _ 'नाट्कारैरजनिष्ट कर्णकटुकैः कण्टेश्वरी नश्वरी / सा पीयूषपराभुखी रसयति श्रीहेमचन्द्रप्रभो ीतं मारिनिवारि संप्रति नृपद्वारि स्थिता सुस्थिता // आज्ञा-बलेन वित्तेन त्रिधा वीरः स भूपतिः / अमारिघोषणां चक्रे वत्सराणि चतुर्दश // 19. सुपक्कानेकदा भूपो भुनानो घृतपुरकान् / मांसास्वादमनुस्मृत्य प्रभूनेत्य 'व्यजिज्ञपत् // युज्यते वा न वाऽस्माकं घृतपूरकभोजनम् / विज्ञाय तदभिप्रायं प्रभवोऽपि बभाषिरे // वणिग्-ब्राह्मणयोर्युक्तं जातिभावादपितम् / कृतमांस्पाकत्यागस्य क्षत्रियस्य तु वर्जितम् / / प्रायश्चित्ते ततस्तस्य द्वात्रिंशद्दन्तसंख्यया / विहारानेकबन्धेन द्वात्रिंशतमचीकरत // 401 1B तवेदानीं। 2 B प्राणायामविकस्वरः। 3 B क्षमापती प्राप्तौ। 4 A 'व्याहारे / 5 A प्रभूनित्यव्यजशपत् / 400 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 409 कुमारपालदेवचरितम् / पुरा द्रव्ये हृते राजा मूषको यद् व्यपद्यत / तेने तेनास्य शुद्ध्यर्थ विहारो मूषकामिधः // 402 करम्मं भोजितः श्रेष्ठिवध्वा यत् त्रिदिनोपितः / करम्भाभिधया चैत्यं तस्याः श्रेयःकृतेऽभवत् // 103 सपावलक्षदेशे च जायया शिरसार्पिताम् / यूकां कोऽपि वणिक् पाणौ मृदित्वा खल्वमारयत् // 404 बमारिघोषणापञ्चकुलेनानीय पत्तने / भूभुजे सोऽर्पितस्तेन प्राप्यादेशं प्रभोरिति // 405 सर्वखेन तदीयेन तद्दण्डपदयुक्तितः / यूकाविहार इत्येवं कारितं कीर्तनं नवम् // युग्मम् // 406 स्तम्भतीर्थे यत्र चैत्ये प्रभोर्दीक्षाक्षणोऽभवत् / तत्र रत्नमयं बिम्बं जीर्णोद्धारश्च कारितः // 407 कुर्वतेति चतुश्चत्वारिंशदग्राणि भूभुजा / विधापितानि चैत्यानि चतुर्दशशतानि वै // 408 द्वासप्ततिलक्षमानपट्टकस्फाटनानुगे / विहिते रुदतीवित्तमोचने पण्डितैः स्तुतः // न यन्मुक्तं पूर्व रघु-नहुष-नाभाक-भरत__प्रभृत्युर्वीनाथैः कृतकृतयुगोत्पत्तिभिरपि / विमुश्चन् सन्तोषात् तदपि रुदतीवित्तमधुना कुमारक्ष्मापाल ! त्वमिह महतां मस्तकमणिः॥ श्रुत्वा श्रीहेमचन्द्रोऽपि परमानन्दमुद्वहन् / पुण्यानुमोदनापूर्व पपाठ नृपतेः पुरः // 'अपुत्राणां धनं गृह्णन् पुत्रो भवति पार्थिवः। त्वं तु सन्तोषतो मुश्चन् सत्यं राजपितामहः॥ 120. गण्डः श्रीसोमनाथस्य विहारे नृपतेर्वसन् / अपराधेन केनापि पदभ्रष्टो व्यधीयत // विषीदन् पत्तनं प्राप्य द्विारावलगकोपमः / षोढावश्यकपृतात्मा प्रभून् सेवेन्निरन्तरम् // एकदाऽवसरं प्राप्या चतुर्मासकपारणे' / विधाय द्वादशावर्तवन्दनामिदमब्रवीत् // चतुर्मासीमासीत् तव पदयुगं नाथ निकषा कषायप्रध्वंसाद् विकृतिपरिहारव्रतमिदम् / इदानीमभ्युद्यन्निजचरणनिर्लोठितकले जलक्लिन्नरन्नर्मुनितिलक ! वृत्तिर्भवतु नः॥ * श्रुत्वा काष्ठामिमां तस्य निजधर्मानुरोधिनीम् / प्रभुसङ्केततो राज्ञा पुनः स्वपदभाक् कृतः // 621.. राज्ये श्रीसिद्धभूभर्तुर्वामराशिर्द्विजः पुरा / पाण्डित्यस्पर्धया तत्र कासीतः समुपेयिवान् // 18 - असहिष्णुः प्रतिष्ठायाः प्रभूणां जातिवैरतः / प्रत्यक्षं सोऽन्यदाऽवोचत् 'भुक्तोगारसमं वचः // यूकालक्षशतावलीवलवलेल्लोलोल्ललत्कम्बलो दन्तानां मलमण्डलीपरिचयादुर्गन्धरुद्धाननः। . . नासावंशनिरोधनाद गिणगिणत्पाठप्रतिष्ठाविधिः सोऽयं हेमडसेवडः पिलपिलत्खल्लिः समागच्छति / / श्रुत्वाप्यानन्दतो माद्यचित्तैः प्रभुभिरौच्यत' / पूर्व विशेषणमिति किं नाधीतं धियांनिधे ! // अत इत्थं प्रयोक्तव्यं सोऽयं सेवडहेमडः / इति वैदुष्यकुन्ताग्रनुन्नो न्यूनमनाः कृतः॥ कुमारपालभूपालराज्ये शस्त्रवधो न हि / इति सोऽपि पदभ्रष्टो वर्तते कणभिक्षया // अन्यदाऽऽबालभूपालं योगशास्त्रं पदे पदे / पठ्यमानं समाकर्ण्य सकर्णः स्पष्टमब्रवीत् // 1 एतद्विदण्डान्तर्गतः पाठः पतितः B भादशैं। 1B पर्वणे। 2 A राज्ञः। 3 A भकोदार। 40 बलम 5 B मेदखिचित्तः। 6B राख्यत / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं आतङ्ककारणमकारणदारुणानां वक्रेण गालिगरलं निरगालि येषाम् / तेषां जटाधरफटाधरमण्डलानां श्रीयोगशास्त्रवचनामृतमुनिहीते // श्रुत्वेत्यमृतसंवादि वचः शान्तान्तरोष्मभिः / प्रभुभिर्द्विगुणा वृत्तिः पुनस्तस्मै प्रसादिता // 6.22 अन्यदा मागधौ कौचित् स्पर्धमानौ खविद्यया / सुराष्ट्रादेशतः प्राप्तौ श्रीपत्तनमहापुरम् // प्रमुभिः श्लाघ्यते यो हि स एव विभुरावयोः / मार्गोपक्षयदाताऽन्यो यस्तु हारयति ध्रुवम् // प्राप्त एकस्तयोर्मध्ये देशनावसरे प्रभोः / लक्ष्मीवन्तः पण्डिताश्च दृष्ट्वा स्पष्टमुदाहरत् // लच्छि वाणि मुहकाणि ए पइं भागी मुहमरखें। हेमसूरिअत्याणि जे ईसर ते पंडिया // द्वितीयो भूपतेश्चैत्ये विधायारात्रिकक्षणम् / नमस्सतः पृष्ठहस्ते दत्ते प्रभुभिरत्रवीत् // हेम तुहाला कर मरउं' जेहं' अच्चन्भूय रिद्धि / जे चापं हेठा मुहा ताहं ऊपहरी सिद्धि // अनुच्छिष्टेन भूपालो वचसा तस्य रञ्जितः / भूयोऽपि पाठयामास त्रिरुक्ते मागधोऽभणत् // पठिते पठिते लक्षं किं दास्यसि नृपस्ततः / लक्षत्रयं त्रिरुक्तत्वात् स तस्मै तत्क्षणाददात् // समये बहुपाठोऽपि श्रेयानिति स चारणः / सर्वार्थसाधकं मौनमिति व्यर्थममन्यत // 623. अन्यदा जगदानृण्यचिकीर्षाकौतुकी नृपः / प्रभुं विज्ञापयामास सद्यः सौवर्णसिद्धये // ततः श्रीदेवचन्द्राह्वान् सुगुरून् प्रभवोऽपि हि / श्रीसङ्घ-कुमरक्ष्मापविज्ञप्तिभ्यामजूहवन् // तेऽपि तीव्रताः किश्चित् सङ्घकार्यमिति द्रुतम् / यथाविधि विहारेण महात्मानः प्रतस्थिरे // प्रवेशोत्सवसामग्री भूपो यावत् प्रचक्रमे / सूरयः पौषधागारं शीघ्रं तावत् समाययुः // नृपतिप्रमुखानेकश्रावकैः सहितः प्रभुः / विदधे द्वादशावर्तवन्दनां विनयान्विताम् // 440 *तस्मिन्नवसरे श्राद्धः श्रीकपद्यपि मत्रिराट् / उत्तरासङ्गतो भूमिं प्रमाादत्त वन्दनाम् // *अदृष्टपूर्व आचारः क इत्युक्ते महीभुजा / सिद्धान्तविधिरेषोऽपीत्याह श्रीगुरुरुत्तरम् // 42 श्रुतश्रौतोपदेशौ तौ गुरुभिः सूरि-भूपती / सङ्ककार्य द्रुतं पृष्टौ न श्लथाः क्वापि धीधनाः॥ विसृज्य तावपि क्षिप्रं समां जवनिकान्तरे / ययाचतुः वर्णसिद्धिं निपत्य गुरुपादयोः॥ श्रीहेमसूरयः प्राहुर्भगवन् ! शैशवे मम / काष्ठभारिकतो वल्लीरसबिन्दुरुपाददे // तेनाभ्यक्तं ताम्रखण्डं संयोगाजातवेदसः / सुवर्ण तत्क्षणाज्जातं सिद्धनिष्ठीवनादिव // वल्लेरादिश्यतां तस्या नामसङ्केतनादिकम् / करोतु क्षितिपः क्षिप्रं धरणीमनृणामयम् // कुपिता गुरवः प्राहुः पापापसर दूरतः / न योग्य इत्यपास्सामु पादलग्नमिवोरगम् // अग्रे मुद्गरसप्रायविद्यया त्वमजीर्णभाक् / मन्दानेर्मोदकां विद्यां कथमेतां ददामि ते // शिष्यमाग्रहतस्तस्मादपथ्यादिव रोगिणम् / निवार्य सूरयो भूरिवैराग्या नृपमभ्यधुः // जिनचैत्यालंकृतक्ष्मा-मारिनिर्धटनादिभिः / सिद्धे लोकद्वये राजन् ! किमाधिक्यमभीप्ससि // 51. किं च ते जगदानृण्यकारिण्यै हेमसिद्धये / न भाग्यमस्ति तेनात्र युक्ता भावानुमोदना // 52 इत्यादिश्य झटित्येव विहारं सूरयो व्यधुः / तत्त्वकार्ये न मुह्यन्ति यतो निबिडबुद्धयः॥ 1B प्राप्तश्चैक। B आदर्श-१ तुहारा. 2 मरूं. 3 जह. 4 चंपा हिवा. 5 ताह. 2 A दास्यसि पतिस्ततः / + एतत्तारकाहि लोकदर्य नोपलभ्यते B आदर्श / 37 38. 39 41 // Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 57 63 64 कुमारपालदेवचरितम् / 24. अन्यदा श्रीवीतभयपत्तनस्थलगर्भिताम् / ब्रह्मर्पिणा केवलिना कपिलेन प्रतिष्ठिताम् // विद्युन्मालिप्रतिमायाः प्रतिच्छन्देन मञ्जना / चण्डप्रद्योतभूपेन कारितां चेटिकाकृते // सप्तहस्तोच्छूितां जात्यचान्दनी कुमरो नृपः / देवाधिदेवप्रतिमां शुश्राव सुगुरोर्मुखात् // -त्रिमिर्विशेषकम् // गुरोर्वचनतः कार्यसिद्धिं निश्चित्य भूपतिः / तत्कालप्रहितानेकसामन्तैभक्तियुक्तितः // खानयित्वा वीतभयस्थलमुत्तमभाग्यतः / देवाधिदेवप्रतिमामव्यङ्गां निरकाशयत् // -युग्मम् // नरेन्द्रादेशतः सर्वग्रामाकरपुरादिषु / रथयात्राखिव खैरं जायन्ते स्म महोत्सवाः // भाविकैः क्रियमाणेषु पुरा सङ्गीतकादिषु / प्रभावनामयं विश्वं सृजन्ती प्रतिमाञ्चलत् // .. समानं तेन भूपेन कृतानुकृतमोत्सवा (1) / रथाधिरूढा प्रतिमा प्रापाणहिल्लपत्तनम् // खसौधासन्नभूपीठे प्रासादे स्फटिके नृपः / निवेश्य पूजयामास त्रिकालं कलिकीलकः // 625. अथ श्रीकुमरक्ष्मापः खजनुफललिप्सया / शत्रुञ्जयोजयन्तादितीर्थयात्रां प्रचक्रमे // श्रीहेमचन्द्रसूरीन्द्रैः श्रीकुमारनरेशितुः / सङ्घाधिपत्यतिलकं विदधे महतो महात् // देवालयस्य प्रस्थानमुहूर्ते स्थापिते सति / मिमिलुः परितः सङ्घा धर्मा इव चतुर्विधाः // कुमारपालभूपालो धन्यंमन्यमनोरथः / यावत् समग्रसामग्रीमव्यग्रमनसाऽकरोत् // तावद्देशान्तरायातं चरयुग्मं व्यजिज्ञपत् / श्रीकर्णस्त्वामुदेतीति नृपो डाहलदेशराद् // आकर्ण्य कर्णशूलाभमिति वाक्य मिलापतिः / खेददन्तुरभालो द्राक् मत्रिवाग्भटमभ्यधात् // . प्राप्तायां यदि सामग्यां धर्म कर्तुं न चाप्नुमः / निष्पन्नायां रसवत्यां तदिदं मुखवीक्षणम् // . शुशोच गुरुपादाने स्वमधन्यतम नृपः / स्वामिन् ! रङ्कस्य जीर्येत किं भुक्तिश्चक्रवर्तिनः // सूरीन्द्रा अपि तत्कालमाकलय्य लवादिकम् / आदिक्षन् द्वादशे यामे निवृत्तिस्ते भविष्यति // किंकर्तव्यतया मूढो यावदास्ते नराधिपः / तावनिर्णीतवेलायां चरयुग्ममुपागमत् // *दिवंगतश्च श्रीकर्ण इति सद्यो निवेदिते / नृपस्ताम्बूलमुत्सृज्य कथमित्यनुयुक्तवान् // निशि प्रयाणं कुर्वाणः श्रीकर्णः कुम्भिपृष्ठभाक् / जितकाशिमदावेशान्निद्रामुद्रितलोचनः // . कण्ठावलम्बिसौवर्णशृङ्खलेन गरीयसा / न्यग्रोधपादलग्नेनोलम्बितः पञ्चतामगात् // कलौ त्वमेव सर्वज्ञः स्तुवन्निति पुनः पुनः / अक्षेपेण महीपालो जिनयात्रामसूत्रयत् // दुकलाच्छादितक्षोणीतललीलागतिक्रमः / नपः श्रीहेमसूरीणां दत्तहस्तावलम्बनः॥ पदे पदे महादानसत्रागारमहोत्सवैः / धर्मैकच्छत्रतां चक्रे शक्रः कल्याणकेष्विव // युग्मम् // अकुतोभयताहूतपुरुहूतसमृद्धिभिः / किल सङ्घमिषात् स्वर्गों भूमण्डलमवातरत् // द्विधोपदिश्यमानाध्वा प्रभुश्रीहेमसूरिभिः / धन्धुकनगरं प्राप भूपः पापव्यपोहधीः // स्वयं विधापिते तत्र प्रभोर्जन्मगृहावनौ / सप्तदशहस्तमाने विहारे झोलिकाभिधे // नृपः प्रभावनां कुर्वन् संयमी स्वेन्द्रियानिव / उपसर्गकृतो विप्रांश्चके विषयताडितान् // युग्मम् // दृष्टवर्धापनापूर्व प्राप्तः शत्रुञ्जये गिरौ / दृष्टे नाभेयबिम्बे तु योगीवानन्दमुद्वहन् / दुःखक्षयश्च मे कर्मक्षयश्च भवतादिना' / दण्डकप्रणिधानेन विभालेन भुवं स्पृशन् // यावदास्ते नृपस्तत्र वास्तवस्तुतिसंस्तवी / समयज्ञस्तदोवाच चारणो वाक्यचञ्चुरः // विशेषकम् // 1 A. कलिकीलनः। * नोपलभ्यते श्लोकं एषः A आदर्श। 2 B भवतादिति। 3 B त्रिभालेन / 470 79 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 96 500 श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं इकह फूलह माटि देइ जु नरसुरसिवसुहं'। तिणिस्यूं' केही साटि कटरे ! भोलिम जिणवरहं॥ श्रुत्वेति भूयो भूमीन्द्रः पाठयामास चारणम् / ददौ नवसहस्राणि नवकृत्व उदीरिते // 26. देवकोशप्रभृत्यर्थमेकदा रङ्गमण्डपे / अन्तराले धृतं स्थालं ससझेन महीभुजा // हारकेयूरदीनारमुद्रिकाकुण्डलादिभिः / भविकैर्भावनासारं क्षिप्यमाणैर्विभूषणैः॥ कश्चिदाजन्मदारिद्री भावनामनास्तदा / जीणचेलः पोलिकश्चिक्षेप द्रम्मपञ्चकम् // तद्विलोक्य प्रसन्नाम्याः प्रभुश्रीहेमसूरयः / मस्तकं धूनयामासुः पूरिता इव तद्गुणैः // तदा चौलुक्यराजेन्द्रः प्रभूनाचष्ट सादरम् / लघुदानेन भगवन्नत्र' का वश्चमत्कृतिः // षभाषे प्रभुभिर्भूप ! शृणु यचित्रकारणम् / व्ययन्ति लक्षमेवेह ये कोटीन्द्राः स्वभावतः // लक्षाधिपतयश्चात्र सहस्राणि वितेनिरे / महातीर्थे पुनन्ति खं सहस्रशाः शतैः पुनः // 94" राजन् ! पोट्टलिकश्चायं दारिद्यद्रुमकाननम् / ददावनय॑फलदं सर्वखं द्रम्मपञ्चकम् // ययाचे तमथो भूपः पुण्यं लक्षादिदानतः / स च सन्तोषतो नैच्छद् विस्मितो भूपतिस्ततः॥ बहुप्रकारं श्लाधित्वा मन्वानस्तुल्यधर्मिणम् / कृतपुण्यं पोट्टलिकं विससर्ज कृतादरम् // कृत्वा प्रभावनामत्यद्भुतां शत्रुञ्जये गिरौ / ययौ रैवतके राजा राजमानो गुरुश्रिया // तत्र चाकस्मिके छत्रशिलाकम्पे समुत्थिते / पौराणविदुराः सूरिप्रवरा नृपतिं जगुः // इयं छत्रशिला राजन् ! समकं समुपेतयोः / द्वयोः पुण्यवतोः शीर्षे किलाकस्मात् पतिष्यति // इत्यत्र सम्प्रदायोऽस्ति तदावां पुण्यवत्तमौ / यदीदं सत्यतामेति दुर्यशो दुर्धरं तदा // 501 तत् त्वमेव महीपाल ! नमस्कुरु जिनाधिपम् / भावपूजावदस्माकं नतिरप्यस्तु भावतः // नृपेण पुनरभ्यर्थ्य ससद्धाः प्रभवस्तदा / छत्रशैलेयमार्गेण प्रहिता हितभक्तिना॥ 503 संपनावसरे स्थित्वा पर्वताधः स्वयं नृपः / आशैवेयजिनं श्रेण्या स्नातकर्तृनधारयत् // खात्रारात्रिकमाङ्गल्यदीपप्रभृतिकक्रियाम् / करात्करण सञ्चार्य स्वयं चक्रे नराधिपः॥ 505 कृत्वाऽऽरात्रिकमाङ्गल्यं नृपोऽन्यस्मै प्रयच्छति / सोऽप्यन्यस्मै यावदन्ये जिनपादान्तिकेऽमुचन् // 506 भावनार्जितसत्पुण्यफलस्येव भवान्तरे / सर्वोपाधिसमृद्धायाः सामग्र्याः किमु दुष्करम् // 507 यात्रामासूत्र्य सुत्रामसमृद्धिस्पर्धिनीमसौ / सत्रैरामन्त्रयामास पृथ्वी पृथुपराक्रमः॥ 508 अथ शङ्कापनोदार्थ जीर्णप्राकारवर्मना / मुक्त्वा छत्रशिलामार्ग नव्यपद्याविधौ नृपः॥ 509. * पर्वतोपत्यकामारादाश्रीजिनपदाम्बुजम् / ददौ महाध्वजं स्फूर्जदुकूलपटनिर्मितम् // 510 आदिश्य वाग्भदं मत्रिराज राजन्वतीं भुवम् / ख्यापयन् प्राणमत् तीर्थमालामम्लानवैभवः // लक्षांत्रिषष्टिं द्रम्माणां पद्यानिर्माणकर्मणि / व्ययीचकार मत्रीन्द्रो गणना क गरीयसाम् // 27. नृपं संसुरनामानं विग्रहीतुं स राणकम् / सुराष्ट्रामण्डले प्रैषीदथोदयनमत्रिणम् // चतुरङ्गचमूसारः सचिवो दलनायकः / वर्धमानपुरं प्राप राज्यसारं हि मत्रिणः // 14. तत्राभ्यर्णतया शत्रुञ्जयं तीर्थ विवन्दिषुः / सैन्यं तत्रैव संस्थाप्य स्वयं नाभेयमानमत् // धृतधौतोत्तरासङ्गः सङ्गमुक्ताशयो यदा / सपयाँ कर्तुमारेभे श्रीनाभेयजिनेशितुः // तावन्नक्षत्रमालादीपाद वर्तिमपाहरत् / 'मूषकः वर्णशलाकामिव यत्कृत्यमूढधीः // 1B सुहई। 2 B सउँ। 3 B °वरह। 4 B भवानत्र। 5A पौराणि / 6 A मंत्री। 7 B मूषिकः / 8B'शिलाका / 502 5045 13 क. पा. च. 4 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 520 22 23 24 25 530 कुमारपालदेवचरितम। काष्ठप्रासादविवरे तां ज्वलन्तीं यदाऽक्षिपन् / मत्री ममाधिभरुन त्याजयामाय नां ततः // चित्तेऽथ तर्कयामास मत्री मतिमतां वरः / प्रासादेऽस्मिन् काष्ठमये नैत्योऽयं सहटो महान् // ज्वलन्ती यद्यसौ वर्तिमित्थमादाय कर्हिचित् / रहः सञ्चारयेत् क्वापि दारणं दारुणि क्षणम् // मिथः संसज्य काष्ठौधैः प्रासादोऽयं महानपि / तदा भज्येत निर्भाग्यवतामिव मनोरथः // ततः कारयितव्योऽसौ प्रासादोऽश्ममयो मया / चिरं च भविनः सन्तु वर्धमाना' मनोरथाः // ब्रह्मचर्यैकभक्तत्वप्रमुखानथ मत्रिराट् / जीर्णोद्धाराय जग्राहाभिग्रहालिनपादयोः॥ बलीयः सर्वकार्येभ्यः स्वामिकार्य नियोगिनाम् / विमृशन्निति मत्रीशः स्कन्धावारमुपे यिवान् // अभ्यमित्रीणतां भेजे भेजे नृपवलैस्ततः / श्रीमानुदयनो योद्धं स्वयमुत्तस्थिवानथ // अरातिप्रेरितापारप्रहारभरजर्जरः / नीतः स्खशिविरे मत्री वण्ठैरुत्पाद्य यत्नतः॥ खामिकार्ये गतैः प्राणैर्धन्यं मन्योऽपि धीसखः / शुश्रुवे नेत्रयोरश्रु वारि निर्झरणादिव // किं किञ्चिदन्तःशल्यं ते मत्रिन् / दोयते हृदि / पृष्ठे समीपगैरित्थं सोऽप्युवाच सगद्गदम् // श्रीशत्रुञ्जयतीर्थे च चैये शकुनिकाभिधे / जीर्णोद्धारचिकीर्षोर्मे देवर्णमवशिष्यते // तैरूचे नन्दनौ मत्रिन् ! वाग्भटा-ऽऽग्रभटौ तव / गृहीताभिग्रही तीर्थ'द्वयीमुद्धरिष्यतः // पर्यन्ताराधनाकामी कृत्वा देवार्चनाविधिम् / मुनिमन्वेषयामास साक्षीकारं समाधये // मुनेरभावतो वण्ठं तद्वेषमुपनीय ते / तस्मै निवेदयामासुस्तन्मुनीभावतः स च // ... ललाटं घट्टयंस्तस्य पादयोरादिदेववत् / चक्रे तसाक्षिकी मण्याराधनां धिषणाधनः // .. मुदिते मत्रिणि प्राप्ते परलोकपथीनताम् / वण्ठः प्रधानरुक्तोऽपि यतिवेषं न चागुचत् // चन्दनेनेव निम्वद्रुर्मत्रिवासनया परम् / वासितः पालयामास चारित्रं विमलाचले // मत्रिणोऽभिग्रहग्राही श्रीकरीधारकः स च / व्यावृत्य शेषकार्यार्थी श्रीपत्तनमुपेयिवान् // राजकार्याकुलत्वेन प्रस्तावाप्राप्तितः स तु / न चाविःकृतवान् स्वाभिप्रायं सचिवपुत्रयोः॥ चिरंतपःकृशीभूतः पृष्टो देशालिकोऽन्यदा / वाग्भटा-ऽऽम्रभटयोस्तत्तीर्थोद्धारऋणं जगौ // गृहीताभिग्रहौ तौ तु तीर्थोद्धाराय तत्क्षणम् / पयामासतुः सूत्रधारान् शत्रुञ्जये गिरौ / वर्षद्वयेन निष्पन्ने प्रासादे प्रेषितः पुमान् / वर्दापनिकया लेभे जिह्वां हेममयीं ततः // क्षणेन पुनरागत्य द्वितीयो मानवोऽवदत् / प्रासादः स्फुटितो मत्रिन् ! इति वज्रोपमां गिरम् // ततश्च वाग्भटो धर्मसुभटः स्थिरकर्मधीः / आपृच्छय कुमरक्ष्मापं दृढाभिग्रहसाग्रहः // कपर्दिनि महामात्ये निजमुद्रां नियोज्य च / चतुःसहस्रवाहानां प्रतस्थे शकुनैः शुभैः // शत्रुञ्जयोपत्यकायां सामग्रीपूरणेक्षणी / श्रीवाग्भटपुरमिति नवं पुरमवासयत् // दृढे दृढतरे कर्मस्थायेऽपि विहिते सति / स्फुटिते बहुशश्चैत्ये मत्री पप्रच्छ शिल्पिनः / / प्रासादे सभ्रमे वायुः प्रविष्टो न निरैति यत / तेन स्फुटति देवायं पक्कवालङ्कपिण्डवत // भ्रमहीने पुनश्चैत्ये दूषणं निरपत्यता / श्रुत्वेति तत्त्वदृग् मत्री मन्त्रयामास चेतसा // धर्मसन्तानमेवास्तु गत्वरेण कुलेन किम् / श्रीमतां भरतादीनां पङ्कौ भवतु नाम मे // दीर्घदृश्या विचार्येति वाग्भटो निजवाग्भटः / भ्रमभित्त्योरन्तरालं शिलापूरमपूपुरत् // वर्षत्रयेण सञ्जति विहारे कलशावधौ / श्रीपत्तनादुपानीय श्रीमन्सद्धं चतुर्विधम् // श्रीविक्रमनृपाद्वर्ष रुद्रार्क(१२११)अमितर्गतैः / प्रतिष्ठाप्य ध्वजारोपं कारयामास मनिराद // 1B वर्षमान। 2 B नतैः। 3 B द्वितयी। 4 A नावधि। 5 B कलशावधि / 550 51 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 560 67 श्रीमोमतिलकमूरिविरचितं श्रीशैलमयबिम्बस्य मूर्त यश इव स्वकम् / दधे परिकरं तत्र मम्माणीयखनीभवम् / श्रीवाग्भटपुरे राजपितुर्नाम्ना विधापिते / प्रासादे स्थापयामास पार्श्वनाथं सविस्तरम् // चतुर्विंशतिमारामांस्तीर्थपूजाकृते नृपः / ग्रासवस्त्रादिकं चान्यद् देवलोकाय दत्तवान् / सप्तषष्टियुतामेकां कोटिं वाग्भटमत्रिराट् / तीर्थोद्धारे व्ययीचके प्रतिष्ठायां पुनः पृथक् // 628. अथाऽऽम्रभटनामा श्रीभृगुकच्छपुरावनौ / शकुनीचैत्यमुद्धर्तुमारेभे श्रेयसे पितुः // नर्मदादिमहातीर्थव्यन्तरोपज्ञबाधया / शिलान्यासे कृते गर्ता मिमेलामूलचूलिकम् // अकस्मान्मिलिते गर्ने व्यापृता भूमिशोधने / कलौ गुणा इव सतां छादिताः कर्मकारिणः॥ पापार्जनमिदं पुण्यच्छलेनेति दयापरः / सपुत्रमार्यो मत्रीशस्तत्र झम्पां स्वयं ददौ // सहसाऽतिशयात् तस्य सन्तुष्टा नर्मदासुरी / निराचकार प्रत्यूहं दीपिकेव तमोभरम् // वस्त्राभरणसन्मानैः सन्तोष्य स्थपतीनथ / शैलानुवादं प्रासादं कलशान्तमचीकरत् // सङ्घ सनृपतिं श्रीमद्धेमसूरिपुरस्सरम् / श्रीपत्तनादुपानीयाहच्चैत्यं प्रत्यतिष्ठिपत् / / सङ्घस्यातुच्छवात्सल्यं कृत्वा स्वीयं च मन्दिरम् / अर्थिभिमुपितं चक्रे ध्वजारोपाय सञ्चरन् // सुव्रतस्वामिनश्चैत्ये हर्षोत्कर्षेण धीसखः / ध्वजं महाध्वजोपेतं दत्त्वा लास्यमसूत्रयत् // आरांत्रिकावताराय भूभुजाऽभ्यर्थितः स्वयम् / भट्टाय तुरगं दत्त्वा जग्राहारात्रिकं करे // श्रीमत्कुमारपालेन ललाटे तिलके कृते / द्वासप्तत्या नृपैः क्लुप्तचामरच्छत्रविस्तरः // स्थिरीकृतारात्रिकोऽसौ तदैवागतबन्दिने / स्वबाहोः कङ्कणं हैमं ददौ राजपितामहः॥ बलात्कारेण वाहुभ्यां धृत्वा कुमरभूपतिः / नीराजना-माङ्गलिक्यप्रदीपं निरपीपदत् // श्रीसुव्रतजिनं नत्वा गुरूंश्च गुरुभक्तितः / शीघ्रनीराजनाकर्महेतुं पप्रच्छ भूपतिम् // द्यूतकारो यथा द्यूते शिरसाऽपि पणायते / अतः परं शिरोदाता तथार्थिभ्यो भवानपि // सस्नेहमिति राज्ञोक्ते तद्गुणोद्रेकरञ्जिताः / श्रीहेमगुरवः प्राहुर्विस्मृतान्यस्तुतिव्रताः // किं कृतेन न यत्र त्वं यत्र त्वं किमसौ कलिः / कलौ चेद् भवतो जन्म कलिरस्तु कृतेन किम् // अनुमोद्य मनोमोदमेदस्विमनसावुभौ / क्षमापती गतौ सङ्घसहितौ तौ यथागतम् // अथ तत्रगतानां श्रीप्रभूणां खल्पवासरैः / गतः प्रान्तदशामाम्रभटोऽचिन्तितबाधया // ज्ञात्वा विज्ञप्तितस्तादृग् स्वरूपं प्रभवोऽपि हि / बहुविघ्नं हि कल्याणं कार्मण'ध्यानलीलया // प्रतिष्ठावसरे चैत्यशिखरे नृत्यतस्तदा / मिथ्यादृशां देवतानां दोषं द्रुतमबूबुधन् / साधारः प्रयत्नेन रक्षणीयो यथातथा / दयालुतैव च परं जिनशासनजीवितम् // इति व्योमाध्वनोत्पत्य यशश्चन्द्रेण संयुताः / भृगुकच्छपरिसरं सम्प्राप्ताः प्रभवः क्षणात् // मूलं मिथ्याक्सुरीणां प्रभवः सैन्धवां सुरीम् / अनुनेतुं तस्थिवांसः कायोत्सर्गेण तत्क्षणम् // दर्पण सैन्धवा देवी सावहेलं मुखाम्बुजात् / आकृष्य दर्शयामास स्खजिह्वां हेमसूरये // सरोषमथ सूरीन्द्रः प्रक्षिप्योदूखले कणान् / ताडयामास मुशलप्रहारैर्गणिपाणिना // निविडं पीडिता देवी गृह्णन्ती दशनाङ्गुलीः / ब्रुवाणा रक्ष रक्षेति पपात प्रभुपादयोः॥ मुञ्चामात्यमिति प्रोक्ते नाहमेकैव दोषभाक् / ग्रस्तोऽयं सर्वदेवीभिः खण्डशः पूर्वमेव च // इत्यादिदीनवचनामप्येनां रोषदारुणाः / निगृह्य सूरयोऽमात्यं मोचयामासुराशु तम् // 1B कर्मेति। 2 B व्रत। 170 71, 72 750 77 580 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 कुमारपालदेवचरितम् / प्रातः श्रीसुव्रतखामिप्रणिपातसमाहिताः / आसेदिवांसः प्रासादं तुष्टुवुर्जिननायकम् // संसारार्णवसेतवः शिवपथप्रस्थानदीपारा विश्वालम्बनयष्टयः परमतव्यामोहकेतूद्गमाः। किश्चास्माकमनोमतंगजदृढालानैकलीलाजुष ___ स्त्रायन्तां नखरदमयश्चरणयोः श्रीसुव्रतस्वामिनः॥ श्रीमदाम्रभटस्सेत्थमुपकृत्य महर्षयः / ययुर्यथागतं लोकहिताशेपप्रवृत्तयः // वाग्भटाम्रभटामात्यो चक्राते परमाहतौ / लाट-कुङ्कणदेशेषु विहारालङ्गतां भुवम् // 629. अथान्यस्मिन्नवसरे श्रीकुमारनरेश्वरः / कामन्दकीमहानीतिशास्त्रं शुश्राव कोविदात् // . 'पर्जन्य इव भूतानामाधारः पृथिवीपतिः। विकलेऽपि हि पर्जन्ये जीव्यते न तु भूपतौ॥' श्रुत्वेति प्राह 'भूभत रुपम्या तर्हि नीरदः।' चक्रुः सामाजिकाः सर्वे न्युञ्छनानीयता प्रभोः॥ 91 तिलोक्यावामुखं राजा तदानीं तु कपर्दिनम् / न व्यर्थं चेष्टते ह्येष इत्येकान्ते तमब्रवीत् // 92 खामिन् ! 'उपम्या' शब्दोऽयं सर्वशास्त्रेषु निन्दितः / छन्दानुवर्तिनस्त्वेतेऽभिनन्दन्ति वृथा प्रभुम् // 93 अराजकं वरं स्वामिन् ! न तु मुखौं महीपतिः / अकीर्तिस्ते च विद्वेपिमण्डलेषु प्रसर्पति // .. 94 उपगेयम् , उपमानम् , औपम्यम् , उपमा तथा / तुल्यार्थवाचकाः शब्दाः शुद्धा व्याकरणेष्वमी // 95 श्रुत्वेति युक्तोपन्यस्तं तद्वाक्यं लजितो नृपः / आस्थानोत्थायमेकान्ते पाठवेलामचीक्लपत् // 96 पञ्चाशद् वर्षदेश्योऽपि वर्षेणैकेन भूपतिः / वृत्ति-काव्यत्रयं कस्मादप्युपाध्यायतोऽपठत् // नित्यं पैचुष्यवैदुष्यसामग्र्या पक्वधीनृपः / विद्वत्सु बिरुदं लेभे श्री विचार चतुर्मुखः // कदाचिदन्यदा विश्वेश्वरनामा महाकविः / श्रीसोमनाथमुद्दिश्य प्रतस्थे काशिदेशतः // 99 अणहिल्लपुरे प्राप्तो हेमसूरीन्द्रपर्षदि / ससामन्तनराधीशसेवितं वीक्ष्य तं जगौ // 600 'पातु वो हेमगोपालः कम्बलं यष्टिमुद्वहन् / ' साभिप्रायं भणित्वेति बुधो यावद् विलम्पते // 601 नृपं निरीक्ष्य सक्रोधं प्रभूणां हीनवर्णनात् / तदिङ्गितज्ञो विज्ञो द्रागुत्तरार्धमुदाहरत् // 602 'पददर्शनपशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे / ' भूपोऽपि हृषितस्तस्मै तदासनमदापयत् // 603 पाण्डित्यगोष्ठीमासूत्र्य प्रभुभिः सह पण्डितः / सुतरां मुमुदे राजमराल इव मानसे // 604 रामचन्द्रादिसाधूनां परीक्षार्थमथो बुधः / 'व्याषिद्धेति' समस्यायास्तुरीयं पादमाख्यते // 605 रामचन्द्रमुनिर्यावत् प्रकाशं वक्तुमैहत / उत्कलोलमनाम्भोधिः श्रीकपर्दी तदाऽवदत् // 606 नैतस्याः प्रमृतिद्वयेन सबले शक्येऽपि धातुं दशौ, सर्वत्र प्रतिभाव्यते' मुखशशिज्योत्स्नावितानैरियम्। इन्धं मध्यगता सखीभिरभितो गमीलनाकेलिषु, व्यापिद्धा नयने मुग्वं च रुदती खे गर्हते कन्यका // 607. पञ्चाशतगहाणां मूल्यं ग्रैवेयकं नृपः / 'भारत्याः पद'भित्यस्याक्षिपत् कण्ठे कपर्दिनः // 608 इत्यादि पीलिम्पचित्तेन भूभुजा / स्थाप्यमानश्चिरं विश्वेश्वरः कविरुदाहरत् // 609 5 . 30 1B "न्यस्ततद्वाक्यं / 2 B पद। 3 B सर्वत्रापि च लक्ष्यते। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं कथाशेषः कर्णो धनिजनकृशा काशिनगरी, __ सहर्ष हेषन्ते हरिहरिति हम्मीरहरयः। सरस्वत्याश्लेषप्रणयलवणोदप्रणयिनि, प्रभासस्य क्षेत्रे मम हृदयमुत्कण्ठितमतः॥ इत्युक्तिव्यक्तिवैचित्रीचमत्कृतहृदा तदा / सत्कृतो भूभुजाऽगच्छद् यथास्थानं विशारदः // 31. सपादलक्षभूभर्तुर्भुक्तौ नागपुरे पुरे / चिकारयिपया जैनचैत्यस्य कुमरो नृपः // दूतेन ज्ञापयामास श्रीमद्वीसलभूपतेः / तस्मिन् भूमिमददाने जिनधर्मविरोधतः // कुमारपालभूपालः स्वयमागत्य सैन्ययुक् / रुरोध श्रीनागपुरं बिले तार्क्ष्य इवोरगम् // तदन्तः कुमरो नाम महामाण्डलिको बली / चिरं बहिःस्थसैन्येन रणं चक्रे शराशरि // नागानुभावतो दुर्ग ग्रहीतुं विग्रहेण तम् / न शेके गूर्जरेशोऽपि तदैको मागधोऽभणत् // एहन होइ धर धार सार पामारनरिन्दह। एहन होइ उज्जेणि जु पई भंजीय' बलचंडह / मंडवगढ नहु' एह जु पई असिवर धंधोलीय। उनुयाण" नहु एउजु पई निर्यभुयबलि तोलीय"। नागपुरह एहु" चालुकवइ जइ वेढिउ दहदिहि घणुं"। ता नमइ न कुंमरमंडलीय वाल एकु" भमुहह तणु // ततः सरोषो भूपालो महारम्भेण सर्वतः / भ्रान्त्वा चतुःप्रतोलीषु युयुधेऽभ्यन्तरादिभिः // कुमरोऽल्पबलात्माऽपि न मुमोच स्वसाहसम् / चारणोऽपि द्वितीयेऽहि राज्ञोऽये पुनरब्रवीत् // ___ पुढाउहिहिं फेरु फिर 'तुं दिणयर देउ जिम / जण कंचणगिरि मेरु कुमरह कुमरप्पाल तिम॥ स सुप्तोत्थापितः सिंह इव भूपालपुङ्गवः / दुर्ग निःपीडयामास पक्कमाम्रफलं यथा // तदा माण्डलिको भग्नशौर्यः कातरमानसः / लिखित्वा ज्ञापयामास युक्त्या शाकम्भरीपतेः // चूयहलं परिपकं विहलिय साहा सुनिभरं पवणं / डाला डल्लणसीला न याणिमो किं पि निव्वडइ // विज्ञाय गूर्जराधीशं दुर्जेयं सोऽपि बुद्धिमान् / नाजगाम स्वयं तस्मै लिखित्वा चेदमादिशत् // जइ जिप्पइ तां मंडलीय" जिणहि त गुज्जरराउ / तुह कुमरु यहु कुमरप्पालु दुन्निवि होहु किमाउ / प्रस्तावेऽस्मिंश्चित्रकूटे श्रीमत्कुमारभूपतेः / श्रीविग्रहनृपानीकैहीत हास्तिकं बलात् // तत्स्वरूपं माण्डलिकः कुमरः प्रेष्य चारणम् / ज्ञापयामास भृभर्तुरुपायोऽवसरे बलम् // गया जि साजण साथि घरि पइठा वइरी तणइ। कुमरपाल 'ति हाथि अवसु ति अवसरि बाहडिई॥ 19 620 // 23 244 1 इत्युक्तियुक्ति / B आदर्श पाठभेदाः-१ यह. 2 ज पइ. 3 भंजिय. 4 मंडवु गदु. 5 एहु. 6 धंधोलिउ. . सचयाणु. एहु. 9 तई. 10 नियभु. 11 तोलिउ. 12 नायउरु पहु. 13 घणउं. 14 कु.मरामंडलिय'. 15 A चालुक. 16 तणउं. . B फिरइ त। 3 B दिणयरु। 4 B जणु। 5B मणि। 6 B जिप्पहि ता मंडलिउ। 7 B जिणहिं। 8A बाति। 9 B बाहुडहिं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम्। . 42 शयिते गूर्जराधीशे किंवदन्तीमिमां तदा / हिताय श्रावयामास दारुणामपि चारणः // 29 गड फुटुं' वेयण गई विग्गहिं लया गइंद। मत्तउ' चालू चक्कवइ निम्भर आवइ' निंद' // बलीउ' भूयवइ जं करइ तं सहु करणह जुत्तु / मांडवि जग सरिस्यूं वयरा काई सूइ निच्चंत // इत्याकर्ण्य महीपालो जातो भावद्वयाकुलः / प्रधानश्च कृतः सन्धिः समये शोभतेऽखिलम् // श्रीनागपुरदुर्गान्तः प्रेष्य पञ्चकुलं नृपः / प्रासादं कर्तुमारेभे व्यारम्भो न तादृशाः(शाम् 1) // 632. कुमारपालभूपालः समं वीसलभूभुजा / सङ्ग्राममभिसन्धाय जगाम निजपत्तनम् // . राज्ञा वीसलदेवेन भगिनीपतिना समम् / जातं गतागतं दूतैः श्रीमतो गूर्जरेशितः // . सन्धिविग्रहिकस्तस्यान्यदा पृष्टो महीभुजा / मंग्या स क्षेममाहेति 'विश्वं ला ती ति विश्वलः' // तद्विचक्षणतागर्वखैर्वीकरणदक्षणः / श्रीकपर्दिमहामात्यमुत्तरायादिशन्नृपः॥ 'विः' पक्षी तद्वदेवासौ 'श्वलती'ति विखण्डिते / 'विग्रह राज' इत्याख्यां स प्रधानो यदाज्मणत् // 38 'विग्रौ' विनाशिको क्लुप्तौ ह-राजाविति खण्डिते / 'कविवान्धव' इत्याख्यां स्वस्य धारितवान् ततः॥ 39 सपादलक्षदेशेऽथ जिनधर्मप्रवृत्तये / कुमारपालभूपालः समियाय बलाधिकः // 640 समं विग्रहराजेन विगृह्य रणकौतुकी / जीवग्राहं तमादाय मुमोच भगिनीगिरा // तदीये मण्डले जैन धर्ममार्ग प्रवर्तयन् / तिलपीडनयत्राणि मिथ्यात्वमिव भञ्जयन् // सर्वत्र स्थापयन् धर्मस्थितिं सह निजाज्ञया / श्रीमांश्चौलुक्यराजेन्द्रो गूर्जरात्रामुपागमत् ॥-युग्मम् 43 633. एकदा देवबोधाख्यो योगी कपिलदर्शनी / जैनीभूतं नृपं श्रुत्वा स्खकलादुर्मदाशयः॥ चकोरहंससारङ्गाधिरूढैर्योगिभिर्वृतः / आगतः कदलीपत्राधिरूढो नृपपर्षदि // राजा सर्वोपधाशुद्धधर्मधौतमलोऽपि हि / स्फटिकोपलवत् किञ्चित् तत्कलारखितोऽभवत् // श्रीवाग्भटमहामात्यज्ञापिताः प्रभवोऽपि हि / योगशक्त्या परित्यज्य चतुरङ्गुलभूमिकाम् // विधाय पश्यतो राज्ञः स्वकार्य तूलवल्लघुम् / विस्मयं दलयामासुः स्मयं वादिगिरामिव // , नृपचित्तविमोहार्थं स एव पुनरन्यदा / प्रत्यक्षं मातापितरौ दर्शयामास विद्यया // पिता जगाद वत्स ! त्वं पाखण्डैविप्रतारितः / कुलाचारमनाचारवचनैर्मुक्तवानसि // जैनश्राद्धतया श्राद्धपिण्डादि न ददासि यत् / तेन दिक्षु क्षुधाक्षामो भ्रमामि क्ष्मापतौ त्वयि // 51 यन्मुक्तं तुच्छवाक्येन तिथिपर्वोत्सवादिकम् / न लेभेऽहमतस्तात ! प्रवेष्टुं सुरपर्षदि // 52 जाते त्वयि मया वत्स ! विहिता ये मनोरथाः। ते सर्वे विफलीभूता भूतावेशोऽस्ति किं नु ते // 53 दीनानना पुनर्माता ताम्यन्तीव तदाऽवदत् / वरं वन्ध्या वरं निन्दुर्वरं निःस्वसुता प्रसूः॥ 54 न पुनस्त्वादृशो वत्स ! सार्वभौमः सुतोत्तमः / यत्कृत्यैर्जायते माता हीनानामपि हास्यताम् ॥-युग्मम् 55 श्रुत्वेति दृढसम्यक्त्वसुधानिर्भरधीरपि / तद्वचो विषवेगेन मोहमित्थमधारयत् // वकर्मवशगा जीवाः म्वकृतं कर्मभुञ्जते / चराचरहितं जैनं वाक्यं चेति मतं मम // 57 पितृभ्यामुत्तमेवं च शृणोमि निजकर्णयोः / हितौ च मातापितरौ तदिदं किमु सूनृतम् // इत्याद्यमन्दसन्देहदोलान्दोलितमानसः / यावत्तस्थौ हृदालीनलयो योगीव भूपतिः // 44 650 56 6 सुहकरणह जुत्त. मांडिवि. B आदर्शगताः पाठभेदा:-१ गडफुडउ. 2 सुत्तउ. 3 आई. 4 निद्द. 5 बलियउ, 4 सरिसउ. वयक. १.सूयहिं निश्चितु. 1A तामर्थखा। 2 B दक्षिणः / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमोमतिलकमूरिविरचितं 72 73 श्रीवाग्भटमहामान्यज्ञापिताः प्रभवस्तदा / तत्कालं कलिलाकूतकलाकौशलशालिनः // कृत्वा जिनार्चनां सद्यो गुरुन्नन्तुमुपेयुपः / उपांशु दर्शयामास नृपतेरिन्द्रजालताम् // आविर्भूय त्रिभुवनपालः सुतमलीलपत्' / धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मि वत्स ! यजैनधर्म्यसि // सरकिन्नरनारीभिर्गीयमानं यशस्तव / श्रुत्वा सर्वाधिकं वत्स! स्वात्मानमभिमन्महे॥ उद्धृताः पूर्वजाः कृत्यैः कुलं चेदं पवित्रितम् / सत्पुत्र ! तव धर्मेण सुरसती रमामहे // श्रीवाग्भटपुरे पार्श्वचैत्ये मन्नामनिर्मिते / नित्यं कृतार्थयन्नस्मि पूजाकृत्यैर्निजं जनुः // तथैव माता वात्सल्यकुल्याभिस्तमसिञ्चत / प्रीणितात्मा नृपः स्मित्वा गुरूनाह सविस्मयम् // किमिदं कौतुकं नाथ ! विनाथीकृतमानसम् / पुरापीदृक्षमेवाहमद्राक्षमिदमन्यथा // सोलासं गुरवः प्राहुस्तथैवेदं यथा पुरा / ज्ञातव्या भ्रान्तिरेवेयं तत्त्वं त्वेकं जिनोदितम् // कृत्रिमाडम्बरैरन्यैर्धर्मः प्रौढिमवाप्यते / कर्तुढौंकयते प्रौढिं जैन एव परं विधिः॥ श्राद्धादौ दत्तपिण्डेन प्रियन्ते पितरो यदि / तदाऽन्यविहितं कर्म भुज्यतामपरैरपि / तथा च पुण्यलाभाय न केनापि प्रयत्यताम् / सर्वागमविरोधश्चानवस्था च सुदुर्धरा // सिद्धान्तदुग्धधाराभिधौतभ्रान्तिमलो नृपः / श्रीसर्वज्ञमतेनैव खं कृतार्थममन्यत // . इत्यादि वहुशो देशान्तरीयकृतविभ्रमैः / अदूपितमनोवृत्तिं सूरयश्चक्रिरे नृपम् // 34. [*द्विजाद्यैः प्रेरितः कश्चिद् भूपः पप्रच्छ प्रभुम् / किं जैनेष्वप्यदो राकाभूतेष्टादिमतान्तरम् // 74 // ऊचे प्रभुन भेदोऽयं तोयं तोयधरस्य वै / तडागाद्यापगाभिन्नभूस्थं किञ्चित्तु भिद्यते // 75 तद्वद् राका-चतुर्दश्याश्रयेऽप्येको जिनः पतिः / जिनदीक्षेषु सर्वेषु मिथः पर्यायवन्दनम् // 76 सर्वे जैनर्षयो मान्या जिनाज्ञा चेत्यतो न भित् / राकाद्या भिच पाश्चात्या नैव चिन्त्या विपश्चिता // 77 इत्यालप्य विलुप्य भूपतिमनःकालुष्यमागात् प्रभुः स्वस्थाने मुनिपुङ्गवांश्च सकलानाकार्य राकाङ्कितान् / मन्यध्वं मुनिनिर्मितां प्रथमतो यूयं प्रतिष्ठां ततो राकापाक्षिकमागमोक्तविधितः कुर्मो वयं चेत्यवक् // प्रपद्य ते स्वीयमुपाश्रयं ययू राकाङ्कगच्छेषु मिलत्सु सत्वरम् / इतः स्थविर्यार्यकया सुमुख्यया सूरिभाषे सुमतिः समौढ्यया // श्राद्धप्रतिष्ठां विजहन्न लजसे सिद्धान्तगुर्वोरपलापपापकृत् / / गुरुक्रमे चेत् किल कापि शिष्यणी न्यवेक्ष्यत त्वद्रुवतामलप्स्यत // तदा तया चण्डिकयेव भाषितः श्रीहेममूचे सुमतिस्त्वकम्पितः / स्याद् यद् यथा तच्च तथाऽस्तु निःकृपं प्रभोर्गणिपियति स्म तन्नृपम् // नृपाज्ञया श्रीसुमतौ तु गूर्जरधरां विहाय ब्रजिते च कुङ्कणम् / नश्यत्सु चान्येष्वपि निश्रया प्रभोः कति स्थिताः साधुतया च विश्रुताः // किञ्च - केकेय्युक्तिवशो व्यधाद् दशरथः पुत्रं प्रवासादरं, __ पद्मावत्युदितश्च कोणिकपो दुर्धायुधं बन्धुभिः। रङ्कः कङ्कसिकार्थमङ्कगसुतानुन्नोऽकरोत् पूरक्षयं तद्वत् पाक्षिकमेकतां व्रजदपीत्यस्थाद् व्रतिन्या गिरा / / 1B °मलालयत्। * एतानि कोष्ठकगतानि सर्वाण्यपि पद्यानि नोपलभ्यन्ते B सज्ञके आदर्श / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 कुमारपालदेवचरितम् / यतः-कुमारपाल भूपालवारके वतिनामभूत् / तां राकादुर्दशां मुक्त्वा पूजैवेति प्रसङ्गगीः // *] 84 635. कलिकालैकसर्वज्ञान् मन्वानस्तानथो नृपः / परन्छ साग्रहं पूर्वभवं भवविरक्तधीः // अनन्योपायतासाध्यं विमृशन्तस्तदाग्रहम् / सिद्धचक्रमहामत्रं सस्मरुर्विधिपूर्वकम् / / तदधिष्ठायकः शक्रसामानिकसुरोत्तमः / पूजाजपतपोहोमध्यानादिप्रीणितान्तरः / / कुमारपालभूपस्य कृतपुण्यस्य भाग्यतः / अमलस्वामिनामाऽसौ सर्वर्द्धिः प्रकटोऽभवत् // अभ्यर्थितस्तदा हेमसूरिभिर्गुणभूरिभिः / महाविदेहक्षेत्रेऽगान्न मोघप्रार्थनाः सुराः // गत्वा सीमन्धरस्वामिपादान्ते गूर्जरेशितुः / पूर्वजन्म तथा भाव्यसिद्धिप्रान्तमबुधत् // ज्ञापयित्वा च श्रीहेमसूरये हर्षभूरये / यथागतं गतो देवो गुरवो नृपमूचिरे // 636. इहैव जम्बूद्वीपे श्रीदेशे कर्णाटनामनि / कल्याणपुरमित्यम्ति यथार्थाभिधया पुरम् // तत्र श्रेष्ठी गुणश्रेष्ठो धनदो निरवद्यधीः / यो जिनधर्मलाभेन मेने खं धनदोपमम् // तद्धर्मचारिणी जैनधर्मकाननसारिणी / गङ्गा गङ्गाजलस्वच्छा पत्युश्छायेव देहिनी / / आबालकालं तद्गहे पुत्रवत्पालितश्विरम् / कर्मकृन्नायको नाम निर्मायो भद्रकाशयः // सोऽन्यदा लोकमद्राक्षीचतुर्मासकपर्वणि / पूजाविधितपोदानपौषधव्रतसोद्यमम् // अहो धन्या अमी लोका यथावसरमागतम् / समृद्धा धर्मकर्मादि सर्वं सत्यपयन्ति ये // मादृक्षाः पुनराजन्मदरिद्रा मृतका इव / अपूर्णवाञ्छास्ताम्यन्ति भग्नपक्षा इवाण्डजाः // तदद्य निजशक्त्याहमपि पुण्यमुपार्जये / तपःपूजादिकं श्रेष्ठिपृष्ठलग्नोऽनुवादये। सञ्जातभावनोलाससञ्चितैः पञ्चरूपकैः / पञ्चव्रतपदानीव रक्तपुष्पाण्युपाददे // 700 पूजोपकृतिभृच्चैये जगाम श्रेष्ठिना समम् / चेतोऽनुसारतो भाव्यसम्पदेव' विकस्वरः // 701 श्रेष्ठिनः कुर्वतः पूजां तस्य भावं च बिभ्रतः / कोऽपि पुण्यविशेषो यस्तं वेद यदि केवली // 702 अथारोपयतो "जिनविम्बे पुष्पपरम्पराम् / ददौ सोऽपि वपुष्पाणि पूजार्थं श्रेष्ठिनः करें / 703 श्वेतपुष्पैविधायाचा तत्पुष्पाणि तदन्तरे / तथा निवेशयामास रेजे पूजा यथाधिकम् // 704 नायकोऽपि तथा दृष्ट्वा प्रचुरानन्दतन्मनाः / भावनां भावयामास रको निधिधनं यथा // धन्योऽहं यस्य पुष्पाणि व्यापृतानि जिनार्चने / अधन्यां रसनां मन्ये या न वेति जिनस्तुतिम् // 706 इयता कृतकृत्योऽस्मि यत्पुष्पैरन्तरास्थितैः / सुतरां शुशुभे पूजा रत्नेमौक्तिकहारवत् // 707 महाटव्यामिव सरः कानने जातिपुष्पवत् / इयत्कालं गतं जन्म वृथा मेऽधर्मजीविनः' धन्यः सोऽवसरो भावी यत्राहमपि वासरे / स्वयं पूजां करिष्यामि स्वभुजोपार्जितैर्धनैः॥ 709 भावनां भावयन्नित्यं गुरुवन्दनकाम्यया / जगाम पौषधागारे श्रेष्ठिना सह सोऽप्यथ // 710 उपवासतपश्चक्रे वन्दित्वा गुरुपादयोः / न न्ययुक्त कापि कार्ये श्रेष्ठी तमपि तद्दिने / प्रातर्भद्रकतां वीक्ष्य तस्मै पारणकाहनि / परमान्नं ददौ खेच्छं पुण्यं हि फलदं सदा // दासोऽपि दध्यौ धर्मस्य प्रभावोऽयमहो ! महान् / अलब्धपूर्व यल्लेभे पायसं गौरवं च तत् // अयमेव महाधर्माऽनुचार्याऽतःपरं मया / आकण्टभोजनान्जातमजीण कुक्षिशूलयुक् // आराधनां कारयतः श्रेष्ठिनाऽसौ समाधिना / विपद्य गूर्जरात्रायां जातश्वीलुक्यसद्मनि // 99 705 . 1B संपदिव। 2B जैनबिंबे। 3 Bsधमजीविनः / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसरिविरचितं 720. 21 24 25 27 // पुत्रत्रिभुवनपालदेवम्य परमार्हतः / कुमारपालभूपालः सप्तव्यसनवारकः // सम्यक्त्वमाय श्रीहेमसूरिपादप्रसादतः / विधाम्यति महीपीटं जिनचैत्यविभूषितम् / / पञ्चाशद्वर्षदेशीयो राजाऽष्टादशदेशभुक् / त्रिंशद्वर्षाणि राज्यं च भुक्त्वा पुण्यपरो मृतः // तृतीयदेवलोकेऽसौ देवो भावी महर्द्धिकः / ततश्युत्वा विदेहेपूत्पद्य मोक्षं व्रजिष्यति // श्रुत्वेति जाग्रदुत्कण्ठातरङ्गितभवान्तरः / कर्णाटदेशे भूपालः प्रैपीचतुरमानुपान् // प्रत्यक्षं सर्वमेवेदं ज्ञात्वा तैस्तैरुपक्रमैः / सर्वोत्तरं महीपालो जैन धर्मममन्यत / / शङ्कादिदोपनिर्मुक्तं सम्यक्त्वं पालयन् दृढम् / एकच्छवं जैनधर्म चक्र केनाप्यभाणि यत् // आज्ञावर्तिषु मण्डलेषु विपुलेष्वष्टादशस्वादरा दब्दान्येव चतुर्दश प्रमुमरां मारिं निवा-जसा। कीर्तिस्तम्भनिभाचतुर्दशशतीसंन्यान विहारांस्तथा कृत्वा निर्मितवान् कुमारनृपतिर्जनो निजैनो व्ययम् // 633. अथ कच्छपराजस्य भार्यायाः पुष्पभूपतेः / महासत्या लक्षराजजनन्याः किल शापतः॥ श्रीमूलराजवंशीयराजन्यानां तदाद्यपि / लूतिनामा महारोगः सामति सुदुर्धरः ॥-युग्मम् // कुमारपालभूभर्तुताव्याधिर्यदा पुनः / बाधागधात् तदा सृरिः प्रणिदध्यौ तदायुषि // आत्मायुः सबलं वीक्ष्य तं च रोगवशायुषम् / अष्टाङ्गयोगाभ्यासन तं दोपमुदमूलयत् // चतुरशीतिवर्पायुमितैः श्रीहेमरसूरिभिः / निजावसानं निश्चित्यारेभेऽन्त्याराधनाक्रिया // तदर्थिदुःखिताय श्रीभूपाय प्रभवोऽभ्यधुः / षण्मासीशेपमेवास्ति तवाग्यायुरतः परम् // सन्तानाभावतो विद्यमान एव नराधिप ! / निजोत्तरकियां कुर्याः जागर्या धर्मवर्मनि // भाव्यराज्याधिपत्वादि कलिभावेन दुर्मदम् / उपदिश्य नृपस्याग्रे प्रभवोऽनशनं व्यधुः // पद्मासनसमासीनलयैकाग्र्यवशेन्द्रियाः / सूरयो दशमद्वारा चक्रिरे प्राणनिर्गमम् // संस्कारानन्तरं सूरेः पवित्रमिति भूपतिः / ववन्दे देहजं भस्म ततः सामन्तमण्डली // पौरामात्यादिवर्गश्च तथा मृत्स्नामपाहरत् / यथा तदारपदं हेलगतत्यद्यापि विश्रुतम् // प्रभुश्रीहेमसूरीणां शोकविक्रवमानसः / विज्ञप्तः सचिवै राजा सगद्गदमदोऽवदत // पुण्यार्जितशुभप्राप्तीन्न शोचामि प्रभूनहम् / सप्ताङ्गमपि साम्राज्यमिदं मे त्वप्रयोजकम् // तदेव खलु शोचामि राजपिण्डेन दूषितम् / यन्न लग्नं प्रभोरङ्गे मदीयमुदकाद्यपि // धर्मात्माऽपि स कप्टेन स्मारं स्मारं प्रभोर्गुणान् / षण्मासीमतिचक्राम च्यवनात इवामरः // अथ प्रभूक्ते दिवसे समाप्तायुः समाधिना / कुमारपालभूपालः खर्लोकमधितस्थिवान् // इति संक्षेपतः प्रोक्तं चरित्रं गूर्जरेशितुः।। कुमारपालप्रतिबोधशास्त्राद् ज्ञेयं विशेषतः / / इति श्रीरुद्रपल्लीयगच्छालङ्कारहारश्रीसंघतिलकसूरिशिष्यश्रीसोमतिलकसूरिविरचितं श्रीकुमारपालभूपालचरित्रं समाप्तं / [A आदर्शे-'सं० 1512 वर्षे आषाढमासे कृष्णपक्षे नवम्यां लिलेख / / '] 28 29 730 31 32 // 33 35 36 37 38 740 1B पदावतंसाचार्यश्री। 2 B प्रतिबोधचरित्रं / 3 B संक्षेपेण / कु. पा.च. 5 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालगुणोत्कीर्तनश्लोकाः। स्तुमस्त्रिसन्ध्यं प्रभुहेमसूरेग्नन्यतुल्यामुपदेशशक्तिम् / अतीन्द्रियज्ञानविवर्जितोऽपि यः क्षोणिभर्तुळधित प्रबोधम् // सत्त्वानुकम्पा न महीभुजां स्यादित्येप क्लुप्तो वितथः प्रवादः / जिनेन्द्रधर्ग प्रतिपद्य येन श्लाघ्यः स केषां न कुमारपालः // नृपस्य जीवाभयदानडिण्डिमैर्महीतले नृत्यति कीर्तिनर्तकी / समं मनोभिस्तिमिकेकितित्तिरिस्तभोरणकोडमृगादिदेहिनाम् // द्यूतासवादीनि नृणां निषेधादिहैव सप्तव्यसनानि भूपः / दुष्कर्मतो दुर्गतिसंभवानि परत्र तेषां त्वमितानि तानि // . पदे पदे भूमिभुजा निवेशितैर्जिनालयैः कामनदण्डमण्डितैः / निवारिता वेत्रधरीरिवोद्धृतैः स्फुरन्ति कुत्रापि न केऽप्युपद्रवाः॥ -श्रीसोमप्रभाचार्यः / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत-गद्य-पद्यमयः कुमारपालप्रबोधप्रवन्धः। // अहं नमः॥ 1. खयं कृतार्थः पुरुषार्थभावैर्जगाद यस्तान जगतां हिताय / . नाथः प्रजानां प्रथमः पृथिव्यां जीयाद् युगादौ पुरुषः स कोऽपि // 1 // 2. प्रणमामि महावीरं सर्वज्ञं पुरुषोत्तमम् / . सुरासुरनराधीशैः सेव्यमानपदाम्बुजम् // 2 // . परा मनसि पश्यन्ती हृदि कण्ठे च मध्यमा। मुखे च वैखरीत्याहुर्भारती तामुपास्महे // 3 // अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया। नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः // 4 // 11. सकलसुरासुरनरनिकरनायकशिरःशेखरायमाणपादारविन्दश्रीसर्वज्ञोपज्ञपथपान्थप्रष्ठस्य कलिकालसर्वज्ञ-. श्रीहेमसूरिगुरूपदेशविवेकविशेषप्राप्ताशेषभूवलय डम्य सकलजन्तुजातजीवातुजीवदयाधर्मनिष्ठस्य निजभुजबलकलितसकलभूपालकुलविजयविलसद्यशःप्रतापगरिष्ठस्य श्रीमारपालभूपालम्य प्रारभ्यतेऽयं प्रयोधप्रयन्धः। तत्र केऽपि जिज्ञासवः प्रश्नयन्ति-'कोऽयं कुमारपालभूपाला, कश्चायं कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिगुरुः / कयं च तस्य प्रतिबोधः १-इति सर्वमिदमावेद्यमानं श्रूयताम् / * 62. तथाहि-अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतक्षेत्रे युगलधर्मकाले प्रवर्त्तमाने तृतीयारकपर्यन्ते सप्तकुलकराः पुराऽ- . भूवन् / तेषु सप्तमः श्रीनाभिकुलकरः, तस्यादियोगिनी मरुदेविखामिनी धर्मपत्नी बभूव / तयोः पुत्रः सकलधर्मार्थकाममोक्षाणां चतुःपुरुषार्थानां प्रथमः प्रसाधकः, परेषामुपकाराय प्रथमोपदेष्टा, प्रथमः पुरुषः, प्रजानां सम्यग्योगक्षेमकरणात् प्रथमोः नाथः, शैशवे प्रचुरेक्षुयष्टिकृतावष्टम्भहृष्टत्वात् प्रणामागतेन्द्रस्थापितेक्ष्वाकुवंशः, समग्रैश्वर्यादिगुणोपेतत्वात् प्रथमभगवान् , प्रथमो जिनः समजनि / तस्मिंश्वेश्वाकुवंशे क्रमेण षट्त्रिंशद् राजकुलान्यभूवन् / तेषु महापुरुषरत्नसंकुले श्रीचौलुक्यकुले षट्त्रिंशलक्षग्रामाभिरामे कन्यकुब्जदेशे कल्याणकटकपुरे . श्रीभूयराजा राज्यं करोति / तेन राज्ञा स्वपुत्र्या महणल्लदेव्या गूर्जरधरित्री कञ्चकसम्बन्धे दत्ता / 63. इतश्च गूर्जरात्रैकदेशे वढियारदेशे पंचासरग्रामप्रदेशे बहिः श्रीशील[गुण] सूरयः शकुनावलोकनार्थ गता वनगहनमध्ये वृक्षशाखानिबद्धझोलिकं बालकमेकं दृष्ट्वा समीपस्थतन्मातरमूचुः-'भद्रे ! काऽसि त्वम् ? / ' तयोक्तम् - 'राजपत्नी अहम् / कन्यकुजदेशीयश्रीभूयराजभयेन चापोत्कटकुलकमलकमलवन्धोरस्य पुत्रस्य गोपनार्थमत्र स्थिताऽस्मि'। ततः श्रीसूरिभिरपराह्वेऽपि तदृक्षच्छायामनमितामालोक्य 'कोऽप्ययं महानरेश्वरो . भावी'ति तत्वरूपं श्राद्धानामावेद्य तस्य रक्षा कारिता / स च बालकः श्रीगुरुदत्तवनराजनामाऽष्टवार्षिको / राजचिरैः क्रीडन् परवालकासह्यतेजाः समभूत। 5. यतः-पीऊण पाणियं सरवरंमि पिडिं न दिति सिहिडिंभा। होही जाण कलावो पयइ चिअ साहए ताण // 1 // Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 पुराननाचार्यसंगृहीत 64. ततः श्राद्धर्मातुः समर्पितः सन् स चौरमातुलेन सह धाव्यादौ परिग्रमन् , अन्यदा काकरग्रामे कसापि पनिनो गृहे खात्रं दत्वा प्रविष्टो दधिभाण्डे करे पतित सति भुक्तोऽहमति सर्व हित्वा गतः / प्रातस्तत्पश्या श्रीदेव्या गोरसे हस्ताङ्गुलिचिह्नानि घृतभृतानि दृष्ट्वा 'कोऽप्ययं महापुरुषो भाग्यवान्' इति तं बान्धवत्वेन प्रतिपथ, 'तं दृष्ट्वा मोक्ष्यामी'ति कृतप्रतिज्ञा / तत्खरूपमाकर्ण्य रात्री समागतो धनराजो गुप्तवृत्त्या भोजनवनादिना ' सत्कृतो 'मम राज्याभिषेके त्वयैव भगिन्या तिलकं कार्य'मिति प्रतिज्ञाय गतः। 65. अन्यदा वनराजेन कोऽपि वने जांबाको वणिक् रुद्धः / शरपञ्चकमध्यात् , शरद्वयं भूमौ मुञ्चन् कारणं पृष्टः प्राह-'यूयं त्रयो जनाः, शरास्तु पञ्च; तेन द्वाभ्यामधिकाभ्यां किं प्रयोजनमिति'-प्रोक्ते 'कोऽप्ययं सत्त्वशाली शूरः पुमान् , मम राज्यकाले महामात्यो भावी'ति मुक्तो जांबाकः कृतप्रणामः किमपि शंबलादिकं दत्त्वा गतः। एकदा गूर्जरपंचकुलं षण्मासैरुद्वाहितसुराष्ट्रामण्डलं चतुर्विंशतिलक्षहैमनाणकान् चत्वारिंशतानि जात्यतुरंगमान्. " लात्वा व्याधुट्यमानं पथि वनराजेन हत्वा सर्व जगृहे / ततो वर्ष यावत् कालुंभारवने स्थितिं कृत्वा कन्यकुजस्थितिरुत्थापिता। 66. ततो नवीनपुरनिवेशाय भूमिं विलोकयता वनराजेनाऽणहिल्लो नाम गोपः प्राप्तः / तेन यत्र शशकेन वा त्रासितस्तत् स्थानं दर्शितम् / ततस्तन्नाना अण हिल्लपुरं पत्तनं सकलवास्तुविद्याविचारपुरःसरप्राकारप्रतोली-परिखा-प्रासाद-विहार-हर्म्य-हम्तिशाला-तुरंगमशाला-भांडागार-कोष्ठागार-आयुधशाला-राजसभा॥ अलंकारसभा-स्नानगृह-भूमिगृह-धर्मशाला-दानशाला-सत्रागार-पानीयशाला-नाट्यगृह-क्रीडागृह-शांतिगृहशिल्पशाला-चन्द्रशालादिभिर्विशालं स्थापितम् / ततः पंचाशद्वर्पवयसो वनराजस्य राज्याभिषेकः / श्रीपत्तने संवत् 802 वर्षे श्रीशील[गुणसूरिभिर्जेनमंत्रै राज्यस्थापना कृता / तदा पुरा प्रतिपन्नभगिन्या तिलकश्चके। तस्या महाप्रसादः / जांबाकः सर्वराजकार्यक्षमा महामात्यः समभृत् / श्रीगुरूपदेशेन राजा वनराजः पुण्यवान् कृतज्ञः पंचासरग्रामे श्रीपार्श्वनाथप्रतिमालंकृतनिजाराधकभूर्तियुतं प्रासादमचीकरत् / 6. गूर्जराणामिदं राज्यं वनराजा प्रभृत्यपि। ___ स्थापितं जैनमन्त्रैस्तु तद् द्वेषी नैव नन्दति // 1 // इति लोके प्रसिद्धिरभूत् / ततः षष्टिवर्ष वनराजस्य राज्यम् / पञ्चत्रिंशद्वर्ष तत्पुत्रयोगराजराज्यम् / पञ्चविंशतिवर्षाणि क्षेमराजराज्यम् / एकोनत्रिंशद्वर्षाणि भूयराजराज्यम् / पञ्चविंशतिवर्ष वैरसिंहराज्यम् / 5 पञ्चदशवर्षे रत्नादित्यराज्यम् / सप्तवर्ष सामन्तसिंहराज्यम् / एवं चापोत्कटकुले सप्तराजानोऽभूवन् / एवं संवत्सर (वर्षाणि) 196 / ततो दोहितृसन्ताने चौलुक्यकुले राज्यं गतम् / / 67. कथं गतम् ?-तथा चाह-कन्यकुब्जीयचौलुक्य श्र....त्य (भूयड ?) राजस्य सुतः कर्णादित्या, तत्पुत्रचन्द्रादित्य-तत्पुत्रसोमादित्य-तत्पुत्रो भुवनादित्यः। तस्य राज-बीज-दडक्कनामानस्त्रयः पुत्राः / प्रथमो राजकुमारः। " 7. दीसइ विविहचरियं जाणिजइ सुजण-दुजणविसेसो। अप्पाणं च कलिवइ हिंडिजइ तेण पुहवीए // 1 // __ इति विचार्य देशान्तरेषु परिभ्रमन् श्रीपत्तने समायातः / सामन्तसिंहं नृपं वाहकेली कुर्वन्तं दृष्ट्वाञ्चघाते राज्ञा दत्ते राजकुमारोऽनवसरदत्तेन कशाघातेन पीडितो हा हेति' शब्दमकरोत् / राज्ञा कारणं पृष्टोऽवदत्'देव ! अश्वे कृते शोभनगतौ कशाघातो मम मर्माभिघातः संजातः / ततो राज्ञा तस्यार्पितोऽश्वः / तेन चाश्व* शिक्षाकुशलेन दर्शितं वाहकेलीकौतुकम् / जातस्तयोः सदृशो योगः। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध 8 यतः-अश्वः शस्त्रं शास्त्रं याणी घीणा नरश्च नारी च / पुरुषविशेष प्राप्ता भवन्त्ययोग्याश्च योग्याश्च // 1 // ततः सामन्तसिंहनृपेणाचारादिभिर्महत्कुलमाकलय्य; 9. यतः-अभणंताण वि नजइ माहप्पं सुपुरिसाण चरिएण। कि बुलंति मीओ जाओं सहस्सेहिं घिपंति // 1 // इति सञ्चिन्त्य राजकुमारस्य महताग्रहेण लीलादेवानाम्नी स्वभगिनी ददे / अन्यदा कालान्तरे साऽऽपनसत्त्वा जाता / तस्याकाण्डमरणे सचिवैरुदरं विदार्य कर्पितमपत्यम् / मूलनक्षत्रमूले जातत्वात् , मूलराजोऽयमिति नाम कृतम् / तजन्मतो राज्यादिवृद्धिं दृष्ट्वा मदमत्तेन सामन्तसिंहेन स राज्येऽभिषिच्यते, गतमदेन चोत्याप्यते / तदादि चापोत्कटानां दानमुपहासाय जातम् / तदुक्तम्-'चाउडा दाति / ' एकदा मदमत्तेन स्थापितो राज्ये मूलराजः। तेन च विकलोऽयं मातुल इति विज्ञाय विनाशितः, ग्रहीतुं(तं?) स्वयमेव राज्यम् / .. संवत् 998 वर्षे जातो राज्याभिषेकः / / 68. स चातुलबलपराक्रमः प्रतापाक्रान्तसकलसीमालभूपालः खबलेन लाखाकं नृपं जितवान् / तत्स्वरूपं यथा-परमारवंशे कीर्तिराजसुता कामलता, शैशवे सखीभिः सह रममाणाऽन्धकारे प्रासादस्तम्भान्तरितं फूलहडाभिधं पशुपालं वृत्वा, ततः कतिपयैर्वः प्रधानवरेभ्यो दीयमाना पतिव्रताग्रतपालनाय तमेवोपयेमे / तयोः पुत्रो लाग्वाकः / स च कच्छाधिपः सर्वतोऽप्यजेयः / एकादशवारांस्त्रासितमूलराजसैन्यः / एकदा // कपिलकोटे स्थितो मूलराजेन रुद्धः / द्वन्द्वयुद्धं कुर्वाणस्तस्य अजेयतां दिनत्रयेण विमृश्य तुर्रा दिने निजकुलदैवतमनुस्मृत्य, ततोऽवतीर्णदैवतकलया लाखाको निजन्ने / तस्याजौ भूपतितस्य वातचलिते श्मश्रुणि पदं स्पृशन् मूलराजस्तजनन्या पतिव्रतातीव्रव्रतनिष्ठया 'लूतारोगेण भववंश्या विनश्यन्तु' इति शप्तः मूलराजा पञ्चपञ्चाशद् वर्षाणि यावत् राज्यं कृत्वा, एकदा सान्ध्यनीराजनानन्तरं ताम्बूले कृमिदर्शनात्, पूर्व गजादिदानं दत्त्वा संन्यासपूर्व दक्षिणचरणाङ्गुष्ठे वह्निमोचनं कृत्वा अष्टादशदिनैः परलोकमगात् / 69. ततः त्रयोदशवर्षाणि चामुंडराजस्य राज्यम् / षण्मासान् यावद् राज्यं वल्लभराजस्य / एकादशवर्षाणि षण्मासान् दुर्लभराजराज्यम् / स वपुत्र श्रीभीमदेवं खराज्ये न्यस्य स्वयं वैराग्यवान् तीर्थयात्रां कुर्वन् मालवके गतः / श्रीमुंजेन 'छत्रादिकं मुञ्च वा युद्धं कुरु' इत्युक्तो धर्मान्तरायं मत्वा प्रशमवान् कार्पटिकवेषेण यात्रां कृत्वा परलोकमसाधयत् / / तत्स्वरूपं भीमेन ज्ञातम् / ततः प्रभृतिराजद्वयविरोधः / भोजराजेन सार्द्ध भीमदेवस्य [विग्रहः ] / 610. तस्य द्वे राज्यौ / एका वउलदेवीनानी पण्याङ्गना, पत्तनप्रसिद्ध रूपपात्रं गुणपात्रं च / तस्याः कुलयोषितोऽपि अतिशायिनी प्राज्यमर्यादां नृपतिर्निशम्य तद्तपरीक्षानिमित्तं सपादलक्षमूल्यां क्षुरिकां निजानुचरैस्तस्यै ग्रहपके दापयामास / औत्सुक्यात् तस्यामेव निशि बहिरावासे प्रस्थानलममसाधयत्। नृपतिर्वर्षद्वयं यावन्मालवमंडले विग्रहाग्रहात् तस्थौ / सा तु बकुलदेवी तदत्तग्रहणकप्रमाणेनैतद्वर्षद्वयं परिहृतसर्वपुरुषसंगा चङ्गशीललीलयैव तस्थौ / निःसीमपराक्रमो भीमस्तृतीयवर्षे खं स्थानमागतो जनपरंपरया तस्यास्तां प्रवृत्तिमवगम्य तामन्तःपुरे , न्यधात् / तदङ्गजो क्षेमराजः। द्वितीया राज्ञी उदयमती, तस्साः सुतः कर्णदेवः / क्षेमराज-कर्णदेवी तत्पुत्रौ भिन्नमातृकौ / परस्परं प्रीतिभाजौ यथा राघव-लक्ष्मणौ // 1 कर्णमातुस्ततस्तेन भीमदेवेन चैकदा / प्रतिपन्नं राज्यदानं श्रीकर्णस्य लघोरपि // 2 * Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरावनाचार्यसंगृहीत वशीकर्तुमिव स्वर्ग भीमदेवे दिवंगते / द्विचत्वारिंशद वर्षाणि राज्यं कृत्वा मनोरमम् // सौदर्यवर्यगांभीर्यप्रज्ञावुद्धिगुणोत्तमे / राज्यक्षमे क्षेमराजे कर्णो राज्यं न वाञ्छति // 4 राम इव क्षेमराजः स्मृत्वा भाषां पितुम्ततः / कर्ण महोपरोधेन स्वयं राज्ये न्यवीविशत् // 111. तस्य राज्ञी मयणल्लदेवी / तस्याः स्वरूपं किंचिदुच्यते- शुभकेशिनामा कर्णाटराद तुरंगमापहतः -प्रान्तरान्तभूमौ नीतः / कुत्रापि पत्रलवृक्षच्छायां सेवमानः प्रत्यासन्नदावपावके प्राणानामाहुतिं चाकरोत् / तत्सनुः जयकेशिनामा तद्राज्ये सचिवैरभिषिक्तः / तस्य राज्ञी विजया / तत्सुता मयणलदेवी नाम्नी समजनि / सा च शिवभक्तैः श्रीसोमेश्वरस्य नाग्नि गृहीतमात्र एव इति पूर्वभवमस्मात्-ि 'यत् पूर्वभवेऽहं ब्राह्मणी द्वादशमासोपवासान् कृत्वा, प्रत्येकं द्वादशवस्तूनि तदुधापनके दत्त्वा, श्रीसोमेश्वरनमस्याकृते याहुलोडनगरं प्राप्ता / तत्करं दातुमक्षमाऽग्रतो गन्तुमलभमानाच्च-"अहमागामिभवेऽस्य करस्य मोचयित्री भूयासं" इति कृतनिदाना विपद्यात्र' " जाता' -इति पूर्वभवस्मृतिः / अथ सा श्रीबाहुलोडकरमोचनाय गूर्जरेश्वरं प्रवरं वरं कामयमाना मातरं प्रति तं वृत्तान्तं निवेदितवती। जयकेशिराज्ञाऽपि तं व्यतिकरं ज्ञापितः श्रीकर्णः। स्वप्रधानपुरुषैः मयणल्लदेव्याः कुरु निशम्य तस्मिन्मन्दादरे, तस्मिन्नेव राज्ञि निर्बन्धपरां तामेव स्वयंवरां प्राहिणोत् / अथ श्रीकर्णनृपो गुप्तवृत्त्या खयमेव तां कुत्सितरूपां विलोक्य सर्वथा निरादरपरो जातः / ततः सा दिक्कन्याभिरिव मूर्तिमतीभिरष्टामिः सहचरीभिः सह नृपतिहत्याकृते प्राणान् परिजिहीर्षः, श्रीउदयमत्या राज्या तासां विपदं द्रष्टुमक्षमतया तामिः सह "प्राणसंकल्पश्चके। 10. यतः-स्खापदि तथा महान्तो न यान्ति खेदं यथा परापत्सु / ____ अचला निजोपहतिषु प्रकम्पते भूः परव्यसने // 1 // __ इति न्यायात्, तदाग्रहादेव, अनिच्छुनापि सर्वथा श्रीकर्णेन सा परिणिन्ये / तदनन्तरं दृग्मात्रेण सर्वथा तामसम्भावयन् , कस्यामधमयोषिति साभिलाषं नृपं मुंजालमंत्री कञ्चुकिना विज्ञाय, तद्वेषधारिणी मयणलदेवीं * ऋतुस्नातामेव रहसि प्राहिणोत् / तामेव स्त्रियं जानता नृपतिना सप्रेम भुज्यमानायास्तस्या आधानं समजनि / तदा च तया संकेतज्ञापनाय नृपकरात् नामाङ्कितमङ्गुलीयं निजाङ्गुल्यां न्यधायि / प्रातः तदुर्विलसितात् प्राणपरित्यागोधताय नृपतये स्मार्तेस्तप्तताम्रमयपुत्तलिकालिङ्गनमिति निवेदिते, प्रायश्चित्ताय तत्तथैव चिकीर्षवे, स मंत्री यथावदथावदत् / सुलग्ने जातस्य तस्य सूनो पतिना जयसिंह इति नाम निर्ममे / स बालकत्रिवार्षिकः सवयोभिः समं रममाणः सिंहासनमलंचक्रे। तद् व्यवहारविरुद्धं विमृश्य नृपेण पृष्टेनैमित्तिकैस्तस्मिन्नेवाभ्युदयिनि लमे निवेदिते . राजा तदैवाभिषेकं चकार / वयं तु देवयात्रायां गन्तुमना अभूत् / पालयत्यन्यदा राज्यं जयसिंहे नरेश्वरे / चचाल देवयात्रायां कर्णः कर्ण इवापरः॥ 6 श्रीदेवपत्तनादर्वाक् गव्यूतैः सप्तभिः स्थितः / प्रासादं सोमनाथस्य दृष्ट्वाऽभिग्रहमग्रहीत् // 7 यथा- पापक्षयं हारं चंद्रादित्याख्यकुंडले / श्रीतिलकमंगदं च परिधाय समाहितः // * यदा सोमश्वरं देवं पूजयिष्यामि भक्तितः / भोक्ष्ये तदाशनं पानं तांबूलमपि नान्यथा // स्नात्वा प्रभासे श्रीकणों यदायाचत भूषणम् / कोशाधिपस्तदा स्माह नादिष्टं स्वामिभिस्ततः // आभरणं पत्तनेऽस्थात् विपण्णश्च ततो नृपः / तदा मदनपालाख्यो मंडलीकोऽब्रवीदिति // मा विपीद महाराज ! मत्रसिद्धिधरा यतः / मया सन्ति सहानीताः श्रीधनेश्वरसूरयः // अथ च राज्ञाभ्यर्थितैस्तैरणहिल्लपत्तनात् / आकृष्टिमन्त्रेणाकृष्याभरणं तत्समर्पितम् // संपूर्णाभिग्रहो राजा प्राह सूरिवरं प्रति / युष्माभिर्जीवितं दत्तं ममाभिग्रहपूरणात् // गृहाणं तदिदं राज्यमित्युक्तः सूरिरब्रवीत् / रक्ष जीववधं राजन् नवरात्रद्वयेऽपि हि // Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध तथेति कृत्वा संसाध्य सुराष्ट्रामण्डलं नृपः / चकार वामनस्थल्यां सज्जनं दण्डनायकम् // 15 ततो मदनपालेन विज्ञप्तः कर्णभूपतिः / साधं धनेश्वराचार्यरारूढो रैवताचलम् // सज्जनोऽपि स्वगुरुभिः श्रीभद्रेश्वरसूरिभिः / चतुर्विधेन संघेन सार्ध राजानमन्वगात् // श्रीनेमिभवनं जीर्ण वीक्ष्य काष्ठमयं ततः / सज्जनो गुरुणादिष्टो जीर्णोद्धारकृते कृती // 11. यतः-जिणभुवणाई जे उद्धरंति भत्तीए सडियपडियाई / ते उद्धरंति अप्पा भीमाओ भवसमुद्दाओ // 1 // 12. अथवा-अप्पा उद्धरिओ चिय उद्धरिओ तह य तेहिं नियवंसो। ___ अन्ने य भवसत्ता अणुमोयंता य जिणभवणं // 2 // - युक्तमिदमुपदेशकथनं साधूनाम् / यतः राया-अमच्च-सेट्टी-कुटुंबिए वावि देसणं काउं। . जिण्णे पुवाययणे जिणकप्पी वावि कारवइ // 3 // जीर्णोद्धाराय विज्ञप्तः सज्जनेन नृपस्ततः / सुराष्ट्रोद्राहितं दत्वाऽणहिल्लपुरमाययौ // अथ भद्रेश्वरः सूरिः सजनेन सहाष्टमम् / तपः कृत्वाऽम्बिकादेवीमाह्वानयददीनधीः // प्रत्यक्षीभूय साऽप्यूचे युवाभ्यां किमहं स्मृता / सूरिराह नेमिचैत्यमुद्धरिष्यति सज्जनः॥ तदेनमनुजानीहि पाषाणखनिमादिश / अंबाऽप्यूचे भवत्वेतदल्पायुः पुनः सजनः॥ दण्डाधिपः प्राह कार्यस्तीर्थोद्धारो विशेषतः / परलोकप्रस्थितानां पाथेयं धर्म एव यत् // 14. दीपे म्लायति तैलपूरणविधिः स्तोयं द्रुमे शुष्यति, प्रावारो हिमसंगमे जलगृहं ग्रीष्मज्वरोजागरे / निर्वातं कवचं शरव्यतिकरे रोगोद्भवे भेषजम् , धर्मो मृत्युमहाभये सति सतां संसेवितुं युज्यते // 1 // अम्बानुज्ञां ततो लब्ध्वा पाषाणस्य खनिं च सः / श्रीनेमिचैत्यं षण्मास्यां कलशान्तमकारयत् // 25 ज्येष्ठस्य सितपञ्चम्यां शिरोऽर्त्याऽऽत्र्तोऽथ सजनः। अम्बादेवीवचः स्मृत्वा जातपंचत्वनिश्चयः॥ 26 आदिश्य परशुरामं स्वपुत्रं ध्वजरोपणे / भद्रेश्वरगुरोः पार्थे संस्तारव्रतमग्रहीत् // दिनाष्टकं पालयित्वाऽनशनं सजनो मुनिः / दिवं जगाम पुत्रोऽथ ध्वजारोपं व्यधापयत् // 28 612. द्वयोः राज्ञो कत्रावस्थानं युक्तमिति आशापल्लीनिवासिनं प्रबलभुजबलशालिनं आशाकं भिलं - जित्वा कर्णावतीं पुरीं विधाय, 29 वर्षाणि राज्यं कृत्वा पञ्चत्वमाप / अत्रान्तरे परशुरामेणाचिन्ति-राजा जयसिंहनामा दण्डं सोधयिष्यति तदा किं भावी / तदा वामनस्थलीनिवासिभिर्व्यवहारिभिर्दण्डदानं प्रतिपन्नम् / अथ पञ्चत्वमापन्ने कर्णदेवे महीपतौ / श्रीमान् जयसिंहदेवः स्वयं राज्यमपालयत् // 29 ततः समुद्रमर्यादा मही तेन वशी कृता / सिद्धो बर्वरकश्वाथ सिद्धराजस्ततोऽभवत् / / 30 - इति घनतरेषु देशेषु निजाज्ञां जगन्मान्यां दापयित्वा वलमानो रैवताचलासन्नां वामनस्थली प्राप / " तत्र दण्डनायकमाकार्य दण्डमयाचत / दण्डाधिपेनोक्तम्-श्रीरैवताचलोपरि महाऽभयस्थाने निक्षिप्तोऽस्ति / ततो राजा रैवताचलं गन्तुमिच्छविप्रैर्मात्सर्यालिंगाकारमिति निषिद्धोऽपि श्रीकर्णस्य निजपितुर्गमनं श्रुत्वा छत्रशिलायां छत्रमोचनं च कृत्वा गतः / तत्र गजेन्द्रपदकुण्डे स्नात्वा श्रीनेमिजिनपूजां विधाय तुष्टाव / यथा परं ज्योतिः परब्रह्म परमात्मानमित्यपि। यं स्तुवन्ति वुधा नित्यं स श्रीनेमिजिनः श्रिये // 1 // 27 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत चिदानन्दमयं यस्य स्वरूपं योगचक्षुषा / पश्यन्ति योगिनो नित्यं स श्रीनेमिजिनः श्रिये // 2 // इत्यादि स्तुत्वा, धर्मशिलायामुपविश्य प्रासादरम्यतां विलोक्योचे-धन्यौ मातृपितरौ तस्य, येनेदं मन्दिर कारितम् / अत्रावसरे परशुराम उवाच-'राजन् ! धरणीतले श्रीकर्णदेव-मयणलदेव्यो धन्यौ, ययोः * भवान् सूनुः / श्रीकर्णविहारोऽयं मरिपत्रा कारितो वर्षत्रयोद्राहितव्ययेन / यदि देवपादानां प्रासादेच्छा विद्यते तदा प्रासादः; यदि वा द्रव्येच्छा, तदा द्रव्यं व्यवहारिगृहे स्थापितमस्ति / तन्निशम्य प्रमुदितो राजा प्राह-'भव्यं सज्जनेन दण्डाधिकारिणा कृतम् / यदत्र कृत्यं भवति तत्सर्वमपि त्वं कारव'- इत्यादिश्य देवदाये ग्रामद्वादशकं दत्वा श्रीशचुंजयमाजगाम / आकृष्टकृपाणकैर्विनिषिद्धो रात्रौ समारुरोह / श्रीयुगादिदेवस्य सरोमाञ्चं पूजां विधाय स्तुतिमकरोत् / यथा॥ 17. नमोऽस्तु युगादिदेवाय तस्मै ज्ञानमयात्मने / प्रावर्तन्त यतः सर्वा हेयोपादेयबुद्धयः॥१॥ चराचरं जगत्सर्वं यस्यान्तःप्रतिविम्बितम् / तस्मै युगादिदेवाय परमज्योतिषे नमः॥२॥ इति श्रीआदिजिनं स्तुत्वा द्वादशग्रामान् देवदायं कृत्वा, विविधतोरणपताकालक्षलक्षितं श्रीपत्तनं प्राप। . // 613. प्रतिदिनं सर्वदर्शनेषु आशीर्वाददानायाहूयमानेषु यथावसरमाकारिता जैनाचार्याः श्रीहेमचन्द्रमुख्याः / सिद्धराजनृपेण दुकूलादिनाऽवर्जिताः / सर्वैरपि कविभिरप्रतिमप्रतिभाभिरामैधिाऽपि पुरस्कृतो नृपतये श्रीहेमचन्द्र इत्याशिषं पपाठ भूमि कामगवि खगोमयरसैरासिञ्चरत्नाकरा, मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुड्डुप त्वं पूर्णकुम्भीभव। छित्त्वा कल्पतरोदलानि सरलैर्दिग्वारणास्तोरणा न्याधत्त खकरैर्विजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः॥१॥ अस्मिन् काव्ये निःप्रपञ्चे प्रपश्यमाने, तद्वचनचातुरीचमत्कृतचेता नृपतिस्तं प्रशंसन्, कैश्विदसहिष्णुभिरस्मच्छाआध्ययनबलादेतेषां विद्वत्तेत्यभिहिते, राज्ञा पृष्टाः श्रीहेमचन्द्राचार्याः प्राहुः-'पुरा श्रीजिनेन श्रीमन्महावीरेण इन्द्रस्य पुरतः शैशवे यद्व्याकृतं तत् जैनेन्द्रं व्याकरणं वयमधीयामहे / ' इति वाक्यानन्तरम्, 'इमां पुराणवार्तामपहाय, - अस्माकं संनिहितं कमपि व्याकरणकर्तारं ब्रूतः।' इति तपिशुनवाक्यानन्तरं नृपं सूरयः प्राहुः-'यदि श्रीसिद्ध राजः सहायीभवति, तदा कतिपयैरेव दिनैः पञ्चाङ्गमपि नूतनं व्याकरणं स्वयं रचयामः।' अथ नृपेण प्रतिपन्नम् / 'राजन् ! इदं भवता निर्वहणीयमि'त्यभिधाय तद्विमृष्टाः स्वपदं सूरयः प्रापुः / ततो बहुभ्यो देशेभ्यस्तत्तद्वेदिभिः * पण्डितः समं सर्वाणि व्याकरणानि समानीय.श्रीहेमचन्द्राचार्यैः श्रीसिद्धहेमाभिधानं प्रधानमभिनवं पनाङ्गमपि व्याकरणं सपादलक्षग्रन्थप्रमाणं संवत्सरेण रचयांचके / राजवाह्यकुम्भिकुम्भे तत्पुस्तकमधिरोप्य सितातपवारणे * ध्रियमाणे चामरग्राहिणीभ्यां चामरयुग्मं वीज्यमानं नृपमन्दिरमानीय, प्राज्यवर्यसपर्यापूर्वकं कोशागारे न्यधीयत / नृपाज्ञयाऽन्यानि व्याकरणानि अपहाय तस्मिन्नेव व्याकरणे सर्वथाऽधीयमाने, केनापि मत्सरिणा भवदन्वयवर्णनाविरहितं व्याकरणमिति व्याहरता, क्रुद्धं [नृपं] नृपाङ्ग [रक्षक] वचनादवबुद्ध्य द्वात्रिंशत् श्लोकान्, नूतनान् निर्माय, द्वात्रिंशत्सूत्रपादेषु तान् सम्बद्धानेव लेखित्वा प्रातर्नृपसभायां वाच्यमाने व्याकरणे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं 20. . हरिरिव यलियन्दकरस्त्रिशक्तियुक्तः पिनाकपाणिरिव / कमलाश्रय विधिरिव जयति श्रीमूलराजनृपः॥१॥ चक्रे श्रीमूलराजेन नवः कोऽपि यशोऽर्णवः। .. परकीर्तिस्रवन्तीनां न प्रवेशमदत्त यः॥२॥ इत्यादींश्चौलक्यवंशोपश्लोकान् द्वात्रिंशत्सूत्रपादेषु द्वात्रिंशत् श्लोकानवलोक्य प्रमुदितो राजा व्याकरण : विस्तारयामास / ततो राजाज्ञया सर्वः कोऽपि हैमव्याकरणं पठति / भणति च। 22. भ्रातः! संवृणु पाणिनिमलपितं कातन्त्रकन्थाकथाम्, मा कार्षीः कटु शाकटायनवचः क्षुद्रेण चान्द्रेण किम् / कः कण्ठाभरणादिभिर्बठरयत्यात्मानमन्यैरपि, श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुराः श्रीसिद्धहेमोक्तयः॥१॥ श्रीसिद्धराजदिग्विजयवर्णने याश्रयनामा ग्रन्थः समर्थितः / श्रीहेमसूरीनभ्यथ्ये सर्वविद्याविशारदान् / व्याकरण सिद्धहेमं ततो राजा प्रवत्तयत् // 31 (पाठान्तरेण-सिद्धहेमचन्द्राख्यं स व्यधापयत् / ) 614. अथान्यस्मिन्नवसरे श्रीसिद्धराजः संसारसागरतितीर्षया सर्वदर्शनेषु सुदेवत्व-सुधर्मत्व-सुपात्रत्वजिज्ञाशया पृच्छयमानेषु निजस्तुति-परनिन्दापरेषु सन्देहदोलाधिरूढमानसः श्रीसिद्धराजो हेमाचार्यमाकार्य विचार्य" कार्य पप्रच्छ / आचार्यस्तु चतुर्दशविद्यास्थानरहस्यं विमृश्य इति पौराणिकनिर्णयो वक्तुमारेभे–'यत् पुरा कश्चिद् व्यवहारी पूर्वपरिणीतां पत्नी परित्यज्य संगृहिणीसात्कृतसर्वस्वः, सदैव पूर्वपल्या पतिवशीकरणाय तद्वेदिभ्यः कार्मणकर्मणि पृच्छमाने कश्चिद् गौडदेशीय इति प्राह-रश्मिनियत्रितं तव पतिं करोमि।' इति उक्त्वा, किंचिदचिन्त्यवीर्य भेषजमुपनीय भोजनान्तर्देयमिति भाषमाणः, कियदिनान्ते समागते क्षयाहनि तस्मिंस्तथाकृते, स प्रत्यक्षां वृषतामाप / सा च तत्प्रतीकारमनवबुध्यमाना विश्वविश्वाक्रोशान् सहमाना निजदुश्चरितं शोचयन्ती, कदा-" चिन्मध्यन्दिने दिनेश्वरकठोरतरकरनिकरप्रसरतप्यमानाऽपि शाड्वलमूमिषु तं वृषभरूपं पति चारयन्ती, कस्यापि तरोर्मूले विश्रान्ता निर्भरं विलपन्ती, आलापं नभसि अकस्मात् शुश्राव / तदा तत्रागतो विमानाधिरूढः पशुपतिमवान्या तदुःखकारणं पृष्टो यथावस्थितं निवेद्य च, तरोश्छायायां पुंस्त्वनिबन्धनमौषधं तन्निबन्धादादिश्य तिरोदधे / सा तदनु तदीयां छायां रेखाङ्किता निर्माय तन्मध्यवर्तिन औषधाकुरान् उच्छेद्य वृषभवदने निक्षिपन्ती, तेनाऽप्यज्ञातस्वरूपेण औषधाकुरेण वदनन्यस्तेन स वृषभो मनुष्यतां प्राप / यथा तदज्ञातस्वरूपेणापि भेषजाडरेण सा समी-- हितां कार्यसिद्धिं चकार, तथा कलियुगे मोहान्धिते तिरोहितपात्रपरिज्ञाने सभक्तिकं सर्वदर्शनाराधनेनाविदितस्वरूपमपि मुक्तिप्रदं भवतीति निर्णयः। पुनः पात्रपरीक्षाविचारे श्रीहेमसूरयः प्राहुः-राजन् ! द्वैपायन-युधिष्ठिर-भीमसंवादे पात्रपरीक्षायां भीमः प्राह२३. मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्र ! विद्वांश्च वृषलीपतिः। उभौ तौ द्वारि तिष्ठेते कस्य दानं प्रदीयते // 1 // युधिष्ठिर उवाचसुखासेव्यं तपो भीम ! विद्या कष्टदुरासदा। विद्वांसं पूजयिष्यामि तपसा किं प्रयोजनम् // 2 // भीमोऽप्यूचेश्वानचर्मगता गंगा क्षीरं मद्यघटस्थितम् / अपात्रे पतिता विद्या किं करोति युधिष्ठिर ! // 3 // 25 . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. कुमारपालदेवचरितम् / द्वैपायन उवाचन विद्यया केवलया तपसा चापि पात्रता। यत्र ज्ञानं क्रिया चोभे तद्धि पात्रं प्रचक्षते // 4 // एवंविधगुणपात्रभक्त्या मुक्तिः इति श्रीहेमचन्द्राचार्यः सर्वदर्शनसंमते निवेदिते सति सर्वधर्मान् श्रीसिद्धराज आरराध / 615. अथ सा मयणल्लादेवी जातिस्मरणात् पूर्वभववृत्तान्ते श्रीसिद्धराजे निवेदिते सति श्रीसोमनाथयोग्यां सपादकोटिमूल्यां हैममयीं पूजां सहादाय बाहुलोडनगरे संप्राप्ता / तत्र पंचकुलेन कार्पटिकेषु कदर्थ्यमानेषु राजदेयविभागस्याप्राप्त्या सवाष्पं पश्चान्निवर्त्यमानेषु श्रीमयणल्लादेवी हृदयादर्शसंक्रान्तबाष्पा स्वयमेव पश्चाद्व्याघुटन्ती अन्तरा अन्तरायीभूतेन श्रीसिद्धराजेन विज्ञपयांचके-'स्वामिनि ! अलममुना संभ्रमेण, कुतो हेतोः पश्चान्निव"य॑ते १-इति राज्ञाऽभिहिते 'यदैव सर्वथा अयं करमोक्षो भवति तदैवाहं श्रीसोमेश्वरं प्रणमामि, नान्यथेति / किंचातःपरमशन-नीरयोश्च नियम'-इति राज्ञा श्रुते पंचकुलमाकार्य तत्पट्टकस्यान्ते द्वासप्ततिलक्षान् उत्पद्यमानान विमृश्य, तं पट्टकं विदार्य मातुः श्रेयसे तं कर मुक्त्वा, तत्करे जलचुलुकं मुञ्चति स्म / तदनु विप्राः पृष्टाः-'करमोक्षे किं फलम् ?' तैरुचे२७. अकरे करकर्ता च गोसहस्रवधः स्मृतः। प्रवृत्तकरविच्छेदे गवां कोटिफलं लभेत् // 1 // इति स्मृतिः / तच्छ्रुत्वा मुदितो राजा / अथ सा श्रीसोमेश्वरं गत्वा तया सुवर्णपूजयाऽभ्यर्च्य तुलापुरुषगजाश्वगोदानादीनि दत्त्वा महादानानि प्रदाय, 'मत्सदृशा काऽपि नाभूत् न भविष्यतीति दध्मिाता निशि निर्भरं प्रसुप्ता / तपखिवेषधारिणा तेनैव देवेन जगदे-'इहैव मदीयदेवकुलमध्ये काचित् कार्पटिकनितंबिनी यात्रायै समायाताऽस्ति / तस्याः सुकृतं याचनीयं त्वया' इत्थमादिश्य तिरोहिते तस्मिन् , राजपुरुषैविलोक्य सा समानीता / तस्मिन् पुण्ये " याचितेऽप्यददाना कथमपि, त्वया यात्रायां किं व्ययीकृतमिति उक्ता सती, सा प्राह-'भिक्षावृत्त्या मया योजनशतानि देशान्तरमतिक्रम्य ह्यस्तनदिवसे कृततीर्थोपवासा पारणकदिने कस्यापि सुकृतिनः सदने भोजनार्थमुपविष्टा / तदर्द्धमतिथये दत्त्वा च स्वयं पारणकमकार्षम् / भवती पुण्यवती यस्याः पितृ-भ्रातरौ नृपौ, पति-सुतौ च राजानौ / बाहुलोडकरद्वासप्ततिलक्षान् मोचयित्वा सपादकोटिमूल्यया सपर्यया अगण्यपुण्यमर्जयन्ती, मदीयपुण्ये कृशेऽपि कथं लुब्धासि ? / अन्यच्च-हे मयणल्लादेवि! यदि न कुप्यसि तदा किंचिद् वच्मि / तत्त्वत॥स्तव पुण्यात् मम पुण्यं महीतले महीयः / यतः- . 28. संपत्ती नियमः शक्ती सहनं यौवने व्रतम्। दारिद्रये दानमत्यल्पमपि लाभाय भूयसे // 1 // इति तस्या युक्तियुक्तेन वाक्येन सर्वकषं गर्व विससर्ज / श्रीपत्तनं प्राप्ता / 616. अन्यदा सिद्धपुरेरुद्रमहालयप्रासादे निष्पद्यमाने मत्रिणा च चतुर्मुखश्रीराजविहाराख्यश्रीमहावीरप्रासादे "कार्यमाणे पिशुनप्रवेशे राजा स्वयमवलोकनार्थमायातः / पप्रच्छ कोऽत्र विशेषः / श्रीहेमसूरिभिः प्रोक्तम्-'देव ! महेश्वरस ललाटे चन्द्रः, श्रीजिनस्य पादान्ते नवग्रहा भवन्ति'-इति विशेषः / राजा तन्न मन्यते / ततो वास्तुविद्याविशारदः सूत्रधारो विचारं प्राह-'सामान्यलोकानां गृहद्वारं पंचशाखम्, राज्ञां सप्तशाखम् , रुद्रादिदेवानां नवशाखम् , श्रीजिनस्सैकविंशतिशाखं द्वारम् / अष्टोत्तरशतं च मण्डपाः / रुद्रादीनामेक एव / श्रीजिनस्य पद्मासनं, छत्रं, पादान्ते नवग्रहाः, सिंहासनं च / नान्यदेवानाम् / चेत् कश्चित् कारयति, सूत्रधारः करोति, तदा द्वयोर्विधमुत्पद्यते / नान्यथात्वं वास्तुविद्यायाः सर्वज्ञभाषित्वात् / एतदाकर्ण्य राजा प्रमुदितः / वयं राजविहारे कलशाधिरोपणादिकमकारयत्। mmam Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. 40 // श्रीसोमतिलकरिविरचितं मुद्गानुद्गतमुद्गरानुरुगदाघातोयतान् व्यन्तरान, वेतालानतुलानलाभविकटान झोटिंगचेटानपि / जित्वा सत्वरमाजितः पितृवने नक्तंचराधीश्वरं, पद्धा धर्मरमुरापतिरसौ चक्रे चिरात् किंकरम् // 1 // एवं सर्वत्राखण्डप्रतापो जयसिंहो राज्यं करोति / / 617. इतश्च क्षेमराजस्य पुत्रो देवप्रसादकः / तस्य पुत्रात्रिभुवन-देवपालादयोऽभवन् // 32 त्रिभुवनपालस्याभूत् सुतैका तनयास्त्रयः / आद्यः कुमारपालाख्यो राजलक्षणलक्षितः॥ 33 महीपालः कीर्तिपालस्तथा प्रीमलदेव्यभूत् / श्रीकृष्णदेवभट्टेन योढा मोहडवासके // 34 भार्या भोपलदेवीति कुमारस्य बभूव च। [कुमारपालस्य पुत्री लीलू / इति टिप्पण्याम् / ] - अत्रान्तरे सिद्धराजो दैवज्ञं पृष्टवानिति // . मम पट्टे को भविता सोऽप्यूचेऽस्ति महाभुजः / मध्ये दधिस्थलीकाया यस्ते भ्रातृव्यनन्दनः // 36 राज्यं नो मम पुत्रस्य जीवति भ्रातृनप्तरि / तत्तं ज्ञात्वा हनिष्यामीत्यचिन्तयदयं नृपः // ततोऽसौ पादचारेण कपोतीमहन् स्वयम् / गत्वा प्रभासे पत्रार्थ सोमनाथमयाचयत // सोमनाथोऽप्यथोवाच मया राज्यधरः पुरा / सृष्टः कुमारपालोऽस्ति तदलं पुत्रयाञ्जया // सविषादस्ततो भूपो व्यावृत्तः पत्तनं प्रति / अस्मिन् जीवति पुत्रोऽपि न मे भावीत्यचिन्तयत् // मत्रिणेऽकथयचैतत् सोऽप्यूचे युक्तमेव तत् / यदा पूर्व देवपादाः विजेतुं मालवान् गताः॥ घाटे दुद्धिलिकायाश्च संरुद्धे यशवर्मणा / युष्माभिर्ज्ञापितश्चाहं पारापतप्रयोगतः // 42 त्रिभुवनपालस्यैतत् तदा राज्यं समर्पितम् / त्वत्समीपेऽहमायातस्तेन राज्यं वशीकृतम् // निर्जित्य जसवणिं त्वय्यायातेऽपि वक्ति सः / राज्यं दास्ये स्वपुत्राय हत्वा सिद्धनरेश्वरम् // इति मत्रिवचः श्रुत्वा क्रुद्धः सिद्धाधिपस्ततः / त्रिभुवनपालदेवं घातयामास घातकैः॥ ... कुमारपालोऽप्यवन्त्यां प्रेष्य भ्रातृपितृव्यकान् / भार्या भोपलदेवीं तु दधिस्थल्याममुश्चत // 46 स्वयं तु त्रिपुरुषाणां मठाधिपतिसन्निधौ / कपटेन जटाधारी भूत्वा श्रीपत्तने स्थितः // * सिद्धराजोऽपि तत्रस्थं ज्ञात्वा तं च कथंचनः / क्षयाह्ने कर्णदेवस्य द्वात्रिंशत्तापसैः सह // 48 तं निमत्र्य मठाधीशं पंक्त्या धावन् पदौ स्वयम् / ददर्श राजचिह्नानि कुमारस्य च पादयोः॥ उपलक्ष्य कुमारं तं राज्ञा पृष्टो मठाधिपः / अवोचच्च त्रयस्त्रिंशत्तापसा वयमास्महे // नानाविधैर्भक्ष्यभोज्यै राजा संभोज्य तानथ / धौतापोतीकृते तेषां भाण्डागारे खयं गतः // अत्रान्तरे कुमारोऽपि गृहीत्वा कुण्डिकां करे / उत्क्रान्तिव्याजतो नंष्ट्वा कुम्भकारगृहं गतः // आपाके रच्यमाने तु मृत्पात्राणां कृपालुना / आलिगेन तदन्तस्तं निधायेति सुरक्षितः॥ सिद्धराजोऽप्यदृष्ट्वा तं पृष्ठेऽषीच साधनम् / आगतं साधनं प्रेक्ष्य ययौ सन्मुखमालिगः॥ 54 राट्पुरुषैस्ततः पृष्टं पुमान् कश्चिदिहाययौ? / किमन्धा यूयमग्रेऽपि किं न पश्यथ पावकम् // 55 // राजलोके गते तेन नोशितोऽनाशितो निशि / दृष्ट्वा सैन्यं प्रागकस्मात् कुमारो हालिकं जगौ रक्ष मामिति तेनापि संछन्नः कण्टकाभरैः / तमदृष्ट्वा सैन्यमपि गतं व्याघुट्य पत्तने // निःसृत्याथ कुमारोऽपि मुण्डाप्य विकटा जटाः / गत्वा दधिस्थली रात्रौ मिलितः खजनैः समम् // 58 आकार्य वोसिरिं मित्रं कुलालमालिगं तथा / गन्तुं देशान्तरं ताभ्यां सह यावदमत्रयत् // 59 1 श्राद्धदिने / 3 निष्काशितः। 50 56 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इमारपालदेवचरितम् / तावदुजागरोद्विनौ जनकावूचतुस्तयोः / भवतां मत्रणैर्दग्धाः केयं जागरिका मुधा // 60 यद्वा कुमारपालस्य राज्यं यदि भविष्यति / तत्कयं वोसिरे! तुभ्यं लाटदेशं प्रदास्यति // 61 किंच रे आलिग! तव चित्रकूटस्य पट्टिकाम् / बबन्ध शकुनग्रन्थिस्तत् श्रुत्वा राजनन्दनः // 62 आलिगं भोपलदेव्या सहाप्रैषीदवन्तिकाम् / स्वयं वोसिरियुक्तस्तु चेले देशान्तरं प्रति // 63 व्रजन्नेवं कुमारोऽपि नानाश्चर्यावलोकधीः / विश्रान्तस्तरुच्छायायां यावदस्ति समाहितः। , 64 तावद् बिलान्मूषकं मुखेन रूपनाणकमाकर्षन्तं निभृततया विलोक्य यावदेकविंशतिसंख्यानि दृष्ट्वा एक गृहीत्वा बिलं प्रविष्टः / कुमारपालः पाश्चात्यानि तु सर्वाणि गृहीत्वा यावन्निभृतीभूत्वा तिष्ठति तावन्मूषकस्तान्य. नवलोक्य तदा विपेदे / तच्छोकशङ्काव्याकुलितमानसश्चिरं परितप्य चेतसीदं चिन्तयामास अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे / आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थो दुःखभाजनम् // 1 // धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चान्नेषु सर्वदा।। अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च // 2 // ___ तस्मात् पुरो व्रजन् कयापि इभ्यवध्वा श्वशुरगृहात् पितुहं व्रजन्त्या, पथि पाथेयाभावाद् दिनत्रयक्षुत्क्षामकुक्षि तृवाच्छ(त्स)ल्यात् कुमारपालः कर्पूरपरिमलशालिना शालिकरंबेन सुहितीचके / तदौचित्येन हृष्टो॥ऽचिन्तयत्३२. करचलुयपाणिएण वि अवसरदिन्नण मुच्छियं जियइ।.. पच्छा मुयाण सुंदर! घडसयदिन्नेण किं तेण // 1 // जं अवसरेण न हुयं दाणं विणओ सुभासियं वयणं / पच्छागयकालेणं अवसररहिएण किं तेण // 2 // तस्मिन् करोटकग्रामे उषित्वा जातलंघनौ / अच्छाबिल्पां द्वितीयेऽह्नि प्रयातौ प्रहरद्वये // 65 कुमारो वोसिरिं प्राह अद्य स्याद् भोजनं कथम् / सोऽप्याहास्ति जननी मे सा मे दास्यति भोजनम् // 66 34. यतः-प्रतिदिनमयत्नलभ्ये ! भिक्षुकजनजननि ! कल्पलते!। . नृपतिनतिनरकतारणि! भगवति भिक्षे! नमस्तुभ्यम् // 1 // इत्युक्त्वा वोसिरिभिक्षां कृत्वा यातस्तदन्तिके / करम्भकुम्भी संगोप्य भिक्षासुंडीमुपानयत् // भुक्त्वोभावपि सुप्त्वा च पूर्वमादाय वोसिरिः। करम्भं यावदनाति कुमारोऽचिन्तयत् तदा // 68 अहोऽस्यादूनता येन सुप्ते मय्येककोऽत्त्यसौ / जीणे करम्भे सोऽप्याहोत्तिष्ठ भुंक्ष्व नृपात्मज! // ऊचे कुमारः किं पूर्वमेकाकी भुक्तवान् भवान् / स ऊचे मम भिक्षार्थ गतस्योक्तं स्त्रियैकया // करम्भकुम्भं हे विप्र ! रात्रावुद्घाटितं स्थितम् / गृहाण यदि ते कार्य न पुनर्मम दूषणम् // वरं भवति मे मृत्यू रक्षणीयो भवान् पुनः / गोपितः स मयादाय स्वयं भुक्त्वा परीक्षितः // राज्ये दास्ये तव ग्राममेनमुक्त्वेति राजसूः / प्राप्तो डांगुरिकाग्रामे साध्वीलक्ष्मीश्रियो मठे // तथा च क्षुधितो ज्ञात्वा भोजितश्चारुमोदकैः / तयैवार्पितपाथेयः पाटलापद्रकं गतः // तत्रेश्वरवणिग्वाट्यां प्रविष्टस्य पटी गता / न लब्ध्वा चाटुभिरपि विषादोऽस्य महानभूत् // ... प्रावृत्य वोसिरिपटीं स्तम्भतीर्थे गतस्ततः / श्रीहेमसूरीन् पप्रच्छ कदा सेत्स्यति वाञ्छितम् // 76 लोकोत्तराणि चिह्नानि तदङ्गे वीक्ष्य सर्वतः / तेऽप्यूचुर्नृपतिर्भावी सार्वभौमो नरोत्तमः // तां च वाणी निशम्यासौ हर्षमालासमाकुलः / उवाच राज्यसन्देहो पनि)यते तु क्षुधाधुना // Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं श्रीविक्रमाद्धि शरदा नवनवत्यधिकेषु कार्तिके मासे / हस्तार्करवौ द्वितीयायां गतेष्वेकादशशतेषु // 79 भवतस्तदाऽभिपेको न भवति यदि राज्यसम्भवस्तन्मे / यावजीवं नियमोऽतः परं सन्निमित्तस्य // 80 इति निश्चयं श्रुत्वा कुमारपालः प्राह-'यद्यदः सत्यं ततस्त्वमेव राजाऽहं तव सेवकः' / श्रीसूरिर्वमाषे'राजन् ! सुरासुरनरनिकरनायकमुकुटमणिकिरणनीराजितपादारविन्दस्य श्रीसर्वज्ञस्य शासने प्रभावको भवतु भवान् / इति प्रतिपन्नं राज्ञा / इतश्चागादुदयनो गुरून्नन्तुं सुतैः सह / आख्यायाम-बप्पभट्योदृष्टान्तं हेमसूरिभिः // 81 प्रोक्तं चेति कुमारोऽयं भविता परमार्हतः / सार्वभूमस्ततो मत्रीन् ! सन्मान्योऽयं महादरात् // 82 118. अस्योदयनस्य पुण्योदयः कथ्यते / यथा- पूर्व मरुमण्डलवास्तव्यः श्रीमालवंश्य ऊदामिधानो वणिक आवृषि काले प्राज्याज्यक्रयाय निशीथे वजन्, कर्मकरैरेकस्मात् केदारादपरस्मिन् पूर्यमाणेऽम्भोभिः 'के यूयमिति तान् पप्रच्छ / तैर्वयममुकस्य कामुका इत्यमिहिते, 'ममापि क्वापि सन्ती'ति पृच्छन् , तैः "कर्णावत्यां तवापि, सन्ति' इति अभिहिते स सकुटुम्बस्तत्र गत्वा वायडीयजिनायतने विधिवद् देवान्नमस्कुर्वन् , कया छिपिकया श्राविकया साधर्मिकत्वाद् ववन्दे / पृष्टश्चेति-'भवान् कस्यातिथिः / तेनोक्तम्-'वैदेशिकोऽहमिति भवत्या एवातिथिः' इति तद्वाक्ये श्रुते तं सह नीत्वा कस्यापि वणिजो गृहे कारितान्नपाकेन भोजयित्वा, निजतलके निर्मा[पि] तकायमाने निवास्य स्थापितः / स तत्र सम्पन्नसम्पत् इष्टकं गृहं चिकीर्षुः खातावसरे निरवधि सेवधिमधिगम्य तामेव नियमाकार्य समर्पयत् / तया निषिद्धः / तत्प्रभावेन ततःप्रभृति उदयसंयुक्तत्वात् उदयननामा मत्रीति , * पाये / तेन कर्णावत्यामतीत-वर्तमान-भविष्यच्चतुर्विशतिजिनसमलंकृतः श्रीउदयनविहारः कारितः / तस्यापरमातृका पाहड-सोला-आंबड-चाहडदेवनामानश्चत्वारः सुता अभूवन् / कुमारोऽप्युदयनस्य गृहेऽतिष्ठत् तदाऽन्यदा / केनाप्युक्तः सिद्धराजः प्रैषीत् तत्प्रति घातकान् // 83 तत् श्रुत्वा कुमारो भीतः प्राणत्राणकृते कृती / एकाकी निशि निर्गत्य जगाम वटपद्रके // 84 विंशोपकैकचणकान् कडूवणिज आपणे / क्षुधातॊ भक्षयित्वाऽसौ खड्गमड्डाणके ददौ // निर्देव्यं राजपत्रं तं विलोक्य वणिगचिवान् / खड्ड्रेनालं मंगलीके भवन्त चणकास्तव // कन्नाली-सिद्धपुरके जटीभूत्वाऽथ सोऽगमत् / सिद्धेश्वरस्य पूजार्थ स्थापितस्तन्निवासिभिः // तत्रैकदा शकुनिनं मारवं पृष्टवानसौ / वाञ्छिताप्तिः कदा मे स्यात् सोऽप्यूचे प्रातरापतेः // प्रातमिलित्वा शकुनान्वेषणाय गतावुभौ / मुनिसुव्रतचैत्योद्धं दृष्ट्वा दुर्गा स्थितौ ततः॥ शुभचेष्टाऽकरोद् दुर्गाऽमलसारे स्वरद्वयम् / स्वरत्रयं च कलशे दण्डे स्वरचतुष्टयम् // हृष्टः शाकुनिकोऽवोचत् सिद्धिस्ते वाञ्छिताधिका / भाविन्येव विशेषात्तु जिनभक्तिप्रभावतः // वस्त्रैः संपूज्य कुमरस्तं मुक्त्वा तापसव्रतम् / गत्वाऽवन्त्यां खजनानां मिलित्वा सिद्धराट्भयात् // 92 क्वचिद्योगी क्वचिद्वौद्धः कचित्तापसवेषभृत् / क्वचित्कार्पटिकाकारो भृशं बभ्राम भूतले // 319. गत्वा कोलापुरेऽद्राक्षीद् दानभोगादिसद्गुणम् / सर्वार्थसिद्धियोगीन्द्रं सेवित्वा चाप्यतोषयत् // 94 उवाच योगी मत्री स्त एकः साम्राज्यदायकः / खेच्छया धनदाताऽन्य आधः सोपद्रवः पुनः॥ 95. सत्त्वसारः कुमारोऽथ मत्रं जग्राह राज्यदम् / उक्तेन तेन विधिना पूर्व सेवां व्यधत्त सः॥ ततः कृष्णचतुर्दश्यां गत्वा पितृवने निशि / शबस्य वक्षसि न्यस्य वह्निकुण्डं स्वयं पुनः॥ उपविश्य तस्य कट्यां यावद् होमं ददाति सः / करालमूर्तिः प्रत्यक्षस्तावत् क्षेत्राधिपोऽवदत् // 98 मामनभ्यर्च्य रे धृष्ट ! किमारब्धं मुमूर्षुणा / इति श्रुत्वापि निःक्षोभः सोऽपि जापं समापयत् // 99 सदा च मूत्वा प्रत्यक्षं महालक्ष्मीरवोचत / गूर्जरात्राधिपत्वं ते दत्तं वर्षेस्तु पश्चमिः // 86 88 9.3 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम्। सिद्धमत्रः कुमारोऽथ नत्वा सर्वार्थयोगिनम् / कल्याणकटके देशे क्रमात् कान्तीपुरीं ययौ // 101 35. यतः-पुष्पेषु जाती नगरेषु कान्ती नारीषु रम्भा पुरुषेषु विष्णुः। __ सतीषु सीता द्रुषु कल्पवृक्षो जिनस्तु देवेषु नगेषु मेरुः॥१॥ 20. कुमारः कौतुकात् तस्यां भ्रमन् परिसरेऽन्यदा / कबन्धमेकमद्राक्षीद् वैरिणाऽपास्तमस्तकम् // 102 तत्पाघे मिलितः स्त्रीणां शुश्रावान्योऽन्यजल्पितम् / अहो कचकलापोऽस्य अहो श्रवणलम्बता // 103 अहो घनत्वं कूर्चस्य ताम्बूले व्यसनं तथा / अहो विरलदन्तत्वं श्रुत्वेत्येकां ततो जगौ॥ 104 कथमेतत् , ततस्ताश्चावीचन् किं चित्रमत्र यत् / दीर्घ वेणीसलं पृष्ठे स्कन्धे कुण्डलयोः किणे // 105 आनाभि हृदि गौरत्वात् दृश्यते श्मश्रुणः सलम् / ताम्बूलव्यसनाच्चैपोऽङ्गुष्ठश्चर्णेन चर्चितः // नित्यं विरलदन्तानां क्षित्या रक्ता कनिष्ठिका / तत् श्रुत्वाऽचिन्तयदसौ बहुरत्ना वसुन्धरा // 107 " 621. कृत्वा स्नानं कुमारोऽथ सरस्यमृतसागरे / तीरदेवकुले गत्वाऽर्यमानं ददृशे शिरः॥ तस्येतिवृत्तं पृष्टश्च कश्चन स्थविरोऽवदत् / पुरे हि प्रवरे राज्ञा कारिते सरसि स्वयम् // पद्मकोशाद् विनिर्गत्य शीर्षमेकं सकुण्डलम् / एकेन ब्रुडतीत्युक्त्वा निमज्जद् ददृशे स्वयम् // : तदर्थ पण्डितैः पृष्टैः प्राप्य मासचतुष्टयम् / तं ज्ञातुं प्रेषिता विप्राश्चत्वारो वृद्धसन्निधौ // 36. यदेका स्थविरो वेत्ति न तत्तरुणकोटयः। / यो नृपं लत्तया हन्ति वृद्धवाक्यात् स पूज्यते // 1 // तैश्च गत्या मरौ देशे स्थविरः कोऽप्यपृच्छत / स्वपिता दर्शितस्तेन तेनापि खपितामहः // सविंशतिशतवर्षदेशीयस्यास्य संनिधौ / विगैरपृच्छि शीर्षस्य ब्रुडतीत्युक्तिकारणम् // . सोऽप्यूचे भोजयित्वा तान् शुनीडिम्भचतुष्टयम् / गृहीतेदं महामूल्यं शुद्ध्यत्यध्वव्ययो यतः॥ 14 लोभाद् विप्रा अपि कटौ कृत्वा तांश्चलनाक्षमान् / व्याघुटन्तं वृद्धमूचुः स्वसन्देहस्तथैव नः // 15 संशयश्छिन्न एवायमित्युक्ते तेन तेऽभ्यधुः / कथं स ऊचे शास्त्रज्ञा अप्येतदपि वेत्थ न // 37. श्वानगर्दभचाण्डालमद्यभाण्डरजखलाः। स्पृष्ट्वा देवकुलं चैव सचैलं लानमाचरेत् // 1 // शास्त्रे निषिद्धः संस्पर्शी विप्राणां युज्यते कथम् / तेऽप्यूचुर्बहुमूल्यानि श्वडिम्भानि त्वमप्यधाः॥ 17 ततोऽस्माभिर्गृहीतानि लोभाद् विक्रीयते न किम् / ऊचे वृद्धस्तदेवेदं विश्वं बुडति लोभतः // 18 इति ते छिन्नसन्देहाः कुमारेहागताः पुनः। पण्डितैः पुस्तकेष्वेवं लिखितोऽर्थः सविस्तरः // 19 राज्ञेऽदर्शि नृपोऽप्याह सत्यमेतत् शिरो यदि / श्रुत्वेनमर्थं न पुनः सरसो निःसरिष्यति // 120 तथाकृते तथाजाते चैत्यं निर्माय भूभुजा / देवस्थाने स्थापितं च शीर्षमेतत् प्रसिद्धये // तत् श्रुत्वा विविधाश्चर्यदर्शनाजातनिश्चयः / किंचित् कालं कुमारोऽपि स्थित्वा कान्त्या विनिर्ययौ // 22 6 22. मल्लिनाटजनपदे गतः कोलंबपत्तने / महालक्ष्या च कोलंबस्वामी स्वप्ने न्यगद्यत // भविष्यो गूर्जरात्रायाः स्वामी यस्तव पत्तने / समेष्यति जटाधारी विधेयं तस्य पूजनम् // 24 चतसृषु दिक्षु मुक्तैः पुरुपैः पुरसीमनि / यथोक्तलक्षणैर्वीक्ष्य कुमारो भक्तिपूर्वकम् // आहूय नृपतेः पार्थे समानिन्ये ततो नृपः / अभ्युत्थाय स्वकीया सने तं स न्यवेशयत् // निगद्य च तमादेशं राज्ञा राज्ये निमत्रितः / निषिद्धः कुमारस्तस्य पार्थे तस्थौ यथासुखम् // 27 21 13 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं सोचे तथापि तेऽभीष्टं कुमार ! किं करोम्यहम् / कुमारः प्राह येनात्र ज्ञायते मे समागमः // * दशगव्यूतिविस्तारे कोलंबपत्तनान्तरे / भूमीमप्राप्य राज्ञाऽथ संकोच्य निजमन्दिरम् / / कुमारपालेश्वराख्यः प्रासादस्तत्र कारितः / कुमारपालनामाकं नाणकं च प्रवर्तितम् // * तद् दृष्ट्या कुमारश्चिन्तितवान्-अहोऽस्य परमा प्रीतिः / यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रिया। चित्ते वाचि क्रियायां च साधूनामेकरूपता // 1 // - ततः कुमारो निर्याय प्रतिष्ठानपुरं गतः / द्विपंचाशद्वीरकूपाद्याश्चर्याणि विलोकयत् // 38 : 623. प्राप्तः क्रमेणोज्जयिन्यां निजखजनसन्निधौ / भ्रमंस्तत्रान्यदायातः कुडंगेश्वरमन्दिरे // प्रणम्य लिङ्गं तन्मध्ये व्याप्तं सप्तफणाङ्कुरैः / वीक्ष्य प्रशस्तिमध्ये तु गाथामेतामवाचयत् // 39. . पुन्ने वाससहस्से सयंमि वरिसाण नवनवइ अहिए। होही कुमरनरिंदो तुह विकमराय ! सारिच्छो // 1 // आत्मनो नामसाम्यं च वर्षाणां वीक्ष्य पूर्णताम् / गाथार्थ कुमरोऽपृच्छत् जैनदर्शनसन्निधौ.॥ सोऽप्याहं पूर्वमत्रासीत् सिद्धसेनो दिवाकरः / विक्रमादित्यभूपस्य तेनाभ्यर्थनया किल // द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाभिर्वीतरागः स्तुतस्ततः / कुडंगेश्वरलिङ्गं च स्फुटितं तस्य मध्यतः // आविरभूदु धरणेन्द्रः श्रीपार्श्वप्रतिमाकरः / तं दृष्ट्वा विक्रमादित्यः संजातः परमाईतः // 37 // . गुरूपदेशतस्तेन कारित भूमिमण्डलम् / अनृणं निजदानेन ततः संवत्सरोऽस्य महान् // तेनैकदा सिद्धसेनः पृष्टः किं कोऽपि भारते / अतःपरं जैनभक्तः सार्वभूमो भविष्यति // श्रुतज्ञानेन विज्ञाय गाथेयं गुरुणोदिता / राज्ञा च लेखिताऽत्रैव तत् श्रुत्वा कुमरोज्वदत् // .. 140 आर्हतानामहो शक्तिः, अहो ज्ञानमहो व्रतम् / अहो परोपकारित्वं, किममीषां हि नाद्भुतम् // . ततः सज्जन-भोपल्लदेवी-वोसिरिभिः समम् / धृत्वा निर्भरवेषं स उज्जयिन्या विनिर्ययौ // 42. दशपुरे पद्मासनासीनं प्रशमामृतधरं योगिनं विलोक्य ननाम / स ध्यानं मुक्त्वा कुमारमूचे__ सर्वस्मिन्नणिमादिपङ्कजवने रम्येऽपि हित्वा रति, शुद्धां मुक्तिमरालिका प्रति दृशं यो दत्तवानादरात् / चेतोवृत्तिनिरोधलब्धपरमब्रह्मप्रमोदाम्बुभृत्, सम्यक्साम्यसरोजसंस्थितिजुषे हंसाय तस्मै नमः॥१॥ ततः कुमारोऽपृच्छत्-'योगिन् ! किं स्वानं किं दानं किं ध्यानं चेति ?' योग्यूचे स्नानं मनोमलत्यागो दानं चाभयदक्षिणा। ज्ञानं तत्त्वार्थसंयोधो ध्यानं निर्विषयं मनः॥१॥ एतदाकर्ण्य प्रमुदितः / 142. मध्ये दशपुरे स्थित्वा चित्रकूटनगं गतः / शान्तिचैत्ये श्वेतभिक्षो रामचन्द्रस्य सन्निधौ // 43. जाते चित्रे चित्रकूटदुर्गोत्पत्तिमपृच्छयत / रामोऽप्यूचेऽतः क्रोशत्रयेऽभून्मध्यमापुरी // 44 . तत्र चित्राङ्गदो राजा सोऽन्यदाभिनवैः फलैः / योगिना व्याघ्रयुक्तेन षण्मासावधि सेवितः॥ 45 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम् / पृष्टो हेतुरथो राज्ञा योग्यूचे मत्रसिद्धये / द्वात्रिंशल्लक्षणवतः सान्निध्यात् ते मवेच्च सः॥ राजा पृष्टे पुनः कानि लक्षणानि महीतले / कौतुकं यदि ते तर्हि श्रूयतां तानि भूधर ! // 42. नाभिः स्वरः सत्त्वमिति प्रतीतं गम्भीरमेतत्रितयं नराणाम् / उरो ललाटं वदनं च पुंसां विस्तीर्णमेतत्रितयं प्रदिष्टम् // 1 // 43. वक्षोभ्य कुक्षि खनासिकास्यं कृकाटिका चेति पडुन्नतानि / हवानि चत्वार्यथ लिङ्गपृष्ठं ग्रीवा च जंघेऽभिमतप्रदानि // 2 // नेत्रान्त-पाद-कर-ताल्वधरोष्ठ-जिह्वा रक्तान्यमूनि ननु सप्त हितप्रदानि / सूक्ष्माणि पंच दशनाङ्गुलिपर्वकेशाः साकं त्वचा कररुहाश्च न दुःखितानाम् // 3 // 45. हनु-लोचन-बाहु-नासिका-स्तनयोरन्तरमत्र पञ्चकम् / इति दीर्घमिदं तु पञ्चकं न भवत्येव नृणामभूभुजाम् // 4 // 46. त्रिषु विपुलो गम्भीरस्त्रिष्वेव षड्डन्नतश्चतुर्हस्वः / सप्तसु रक्तो राजा पश्चसु सूक्ष्मश्च दीर्घश्च // 5 // श्रुत्वेति मुदितो राजा प्राह योगीन्द्रमुत्तमम् / किमु कार्य मयाख्याहि यथा तथा करोम्यहम् // 48 यतः कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ चित्रनगोपरि / मम सिद्ध्यति मन्त्रश्चेत् त्वं तत्रोत्तरसाधकः॥ 49 ओमित्युक्त्वा नरेन्द्रेण स योगीन्द्रो व्यसृज्यत / राजपत्त्यान्तरितया तत् श्रुत्वाऽवाचि मत्रिणे // .. 150 उवाच मत्री ज्ञाप्योऽहं यदा तत्र व्रजेत् नृपः / ततो यथोक्तवेलायां खङ्गव्यग्रकरो नृपः // एकाकी निर्ययौ छन्नो राजा ज्ञात्वा मन्यपि / दक्षो नरेन्द्ररक्षार्थ नृपेणालक्षितो ययौ // नृपोऽपि चित्रशैलाग्रमारूढो वीक्ष्य योगिनम् / व्याघ्रं च होमसामग्री ततोऽजल्पत् करोमि किम् // 53 : रक्षार्थ होमसामग्र्या मुक्त्वा तत्र नरेश्वरम् / योगी जलार्थ सव्याघ्रः क्षीरकूपं गतः स्वयम् // इतश्च प्रकटीभूय नत्वोचे मत्रिणा नृपः / देवोपकरणैरेभिः साध्यते स्वर्णपूरुषः // तत्तं सिसाधिषुर्योगी होमित्वा त्वत्तनु ध्रुवम् / तद् यतस्व स्वरक्षायै इत्युक्त्वाऽन्तरितोऽथ सः॥ 56 राज्ञा सह ततः स्नात्वा जलमानीय योगिना / विलेपनैर्विलिप्याङ्गं होमार्थं ज्वालितोऽनलः // 57 उक्तश्च राजा त्वं देव ! प्रतिपन्नैकवत्सलः / तदस्य वह्निकुण्डस्य देहि प्रदक्षिणात्रयम् // राजा सशङ्कस्तं स्माह त्वं योगिन्नग्रतो भव / ततो योगी तथा कुर्वन्न च्छलं प्राप भूपतेः॥ अथ व्यावृत्त्य सहसा नृपं यावजुहोति सः / तावन्नरेन्द्र-मत्रिभ्यां स एवाग्नौ हुतो हठात् // व्याघ्रोऽप्यनुप्रविष्टस्तं संजातः स्वर्णपूरुषः / संपूज्य तं गृहीत्वा च राजाऽगान्मध्यमां पुरीम् // 61 यच्छन् यथेच्छं द्रविणं ख्याति स प्राप सर्वतः / ततः खऋद्धिरक्षार्थमादिदेशेति मत्रिणम् // यथा चित्रगिरेः पार्थे कूटशैलोऽस्ति दुर्गमः / तस्योपरि महादुर्ग कारयामङ्गुरोद्यमः // मत्रिणापि तथारब्धे यावच्चेचीयते दिवा / तावन्निपतति रात्रौ षण्मासा इति जज्ञिरे // तथाप्यभङ्गुरोत्साहं नृपं कूटाचलाधिपः / उवाच मा कृथा दुर्गमत्र कर्तुं न कोऽप्यलम् // प्राणात्ययेऽपि कर्ताऽस्मि नृपेणोक्ते सुरोऽब्रवीत् / यद्येवं निश्चयस्तर्हि कुरु चित्रनगोपरि // दुर्गस्य नाम मध्ये तु देयं मन्नाम भूपते ! / तत्र चित्राङ्गदश्चके दुर्ग चित्रनगोपरि // नगरं चित्रकूटाख्यं देवेन तदधिष्ठितम् / कोटीध्वजानां यन्मध्ये सहस्राणि चतुर्दश // लक्षेश्वराणां योग्या च कारिता तलहट्टिका / वापीकूपसरोमुख्यं शेष देवेन कारितम् // इतश्च स्वर्णपुरुषं सिद्धं चित्राङ्गदस्य तम् / ग्रहीतुं कन्यकुब्जेशः शंभलीशो नृपो बली // 170 52 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध अरौत्सीद् दुर्गमागत्य ततश्चित्राङ्गदोऽपि हि / नियत्रितपुरद्वारो लसत्युपरि निर्मयः ॥-युग्मस् // चराः कौरिकवेषेण वर्षेः कतिपयैः पुरम् / प्रविश्य शुश्रुवुर्वाचां गृहे शुल्काधिकारिणः // गवाक्षस्था मत्रिपुत्री लालयन्ती निजं सुतम् / भापते तात! किं नैते मुच्यन्ते वणिजारकाः।। हसित्वा तत्पिताहैते न वत्से ! वणिजारकाः / शंभलीशचमूरेषाऽवात्सीद् दुर्गजिघृक्षया // 74 वत्से ! जन्म यदा तेऽभूत् , तदेदं सैन्यमागतम् / त्वमूढा च पुत्रवती जाताप्येतत् तथैव च // 75 / तत् श्रुत्वा शंभलीशोऽपि ससैन्यो दुर्गमे पुरे / प्राप्तः प्रोक्तो गवाक्षस्थयकरीवेश्यया यतः // 76 47. गण्डूपदः किमधिरोहति मेरुशृङ्गं किं वा रवेरजगरो निरुणद्धि मार्गम्। शक्येषु वस्तुषु वुधाः श्रममारभन्ते दुर्गग्रहग्रहिलतां त्यज शंभलीश! // 1 // अथापसृत्य राज्ञापि प्रेषिता गूढपूरुषाः / समर्प्य प्राभृतं तस्याः प्रोचुः स्वामिनि ! नः प्रभुः // 77 जित्वा चित्राङ्गदं दुर्गजिघृक्षुस्त्वत्प्रसादतः / तत् प्रसीदादिशोपायं साऽपि हृष्टा जगाद तान् // 78. सर्वप्रतोलीरुद्घाट्य पूरितार्थिमनोरथः / भुंक्त चित्राङ्गदो नित्यं प्रवेष्टव्यं तदा त्वया // 79 विवृणोमि गवाक्षस्था यदा केशानहं तदा / ज्ञेया भोजनवेला सा तं ज्ञात्वा शंभलीशकः॥ 180 वर्करीगणिकाभेदाद् द्वितीये जगृहेऽह्नि तम् / दुर्ग ततश्चित्राङ्गदो गृहीत्वा स्वर्णपूरुषम् // 81 क्षीरकूषे ददौ झंपां तत् श्रुत्वा शंभलीशराद् / क्षीरकूपाजलं कृष्ट्वा दृष्ट्वा तं स्वर्णपूरुषम् // 82 यावदाकर्षते तावत् पुनः पूर्णः स कूपकः / विलक्षोऽप्यसौ मनसि स्त्रीचरित्रमचिन्तयत् // 48. एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतोर्विश्वासयन्ति च परं न च विश्वसन्ति / तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीयाः॥१॥ अपि च४९. संमोहयन्ति मदयन्ति विषादयन्ति निर्भर्त्सयन्ति रमयन्ति विडम्बयन्ति / एताः प्रविश्य सदयं हृदयं नराणां किं नाम वामनयना न समाचरन्ति // 2 // " सउ चित्तहं सही मणहं पंचासटी हीयाई। अम्मी ते नर ढड्डसी जे पत्तिजइ ताहं // 3 // पाहित्थी सवि वंकडी किम पत्तिजि तास / नीयसिरि घड उवडावि करि पच्छइं दिइ जे पास // 4 // प्राप्तुं पारमपारस्य पारावारस्य पार्यते। स्त्रीणां प्रकृतिवक्राणां दुश्चरित्रस्य नो पुनः॥५॥ ततो विलक्ष्य चित्रागसुतं वाराहगुप्तकम् / संस्थाप्य च स्वयं राज्ये महोत्सवपुरस्सरम् // 84 शनैःशनैर्ऋजन् भूयः कन्यकुब्ज पुनर्गतः / स्वभाांग्रेऽपठद् दुर्ग भद्रो वादीश्वरोऽन्यदा // 85 चित्रकूटमिदं भद्रे ! पृथिव्यामेकलोचनम् / द्वितीयस्याम्बकस्यार्थे तपस्तपति मेदिनी // 1 // कुमारः सपरीवारः तत् श्रुत्वाऽऽरुह्य तं नगम् / विस्मितः सर्वतो वीक्ष्य दिग्भागान् निजगाद च // 86. 54. शैलाः सर्वे गण्डशैलानुकारा वृद्धा ग्रामाः क्षामधामोपमानाः। कुल्याकल्पाः प्रौढसिन्धुप्रवाहाः सन्दृश्यन्ते दूरतोऽत्राधिरूढैः॥१॥ _ ततः श्रीरघुवंशमौक्तिकश्रीकीर्तिधरराजर्षिपुत्रस्य सुकोसलमहर्षेः पूर्वभवमातृव्याघ्रीकृतोपसर्गस्य समुत्पन्न केवलज्ञानस्य निर्वाणभूमिकां चित्रकूटासन्नां नत्वा, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. पुरातनाचार्यसंगृहीत 115. ततस्तदीक्ष्य सोत्कण्ठः कन्यकुजपुरं ययौ / आम्राणां लक्षशो वीक्ष्य लक्षारामान् सविस्मयः॥ 87 पप्रच्छ कंचित् किमाम्रा दृश्यन्ते गणनातिगाः / सोऽप्यूचे न करोऽत्रास्ति चूतानां तद् घना अमी // 88 राज्येऽहमपि चूतानां करं मोक्ष्ये स्वनीवृति / विचिन्त्येति कुमारोज्गात् कासी निर्मरवेषमाक् // 89 प्रामन्नेकेन वणिजा वस्त्रायैः सत्कृतः कृती / द्वितीयेऽह्नि लुण्ट्यमानं तगृहं वीक्ष्य दुःखितः // 190 कंचित् पप्रच्छ किमिदं सोचेऽद्यापुत्रको वणिक् / मृतोऽसौ तद्गृहं तेन लुण्ट्यते राजपूरुपैः // 91 श्रुत्वेति चकितः खान्ते भवरूपं विभावयत् / यथा क्षणादसौ नष्टः श्रेष्ठी सर्व तथा भवेत् // 92 असारः संसारः सरलकदलीसारसदृशो, लसद्विद्युल्लेखाचकितचपलं जीवितमिदम् / यदेतत् तारुण्यं नगगतनदीवेगसदृशं, . अहो धाट्य पुंसां तदपि विषयान् धावति मनः॥१॥ कुमारश्चिन्तयदसौ धिग् राज्यं यदपुत्रिणाम् / म्लेच्छानामपि सर्वखं राजा गृह्णाति पुत्रवत् // 93 दुर्भिक्षोदयमन्नसंग्रहपरः पत्युर्वधं बन्धुकी, ध्यायत्यर्थपतेभिषक् गदगणोत्पातं कलिं नारदः। दोषग्राहिजनस्तु पश्यति परच्छिद्रं छलं शाकिनी, नि:पुत्रं म्रियमाणमाढ्यमवनीपालो हहा वाञ्छति // 1 // राज्ये नाहं ग्रहीष्यामि स्वदेशे स्वमपुत्रिणाम् / प्रतिज्ञायेति कुमरो गतः पाटलिपुत्रके॥ 94 तत्र च पुरा संजातनवनन्दकारितनववर्णमयपर्वतादिवरूपं श्रुत्वा मनस्यचिन्तयत् येषां वित्तः प्रतिपदमियं पूरिता भूतधात्री, यैरप्येतद् भुवनवलयं निर्जितं लीलयैव / तेऽप्येतस्मिन् गुरुभवहृदे बुद्बुदस्तम्पलीलां, धृत्वा धृत्वा सपदि विलयं भूभुजः संप्रयाताः॥१॥ यदस्माकं वित्तचयो भविष्यति तदा दानभोगादौ व्ययं करिष्याम इत्यादि बहु विचिन्त्याने चचाल / ततो राजगृहे गच्छन् वीक्ष्य वैभारपर्वतम् / श्रुत्वा समवसरणस्थानान्येष विसिष्मिये। 95 तत्र प्राग्भवपुण्यप्राग्भारशालिनः श्रीशालिभद्रस्य सौधनिर्माल्योत्तीर्णवर्णमाणिक्यमणिमयाभरणप्रक्षेपवापी* प्रमुखस्थानानि निरीक्ष्य भोगलीलां वैराग्यं च श्रुत्वा विस्मयस्मेरमनाश्चिन्तयति स्म / यथा५८. ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलधियः कुर्वन्त्यहो दुष्करं, ___ यन्मुश्चन्त्युपभोगभायपि धनान्येकान्ततो निस्पृहाः / न प्राप्तानि पुरा न संप्रति न च प्राप्तौ दृढप्रत्ययाः, वाञ्छामात्रपरिग्रहाण्यपि परं त्यक्तुं न शक्ता वयम् // 1 // - ततो वैभारगिरिमारुरोह / श्रीशालिभद्रपादपोपगमानशनशिलातलादि निरीक्ष्य चेतसि चमत्कृतो वैराग्यवान् जातः / ततो नवद्वीपकदेशेषु गत्वाऽजयपुरं ययौ / तत्र बहिः सर्वर्तुपुष्पफलोपेतमनोरमोद्याने शकावतारतीर्थे गतः / तत्र कमपि वृद्धपुरुषं तत्स्वरूपमपृच्छत् / तेनोक्तम्-'पुरा श्रीयुगादिदेवस्य शतं पुत्रा आसन् / तेषु जयनामकुमारस्थापितमिदं जयपुरम् / अन्यदाऽत्र शक्रादिसुरासुरनरनिकरनायकसेव्यपादारविन्दः श्रीऋषमदेवः समवासार्षीत् / तदा समवसरणस्थाने शक्रनिर्मितः प्रासादोऽयम् / षड्ऋतुमयमुद्यानं च भगवत्पूजार्थमिदम् / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध एतदाकर्ण्य विस्मयमनाश्वेतसीदं चिन्तयन्-'अहो ! अनादिकालीनोऽयं श्रीजिनधर्मः, महाप्रभावश्च / ततः स्वयं तत्र गत्वा आदिदेवं ननाम। ततोऽपि कामरूपेऽगात् कामाख्येक्षणकौतुकी / तत्र कामाक्षीदेवीभवने गतः / पूजार्थमागतं निजरूपनिर्जितकामवामाक्षीगर्वसर्वस्वं स्त्रीवृन्दं देशखमावान्मुक्तमर्यादं सकलकलाकुशलमवेक्ष्याचिन्तयत्५९. संसार ! तव निस्तारपदी न दवीयसि / अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदि रे मदिरेक्षणाः॥ 60. वैरिवारणदन्ताग्रे समामा स्थिरीकृता। वीरश्रीथर्महासत्त्वैयापिद्भिस्तेऽपि खण्डिताः / / 626. ततोऽगात् तत्र यत्रास्ति सर्परूपेण भूपतिः / भौतिकं दैवकं वापि यद्राज्ये न भयं भवेत् // 96 कश्चिदृद्धपार्थे सर्पराज्यकारणमपृच्छत्-तेनोक्तम्-'भो ! पुरा नागकुमारदेवस्थापितं नागेन्द्रपत्तनमिदम् / तत्र श्रीकान्तराजा अत्यन्तश्रीमान् दाता भोक्ता विवेकी प्रजाप्रियः परं यदपि तदपि कारणं प्राप्य क्रोधी भवति / " 61. यतः- नाकारणरुषां संख्या संख्याताः कारणे क्रुधः। ... कारणेऽपि न कुप्यन्ते ये ते जगति पंचषाः // 1 // ____ ततः स राजाऽन्यदा क्रोधान्धो व्रजन् सौधान्धकारे स्तम्भाभिघातमूच्छितो निःपुत्रो मृत्वाऽऽर्तध्यानवशात् सप्तफणालंकृतः सोऽभूत् स्वभाण्डागारे / स मंत्रिभिर्वारं वारं बहिर्मुक्तः स्वद्रविणगोहितः पुनः पुनस्तत्रैवायाति / राज्यं पुत्रं विना[शून्यं जातम् / वैरिभिर्निरुद्धम् / ततो महति संकटे लोकैः पुरस्थापकनागकुमारदेवः स्मृतः / स समायातः।" स जातिस्मरं नागं सप्तफणालंकृतं [दृष्ट्वा, अयं] अस्मदीयकुलोत्पन्नः, पुराऽप्यस्य पुरस्य खामी, ततोऽयमेव राजा भवतु,- इति नागकुमारदेवकृतराज्याभिषेकस्तत्प्रभावाद्राज्यं करोति / देवः सौस्थ्यं विधाय स्वस्थानमगात् / सोऽयं नागराजसाम्राज्यम् / एतन्निशम्य कुमारेण चिन्तितम्-'अहो ! दुर्गतिदाता क्रोधः / ततः पुरमध्ये - कुमारोगाचर्मकारबालचंद्रापणेऽन्यदा / उपानदर्थं तेनापि सादरं पूर्वनिर्मितम् // 97 उपानयुगलमेतद् युज्यते तव पादयोः / मूल्येनालं तव स्वामिन् ! मंगलीके मया कृतम् // 980 हृष्टश्च शुभवाक्येन शुश्राव कुमरस्तदा / पत्तने पादुकाराज्यं मरणं सिद्धभूपतेः॥ कुमारपालराजानं शृणोषि पत्तने यदा / शीघ्रमेयास्तदामव्य मोचिकं कुमरस्ततः // 200 उज्जयिन्यां सानुचरो गत्वाऽखण्डप्रयाणकैः / कन्नाली-सिद्धपुरेऽगालात्वाशेषकुटुम्बकम् // 201 तत्र पूर्वप्रतिपन्नमातुलस्य द्विजन्मनः / गृहे मुक्त्वा खकुटुम्बमेकाकी पत्तने ययौ // 202 627. गत्वा गृहे कृष्णभदेवस्य भगिनीपतेः / रात्रौ नमाम भगिनी कुमारः प्रमिलाभिधाम् // 2034 भ्रातेति प्रत्यभिज्ञाय तयापि नापितः स्वयम् / स्नाननीरे वीक्ष्य स्नातां दुर्गा शाकुनिकोऽब्रवीत् // 204 सप्ताहान्तर्भवान् राजा प्रमाणं शकुना यदि / तदाकर्ण्य भगिन्याऽपि विज्ञप्तं पत्युरात्मनः // . 205 मण्डलेशकृष्णदेवः कुमारं परिरभ्य तम् / तवैव राज्यं नान्यस्य मा विषीदेत्युवाच सः॥ 206 महितटदेशाधीशं विजयपालराणकम् / मित्रमाकार्य कृष्णेन पर्यालोचः कृतस्ततः // 207 अग्रे प्रधान श्चोलुक्यौ तौ द्वौ राज्यार्थमाहूतौ / महीपाल-रत्नपाली राज्यं त्वस्यैव मे मतिः // 208. द्वितीयेऽह्नि प्रधानानां ज्ञापयित्वेति तौ ततः / आजूहवत् कुमारं च श्रीजयसिंहमेरुके // 209 ततः प्रधानः सम्भूय पूर्व राज्यार्थमाहृतः / महीपालस्तु तान्नत्वा दत्तादेशं करोमि किम् // 210 तं विसृज्य रत्नपालस्तैराहूतो महेश्वरम् / प्रणम्य सचिवादींश्च प्राञ्जलिः प्राह पूर्ववत् // विसृष्टः सोऽप्यथाहूतः कुमारपाल ईश्वरम् / नत्वा सहेलमावर्योत्तरीयाञ्चलसञ्चयम् // 12 कुमारपालः [तैः] पृष्टः-'कथं राज्यं करिष्यसि ?' / कृपाणं दर्शितं तेन केनापि पठितं पदः॥ 13. 11 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत मश्रीः कुलक्रमायाता शासने लिखिता न तु। खड्गेनाक्रम्य भुञ्जीत वीरभोग्या वसुन्धरा // 1 // तानाहास्ताभिषेकाय मृगेन्द्रासनमास्थितः / ततः कृष्णादिभिः प्रोचे परामर्श विमुच्य मोः!॥ पत्रार्थे मा विलम्बध्वं कार्य चेजीवितेन वः / तद्भीतैस्तैस्तथा चक्रे कुमारगुणरञ्जितैः॥ मुक्तानां सेतिका क्षिप्ता तत्शीर्षेऽभूत् सपलिका / कृष्णदेवभट्टमुख्यैस्ततो राजेत्यसौ नतः // श्रीकुमारपालदेवो वेष्टितो मण्डलेश्वरैः / पट्टहस्तिसमारूढो मेघाडम्बरमण्डितः // चामरैव-ज्यमानस्तु गृह्णन् पौरजनाशिषः / विविधातोधनिर्घोषैर्यधिरीकृतदिङ्मुखः // हास्तिकावीयपादातिरथकव्याभिकोटिभिः / पुरतः पार्थतः पश्चालोकैश्च परिवारितः // .. 19 प्रदत्तच्छटकुंकुभिर्मदैर्मुगमदैरिव / ददद्दानं तदार्थिभ्यो राजा प्रासादमासदत् // 220 * 128. ततः श्रीमत्कान्हडदेवमुख्यैः समस्तैरपि [सामन्तैः] पञ्चाङ्गचुम्बितभूतलं नमोऽकारि / स प्रौढतया देशान्तरपरिभ्रमणनैपुण्येन राज्यशास्तिं स्वयं कुर्वन् , राज्यवृद्धानां प्रधानानामरोचमानस्तैः सम्भ्य व्यापादयितुं व्यवखितः / सान्धकारगोपुरेषु न्यस्तेषु घातकेषु प्राक्तनशुभकर्मणा प्रेरितेन केनाप्याप्तेन ज्ञापितस्तद्वृत्तान्तस्तं प्रदेशं विहाय द्वारान्तरेण वर्ष प्रविष्टः / तदनु तान् प्रधानान् यमपुरी प्रति प्राहिणोत् / 629. स भावुकमण्डलेश्वरः शालकसम्बन्धात् राजस्थापनाचार्यत्वाच्च राजपाटिकायां सर्वावसरेषु च प्राक्तनदुःखा" बखां समर्मतया जल्पति स्म / राज्ञोक्तम् -'त्वयाऽतःपरमेवंविधं सभासमक्षं न वाच्यं, विजने तु यहच्छ्या वाच्यम् / 63. यतः-आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां महतां मानखण्डना / मर्मवाक्यं च लोकानामशस्त्रो वध उच्यते // 1 // . . याचको वञ्चको व्याधिः पंचत्वं मर्मभाषकः। योगिनामप्यमी पञ्च प्रायेणोद्वेगहेतवः // 2 // - इति राज्ञोपरुद्ध उत्कटतया अवज्ञावशाच्च-रेऽनात्मज्ञ ! इदानीमेव पादौ त्यजसि ?" इति भाषमाणो मर्तुकाम औषधमिव तद्वचं पथ्यमपि न जग्राह / नृपस्तदा तदाकारसंवरणेनापहवं विधायापरस्मिन् दिवसे नृपसङ्केतितैर्मलैस्तदङ्गभङ्गं कृत्वा नयनयुगलमुद्धृत्य, ततस्तं तदावासे प्रस्थापयामास / ग्रन्थान्तरेऽप्युक्तम् - 65. काके शौचं द्यूतकारेषु सत्यं, सर्प क्षान्तिः स्त्रीषु कामोपशान्तिः / ___ क्लीवे धैर्य मद्यपे तत्वचिन्ता, राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा // 1 // * 66. यतः-शास्त्रं सुनिश्चितधिया परिचिन्तनीयमाराधितोऽपि नृपतिः परिशङ्कनीयः। आत्मीकृताऽपि युवतिः परिरक्षणीया; शास्त्रे नृपे च युवती च कुतः स्थिरत्वम् // 2 // 67. आदौ मयैवायमदीपि नूनं, न तद्दहेन्मामवहीलितोऽपि / इति भ्रमादङ्गुलिपर्वणापि, स्पृशेत नो दीप इवावनीपः॥३॥ इति विमृशद्भिः समन्ततः सामन्तैर्भयभ्रान्तचित्तैस्ततःप्रभृति स नृपतिः प्रतिपदं सिषेवे / * ६३०.पट्टाभिषेकादनन्तरं सोलाकनामा गन्धर्वोऽवसरे गीतकलयाऽतुलया रखिताद् राज्ञः षोडशाधिक शत प्रसादे द्रमाणामवाप्य, तैः सुखभक्षिका विसाध्य, बालकान् तया सन्तर्पयन् 'राज्ञो दानमल्पमित्युपहसन् , कुपितेन राजा निर्वासितो विदेशं गतः / तत्रत्य भूपतेः परितोषिताद् गजयुगलमानीयोपायनीकुर्वन् पौलुक्यभूपालेन संमानितः / कदाचित् कोऽपि वैदेशिकगन्धर्वो 'मुषितोऽस्मी'ति तारं बुम्बारवं कुर्वाणः, 'केन मुषितोऽसीति राजाषिबितो 'मम गीतकलयालुलया सामीप्यमुपेयुषा कौतुकार्पितगलगडलेन नश्यता सगेणेति विज्ञापयामास / तदनु Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71. इमारपाउप्रबोषप्रबन्ध सोलामिधानो गन्धर्वराद नृपतिना समादिष्टः, अटवीमटन्तं स्फीतगीतादिकृष्टिविषया गले खेलत्कनकधाम नगरान्तः समानीय तस्स भूपतेः सभासमक्षं दर्शयामास / अथ तत्कलाकौशलेन चमत्कृतमानसः नृपतिः सोलाकं गीतकलाया भवर्षि पप्रच्छ / स तु शुष्कदारुणः पल्लवप्ररोहमवधि विज्ञप्तवान् / तर्हि तस्कौतुकं दर्शयेत्यादिछ, बघुदाद् गिरेविरहनामानं वृक्षमाक्षेपादानाय्य तत्शुष्कशाखाखण्डं राजाङ्गणे कुमारमृत्तिकालसालवाले चिक्षेप / मल्हारवर्णातअनवयगीतकलया सघः प्रोल्लसत्पल्लवितं निवेदयन्, स सपरिवारं नृपं तोषयामास / तदा सन्तुष्टेन राजा पारितोषके ग्रामयमलं दत्तम् / -बइकारसोलाप्रबन्धः। 11. कृतोपकारानाकार्य सर्वान् सत्त्वहितस्ततः / कृतज्ञः कृतवान् राजा तेषां पूजां यथोचिताम् // 21 18. . खामिभक्तो जनोत्साही कृतज्ञो धार्मिकः शुचिः। अकर्कशः कुलीनश्च शास्त्रज्ञः सत्यभाषकः // 1 // 69. विनीतः स्थूललक्षश्चाव्यसनी वृद्धसेवकः। अक्षुद्रः सत्त्वसंपन्नः प्राज्ञः शूरोऽचिरक्रियः // 2 // पूर्वपरीक्षितः सर्वोपधासु निजदेशजः।। राजार्थ-खार्थ-लोकार्थकारको निस्पृहः शमी // 3 // ' अमोघवचनः कल्पः पालिताशेषदर्शनः। पात्रौचित्ये च सर्वत्र नियोजितपदक्रमः // 4 // आन्धीक्षिकी-त्रयी-वार्ता-दण्डनीतिकृतश्रमः। क्रमागतो वणिकपुत्रो भवेन्मश्री न चापरः // 5 // इति नीतिं विमृश्य तेन राज्ञा पूर्वोपकारकर्तुः श्रीमदुदयनाङ्गजः श्रीवाग्भदेवो महामात्यचके / मालिगनामा ज्यायान् प्रधानः, महं उदयनदेवश्च / ६३२.तदा चौलुक्यराज्ञा कृतज्ञचक्रवर्तिना आलिगकुलालाय सप्तशतीग्राममिता विचित्रा चित्रकूटपट्टिका . ददे / ते तु निजान्वयेन लजमाना अद्यापि 'सागरा' इत्युच्यन्ते / यैध छिन्नकण्टकान्तरे प्रक्षिप्याक्षतो रक्षित- . स्वेङ्गरक्षकपदे प्रतिष्ठिताः / विस्मृताः श्रीहेमसूरयः। १३३.अन्यदा उवयनमत्रिणाहूताः श्रीपत्तने समायाताः समहोत्सवम् / कदाचिद् गुरुभिरूचे-'हे मत्रिन् ! त्वं भूपं रहो ब्रूयाः-अब त्वया नवीनराज्ञीगृहे न सुप्तव्यं रात्रौ, सोपसर्गत्वात् / केनोक्तमिति पृच्छेश्चेत् तदाऽत्याग्रहे मम नाम ब्याः' / ततस्तेन मत्रिणा तथोक्ते, राज्ञा च तथाकृते, निशि विद्युत्पातात् तस्मिन् गृहे दग्धे, तसांप राश्यां मृतायां राजा चमत्कृतः / जगाद सादरम्-'मविन् ! कस्सेदमनागतज्ञानं, महत्परोपकारित्वं च ततो राजानिर्वन्धे कृते मत्रिणा श्रीगुरूणामागमनमूचे / तत् श्रुत्वा प्रमुदितो नृपस्तानाकारयामास / राजसभायामुपागतानभ्युत्थाय ववन्दे, प्राञ्जलिरुवाच च-'भगवन्नहं निजास्यमपि दर्शयितुं नालं तत्रभवताम् / तदा स्तम्भतीर्थे रक्षितः, भाविराज्यसमयचिठडिका चार्पिता / परमहं प्राप्तराज्योऽपि नास्मार्षम् / युष्माकं निष्कारणप्रथमोपकारिणामहं कथंचनापि नानृणीभवामि' / सूरिभिरूचे इत्यं विकत्थसे कस्मात् त्वमात्मानं मुधा नृपः / उपकारक्षणो यत्ते संप्रत्यस्ति समागतः // 22 कृतज्ञत्वेन चेत् प्रत्युपचिकिस्त्वं, तर्हि विश्वजनीने श्रीजैने धर्मे निजं मनो निधेहि / राज्ञा तत्प्रतिपयोक्तम्'युम्माभिरिहानिशमागन्तव्यमिति' / एवमाचार्यैः सह राज्ञः संगतिः समजनि / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत 634. अथ श्रीकुमारपालः समस्तसामन्तचक्रवालचतुरङ्गचमूचंक्रमणचलाचलभूवलयः, दिग्विजययात्राये चचाल / तत्र प्रथमं दक्षिणाशां प्रति प्रस्थितो लाट-महाराष्ट्र- कर्णाट-तिलंगादिदेशाना विन्ध्याचलमसाधयत् / ततो दक्षिणसमुद्रतटनिकटेष्टन् कलोलान् दृष्ट्वा कम्पकारणमपृच्छत् / तत्र कवयः प्रोचुः प्राप्तः श्रीरेष कस्मात् पुनरपि मथितं मन्थखेदं विधिच्छुः निद्रामप्यस्य संप्रत्यनलसमनसो नैव संभावयामि। सेतुं बध्नाति भूयः किमिति च सकलद्वीपनाथानुपात स्त्वय्यायाते विकल्पानिति दधत इवाभाति कम्पः पयोधेः // 1 // - सपादलक्षटंकानौचित्येऽदात् / ततः सेतुबन्धं विलोक्य श्रीरामदेवप्रशस्तिमवाचयत् / यया७४. शय्या शाड्वलमासनं शुचि शिलासा द्रुमाणामधः, शीतं निर्झरवारि पानमशनं कन्दाः सहाया मृगाः। इत्यप्रार्थितलभ्यसर्वविभवे दोषोऽयमेको वने, दुःप्रापार्थिनि यत्परार्थघटनावन्ध्यैर्वृथा स्थीयते // 1 // _ अहो रामस्य वदान्यता वनेऽपि / ततः परशुरामस्याश्रमं विलोक्योवाच-'अहो ! क्रोधस्य विस्फूर्जितम् / यः पूर्व खां जननीमघातयत्' / ततः७५. येन त्रिःसप्तकृत्वो नृपवलवसासान्द्रमास्तिक्यपङ्कः,' __ प्राग्भारेऽकारि भूरिच्युतरुधिरसरितारिपूरेऽभिषेकः / यस्य स्त्रीवालवृद्धावधिनिधनविधौ निर्दयो विश्रुतोऽसौ, - राजन्योचांसकूटकथनपटुरटद् घोरधारः कुठारः॥१॥ अहो प्राणिनां सकलपुरुषार्थप्रत्यर्थी सदा संनिहितोऽयं क्रोधः आचन्द्रार्कमयशःपटुपटहघटनापण्डित इति * संचिन्त्य पश्चाद् व्याघुट्यमानः पथि प्रवीणजनवाणीमशृणोत् / यथा७६. तावकीनकटकैरथोद्धता धूलयो जगति कुर्युरन्धताम् / चेदिमाः करिघटामदाम्भसा भूयसा प्रशमयेन्न सर्वतः॥१॥ सपादलक्षमत्र दानम् / / अथ पश्चिमां प्रति चचाल / तत्र सुराष्ट्र-ब्राह्मणवाहक-पंचनद-सिन्धु-सौवीरादिदेशान् साधयामास / तत्र सिन्धुपश्चिमतटे पद्मपुरे पानृपपुत्री पद्मिनी पद्मावती नानी खप्रतीहारीमुखेन श्रीकुमारपालदेवस्यातिरूपादिखरूपं श्रुत्वा, ततः कृतनिश्चया पित्रा विसृष्टा, सप्तकोटीद्रव्ययुता, सप्तशतसैन्धवतुरङ्गमपरिवृता, खसमानषोडशवराङ्गनासहिता, स्वयंवरा समायाता राज्ञा परिणीता / अस्मिन्नवसरे कश्चित् पपाठ७७. एकत्रिधा हृदि सदा वसति स्म चित्रं यो विद्विषां विदुषां च मृगीहशांच। तापं च संमदभरं च रति च सिञ्चत् सूर्योष्मणा च विनयेन च लीलया च // 1 // ___अत्रापि सपादं लक्षदानम् / ततः पश्चादागच्छन् द्वारिकासन्नः केनापि विज्ञप्तः- देवात्र कृष्णराजो बलिनिकन्दनो राज्यमकरोत् / तत्र देवदाये द्वादशग्रामान् ददौ / अथोत्तरां प्रति प्रतस्थे / तत्र कास्मीरोड्डियान-जालंधर-सपादलक्ष-पर्वत-स्वसादिदेशाना हिमाचलमसाधयत् / तत्र गंगातटे नानावेषक्रियाशास्त्रदैवतादिभेदेन परस्पराधिक्षेपपरान् विवदमानान् बहुविधतीर्थकानवलोक्याचिन्तयत्. . .78. प्रसन्नस्यास्तसङ्गस्य वीतरागस्य योगिनः / - भवन्ति सिद्धयः सर्वा विपर्यासे न किंचन // 1 // Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध 79. सर्वज्ञता नास्ति मनुष्यलोके नात्यन्तमृग्वाऽपि जनो हि कधित / ज्ञानेन हीनोत्तममध्यमेन यो यद् विजानाति स तेन पण्डितः॥२॥ ततस्तत्र राजा निजकीर्तिप्रसरावसरमवेत्य सकलपाखण्डिनां यथाकामं दानमदात् / ततो वाणारयां भूतानन्दयोगिनं बहुपरीवारवृतं अनेकविद्यामत्रतत्रयत्रादिविचित्रकलाकौशलेनात्मीयकृतबहुजनं दृष्ट्वाऽचिन्तयत्८०. ये लुब्धचित्ता विषयार्थभोगे बहिर्विरागा हृदि बद्धरागाः। . ते दाम्भिका वेषधराश्च धूर्ता मनांसि लोकस्य तु रजयन्ति // 1 // - 81. कुलीनाः सुलभाः प्रायः सुलभाः शास्त्रशालिनः। सुशीलाश्चापि सुलभा दुर्लभा भुवि तात्त्विकाः॥२॥ ततः प्राची प्रति प्रतस्थे / तत्र कुरु-सूरसेन कुशावर्त्त-पांचाल-विदेहा-दशार्ण-मागधादीन् देशानसाधयत् / ततो राजाऽग्रतो गच्छन् क्वापि वने निर्विजने रहः प्रदेशे कमपि मुनिपुंगवमेकाकिनमन्तः समा- " विखाधीनमनःप्रयोगं नासाग्रविन्यस्तार्द्धनिमीलितनयनं प्रशमपीयूषपानसुहितं सकलपाणिवर्गस्य निजसंसर्गप्रणाशितनिसर्गवैरं खान्तैकान्तभावज्ञातनृपनिर्मितप्रणामं विलोक्य राजा सविस्मयं चिन्तयति स्म८२. तृणं ब्रह्मविदः खर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम् / विरक्तस्य तृणं नारी निरीहस्य तृणं नृपः॥१॥ ततो राजा क्षणान्तरे कृतप्रणामः पुनः सकलभवक्लेशनाशिनी धर्माशिषां समासाद्य प्रश्नमकरोत्-भगवन् ! . कयं तुरन्तविषयाशा निराशाश्चके ?' मुनिरुवाच-'राजन् ! 83. यस्यात्म-मनसोभिन्नरुच्योमैत्री प्रवर्तते। योगविनैकनिनेषु तस्येच्छाविषयेषु का // 1 // एतन्निशम्य राजा सपरिकरः क्षणं मुनिप्रभावात् प्रशान्तखान्तः चेतसि चिन्तां चकार / अहो स्वार्थकृतस्यापि साम्यस्य महिमा नहि मानगोचरः / यतः८४. सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं, . मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजङ्गम् / वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजेयु ___ इंष्ट्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् // 1 // . ततो मुनिखरूपं निरूप्य स्वात्मानं निनिन्दः / अहो विषयाशाकलुषं जगत् / ततो मुनिदेशानां निशम्य / कतिमिः प्रयाणैः साधितभूवलयः, निभृतं भृतभाण्डागारः, चतुरङ्गचमूचञ्चलीकृतचतुराशः, पूरितार्थिजनाशः, कृतकुनीतिप्रणाशः, प्रादुःकृतधर्ममार्गप्रकाशः, यशःपुञ्जपूरितत्रिभुवनावकाशः श्रीकुमारपालनरेश्वरः कृतप्रवेशमङ्गलमहोत्सवः श्रीपत्तनमाजगाम / द्वासप्ततिसामन्तभूपालैः कृतराज्याभिषेकः साम्राज्यं करोति / 335. अथान्यदा श्रीचौलुक्यचक्रवर्ती सर्वावसरे स्थितः कौंकणदेशीयस मल्लिकार्जुनस्य राज्ञो मागधेन राज पितामह इति बिरुदमभिधीयमानमसृणोत् / 85. यथा-जित्वा प्राग निखिलानिलापतिवरान् दुर्वारदोर्वीर्यतः, कृत्वा चात्मवशंवदानविरतं तान् पौत्रवत् सर्वदा। धत्ते राज पितामहे ति बिरुदं यो विश्वविश्वश्रुतं, . सोऽयं राजति मल्लिकार्जुननृपः कोदण्डविद्यार्जुनः॥१॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत एतदाकर्ण्य सोष्माणं राजानमधिगम्यागाधबुद्धिनिधिर्मागधः पुनरभ्यधात् - 86. रवेरेवोदयः श्लाघ्यः कोऽन्येपामुदयाग्रहः। . म तमांसि न तेजांसि यस्मिन्नभ्युदिते सति // 1 // 87. यतः-अहंकारे सति प्रौढे वदत्येवं गुणावली।। अहं कारे पतिष्यामि समायाता तवान्तिकम् // 2 // ___ इति मागधवचनैरुद्दीपितो राजाऽवदत्-'अहो अविज्ञाताहंकारम्वरूपोऽयं भूपः / ' ततस्तदसहिष्णुतया खसभां निभालयन् , नृपचित्तविदा मत्रिश्रीआम्बडेन कृतं ललाटे करसंपुटम् / दृष्ट्वा चमत्कृतो भूपतिः / समाविसर्जनानन्तरमञ्जलिबन्धस्य कारणमपृच्छत् / ततो मत्रिपुत्रोऽवदत-देव! यदस्यां सभायां स कोऽपि सुभटोऽस्ति यो मिथ्याभिमानं नृपाभासं चतुरङ्गनृपवत् मल्लिकार्जुनं जयतीति युष्मादाशयविदा मया स्वाम्यादेशक्षमेणायम"अलिबन्धश्चके / इति तद्वचः श्रुत्वा राजाऽवदत्-'अहो अस्य चातुर्यम्' / 88. उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते हयाश्च नागाश्च वहन्ति चोदिताः। अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः परेगितज्ञानफला हि बुद्धयः॥१॥ ततस्तद्वचःसममनन्तरमेव नृपस्तं प्रति प्रयाणाय दलनायकं कृत्य पञ्चाङ्गप्रसादं दत्त्वा समस्तसामन्तैः समं विससर्ज / स चाविच्छिन्नप्रयाणैः कौंकणदेशमासाद्य दुर्वारवारिपूरां कालंविणिनाम्नी नदीमुत्तीर्य परस्मिन् कूले 4 गते सैन्ये तं संग्रामासजं विमृश्य मल्लिकार्जुनः सर्वाभिसारेण प्राहरन् तत्सैन्यं त्रासयामास / अथ तेन पराजितः स सेनापतिः कृष्णवदनः कृष्णच्छत्रालंकृतमौलिः कृष्णगुड्डुरे निवसन् श्रीपत्तनबहिःप्रदेशे स्थितः। __ अथ विजयादशमीदिने राजपाटिकागतेन श्रीचौलुक्यभूभुजा विलोक्य 'कस्यासौ सेनानिवेशः 1 इति पृष्टे कश्चिदुवाच-'देव ! कौंकणात् प्रत्यावृत्तस्य पराभूतस्याम्बडसेनापतेः सेनासंनिवेशोऽयमिति / ' तदीयलजया चमत्कृतो नृपश्चिन्तयति स्म-'अहोऽस्स लजाशीलत्वम् / अत्रान्तरेऽवसरपाठकः पपाठ॥ 89. लज्जां गुणोघजननी जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदया अनुवर्तमानाः। तेजखिनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् // 1 // ततोऽस्य सपादलक्षदानमदात् / पुनः प्रसादललितया दृशाऽऽम्बडं संभाव्य तदपरैर्बलवद्भिः सामन्तैः समं मल्लिकार्जुनं जेतुं प्राहिणोत् / ततः कतिभिः प्रयाणैः पुनस्तां नदीमासाद्य प्रवाहबन्धे विरचिते तेनैव पथा सैन्यमुत्तार्य सावधानवृत्त्या सन्मुखमायातेन मल्लिकार्जुनसैन्येन सहासमसमरारम्भे जायमाने हस्तिस्कन्धारुढं - वीरवृत्त्या मल्लिकार्जुनमेव रुरोध / द्वयोश्चिरं खड्गाखड्गि दृष्ट्वा मागधः पपाठ९०. अभिमुखागतमार्गणधोरणिध्वनित पल्लवताम्बरगहरे।। वितरणे च रणे च समुद्यते भवति कोऽपि परं विरलः परः॥१॥ इति श्रुत्वा वर्द्धितोत्साह आम्बडः सुभटो दन्तिदन्तमुसलसोपानेन कुम्भस्थलमधिरुह्य माद्यदुद्दामरणरसः 'प्रथमं त्वं प्रहर, इष्टं वा दैवतं स्मर' इत्युच्चरन् , करवालधाराप्रहारात मल्लिकार्जनं भूपीठे लोठयित्वा. सामन्तेष - तन्नगरलुण्टनव्याप्तेषु केसरिकिसोर इव करिणं तं लीलयैव जघान / तन्मस्तकं सुवर्णेन वेष्टयित्वा तस्मिन् देशे श्रीचौलुक्यनृपाज्ञां दापयित्वा, त्रिशतीजालान् प्रज्वाल्य श्रीपत्तनमाजगाम / ततः सभानिषण्णेषु द्वासप्ततिसामन्तेषु तस्य कोशमार्पयत् / शाटी शृंगारकोट्याख्या, पटं माणिक्यनामकं / पापक्षयं करं हारं मुक्ताशुक्तिं विषापहाम् // 23 हैमान् द्वात्रिंशतं कुम्भान् मनुभारान् प्रमाणतः / षण् मूडकांस्तु मुक्तानां स्वर्णकोटीः चतुर्दशः // 24 विशं शतं च पात्राणां चतुर्दन्तं च दन्तिनम् / श्वेतं सेडुकनामानं दत्त्वा नव्यं नवग्रहम् // . 25 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध सायपरमपि तत्सत्कं सर्व समर्प्य तच्छिरःकमलेन खस्वामिनः श्रीकुमारपालस पादौ पूजयामास / महावदातप्रीतेन राज्ञा श्रीआम्बडस्य ‘राज पितामह' इति विरुदं दत्तम् / चतुर्विंशतिशतं जात्वतुरंगबाब प्राप्य तेन खगृहादक सर्वे याचकेभ्यः प्रदत्ताः / अत्रान्तरे पिशुनप्रवेशः। 91. यतः-जम्मे विजं न हू नहु होही जं च जम्मलक्खेहिं / तं चिय जंपति तहा पिसुणा जह सच्चसारिच्छं // 1 // ततः प्रभाते किंचिनेन राज्ञा सेवावसरे समायातः प्रणामपर्यन्ते श्रीआम्बडः प्रोक्तः- 'त्वं मम दानादप्पषिकमियत् कस्माद्दत्से ? / यतः, सेवकेन खामिन आधिक्येन दानं न देयमिति सेवाधर्मः / ' अत्रावसरे श्रीजाम्बडस्य मागधः पपाठ राजसभायाम् - . . '92. शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरूणां त्वचा, - सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिभृतां वृत्तिः फलैः कोमलैः। / येषां नैर्झरमम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना, मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्यद्धो न सेवाञ्जलिः // 1 // मत्रिणा लक्षमौचित्ये दत्तम् / राज्ञः समधिकः कोपः। ततो मत्रिणा प्रोचे-'राजन् ! त्वं द्वादशग्रामस्वामिनत्रिभुवनपालपुत्रः, अहं त्वष्टादेशदेशाधिपत्यभुजस्तव पुत्रः / ततः स्तोकमिदं मम दानमिति' श्रुत्वा राजा प्रमुदितः पुत्रपदमदात् / द्विगुणं च प्रसादमकरोत् / अत्रान्तरे राज्ञो मागधः पपाठ९३. ते गच्छन्ति महापदं भुवि परा भूतिः समुत्पद्यते, तेषां तैः समलंकृतं निजकुलं तैरेव लब्धा क्षितिः। तेषां द्वारि नदन्ति वाजिनिवहास्ते भूषिता नित्यशो, ये दृष्टाः परमेश्वरेण भवता रुष्टेन तुष्टेन वा // 1 // - राजा सपादलक्षदानमदात् / ततः यः कौबेरीमा तुरुष्कमैन्द्रीमा त्रिदिवापगाम् / याम्यामा वन्ध्यमा सिन्धुं पश्चिमा यो घसाधयत् // 1 // अष्टादशदेशेषु राज्ञ आज्ञा प्रवर्तिता श्रीआम्बरेन / . . 36. अथान्यदा श्रीहेमसूरिमाता चाहिणिदेवी प्रव्रजिता / कालान्तरे कृतानशना नमस्कारकोटिपुण्ये दत्ते सति श्रीपत्तने पुण्यवरे त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रादिलक्षग्रन्थो नवीनः कार्यः इति प्रोक्ते सति सूरिणा, सा मृता।। कर्णमेस्त्रासादाग्रे विप्रैस्तथा भरडकैरसूयया तद्विमानभनेऽत्यन्तदूनाः श्रीसूरयस्तदुत्तरक्रियां निर्माय तेनैव मन्युना मालवकदेशे संस्थितस्य श्रीकुमारपालस्स स्कन्धावारमलंचक्रुः / . प्रभुः स्वयं यदि भवेत् स्वकरे वा यदि प्रभुः। स शक्नोति तदा कार्य कर्तुं नैवान्यथा पुमान् // 1 // इति वचस्तत्त्वं विचिन्तयन्तः श्रीमदुदयनमत्रिणा नृपतेर्निवेदितागमनाः कृतज्ञशिरोरत्नेन नृपेण परो-. परोधान्महोत्सवपुरस्सरं सौधमानीताः / तद् राज्यप्राप्तिनिमित्तज्ञानं स्मारयन् नृपः, तत्रभवद्भिः सदैव देवपूजावसरेषु समागम्यमिति प्राह / सूरिरुवाच भुञ्जीमहि वयं भैक्षं जीर्ण वासो वसीमहि / शयीमहि महीपछे कुर्सीमहि किमीश्वरैः // 1 // 94. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत राजाह-'महर्षे ! ऽहं परलोकसमाचरणाय समतृणमणिभिर्भवद्भिः सह संगतिसांगत्यमभिलषामि। यतः९७. एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा............॥१॥ 98. विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि / आकर्णदीर्घोज्वललोचनोऽपि दीपं विना पश्यति नान्धकारे // 2 // ___ महाकविप्रणीतत्वात् / किं मित्रं यन्निवर्त्तयति न पापात्' / श्रीसर्वज्ञशासने महाप्रभावनां ज्ञात्वा श्रीगुरुमिरप्रति षिद्ध तद्वचनम् / ततो नृपस्तस्य महर्षेः परीक्षितचित्तवृत्तिः श्रीमुखेन सर्वावसरं वेत्रिणमादिदेश। . 637. अथ तत्र यातायाते संजायमाने सूरीणां गुणग्रामस्तवं कुर्वत्युर्वीपतौ पुरोधा विरोधादित्यभ्यधात् -'अमी न नमस्कारार्हाः, अजितेन्द्रियत्वात्' / कथमिति राज्ञा पृष्टे प्राह - 99. विश्वामित्र-पराशरप्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशिनः, तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः / आहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा स्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भः समालोक्यताम् // 1 // इति वचः श्रुत्वा श्रीसूरिभिरूचे-'न चैवमाहारमाहारयन्ति मुनयः। न चैकान्तेनाजितेन्द्रियत्वकारणमाहारः, किन्तु मोहनीयकर्मणः प्रकृतिरपि, तीव्रमन्दमन्दतरभेदा / तथा च॥ 100. सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी, संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् / ... पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः॥३॥ इति तन्मुखमुद्राकारिणि प्रत्युत्तरेऽभिहिते नृपः प्रमुदितः / / 638. पुनः कियदिने गते नृपप्रत्यक्षं केनापि मत्सरिणाऽभाणि - 'राजन्नेते जैनाः सूर्य न मन्यन्ते, प्रत्यक्षदैवतम् / तत्र श्रीसूरिः प्राह अधामधामधामेदं वयमेव हृदि स्फुटम् / यस्यास्तव्यसने प्राप्ते त्यजामो भोजनोदके // 1 // इति प्रामाण्याद् वयमेव भक्ताः सूर्यस्य नचैते तत्त्वतः / पयोदपटलेश्छन्ने नैव कुर्वन्ति भोजनम् / अस्तंगतेऽतिभुञ्जाना अहो भानोः सुसेवकाः // 2 // ___ व्यासेनापि प्रोक्तम् - ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयन्ति सुमेधसः। तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते // 3 // 639. इति तन्मुखबन्धे जाते कदाचिद्देवपूजाक्षणे सौधमागते मोहान्धकारतिरस्कारचन्द्रे श्रीहेमचन्द्रे यश. चन्द्रगणिना रजोहरणेनासनपट्ट प्रमार्ण्य तत्र कम्बले निहिते ज्ञाततत्त्वजुषां किमेतदिति नृपेण पृष्टाः श्रीगुरवः * प्राहुः-'राजन् ! कदाचिदिह कोऽपि जन्तुर्भवति, तदा तत्पीडापरिहरणायासौ प्रयत्नः, सर्वजन्तुरक्षारूपत्वाद् धर्मरहस्यस्य' / 'यदा प्रत्यक्षतया दृश्यते जन्तुस्तदैवेदं युज्यते नान्यथा वृथाप्रयासहेतुत्वादिति' युक्तियुक्तां नृपोक्तिमाकर्ण्य श्रीगुरुभिरुक्तम् - 'राजन् ! यथा भवद्भिश्चौराद्यभावेऽपि नगररक्षार्थ प्रत्यहमारक्षिकाः स्थाप्यन्ते, कटकाभावेऽपि गजतुरङ्गमादिचमूः श्रमाभ्यासं काराप्यते, मा मुष्णन्तु नगरमिति / तथात्रापि ज्ञेयम् / राबव्यवहारवद् धर्मव्यवहारः। तथा चागमः- . 103. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपाळप्रबोधप्रबन्ध 101. पाणेहिं संसत्ता पडिलेहा होइ केवलीणं तु / संसत्तमसंसत्ता छउमत्थाणं तु पडिलेहा // 1 // . संसजा धुवमेयं.........॥२॥ संसत्तमसंसत्ता.........॥३॥ 105 तित्थयरा रायाणो साहू आरक्खि भंडगं च पुरं। तेणसरिसा य पाणा तिगं च रयणा भयो दंडो॥४॥ तथा धर्मसमुद्देशेऽप्युक्तम्- . 106. आत्मवत् सर्वजीवेषु कुशलवृत्तिचिन्तनम् / धर्माधिगमनोपायः शक्तितस्त्यागतपसी च // 1 // एतदाकर्ण्य राजा चमत्कृतोऽवादीत् - 'अहो ! श्रीजैनागमगम्भीरता जीवरक्षादक्षता च' / ततः समधिका श्रीजिनमतानुरागः समजनि नृपस्य / 640. अथ राज्ञा श्रीगुरूणां हैमटंककसहस्रदशकं पुरो मुक्त्वा योगक्षेमकरणाय गृह्यतामित्युक्ते श्रीसूरिभिरूचे'सर्व दीयमानं द्विजा गृह्णन्ति, नतु वयम्' / ततो राज्ञोचे- 'भगवन्नेते परदर्शनिनः सर्वेऽपि मया दीयमानं सर्वखमपि गृह्णन्ति / परं ब्रह्मचारिभिर्निर्ग्रन्थैर्भवद्भिः कस्मात् कमपि नादीयतेति ?' सूरयः प्राहुः- 'राजन् ! सर्वशासविरोधहेतुत्वात् प्रतिषिद्धं राजपिण्डम् / यदाह स्मृतौ - - 107. अधीत्य चतुरो वेदान् साङ्गोपाङ्गान् सलक्षणान् / शूद्रात् प्रतिग्रहं कृत्वा खरो भवति ब्राह्मणः // 1 // 108. खरो द्वादशजन्मानि षष्टिजन्मानि शूकरः। श्वानः सप्ततिजन्मानि इत्येवं मनुरब्रवीत् // 109. राज्ञः प्रतिग्रहो घोरो मधुस्वादो विषोपमः / पुत्रमांसं वरं भुक्तं नतु राजप्रतिग्रहः // - 110. राजप्रतिग्रहदग्धानां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर!। सटितानामिव बीजानां पुनर्जन्मो न विद्यते // 4 // -- महाभारते शान्तिपर्वेऽप्युक्तम् / तथा जैनागमे च१११. संनिहीगिहमित्ते य रायपिंडे किमिच्छिए / ......... // 112... संवाहणं दंतपहोयणाय संपुच्छणदेहपलोअणा य // ___ एतत्सर्वं साधूनामनाचीर्णम् / आचेलुक्क उद्देसिय सिजायर रायपिंड किइकम्मे / वयजिट्टपडिकमणे मासं पज्जोसवणकप्पे // 1 // इति दशधा साधूनां सामाचारीकल्पः / इत्याकर्ण्य राजा प्रमुदितो जैनाचारप्रशंसामकार्षीत् / लजिताश्च द्विजाः सर्वेऽधोमुखा अभूवन् / . 641. अथ कतिभिर्दिनै राजा श्रीपत्तनमाजगाम / अन्यदा सभायां निषण्णे राजनि सपरिकरे कोऽपि मत्सरी प्राह'राजन्नेते जैना वेदान् न मन्यन्ते, अतो वेदबाह्या न नमस्कारार्हाः' / किमेतदिति पृष्टा राज्ञा श्रीसूरयः प्राहुः- 'राजन् ! " यदि वेदेषु जीवदयाधर्मोऽस्ति तर्हि सकलशास्त्रसंवादशुद्धं जीवदयाधर्म कुर्वाणां वयं कथं वेदबायाः / यदाहुः११४. अहिंसा प्रथमो धर्मः सर्वशास्त्रेषु विश्रुतः। यत्र जीवदया नास्ति तत्सर्व परिवर्जयेत्॥ 115. ध्रुवं प्राणिवधो यज्ञे नास्ति यज्ञस्त्वहिंसकः। सर्वसत्त्वेष्वहिंसैव दयायज्ञो युधिष्ठिर!॥ 116. यदि प्राणिवघे धर्मः खर्गश्च खल्लु इष्यते।संसारमोचकानां च ततः खर्गोऽभिधीयते। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत जैनागमश्च - 117. सबभूअप्पभ्यस्स संमं भूयाई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई। 118. सधे जीवा विइच्छंति जीविउं न मरिबिउं। तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वजयंति गं॥ * अथ वेदेषु नास्ति जीवादया तर्हि न प्रमाणम् , चार्वाकधर्मशास्त्रवत् , दयाविकलत्वात् / किमस्माकं दया. * धर्मनिष्ठानां तैः प्रयोजनमिति श्रुत्वा ते सर्वे तूष्णीं कृत्वा स्थिताः / चमत्कृतो राजा दयाधर्मे मनो दधौ। .. 642. अथान्यदा विप्रैः सम्भूय प्रोक्तम् -'शूद्रा एते, न प्रणामार्हाः' / श्रीगुरुभिरुक्तम् - 'किं नाम तत् शूद्रत्वं, प्रामणत्वं वा किमुच्यते / न तावदेकान्तेन जात्या शूद्रत्वं, ब्राह्मणत्वं वा भवति / यदुक्तम् - 119. शूद्रोऽपि शीलसंपन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् / ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शुद्रापत्यसमो भवेत् // // 120. अतः-सर्वजातिषु चाण्डालाः सर्वजातिषु ब्राह्मणाः / ब्राह्मणेष्वपि चाण्डालाः चाण्डालेष्वपि ब्राह्मणाः // 121. कृषि-वाणिज्य-गोरक्षां राजसेवामकिंचनाः। ये च विप्राः प्रकुर्वन्ति न ते कौन्तेय ! ब्राह्मणाः // 3 // 122. हिंसकोऽनृतवादी च चौर्ययाभिरतश्च यः। परदारोपसेवी च सर्वे ते पतिता द्विजाः॥ // 123. ब्रह्मचर्यतपोयुक्ताः समानलोष्टकाञ्चनाः / सर्वभूतदयावन्तो ब्राह्मणाः सर्वजातिषु॥ 124. क्षान्त्यादिकगुणैर्युक्तो व्यस्तदण्डो निरामिषः।न हन्ति सर्वभूतानि प्रथमं ब्रह्मलक्षणम् / / 125. सदा सर्वानृतं त्यक्त्वा मिथ्यावादाद् विरच्यते / नानृतं च वदेदू वाक्यं द्वितीयं ब्रह्मलक्षणम् // 126. सदा सर्व परद्रव्यं बहिर्वा यदि वा गृहे / अदत्तं नैव गृह्णाति तृतीयं ब्रह्मलक्षणम् // * 127. देवासुरमनुष्येषु तिर्यगयोनिगतेषु च / न सेवते मैथुनं यश्चतुर्थ ब्रह्मलक्षणम् // 128. त्यक्त्वा कुटुम्बवासंतु निर्ममो निःपरिग्रहः। युक्तश्चरति निःसङ्गः पञ्चमं ब्रह्मलक्षणम् // 129. पश्चलक्षणसंपूर्ण ईदृशो यो भवेद् द्विजः। महान्तं ब्राह्मणं मन्ये शेषाः शूद्रा युधिष्ठिर!॥ कैवर्तीगर्भसम्भूतो व्यासो नाम महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माजातिरकारणम् // 131. हरिणीगर्भसम्भूतो ऋषिशृङ्गो महामुनिः / तप०॥' 132. शुनकीगर्भसम्भूतः शुको नाम मुनिस्तथा / तप०॥ 133. मण्डूकीगर्भसम्भूतो माण्डव्यश्च महामुनिः / तप०॥ 134. उर्वशीगर्भसम्भूतो वशिष्ठस्तु महामुनिः। तप०॥ न तेषां ब्राह्मणी माता संस्कारश्च न विद्यते / तपः॥ * 136. यवत्काष्ठमयो हस्ती यचर्ममयो मृगः / ब्राह्मणस्तु क्रियाहीनत्रयस्ते नामधारकाः॥ . इति श्रुत्वा निरुत्तरेषु विप्रेषु प्रमुदितो राजा / जातं मनसि स्थैर्य श्रीजिनधर्मे / 643. अन्यदा कैश्चित् मत्सरिभिः प्रोक्तम् - 'राजन्नते मलाविलवस्त्राः स्नानाभावादपवित्रगात्रा राजसभायां स्थातुं नोचिताः। इति श्रुत्वा तत्र सकलराजवर्गसमक्षं श्रीसूरिभिरभिदधे- 'कस्य नामापावित्र्यं, शरीरस्यात्मनो वा ? यदि शरीरस्य तर्हि सर्वेषां शरीरस्य तावत् सप्तधातुमयत्वात् पावित्र्यापावित्र्यविभागः कर्तुं केनापि. नो पार्यते / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध भारमनवेत् तद् युष्मादृशामनतिशयदृशां प्राकृतपुरुषाणामतीव दुर्लक्ष्यम् / जलक्षालनकृतं तु यत् पावित्र्यापावित्र्यविवेचनं तन्मूढविस्मापनम् / यदुक्तम् - 137. शौचमाध्यात्मिकं त्यक्त्वा भावशुद्ध्यात्मकं शुभम् / / जलादिशौचं यद् दृष्टं मूहविमापनं हि तत् // 138. कुर्याद् वर्षसहस्राणि प्रत्यहं मन्जनं मुहुः। सागरेणापि कृत्लेन वधको नैव शुद्यति॥' 139. चित्तं रागादिभिः कान्तमलीकवचनैर्मुखम् / जीवहिंसादिभिः कायो गंगा तस्य पराङ्मुखी // 140. चित्तमन्तर्गतं शुद्धं वदनं सत्यभाषणैः। ब्रह्मचर्यादिभिः कायः शुद्धो गंगाविनाप्यसो॥ 141. ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा संयमेन च / मातंगा अपि शुद्ध्यन्ति न शुद्धिस्तीर्थयात्रया॥ 142. . शृङ्गारमदनोत्पादं यस्मात् लानं प्रकीर्तितम् / तस्मात् लानं परित्यक्तं नैष्ठिकैब्रह्मचारिभिः॥. 153. सुखशय्यासनं वस्त्रंताम्बूलं स्लानमण्डनम् / दन्तकाष्ठं सुगन्धं च ब्रह्मचर्यस्य दूषणम्॥ 144. सत्यं शौचंतपः शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौचं जलशौचंच पश्चमम् / / ___ इति शास्त्रोक्तं किं युष्माभिरपि न दृष्टं न वा श्रुतं, येनेयं चर्चा क्रियते ।'-इति निशम्य नृपः सपरिकरः प्रमुदितः / ज्ञातः शौचस्य समाचारः / प्राह च तदा- 'अहो ! श्रीहेमसूरीणां खपरशास्त्ररहस्यस्मृतिः, सदाचार-॥ चतुरता च / 145. यतः-एहिरेयाहिरांचके केषां न श्रुतिषु श्रुतम्। परंपरिमलस्तस्य विलीनो विमलात्मसु॥ ज्ञातं च जलशौचं मूढजनमनोविस्मापनम् / 644. अथान्यदा क्षमापतिः पप्रच्छ - 'कयापि युक्त्याऽस्माकमपि यशःप्रसरः कल्पान्तःस्थायी भवति ?" -इति तदीपां गिरमाकर्ण्य 'विक्रमार्क इव विश्वस्यानृणकरणात्, यद्वा श्रीसोमेश्वरस्य प्रासादं वारांराशितरंगनिकरासन्ना- . म्भोभिः शीर्णप्राय युगान्तकीर्तये समुद्धर' - इति चन्द्रातपनिभया श्रीहेमचन्द्रगिरा उद्वेलप्रमदाम्भोधिनृपस्तमेव महर्षि पितरं दैवतं गुरुं मन्यमानो नितरां द्विजान् निन्दन् , तदैव प्रासादोद्धाराय दैवज्ञनिवेदिते सुलग्ने तत्र पञ्चकुलं प्रस्थाप्य प्रासादप्रारम्भमचीकरत् / अथ श्रीसोमेश्वरस्य प्रासादप्रारम्भे खरशिलानिवेशे संजायमाने सति पञ्चकुलप्रहितवर्द्धापनिकाविज्ञप्तिकां नृपतिः श्रीहेमचन्द्रगुरोर्दर्शयन् 'अयं प्रासादप्रारम्भः कथं निःप्रत्यूहं प्रमाणभूमिमधिरोढमेति ?' इति पृथिवीपरिवृढेनानुयुक्तः श्रीमान् किंचिदुचितं विचिन्त्य गुरुरूचिवान् -'यदस्य धर्मकार्यस्यान्तरायं / परिहाय ध्वजाधिरोपं यावद् अब्रह्मसेवानियमोऽथ मद्यमांसनियमः, द्वयोरेकतरं किमप्यङ्गीकुरु'-इति तद्वचनमाकर्ण्य नृपतिर्मद्यमांसनियममभिलपन् श्रीनीलकण्ठस्योपरि जलं विमुच्य तमभिग्रहं जग्राह / संवत्सरद्वयेन तस्मिन् प्रासादे कलशध्वजाधिरोपं यावद् गते सति तं नियमं मुमुक्षुर्गुरुननुज्ञापयन् , तैरूचे- 'यधनेन निजकीर्तनेन सार्द्धमर्द्धचन्द्रचूडं प्रेक्षितुमर्हति भवान् तद्यात्रापर्यन्ते नियममोचनावसरः।' इत्यभिधायोत्थिते श्रीहेमचन्द्रमुनीन्द्रे गते तद्गुणैरुन्मीलन्नीलिरागरक्तहृदयस्तमेकमेव संसदि प्रशंसन् निर्निमित्तो वैरी परिजनस्तेजःपुलमसहिष्णुः कश्चिन्मिथ्यादृष्टी , राज्ञोऽग्रेजल्पत् / / . 146. उज्वलगुणमभ्युदितं क्षुद्रो द्रष्टुं न कथमपि क्षमते। दग्ध्वा तनुमपि शलभो दीपां दीपार्चिमपहरति // 1 // इति न्यायात् पृष्ठिमांसादनदोषमप्युररीकृत्य तदपवादमेवावादीत् - 'यदयममन्दच्छन्दानुवृत्तिपरः सेवा- . धर्मकुशलः केवलं प्रभोरभिमतमेव भाषते / यद्येवं न, तदा प्रातरुपेतः "श्रीसोमेश्वरयात्रायां भवता सहागच्छतु" Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त पुरातनाचार्यसंगृहीत इति गदितः स परतीर्थपरिहारान्न तत्रागमिष्यति, इति अस्मन्मतमेव प्रमाणम्' - नृपस्तद्वाक्यमादृत्य प्रातरुपागतं श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरं श्रीसोमेश्वरयात्रार्थमम्यर्थयन् 'बुभुक्षितस्य किं निमश्रणम् 1, उत्कण्ठितस्य केकारवश्रवणम् - नि लोकादि:: तपस्विनामधिकततीर्थयात्राधिकाराणां को नाम नृपतेत्र निर्यन्धः।' इत्यं गुरोरङ्गीकारे 'युष्मयोग्य सुखासप्रनभृतिवाहनादि किंचित् सन्जीक्रियतामिति ईरिते वयं पादचारेण सञ्चरन्तः पुण्यमुपलभामहे; परं वय•मिदानीं त्वामपृच्छय मितैः प्रयाणैः श्रीशत्रुञ्जयोजयन्तादिमहातीर्थानि नमस्कृत्य भवतां श्रीदेवपत्तने प्रवेशो-. त्सवे मिलिष्यामः'-इत्युदीर्य तत्तथैव कृतवन्तः / नृपतेः पुरः विप्राः प्रवदन्त्यदः-'राजन् ! हेमसूरिनंष्ट्वा गतः क्वापि, स न समेष्यति श्रीसोमपत्तने / ' नृपः समग्रसामग्र्या कतिपयैः प्रयाणैः श्रीपत्तनं प्राप्य श्रीहेमसूरीननागतान् वीक्ष्य सर्वत्र योजनपञ्चमध्ये विलोकापिताः / परं न श्रुता न दृष्टाः / यावत् किंचिन्नृपश्चिन्तयति तावत् प्रभुरले धर्माशिषं वभाण / चमत्कृतो राजा विस्मितश्च / प्रभुरूचे- 'अद्याधुना वयं श्रीरैवताचलोपरि देवान्नमस्कृत्य * भवतां प्रवेशमहोत्सवं मत्वा समायाताः' / तदा तच्छ्रुत्वा सर्वेऽपि द्विजा म्लानिं प्राप्ताः। 645. अथ महोत्सवेन पुरं प्रविश्य श्रीसोमेश्वरप्रासादसोपानकेष्वाक्रान्तेषु भूपीठलुठनानन्तरं चिरतरातुल्यायल्लकानुमानेन गाढमुपगृहे श्रीसोमेश्वरलिङ्गे, 'एते जिनादपरं दैवतं न नमस्कुर्वन्ती'ति मिथ्यादृग्वचसा भ्रान्तचित्तस श्रीहेमचन्द्रं प्रति एवंविधा गीराविरासीत् - 'यदि युज्यते तदेतैरुपहारैर्मनोहारिभिः श्रीसोमेश्वरमर्चयन्तु भवन्तः।' तत्तथेति प्रतिपद्य सद्यः क्षितिपकोशादागतेन कमनीयोगमेनालंकृततनवो नृपतिनिर्देशात् पतीयाणाविप्रश्रीबृह॥ स्पतिना दत्तहस्तावलम्बाः प्रासाददेहलीमधिरुह्य किंचिद् विचिन्त्य प्रकाशं -'अस्मिन् प्रासादे कैलासवासी. हादेवः साक्षादस्तीति रोमाञ्चकञ्चकितां तनुं बिभ्राणा द्विगुणीक्रियतामुपहारः'-इत्यादिश्य शिवपुराणोक्तदीक्षाविधिना आह्वान-अवगुण्ठन-मुद्राकरण-मत्राभ्यास-विसर्जनोपचारादिभिः पञ्चोपचारविधिभिः शिवमभ्यर्च्य तदन्ते१४७. यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया। वीतदोषकलुषः स चेद् भवान् एक एव भगवन्नमोऽस्तु ते // 1 // 148. प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताभयप्रदम् / माङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते // 149. महत्वादीश्वरत्वाच यो महेश्वरतां गतः। रागद्वेषविनिर्मुक्तं तमहं वन्दे महेश्वरम् // 150. महाक्रोधो महामानो महामाया महामदः / महालोभो हतो येन महादेवः स उच्यते॥ 151. महावीर्य महाधैर्य महाशीलं महागुणाः। महापूजाद्यर्हत्वाच महादेवः स उच्यते / / 5152. एकमूर्तित्रयो भागा ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वराः। तान्येव पुनरुक्तानि ज्ञान-चारित्र-दर्शनैः॥ 153. कार्य विष्णुः क्रिया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वरः / कार्यकारणसंपन्नो महादेवः स उच्यते॥ 154. प्रजापतिसुतो ब्रह्मा माता पद्मावती स्मृता। अभीचिजन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत्॥ 155. वसुदेवसुतो विष्णुर्माता वै देवकी स्मृता / श्रवणं तु जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् // 156. पेढालस्य सुतो रुद्रो माता वै सत्यकी स्मृता / मूलं तु जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत्॥ .157. रक्तवर्णो भवेद ब्रह्माश्वेतवर्णो महेश्वरः। कृष्णवर्णो भवेद विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् // 158. चतुर्मुखो भवेद् ब्रह्मा त्रिनेत्रस्तु महेश्वरः।चतुर्भुजो भवेद विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत्॥ ज्ञानं विष्णुः सदा प्रोक्तं चारित्रं ब्रह्म उच्यते / सम्यक्त्वमीश्वरः प्रोक्तरर्हनमूर्तिस्त्रयात्मिका / / . 160. क्षितिजलपवनहुताशनयजमानाकाशसोमसूर्याख्याः। इत्येत एव चाष्टौ[हि]वीतरागे गुणाः स्मृताः // Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध क्षितिरित्युच्यते क्षान्तिर्जलं शान्तिप्रसन्नता। निस्सङ्गता भवेद् वायुर्हताशो योग उच्यते // 162. यजमानो भवेदात्मा तपोज्ञानदयादिभिः। सोममूर्तिर्भवेचन्द्रो ज्ञानमादित्य उच्यते॥ 163. अकारेच भवेद् विष्णू रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः। हकारेण हरःप्रोक्तस्तस्यान्ते परमं पदम्। 164. पुण्यपापविनिर्मुक्तो मूर्तिरागविवर्जितः / ____ अतोऽर्हद्भ्यो नमस्कारः कर्तव्यः शिवमिच्छता // 165. हंसवाहो भवेद्ब्रह्मा वृषवाहो महेश्वरः। गरुडवाहो भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत्॥ 166. कमलहस्तो भवेद् ब्रह्मा शूलपाणिमहेश्वरः / शङ्खचक्रधरो विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् // 167. . . भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य / : ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै // इत्यादिस्तुतिभिः सकलराजलोकान्विते राज्ञि सविस्मयमवलोक्यमाने दण्डप्रणामपूर्व स्तुत्वा श्रीहेमचन्द्राचार्येषु निषण्णेषु सत्सु, भूपतिः श्रीबृहस्पतिना ज्ञापितः पूजायै समधिकवासनया शिवार्चनानन्तरं धर्मशिलायां शिव शि वे ति जल्पन् तुलापुरुषगजाश्वदानादीनि दानानि वितीर्य समग्रं राजवर्गमपसार्य, तगर्भगृहान्तः प्रवेश्य न महादेवसमो देवो, न मम तुल्यो नृपतिः, न हेमसूरिसदृशो महर्षिरिति भाग्यवैभववशादयत्नसिद्धस्त्रिकसंयोगोऽभूत् / . 646. अथ कर्पूरारात्रिकावसरे कोऽपि मिथ्याटगाह-'यदनेन सूरिणाऽर्द्धनारीनाट्येश्वरराज्यप्रदाता नात्मीयदेवो " नमस्कृतः; किन्तु वीतरागो मुक्तिदाता।' राजा प्राह- 'यदनेन मुक्तिर्न भवति, तदाऽस्माकं राज्यं पुराप्यस्ति, अधुना मुक्तिर्विलोक्यते / मुक्तिप्रदे आरात्रिकं करिष्यामः' / 'परमेष्ठिमूर्तिर्मुक्तिदाता, तत्रारात्रिकं कुरु' इत्युक्ते तत्र गत्वा परमेष्ठिमूर्तिमवलोक्य यावदारात्रिकं करोति, तावद् रामचन्द्रनामा चारणः पपाठ१६८. काहूं मनि विभंतडी अजीय मणिअडा गुणेइ। . अखयनिरंजण परमपय अजय जय न लहेइ // 1 // - इति श्रुत्वाऽऽरात्रिकं मुक्त्वा स्थितः / 'बहुदर्शनप्रमाणप्रतिष्ठासन्दिग्धे देवतत्त्वे मुक्तिप्रदं दैवतमस्मिन् तीर्थे तथ्यया गिरा निवेदय'-राज्ञा इत्यभिहिते श्रीहेमचन्द्राचार्याः किंचित् धिया निध्याय नृपतिं प्राहुः-'अलं पुराणदर्शनोक्तिभिः, श्रीसोमेश्वरमेव तव प्रत्यक्षीकरोमि, यथा तन्मुखेन मुक्तिमार्गमवैषि'-इति तद्वाक्यान्नृपश्चिन्तयति-'किमेतदपि जाघटीति ?' / इति विस्मयापन्नमानसे नृपे 'निश्चितमत्र तिरोहितं दैवतमस्त्येवेति / आवां . यदि गुरूक्तगिरा निश्चलावाराधको तदेत्थं द्वन्द्वसिद्धौ सत्यां सुकरं दैवतप्रादुःकरणम् / मया प्रणिधानं भवता / कृष्णागुरूत्क्षेपश्च तदा परिहार्यो यदा व्यक्षः प्रत्यक्षीभूय निषेधति / ' अथोभाभ्यां तथा क्रियमाणे, धूपधूमान्धकारिते गर्भगृहे निर्वाणेषु नक्षत्रमालाप्रदीपकेषु, आकस्मिके प्रकाशे द्वादशात्ममहसीव प्रसरति, नृपो नयने संभ्रमादुन्मृज्य यावदालोकते तावअलाधारोपरि जात्यजाम्बूनदद्युतिं चर्मचक्षुषां दुरालोकमप्रतिमरूपमसंभाव्यस्वरूपं तपस्विनमेकमद्राक्षीत् / तै पादाङ्गुष्ठात् प्रभृति जटाजूटावधि करतलेन संस्पृश्य निश्चितदैवतावतारः पञ्चाङ्गचुम्बितावनितलं यथाभक्त्या नत्वा भूमानिति विज्ञपयामास-'जगदीश ! भवदर्शनात् कृतार्थे मयि, आदेशप्रसादात् कृतार्थय कर्ण-. युग्मम् / ' इति विज्ञप्य तूष्णीं स्थिते नृपे तन्मुखादिति गीरभूत-'राजन् ! अयं महर्षिः सर्वदेवावतारः / अजिह्म'परब्रह्मावलोककरतलकलितमुक्ताफलवद् विज्ञातकालत्रयस्वरूपः, एतदुपदिष्ट एवाऽसन्दिग्धो मुक्तिमार्गः'-इत्यादिश्य तिरोभूते भूतपतौ उन्मनीभावं भजन् भूपतिं प्रति, रचितप्राणायामपवनः श्लथीकृतासनबन्धः श्रीहेमाचार्यो यावदिति वाचमुवाच तावदिष्टदैवतसङ्केतात् त्यक्तराज्याभिमानोऽतीव-पादोऽवधार्यतां, अधुनोत्थीयता'-इति Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरावनाचार्यसंगृहीत व्याहृतिपरो विनयनम्रमौलिर्यत्कृत्यमादिशेति व्याजहार / अथ तत्रैव नृपतेर्यावजीवं पिशितमद्यादिनियमं दत्त्वा, ततः प्रत्यावृत्तौ क्षमापती श्रीअणहिल्लपत्तनं प्रापतुः / 147. अथ प्रत्यहं राजसभायां विचारेषु जायमानेषु राजा श्रीजिनोक्तं धर्म सत्यतया मन्यमानोऽपि परं निजकुलकमायातं धर्म द्विजादीनां लाया मोक्तुं न समीहते, परापवादमीतः / * 169. यतः-कामराग-लेहरागावीषत्करनिवारणौ। दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि॥ 170. कुलक्रमेण कुर्वन्ति मूढा धर्म कुवुद्धयः / विपश्चितो विनिश्चित्य स्वचित्ते तु परीक्षया / / 171. आगमेन च युक्त्या च योऽर्थः समभिगम्यते / परीक्ष्य हेमवद् ग्राह्यः पक्षपातग्रहेण किम् // 172. श्रोतव्ये च कृती कर्णों वाग् बुद्धिश्च विचारणे / यः श्रुतं न विचारेत स कार्य विन्दते कथम् // / इति श्रीगुरुवचनमाकर्ण्य राजा परापवादभीरुः सर्वदर्शनसंवादेन धर्म जिघृक्षुः सर्वान् दर्शनविशेषान् पण्डितंमन्यान् समाहूय सर्वसमक्षं सभायां धर्मखरूपं पप्रच्छ / तेऽपि च यथाज्ञातखखागमाचारविचारं निजं निजं धर्मखरूपं प्ररूपयामासुः। 648. तत्र देवतत्त्वविचारणायां क्रियमाणायां सर्वदर्शनिभिर्नाव्याट्टहाससंगीतरागद्वेषप्रसादकोप-जगजननस्थेम. विनाशादर-शस्त्रस्त्रीपरिग्रहादिसकलसांसारिकजन्तुजातसाधारणे दैवतस्वरूपे निरूप्यमाणे श्रीगुरवः प्राहुः-'न चैवमर्वाचीनजनैः प्रोच्यमानं पारमेश्वरं खरूपम् / यदुक्तम्१७३. प्रत्यक्षतो न भगवान् वृषभो न विष्णुरालोक्यते न दहरो न हिरण्यगर्भः। तेषां खरूपगुणमागमसंप्रदायात् ज्ञात्वा विचारयथ कोऽत्र परापवादः॥१॥ 174. माया नास्ति जटाकपालमुकुटः चन्द्रो न मूर्द्धावली, खट्वाङ्गं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोग्रं मुखम्। कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं न नृत्यं पुनः, सोऽयं पातु निरंजनो जिनपतिर्देवाधिदेवः परः // 2 // राजन्नेवंविधेऽपि भवगति निर्दोषे श्रीजिनेन्द्रे यत् परब्रह्मवादिनो मत्सरिणः स्युः, तत् स्वशासनानुरागेण परशासनाभिमानस्य विजंभितम् / इति सर्वसमक्षं श्रीवीतरागस्य देवतत्त्वमवस्थाप्य सर्वेषां स्वरूपज्ञापनार्थ - निजां प्रतिज्ञा प्रादुरकाए:१७५. इमां समक्ष प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे। न वीतरागात् परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः // 3 // - इति प्रतिज्ञां श्रुत्वा सर्वेषु दर्शनेषु मौनमालम्ब्य स्थितेषु, सर्वेऽपि सभासदो विस्मयस्मेरमानसा मनसि श्रीवीतरागं देवं प्रपद्यन् 'नमः श्रीजिनाय, नमः श्रीनिरञ्जनाय' इत्यूचुः / ज्ञातं च सर्वैरपि देवतत्त्वम् / यथा• 176. सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः / यथास्थितार्थवादी च देवोऽहंन परमेश्वरः / / ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयमयं शरणमिष्यताम् / .. अस्यैव प्रतिपत्तव्यं शासनं चेतनाऽस्ति चेत् // Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध 178. ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादिरागाद्यङ्ककलङ्किताः / निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तपे। 179. नानाशनजुषः कथं गतरुपः स्त्रीसन्निधानाः कथं नीरागा अशुभाशया अकरुणाः कारुण्यवन्तः कथम् / . छत्राचष्टमहाविभूतिविरहा देवाधिदेवाः कथं तस्मात् सर्वगुणद्धिमान् विजयते श्रीवीतरागप्रभुः // 180. न कोपो न लोभो न मानो न माया, न लास्यं न हास्यं न गीतं न कान्ता। न वा यस्य पनि मित्रं न शत्रुस्तमेकं प्रपद्ये जिनं देवदेवम् // -इति देवतत्त्वम् // अथ गुरुतत्त्वम्१८१. त्यक्तदाराःसदाचारामुक्तभोगा जितेन्द्रियाः।जायन्ते गुरवो नित्यं सर्वभूताभयपदाः॥ 182. तपःशीलसमायुक्तं ब्रह्मचारिदृढव्रतम् / अलोलमशठं दान्तं गुरुं जानीहि तादृशम् / / . 183. लानोपभोगरहितः पूजालंकारवर्जितः / मद्यमांसनिवृत्तश्च गुणवान् गुरुरुच्यते // 184. अवद्यमुक्त पथि यः प्रवर्तते, प्रवर्तयत्यन्यजनं च निस्पृहः।। __स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः, स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम् // विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थ, सुगतिकुगतिमार्गों पुण्यपापे व्यनक्ति। अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुयो, भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कथित् // . इति राजन् ! गुरुलक्षणानि / गृणाति तत्त्वमिति गुरुः, नतु नाममात्रेण कुलक्रमायातः कस्यापि गुरुरस्ति / सर्वेषां प्राणिनामनादिकालमेकेन्द्रियादिचतुरशीतिलक्षजीवयोनिषु भ्रमतां यस्मिन् भवे यस्य कस्यापि प्राणिनोऽज्ञानान्धकारमनस्य यस्तत्त्वातत्त्वव्यक्तिं दर्शयति स एव गुरुगुणैर्गौरवाहॊ गुरुरुच्यते / नापरे वञ्चकाः खार्थप्रिया गुरवः / ___ यदुक्तम् - प्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशया विद्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः। आनन्दामृतसिन्धुसीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरम् ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति केचिदुधाः // 187. वायात्रसाराः परमार्थशून्या, न दुर्लभाः क्षेत्रकथा मनुष्याः / दुर्लभा ये जगतो हिताय, धर्मे स्थिता धर्ममुदाहरन्ति // .. ये तु स्वरुचिकल्पिताचाराः परस्परविरोधाध्माता मत्सरिणः सदाचारनिन्दकाः कथं ते गुरवः / . 14. सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजनसपरिग्रहाः / अब्रह्मचारिमिथ्योपदेशका गुरवो नतु // - श्रीमहाभारतेऽप्युक्तम् - 189.. ये शान्तदान्ताः श्रुतिपूर्णकर्णा, जितेन्द्रियाः प्राणिवधानिवृत्ताः। परिग्रहे संकुचिता गृहस्थास्ते ब्राह्मणास्तारयितुं समर्थाः // ततः श्रीहेमसूरयः सभायां गुरु-कुगुरुखरूपमभिधायावादिषुः१९०. प्रकाशयन्ति भूयांसि भुवनं भास्करादयः / हार्द पुनस्तमो हन्ति गुरुरेव गुणैर्गक // Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत अत्रान्तरे कथित् पपाठ . 191. जीवोऽयं विमलखभावसुभगः सूर्योपलस्पर्द्धया धत्ते सङ्गवशादनेकविकृतीलृप्तात्मरूपस्थितिः। यद्यांमोति रवेरिवेह सुगुरोः सत्पादसेवाश्रमं / ___तजातोर्जिततेजसैव कुरुते कर्मेन्धनं भस्मसात् // इति श्रुत्वा सर्वेऽपि दानं ददुः / इति गुरुतत्त्वं ज्ञेयम् / .. 'अथ धर्मतत्त्वमपृच्छत् / श्रीसूरयः प्राहुः, तत्र प्रथमं धर्मलक्षणम् - 192. श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च / अहिंसालक्षणो धर्मस्तद्विपक्षा पातकम् // वेदादिप्रामाण्येन यत् हिंसा विधीयते तत्तेषां जाड्यलिङ्गम् / वेदस्यापौरुषेयत्वेनाप्रमाणत्वात् / न प्रमाणं " वदमतम् / आताधीना हि वाचां प्रमाणता / व्यासेनाप्युक्तम्१०३. दीयते मार्यमाणस्य कोटिं जीवितमेव था। धनकोटिं न गृह्णाति सर्यो जीवितमिच्छति // अतः१९४. यो दद्यात्काञ्चनं मेरुं कृत्लां चैव वसुन्धराम्।सागरं रत्नसंपूर्ण न च तुल्यमहिंसया 195. अमेध्यमध्ये कीटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालये। समानाजीविताकांक्षा तुल्यं मृत्युभयं द्वयोः॥ . 196. यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत।। तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुघातका 197. पृथिव्यामप्यहं पार्थ! वायावनौ जलेऽप्यहम् / वनस्पतिगतश्चाहं सर्वभूतगतोऽप्यहम्॥ . 198. यो मां सर्वगतं ज्ञात्वा न चहिस्येत् कदाचन।तस्याहं न प्रणश्यामि स चमांन प्रणश्यति॥ इति विष्णुवाक्यम् / 199. . यत्र जीवः शिवस्तत्र इति यो वेत्ति भक्तितः। दया जीवेषु कुर्वाणः स शिवाराधकः स्मृतः॥ २००.कमांसंक शिवे भक्तिः क मा कशिवार्चनम्।मद्यमांसप्रसक्तानां दूरे तिष्ठति शङ्करः॥ . -इति भगवद्गीतायाम् (1) / 201. यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु दारुणम् / मनसा कर्मणा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा // ' 202. क्षमातुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात् परं सुखम् / न मैत्रीसदृशं दानं न धर्मोऽस्ति दयासमः॥ -इति जीवदया सर्वेषां मता। __ अथ जीवहिंसाभेदानाह२०३. नवहिं जियवहकरणं, कारावणं, अणुमई य योगेहि। कालतिएण गुणिओ पाणिवहो दुस्सयतेयालो // 1 // * तत्र पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया इति नवभेदा मनोवाक्कायैः सह गुणिता जाताः सप्तविंशतिभेदाः / ते च करणकारणानुमतिभिर्गुणिता जाता एकाशीतिः। ते चातीतानागतवर्तमानकालत्रयेण गुणिता जातात्रिचत्वारिंशत् देशते सर्वे प्राणिवधभेदाः 243 / कालत्रयेऽपि हिंसासम्भवोऽस्तीति कालत्रयग्रहणम् / यदुक्तम् अइयं निदामि पडिपन्नं संवरेमि अणागयं पञ्चक्खामि -इति / अथ राजन् ! आकर्ण्यतां जीवदयास्वरूपं संयमस्वरूपं च / तथा हि-पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुः• पवेन्द्रियाणां मनोवाक्कायकर्मभिः करणकारणानुमतिभिश्च संरम्भसमारम्भवर्जनमिति नवधा संयमः 9, पुस्तकवा. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध पानदण्डकादीनां यतनया धरणमजीवसंयमः 10, स्थण्डिलादिकं चक्षुषा प्रेक्ष्य शयनासनादिकुर्वीतेति प्रेक्षासंपमः 11, सावधप्रवृत्तगृहस्थव्यापारणेनोपेक्षासंयमः 12, स्थण्डिलादौ रजोहरणादिना प्रमृज्य शयनासनादीनि कुर्वतः प्रमार्जनासंयमः 13, भक्तपानादिकमनेषणीयमनुपकारि च निर्जन्तुस्थण्डिले परिष्ठापयतः परिष्ठापनासंयमः:१५; मनसोशुभपरिणामनिवृत्तिः शुभप्रवृत्तिः मनःसंयमः 15, अशुभभाषात्यागः शुभमाषाभाषणं वाक्संयमः 16, अशु. मुक्रियानिवृत्तिः शुमप्रवृत्तिः कायसंयमः 17, इति प्राणियारूपः सप्तदशधा संयमो यतीनामन्यया यतित्वाभावः / / ___ अथ राजा गृहस्थानां कथमयं संयम इत्यपृच्छत् / तदा श्रीसूरयः प्राहुः- 'राजन् ! देशतो विरतान गृहस्थानां देशतः संयमोऽस्तीति श्रृयताम् / यथा२०४. थूला सुहमा जीवा संकप्पारंभओ अ ते दुविहा / सावराहनिरवराहा साविक्खा चेव निरविक्खा // . - तत्र प्राणिवधो द्विविधो ज्ञेयः, स्थूलजीवानां सूक्ष्मजीवानां च / तत्र स्थूला द्वीन्द्रियादयः, सूक्ष्मास्त्वेकेन्द्रि- " यादयः; नतु सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिनस्तेषां व्यापादनाभावात् स्वयमायुष्कक्षयेण मरणात् / तत्र गृहस्थानां स्थूलप्राणिवधान्निवृत्तिः नतु सूक्ष्मप्राणिवधात्, पृथ्वीजलानलादिषु प्रवृत्तत्वादारम्भास्तेषाम् / स्थूलप्राणिवधोऽपि द्विविध संकल्पज आरम्भजच / संकल्पान्मारयाम्येनं कुलिङ्गिनमिति मनःसंकल्परूपाजातः। आरम्भजस्तु कृष्यादिषु प्रवृत्तस द्वीन्द्रियादिव्यापादनं न तस्मान्निवृत्तः, शरीरकुटुम्बादिभरणनिर्वाहाभावात् / संकल्पजोऽपि द्विविधः सापराधो निरपराधश्च / तत्र निरपराधान्निवृत्तिः, सापराधेऽपि जयणा विधेया / इति गृहस्थानामपि देशसंयमः। ... _ अथ द्वितीयलक्षणं सत्यं नाम / तत् सत्यं दशधा जणवयं संमय ठवणी नामे रुवे पडुच्चर्सचे य। ववहार-भार्वं जोगे' दसमे उ कम्मसचे य॥ इति // . 206. एकनासत्यजं पापं पापं निःशेषमेकतः / द्वयोस्तुलाविधृतयोराद्यमेवातिरिच्यते // . 207. . दीक्षा भिक्षा गुरोः शिक्षा ज्ञानं ध्यानं जपस्तपः / सर्व मोक्षार्थिनामेतत् सत्येन सफली भवेत् // अन्यैरप्युक्तम् - 208 यदा सत्यं वदे वाक्यं मृषाभाषाविवर्जितः। अनवद्यं च भाषेत ब्रह्म संपद्यते तदा // .. अथ राजन् ! तृतीयं धर्मलक्षणं अदत्तादानपरिहाररूपम् - 106. अयशःपटहं दत्त्वा भुक्तवा विविधवेदनाः।इहलोके नरकंयान्ति परलोकेऽदत्तहारिणः॥ 210. परद्रव्यं यदा दृष्ट्वा संकुलेऽप्यथवा रहः / धर्मकामो न गृह्णाति ब्रह्म संपद्यते तदा // अदत्तदानेन भवेद्दरिद्री दारिद्र्यभावात्तु करोति पापम् / पापं हि कृत्वा नरकं प्रयाति पुनदेरिद्री पुनरेव पापी // अय राजन् ! चतुर्य धर्मलक्षणं ब्रह्मचर्यरूपम् / यतः- . 212. विदन्ति परमं ब्रह्म यत् समालम्ब्य योगिनः। तद् व्रतं ब्रह्मचर्य स्यात् धाराधौरेयगोचरम् // 913. या खदारेषु सन्तुष्टः परवारापराबुखः।स गृही ब्रह्मचारी च मुक्तिमामोति पुण्यवान् / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASमभि : पुरातनाचार्यसंगृहीत . अन्यैरप्युक्तम् - 214. एकरात्रोषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः। न सा ऋतुसहस्रेण प्रामुं शक्या युधिष्ठिर।। 215. भोगिवष्टस्य जायन्ते वेगाः सप्तैव देहिनः। स्मरभोगीन्द्रदष्टानां दश स्युस्ते महाभया॥ 216. प्रथमेजायते चिन्ता द्वितीये द्रष्टुमिच्छति। स्युस्तृतीयेऽपि निःश्वासाचतुर्थे नटते ज्वरः॥ * 217. पञ्चमे दहते गात्रं षष्ठे भुक्तं न रोचते / सप्तमे स्यान्महामूर्छा उन्मत्तत्वमथाष्टमें॥ 218 नवमे प्राणसन्देहो दशमे मुच्यते एभिर्दोषैः समाक्रान्तं जीवो लोकं न पश्यति // 219. यस्तपखी व्रती मौनी संवृतात्मा जितेन्द्रियः। कलंकयति निःशङ्कः स्त्रीसखः सोऽपि संयमम् // .. अथ राजन् ! पञ्चमं धर्मलक्षणं अकिञ्चनतासन्तोषरूपम् - 220. धनं धान्यं स्वर्णरूप्यकुप्योनि क्षेत्रवास्तुनी। द्विपाँचतुष्पाद चेति स्युर्नववाह्याः परिग्रहाः // 221. मिच्छत्तं वेयतिगंहासाई छक्कगं च नायछ। कोहाईण चउकं घउवस अभंतरा गंथा॥ 222. बाह्यानपि हि यः सङ्गान्न मोक्तुं मानवः क्षमः। . सोऽन्तरङ्गान् कथं क्लीवस्त्यजेदिह परिग्रहान् // 223. यानपात्रमिवाम्भोधौ गुणवानपि मजति / परिग्रहगुरुत्वेन संयमी जन्मसागरे / 224. न यान्ति वायवो यत्र नाप्यन्दुमरीचयः। आशामहोर्मयः पुंसां तत्र यान्ति निरर्गलाः // अधीती पण्डितः प्राज्ञः पापभीरुस्तपोधनः / . स एव येन हित्वाशां नैराश्यमुररीकृतम् // 226. वाक्येनैकेन तद्वच्मि यद्वाच्यं वाक्यकोटिभिः।.. आशापिशाची शान्ता चेत् संप्राप्तं परमं पदम् // एतानि पञ्च सर्वविरतत्वात् साधूनां महाव्रतान्युच्यन्ते / यदुक्तम् - महत्त्वहेतोगुणिभिः श्रुतानि महान्ति मत्वा त्रिदशैर्नुतानि / महासुखज्ञाननियन्धनानि महाव्रतानीति सतां सतानि // अथ राजन् ! षष्ठं धर्मलक्षणं तपः, बाह्याभ्यन्तरं द्वादशधा / बाह्यतपः- "अणसणमणोपरीया० // 1 // माम्यन्तरतपः "पायच्छित्तं विणओ वेया० // 2 // " यदुक्तम् - 228. निर्जराकरणो याह्यात् श्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः। तत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः॥ , 229. यस्माद्विघ्नपरंपरा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुत्सर्पति / उन्मीलन्ति महर्द्धयः कलयति ध्वंसं च यः कर्मणां स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं च भवति श्लाघ्यं तपस्तन्न किम् // . 225. 227. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2500 इमारपालप्रबोधप्रबन्ध सन्तोषः स्थूलमूलः शमपरिकरः स्कन्धवन्धमपश्चः पश्चाक्षीरोधशाखः स्फुरदभयदलः शीलसंपत्प्रवालः। श्रद्धाम्भःपूरसेकाद्विपुलकुलयलेश्वर्यसौन्दयेंभोगः खगोंदिप्रातिपुष्पः शिवपदफलदः स्यात्तपःपादपोऽयम् // ... इति सकलदर्शनमान्यं तपोलक्षणम्। / अथ सप्तमं धर्मलक्षणं क्षमा सा च क्रोधत्यागाद् भवति / अथ राजन्! अष्टमं धर्मलक्षणं मार्दवम् / तत्र मृदुत्वं मदनिग्रहाद् भवति / तथा२३१. जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपःश्रुतैः / कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते जनः॥ . मानप्रतिपक्षो मार्दवम् / यदुक्तम् - 232. मानग्रन्थिमनस्युच्चैर्यावदस्ति दृढो नृणाम् / तावद्विवेकमाणिक्यं प्राप्तमप्यपसर्पति // . अथ नवमं धर्मलक्षणं ऋजुता मायारहितत्वमिति / यदुक्तम् - 233. कूटद्रव्यमिवासारंखमराज्यमिवाफलम्। अनुष्ठानं मनुष्याणां मन्ये मायाविलम्बिनाम्॥ 234. नृपाः कूटप्रयोगेण वणिजः कूटचेष्टितैः / विप्राः कूटक्रियाकाण्डैर्मुग्धं वञ्चयते जनम् // 235. दंपती पितरः पुत्राः सौदर्याः सुहृदो निजाः। ईशा भृत्यास्तथान्येऽपि माययाऽन्योऽन्यवञ्चकाः॥ 236. मायायां पटवः सर्वे जलस्थलखचारिणः / देवा मायापराः केऽपि नारकाच किमुच्यते॥ 237. अज्ञानामपि बालानामार्जवं प्रीतिहेतवे / किं पुनः सर्वशास्त्रार्थपरिनिष्ठितचेतसाम् // 238. अशेषमपि दुःकर्म ऋज्वालोचनया क्षिपेत् / कुटिलालोचनां कुर्वन् अल्पीयोऽपि विवर्द्धयेत् // मायाप्रतिपक्षभूता ऋजुता। अथ राजन् ! दशमं धर्मलक्षणं मुक्तिः, सा च बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु तृष्णाविच्छेदरूपा लोभाभाव इत्यर्थः। 239. यदुक्तम् - अहो लोभस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं जगत्त्रये / तरवोऽपि निधिं प्राप्य पादैः प्रच्छादयन्ति यत्॥ 240. भुजंगगृहगोधाखुमुख्याः पञ्चेन्द्रिया अपि / धनलोभेन लीयन्ते निधानस्थानभूमिषु // 241. पिशाचमुद्गलप्रेतभूतयक्षादयो धनम् / खकीयं परकीयं चाप्यधितिष्ठन्ति लोभतः // . 242. विमानोद्यानवाप्यादौ मूञ्छितास्त्रिदशा अपि / श्रुत्वा तत्रैव जायन्ते पृथ्वीकायादियोनिषु // 243. परप्रत्यायनासारैः किं वा शास्त्रसुभाषितः। मिलिताक्षा विमृश्यन्तु सन्तोषाखादजं सुखम् // किमिन्द्रियाणां दमनैः किं कायपरिपीडनैः। ननु सन्तोषमात्रेण मुक्तिस्त्री संमुखी भवेत् // इति समायां सर्वसमक्षं धर्मलक्षणं श्रीगुरूणां मुखादाकर्ण्य श्रीकुमारपालमुख्याः सर्वेऽपि सभ्याः प्रमुदिताः। सबातश्रीजिनप्रणीतधर्मानुरागाः किमस्माभिरतः परं विधेयमिति प्रश्नमकार्षुः / ततः श्रीगुरवः प्राहुः-राजन् ! Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... पाज्या : पुरातनाचार्यसंगृहीत हीनं संहननं तपोऽतिविषमं कालश्च दुःखावहः सिद्धान्तः कुवितर्ककैश्च विवृतो नानावता लिङ्गिनः। लोको भिन्नचिन्डो जिनमतं तत्त्वज्ञवेद्यं सदा मत्वैवं सुविवेकिभिः सुचरितैर्वार्या अनार्याः क्रियाः॥ प्राणित्राणप्रकारैर्जगदुपकृतिभिर्भक्तिभिः श्रीजिनानां __ सत्कारैर्धार्मिकाणां स्वजनमनःप्रीणनैर्दानयानैः। जीर्णोद्धारैर्यतिभ्यो वितरणविधिना शासनोयोतनैश्च प्रायः पुण्यैकभाजां भजति सफलतां श्रीरियं पुण्यलभ्या || इति श्रीगुरूणामुपदेशं श्रुत्वा राजा प्राह - भगवन् ! " 247. निद्रा मोहमयी जगाम विलयं सदृष्टिरुन्मीलिता नष्टा दुष्टकषायकौशिकगणा माया ययौ यामिनी / पूर्वाद्रिप्रतिमे विवेकहृदये सज्ज्ञानसूर्योदयात् कल्याणाम्बुजकोटयो विकशिता जातं प्रभातं च मे // अत्रान्तरे कश्चिद् विद्वान् पपाठ" 248. आधारो यस्त्रिलोक्या जलधिजलधरार्केन्दवो यन्नियोज्याः प्राप्य ते यत्प्रभावादसुरसुरनराधीश्वरैः संपदस्ताः। आदेशा यस्य चिन्तामणिसुरसुरभीकल्पवृक्षादयस्ते श्रीमान् जैनेन्द्रधर्मः किसलयतु वः शाश्वती मोक्षलक्ष्मीम् // लक्षदानमत्रापि / इति धर्मलक्षणम् / इति तत्त्वत्रयी ज्ञाता सर्वैरपि / // श्रीकुमारपालभूपालोऽपि गृहस्थोचितं धर्ममपृच्छत् / श्रीगुरवः प्राहुः२४९. सम्यक्त्वमूलानि पश्चाणुव्रतानि गुणास्त्रयः।'' शिक्षापदानि चत्वारि व्रतानि गृहमेधिनाम् // अज्ञान-संशय-विपर्यासपरिहारेण यत् सम्यक् परमार्थरूपं तस्य भावः सम्यक्त्वम् / द्वादशवतानि गृहयानां धर्मः सम्यक्त्वमूलानि / एकविंशतिगुणयुक्तो धर्मयोग्यो भवति / 4 250. अक्षुद्रो रूप-सौम्यौ विनर्य-नययुतः क्रूरता-शल्यमुक्तो . मध्यस्थो दीर्घदर्शी परहितनिरंतो लब्धलक्षः कृतः। सदाक्षिण्यो विशेषी" सदयगुणरुचिः सत्कथः पक्षयुक्तो धुंद्धार्हो लज्जेनो यः शुभ-जनसुभैगो धर्मरत्नस्य योग्यः॥ .251. या देवे देवतावुद्धिमुरौ च गुरुतामतिः। धर्मे च धर्मधी शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते॥ "252. सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः। यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः॥ सम्यक्त्वभूषणानि२५३. स्थैर्य प्रभावना भक्तिः कौशलं जिनशासने। तीर्थसेवा च पञ्चाशु भूषणानि प्रचक्षते // सैर्य श्रीजिनधर्मे / प्रभावनाष्टधा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध पावयणी धम्मकही वाई निमित्तिओ तवस्सी य / विजासिद्धो य की अटेव पभावगा भणिया // भक्तिः-विनयवैयावृत्त्यरूपा। कौशलेनानार्यदेशवार्द्रकुमारोऽभयकुमारेण प्रतियोधितः / तीर्थसेवा च+ द्रव्यतीर्थ मावतीर्थ च / चैत्यादि द्रव्यतीर्थ, भावतीर्थ ध्यानादि / सम्यक्त्वलक्षणानि२५५. शमसंवेगनिर्वेदानुकंपास्तिक्यलक्षणैः। लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते॥. __ शमः क्षमा 1, संवेगो मोक्षाभिलाषः 2, निवेदो भववैराग्यम् 3, अनुकंपा चित्तस्पार्द्रता 4, आस्तिक्यं जिनमते दृढनिश्चयः 5 / अथ दूषणानि२६६. . शंकां कांक्षा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् / तत्संस्तवेश्च पश्चापि सम्यक्त्वं दूषयन्त्यमी // अथ सम्यक्त्वाद् विपरीतं मिथ्यात्वम् / तत्स्वरूपमाहुः / तत् पञ्चधा२५७. .. आभिग्गहियं अर्णभिग्गहियं ऑभिनिवेसीयं चेव / संसईंयमणोभोग मिच्छत्तं पंचहा होइ // 258. आभिग्गहियं किल दिक्खियाण अणभिग्गहिअंच राइणं। गुट्ठामाहिलमाईण तं अभिनिवेसियं जाण // 259. संसइयं मिच्छत्तंजासंका जिणवरस्स तत्तेसु। एगिंदियमाईणं तमणाभोगंतु निधिटुं॥ ...इति मिथ्यात्वम् / तत्र प्रथमं पाषण्डिनां खखशास्त्रनिरतानाम् 1, द्वितीयं सर्वे देवाः सर्वे गुरवः सर्वे धर्माश्च 2, तृतीयस्तत्त्वातत्त्वजानतोऽप्यभिनिवेशात् प्ररूपणा 3, चतुर्थ संशयो जीवादितत्त्वेषु 4, अनामोगिकं विवेकविचारशून्यस्सैकेन्द्रियादेर्वा विशेषज्ञानविकलस्य 5 / / 260. . जन्मन्येकत्र दुःखाय रोगाध्वान्तं रिपुर्विषम् / अपि जन्मसहस्रेषु मिथ्यात्वमचिकित्सितम् // . 261. तथा-अंतोमुहुत्तमित्तं पि फासियं होज जेहिं सम्मत्तं / तेसिं अवडपुग्गलपरीयद्दो चेव संसारो॥ इति सम्यक्त्व-मिथ्यात्वयोः खरूपं श्रुत्वा राजा श्रीगुरुमुखेन सम्यक्त्वं जग्राह / अथ राजाऽणुव्रतस्वरूपमपृच्छत् / श्रीसूरयः प्राहुः२६२. विरतिः स्थूलहिंसादेर्द्विविधस्त्रिविधादिना / अहिंसादीनि पञ्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः // 253. पङकुष्ठिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीःनिरागस्त्रसजन्तूनां हिंसामन्यस्य नाचरेत्॥ 264. मार्यमाणस्य हेमाद्रिं राज्यं वाथ प्रयच्छतु। तदनिष्टं परित्यज्य जीवो जीवितुमिच्छति॥ स्थूलेषु सर्वसत्त्वेषु यः करोति दयां त्रिधा। * सूक्ष्मेषु यतनां कुर्वन् गृहस्थोऽपि स मुक्तिभाग // __ यथ द्वितीयाणुव्रतम् - 266. मन्मनत्वं काहलत्वं मूकत्वंमुखरोगताम्।वीक्ष्यासत्यफलं कन्यालीकायसत्यमुत्सृजेत्॥ . कन्यागोभूम्यलीकानि न्यासापहरणं तथा / कूटसाक्ष्यं च पश्चेति स्थूलासत्यान्यकीर्तयन् // 294.... असत्यं त्रिषु लोकेषु निन्दितं पापकारणम् / दु:खितास्तेन जायन्ते देवदानवमानवाः॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272. पुरातनाचार्यसंगृहीत 269. इह लोके गृहस्थोऽपि यशः प्रामोति निर्मलम् / सत्येन परलोकेषु सुलभाः स्वर्गसंपदः / - अथ तृतीयाणुव्रतम्२७०. दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्यमङ्गच्छेदं दरिद्रताम्। अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा स्थूलस्तेयं विवर्जयेत्॥ 271. ___दानशीलतपोभावैः कृतं धर्म चतुर्विधम् / निष्फलं प्राणिनां सर्व परद्रव्याभिलापिणाम् // गृहिणोऽपि हि धन्यास्ते माननीया महात्मनाम् / . कुर्वन्ति स्वकरे मुक्तिं ये परस्वपराङ्मुखाः॥ अथ चतुर्थव्रतम् - पण्डत्वमिन्द्रियच्छेदं वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः। __ भवेत् खदारसन्तुष्टो योऽन्यदारान् विवर्जयेत् // 274. रम्यमापात्तमात्रं यत् परिणमति दारुणम् / किंपाकफलसंकाशं तत् कः सेवेत मैथुनम्॥ 275. ब्रह्मचर्य भवेद्येषां स्वाधीनं गृहिणामपि / धन्या जगत्सु तेऽवश्यं लभन्ते परमं पदम् // अथ पञ्चमाणुव्रतं यथा२७६. __ असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् / मत्वा मूच्छीफलं कुर्यात् परिग्रहनियन्त्रणम् // ... 277. . असन्तोषवतां सौख्यं न शक्रस्य न चक्रिणः। जन्तोः सन्तोषभाजो यदभयस्येव जायते // 278. न विश्वसिति कस्यापि परिग्रहविमूढधीः। षट्सु जीवनिकायेषु करोत्यारम्भमन्वहम् // 279. अनन्तदुःखं संसारे ततः प्राप्नोति मूढधीः / परिग्रहमहत्त्वेन परलोकपराङ्मुखः॥ // 280. संनिधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी। अमराः किंकरायन्ते सन्तोषो यस्य भूषणम्॥ - इति श्रुत्वा श्रीकुमारपालः श्रीगुरुमुखेन यथाविधि पश्चाणुव्रती जग्राह / / अथ गुणव्रतान्याहुः२८१. दशखपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लभ्यते। ख्यातं दिगविरतिरितिप्रथमं तद्गुणवतम्॥ 282. चराचराणां जीवानां विमर्दनविवर्त्तनात् / तप्तायोगोलकल्पस्य सद्भुतं गृहिणोऽप्यदः॥ 1 283. यतः-तत्तायगोलकप्पोऽपमत्तजीवो णिवारियप्पसरों। सवत्थ किं न कुजा पावं तकारणाणुगओ॥ 284. जगदाक्रममाणस्य प्रसरल्लोभवारिधेः / स्खलनं विदधे तेन येन दिग्विरतिः कृताः॥. / अथ द्वितीयगुणव्रतम् - ___ भोगोपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते। ___भोगोपभोगमानं तु द्वितीयीकं गुणवतम् // 286. सकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽन्नमृगादिकः / पुनःपुनर्भोग्योपभोगोऽङ्गनादिकः॥ 287. मद्यमांसं नवनीतं मधूदुम्बरपञ्चकम् / अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् // तत्र मधं द्विधा काष्ठ-पिष्टनिष्पन्नम् , मांसं त्रिधा जल-स्थल-खेचरभेदात् / नवनीतं गोमहिष्यजेडकाभेदाचतुर्धा / मधु त्रिधा माक्षिकं भ्रामरं कौत्तिकं चेति / 285. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध तत्र मद्यदोषाः२८८. रसोद्भवाच भूयांसो भवन्ति किल जन्तवः। तम्मान्मयं न पातव्यं हिंसापातकभीरणा॥ 289. असत्यं वचनं ब्रूते मधमोहितमानसः। अदत्तं धनमादत्ते बलाद् भुके परनित्रयम् // 29.. विवेका संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं क्या क्षमा। मद्यात् प्रलीयते सर्व नृणां वहिकणादिष। 291. अथ-चिखावयति यो मांसं प्राणिप्राणापहारतः। उन्मूलयत्यसौ मूलं दयाख्यं धर्मशाखिनः॥ 292. सद्यः संमूञ्छितानन्तजन्तुसन्तानदूषितम् / नरकाध्वनिपाथेयं कोऽश्नीयात् पिशितं सुधीः // 293. अहो मूढजना धर्मं शौचमूलं वदन्ति च / सप्तधातुकदेहोत्थं मांसमभन्ति चापमाः॥ 294. यदुक्तम्-शुक्रशोणितसम्भूतं मांसमश्नन्ति ये नराः। जलेन शौचं कुर्वन्ति हसन्ते तत्र देवताः॥ 295. शाकिनी मांसभक्षी चसमानमनसाविमौ। पुष्टाङ्गं पश्यतो यं यंतंतं हन्तु मतिस्तयोः॥ 296. मद्ये मांसे मधुनि च नवनीते तक्रतो बहिर्नीते। उत्पद्यन्ते विपद्यन्तेऽनन्तास्तद्वर्णजन्तवः // यदुक्तमागमेऽपिउच्चारे पासवणे खेले सिंघाणवंतपित्ते य। सुके सोणियगयजीवकडेवरे नगरनिद्धमणे // 298. महु-मन्ज-मंस-मंखण-थीसंगे सब-असुइठाणेसु / उपवति घयंति य समुच्छिमा मणूयपंचिंदी // ___ परसमये याज्ञवल्क्यस्मृतौ, उदुम्बरेषु जन्तुसद्भावं लौकिका अपि पठन्ति / 299. कोऽपि कापि कुतोऽपि कस्यचिदहो चेतस्यकस्माजना, केनापि प्रविशत्युदुम्बरफलप्राणिक्रमेण क्षणात् / येनास्मिन्नपि पाटिते विघटिते विस्फोटिते ब्रोटिते, निष्पिष्टे परिगालिते विदलिते निर्यात्यसो वा नवा // - अनन्तकायिकानां तु लक्षणमिदम् - 300... साहारण-पत्तेया वणसइजीवा दुहा सुए भणिया। जेसिमणंताण तणू एगा साहरणा ते उ॥ सबा य कंदजाई सूरणकंदो य वजकंदो य / अल्लहलिहा य तहा अहं तह अल्लकवरो॥ सत्तावरी विराली कुंआरि तह थोहरी गलोई। लसुणं वंसकरिल्ला गजर तह लूणो अ लोढा // गिरिकन्नकिसलपत्ता खिरिंसुआ थेग अल्लमुत्था य। तह लूण रुक्ख छल्ली खिल्लहडो अमयवल्ली अ॥ क. पा. . . Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत मूला तह भूमिरुहा विरुदाई तह टक्क वत्थूलो पटमो। सूअरवल्ली अ तहा पलंको कोमलंबिलियाइ // आलू तह पिंडालू हवंति एए अणंतनामेणं / बत्तीसं च पसिद्धा बजेयधा पयत्तेणं // गढसिरसंधिपचं समभंगमहीरुहं च च्छिन्नरह। साहारणं सरीरं तविवरीयं च पत्तेयं // -इत्यनन्तकायविचारः। रात्रिभोजनं सर्वशास्त्रनिषिद्धम् - 307. नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर!। तपस्विना विशेषेण गृहिणा तु विवेकिना // त्रैलोक्यशेषभावानां यो ज्ञाता ज्ञानचक्षुषा / न मुले सोऽपि सर्वज्ञो रात्रौ किमपरे जनाः // सर्वदेवैः परित्यक्तमृषिभिः पितृभिस्तथा। तद्रात्री भोजनं निन्द्यं विधेयमितरैः कथम् // // अथामगोरससंपृक्तं द्विदलम् / द्विदललक्षणमिदम् - जंमि उ पीलिजंते नेहो नहु होइ बिति तं विदलं / पिदले वि हु उप्पन्नं नेहजुयं होइ नो विदलं // अथ वर्जनीयवस्तून्याहुः३११. पंचुंबरि चउविगई अनायफलं हिम-विस-करगे य।.. मही राईभोयण-बहुबीय-अणंतसंधाणं // 312. घोलवडां वाइंगण अमुणियनामाणि फुल्ल-फलयाणि'। तुच्छफलं चलियरसं च तह अभक्खयाणि बावीसं // 313. यदुक्तम्- भक्ष्याभक्ष्याणि वस्तूनि यो न जानाति मूढधी। स जानाति कथं धर्म सर्वजीवदयामयम् // // तत्र पञ्चोदुम्बरी वटपिप्पलप्लक्षकाकोदुम्बरीफलरूपा सा मसकाकारसूक्ष्मबहुजीवभृतत्वाद् वर्जनीया // 5 // चतस्रो विकृतयः-मद्य-मांस-मधु-नवनीतरूपा, सद्य एव तत्रानेकजीवसंमूर्च्छनात् // 9 // हिमं शुद्धासंख्याकायरूपत्वात् // 10 // विषं जीवघातादिसंभवात् // 11 // करका अप्कायासंख्यत्वात् // 12 // मृत्तिका सर्वापि दर्दुरादिपञ्चेन्द्रियप्राणिउत्पत्तिनिमित्तात् , सर्वग्रहणं खटिकादीनाम् // 13 // रजनीभोजनं बहुविधजीवहिंसाप्रदम् // 14 // बहुबीजं पंपोटकादि प्रतिबीजं जीवोपमर्दकम् // 15 // [अनन्तं] अनन्तजीववधहेतुत्वात् // 16 // "सन्धानं बिल्वकादीनां जीवसंसक्तिहेतुत्वात् // 17 // घोलवटकानि आमगोरससंसक्तद्विदलादिमध्ये सूक्ष्मजीवोत्पत्तिः केवलिदृष्टत्वात् // 18 // वृन्ताकानि निद्राबाहुल्यकामोद्दीपनादिदोषदुष्टत्वात् // 19 // अज्ञातफलपुष्पाणि नियममङ्गसम्भवात् , विषफले पुष्पे मृत्युरपि // 20 // तुच्छफलमर्द्धनिष्पन्नं कोमलाम्बिलियादि // 21 // चलितरसं कुथितान्नं पुष्पितौदनादि, दिनद्वितयातीतं च दधि वर्जनीयं प्राणातिपातादिदोषसम्मवात् / एतान्यमक्ष्याणि / Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 317. .. 18.. कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध अथ कमतो भोगोपभोगः / अङ्गारकर्म-वनकर्म-शकट-भाटक-स्फोटक-दन्तवाणिज्य साक्षा-रस-केश-विषयत्र-पीडा-निर्लान्छन-असतीपोष-दवदान-सर-शोषः-इति कर्मादानानि वर्जयेत् / तदा राजा श्रीकुमारपालः श्रीगुरुमुखेन परिग्रहप्रमाणं भोगोपभोगव्रतस्याकरोत् / 314. अयानर्थदण्डव्रतमाहुः-आर्तरौद्रमपध्यानं पापकर्मोपदेशता / हिंसोपकारि दानं च प्रमादाचरणं तथा // . तत्र ध्यानं चतुर्द्धा३१५. आर्ते तिर्यग्ग(?)तिस्तथा गतिरधो ध्याने तु रौद्रे सवा, __धर्मे देवगतिः शुभं बत फलं शुक्ले तु जन्मक्षयः।. तस्माद् व्याधिरुजान्तिके हितकरे संसारनिस्तारके, __ध्याने शुक्लवरे रजाप्रमथने कुर्यात् प्रयनं बुधः॥ 316. वृषभान् दमय क्षेत्रं कृषिषण्डविवाजिनाम् / दाक्षिण्याविषये पापोपदेशोऽयं न कल्पते // यनलागलशस्त्राग्निमुशलोदूखलादिकम् / दाक्षिण्याविषये हिंस्रं नार्पयेत् करुणापरः॥ जलक्रीडान्दोलनादिविनोदो जन्तुयोधनम् / रिपोः मुतादिना वैरं भक्तस्त्रीदेशराट्कथाः॥ अथ सामायिकव्रतम् - 19. त्यक्तातरौद्रध्यानस्य त्यक्तसावद्यकर्मणः। मुहूर्त समता या तां विदुः सामायिकवतम् // 320... सावजजोगपरिवजणट्ठा सामाईयं केवलियं पसत्थं / गिहत्थधम्मा परमं ति नचा कुजा बुहो आयहियं परस्था // सामाईयव०॥३॥ सामाईयमि कए समणोइव०॥४॥ अय-दिगवते परिमाणं यत् तस्य संक्षेपणं पुनः / दिने रात्रौ च देशावकाशिकव्रतमुच्यते // इति राजन् ! देशावकाशिकव्रतम् , तत्र तत्रारम्भपरिहाररूपम्। . 322. अथ पौषधम् - चतुःपा च तुर्यादिकुव्यापारनिषेधनम् / ब्रह्मचर्यक्रियारलानादित्यागः पौषधः व्रतम् // 223. आवश्यकवणी-आहारपोसहो खलु सरीरसकारपोसहे चेव / भवावारेसु य तइयसिखावयं नाम // देसे सबे य तहा इकिको इत्थ होइ नायचो / सामाईए विभासा देसे इयरंमि नियमेण // - इति श्रावकमज्ञप्तौ / अथातिथिसंविभागवतम् , राजन् ! दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छदनसद्मनाम् / अतिषिभ्योऽतिथिसंविभागवतमुदीरितम् // " Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरावनाचार्यसंगृहीत 3 . वसहीसयणासणभत्तपाणभेसज्जवस्थपत्ताई। जाधि न पजत्तधणो योवाविहु थोवयं देइ // भाष्य कथानकानि वाच्यानि / 327. यदुक्तम्-एलापूगफलाई साहणं अकप्पिया अचित्तावि। ____कामंग जेण भवे न तेसि दाणं नवा गहणं // अथ वा३२८. अविहियसपपलंषा जिणगणहरमाईएहिं नायना / लोउत्तरिया धम्मा अणुगुरुणो तेण वजाओ। व्याख्या-सर्वाणि सचित्ताचित्तादिभेदभिन्नानि कन्दमूलादिभेदाद् दशविधानि / तथा हि॥ 329. मूले कंदे खंधे तया य साले पवालपत्ते य / पुष्फफले य बीए पलंबसुत्तंमि वसभेआ॥ 330. पलंपान्यनाचीर्णानि-सगडहहसमभोमे अवि य विसेसेण विरहियतरागं / तहवि खलु अणाइन्नं एसऽणुधम्मो पवयणस्स // ___ . यदा श्रीवीरो राजगृहादुदयननरेन्द्रप्रवाजनाथ सिन्धु-सौवीरदेशे वीतभयं पुरं प्रस्थितस्तदा किलापान्त• राले बहवः साधवः क्षुधार्ताः तृषार्ताः सञ्जासम्बाधिताश्च बभूवुः / यत्र च भगवानावासितस्तत्र तिलभृतानि // शकटानि, पानीयपूर्णहृदः, समभौमं च गाबिलादिवर्जितं स्थण्डिलमभवत् / अपि च विशेषेण तत्तिलोदकस्थण्डिल जातम् / विरहिततरमतिशयेनागन्तुकैस्तदुत्थैश्च जीवैर्वर्जितम् / तथापि भगवताऽनाचीर्ण नानुज्ञातम् / एषोऽनुधर्मः प्रवचनस्य सर्वैरपि अनुगन्तव्यः / एवमन्यदपि कल्पाकल्पं प्रासुकमपि न देयं दात्रा लेयं च साधुना। . न स्वर्णादीनि दानानि देयानीत्यहतां मतम् / अन्नादीन्यपि पात्रेभ्यो दातव्यानि विपश्चिता // अन्यैरप्युक्तम् - 332. क्षेत्रं यत्रं प्रहरणवधूलागलं गो तुरंगो, धेनुर्गधी द्रविणतरयो हर्म्यमन्यच्च चित्रम् / यज्ञारम्भं जनयति मनोरनमालिन्यमुटुस्ताहग दानं सुगतितृषितर्नैव लेयं न देयम् // .333. पात्रदाने फलं मुख्यं मोक्षसौख्यं कृषरिव। पलालमिव भोगास्तु फलं स्यावानुषङ्गिकम्॥ इति श्रुत्वा राजा श्रीगुरुमुखेन सम्यक्त्वमूलानि व्रतानि जग्राह / . * 334. एवं व्रतस्थितो भक्त्या ससक्षेत्र्यां धनं वपन् / दयया चातिदीनेषु महाश्रावक उच्यते // 649. सप्तक्षेत्रीस्वरूपमाहुः- नवीनप्रासादनिर्मापणं जीर्णोद्धारं तत्र महामहिम्मा पूजाकरणं गीतनृत्यवादित्रादिकलशपताकातोरणच्छत्रचामरभृङ्गारशालिभलिकाचन्द्रोद्दयोतविचित्रचित्रशोमादिकरणम् , तत् प्रथमक्षेत्रं 1. बिम्बं वर्णरूप्यमणिविद्रुमशैलमयम्, तद् द्वितीयक्षेत्र 2. पुस्तकेषु श्रीजिनागमलिखापनम्, तच्छुश्रूषणम् , तृती० 3. चतुर्विधसभक्तिश्चेति सप्तक्षेत्री। * 335. यः सबालमनित्यं च क्षेत्रेषु न धनं वपेत् / कथं वराकचारित्रं दुभरं स समाचरेत् // एतदाकर्ण्य नवीनप्रासाद-जीर्णोद्धार-जिनबिम्ब-पुस्तक-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकादिषु तेषु साधर्मिकवात्सस्यादिभक्तिषु पुण्यकृत्येषु सादरोऽभूत् / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध 350. अब राजा श्रीजिनोक्तनवतत्त्वान्यपृच्छत् / श्रीसूरयः प्राहुः-तत्रेदं जीवखरूपर२२६. जीवो अणाइनिहाणो अविणासी अक्खओ धुवो निचो। वट्ठयाइ निचो परियायगुणेहि अ अणियो / कालो जहा अणाई अविणासी होइ तिसु वि समएसु / तह जीवो वि अणाई अविणासी तिसुवि कालेसु॥ अक्खयमणंतमउलं जह गयणं होइ तिसु वि कालेसु / तह जीवो अविणासी अवडिओ तिसु वि कालेसु॥ गयणं जहा अरूवी अवगाहगुणेहिं घिप्पए तं तु / जीवो तहा अरूवी नाणाइगुणेहिं घितयो॥ .. अविणासी खलु जीवो विगारणुवलंभओ जहागासं / उवलब्भंति वियारा कुंभाइविणासिदवाणं // देहिंदियाइरित्तो आया खल्लु गम्भगाहपओंगे य। / संडासा अयपिंडा अइगाराइ व विन्नेओ॥ देहिंदियाइरित्ते आया खलु तदुवलद्धअत्थाणं / तधिगमे विसरणओं गेहगवक्खेहिं पुरिसु च // . ननु इंदियाइ उवलद्धिमंतिविगएसु विसयसंभरणा / जह गेहगवक्खेहिं जो अणुसरिया स उवलद्धा // अणिदियगुणं जीवं दुन्नेयं मंसचक्खुणा। सिद्धा पासंति सबन्नू नाणसिद्धा ण साहूणो॥ जो चिंतेड सरीरे नत्थि अहं स एव होड जीव ति। नहु जीवंमि असंते संसयमुप्पायओ अनो॥ जीवस्स एस धम्मो जा ईहा अस्थि नत्थि वा जीयो / थाणुमणुस्साणुगया जह ईहा देवदत्तस्स // सिद्धं जीवस्स अत्थित्तं सहादेवाणुमीयए। . .. नासओं भुवि भावस्स सदो हवइ केवलो॥ अत्थि त्ति निवियप्पो जीवो नियमाओ सहओं सिद्धी / कम्हा सुद्धा पयत्ता घड-खरसिंगाणुमाणाओं // मिच्छा भवेउ सवत्था जे केई पारलोइया / - कत्ता चेवोवभुत्ता य जइ जीवो न विजई // पाणिदया तव नियमा बंभं दिक्खा य इंदियनिरोहो / सवं निरत्ययं एवं जइ जीवो न विजई॥ छउमत्थअणुवलंभा तहेव सवन्नुवयणओ घेव / लोगाइपसिद्धीओं मुत्तो जीव त्ति नायवो // मुत्तो अणिदियत्तो खणिओ नवि होइ जाइसंभरणा / थलअहिलासा य तहा अमओ नउ मिम्मउवघरों। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 35. 356. 357. 358. // 360. 361. पुरातनाचार्यसंगृहीत अमओ अ होइ जीवो कारणविरहा जहेवमागासं / समयं च होइ अणिचं मिम्मयघडतंतुमाईयं // संकोअ-विकोएहि य जह कम्मं देहलोअमित्तु छ / हत्थिस्स व कुंथुस्स व पएससंखा समा चेव // आयाणे परिभोगे जोगुवओगे कसायलेसा य / आणापाणू इंदियबंधोदयनिजरा चेव // चित्तं वेयण सन्ना विनाणं धारणा य बुद्धी य / ईहा मई वियका जीवस्स उ लक्खणा एए // चित्तं तिकालविसयं वेअण पच्चक्ख सन्न अणुसरणं / विन्नाणणेगभेयं कालमसंखेयरं धरणा // अस्थस्स ऊहवुद्धी ईहा चिट्टत्थअवगमो उ मई। संभावणत्थ तक्का गुणपञ्चक्खा घडु व त्थि // जम्हा चित्ताईया जीवस्स गुणा हवंति पच्चक्खा / गुणपच्चक्खत्तणओ घडु व जीवा अओ अस्थि // लोइआ वेइआ चेव तहा सामाइआ विऊ / निचो जीवो पिहो देहा इति सचे ववहिआ॥ लोए अच्छिन्न अभिज्जो वेए स पुरीसदड्ड य सियालो। समए अहमासिगओ तिविहो दिवाइसंसारो॥ लोए वेए समए निचो जीवो विभासया अम्हं। इहरा संसाराई सबंपि न जुज्जए तस्स // जह आहारो भुत्तो जिआण परिणमइ सत्तभेएहिं। वससोणिअमंसट्ठियमज्जा तह मेयसुक्के य॥ एवं अट्ठविहं पि य जीवेण अणाइसहयं कम्मं / जह कणगं पाहाणे अणाइसंजोगनिप्पन्नं // जीवस्स य कम्मस्स य अणाइमं चेव होइ संजोगो। सो वि उवाएण पुढो कीरइ उवलाओं जह कणयं // किं पुत्वयरं कम्मं जीवो वा इत्थ कोइ पुच्छिज्जा। सो वत्तबो कुकुडि-अंडाणं भणसु को पढमो॥" जह अंडसंभवा कुकुडि त्ति अंडं पि कुकुडीइ भवं / न य पुच्चावरभावो जहेह तह कम्म-जीवाणं // जह कणगस्स उ कीरंति पजवा मउडकुंडलाईआ। वर्ष कणगं तं चिय नामविसेसो असो अन्नो॥ एवं चउग्गईए परिन्भमंतस्स जीवकणगस्स। नामाई बहुविहाइं जीवं वर्ष तयं व // 363. 364.. 366. 367. 199. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध पचक्खं गहगहिओ दीसइ पुरिसो न दीसइ पिसाओ। आगारेहिं मुणिजइ एवं जीवो वि देहडिओ // अणुमाणुहेउसिद्धं छउमत्थाणं जिणाण पञ्चक्खं / गिण्हसु नरवर जीवं अणाईअं अक्खयसरूवं // // इति जीवव्यवस्थापनाषट्त्रिंशतिका समाता // 651. इति जीवखरूपं व्यवस्थाप्य जीवभेदानाहुः-तत्र जीवा द्विधा-मुक्ताः संसारिणश्च / मुक्तानां खरूपमिदम्३७२. अनादिभवसंस्कारविकाराकारवर्जिताः / स्वखरूपमयाः सिद्धा केवलज्ञानगोचराः॥ संसारिणस्तु चतुर्दशधा / तद्यथा-पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपा एकेन्द्रियाः, सूक्ष्मनामकर्मोदयाजाताः सूक्ष्माः; बादरनामकर्मोदयजाता बादराश्चेति विभेदाः / 2 / द्वीन्द्रियाः / 3 / त्रीन्द्रियाः। 4 / चतुरिन्द्रियाः / 5 / असन्जिनः सञ्जिनश्चेति विभेदाः पञ्चेन्द्रियाः / एवं भेदाः सप्त / 7 / / तत्र सज्ञाखरूपमिदम् -आहारसज्ञा वनस्पतीनामपि जलाराहारः / 1 / मयसञ्ज्ञा छिद्यमाना लजालू सडचति / 2 / मैथुनसज्ञाऽशोकादीनां स्त्रीपादप्रहारादिभिः फलोद्गमः / 3 / परिग्रहसज्ञा वल्ली वालकैः कण्ट'कान् वेष्टयति / 4 / क्रोधसञ्ज्ञा कोऽपि कन्दो (कोकनदो?) हुंकारान् मुञ्चति / 5 / मानसञ्ज्ञा रुदती वल्ली छिधमाना बिन्दून् श्रवति / 6 / मायासज्ञा वल्यः फलानि पत्रैश्छादयन्ति / 7 / लोभसज्ञापस्थे निधाने वृक्षस प्ररोहसम्भवात् / 8 / लोकसञ्ज्ञा कमल-शम्यादीनां रात्रौ सङ्कोचः / 9 / ओघसज्ञा वक्ष्यो मार्ग त्यक्त्वा वृक्षा-॥ नाश्रयन्ति / 10 / इयं दशधाऽप्येकेन्द्रियाणाम् / यया तु इष्टानिष्टेषु छायातपादिवस्तुषु खदेहपालनाहेतोः प्रवृत्तिनिवृत्ती विधत्ते सा हेतुवादोपदेशिकी / इयं तु द्वि त्रि-चतुरिन्द्रियाणाम् / एषा सामान्यसञ्ज्ञा स्वरूपत्वात् स्तोका, तथाभूताऽपि मोहोदयजन्यत्वादशोभनाऽतो नानयाऽधिकारः / किन्तु महत्या शोभनया विशिष्टज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमजनया मनोज्ञानसञ्ज्ञयैवेति / यया दीर्घमपि कालमतीतमर्थ स्मरति, भविष्यच्च वस्तु चिन्तयति, कथं तु नाम कर्तव्यम(मि)ति दीर्घकालव्युपदेशिकी / इयं च सुर-नारक-गर्भजमनुष्य-तिरश्चां मनःपर्याप्त्या पर्याप्तानां सात् / यया . तु हिताहितप्राप्ति-परिहारौ सम्यग्दृष्टिसाध्यौ क्रियेते सा दृष्टिवादोपदेशिकी / इयं सम्यग्दृष्टेरेव भवति / यदुक्तम् - 373. पंचण्हं मोहसन्ना हेऊसन्ना बिइंदियाईणं / सुरनारयगब्भुभवजीवाणं कालिकी सन्ना // 374. छउमत्थाणं सन्ना सम्मद्दिट्टीण दिट्ठियाईया। मइवावारविमुक्का सन्ना ईआओं केवलिणो॥ . सज्ञाऽस्यास्तीति सञी / पञ्चेन्द्रियो मनःपर्याप्त्या पर्याप्तः / इतरे पृथ्व्यादय एकेन्द्रियाः, विकलेन्द्रियाः, समूछिमपञ्चेन्द्रियाश्चासचिनः / एवमेकेन्द्रियाः सूक्ष्मबादराः / 2 / द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाः / 3 / असब्जिसञ्जिपञ्चेन्द्रियाश्च / 2 / सर्वे सप्तापि भेदाः पर्याप्तापर्याप्तभेदाच्चतुर्दशधा संसारिजीवाः / पर्याप्तयस्त्विमाः३७५. आहारसरिरिंदीयपज्जत्ती आणपाणभासमणे / घउपंचपंचछप्पिय इगविगला सन्निसन्नीणं // 376. पत्तेयतरं मुत्तुं पंचवि पुढवाइणो सयललोए। सुहुमा वसंति नियमा अंतमुहुत्ताउ अहिस्सा // Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत एगिदिय पंचिंदिय उहे य अहे य तिरियलोए / विगलिंदियजीवा पुण तिरियलोए मुणेयवा // 378. पुढवी आउ वणस्सइ बारसकप्पेसु सत्तपुढवीसु। पुढवी जा सिद्धिसिला तेऊ नरखित्ति तिरिलोए // जइया होही पुच्छा जिणाण मग्गंमि उत्तरं तइया / एगस्स निगोयस्स य अणंतभागो अ सिद्धिगओ॥ 38.. गोलाइ असंखिज्जा असंखनिगोअओ हवइ गोलो। इक्किकमि निगोए अणंतजीवा मुणेयवा // अत्थि अणंता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइ परिणामो। उप्पजंति चयंति य पुणोवि तत्थेव तत्थेव // 382. सामग्गिअभावाओ ववहारियरासिअप्पवेसाओ / भवावि ते अणंता जे सिद्धिसुहं न पावंति // सिज्झंति जत्तिआ खलु इहयं ववहारिरासिमझाओ। एति अणाइवणस्सइमज्झाओ तित्तिया चेव // // 384. अक्खीणजीवखाणी हुंति निगोआ उ जिणसमक्खाया। तेण न दोसो संसाररित्तियासंभवो होइ // लोए असंखजोयणमाणे पइ जोअणंगुलासंखा। पइ तं असंखयं सा पइ यसअसंखया गोला // गोलो असंखनिगोओं सोऽणंतजिओ जियं पइ पएसा / अस्संख पइ पएसं कम्माणं वग्गणाणंता // 387. पइ वग्गणं अणंता अणू अ पइ अणु अणंतपजाया। एवं लोगसरूवं भाविज तह त्ति जिणवुत्तं // 388. पत्थेण व कुडएण व जह कोइ मिणिज सबधन्नाई। एवं मविजमाणा हवंति लोगा अणंताओ॥ लोगागासपएसे निगोअजीवं खिवेइ इक्किकं / एवं मविजमाणा हवंति लोगा अणंताओ॥ 652. एवं जीवतत्त्वे व्याख्याते सति कश्चित्तीर्थान्तरीयः प्राह -'हे महात्मन् ! एवं च युष्मदुक्तयुक्त्या सूक्ष्मै - दरैश्च त्रसैः स्थावरैश्च जीवैः सर्वत्र व्याप्ते लोके कथमहिंसकत्वं नाम, कथं च सर्वप्राणातिपातविरतिव्रतम् / तदा श्रीसूरयः प्राहुः-'भो वादिन् ! तत्त्वातत्त्वपरिज्ञानानभिज्ञत्वेनेयं भवदुक्तिः / यतः, हिंसापरिणामपरिणत एवात्मा * हिंसक इत्युच्यते, न त्वपरिणतः, तस्याहिंसकत्वात् / यदुक्तमहिंसापरमवेदिभिः श्रीसर्वज्ञैः अज्झत्थविसोहीए जीवनिकाएहिं संघडे लोए / देसिअमहिंसकत्तं जिणेहिं तिलुक्कदंसीहिं // नाणी कम्मस्स खयट्ठमुट्टिओ नो ठिओ उ हिंसाए / जयइ असहं अहिंसत्थमुडिओ अवहओ सोउ / 385. 390. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध अणुमित्तो वि न कस्स य बंधो परवत्थुपचया भणिओ। तह वि अ जयंति जइणो परिणामविसोहिमिच्छता // जो पुण हिंसाययणेसु वई तस्स नूण परिणामो। दुट्ठो न य तं लिंगं होइ विसुद्धस्स जोगस्स // तम्हा य सा विसुद्धं परिणाम इच्छया सुविहिएणं / हिंसाययणा सवे वजेयवा पयत्तेणं // बजेमि त्ति परिणओं संपत्तीए विमुच्चए वेरा / अवहंतो वि न मुच्चइ किलिट्ठभावोऽइवायस्स // न य हिंसामित्तेणं सावजेणावि हिंसओ होइ।. सुद्धस्स उ संपत्ती अफला भणिया जिणवरेहिं // जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। सा होइ निजरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स // अन्यैरप्युक्तम्अधीत्य सर्वशास्त्राणि जीवहिंसां करोति यः। मनोवाकायसंश्लिष्टः स पापी सर्वतोऽधमः॥ अकुर्वाणोऽपि पापानि क्लिष्टभावो हि षध्यते। विमुच्यतेऽक्लिष्टमनाः कुर्वन्नपि कथंचन // . वचोभिरुच्यते सर्वैर्दया जीवेषु दर्शनैः। क्रियते वाग्मनाकायैराहतैः किंतु सर्वदा // इति जीवतत्त्वम् / 653. अथ अजीवतत्त्वमाहुः-अजीवा दुविहा पन्नत्ता; तं जहा-पुग्गला य नोपुग्गला य / पुग्गला छबिहा पन्नता , तं जहा-सुहुमसुहुमा 1, सुहुमा 2, सुहुमबायरा 3, बायरसुहुमा 4, बायरा 5, बायरबायरा 6 / तत्थ सुहुममुहुमा परमाणुपुग्गला / सुहुमा दुप्पएसियाओं आढत्तो जाव सुहुमपरिणओ अणंतपएसिओ खंधो / सुहुमबायरा गंधपुग्गला। बायरसुहुमा वाउकायसरीरा। [बायरा उस्साईणं / बायरबायरा तेउ-वणस्सइ-पुढविसरीराणि / अहवा चउबिहा पुग्गला; तं जहा-खंधा 1, खंधदेसा 2, खंधपएसा 3, परमाणुपुग्गला 4 / एस पुग्गलत्यिकायओगहणलक्खणो। स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णशब्दास्तत्र स्वभावजाः, संघातभेदनिष्पन्नाश्च / नोपुग्गलत्थिकाओ तिविहो पन्नतो; तं . नहा-धमथिकाओ 2, अधम्मत्थिकाओ 2, आगासत्थिकाओ३। एते त्रयोऽपि तत्तदवच्छेदकवशात् स्कन्ध 1. / स्कन्धदेश 2 स्कन्धप्रदेश 3 रूपैर्भेदैः प्रत्येकं त्रिभेदाः / एवं भेदाः 9 / तत्र गतिपरिणतजीवपुद्गलानां प्रत्युपष्टम्भकारणं धर्मास्तिकायः; यथा चक्षुष्मतो ज्ञानस्य प्रदीपः, मत्स्यानां जलम् / तथा गतिपरिणतजीवपुद्गलानां खित्युपष्टम्मकारणमधर्मास्तिकायः; यथा तिष्ठासोः पुरुषस्य भूः, मत्स्यानां स्थलम् / तथा जीवानां पुद्गलानां धर्माधर्माखिकाययोश्वावगाहकानामवकाशदमाकाशम् ; यथा बदराणां घटाकाशः / कालस्तु समयावलिकामुहूर्त्तदिवसपक्ष-" मासादिः / तत्र समयः परमतमसूक्ष्मः, स च कालस्य निर्विभागो भागः / तैरसंख्यातैरेका आवलिका, ताभिः 256 मिताभिः क्षुलकभवग्रहणानि निगोदजीवाः पूरयन्ति / 3773 उच्छासप्रमाणो मुहूर्तः / त्रिंशता तैरहोरात्रः / है पबदशभिः पक्षः / ताभ्यां मासः- इत्यादिकालः सर्वत्र नवपुराणतादिपर्यायोत्पत्तिहेतुलक्षणो ज्ञेयः / एवं षोडशबेदं चतुर्दशभेदं वाज्जीवतत्त्वम् / एतत्परिज्ञानमन्तरेणाजीवसंयमो न भवति // 2 // Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरावनाचार्यसंगृहीत ___ अथ पुण्यतत्त्वम् -- 42 [भेदम् ] येन जीवः सुखमनुभवति तत्सुखवेदनीयं पुण्यप्रकृतिः / 1 / उच्चैर्गोत्रपुण्यप्रकृत्या धन-बुद्धि-रूपादिरहितो लोके पूजां लभते / 2 / यया पुण्यप्रकृत्या मनुष्यत्वं लमते सा मनुष्यगतिः 13 / यया वृषभनासिकारजुकल्पया द्विसमयादिवक्रेण गच्छन् जीवो मनुष्यगतावानीयते सा मनुष्यानुपूर्वी / 4. एवं देवगति-५ देवानुपूर्वी / 6 / पञ्चेन्द्रियजातिः 7, औदारिकं शरीरं 8, तिर्यग्-मनुष्याणां वैक्रियमोपपातिक * लब्धिप्रत्ययं च 9, आहारक चतुर्दशपूर्वविदः कारणे स्यात् 10, तैजसं भुक्तानपरिणतितेजोलेश्याहेतुः ११इत्यादि पुण्यतत्त्वं ज्ञेयम् / पापतत्त्वम् 82 [भेदम् ], आश्रवतत्त्वम् 42 [भेदम् ], संवरतत्त्वम् 57 [मेदात्मकम् ]. 654. अथ राजन् ! निर्जरातत्त्वम् - निर्जरयति रसहान्या कर्मपुद्गलान् जीर्णान् करोति या सा निर्जरा / सा च द्विभेदा-सकामनिर्जरा 1 अकामनिर्जरा 2 च / तत्र अकामनिर्जरा सहनपरिणाममन्तरेण सकलचातुर्गतिकजीवानां " स्वयं परिपाकसमायातकर्मफलवेदनम् ; सकामनिर्जरा तु परिज्ञातकर्मविपाकनिर्जरणोपायानां कर्मक्षयार्थ सहनपरिणामवतां सर्वविरत-देशवितरतादीनाम् / सा द्वादशधा तपोरूपा४०१. अणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ // तत्रानशनं द्विधा-इत्वरम् 1, यावत्कथिकं च 2 / तत्रेत्वरं चतुर्थषष्ठाष्टमादियावत्संवत्सरं तपः। यावत्क॥ थिकं तु भक्तपरिज्ञा १-इंगिनी 2- पादपोपगम 3 रूपं त्रिधा / ऊनोदरता द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / 402. तत्र द्रव्यतः-कवलाण य परिमाणं कुक्कुडिअंडगपमाणमित्ताणं / जं ऊणत्तं कीरइ ऊणोयरिया उ सा दवे // 403. भावतः-कोहाईणमणुदिणं चाओ जिणवयणभावणाओ उ / भावेणोणोयरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं // - वृत्तिसंक्षेपो गोचराभिग्रहादिश्चतुर्दा / द्रव्यतः 1, क्षेत्रतः 2, कालतः 3, भावतश्च 4 / तत्र द्रव्यतो निर्लेपादि ग्राह्यम् / 404. उक्तं च-लेवडमलेवडं वा अमुगं दवं च अज घिच्छामि / अमुएण च दवेणं इय दवाभिग्गहो नाम // अट्ठ उ गोअरभूमी एलगविखंभमित्तगहणं च / सग्गामपरग्गामे एवइय घरा य खित्तंमि // . काले अभिग्गहो पुण आई मज्झे तहेव अवसाणे / अप्पत्ते सइ काले आई ठिइ मज्झ तइयंते // उक्खित्तमाइचरगा भावजुया खलु अभिग्गहा हुँति / गायंतो व रुयंतो जं देइ निसन्नमाई वा // ... रसः क्षीरदधिघृतादित्यागस्तपः / उक्तं च. 408. विगई विगईभीओ विगइगयं जो अ भुंजए साहू। विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेइ // कायक्लेशो वीरासनादिभेदाचित्रः / कायोत्सर्गादिसलीनता चतुर्धा४०९. इंदियकसायजोए पडुच संलीणयामुणेयवा। तस्य विवित्ता चरिया पन्नत्तापीयरागेहि। 406. . . . 407. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412. . कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध 410.. भद्देसु अभयपावएसु भोअविसयमुवगएसु / रुटेण व तुटेण व समणेण सया न होअवं // एवं शेषेन्द्रियेषु निरोधकरणे संलीनता / उक्तश्च बाह्यतपः / अथाम्यन्तरं तपः४११. . . . पायच्छित्तं विणओ देयावच्चं तहेच सज्झाओ। . झाणमुस्सग्गो विय अम्भितरओ तवो होड॥ पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तं ति भन्नए तम्हा। पाएण वा वि चित्तं विसोहई तेण पच्छित्तं // 413. तद्दशधा-आलोयण-पडिकर्मणे मीसविवेगें तहा विउस्सैग्गे। तर्व-छेय-मूल-अणवढेया य पारंचिएं चेव // प्रमाददोषव्युदासभावप्रसादनैःशल्यानवस्थाव्यावृत्तिमर्यादात्यागसंयमदायराधनादिप्रायश्चित्तफलम् / विनी- " यतेऽष्टप्रकारं कर्म येन स विनयः / स च विधा काय-वाङ्-मनोभिः / यथा४१४. अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं अँभिग्गहाकिई है। .. सुस्सूर्सण-अणुगच्छण-संसाहर्णं काय अढविहो // 415.. हिअ-मिअ-अफरुसवाई अणुवीई भासि वाईओ विणओ। ___ अकुसलमणोनिरोहो कुसलस्स उदीरणं चेव // 416. वैयावृत्त्यं दशधा-आयरियउवज्झाए थेरतवस्सीगिलाणसेहाणं / . साहम्मियकुलगणसंघसंगयं तमिह कायचं // . वाचना-प्रच्छना-परावर्तना-अनुप्रेक्षा-धर्मकथारूपः पञ्चधा खाध्यायः / ध्यानं धर्म-शुक्लरूपम् / व्युत्सर्गो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च / यदुक्तम् - 417. ... दवे भावे य तहा दुहा विसग्गो चउविहो दधे / गणदेहोवहिभत्ते भावे कोहाइ काओ त्ति // 418. . काले गणदेहाणं अतिरित्ता सुद्धभत्तपाणाणं / कोहाइयाण सययं कायवो होइ चाओ त्ति // ___-इति द्वादशधा तपो निर्जरातत्त्वम् / 419. यया कर्माणि शीर्यन्ते बीजभूतानि जन्मतः। प्रणीता ज्ञानिभिः सेयं निर्जरा शीर्णबन्धनैः॥ 656. अथ राजन् ! बन्धतत्त्वम् -अञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्कवन्निरन्तरं पुद्गलनिचिते लोके हेतुभिर्मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगादिभिः सामान्यैः प्रत्यनीकत्व-निह्नवत्वादिविशेषरूपैश्च कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैः संगृहीतैरात्मनो वह्नययःपिण्डवदन्योन्यानुगमात्मकः सम्बन्धो बन्धः / स च चतुर्विधो यथा-प्रकृतिबन्धः 1, स्थितिबन्धः 2, रसबन्धः 3, प्रदेशबन्धः 4 / / 420. प्रकृतिः परिणामः स्यात् स्थितिः कालावधारणम् / अनुभागो रसो.ज्ञेयः प्रदेशो दलसञ्चयः॥ प्रकृति-स्थित्यादीनाश्रित्य मोदकदृष्टान्तो यथा-कश्चिन्मोदको वातनाशिद्रव्यनिष्पन्नः प्रकृत्या पातमपहर ति, पिचापहारिद्रव्यनिष्पन्नः पित्तम् , श्लेष्मापनायिद्रव्यकृतः श्लेष्माणम् / स्थित्या तु स एव कश्चिदिनमेकमवतिष्ठते, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरावनाचार्यसंगृहीव अपरस्त दिनद्वयम् , यावन्मासादिकमपि कश्चित् / अनुभागेनापि स्निग्धमधुरत्वं लक्षणेन स एव कमिदेकगुणाढुंगागोऽपरस्तु द्विगुणानुभागः- इत्यादि / प्रदेशाश्च कणिक्कादिरूपाः / तैः स एव कश्चिदेकप्रतिमानोऽपरस्तु व्यादिप्रस.. तिमानः / एवं कर्मापि किश्चित् प्रकृत्या ज्ञानाच्छादकम् , किश्चिद् दर्शनाच्छादकमित्यादि / स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमकोयकोव्यादिका / तस्य रस एकस्थानादिः / प्रदेशा अनन्ताणुरूपाः / एवं कर्मग्रन्थानुसारेण सविस्तरं बन्धतत्त्वं ज्ञेयम् / . 656. अथ मोक्षतत्त्वम् - तत्रात्मनः स्वरूपावरणीयानां कर्मणां क्षयात् यः स्वरूपलामः स मोक्षः / स च तादा म्येन सम्बन्धयोर्जीवकर्मणोः पृथक्करणं कर्मक्षयः; नतु सर्वथा क्षयः, कर्म-पुद्गलानां नित्यत्वात् / यदुक्तम् - 421. .. जीवस्स अत्तजणिएहिं चेव कम्मेहिं पुवयद्धस्स / सबविओगो जो तेण तस्स अह ईतिओ मुक्खो॥ तस्य च सत्पदप्ररूपणायाम् - सत् विद्यमानं मोक्ष इति पदम् , शुद्धशब्दवाच्यत्वात् / नत्वसत् अविद्यमानं // वन्ध्यास्तनन्धयगगनकुशेशय-खरविषाणादिवदशुद्धशब्दवाच्यम् / यदुक्तम् - 422. चहऊणं संकपयं सारपयमिणं दढेण पित्तवं / अत्थि जओ परमपयं जयणा जा रागदोसेहिं // गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु चिन्त्यमानं नरगतौ 1, एवं पञ्चेन्द्रियत्वे 2, सत्वे 3, भव्यत्वे 4, सञ्जित्वे 5, यथाख्यातचारित्रे 6, क्षायिकसम्यक्त्वे 7, अनाहारकत्वे 8, केवलज्ञानदर्शने 9 च / मोक्षपदं न शेषेषु / // द्रव्यप्रमाणचिन्तायां सिद्धानामनन्तानि जीवद्रव्याणि गृहान्तःप्रदीपितदीपशतसहस्रप्रभावदन्योऽन्यं समवगाडानि सन्ति / यदुक्तम् - त(ज)त्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुका। अन्नुन्नसमोगाढा पुट्ठा सवेवि लोगंते॥ 424. फुसइ अणंते सिद्धे सबपएसेहिं नियमसो सिद्धो। तेवि असंखिजगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा // क्षेत्रं चतुर्दशरज्वात्मकलोकाग्रं पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणसिद्धिशिलारूपम् / यदुक्तम् - 425. पणयाललक्खजोयणविक्खंभा सिद्धसिल फलिहविमला। तदुवरिगजोअणंते लोगंतो तत्थ सिद्धठिई // अथवा चरमभवशरीरप्रमाणात्तृतीयभागोनावगाहनारूपं क्षेत्रम् / यदुक्तम् - - 426. दीहं वा हस्सं वा जं चरमभवे हविज संठाणं। तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया // क्षेत्रात् स्पर्शनाधिका षट्सु दिक्षु सपर्शनाधिक्यात्। एकसिद्धमाश्रित्य कालः सादिरनन्तश्च, पश्चात् प्रतिपाताभावात् / सिद्धानां नान्तरं सर्वसंसारिकजीवानामनन्ततमे भागे सिद्धाः / सिद्धानां दर्शन-ज्ञाने क्षायिके भावे, जीवितं तु पारिणामिके भावे / सर्वस्तोका नपुंसकसिद्धाः, ततोऽसंख्यातगुणाः स्त्रीसिद्धाः; ततोऽपि पुरुषसिद्धार-संख्या तगुणाः / .427. असरीरा जीवगणा उवउत्ता दसणे य नाणे य / सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं॥ निच्छिन्नसबदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुका। अवाबाई मुक्खं अणुहुँति सासयं सिदा // 423. 428. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध नवि अत्थि माणुसाणं तं सुक्ख न विय सवदेवाणं। जं सिद्धाणं सुक्खं अवाबाहं उवगयाणं // .. सुरगणसुहं समग्गं सबदा पिंडियं अणंतगुणं / नवि पावइ मुत्तिसुहं अणंताहिं वग्गवग्गूहिं // अन्यैरप्युक्तम् - 441. स्थितिमासाद्य सिद्धात्मा तत्र लोकाग्रमन्दिरे / आस्ते स्वभावजानन्तगुणैश्वर्योपलक्षितः॥ 12. यहेवमनुजाःसर्वे सौख्यमक्षार्थसम्भवम् / निर्विशन्ति निराधाचं सर्वाक्षणीणनामम् // १३३.सर्वेणातीतकालेन यच्च भुक्तं महर्द्धिकैः।भाविनो यच्च भोक्ष्यन्ति स्वादिष्टं खान्तरनकम् // 434. अनन्तगुणितं तस्मादत्यक्षं खखभावजम् / एकस्मिन् समये भुङ्क्ते तत्सौख्यं परमेश्वरः॥" 415. अनन्तदर्शनज्ञानसौख्यशक्तिमयः प्रभुः / त्रैलोक्यतिलकीभूतस्तत्रैवास्ते निरञ्जनः॥ .. -राजन् ! एवं नवतत्त्वानि जीवाई नवपयत्थे जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं / भावेण सद्दहंतो अयाणमाणेवि सम्मत्तं // सवाई जिणेसरभासियाइं वयणाई नन्नहा हुंति / इय बुद्धी जस्स मणे सम्मत्तं निच्चलं तस्स // 458.. अंतोमुहुत्तमित्तं पि फासियं हुज जेहिं सम्मत्तं / ... तेसिं अवडपुग्गलपरिअहो चेव संसारो॥ . अन्तर्मुहर्तमष्टसमयोद्धं घटीद्वयमध्यं यावदित्यर्थः / तच्चान्तर्मुहूर्तप्रमाणं सम्यक्त्वौपशमिकमुच्यते / ययो- . . परं दग्धं वा वनदेशं प्राप्य वनदवः स्वयमुपशममेति, तथा जीवोऽपि ग्रन्थिभेदानन्तरमन्तर्मुहूर्तमतिक्रम्य मिथ्यात्व.. सानुदयमधिगम्यान्तमौहूर्तिकमेतत् सम्यक्त्वं लभते / अपकृष्टः किञ्चिन्न्यूनः पुद्गलपरावर्तः / तस्येदं खरूपम् - 439. ओसप्पिणी अणंता पुग्गलपरियओ मुणेयचो। तेणंतातीयद्धा अणागयद्धा अणंतगुणा॥ इति तत्त्वानि / अन्येऽपि च श्रीजिनोक्तभावास्तत्त्वज्ञैर्तेयाः / यदुक्तम्- . wo. तत्त्वानि व्रतधर्मसंयमगतिज्ञानानि सद्भावनाः, - प्रत्याख्यानपरीषहेन्द्रियदमध्यानानि रत्नत्रयम् / लेश्यावश्यककाययोगसमितिप्राणप्रमादस्तपः सज्ञाकर्मकषायगुप्त्यतिशया ज्ञेयाः सुधीभिः सदा // इत्येतानि नवतत्त्वानि श्रीगुरुमुखेन श्रुत्वा श्रीकुमारपालभूपालोऽधिगतजीवाजीवादितत्त्वः परिज्ञातपदव्यखरूपः परमा ई तः परमश्रा व कः समजनि / 157. अथान्यदाज्नेकभूपालचक्रवालपरिवृतः श्रीकुमारपालभूपालः पश्चाङ्गप्रणामेन श्रीपरमगुरुणां क्रमपर्य प्रणम्य - इखानामुचितामहोरात्रिकी क्रियामपृच्छत् / ततः श्रीगुरवः प्राहुः-राजन् ! संसारविरक्तानां यतिधर्मानुरक्तानां पौजिनभक्तानां परमश्रावकाणामहोरात्रिकी क्रियां श्रूयताम् / तथा हि निसाविरामंमि मि विबुद्धएणं, सुसावएणं गुणसायराणं। देवाहिदेवाण जिणुत्तमाणं, किचो पणामो विहिणायरेणं // A Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत 442. सवाठाणं पमुत्तूणं चिहिजा धरणीयले / भावबंधं जगन्नाहं नमुकारं तओ पढे // 443. मंताण मंतो परमो इमु त्ति, धेयाण धेयं परमं इमं ति। तत्ताण तत्तं परमं पवित्तं, संसारसत्ताण दुहाहयाणं // 444. कोऽहं पुणो कमि कुलंमि जाओ, किं सम्मदिट्टी वयनियमधारी / उआहु हं दसणमित्तजुत्तो, एयं तु अन्नं पि विचिंतइजा // ___ 'प्राधे मुहूर्ते उत्तिष्ठेत्०' प्रारभ्य इत्याहोरात्रिकी चर्या यावत् श्रीयोगशास्त्रतृतीयप्रकाशमध्यात् वाच्यं दिनचर्यास्वरूपं चेति / 658. अन्यदा श्रीहेमचन्द्रगुरोर्लोकोत्तरैर्गुणैरपहृतहृदयो नृपतिरुदयनमत्रिणं सभायां पप्रच्छ -'यत् ईदृशं पुरुषरत्नं [कस्मिन् ] समस्तवंशावतंसे वंशे देशे समस्तपुण्यप्रदेशे निःशेषगुणाकरे नगरे च समुत्पन्नमिति / ' नृपा• देशादनु स मत्री जन्मप्रभृति तच्चरित्रं पवित्रमाह- अर्द्धाष्टमनामनि देशे धुन्धुकाभिधाने नगरे श्रीमन्मोंढवंशे चाचिगनामा व्यवहारी सती जनमतल्लिका जिनशासने देवीव तस्य सधर्मचारिणी पाहिणी नाग्नीति / तयोः पुत्रचामुण्डागोत्रजायाः आद्याक्षराङ्केन चांगदेवनामा समजनि, प्रवरभाग्यसौभाग्यपवित्रः-गर्भे पुष्पितसहकारो गृहाङ्गणात् पौषधशालायां फलितः-इति स्वमसूचितः। स चाष्टवर्षदेशीयः श्रीदेवचन्द्राचार्येषु श्रीपत्तनात् तीर्थयात्रायै प्रस्थितेषु धुंधुक्कके श्रीमोढवसहिकायां देवनमस्करणार्थ प्राप्तेषु सिंहासनस्थिततदीयनिषद्यायां सहसा // निषण्णसवयोभिः शिशुभिः समं धर्मदेशनादिकां क्रीडां कुर्वाणस्तैर्व्याघुख्यमानैदृष्टः / तदङ्गप्रत्यङ्गानां जगद्विलक्षणांनि लक्षणानि निरीक्ष्य चिन्तितम् - यद्ययं क्षत्रियकुले जातस्तदा सार्वभौमो नरेन्द्रः, यदि वणिग्-विप्रकुले तदा महामात्यः। चेद् दीक्षां गृह्णाति तदा युगप्रधान इव तुर्ये युगे कृतयुगमवतारयतीति / ततस्तत्पित्रोस्तस्य च नामादिकं शिशुभ्योऽधिगम्य तन्नगरनिवासिश्रीसङ्घ मेलयित्वा तत्स्वरूपं निरूप्य, तस्य गृहे गताः श्रीसूरयः / चाचिगे ग्रामान्तरगते मात्रा भाग्ययोगेन गृहागतः श्रीसद्धः स्वागतकरणादिना तोषितः / मम पुत्रार्थमायातः श्रीसकः-इति हर्षाणि * मुञ्चन्ती खं रत्नगर्भा मन्यमानापि विषण्णा / यतस्तत्पिता सुतरां मिथ्यादृष्टिः; परं तादृशोऽपि ग्रामे नास्ति / तर्हि मया किं कर्त्तव्यमिति क्षणं मूढचित्ताऽभूत् / ततः प्रत्युत्पन्नमतिर्माता श्रीसङ्घन समं श्रीगुरुन् कल्पतरूनिव गृहायातान् ज्ञात्वाऽवसरज्ञा खजनानामनुमतिं लात्वा निजं पुत्रं श्रीगुरुभ्यो ददौ / ततः श्रीगुरुभिः श्रीसङ्घसमक्षं-'हे वत्स! श्रीतीर्थकर-चकवर्ति-गणधरैरासेवितां सुरासुरनरनिकरनायकमहती मुक्तिकान्तासङ्गमदूतीं दीक्षांत्वं लास्यसि?'इति प्रोक्ते स च बालकुमारकः प्राग्भवचारित्रावरणीयकर्मक्षयोपशमेन संयमश्रवणमात्रसञ्जातपरमवैराग्यः सहसा - ओमित्युवाच / ततो मात्रा खजनैश्वानुमतं पुत्रं संयमानुरागपवित्रं लात्वा श्रीतीर्थयात्रां विधाय कर्णावती जग्मुः श्रीगुरवः / तत उदयनमत्रिगृहे तत्सुतैः समं बालकधारकैः पाल्यमानः सकलसबलोकमान्यः संयमपरिणामधन्यः वैनयिकादिगुणविज्ञो यावदास्ते तावता ग्रामान्तरादागतश्चाचिगः पत्नीनिवेदितश्रीगुरुसवागमनपुत्रार्पणादिवृत्तान्तः, पुत्रादर्शनावधिसन्त्यक्तसमस्ताहारः कर्णावत्यां गतः / तत्र वन्दिता गुरवः, श्रुता धर्मदेशना / सुतानुसारेणोपलक्ष्य विचक्षणतयाऽभाणि श्रीगुरुभिः कुलं पवित्रं जननी कृतार्था, वसुन्धरा भाग्यवती च तेन / अवाह्यमार्गे श्रुतसिन्धुमनं, लग्नं परब्रह्मणि यस्य चेतः // 446. कलई कुरुते कश्चित् कुलेऽपि विमले सुतः। धननाशकरः कश्चिद्व्यसनैः पुण्यनाशनः / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालंप्रबोधप्रबन्ध पित्रोः सन्तापकः कश्चिद् यौवने प्रेयसीमुखः। थाल्येऽपि म्रियते कोऽपि स्यात् कोऽपि विकलेन्द्रियः॥ 48. सर्वाङ्गसुन्दरः किन्तु ज्ञानवान् गुणनीरधिः। श्रीजिनेन्द्रपथाध्वन्यः प्राप्यते पुण्यतः सुतः // इति श्रीगुरुमुखादाकर्ण्य सञ्जातप्रमोदः प्रसन्नचित्तश्वाचिगः / तत्र श्रीगुरुपादारविन्दनमस्यायै समायातेनो-। पयनमत्रिणा धर्मवान्धवधिया निजगृहे नीत्वा गुरुगौरवेन भोजयांचक्रे / तदनु चांगदेवं तदुत्सङ्गे निवेश्य पञ्चाङ्गप्रसादपूर्वकं दुकूलत्रयं द्रव्यलक्षत्रयं चोपनीय सभक्तिकमावर्जितश्वाचिगः सानन्दं मत्रिणमवादीत् - 'मत्रिन्! 'क्षत्रियमूल्येऽशीत्यधिकसहस्रम् 1080, अश्वमूल्ये पञ्चाशदधिकानि सप्तदशशतानि 1750, सामान्यस्यापि वणिजो मूल्ये नवनवति 99 गजेन्द्रा एतावता नवनवतिलक्षा भवन्ति / त्वं तु लक्षत्रयमर्पयन् स्थूललक्षायसे / अतो मत्सुतोऽनय॒स्त्वदीया भक्तिस्त्वनर्घ्यतमा / तदस्य मूल्ये सा भक्तिरस्तु, न तु मे द्रव्येण प्रयोजनमिति शिवनिर्माल्य-। वदस्पृश्यो मे / दत्तो मया पुत्रो भवताम्'-इति चाचिगवचः श्रुत्वा प्रमुदितमना मत्री तं परिरभ्य, साधु साधु !' युक्तमेतदिति वदन् पुनस्तं प्रत्युवाच-'त्वयाऽयं पुत्रो ममार्पितो योगिमर्कट इव सर्वेषामपि जनानां नमस्कार कुर्वन् केवलमपमानपात्रं भविता, परं श्रीगुरूणां समर्पितः श्रीगुरुपदं प्राप्य बालेन्दुरिव महतां महनीयो भवतीति विचार्यतां यथोचितम् / ततः स 'भवद्विचार एव प्रमाणमिति वदन् सकलश्रीसङ्घसमक्षं रत्नकरण्डमिव रक्षणीयं उदुम्बरपुष्पमिव दुर्लभं तं पुत्रं क्षमाश्रमणपूर्वकं श्रीगुरूणां समर्पयामास / श्रीगुरुभिरमाणि धनधान्यस्य दातारः सन्ति कचन केचन / पुत्रभिक्षाप्रदः कोऽपि दुर्लभः पुण्यवान् पुमान् // 450. धनधान्यादिसंपत्सु लोके सारा हि सन्ततिः / तत्रापि पुत्ररत्नं तु तस्य दानं महत्तमम् // स्वर्गस्थाः पितरो वीक्ष्य दीक्षितं जिनदीक्षया / मोक्षाभिलाषिणं पुत्रं तृप्याः स्युः खर्गसंसदि // श्रीमहाभारतेऽप्युक्तम् - तावद् भ्रमन्ति संसारे पितरः पिण्डकांक्षिणः।। यावत् कुले विशुद्धात्मा यती पुत्रो न जायते // इति श्रुत्वा प्रमुदितेन चाचिगेन प्रव्रज्योत्सवः श्रीस्तम्भतीर्थे आलिगवसहिकायां कारयितः / सोमदेवमुनि म दत्तम् / 452. 659. यथान्यदा नागपुरे धनदेवनाम्नः श्रेष्ठिगृहे प्रथमालिकार्थ गतः / तद्बहे रब्बाभोजनं स्वर्णराशिं च दृष्ट्वाऽप्रगं वृद्धसाधुं प्राह यथा- 'कस्मादस्य गृहेऽसमञ्जसमीदृशम् ? / एकतः स्वर्णराशिः, भोजने तु रब्बा !' स साधुरिति भुत्वोवाच- 'अभाग्यवशेनायं निर्धनों जातः / निधानगतमपि स्वर्णमङ्गारीभूतं राशीकृतमस्ति' / सोमदेवमुनिना प्रोक्तम् - 'मया तु स्वर्णराशिर्ददृशे' / गवाक्षस्थेन श्रेष्ठिना तन्निशम्य क्षुलकमाहूय, अङ्गारकराशौ करो दापितः / / तत्सर्व स्वर्ण जातम् / तत्प्रच्छादकः कश्चिद् व्यन्तरः परब्रह्मतेजोऽसहिष्णुर्नष्टः / ततः सखातचमत्कारेण श्रेष्ठिना श्रीसकेन च हेमचन्द्रनाम दापितम् / ततः शनैः शनैर्ज्ञानेन तपसा विनयादिगुणैर्वयसा च वर्द्धमानो निजौदार्यगाम्भीर्यादिगुणैरावर्जितश्रीगुरु-गच्छ-श्रीसङ्घलोकः, कदाचित् श्रीगुरूनापृच्छ्य युगादौ लोकोपकाराय परप्रझमयपरमपुरुषप्रणीतमातृकाऽष्टादशलिपिन्यासप्रकटनप्रवीणाया ब्राहया आदिमूर्ति विलोकनाय काश्मीरदेशं.प्रति प्रस्थितः Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ce पुरातनाचार्यसंगृहीत श्रीहेमचन्द्रः। ततः कियति मार्गेऽतिक्रान्ते सति मिथ्यात्वतमःकरालेऽस्मिन् कलिकालेऽस्य श्रीजिनशासनप्रमा कस्स महापुरुषस्य यलपायसङ्कले पथि मा भूदु भ्रमणप्रयासः-इति सा भगवती स्वयं दिव्यरूपधारिणी संमुखीना समाजगाम निशीथे। अजिह्मपरब्रह्मवर्चसं पद्मासनासीनमर्द्धनिमीलितलोचनं समाधियोगवाधीनस्वान्तं ध्यानाधिक श्रीहेमचन्द्रं दृष्ट्वा प्रोवाच.४५३. रुद्धे प्राणप्रचारे वपुषि नियमिते संवृतेऽक्षप्रपञ्चे, नेत्रस्पन्दे निरस्ते प्रलयमुपगते सर्वसंकल्पजाले / भिन्ने मोहान्धकारे प्रसरति महसि कापि विश्वप्रदीपे, धन्यो ध्यानावलम्बी कलयति परमानन्दसिन्धौ प्रवेशे // सङ्कल्पमात्रादपि सिद्धकार्या, वाञ्छन्ति ते नैव तथापि किश्चित् / इच्छाविनाशेन यदस्ति सौख्यं, त एव जानन्ति गुरुप्रसादात् // तथाप्ययं परमपुरुषः सकलपुरुषार्थप्रणेताऽस्मिन्निरतिशये काले श्रीशासनस्य प्रभावको भावीति कृत्वा कतिपयविद्यामत्रान् श्रीविद्याप्रवादसंवादसुन्दरान् साम्नायान् प्रदाय प्रमुदिता भगवती भारती कृतस्तुतिस्तिरोऽभूत् / पुनः पश्चादागताः। 360. एकदा श्रीगुरूनापृच्छ्यान्यगच्छीयदेवेन्द्रसूरि-मलयगिरिभ्यां सह कलाकलापकौशलाद्यर्थ गौडदेशं // प्रति प्रस्थिताः। खिल्लूरग्रामे गताः। तत्र ग्लानो मुनिर्वैयावृत्त्यादिना प्रतिचरितः / श्रीरैवतकतीर्थे देवनमस्करणकृतातिर्यावद्वामाध्यक्षश्राद्धेभ्यः सुखासनं तद्वाहकांश्च प्रगुणीकृत्य रात्रौ सुप्तास्तावत् प्रत्यूषे प्रबुद्धाः खं रैवतके पश्यन्ति / शासनदेवता प्रत्यक्षीभूय कृतगुणस्तुतिर्भाग्यवतां भवतामत्र स्थितानां सर्व भावीति गौडदेशगमनं निषिध्य महौषधीरनेकान् मत्रान् नामप्रभावाद्याख्यानपूर्वकमाख्याय खं स्थानं जगाम। 454. 361. एकदा श्रीगुरुभिः सुमुहूर्ते दीपोत्सवचतुर्दशीरात्रौ श्रीसिद्धचक्रमत्रः साम्नायः समुपदिष्टः / स च पद्मिनी* स्त्रीकृतोत्तरसाधकत्वेन साध्यते / ततः सिध्यति, याचितं वरं दत्ते, नान्यथा / ततोऽन्यदा कुमारग्रामे धौता शोषणार्थ विस्तारितां शाटिकां समालोक्य पृष्टो रजकस्तैः-'कस्या इयं शाटिकेति?' सोऽवदद्- 'ग्रामाध्यक्षपल्या इयम्' / ततो गतास्तस्मिन् ग्रामे / ग्रामाध्यक्षप्रदत्तोपाश्रये स्थिताः। स च प्रत्यहं समेति, धर्मदेशनां शृणोति / तेषां ज्ञानक्रियावैराग्याप्रमत्तत्वादिगुणान् दृष्ट्वा, तथाविधभव्यत्वपरिपाकाद् गुणानुरागरञ्जितस्वान्तः प्रमुदितः प्राह'यूयमनिच्छपरमेश्वराः, कमपि कार्य मत्साध्यं ममादिशन्तु / ' ततस्ते तं स्वान्तनिवेदिनं गुणानुरागगम्भीरवेदिनं " ज्ञात्वा प्राहुः-'अस्माकं श्रीसिद्धचक्रमत्रः साधयितुमिष्टोऽस्ति / स च पद्मिनीस्त्रीकृतोत्तरसाधकत्वेन सिध्यति नान्यथा / तेन तव या पद्मिनी स्त्री वर्तते, तां लात्वा कृष्णचतुर्दशीरात्रौ रैवतकाचले समागच्छ, अस्माकमुत्तरसाधकत्वं कुरु; विकारदर्शने शिरश्छेदस्त्वयैव विधेयः' - इत्याकर्ण्य ग्रामाध्यक्षो विस्मयस्मेरमना मनाग्विमर्य चिन्तयां चकार - एते तावन्महर्षयः समतृणमणिलोष्टकाञ्चनाः परब्रह्मसमाधिसाधकाः, तद्येतेषामिदं कार्य वयं समर्या दमनया स्त्रिया चेद् भवति तदा तथाऽस्तु, किं बहुविचारेण'-इति विचिन्त्य तैरुक्ते दिने तैः समं सस्त्रीकः सुतरां * निर्भीकः श्रीरैवताचलमौलिमलञ्चकार / ते च त्रयः कृतपूर्वकृत्याः श्रीअम्बिकाकृतसान्निध्याः शुभध्यानधीरधियः श्रीरैवतादेवतदृष्टौ त्रियामिन्यामाह्वानावगुण्ठनमुद्राकरणमत्रन्यासविसर्जनादिभिरुपचारैर्गुरूक्तविधिना समीपस्थपधिनीस्त्रीकृतोत्तरसाधकक्रियाः श्रीसिद्धचक्रमसाधयत् / तत इन्द्रसामानिकदेवोऽस्याधिष्ठाता प्रत्यक्षीभ्य पुष्पवृष्टिं विधाय खेप्सितवरं वृणुतेत्युवाच / ततः श्रीहेमसूरिणा राजप्रतिबोधः; देवेन्द्रसूरिणा निजावदातकरणाय Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं कान्तीनगर्याः प्रसाद एकरात्रौ ध्यानबलेन सेरीसकग्रामे समानीतः'- इति जनप्रसिद्धिः, मलयगिरितरिणा सिद्धान्तवृत्तिकरणवरः-इति त्रयाणां वरं दत्त्वा देवः स्व नमगात् / प्रमुदितो ग्रामाधीशः / प्रत्यूषे बहुवित्तव्ययेन प्रभावनां विधाय त्रयाणां ध्यानध्येयं ब्रह्मदाळ देवकृतप्रशंसां वरप्रदानं च जनेषु प्रकटीकृत्य निजजायां गृहीत्वा खग्रामं जगाम / 662. अथ श्रीपत्तने गुरुभिः सह सिद्धराजसभायां गतो हेमचन्द्रमुनिः / स्वविद्वत्तयाप्रतिमः प्रीणितान्तवाणिगणः प्रमुदितेन सिद्धभूपतिना कारिताचार्यपदमहोत्सवः प्रत्यहं कलाकौशलेन कालं गमयति / 663. अन्यदा नृपेण 'किं वाच्यतेऽद्यकल्ये 1' इति पृष्टे, अजिह्मपरब्रह्मैककारणव्रतविचारे 'स्थूलभद्रमुनीन्द्रचरित्रम्' इत्युक्ते राजा समग्रमामूलतस्तचरित्रं पप्रच्छ / ततः सविस्तरं कथिते चरित्रे राजा प्रमुदितः / अत्रावसरे मिथ्याहगालिगो (पाठान्तरेण-'मिथ्यादृष्टिागिलो) मत्री प्राह-'अहो संप्रति काले क मनुष्याणामेवंविध इन्द्रियजयः। यतः-'विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो' [इत्यादि पद्यम् ] ततः श्रीसूरिभिः प्रत्युत्तरमदायि-'सिंहो" पली द्विरदः' इति श्रुत्वा राजा चमत्कृतः / नवीनं व्याकरणं कृतम् / एते ते हेमसूरयः।' इति श्रुत्वा राज्ञा श्रीकुमारपालेन श्रीमोढज्ञातीयानां लोकानां चामराः दत्ताः।-इति दीक्षाप्रबन्धः। 664. अन्यदा श्रीगुरवः सभायां व्यसनानि निराकर्तुं प्राहुः द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पापर्द्धिचौरी परदारसेवा / एतानि सप्तव्यसनानि राजन्!, घोरातिघोरं नरकं नयन्ति // 456. घूताद् राज्यविनाशनं नलनृपः प्राप्तोऽथवा पाण्डवाः, मद्यात् कृष्णनृपश्च राघवपिता पापर्द्धितो दूषितः / मांसात् श्रेणिकभूपतिश्च नरके चौर्याद्धतो मण्डिको, वेश्यातः कृतपुण्यको गतधनोऽन्यस्त्रीमृतो रावणः॥ ततः सभायामेतानि सप्तकथानकानि व्यसनदोषप्रकाशकानि श्रीगुरुमुखेन श्रुत्वा राजा लोकानां ज्ञापनाय" सप्तव्यसनानि मृण्मयानि कारयित्वा रासभेष्वारोप्य राजमार्गे प्रामयित्वा लकुटादिभिर्हन्यमानानि श्रीपत्तनात् निजदेशाच्च निरचीकशत् / 665. अथान्यदा श्रीजिनधर्माभिमुखं नृपं ज्ञात्वा श्रीपर्वताद् भैरवानन्दो नाम योगी पञ्चशतयोगिपरिवृतः श्रीपत्तनमागतः / संमुखगमने राज्ञा पृष्टाः श्रीसूरयः प्राहुः- शोभनमिदम् , परं परीक्षा क्रियते, ततो गम्यते / ' समस्यापदं राजपुरुषकरण प्रेषितम् / यथा-'च्यारि घाय जोगवई स जोई'-इति एतत्समस्यापदं विचार्य। कीदृशाश्चत्वारो घाता भविष्यन्तीति घातभीतस्त्रियामिन्यां नष्टः / प्रत्यूषे घातस्वरूपं राज्ञा पृष्टा गुरवः प्राहुः४५७. एय अउव(धी?)जोई मुद्दामणमेहुणअणवाईनिदाए। परमत्थु न बुज्झइ कोई च्यारि घाय जोगवई सो जोई // 166. अथ गङ्गातटे दीपकाख्यद्विजात् त्रैपुरं मत्रं प्राप्य नर्मदातटे देवबोधिद्विजोऽसाधयत् / तुष्टा त्रिपुरा बस, 'एकवाक्येन याचस्व वरम्' इत्युवाच प्रत्यक्षा / सोऽपि बुद्धिमान् ‘भुक्ति-मुक्ति-सरस्वती'रिति ययाचे / ततः, अमृति महेन्द्रजालादिविद्यावान् , चूडामण्यादिशास्त्रैरतीतादिज्ञाता,कदलीदण्डपत्रमयमामसूत्रतन्तुबद्धं सुखासनमधिरो 5.पा.च०१२ * Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवचरितम् / 458. हति / चतुरशीत्यासनकरणप्रवीणः, कायगतषट्चक्रविज्ञानचक्रवर्ती, पोडशाधारधीरधीः, लक्षत्रयदक्षः, व्योमपञ्चकपण्डितः, पूरककुम्भकरेचकादिप्राणायामक्रियाकुशलः, इडा-पिङ्गला-सुषुम्णा गान्धारी-हस्तिनी-प्रमुखदशमहानाडीवातसञ्चारचतुरः, आद्विजमातङ्गप्रार्थकगृहेषु यथाई रूपकरणाद् भुक्तिः, श्रीजिनधर्मानुरक्तं नृपं ज्ञात्वा स श्रीपत्तने समायातः / सर्वद्विजैः सत्कारितः, चमत्कारदर्शनालोकैश्च / राजगुरुरिति मत्वा राजापि संमुखमागतः / कदलीपत्र'सुखासनस्थः शिशुकारितवाहककर्मा राजादिपरिवारपरिवृतः शालाग्रे समायातः / कौतुकाकुलितसकलपरिवारप्रेरितो मध्ये प्रविष्टः / सूरयस्तु पुरापि पूरितासनमुद्राः प्राणायामलघुभूतशरीराः शिष्याकर्पितसिंहासना निरालम्बा स्थिताः सन्ति / तान् तदवस्थान दृष्ट्वा विस्मितो देवबोधिः। सर्वेऽपि लोका विस्मयस्मेरमानसाः प्रोचुः-अहो! सुरीणां निराधारमाकाशेऽवस्थानमिति / तेन कवित्वशक्तिपरीक्षार्थं समस्यापदमर्पितम् / यथा व्याषिद्धा रुदती मुखं च नयने स्खे गर्हते कन्यका। " तदाकर्ण्य- 'भगवन् ! किगुच्यते युष्मच्छिष्याणां विदुपां सरस्वतीसर्वस्वमुखानम् ? प्रथममहमेव श्रीभगवदाज्ञया पूरयामी'ति प्रमाणं कृत्वा कपी श्रावकः सर्वान् निवार्य पूरयामास नैतस्याः प्रसूतिद्वयेन सरले शक्ये पिधातुं दृशी, रुद्धाक्षी च विलोकते शशिमुखी ज्योत्स्नावितानैरियम्। इत्थं मध्यगता सखीभिरसकृत् दृग्मीलनाकेलिपु, व्याषिद्धा रुदती मुखं च नयने खे गर्हते कन्यका // श्रीहेमसूरिसेवापरस्य श्रावकस्यापि शीघ्रकवितां दृष्ट्वा विस्मयस्मेरः 'शोभनोऽयम् , वयं समुत्सुकाः स्मः' इत्युक्त्वा गतः / राज्ञाऽन्त्यजात् (पाठभेदे-अन्त्यजगृहेषु) निमत्रापितः / तेन मानितं निमत्रणम् / द्विजादीनां विमर्शः कथमन्त्यजगृहे भोजनं करिष्यतीति / सहस्रलिङ्गसरोवरटोडकयोर्मोचितं भोज्यम् / राजा तु राजपाटिकामिपेण सरोवरसमीपे समायातः / देवबोधिः सानार्थ जलान्तः प्रविष्टः / कृष्णश्वा. मूत्वा निगतो भुक्तं तद्भोजनम् / पुनर्जलान्तः प्रविश्य देवबोधिभूत्वाऽगात् / राज्ञः सर्वेषां लोकानां च विस्मयोऽभूत् / राज्ञा निजावासे निमः त्रितः / विविधा भक्तिः कृताः / अन्यदिने देवा वसरे सप्तपूर्वजानां मस्तकानि कीटैरावृतानि प्रोचुः-'हे वत्साऽस्माभिस्तुभ्यं राज्यं दत्तम् , त्वं महतीं प्रौढिं नीतः / अस्मन्मार्ग मुक्त्वा जैनोऽभूत् , तेन राज्यं पश्चाद् ग्रहीष्यामः / सप्तमे नरके पातिता वयम् / त्वया किं कृतम् ? / त्यक्तः स्वकुलाचारः / त्यजाधुनाऽपि कुमार्गप्रवृत्तिम् / एतदाकर्ण्य राजाऽविज्ञातपरमार्थः किंकर्त्तव्यताजडोऽभूत् / सविषादमिदमचिन्तयत्-'अहो ! सकलशास्त्रसंवादसुन्दरोऽयं "जीवदयाधर्मः सर्वप्राणिप्रियः कथं कुमार्गः कथ्यते, किमत्र तत्त्वम् ?' / तस्मिन् दिने लोकमध्ये महाप्रभावोऽभूत् मिथ्यादृक्शासने / द्वितीयदिने व्याख्यानावसरे प्रथमं परिमलसुगन्धः, पश्चाद्विमानम् / विमानादुत्तीर्य मूलराजप्रभृतयः पूर्वजाः श्रीगुरुन्नमस्कृत्य श्रीकुमारपाल प्रति प्राहुः-'वत्स ! त्वया नरकान्तं राज्यं प्राप्य कलिकालेऽपि महतां महनीयस्त्रिभुवनोत्तमः श्रीजिनधर्मः प्रतिपन्नः / वर्गस्था वयं प्रमुदिता देवसंसदि / ' एतनिशम्य राजा सचमत्कारमनाः प्राह-भगवंस्तत्र तादृशमत्रेदृशं किमत्र तत्त्वम् 1 श्रीगुरवः प्राहुः-'नरेश्वर ! तत्रापि, अत्रापि च नरकवर्गादिदर्शने सर्व कलाकौशलमिदम् / तव पूर्वजाः यत्र स्वकर्मणा गताः, तत्र सन्ति / जिनवाक्यमेतत् / पूर्वोक्तदशलक्षणो धर्मः' / ततो लजितो राजा / क्षामिता गुरवः / राजपूर्वजानामागमनं दृष्ट्वा नवा पश्चिमरात्रौ गतः। / 667. एकदा कोऽपि ब्राह्मणः परीक्षार्थ हरीतकी मुष्टौ षड्वा सप्रमुदित उवाच४६०. हेमसूरि मूं करि किसिउं, हरडइ, काई रडेइ / जिणि कारणि हुं घालियउं सबह वंजण छेहिं // Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं ___ इति श्रुत्वा प्रमुदितः प्राह-'अतः परं न रटिष्यति / युष्माभिः खनामाग्रे स्थापितोऽस्ति / ' इत्यादिवाक्यैः प्रामणैर्विद्वद्भिः सह प्रीतिरुत्पन्ना / यतः४३१. असारसंसारमहीरुहस्य, सुधोपमं स्वादुफलं तदेकम् / परस्परं मत्सरवर्जितानां, यद्वर्द्धते प्रीतिरियं नराणाम् // 668. एकदा व्याख्यानमध्ये श्रीगुरुभिहीहेति प्रोचे, चन्द्रयशगणिना तु हस्तौ घृष्टौ / मुक्त व्याख्याने तु ' राज्ञा पृष्टम्-'भगवन् ! युवाभ्यां किं कृतम् ?' श्रीगुरुभिरूचे-'राजन् ! देवपत्तने श्रीचन्द्रप्रमप्रासादे दीपेन चन्द्रोदयो लग्नोऽस्माभिदृष्टः / स तु हस्तौ घृष्ट्वा अनेन विध्यापितः / राजा चमत्कृतः, खपुरुषनिर्णयं व्यधात् / अहो ! निरतिशये कालेऽपि श्रीभवतामपूर्वं ज्ञानम् / 669. ततः पूर्वभवमपि मे ज्ञास्यन्तीति तदपृच्छत्-'भगवन्निदमपि ज्ञायते, यदहं पूर्वभवे कीदृशोऽभूवन् / ' श्रीगुरुभिरुक्तम्-'राजन्निरतिशयकालोऽयम् / यतः श्रीवीरनिर्वाणाद् वर्षाणां चतुःषष्ट्या चरमकेवली श्रीजम्बू सिद्धिं गतः / तेन सह द्वादश वस्तूनि त्रुटितानि / 462. . मणपरमोहिपुलाए आहारग-खवगउवसमे कप्पे। संयमतियकेवलसिज्झणा य जंबुम्मि विच्छिन्ना // . सहस्रवर्षेण सर्व पूर्वगतं श्रुतं व्यवच्छिन्नम् / संप्रति त्वल्पं श्रुतम् / तथापि देवतादेशेन विज्ञाय किमपि कथयिष्यते / ततो रात्रौ शुभध्याने स्थिताः / समायातः पूर्वाराधितश्रीसिद्धचक्रसुरः / पृष्टो राज्ञः पूर्वभवम् / तेन" निवेदितं सर्व भवस्वरूपम् / ततः प्रभाते राज्ञः समस्तसभासमक्षं कथितम् , यथा-'राजन् ! पूर्वभवे मेदपाटपरिसरे जयपुरे जयकेशी राजाऽभूत् , तत्पुत्रो जयताकः सप्तव्यसनवान् पित्रा निष्कासितो मेदपाटपरिसरे पर्वतश्रेण्यां पल्लीपतिर्जातः / अन्यदा नरवीरस्य सार्थवाहस्य सार्थः सर्वोऽपि लुण्टितस्तेन / सार्थवाहस्तु मालवदेशं गत्वा तत्र राजानं विज्ञप्य सैन्यमानीय पल्लीमवेष्टयत् / तन्महलं मत्वा जयताको नष्टः / नरवीरेण वणिजाकारण कीटमारिः कृता / तत्पनी सगर्भा हता / भूपतितो बालः शिलायामास्फालितः / ततो मालवकदेशे राज्ञोऽग्रे. खरूपे निरूपिते, राज्ञा हत्याद्वयं स्त्री-बालरूपं लग्नम् , अतोऽयमद्रष्टव्यमुखोऽस्तीति निष्कासितः स्वदेशात् / स च सार्थवाहो नरवीरः पदे पदे लोकैर्निन्धमानः पश्चात्तापपरो वैराग्यात्तापसो भूत्वा तीवं तपस्तत्त्वा मृत्वा जयसिंहदेवो जातः / स च हत्याद्वयादपुत्रः / जयताकोऽपि देशान्तरं गच्छन् रूपसौभाग्यवानाकर्णाकृष्टकोदण्डो मृगयापरः मार्गे श्रीयशोभद्रसूरिभिष्टः / प्रोक्तश्च४६३. क्षत्रियोऽसि नराधीश!प्रतिसंहर सायकम् / आर्त्तत्राणाय वःशस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि // भो क्षत्रिय ! एवंविधं पवित्रं क्षात्रगोत्रमवाप्य मा जीवहिंसां कुरु / एतदाकर्ण्य लजितः प्राह-'भगवन् ! 464. बुभुक्षितः किं न करोति पापं, क्षीणा नराः पापपरा भवन्ति / आख्याहि भद्रे ! प्रियदर्शनस्य, न गङ्गदत्तः पुनरेति कूपे॥ . ततः श्रीगुरुवचसा व्यसनानि मुक्तानि / श्राद्धैः शम्बलादिकं दत्तम् / शनैः शनैः प्राप्तप्रतियोधो नवलक्षतिलंगे देशे उलं(रं)गलपुरे ओढरवणिग्गृहे भोजनादिवृत्त्याऽस्थात् / एकदा पर्युषणापर्वणि स श्रीमान् ओढरः. श्रावकः पुत्रपौत्रमित्रादिपरिकरः सप्रधानपूजोपकरणः श्रीजिनगृहमगात् / तत्र विधिना जिनस्य सानं विधाय पूजाबसरे जयताकं प्राह-'गृहाणेदं पुष्पादिकम् , कुरु जिनेन्द्रपूजाम् , गृहाण खजन्मजीवितफलम् / ' ततः स तदाकाचिन्तयत्-'अदृष्टपूर्वोऽयं देवः परमेश्वरः प्रसन्नवदनः नासाग्रन्यस्तदृक् परमयोगमुद्रासीनः निरञ्जनस्वरूपः / वल्कथं परकीयैः पुष्पैः पूज्यते / ततः स्वकीयपञ्चवराटकक्रीतपुष्पैरानन्दाश्रुप्लावितहक् प्रसन्नमनोवाकायः पारमेश्वरी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 कुमारपालदेवचरितम् / पूजामकरोत् / ततोऽहो ! यद्येते भोगभाजोऽपि व्यवहारिणोऽद्य तपः कुर्वन्ति, ततः पुण्यमद्यतनं दिनमित्यहमपि विशेषतस्तपः करोमीति गुरूणां मुखेनोपवासमकरोत् / प्रभाते विशुद्धश्रद्धया साधूनां दानमदात् / ततः स्खं कृतार्य मन्यमानः कृतपुण्यः सन् मृत्वा त्वं त्रिभुवनपालपुत्रो जातः / ओढरश्रावकस्तु उदयनमन्त्री, यशोभद्र सूरयस्तु वयम् / त्वं पुनरितो निजायुःप्रान्ते महर्द्धिकव्यन्तरदेवत्वमधिगम्य ततश्युत्वा चात्रैव भरतक्षेत्रे * भद्रिलपुरे शतानन्दनृप-धारिण्योः पुत्रः पैत्रिकराज्यमवाप्य भाविश्रीपद्मनाभजिनेन्द्रधर्मदेशनां श्रुत्वा प्रतिबुद्धः परिहत्य राज्यलक्ष्मी प्रव्रज्यैकादशगणधरो भूत्वा केवलज्ञानमासाद्य मोक्षं यास्यसि / ' एतन्निशम्य राजा विस्मितः प्राह-'भगवन् ! कोऽत्र प्रत्ययः 1 / ' श्रीगुरुभिरूचे-राजन् ! अद्यापि, ओढरवंशीयाः सन्ति उल(र)गलपुरे तेषां गृहे जीर्णदासी पूर्ववृत्तान्तान् जानाति / सा गत्वा पृष्टा सती सर्व कथयिष्यति / ततो सज्ञा निजपुरुषैस्तत्सर्व स्वरूपं ज्ञातं दास्या मुखेन जयताभवसत्कम् ; ज्ञातं च जयसिंहदेवेन सह वैरकारणम् / चिन्तितं "च निजमनसि 'अहो ! वैरकारणम् , दारुणः संसार आत्मन् ! ततो राजा संवेग-निर्वेदाभ्यामालिङ्गितः / सञ्जातश्रीजिनधर्मस्थैर्यः श्रीहेमसूरीणां 'कलिकालसर्वज्ञ'पदमदात् / 670. कस्मिन्नप्यवसरेऽणहिल्लपुरे श्रीकुमारपालनामा नरेश्वरो वाहकेल्यां व्रजन् सौन्दर्यवर्यनिर्जितसुरसुन्दरीमबालेन्दुवदनां कामप्यबलां वालिकामालोक्य तद्रूपापहृतहृदयः संनिहितप्रसादचित्तकं प्रति केयमित्यादिशंस्तेनेति विज्ञपयां चके-'अपारश्रुतकूपारदृश्वतया सञ्जात 'कलिकालसर्वज्ञ' प्रसिद्धीदशभिन्नतपःसमाराधनवशबन्दीकृताष्टमहा. सिद्धेनिःशेषभूपालमौलिचुम्बितपादपीठस्य आयुष्मतः श्रीहेमचन्द्रमहर्षे सश्रमनिवासिनी अहिंसानाम्नी कनीयमिति निशम्य सद्यः कदाचित्तान् महपीन् हर्पभाक् सभक्तिकं सौधमाकार्य तद्वृत्तान्तं पृच्छंस्तैरूचे-'त्रिजगदेकसार्वभौमस्य श्रीमदहद्धर्मस्य अनुकम्पानाम पत्नी'; 'कथं धर्मस्य राज्यत्वम् ?' यतः४६५. जिनमतनगरेऽस्मिन् मोहमत्तारिजेता, जयति जनितधामा धर्मनामा नरेन्द्रः।। नियतमपरिभूयं यस्य राज्यं प्रभूतं विलसति नयपूतं तत्त्वसप्ताङ्गमेतत् // . अर्द्धासनोपविष्टाऽनुकम्पानाम महादेवी / तस्याः कुक्षिसरसिराजहंसी निःसीमसौन्दर्याऽहिंसाभिधा / यस्मिन् लग्ने सुताऽजनि, तलग्नं ग्रहबलं तत्पित्रा सर्वविदा एवमादिष्टम्-यदियमतीव पुण्यवती दुहिता / पुत्रजन्मोत्सवादप्यस्या जन्म श्लाघ्यम् / अतः क्रमेण वर्द्धमाना कन्या साऽनुरूपवराप्राप्त्या वृद्धकुमारी भूत्वाऽनुरूपेण केनापि महीमहीन्द्रेण सोपरोधमूढा, तं च खं च जनकं च परामुन्नतेः कोटि नेष्यति इति तद्वाक्यपर्यन्ते तदर्थिनाऽनुकूल्य तस्याः सविधे सद्बुद्धिनाम्नी दूतीं नृपः प्राहिणोत् / सा तां सप्रश्रयं प्रणिपत्य 'स्वामिनी राजकन्ये ! धन्यतपासि, यत्त्वामष्टादशदेशसम्राट् समस्तसामन्तसीमन्तकर्मणि मयूखमालालङ्कृतचरणकमलयुगलश्चौलुक्यचक्रवर्ती त्वामुद्वोढुमभिलपती'ति तद्वचसा मुखमोटनया विनयं नाटयन्ती सोपहासं सैवं प्राह४६६. निष्किञ्चनेन दयितेन विवाहितेन, यद्योषितां सुखपदं न तदीश्वरेण / भागीरथीं वहति यां शिरसा गिरीशो, लक्ष्मीपतिः स्पृशति नैव पुनः कदापि // अलं नरकान्तप्राज्यसाम्राज्यप्राप्तिप्रलोभनवार्तया। 4467. सत्यवाक्, परलक्ष्मीमुक्, सर्वभूताभयप्रदः। सदा खदारतुष्टश्च सन्तुष्टो मे पतिर्भवेत् // इति तस्या दुःश्रवं प्रतिश्रवमाकर्ण्य सा विफलवैदग्ध्यमानिनी खं पदमुपगता स्वामिनं सर्वथा निराशमकरोत् / तदनु तं नृपं तद्वियोगामिमग्नमाकलय्य श्रीहेमसूरिस्तमिति प्रतिबोधितवान्-'यः कन्याया इतरलोके दुष्करः सङ्गरः स तवाप्युभयलोकहितस्तदनुकूलताहेतुश्च / अतस्तमपि निर्मापय खनिस्सीमोन्नतये। . . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं 468. सुकलत्रस्य सम्प्राप्तिः पुंसां भाग्यनिबन्धनम् / या प्रीतिजननी जन्या सा सौभाग्योपरि मञ्जरी // 469. स्थाने निवासः सुकलं कलत्रं, पुत्रं पवित्रं स्वजनानुरागम् / न्यायाच वित्तं सुहितं च चित्तं, निश्छद्म धर्मस्य सुखानि सप्त // सा सर्वथा परिणेतुमुचितैव / यतः४७०. धन्यां सतीमुत्तमवंशजातां, लब्ध्वाधिकां याति न कः प्रतिष्ठाम् / - क्षीरोदकन्यां गिरिराजपुत्री, गोपस्तथोग्रश्च यथाधिगम्य // इति तेन महर्षिणा प्रतिबोध्य तानशेपानभिग्रहान् ग्राहयित्वा तस्याः प्रदानं चक्रे / 671. अथ संवत् द्वादशाधिकषोडश 1216 वर्षे मार्गशुदि द्वितीयायां लग्ने बलवति संवेगमतङ्गजारूढो रत्नत्रय-" वस्खाल तो दक्षिणपाणिवद्धोरुदानकङ्कणः सम्यक्त्वानुचरेण समं श्रद्धासहोदरया क्रियमाणलवणावतारणो गरुभक्तिदेशविरतिजानिणीभ्यां गीयमानधवलमङ्गलः पौषधवेश्मद्वारि अनुकम्पाकन्याजनन्या कृतप्रोखणः श्रीमन्महादेवाईतः साक्षि स नृपतिरहिंसायाः पाणि जग्राह / तदा तारामेलनपर्व / अथ षट्त्रिंशत् सहस्रप्रमाणं त्रिषष्टिचरितं नवाङ्गवेदीमहोत्सवादानीय वेदिपदुद्या(?)स्थाने कपर्दप्रत्येकं विंशति वीतरागस्तवाः / तस्यैकस्यां वेदिकायां वंशान् तथैकैकशमीकाष्ठं तत्पदे श्रीयोगशास्त्रप्रकाशाः 12 / तथा शमीकाष्ठपदे लक्षण-साहित्यतर्केतिहासप्रमुखशास्त्ररचनाभिर्मूलो-, त्तरगुणाभ्यां च दृढीकृत्य वेदिकायां ज्ञानानलमुदीप्य तत्परितो मण्डलचतुष्टयदापनं 'चत्तारि मंगल'मित्यादि / द्वासप्ततिकालक्षप्रमाणरुदतीद्रव्यकरमोचनं तस्याः कन्यामुखमण्डने दत्तम् / तत्कालमेव तस्याः पट्टबन्धं कारयित्वा तत्पितुयोग्यानावसान् विहारान् 1444 कारयामास / ततः सा हिंसा, स्वसपल्या अहिंसायाः परमोन्नतिं तद्विधामालोक्य भर्तुः पराभवनिवेदनाय पितुर्धातुः समीपे समुपागता / चिरदर्शनाद् अभिभववैरुप्याच अनुपलक्षिता तेनेत्यभिदधे४७१... का त्वं सुन्दरि! मारिरस्मि तनया ते तात धातः प्रिया, किं दीनेव पराभवेन स कुतः किं कथ्यतां कथ्यताम् / हेमाचार्यगिरा परार्द्धगुणभाक् हृद्वक्त्रहस्तोदरात्, मामुत्तायें कुमारपालनृपतिः क्षोणीतलादाकृषत् // - इति तद्भणितेरनन्तरं श्रीकुमारपालदेवस्य सत्यप्रतिज्ञस्यापि तस्य लिङ्गिनो गिरा त्वयि विरक्तचित्ततां विमृश्यातःपरं भवत्याः स कोऽपि वरः प्रवरः करिष्यते, यस्तवैवैकातपत्रं कुरुते, धीरा भव / तां सम्बोध्य स्खसमीपे / स्थापयांचके। 72. हिंसापिता पापनामा नरेन्द्रवरं विलोकयन् वाणारस्यां जयचन्द्रनृपं सप्तशतयोजनभूमिनाथं दृष्टवान् / अन्यराजकं दासमिव मन्यमानश्चत्वारिंशतानि गजेन्द्राः षष्टिलक्षाश्च वाजिनः द्वादशशतानि पित्तलमयानि निखानानि, गंगा-यमुनायष्टी विना कापि गन्तुं न शक्नोति तेन 'पं गुरा जे' ति विरुदं वहति / तस्य गोमती दासी 60000 अश्वेषु प्रक्षरान् निवेश्याभिषेणयन्ती, परचक्र त्रासयति, राज्ञः श्रम एव कः / तत्र वाणारस्यां. नृपाय ददौ / सा वार्ता श्रीकुमारपालेन श्रुता / मदीयपन्या गृहान्तरमकारि, ततो दूनमना निजप्रधानपुरुषा हेमकोटिद्वयं हयसहस्रद्वयं चित्रपट्टमेकं च समर्प्य प्रेषिताः। तैस्तत्र गर्बहुद्रव्यव्ययेन कैवर्तकाखेटकादिपट्टकान् कृत्वा तत्कर्म निवारितम् / कालेन राज्ञा जयचन्द्रेण ज्ञातम् / तत्पृष्टा ग्राममहत्तराः / तैः प्रधानपुरुषाः कथिताः। ततो राज्ञाऽऽहूताः प्रधानपुरुषा जयचन्द्रसभायां गताः / श्रीकुमारपालप्रेषितं हेमकोटिद्वय-हयसहस्रद्वय-चित्र Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 कुमारपालदेवचरितम् / पटादिकं प्राभृतं समर्पितम् / राजा जयचन्द्रो यावत् पट्टमुद्धाट्य पश्यति, तावत्तत्र स्खमूर्ति श्रीकुमारपालमूर्ति जीवहिंसादिकपापफलं नारकिकच्छेदनभेदनादियातनाकुम्भीपाकवैतरणीतरणकूटशाल्मलिवृक्षोलंबनासिपत्रवनप्रवेशनादिकं दृष्ट्वा चित्रस्थं सजातमहापापभयः प्रकम्पमानशरीरः; पुनः पुरः, सम्यग्जीवरक्षादिपुण्यफलं स्वर्गविमानदिव्यदेहदेवाननादिव्याभरणगीतनृत्यवाद्यविविधक्रीडारूपसौभाग्यशृङ्गारभोगादिकं चित्रस्थं दृष्ट्वा विस्मयस्मेरमनाः 'प्रधानपुरुषाणां प्रसादमकरोत् / जीवरक्षार्थ श्रीकुमारपालेन प्रेषिता वयमिति स्वरूपे प्रोक्त जयचन्द्रनृपः खदेशे सर्वत्र जीवरक्षामकारयत् / 18 लक्षजालप्रज्वालनं कृतम् , द्विगुणं च प्राभृतं श्रीकुमारपालाय प्राहिणोत् / पुनरपि मारिः पितापार्श्वमगात् / ततो म्लेच्छकुले गर्जनपुरे दत्ता। 73. अथ वर्षासु कटकारम्भे नियमिते तद्वृत्तान्तं ज्ञात्वा प्रापराभवसातामर्षो गर्जनपुरेशस्त्वमभिषेणयितुमागच्छतीति चरैः प्रोक्ते दूनो नृपः / श्रीपत्तनेऽपि साध्वसमभूत् / विज्ञप्तं तद् गुरूणां तैश्च स्तम्भितः स तत्रस्थः / "षण्मासजीवदयापणे कृते मुक्तः / मारिः कुत्रापि स्थितिं न लेभे / श्रीगुरूणामुपदेशेनाज्ञाकारिषु नृपेष्वष्टादशदेशेषु चतुर्दशवत्सराणि सर्वप्राणिप्रियाममारिमकारयत् / सारेरपि मारिन कश्चित् कथयति / / 472. सौनिक-व्याध-कैवर्त-कल्यपालादिपट्टकान् / अपाटयत् कचिच्छक्त्या भक्त्या चार्थव्ययात् कचित् // 674. अथैकदाऽश्वपर्याणस्थसूक्ष्मजीवप्रमार्जनपरं राजानं दृष्ट्वा नृपाः परस्परं भ्रूसञ्जया स्मितमकार्षुः / तद्विज्ञाय "विज्ञजनशिरोमणिर्लाहकटाहत्रयं बाणेन प्रस्फोट्य कुन्ताग्रेण लोहभृतगोणिमुत्पाठ्य स्वभुजवलमदर्शयत् / तर्जिताच ते-रे ! किमेभिर्वराकैः सूक्ष्मजन्तुभिरल्पसत्त्वैर्हतैरिति' / ततः कुमरगिरौ राजाज्ञयाऽष्टौ लक्षास्तुरङ्गमा गालितं जलं पिबन्ति / अमारिपटहः सर्वत्र पुर-ग्रामादिषु भ्राम्यति / राजपुरुषाश्चामारिं कारयन्ति / 675. अथामारि प्रवर्त्तयति राजनि आश्विनशुक्लपक्षोऽगात् / तत्र कण्टेश्वर्यादिदेवतानामर्चकैर्विज्ञप्तम्-'देव ! सप्तम्या सप्तशतानि पशवः सप्तमहिषाश्च देवतानां पुरो दीयन्ते राज्ञा / एवमष्टम्यामष्टौ शतानि, नवम्यां नवशतानीति' / ॥राजा तदाकर्ण्य श्रीगुरून् समायातान् विज्ञप्तं तत्स्वरूपम् / गुरुवचनमादाय भाषितास्ते-'देयं दास्यामो वहिकाक्रमेण / रात्री देवीनां सद्मसु निक्षिप्ताः पशुमहिषाः / दत्तानि तालकानि / मुक्तास्तत्र रक्षकाः / प्रातः समायातो राजा / उद्घाटितानि तालकानि / मध्ये दृष्टाः पशवो रोमन्थायमानाः / राजा सर्वसमक्षमिदं जगाद-'मो अबोटिका इमे पशवो मयाऽमूभ्यो दत्ताः, परं न ग्रस्ताः / तस्माद्भद्भय एव मांसं रुचितम् , नामूभ्यः / तत्कथं जीवान हन्मि' / ततस्ते सर्वेऽपि विलक्षा मौनमालम्ब्य स्थिताः / छागादिमूल्येन नैवेद्यानि कारितानि देवीनाम् / महा..हिंसादिनं मत्वा राजा नवम्यां कृतोपवासो निशि चन्द्रशालायां दयारसमयः शुभध्याने स्थितः, बहिरारक्षका मुक्ताः / निशीथसमये दिव्यनेपथ्यधारिणी स्त्री प्रत्यक्षा जगाद-'राजन्नहं तव कुलदेवी कण्टेश्वरी / ऐषमोवर्षे किमिति त्वयाऽस्मभ्यो देयं न दत्तम् ? / राजोवाच--'दत्तं मया सर्वम् , परं भवतीभिर्न गृहीतम् / तदहं करुणामयः कथमशरणान् प्राणिनो निहन्मि' / ततः सा क्रुद्धा-'अहो वचसा मामयं विप्रतारयति' इति त्रिशूलेन राजानं शिरसि हत्वा गता / क्षाणान्तरे राजा स्वशरीरे कुष्ठव्रणानि दृष्ट्वा विषण्णोऽभूत् / तदा सद्य उदयनमत्रिणमाहूय प्रोवाच*'मत्रिन् / अद्य देवी प्रत्यक्षा पशून् याचते किं दीयते नवा ?? मत्री प्राह-'राजन् ! अहं किं वच्मि? परमिति जाने अन केनोपायेन स्वामिरक्षा क्रियते' / यतः४७३.जेण कुलं आयत्तं तं पुरिसं आयरेण रक्खिज्जा / नहु तुंबंमि विणहे अरया साहारगा हुंति॥ एतदाकर्ण्य राजा-'निःसत्त्वो वणिगसि, भक्तिवचांसि एतानि भाषसे / शृणु, आजलधिमेखला खलाः खाज्ञां. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं मया ग्राहिताः, सकलार्थिसार्थप्रार्थना सफलीकृता, प्रीणिता सप्तक्षेत्री पवित्रखवित्तेन, आराधितः श्रीधर्मः, तत्किं मम जीवितेन कार्यम् ; केवलं रहः काष्ठानि देहि, येन प्रातर्मामीदृशं दृष्ट्वा लोको श्रीधर्मस्य निन्दा करिष्यति' / मत्री 'अहो ! महत्कष्टम् / पारवश्यमूलं नियोगं धिगि'ति क्षणं विमृश्योवाच-'देव ! पूर्व श्रीगुरूणां स्वरूपं विज्ञाप्यते / ' राज्ञोतमेवमस्तु / तदैव मत्री गतः श्रीगुरूणां पदान्ते / निवेदितं तत्स्वरूपम् / क्षणं स्मरणकरणीयं कृत्वा गुरुभिर्जलमभिमण्यार्पितम् / तदाच्छोटनमात्रेण राजा सविशेषशरीरशोभाभागभूत् / अत्यन्तश्रीगुरुभक्तिभावितश्च प्रातर्महा-' महोत्सवेन श्रीगुरुपादारविन्दं वन्दितुं यावद्याति, तावद्धर्मशालाप्रथमप्रवेशे स्त्रीकरुणखर शु कण्टेश्वरी मत्रयत्रितां च पश्यति / तावता सोवाच-'राजन् ! मोचापय मां सूरिप्रयुक्तमत्रबन्धनान् / तवाज्ञावधिदेशेषु जीवरक्षातलारकत्वं करिष्यामीति' / श्रीगुरुवचसा मोचिता / कवयः सर्वे खंमतिभिः प्रोचुः४७४. श्रीवीरे परमेश्वरे भगवत्याख्याति धर्म स्वयं, प्रज्ञावत्यभयेऽपि मन्त्रिणि न यां कर्तुं क्षमः श्रेणिकः। अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यधात्, यस्यासाद्य वचःसुधां स परमः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः // 475. पातु वो हेमगोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन् / षड्दर्शनपशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे // 476. नाभवद्भविता नैव हेमसूरिसमो गुरुः। श्रीमान् कुमारपालश्च जिनभक्तो महीपतिः // 477. राजालठति पादाग्रे जिह्वाग्रे च सरस्वती शश्वत्स श्रेयसे श्रीमान् हेमसूरिनेव: शिव:" 478. सप्तर्षयोऽपि गगने सततं चरन्तो मोक्तुं क्षमा नहि मृगी मृगयोः सकाशात् / जीयात् पुनश्चिरतरं प्रभुहेमसूरिरेकेन येन भुवि जीववधो निषिद्धः // प्राणित्राणे व्यसनिनां शान्ति-सुव्रत-नेमिनाम् / हेमाचार्योऽत्र चातुर्ये तुर्यः किं नु स दुयुगे // सर्वेषां कवीनां लक्षं लक्षं ददौ / * 676. अथान्यदा भोजनं कुर्वतो राज्ञा घेवरभुक्तौ किंचिद्विचिन्त्य कृतसकलाहारपरिहारः पवित्रीभूयेति प्रभुं पप्रच्छ'भगवन् ! घेवराः किं भक्ष्या वाऽभक्ष्याः ?' श्रीगुरुभिरुक्तम्-'राजन् ! भक्ष्या अभक्ष्याश्चेति / भणितं पुनः-'भगवन् ! भक्ष्याश्चेदभक्ष्याः कथम् , अभक्ष्याश्चेद्भक्ष्याः कथम् ?' / श्रीगुरुभिरमाणि-'राजन् ! ये क्षत्रियादयः पूर्वं ज्ञातमांसाखादास्तेषामभक्ष्याः, ये तु वणिग्वाह्मणादयोऽज्ञातमांसास्वादास्तेषां भक्ष्याः।' इत्याकर्ण्य प्रमुदितः / 'अहो ! प्रभूणां युक्ता 'कलिकालसर्वज्ञता' मानसिकपरिणामोऽपि येषां प्रत्यक्षः' / ततो राजा दन्तपातनसोद्यतः श्रीगुरुमिनिषिद्धः / कृतघेवरभक्षणनियमः प्रायश्चित्तपदे द्वात्रिंशत् प्रासादानेकस्मिन् पीठबन्धेऽकारयत् / द्वात्रिंशत् प्रकाशान् प्रत्यहं गुणयति प्रत्यूषे / 77. अन्यदा, एकस्मिन् दिने कस्मिन् ग्रामे तैलिकेन रात्रौ यूका हता / कण्टेश्वर्या राज्ञो ज्ञापितः स दण्डितः / तद्रव्येण 'यूकावसतिः' कारिता / पुरा गृहीतेनाखुद्रव्येण 'उन्दिरवसति'श्च / यस्याः करेण पुरा करम्बो भुक्तस्तस्या देवरिया नाम्ना 'करम्बावसतिः' / अथ श्रीस्तंभतीर्थे सामान्ये आलिगवसहिकाप्रासादे यत्र दीक्षाक्षणः प्रभूणां" बभूव, तत्र रत्नबिम्बालङ्कृतो निरुपमो जीर्णोद्धारः कारितः / 678. अन्यदा ब्रह्मकविः कृतकृत्रिमदेवरूपः केनाप्यनुपलक्ष्यमाणः करगृहीतलेखपत्रः सभायां समायातः / कृतप्रणामः पृष्टो राज्ञा-'भो ! कुतः, कस्त्वं समायातः 1 तेनोक्तम्-'देव ! देवेन्द्रेण प्रेषितोऽस्मि, युष्मदन्तिके लेख. समर्पणाय' इत्युक्त्वा लेखं समर्पितवान् / सभायां लेखः प्रस्फोट्य बाचितः / यथा WIN Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480. कुमारपालदेवचरितम् / स्वस्ति श्रीमति पत्तने नृपगुरुं श्रीहेमचन्द्रं मुदा, स्वाशक्रः प्रणिपत्य विज्ञपयति स्वामिंस्त्वया सत्कृतम् / चन्द्रस्याङ्कमृगे यमस्य महिषे यादस्सु यादापतेविष्णोर्मत्स्यवराहकच्छपकुले जीवाभयं तन्वता // तस्य राजा लक्षं पारितोषिकमदात् / - अपरेण तु 483. 679. अन्यदा गुरुभिस्तृतीयव्रताधिकारे४८१. दुर्भिक्षोदयमन्नसङ्ग्रहपरः पत्युर्वधं बन्धकी, ध्यायत्यर्थपतेभिषग् गदगणोत्पातं कलिं नारदः। दोषग्राहिजनस्तु पश्यति परच्छिद्रं छलं शाकिनी, निष्पुत्रं म्रियमाणमाढ्यमवनीपाता हहा वाञ्छति // एतन्निशम्य श्रीगुरुगिरा द्वासप्ततिलक्षमृतकद्रव्यपत्रं पाटितवान् / केनापि कविना प्रोक्तम्४८२. अपुत्राणां धनं गृह्णन् पुत्रो भवति पार्थिवः / त्वंतु सन्तोषतो मुञ्चन् सत्यं राजपितामहः॥ न यन्मुक्तं पूर्वैरघुनहुषनाभाकभरत प्रभृत्युर्वीनाथैः कृतयुगोत्पत्तिभिरपि / विमुश्चन् कारुण्यात्तदपि रुदतीवित्तमधुना, कुमारक्ष्मापाल! त्व वमसि महतां मस्तकमणिः॥ '-लक्षमत्रापि / अथ चतुर्थव्रते४८४. एका भार्या सदा यस्य त्रिधा शीलं घनागमे / दिनं प्रत्येकशो यस्य द्वात्रिंशत् स्तवस्मृतितः // अथ परिग्रहप्रमाणम् जन्तून् हन्मि न वच्मि नानृतमहं स्तेयं न कुर्वे पर__ स्त्री! यामि तथा त्यजामि मदिरां मांसं मधोर्भक्षणम् / नक्तं नाद्मि परिग्रहे मम पुनः वर्णस्य षट्कोटय ___ स्तारस्याष्टतुलाशतानि च महार्हाणां मणीनां दश // 486. कुम्भखारीसहस्र द्वे प्रत्येकं लेहधान्ययोः। पञ्चलक्षाश्च वाहानां सहस्राण्युष्टहस्तिनाम्॥ 487. अयुतानि गवामप्टो पञ्चपञ्चाशतानि च / गृहापणसभायानपात्राणामनसामपि // ... 488. एकादशशतानीथा रभाः पञ्चायुतप्रमाः / हयैकादशलक्षाश्च पत्तयोऽष्टादशप्रमाः॥ ___सैन्यमेलापकप्रमाणम् / साधर्मिकवात्सल्ये त्रुटितधार्मिकस्य दीनारसहस्रदाने श्रेष्ठी आभडो नियुक्तः / वर्षे लेखके कृते एका कोटिर्लमा / यावत्तां दापयति तावताऽऽभडेनोक्तम्-'देव ! द्विधा कोशः स्थावरो पा मश्च / वयं जङ्गमकोशस्थानीयाः' इति जल्पन्निषिद्धः, सर्व दत्तम् / 80. एकदा कर्णमेरुप्रासादाग्रे श्रीगुरवो गताः / तदा वामराशिभरडकेनोक्तम् Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध مم س س و यूकालक्षशतावलीवलवलल्लोलोल्लसत्कम्बलो, दन्तानां मलमण्डलीपरिचयाद् दुर्गन्धरुद्धाननः / नासावंशनिरोधनाद्गिणिगिणी पाठप्रतिष्ठास्थितिः, सोऽयं हेमडसेवडः पिलपिलत्खल्लि समागच्छति / / श्रीगुरुभिरुक्तम् - 'अहो ! गालिरपि न शुद्धा / 'ददतु ददतु गालीलिमन्तो भवन्तः / / तवरैः राज्ञा श्रुतम् / तस्य वृत्तिच्छेदः कृतः / प्रत्यहं शालायां समायाति / श्रीयोगशास्त्र पठति / अन्यदा राजा तच्छ्रुत्वा प्राह४९०. आतङ्ककारणमकारणदारुणानाम् , वक्रेषु गालिगरलं निरगालि येषाम् / तेषां जटाधरफटाधरमण्डलानाम्, श्रीयोगशास्त्रवचनामृतमुजिहीते // पुनः श्रीगुरुवचनात् प्रसादः। 181. अन्यदा सुखसुप्तस्य भूपतेः कापि देवता / निशीथेऽजनि प्रत्यक्षा शामसर्वाङ्गमण्डना // भूपपृष्टाऽवदत् सापि लूताधिष्ठातृदेवता / त्वदने प्रविविक्ष्यामि पूर्वशापात्तवान्वये // गतायामथ तस्यां स चिन्तार्तोऽभून्नृपः प्रगे / सूरिपृष्टोऽवदत् सर्व तमूचे सूरिरप्यथ // भाविभावो भवत्येव नान्यथा सोऽमरैरपि / पूर्व कामलदेव्या यत् शापितो मूलभूपतिः॥ परं पुण्यं कुरु / यतः४९१. दीपो हन्ति तमःस्तोमं रसो रोगभरं यथा / सुधाबिन्दुर्विषावेगं धर्मः पापहरस्तथा / / रात्रौ महाव्यथाऽभूत् / पृष्ठे राजिकाकणोपमः पिटः प्रादुरभूत् / प्रतीकारैरनुपशमने श्रीगुरवः समायाताः / राजानं दुःखातं दृष्ट्वा प्राहुः४९२. - सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुषरत्नमलंकरणं भुवः। .... तदनु तत्क्षणभङ्गु करोति चेदहह ! कष्टमपण्डितता विधेः॥ . राज्ञः श्रीगुरुदर्शने क्षणं सुखमभूत् / सूरिः सचिवं प्रत्याह -मत्रिन् ! ___ 'अपायानामुपायाः स्युर्यहुरना वसुन्धरा।' - मत्री प्राह - भगवन् ! अनुवर्ण धातवः, अनुचन्दनं काष्ठानि, तथानुपूज्यान् कलाकोविदाः / यथा तमान्तको भानुः सुधा सर्वविपापहा / जगत्सञ्जीवनो मेघस्तथा राज्ञो गुरुभवान् // श्रीगुरुरभ्यधात्-'नात्र मत्रतत्रभैषज्यप्रभावप्रसरः। किन्तु बुद्धिप्रकारोऽस्ति / यदि राज्यमन्यस्य कस्यापि . दीयते, तदा राज्ञः कुशलं स्यात् , परं नायं धर्मः श्रीजिनतत्त्वविदाम् / यतः४९३. सबो न हिंसियचो जह महिपालो तहा उदयपालो। न य अभयदाणवइणा जणोवमाणेण होय // ततोऽस्माकमेव राज्यमस्तु / राजा तु को पिधायाभ्यधात्४९४. को नाम कीलिकाहेतोः प्रासादोच्छेदमिच्छति / __ भस्मने भस्मसात् कुर्यात् को हि चन्दनकाननम् // महाराज ! युक्तमेतत् / यदि मम शक्तिर्न भवति / परं४२५. शक्तौ हनूमान् यदवन्धयत् खं विष्णुर्दधौ यच्च शिवाखरूपम् / .: सैरन्ध्रिकाकारघरश्च भीमस्तथाहमप्यत्र कृतौ समर्थः // कु. पा.च.१३ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत कष्टमपीदं न मम मनसि / या लोभाद् या परद्रोहीद् यः पात्रौद् यः परार्थतः / मैत्री लक्ष्मी व्ययः क्लेशः सा किं सा किं स किं स किम् // ... राजा शनैः शनैर्व्यथया शून्यचित्ततामगात् / राजानं विलोक्य सर्वः कोऽपि विधुरोऽभूत् / श्रीगुरुः सर्व• सम्मतेन खयमुपविष्टो राज्ये / तत्क्षणं राज्ञो व्यथा सूरिशरीरे संक्रान्ता / श्रीगुरुव्यथां ज्ञात्वा राजा मनसि दूनश्चिन्तयति४९७. स्वाङ्गदाहेऽपि कुर्वन्ति प्रकाशं दीपिकादशाः। लवणं दह्यते वह्नौ परलोकोपशान्तये / / श्रीगुरुरुवाच -'राजन् ! मा चिन्तां कुरु, न मे शक्तिमतोऽसुखम् / मूलाचेन्नोन्मूलयाम्येनां तदी मम वंश्यानां स्यात् / ततः. पकं कूष्माण्डमानाय्य प्रविश्यान्तः स्वयं गुरुः / तत्र न्यवीविशल्लुतां तदैवाभूत् तदन्यथा // 6 उत्पाट्यान्धप्रधौ क्षिप्तं कश्चिन्नोलड़ते यथा / एवं स्वस्थमभूत् सर्वे सूरेः शक्तिरहो स्फुटा // 7 82. अथान्यदा श्रीमहावीरचरित्रे वाच्यमाने श्रीगुरुमुखेन देवाधिदेवप्रतिमासम्बन्धं श्रुत्वा राज्ञा वीतभयं प्रत्तनं गत्वा. महतोपक्रमेण देवतासान्निध्येन सा प्रतिमा पूजिता महोत्सवेनानीता / साधुना रामसैन्ये ... ऽस्तीति लोकोक्तिः / - 183. कदाचित् पृथिवीमानृणाय नृपतिना सुवर्णसिद्धये श्रीहेमाचार्याणामुपदेशात् तद्गुरवः श्रीदेवचन्द्राचार्याः श्रीसङ्घ-नृपतिविज्ञप्तिकाभ्यामाकारिताः। तीव्रतपरायणा महत्सङ्घकार्य विमृश्य विधिविहारेण पथि केनापि अनुपलक्ष्यमाना निजामेव पौषधशालामागताः / राजा तु प्रत्युद्गमनादिसामग्री कुर्वन् प्रभुज्ञापितस्तत्राययौ / अयं गुरोः पुरो नृपतिप्रमुखसमस्तश्रावकयुतैः प्रभुभिर्दादशावर्त्तवन्दनकं दत्त्वा तदुपदेशादनन्तरं गुरुभिः पृष्टे सरकायें सभां विसर्य जवनिकान्तरितौ श्रीहेमचन्द्र-नृपती. तत्पादयोर्निपत्य सुवर्णसिद्धियाचनां चक्राते / 'मम बाल्ये . विद्यमानस्य सतः ताम्रखण्डं काष्ठभारवाहकात् याचितवल्लीरसेनाभ्यक्तं युष्मदादेशाद् वह्निसंयोगात् सुवर्णषिमूव / तस्या वल्या नामसङ्केतादि आदिश्यताम्' - इति श्रीहेमाचार्यैरुक्तवति कोपाटोपात् श्रीहेमचन्द्रं दूरतः प्रक्षिप्य'न योग्योऽसीति, अग्रे मुद्गरसप्रायप्रदत्तविद्यया त्वमजीर्णभाक्, कथमिमां मोदकप्रायां तव मन्दागर्ददामि' इति तं निषेध्य, नृपं प्रति-'एतद्भाग्यं भवतां नास्ति, येन जगदानन्दकारिणी स्वर्णनिष्पत्तिविद्या सिध्यति / अपि च मारिनिवारण-जिनमण्डितमहीकरणादिपुण्यैः सिद्धे लोकद्वये किमधिकमभिलपसि ?' इत्यादिश्य तदैव विहारक्रमं कृतवन्तः / - 684. अथ श्रीकुमारपालदेवस्य भगिनी शाकंभरीशेन चाहुमानवंशेन राज्ञाऽऽनाकेन परिणीताऽस्ति / तयोमिथः सारिक्रीडां कुर्वतोरन्यदा राज्ञा सारिं गृहे मुञ्चतोक्तम् - 'मारय मुण्डिकान्, पुनर्मारय मुण्डिकान् / ' एवं द्वित्री राजगुरवः श्वेताम्बरा मुण्डिका इति हास्यगर्भोक्तिः। तदाकर्ण्य राज्ञी कुपिता प्राह-रे जंगडक! किं जिहामालोक्य नोच्यसे ? किं वक्ष्यसि, न पश्यसि माम् , न जानासि मम भ्रातरं राजराक्षसम् / क्रुद्धो राजा पादघातेन तां जघान / साऽप्याह- 'यदिरे तव जिह्वामवडुमार्गेण नाकर्षयामि, तदा राजपुत्री मां मा मंस्थाः। इति * वदन्त्येव सा ससैन्या निर्विलम्बं श्रीपत्तनमागत्य श्रीचौलुक्याय तं परिभवं स्वप्रतिज्ञां चाविज्ञपत् / राजाऽप्य___भाषत-'पश्य कौतुकमित्यमेव करिष्यामः।' ततश्चाऽऽनाकस्तस्यां तत्र गतायां गूर्जरनृपं दुर्द्धरं विदन् क्षुमितः / कुलकमायातं स्वसेवकं व्याघ्रराजं दीनारलक्षत्रयं दत्त्वा भरडकवेषधारिणं श्रीकुमारपालस्स मारणाय प्रेषीत् / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498. कुमारपालप्रयोधप्रबन्ध एतत्स्वरूप पूर्वमानाकप्रपञ्चपरिज्ञानाय भूपतिप्रेषितः प्रधानपुरुषः प्रीतिप्रीणितानाकदासीमुखेन ज्ञात्वा विज्ञप्त्या श्रीकुमारपालायाज्ञापयत्-'सावधानः स्थेयं, भरटकविश्वासो न कार्यः' इति / ततो राजाऽन्यदा लोकव्यवहारेण करणमेस्त्रासादे नवीनं भरटकं प्रधानज्ञाप्तिचेष्टया दृष्टमात्रमेवोपलक्ष्य निजपुरुपैर्वध्वा व्याघ्रसझं प्रकटीकृत्योरुबद्धां च क्षुरिकां प्राह-रे वराक ! जंगडकेन प्रेषितोऽसि ?, सेवकस्य विचाराविचारो नास्ति हिताहितस्य / खाम्यादेशवशंवदस्त्वम् , मा भैषीर्मुक्तोऽसि, तमेव हनिष्यामि, य एवं .द्रोहमकरोत् / ' ततो समस्तखसैन्यपरिवृतः / सपादलक्षदेशसीम्नि गतः / श्रीकुमारपालभट्टेनानाकनृपः प्रोक्तः अये! भेक च्छेको भव भवतु ते कूपकुहरं .. शरण्यं दुर्मत्तः किमु रटसि वाचाट ! कटुकम् / ___पुरः सप्पो दी विषमविषस्यूत्कारवदनो ___ ललजिह्रो धावत्यहह भवतो जिग्रसिषया // .. एतदाकाऽऽनाकोऽपि वाजिलक्षत्रयेण पदातिलक्षदशकेन पञ्चाशता गजैः संमुखमचलत् / स्वदेशतः पञ्चक्रोश्या अर्वाक् मेलापकः / तृतीयदिने युद्धं भविष्यतीति निर्णये बहुद्रव्यप्रदानेन परावर्तितं रात्रौ चौलुक्यसैन्यम् / अर्थो हि परावर्त्तयति त्रिभुवनम् / यतः४९९. दधाति लोभ एवैको रङ्गाचार्येषु धुर्यताम् / आरङ्कशक्रं यन्नाट्यपात्राणि भुवनत्रयी / .. तृतीयदिने रणकरणसमये सामलमहामात्रेण कलहपंचानने गजे पुरः प्रेर्यमाणे तटस्थान् स्वसामन्तान् / दुष्टान्निरणैपीत् / कुमारपालः प्रोवाच-'श्यामल! किममी उदासीना इव दृश्यन्ते ?' / तेनोक्तम् -'देव! अरिकृतार्थदानादिति' / 'तव का चेष्टा ?' श्यामलोऽप्याललाप --'देवाहं कलहपंचाननो देवश्चैते त्रयः कदाचिदपि न परावर्त्तन्ते' / तर्हि संमुखीने दृश्यमाने रिपौ गजं प्रेरय / अत्रान्तरे चारणः प्राह - .. 100. कुमारपाल मत चिंत करि चिंतिउ किंपि न होई।. जिणि तुह रज्जु समोपियउं चिंत करेसिई सोई // 501. अन्यस्तु- अम्हे थोडा रिउ घणा इय कायर चिंतंति / मुद्ध निहालउ गयणयलु के उज्जोउ करंति // 502. अपरः कश्चित्-साहसि जूतउं हल वहइ दइवह तणइ कपालि। खेडि म खूटा टालि खूटा विणु खीषइ नही // - त्रयाणां लक्षं लक्षं ददौ / तेपां सुशब्दं लात्वा रणभूमौ द्वयोश्विरयुद्धम् / आनाकसैन्ये चाहडनाना , सुभटेन सिंहनादे कृते कलह्पंचानने निवर्तमाने कुमारपालः सुबुद्धिमान् स्वमुत्तरीयं पाटयित्वा गजकर्णी पिधाय, रणभुवि विधुदुक्षिप्तकरणं दत्त्वा आनाकगजस्कन्धमारूढः / करिगुडां छित्त्वा भूमौ पातयित्वा हृदि पदं दत्त्वा-रे वाचाट ! स्मरसि वचो मे भगिन्याः१ / पूरयामि तत्प्रतिज्ञाम् , छिनमि ते जिह्वा'मित्युवाच / ततः काष्ठपाखरे क्षिप्तः / दिनत्रयं खसैन्ये स्थापितः / जयातोद्यानि उद्घोषितानि / ततः करुणया पुनः शाकंभरीपतिः कृतः / उत्खातप्रतिरोपितव्रताचार्यो हि कुमारपालः। अवटुजिह्वाकर्षणं टोप्यां पश्चात् जिह्वाकरणं च / गम्भीरतया - 'बमटा नोपालब्धाः। त्यक्तजीविताशास्ते सर्वेऽपि सेवां कुर्वन्ति / / मेडतकं सप्तवारें भग्नम् / पल्लीकोटस्थाने रुषाऽर्द्रकमुप्तम् / पुरा मालवीयनृपैगुर्जरदेशे प्रासादाः पतिताः। पापभीरुणा, श्रीकुमारपालेन तु रुषा मालवके तिलेक्षुपीडनपाषाणयत्राणि भग्नानि / भमास्ते Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत घाणका अपापि स्थाने साने दृश्यन्ते / ततो ववले परराष्ट्रमर्दनः श्रीचालुक्यनृपः / समायातः श्रीपत्तने। श्रीगुरूणां पादारविन्दान् पर्युपास्ति / सामायिक-पौषधादि करोति / खपरदेशेषु नवीनजीर्णोद्धारप्रासादकरणेषु महाप्रयत्नमकरोत् / 185. अथ सौराष्ट्रदेशीयेन सराकेन राज्ञा प्रच्छन्नं गृहमध्ये प्रविश्य अजा व्यापादिता / कण्टेश्वर्या देव्या 'राज्ञे निवेदितम् / तं नृपं विग्रहीतुं श्रीमदुदयनमन्त्रिणं सेनानायकं कृत्वा समस्तकटकबन्धेन प्राहिणोद् राजा / स तु पादलिप्सपुरे श्रीवर्द्धमानं नत्वा श्रीयुगादिदेवं निनंसुः पुरः प्रयाणकाय समस्तमण्डलेश्वरानादिश्य स्वयं श्रीशत्रुञ्जयं जगाम / विशुद्धश्रद्धया स्त्रात्रपूजारात्रिकादिकं विधाय यावचैत्यवन्दनां विधत्ते, तावत् प्रदीपवृत्तिमादाय मूषकः काष्ठमयप्रासादपिले प्राविशन् देवाङ्गपूजकैस्त्याजितः / तदनु स मत्री समाधिभङ्गात् काष्ठमयप्रासादविनाशाद् देवाशातनां विमृश्य जीर्णोद्धारं चिकीर्षुः श्रीदेवपादानां पुरतो ब्रह्मैकभक्तभूशयनताम्बूलादित्यागा• दिकानभिग्रहान् जग्राह / यतः५०३. एकोऽपि नियमो येन गृहीतो गृहमेधिना। जिनाज्ञा पालिता तेन भवकूपारपारदा // ततः कृतप्रयाणः स्कन्धावारमुपेत्य तेन प्रत्यर्थिना समरेण सह सङ्गरे सञ्जायमाने खसैन्ये मने खयं सङ्ग्रामं कुर्वाणो रिपुप्रहारजर्जरितशरीरो मत्री रणभूमौ पतितः / स करुणं क्रन्दन् केनापि बुद्धिमताऽङ्गरक्षकेण दुःखकारणं पृष्टः स्वमनसः शल्यचतुष्टयं प्राह-१. आम्बडस्य दण्डनायकत्वदापनं, 2. श्रीशत्रुञ्जयप्रासादपापाण- मयनिर्मापणं, 3. श्रीरैवतनव्यपद्यानिर्मापणं, 4. निर्यामकगुरुं विना मम मृत्युः-इति शल्यचतुष्कमस्ति ममेति श्रुत्वा स प्राह- 'आद्यत्रयं तवाङ्गजो बाहडदेवः कारयिष्यति, आराधनार्थ साधुमानयामी'ति मत्रिणं विज्ञप्य स्वयमले गत्वा साधुवेषधरं राजपुत्रमेकं लात्वा समायातः / तत्समक्षं दशधाऽऽराधनां विधाय, समाधिधीरचित्तः खीकृतानशनः श्रीमानुदयनः परलोकमसाधयत् / साधुवेषधरोऽपि नेमिदृष्टौ अनशनपरो मृत्वा वर्ग गतः / . ___ततोऽङ्गरक्षकेणागत्योदयनखरूपे प्रोक्ते तज्येष्ठपुत्रो पाहडोऽभिग्रहचतुष्टयं जग्राह निजपितुः / ततो. वाहडः खभ्रातुराम्बडस्य दण्डनायकत्वमदापयत् / खयं राजादेशेन पैतृकवरेण च ससैन्यः पुनः सुराष्ट्रायां गत्वा वैरिणं समस्पं (समरनृपं 1) रणाङ्गणे निर्जिय श्रीपत्तने श्रीकुमारपालनरेश्वराय गजाश्वभाण्डागारसहितं तन्मस्तकं समर्पयामास / तदनु राज्ञा तन्मस्तकं वंशे बड्वा सर्वत्र देशमध्ये प्रामितं चोक्तं च-'यः प्रच्छन्नं जीववर्ष करिष्यति तस्स शिरश्छेदो भविष्यति'। ततो राजाज्ञामादाय श्रीरैवतके त्रिषष्टिलक्षद्रव्यव्ययेन नवीनां सुगमा पद्यामकारयत्, अम्बिकाप्रक्षिप्तमार्गेण। महतोपक्रमेण वर्षद्वयेन श्रीशत्रुञ्जयप्रासादोद्धारे निष्पन्ने व‘पनिकापुरुषस्य द्वात्रिंशत्वर्णजिहा दत्ताः। यतः५०४. भवन्ति भूरिभिर्भाग्यधर्मकर्ममनोरथाः। फलन्ति यत्पुनस्तेऽपि तत् सुवर्णस्य सौरभम्॥ विद्युत्पाताद्विदीर्ण पुनः कथकपुरुषस्य द्विगुणा व‘पनिका / अस्मासु जीवत्सु चेद्विदीर्णस्तदा भव्यं जातम्, पुनरपि द्वितीयमुद्धारं करिष्याम इति / .505. प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नभयंतो विरमन्ति मध्याः। विनैः सहस्रगुणितैः प्रतिहन्यमानाः प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति // ... एवं विमृश्य भूपमापृच्छ्य महं कपर्दिने श्रीकरणमुद्रां नियोज्य तुरंगमाणां चतुर्भिः सहः श्रीशत्रुञ्जयं माप / तत्र पाहडपुरनगरं न्यास्थत्। सम्रमतीयुते प्रासादे पवनः प्रविष्टो न निर्यातीति, स्फुटनहेतुं शिल्पिभिर्निपीय Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध प्रमतीहीनेषु प्रासादेषु निरन्वयताकारणं ज्ञात्वा मदन्वयाभावे धर्मसन्तानमेवास्तु, पूर्वोद्धारकारिणां श्रीभरतादीनां पंक्तौ नामास्तु; यतः त्वरितं किंकर्तव्यं विदुषा संसारसन्ततिच्छेदः। इति दीर्घदर्शिन्या बुद्ध्या विमृश्य भ्रमतीभित्तौ अन्तरालं शिलाभिर्निचितं विधाय वर्षत्रयेण निष्पन्ने प्रासादे कलश-दण्डप्रतिष्ठायां श्रीपत्तनसंघ निमत्र्यानीय महता महेन संवत् 1211 वर्षे ध्वजाधिरोपं मत्री कारयामास / / शैलमयबिम्बस्य मम्माणीसत्कपरिकरमानीय निवेशितवान् / श्रीबाहडपुरे नृपतिपितुर्नाम्ना त्रिभुवनपालविहारे श्रीपार्श्वनाथं स्थापितवान् / तीर्थपूजाकृते चतुर्विंशत्यारामान् , नगरपरितो वप्रम् , देवलोकस्य ग्रासावासमुख्यं सर्व कारयामास / अस्य तीर्थोद्धारस्य व्यये द्विकोटी सप्तनवतिलक्षयुता व्ययिता वारद्वयं मेलयित्वा / पाठान्तरे-लक्षसप्तकयुता कोटी व्ययिता यत्र मन्दिरे / स श्रीवाग्भदृदेवोऽत्र वर्ण्यते विबुधैः कथम् // . इति तीर्थोद्धारप्रवन्धः। 686. अथो विश्वविश्चैकसुभटेन आंबडेन खपितुः पुण्यार्थ शकुनिकाविहारस्य भृगुकच्छे जीर्णोद्धारे कार्यमाणे रात्रौ नर्मदादेवी मिथ्यादृष्टिर्दिननिर्मितं पातयति, सर्वः कोऽपि तत्र बिभेति / अन्यदा आंबडः खं बलिं प्रकल्प्य तत्र रात्री शितः / समायाता देवी। तत्साहसेन तुष्टा सती प्रासादकरणे साहाय्यमकरोत् / ततः संपूर्ण निष्पन्ने प्रासादे कलश-ध्वजप्रतिष्ठासमये श्रीहेमसूरिः श्रीकुमारपालः सपरिकरः श्रीपत्तनादिबहुग्रामनगरश्रीसंघः संमैयरुः / अशन-वसन-भूपणादिदानैः श्रीसंघ सत्कृत्य, ध्वजाधिरोपाय सञ्चरन्, अर्थिभिः खं मन्दिरं मुषितं " कारयित्वा, सुमुहर्ते कलशरोपण-ध्वजारोहणादि कृत्वा, हर्षोत्कर्षात्तत्र लास्सं विधाय, आरात्रिकं गृह्णन् , राज्ञा कृतमङ्गलतिलकः खयं राज्ञा पुनः पुनः प्रेर्यमाणः, द्वासप्ततिसामन्तैश्चामरपुष्पवर्षादिभिः कृतमहोत्सवः, प्रदत्तकङ्कणकुण्डलहारगजाश्वादिमहादानः, बाहुभ्यां धृत्वा बलात्कारेण नृपेणावतार्यमाणारात्रिकमङ्गलप्रदीपः श्रीसुव्रतस्वामिनः श्रीगुरोश्चरणौ प्रणम्य साधर्मिकवन्दनां कृत्वा, नृपतिं सत्वरारात्रिकहेतुं पप्रच्छ / राजा प्राह - ‘मत्रिन् ! यथा घुतकारो द्यूतरसातिरेकेण शिरःप्रभृतीन् पदार्थान् पणीकुरुते, तथा भवानपि सर्व दत्त्वा मा कस्मैचिद्दानातिरेकाच्छि-. रोऽपि पणीकरोतु, तदमूल्यं मया सर्वखदानेऽपि न छुट्यते-' इति एतदाकर्ण्य सर्वेऽपि चमत्कृताः प्रमुदिताश्च / केनापि पठितं कविना५०६. किं कृतेन न यत्र त्वं यत्र त्वं किमसौ कलिः। . कलौ चेद्भवतो जन्म कलिरस्तु कृते न किम् // लक्षदानमत्र / ततः श्रीसंघलोकाः खं खं स्थानं जग्मुर्यथोचितमांबडमत्रिणा सत्कृताः / कृतांबडप्रशंसौ. श्रीगुरु-क्ष्मापती यथागतं जग्मतुः / 687. अथ श्रीपत्तने समागतानां प्रभूणां श्रीमदांबडस्साकस्माद्देवीदोषात् पर्यन्तदशां गतस्य विज्ञप्तिकाऽऽययौ / तां च वाचयित्वा तत्कालमेव 'तस्य महात्मनः प्रासादशिखरे नृत्यतो मिथ्यादृशां दोषः सञ्जातः'-इत्यवधार्य प्रदोषसमये यशश्चन्द्रतपोधनेन समं विद्यावलाद् गगनाङ्गणेन भृगुपुरपरिसरे समागत्य सैन्धवादेवीमनुनेतुं कृतकायोत्सर्गास्तया जिह्वाकर्षणादवगणिताः श्रीहेमसूरयः / उदूखले शालितन्दुलान् प्रक्षिप्य यशश्चन्द्रेण प्रदीयमाने " मुशलाहारे प्राक् प्रासादग्रकम्पोऽभूत् / द्वितीयप्रहारे देवीमूर्तिश्चकम्पे / तृतीयप्रहारे खस्थानादुत्पत्य देवीमूर्तिः 'मां रक्ष रक्षेति जल्पन्ती श्रीगुरुचरणयोः पपात / इत्थमनवद्यविद्याबलान्मिथ्याग्देवीदोषं निगृह्य श्रीजिनशासनप्रभावनां कृत्वा श्रीसुव्रतजिनं नत्वा श्रीआंबडयोलाघस्नाने जाते देवीमापृच्छ्य यथापथमगुः / श्रीउदयनचैत्ये कर्णावत्यां, श्रीशकुनिकाविहारे, राज्ञो घटीगृहे, कौंकणनृपतेः कनकमयं कलशत्रयं स्थानत्रये न्यास्थदांबडमत्री राजपितामहः / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 पुरातनाचार्यसंगृहीत F88. अथ कस्मिन्नप्यवसरे सपादलक्षं प्रति सैन्यं सजीकृत्य श्रीवाहडांबडानुजन्मा चाहडनामा मत्री दानशौण्डतया दूषितोऽपि भृशमनुशिष्य भूपतिना सेनापतिश्चके / तेन द्वित्रिप्रयाणानन्तरमस्तोकमर्थिलोकं मिलितमालोक्य कोशाध्यक्षाद् द्रव्यलक्षत्रये याचिते सति नृपादेशात् तस्मिन्नददाने तं कशाप्रहारेणाहत्य कटकान्निरवासयत् / खयं यदृच्छयां. दानैः प्रीणितार्थिलोकः, चतुर्दशशतीसंख्यासु करभीष्वारोपितैर्द्विगुणैः सुभटैः समं सञ्चरन् , शीर्ष / स्तोकप्रयाणे रात्रौ मागितादत्तकप्रच्छादवस्त्रकते बबेरानगरप्राकारमवेष्टयत / तस्मिन्नगरे तस्यां निशि सप्त कन्यानां विवाहः प्रारब्धोऽस्ति - इति नगरलोकादधिगम्य तद्विवाहाथ तस्यां निशि स्थित्वा प्रातः प्राकारपरावर्त मकार्षीत् / तत्र गृहीताः सुवर्णकोटयः सप्त, एकादशसहस्राणि वडवानाम् , प्राकारं घरट्टैश्चूर्णीचकार इति / संपत्ति गर्भितां विज्ञप्तिकां वेगवत्तरैर्नरैर्नृपं प्राहिणोत् / स्वयं तत्र देशे कुमारनृपतेराज्ञां दापयित्वाऽधिकारिणो नियोज्य * व्याधुटितः / सप्तशती कलावतां तन्तुवायानामादाय श्रीपत्तनं प्रविश्य, राजसभामधिगम्य, नृपं प्रणनाम / श्रीकु. " मारपालस्तमावर्ण्य, तदुचितालापावसरे तद्गुणरञ्जितोऽप्येवमवादीत् - 'तव स्थूललक्षतैव महढूपणं [रक्षामन्त्रः], नो वा चक्षुर्दोषेनोर्द्ध एव विदीर्यसे / यद् व्ययं भवान् कुरुते तादृक्कर्तुमहमपि न प्रभूष्णुः' - इत्यादि श्रुत्वा चाहडो नृपं प्रत्यवोचत् - 'तथ्यमेतद् यथादिष्टं देवेन / यतः, पुत्रः पितुः कोशबलेन व्ययं करोति, पिता तु कस्य पलेन करोति / तेन मयैव साधीयान् द्रव्यव्ययः क्रियते'-इति वदन् , प्रमुदितेन राज्ञा सत्कृतः / संसद्यनjतां लभमानो 'राज घर दृ'विरुदं लब्ध्वा नृपतिविसृष्टः खं पदं प्रपेदे / सप्तशती तन्तुवाया[नां] छत्राधःस्नानं काराप्य पवित्रीकृता / तस्य भ्राता स्वकीयौदार्यावर्जितसमस्तराजवर्गः सोलाकः 'सामन्तमण्डलीसत्रागार मिति बिरुदं बभार / 689. अथान्यदा राजा द्वासप्ततिसामन्तैः सहितः श्रीगुरूणां पार्श्वे धर्मदेशनामशृणोत् / भावेह अणिञ्चत्तं जुवणधणसयणअत्थदाराणं / देहस्स जीवियस्स य इफपि न पिच्छहो निचं // इत्यादि श्रुत्वा राजा संसारासारतां विभाव्य भवभावविमुखपरिणामः संवेगरसतरङ्गितान्तःकरणः श्रीगुरुन् " प्रणम्य पप्रच्छ -'भगवन् ! अद्य का तिथिः ?' इति / श्रीगुरवः सहसाऽमावास्यादिने पूर्णिमेत्याहुः / अत्र वामराशिलब्धावकाशो मिथ्यादृग् बाह्यमित्रोऽप्यान्तरशत्रुराह - 'अहो! कलिकालसर्वज्ञः श्रीहेमसूरिश्वेदध पूर्णिमा कथयति तदा लोकानां भाग्येन पूर्णिमैव भविष्यति' - इत्युपहासगर्भ वचः श्रुत्वा श्रीगुरवः प्राहुः- 'सत्यमेतत् भवद्वचः / तेनोक्तम् - 'कोऽत्र प्रत्ययः / श्रीगुरुभिरुक्तम् - 'अहो केयं भवतश्चातुरी चन्द्रोदय एव प्रत्ययः।' इति श्रुत्वा सर्वेऽपि विस्मयस्मेराः परस्परमाहुः- 'किमित्थमपि भविष्यति ?' / ततो राजा विस्मयंगतस्सन् द्वासप्ततिसा। मन्तादिवृतो राजसभामागत्य क चन्द्रोदयो भविष्यतीति परिज्ञानाय घटीयोजनगामिनीकरभ्यारूढान्निजपुरुषान् पूर्वस्यां दिशि प्राहिणोत् / ततः श्रीहेमसूरिः पूर्वप्रदत्तवरसिद्धचक्रदेवप्रयोगेन पूर्णिमावत् पूर्वस्यां सन्ध्यासमय चन्द्रोदयं कृत्वा सकलां रात्रि ज्योल्लामयीं विधाय चतुरो यामान् गगनतलमवगाह्य सर्वलोकसमक्षं प्रत्यूषे पश्चिमायां गतोऽम्तमगात् / प्रभाते तेऽपि प्रेषिताः पुरुषाः समागत्य तथैव प्रोचुः / सर्वेषां महान् विस्मयोऽभूदुअहो! श्रीगुरूणां काऽपि महती शक्तिः; अहो ! जैनानां कोऽपि महामहिमा लोकोत्तरः- इति जनोक्तिरभूत् / / 507. .690. अथ राजा तेषां विप्रादीनां तदेव छलवचनं स्मरन् श्रीगुरूणां पुरः प्रश्नमकरोत्- 'भगवन् ! सत्स्वपि बहदर्शनेप ब्राह्मणानां कस्माजिनधर्मे महान द्वेषः / तत्र श्रीगुरुः प्राह-'राजन् ! पुरा प्रथमजिनो युगादौ विहरन विनीतासन्ने पुरिमतालपुरे समवस्तः। भरतश्चक्री श्रीजिनस्याष्टानवतिभ्रातृसाधूनां चागमनं श्रुत्वा भक्ताद्यर्थ खादिमादिशकटानि भृत्वा तत्र गतः / प्रभु प्रणम्य धर्मदेशनां श्रुत्वा. भक्ताद्यर्थ साधूनां निमत्रणामकरोत् / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध 173 श्रीभगवान् प्राह +'राजन् ! आधार्मिकाभ्याहृत-राजपिण्डादिदोषपितमिदं भक्तादि साधूनामकल्प्य'मिति श्रुत्वा दूनं श्रीभरतं ज्ञात्वा शक्रः प्राह -'मा विषादं कुरु, सर्वज्ञशासने सप्तक्षेत्राणि सन्ति-श्रीजिनभुवन-जिनबिम्ब जिनागम-चतुर्विध-संघ-रूपाणि / तत्र ये साधर्मिका गृहारम्भपराङ्मुखाः संयमपरिणामभाजः संवेगवैराग्यजुषस्तेषां वात्सल्यं कुरु'-इति सुरेन्द्रवचः श्रुत्वा राजा भरतः पूर्वानीतवस्तुभिः साधर्मिकवात्सल्यमकरोत् / तेषां गृहारम्भादिकं निवार्य वृत्तिमकार्षीत् / गृहस्थाचारविचारं चतुरध्यायनिबद्धं श्रावकप्रज्ञप्तिग्रन्थमर्थतो जिनप्रणीतं ते पठन्ति / 'माहन माहन' इति परेषां कथयन्ति, ते मा ह ना इति लोके प्रसिद्धिमगुः / कालेन तेषां वृद्धिरभूत् / ततः षष्ठे षष्ठे मास्याचारग्रन्थपठनादिकां परीक्षां कृत्वा - 'अयं ज्ञान-दर्शन-चारित्राचारशुद्धः' इति काकिण्या रत्नेन कण्ठे रेखात्रयं कृतम् / ततः कालेन परीक्षापूर्व कनकसूत्रत्रयं क्रमेण रौप्यं जातम्। ततः कालेन नवम-दशमजिनयोरन्तरे सकलसाधुव्युच्छदे सति सवंषा लोकानामपरधर्मप्रकाशकाभावादते गुरवः सञ्जाताः।क्रमणाब्रह्मचारिणः कण्ठं सूत्रत्रयधारिणश्चाभूवन्। ततः क्रमणोत्पन्नकेवलज्ञाने दशमजिने धर्म प्रकाशयति, गृहारम्भप्रवृत्तोऽब्रह्मचारिगुरुर्न भवति, इत्युक्ते तेषां जिनधर्मे " च महान् द्वेषोऽभूत् / लोकानामपि मूढमतीनां द्वेषमुत्पादयन्ति / ततः कालेन मिथ्यात्वं गताः / यदुक्तम् - 508. समोसरण भत्तउग्गह अंगुलिझय सकसावगा अहिआ। .. जे यावदृइ कागिणि लंछणअणुमजणा अट्ट // अस्सावगपडिसेहो छठे छठे य मासि अणुओगो। . कालेण य मिच्छत्तं जिणंतरे साहुवुच्छेओ॥ इति द्वेषकारणं ब्राह्मणानां राजा श्रुत्वाऽचिन्तयद्-अहो ! चन्द्रमण्डलादग्निः सुधाकुण्डाद्विषं प्रादुरभूत् / लोकानामभाग्योदयेन श्रीजिनधर्मादपि मिथ्यात्वमभूदिति / श्रीगुरवः प्राहुः-'राजन्नेते तु दर्शनान्तरं प्रतिपन्नाः सन्ति, कालेन केऽपि निह्नवाः, केऽपि निह्नवाभासाः श्रीजिनवचनान्यथावादिनः, स्वमतिप्रकल्पितमतपक्षपातिनः, साधुवेषधारिणोऽपि साध्वाभासाः, प्रमादशीलत्वेनालम्बनपराः, परलोकनिरपेक्षा अनेकधा मतभेदानकार्षुः / एवं राजन् ! खमतेऽप्यनेकमतभेदा अभिमानाज्ञानपरवशैः प्रकल्पिताः सन्ति / 691. अन्यदा कोऽपि मत्सरी श्रीहेमसूरितेजोऽसहिष्णुरेकान्ते राजानमिदमवादीत् -'देव ! प्रायः प्राकृतमेते पठन्ति, सिद्धान्तोऽप्येतेषां प्राकृतमयः / तत् प्रभातेऽश्रोतव्यमिदम् / संस्कृतं स्वर्गिणां भाषा सैव महतां प्रत्यूषे श्रोतव्या श्रेयस्करी चेति / किमर्थं प्रथमं तच्छ्रवणं विधीयते' / एतदाकर्ण्य राजाऽविज्ञातभाषाभेदतत्त्वः, किञ्चिप्राकृतेऽकृतादरस्तत्स्वरूपं श्रीगुरूणामकथयत् / श्रीगुरवः प्राहुः-'अनुपासितसद्गुरुकुलस्य अविज्ञातवाङ्मयतत्त्वस्य कस्यापीदं वचः / राजन् ! अनेकधा भापाभेदवैचित्र्येऽपि, परं युगादौ प्रथमपुरुषेण ज्ञातत्रैलोक्यस्वरूपेण प्रथमं / चतुर्दशस्वस ऽष्टत्रिंशद्व्यजनरूपा (1) द्विपञ्चाशदक्षरप्रमाणा मातृकैवोपदिष्टा / सा च प्राकृतस्वरूपा सर्वप्रकृतिलोकानामुपकारिणीति / ततो बाद्या येऽष्टत्रिंशद्वर्णास्तैः संस्कारे कृते संस्कृतं जातम् / ततश्चानेकभाषाभेदा अभूवन् / तेन सकलशास्त्रमूलं मातृकारूपं प्राकृतमेव / प्रथमं युगादौ लोकोपकाराय प्रथमं प्राकृतमुपदिष्टं सर्वज्ञैरिति / सर्वाक्षरसन्निपातलब्धीनां श्रीद्वादशाङ्गीनिर्माणसूत्रधाराणां श्रीगणधराणां सिद्धान्तस्य प्राकृतकरणे कारणमिदम् - 510. बालस्त्रीमूढमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् / अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥ राजन् ! भवतु भाषा याऽपि साऽपि परं परमार्थ एव विलोक्यते / यत्पठन्ति लोकाः। अत्यनिवेसा तच्चिय सदा तच्चेव परिणमंता वि / उत्तिविसेसो कव्वं भासा जा होउ सा होउ // 511. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 पुरातनाचार्यसंगृहीत .. परं कस्यापि ज्ञानलवदुर्विदग्धस्स खण्डखण्डपाण्डित्यतुण्डकण्डूकरालितस्पेयं प्राकृतनिन्दा / यदुक्तम् - सो होइ सुहावेई उवमुंजतो लवो वि ली। एसा सरस्सई पुण असमग्गा कं न विनडेह // इति श्रुत्वा राजादयः सर्वेऽपि प्राकृतप्रशंसां कुर्वन्तो विशिष्य तदर्थश्रवणप्रवणा षवः। . * एवं श्रीहेमसूरिभिरनेके कुतीर्थिनः प्रवादाः सज्जनसमायां निरुत्तरीकृताः / श्रीसर्वज्ञशासनसैकातपत्र साम्राज्यं कारितम् / राजप्रतिबोधश्च कृतः। .692. अथान्यदा राजा श्रीजिनशासनप्रभावनां कर्तुकामः संघाधिपतिमनोरथमकरोत् / प्रथमं श्रीतीर्थमहिमा श्रीगुरवः प्राहुः- 'राजन् ! त्रिभुवनेऽपि श्रीजिनमयानि तीर्थानि सन्ति / यदुक्तं श्रीभद्रबाहुखामिना चतुर्दशपूर्वघरेण श्रीआचाराङ्गनिर्युक्तौ जं साभिसेयनिक्खमणचरणनाणुप्पया य निवाणे। दियलोयभवणमंदरनंदीसरभोमनगरेसु॥ 514. अहावयमुर्जिते गयग्गपए य धम्मचके य / पासरहावत्तनगं चमरुप्पायं च वंदामि // परं राजन् ! संप्रतिकाले प्रत्यासन्नं महाप्रभावंच श्रीशत्रुञ्जयतीर्थम् / यदुक्तं श्रीअतिमुक्तमुनिना नारदस पुरः जं लहइ अन्नतित्थे उग्गेण तवेण यंभचेरेण / तं लहइ तित्थपुन्नं सित्तुज्जगिरिमि निवसंतो॥ केवलनाणुप्पत्ती निषाणं आसि जत्थ साङ्कणं / पुंडरियं वंदित्ता सचे ते वंदिया तित्था // अद्यावय-संमेए पावा चंपा य उजिलनगे य। वंदित्ता पुन्नफलं सयगुणियं तं पि पुंडरिए / 518. पूआकरणे पुन्नं एगगुणं सयगुणं च पडिमाए। जिणभवणेण सहस्सं गंतगुणं पालणे होइ // नवि तं सुवन्नभूमी भूमणदाणेण अन्नतित्थेसु / जं पावइ पुग्नफलं पूआन्हवणेण सित्तुजे // जं नाम किंचि तित्थं सग्गे पायालि तिरियलोगंमि। तं सबमेव दिदं पुंडरिए वंदीए संते॥ - श्रीविद्याप्राभृते तु श्रीशत्रुञ्जयस्यैकविंशतिनामानि प्रोक्तानि / विमलगिरिः 1. मुक्तिनिलयः 2. श्रीशत्रुक्षयः 3. सिद्धिक्षेत्रम् 4. पुण्डरीकः 5. सिद्धशेखरः 6. सिद्धपर्वतः 7. सिद्धराजः 8. बाहुबलिः 9. मरुदेवः 10. भगीरथः 11. सहस्रपत्रः 12. शतपत्रः 13. अष्टोत्तरशतकूटः 14. नगाधिराजः 15. सहस्रकमलः 16. ढंकः 17. कपर्दि"निवासः 18. लौहित्यः 19. तालध्वजः 20. कदंबः 21. इति देव-मनुष्यकृतानि नामानि / श्रीभद्रबाहुखामिना प्रणीते, श्रीवनस्वामिनोद्धृते, ततः श्रीपादलिप्ताचार्येण संक्षिप्तीकृते श्रीशत्रुक्षयकल्पेऽप्युक्तम्-योऽवसर्पिण्यां षटस अरकेषु अशीति-सप्तति-षष्टि-पञ्चाशत-द्वादशयोजन-सप्तकरप्रमोऽभूत् / उत्सपिण्या पुनरुपचीयमानः / पस्मिन्नसंख्याता ऋषभसेनाधास्तीर्थकराः समवस्ताः / श्रीपद्मनाभमुख्यास्तीर्थकराः समेष्यन्ति / श्रीनेमिवर्जास्त्रयोविंशति * 520. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध ऋषमाधाः समवस्ताः। महाविदेहनिवासिनोऽपि सम्यग्दृष्टयो लोका मानसिकमावेन नित्यं स्मरणं कुर्वन्तीति / प्रथम श्रीऋषभकेवलोदयाद् भरतेन प्रमाणोपेतं रत्नमयं हैम रूप्यं च बिम्बत्रयं कारितम् / द्वाविंशतिदेवकुलिकाकलितं हैमचैत्यं च / ततोऽसंख्या उद्धारा जाताः, प्रतिमाश्च असंख्याताः, कोटाकोव्यश्च सिद्धाः / पुण्डरीकगणधरः पञ्चकोटिभिः सह मुक्तिं गतः / विड-बालिखिलादयो दशकोटिभिः / नमि-विनमी विद्याधरौ कोटिद्वयेन / श्रीऋषभसन्ताने भरतेश्वरराज्ये आदित्ययशा महायशा अतिबलः बलभद्रः बलवीर्यः कार्तवीर्यः जलवीर्यः दंडवीर्यत्रिखण्ड-। भोक्तारः प्रथमसंघाधिपतिश्रीभरतेश्वरवत् प्राप्तसंघाधिपत्या आदर्शभवनप्राप्तकेवलज्ञाना बहुतरेक्ष्वाकुराजराजकुमारपरिवृताः श्रीशत्रुञ्जये सिद्धाः / अन्येऽपीक्ष्वाकुवंशराजान आदित्ययशाद्याः सगरपर्यन्ताः पञ्चाशत्कोटिलक्षसागराणि यावत् सर्वार्थसिद्ध्यन्तरचतुर्दशलक्षादिश्रेणीभिरसंख्याताभिरत्र मुक्तिं गताः / श्रीरामादीनां कोटित्रयं सिद्धम् / पाण्डवानां विंशतिकोटयः / प्रद्युम्न-शाम्बादीनां सार्धष्टौ कोटयः / नारदाद्याः एकनवतिलक्षाः / अत्रैवाजित-शान्तिजिनौ वर्षाकालमवस्थितौ / मरुदेवीचैत्यं स्वर्णमयं पुरा बाहुबलिना कारितम् / मरुदेवीसमीपे शान्तिचैत्यं पुरा / सुवर्णमयम् , तदने त्रिंशता हस्तैरधः पुरुषसप्तकेन सुवर्ण-रूप्यखानिद्वयम् / ततो हस्तशतेन पूर्वद्वारा रसकूपिका / श्रीशान्तिचैत्याद् हस्ताष्टकेनोद्धारयोग्यं सुवर्ण पादलिप्ताचार्योपदेशेन नागार्जुनेन स्थापितमस्तीति लोकोक्तिः / अष्टमतपसा तुष्टः कपर्दियक्षः श्रीभरतकारितां प्रतिमां वन्दापयति, यदि कश्चित् सत्त्ववानेकावतारी भवति / कल्की दत्तो नाम तीर्थ सपूजं कारयिष्यति / तत्पुत्रो मेघघोषश्वोद्धारम् / ततः 2214 अनन्तरम्५२१. नंदी सूरी अजे सिरिप्पभे माणिभद्द-जसमित्ते / धणमित्त-धम्मवियडे सुमंगले सूरसेणे य // 522. एए होही उद्धारकारया जाव सूरिदुप्पसहो। पच्छिमउद्धारकरो होही इह विमलवाहणओ॥ 523. वुच्छिन्ने वि य तित्थे होही कूडं तु उसहसामिस्स / जा पउमनाह तित्थं मुराइकयपूयसंजुत्तं ॥-इति तीर्थमहिमा / 693. अथ राजन् ! रैवतकतीर्थमपि महासुप्रभावं प्रत्यासन्नं च वर्तते। अस्य महिमा श्रीविद्याप्राभृते तीर्थमाहात्म्ये गणधरैरुक्तः / श्रीभारत्या काञ्चनबलानके श्रीनेम्यादिमूर्त्तिनमस्करणागतया नारदस्य पुरः प्रोक्तस्तेन च लिखितः / इदं तीर्थमनादियुगीनमाहुः / अवसर्पिण्यामयं शैलः षड्विंशति-विंशति-षोडश-दश-द्वियोजन-धनुःशतोचशिराः / अनादिकाले यस्मिन्नर्हन्तोऽनन्तसिद्धाः / यस्याकारं सुरासुरनरेशास्त्रिभुवनेऽपि पूजयन्ति / अनन्ततीर्थकृतामत्र कल्याणकत्रयमभूत् / अतीतचतुर्विंशतिकायां नमीश्वराद्यानामष्टजिनानां कल्याणकत्रयमभूत् / अस्यां श्रीनेमिनाथस्य / / श्रीपद्मनाभाद्या द्वाविंशतिजिना इह सेत्स्यन्ति / इयं मूर्तिब्रह्मेन्द्रकृताऽस्या विंशतिसागरोपमकोठ्योऽभूवन् / श्रीऋषभादेशात् भविष्यतो नेमेतिहमी रूप्या च भरतेन पूर्व स्थापिता रत्नमयी चन्द्रार्पिता / अस्यान्तःकाञ्चनबलानके शक्रनिर्मिते रत्नमूर्तिरस्ति शक्रकृता / शक्रकृतं गजेन्द्रपदकुण्डं सर्व कं भद्रशालवनं पूजार्थम् , पञ्चमारकपर्यन्ते श्रीनेमिमूर्तिः स्वर्गे सुरेन्द्रपूज्या भविष्यति, उत्सपिण्यां पुनरत्र / यस ध्यानेनान्यत्रापि स्थिता भव्या भवचतुष्केन . मोक्षं यान्ति / इदं तीर्थ सर्वदा सुरासुराच॑म् / तथा श्रीभद्रयाहुप्रणीतं श्रीवनखामिनोद्धृतं स्वरूपमिदम् - " ___ "छत्तसिलाए सिलासणे दिक्खं पडिवन्नो नेमी / सहसंबणे केवलनाणं / लक्खारामे देसणा / अवलोयणाउच्चसिहरे निधाणं / रेवयमेहलाए कण्हो तत्य कल्लापतिगं नाऊण सुवण-रयणपडिमालंकियं चेईयतिगं, अंबादेविं च करावेइ / इंदो वि गिरि कोरिऊण सुवन्नवन्नं बलाणय रुप्पमयं चेईयं रयणमया पडिमा प्रमाणवबोववेया / कु.पा.च.१४ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत सिहरे अंबारंगमंडवे अवलोयणासिहरं बलाणमंडवे संबो। सिद्धविणायगो पडिहारो। तहा सत्त जायवा दामोदराणुरूवा कालमेह 1 मेहनाद 2 गिरिविडा(दा)रण 3 एकपाद 4 सिंहनाद 5 खोडिक 6 रैवत 7 नामानः तिब्बतवेणं कीडणेणं खित्तवाला उववन्ना / तत्थ य मेहनादों सम्मदिट्ठी नेमिकमभत्तो / मेहलाए गिरिविदारणो / कंचणवला णए चउद्दारे तत्थ अंबाएसेण पवेसो नन्नहा / तहा अंबापुरओ हत्थवीसाए विवरं तत्य य अंबाएसेणं उववासतिगेणं * सिलुग्घाडणं / हत्थवीसाए संपुडसत्तगं, समुग्गयपंचयं, अहो रसकूविआ / अमावाए अमावाए उग्घाडइ, गिहि. जइ अंधाएसेण / तहा पञ्जुन्नकूडे उववासतिगं काऊण सरलमग्गेण बलिपूअणेणं सिद्धिविणायगो लगभइ / तत्प य चिंतिया सिद्धी / दिणमेगं ठाइवं / जइ पञ्चक्खो हवइ / तओ राइमईए गुहाए कमसएणं गोदोहियाए पवेसे रसकूविया किसिणचित्तवल्ली। राइमईए पडिमा रयणमया, अंबा रुप्पमया चिट्ठति / तहा छत्तसिला घंटसिला कोडिसिला तिगं पन्नत्तं / छत्तसिलामज्झमज्झेण कणयवल्ली। सहसंबवणमज्झेरयय-सुवण्णमयचउवीसं / लक्खारामे " बावत्तरी चउवीसं जिणाण गुहा पन्नत्ता / कालमेहस्स पुरओ सुवण्णवालुयाए नईए सडकमसयतिएणं उत्तरदिसीए गमित्ता गिरिगुहं पविसित्ता, न्हवणं उदएण काऊण ठिए उववासपंचहिं दुवारमुग्घडइ / मझे पढमदुवारे सुवन्नखाणी, दुइए रयणखाणी / तत्थ एगो कण्हभंडारो अन्नो दामोदरसमीवे / अंजणसिलाए अहोभागे. रययसुवन्नधूली पुरिसबावीसेहिं पन्नत्ता / 524. तस्सत्थमणे मंगलयदेवदाली य संतु रससिद्धी / सिरिवयरोवक्खायं संघसमुद्धरणकन्जंमि // 525. सस्सकडाहं मज्झे गिण्हित्ता कोडिबिंदुसंजोए। घंटसिलाचुन्नयजोयणाओं अंजणगवरसिद्धी // रत्नजाति-महौषध्यादिकं यद् विश्वत्रये वर्त्तते, तत् सर्वमंत्रास्ति / अन्यान्यपि चित्ताहादकानि पुण्यानि श्रीजिनमयानि तीर्थानि ग्राम-पुर-पत्तन-पर्वतादिषु सन्ति / तेषु सर्वत्र * शासनप्रभावकाः सुश्रावका दर्शनविशुद्ध्याद्यर्थं तीर्थयात्रां कुर्वन्ति / करणीयमेतत् / कृतं पुरा श्रीभरतेश्वरादिभिर्भूपतिभिः / एतत् श्रीतीर्थद्वयमाहात्म्यमाकर्ण्य राजा सपरिकरस्तीर्थयात्रासामग्रीमकारयत् / 694. महता महेन श्रीदेवालयप्रस्थाने सजायमाने देशान्तरायातेन पुरुषयुग्मेन-'त्वां प्रति डाहलदेशीया श्रीकर्णनृपतिरुपैति-' इति विज्ञप्तः / खेदबिन्दुतिलाङ्कितं ललाटं दधानो मनिवाग्भटेन साकं साध्वसध्वस्तसंघा. धिपत्यमनोरथः प्रभोः पदान्ते खं निनिन्द / * 526. श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति महतामपि। अश्रेयसि प्रवृत्तानां कापि यान्ति विनायकाः॥ ___अथ नृपतेस्तस्मिन् महाभये समुपस्थिते किञ्चिदवधार्य द्वादशे यामे भवतो निवृत्तिभविष्यति' इति आदिश्य विसृष्टो नृपः / किंकर्त्तव्यमूढो यावदास्ते, तावन्निीतवेलासमागतनरयुग्मेन 'श्रीकर्णो दिवंगतः' इति विज्ञप्तः / ताम्बूलमुत्सृज्य कथमिति पृष्टौ तौ ऊचतुः- 'कुम्भिकुम्भस्थलस्थः श्रीको निशि प्रयाणं कुर्वन् निद्रामुद्रितलोचनः कण्ठपीठप्रणयिना सुवर्णशृङ्खलेन प्रविष्टवटशालपादेन उल्लम्बितः पञ्चतामञ्चितवान् / तस्य संस्कारानन्तरमावां * चलितो' - इति ताभ्यां विज्ञप्ते तत्कालं द्वासप्ततिमहासामन्तैः समं राजा श्रीतीर्थयात्राभेरीमवादयत् / सर्वदेशेषु कुङ्कुमपत्रिकाः प्रैषीत् / तत्रः श्रीसंघमेलापके खगजाश्वरथपत्तिपरिवृता द्वासप्ततिसामन्ताः, मत्री वागभटः, 24 प्रासादकारको नृपमान्यो नागश्रेष्ठिसुत आभडः, षड्भाषाकविचक्रवर्ती श्रीपालस्तत्पुत्रः सिद्धपालः, कवीनां दातृणां च धुर्यो भाण्डागारिकः कपी, प्रह्लादनपुरनिवेशको राणप्रह्लादनः, 99 लक्षसुवर्णखामी श्रेष्ठी छाडाकः, राजदौहित्रिकः प्रतापमल्लः, 1800 व्यवहारिणः, श्रीहेमसूरयः / अन्येऽपि. लोका ग्राम Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध नगरस्थाननिवासिनो बहवः / षड्दर्शनानि / बहवो बन्दिजनाः। स्थाने स्थाने प्रभावना, जिने जिने छत्र-चामरादिप्रदानम् / स्थाने स्थाने सत्पात्रपूजा / याचकानां मनोवान्छिता सिद्धिः / एवं परिवृतो प्रभुणा द्विधोपदिश्यमान वर्मना धुन्धुकपुरे प्राप्तः / प्रभूणां जन्मगृहभूमौ स्वयं कारितसप्तदशहस्तप्रमाणे झोलिकाविहारे प्रभावनां विधिसुर्जातिपिशुनानां द्विजातीनामुदितमुपसर्ग वीक्ष्य तान् विषयताडितान् कुर्वन् श्रीशत्रुञ्जयतीर्थ प्राप / पादचारेण पर्वताधिरोहणम् / श्रीजिनेन्द्रप्रासादद्वारे सपादसेतिकामौक्तिकैः प्रासादद्वारवर्द्धापनकम् / मध्ये प्रदक्षिणात्रयम् / / प्रथमपूजायां नवाङ्गेषु नवरत्नानि लक्षमूल्यानि / अष्टाह्निकामहोत्सवः / सुवर्ण-रूप्यादिसप्तध्वजाप्रदानम् / चैत्यपरिपाव्यां वामहस्तं श्रीगुरूणां हस्ते लग्नं वीक्ष्य महं कपर्दी पाह५२७. ___ श्रीचौलुक्य ! स दक्षिणस्तव करः पूर्व समासूनित प्राणिप्राणविघातपातकसखः शुद्धो जिनेन्द्रार्चनात् / वामोऽप्येष तथैव पातकसखः शुद्धिं कथं प्राप्नुयात् / न स्पृश्येत करेण चेत् यतिपतेः श्रीहेमसूरिप्रभोः॥ प्रमुदितो राजा / अवारितान्नदानयाचकसत्काराः प्रवर्त्तन्ते। . . 695. मालोद्घट्टनप्रस्तावे उदयनसुतादिमहापुरुषसंघश्रेणिभृते धर्मशिलायां महं वागभटः प्रथमं लक्षचतुष्कमवदत् / प्रच्छन्नधार्मिकः कश्चित् कथापयत्यष्टी लक्षाः। एवमन्योन्येष्वीश्वरेषु वर्द्धयत्सु कश्चित् सपादकोटी चकार / चमत्कृतो राजोवाच-'उत्थाप्यतां स यो गृह्णाति' / उत्थितः स यावत् दृश्यते तावद् बादरमलिनवसनो / वणिगरूपो विलोकितः / राज्ञा वाग्भटो भाषितः-'द्रव्यसुस्थं कृत्वा देहि' / श्रीवाग्भटो वणिजा सहोत्थाय द्रव्यसुस्थं पप्रच्छ / वणिजा सपादकोटिमूल्यं माणिक्यं दर्शितम् / मत्रिणा पृष्टम् - 'कुत इदं ते 1 / वणिगाह'महूअकवास्तव्यो मत्पिता हंसाख्यः सौराष्ट्रिकः प्रागवाटान्वयः। अहं तदभूर्जगडः। माता मे धारूनानी / मत्पित्रा निधनसमयेऽहं भाषितः- "वत्स ! चिरं कृताः प्रवहणयात्राः। फलिताश्च मे / मेलितं धनं तेन च प्रत्येकं सपादकोटिमूल्यं माणिक्यपञ्चकम् / अधुना प्रभुऋषभचरणौ शरणं मे / अनशनं प्रतिपन्नम् / क्षमिताः / सर्वे जीवाः / एकं माणिक्यं श्रीऋपभाय, एकं श्रीनेमिनाथाय, एकं चन्द्रप्रभाय, माणिक्यद्वयमात्मनोऽन्तिके दध्याः / " मामिति निगद्य गतः परलोकं पिता / तजनकवचनसमर्थनाय जनन्याः सहाहमागतः / सा कपर्दिभुवने मुक्ताऽस्ति / तामष्टपष्टितीर्थाधिका मालां परिधापयिष्यामि / ' श्रुत्वा हृष्टो राजा मत्री संघश्च / मालापरिधान कृतं तेन जगडेन वणिजा / तन्माणिक्यं हेम्ना खचित्वा ऋषभाय कण्ठाभरणं राजा कारयामास / . महापूजावसरे चारणः पपाठ५२८. इकह फुल्लह माटि देयइ जु नरसुरसिवसुहइ / ___.. एही करइ कु साटि कट भोलिम जिणवरतणी॥ नवकृत्वः पठने नवलक्षदानं द्रम्माणाम् / आरात्रिकावसरे महादानम् / 696. ततो राजा खं कृतार्थ मन्यमानः, कृत्वा अमानमहिमानं श्रीरैवतदैवतं मनस्याध्याय सपरिकरस्तद्दिशं प्रति प्रयाणमकरोत् / पथि च वृक्षानपि पट्टकूलपरिधापनिकया सन्मानयन् रैवतासन्ने समायाते, अकस्मादेव पर्वत-. कम्पे सक्षायमाने श्रीहेमचन्द्राचार्या नृपं प्राहुः-'इयं छत्रशिला युगपदुपेतयोर्द्वयोः पुण्यवतोरुपरि पतिष्यति / ' इति वृद्धपरंपर। / तदावां पुण्यवन्तौ, : यदियं गीः सत्या भवति, तदा लोकापवादः / नृपतिरेव दैवं नमस्करोतु,. नवयम्'-इत्युक्ते नृपतिनोपरुध्य प्रभव एव सङ्केन सह प्रेषिताः, न स्वयम् / छत्रशिलामार्ग परिहत्य परस्मिन् मार्गे जीर्णप्राकारपक्षेन श्रीवागभटकारितपयां चटितः / तत्र साप्रविधिपूर्वकं स्नात्रपूजादानं सर्वस्थानेषु / लक्षारामसहस्रामवन-चन्द्रगुम्फाम्बिकावलोकनाशिखर-शाम्प-प्रधुमादिषु चैत्येषु चैत्यपरिपाटीं कृतवान् महाप्रभावनां च / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 पुरावनाचार्यसंगृहीत . बारात्रिकावसरे चारणः पपाठ५२९. लाछि वाणि मुहकाणि ए तइं भागी मुह मरउं / हेमसरि अत्याणि जे ईसर ते पंडिआ॥ बन्दनकसमये नृपस्य पृष्टौ हस्तप्रदाने [अन्यः] चारणः हेम तुहारा कर मरउं जिहिं अच्चम्भुआ रिद्धि / जे चांपइ हेठामुहा ताहं ऊपहरी सिद्धि // योनिः पाठे लक्षत्रयमौचित्यमदात् / ततः परमेश्वरं तुष्टाव / आजन्म कलिताजिह्मपरब्रह्ममयात्मने / चिदानन्दपदस्थाय श्रीनेमिखामिने नमः॥ अथोमयतीर्थयात्रयाऽऽत्मानं पवित्रीकृत्य राजा सपरिकरः पथि प्रभावनां कुर्वाणः श्रीपत्तनमाजगाम / प्रौढमहिना नित्यं धर्मध्यानपरो दिनानि सफलयति / 697. अथ श्रीकुमारपालेन द्वासप्ततिसामन्ता भूपालाः स्वाज्ञां ग्राहिताः / अष्टादशदेशेषु अमारिपटहो दापितः। चतुर्दशसु देशेषु अर्थवलेन मैत्रीबलेन च विनयेन च जीवरक्षा कारिता / 1444 नवीनप्रासादेषु कलशाधिरोपणं कारितम् / 16000 जीर्णोद्धारेषु कलशध्वजारोहोऽकारि / सप्तभिस्तीर्थयात्राभिराल्मा पवित्रितः / एकविंशति ज्ञान"कोशलेखनम् / द्वासप्ततिलक्षमृतकद्रव्यपत्रं फाटितवान् / 98 लक्षप्रमाणं द्रव्यमौचित्ये दत्तम् / परमाईतविरुदं लब्धम् / आजन्म परनारीसहोदरविरुदं च / सप्तव्यसनानि निवारितानि / श्रीसङ्घभक्ति-साधार्मिकवात्सल्य-त्रिजिना - द्विरावश्यक पर्वदिनपौषधादान-शासनप्रभावना-दीनोद्धारपरोपकारादिपुण्यकृत्यान्यनेकधा कृतानि / कुमारपालभूपस्य किमेकं वय॑ते क्षिती। जिनेन्द्रधर्ममासाद्य यो जगत् तन्मयं व्यधात् // - 698. अत्रान्तरे च नियूंढराजव्यापारौ विहितानेकनवीनप्रासादजीर्णोद्धार-परोपकार-दीनोद्धारादिपुण्यकृत्यौ कृतश्रीजिनशासनप्रभावनौ मत्रियाहडदेव-आंबडौ स्वर्ग जग्मतुः / __अथैवं काले श्रीकुमारपालभूपालः श्रीहेमसूरिश्च कृतकृत्या महसा तपसा वयसा च वृद्धौ जातौ / पर श्रीहेमसूरिगच्छे विरोधः / रामचन्द्र-गुणचन्द्रवृन्दमेकतः, एकतो यालचन्द्रः। तस्य तु राजमातृव्याऊजयपालेन सह मैत्री। अन्यदा राजा श्रीगुरुं पृच्छति स्म-'भगवन् ! अपुत्रोऽहं, कं खराज्यपदे स्थापयामि। // श्रीगुरुभिरुक्तम् - 'राजन् ! अयं भागिनेयः प्रतापमल्लः प्रजाप्रियो न्यायधर्मनिष्ठो बहुराजवर्गीयसम्मतो राज्यमारधुराधुरीणोऽस्ति / अजयपालोऽप्यस्ति परं न तत्सङ्गरणः, न न्यायनिष्ठः, न धर्मप्रियः, न जनानुरागः। यदुक्तम्५३३. धर्मशीलः सदा न्यायी पात्रे त्यागी गुणादरः। प्रजानुरागसम्पन्नो राजा राज्यं करोति सः॥ न चायमेवंविधगुणवान् / अजयपालात् तु त्वत्कारितधर्मस्थानक्षयः कियानस्ति' / एवं मत्रे कृते पालचन्द्रेण * स्वरूपमेतदजयपालाय न्यवेदि / तस्य रामचन्द्रादिषु महाद्वेषः समजनि / अत्रावसरे चतुरशीतिवर्षायुषः श्रीहेमसूरिवराः परिज्ञातनिजावसानसमयाः समयोचितं चिकीर्षवः समस्त्रश्रीसंघ खकीयगच्छं श्रीकुमारपालनृपतिं चाहय, 'तवापि षण्मासशेषमायुरस्ती'ति प्रज्ञापनां कृत्वा, दशपाऊराधनां विधाय, समाधियोगसाधितखकृत्याः Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध निरञ्जनं निराकारं सहजानन्दनन्दितम् / निरूप्य मनसा नित्यं स्वरूपं परमेश्वरम् // 535. कृत्वा तन्मयमात्मानं त्यक्त्वा सर्व स्वतः परम् / खात्मावबोधसम्भूतज्योतिषेति व्यभावयन् // 536. यथा-आत्मन् ! देवस्त्वमेव त्रिभुवनभवनो ज्योतिदीपस्त्वमेव, ब्रह्मज्योतिस्त्वमेवाखिलविषयसमुज्जीवनायुस्त्वमेव / कर्ता भोक्ता त्वमेव व्रजसि जगति च स्थाष्णुरूपस्त्वमेव, खस्मिन् ज्ञात्वा स्वरूपं किमु तदिह बहिर्भावमाविष्करोषि // इति सञ्चिन्त्य चरमोच्छाससमये दशमद्वारेण प्राणोत्क्रान्तिमकार्षुः / तदनन्तरं प्रभोः शरीरम्य चन्दनकर्पूरागरुभिः कृते संस्कारे तद्भस्म पवित्रमिति कृत्वा राजा तिलकव्याजेन // नमश्चक्रे / ततः समस्तसामन्तैस्तदनु नगरलोकैश्च तत्रत्यमृत्स्नायां गृह्यमाणायां 'हेमखड' इत्यचापि सा प्रसिद्धाऽस्ति लोके। 699. अथ राजा श्रीगुरुपादानां विरहेणास्तोकशोकाश्रुजलाविललोचनः श्मशाननिमां राजसभा मन्यमानस्तत्र नायाति; दुर्गतिचिह्नान्येतानि इति राजचिन्हानि न धारयति; अयमपारं संसारं प्रापयतीति प्रजाव्यापारं चापि न करोति / भोगान् संसाररोगानिव मन्यते / लास्यहास्यादिविमुखः, सुखाय तान् विना किमपि न पश्यति / सकल- // कलाकलापकुशलैरपि अनेकधा विनोद्यमानोऽपि न क्वापि रतिं प्राप / सचिवैर्विज्ञप्त इदमवादीत्-खपुण्यार्जितोत्तमलोकान् प्रभून् न शोचामि, किन्तु निजमेव सप्ताङ्गराज्यम् / सर्वथा परिहार्यराजपिण्डदोषदूषितं यन्मदीयमुदकमपि जगद्गुरोरङ्गे न लग्नं, यस्मात्तदेव शोचामि / ___अथान्यदा सान्ध्यविधिविधानाय सन्ध्यासमयमावेदयितुं केनापि विदुषाऽवसरपाठकेन पठितम् - 537. ध्वान्तं ध्वस्तं समस्तं विरहविपगमं चक्रवाकेषु चक्रे, सङ्कोचं मोचितं द्राक् किल कमलवने धाम लुप्तं ग्रहाणाम् / प्राप्ता पूजा जनेभ्यस्तदनु च निखिला येन भुक्ता दिनश्रीः, संप्रत्यस्तंगतोऽयं हतविधिवशतः शोचनीयो न भानुः // इत्याकर्ण्य राजा, शोकं किञ्चित् स्तोकं कृत्वा, श्रीगुरूणां गुणान् लोकंपृणान् स्मारं स्मारं सुचिरमिदमवादीत्५३८. श्रीसूरीश्वर ! हेमचन्द्र ! भवतः प्रक्षाल्य पादौ स्वयम्, खर्धेनोः पयसा विलप्य च मुहुः श्रीखण्डसान्द्रद्रवैः। अर्चामोऽम्बुदमौक्तिकर्यदि तदाऽप्यानृण्यमस्तु क नो, विश्वैश्वर्यदजैनधर्मविविधाम्नायाप्तिहेतू ह्यम् // श्रीहेममूरिप्रभुपादपद्मं वन्दे भवाब्धेस्तरणैकपोतम् / ललाटपट्टान्नरकान्तराज्याक्षरावली येन मम व्यलोपि // Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरावनाचार्यसंगृहीत . 6100. ततः श्रीगुरुविरहातुरो राजा यावद्दौहित्रं प्रतापमलं राज्ये निवेशयति, तावत् किश्चित् कृतराजवर्गभेदोञ्जयपालो भ्रातृव्यः श्रीकुमारपालदेवस्य विषमविषमदात् / तेन विधुरितगात्रो राजा ज्ञातम्रातृव्यप्रपञ्चः खाधीनां विषापहारशुक्तिका पुरा कोशे स्थापितां शीघ्रमानयतेति निजातपुरुषानादिदेश। ते च तां पुराऽप्यजयपालेन गृहीतां ज्ञात्वा तूष्णीं स्थिताः / अत्रान्तरे व्याकुले समस्तराजकुले विषापहारिशुक्तिकाया अनागमनहेतुं ज्ञात्वा कोऽपि चारणः पपाठ कुमरड ! कुमरविहार एता कांई करावीया। . ताहं कु करिसइ सार सीप न आवई सयं धणी // इत्याकर्ण्य राजा यावद्विमर्श करोति, तावत् कोऽप्यवसरावेदकः पपाठ कृतकृत्योऽसि भूपाल ! कलिकालेऽपि भूतले। आमन्त्रयति तेन त्वां विधिः स्वर्गे यथाविधि // इति श्रुत्वा राजा शुक्तेरनागमनकारणं ज्ञात्वा सर्वसमक्षमित्युवाच५४२. . अर्थिभ्यः कनकस्य दीपकपिशा विश्राणिताः कोटयो, __ वादेषु प्रतिवादिना प्रतिहताः संस्कारगर्भा गिरः। उत्खातप्रतिरोपितैपतिभिः सारैरिव क्रीडितं, __ कर्त्तव्यं कृतमर्थना यदि विधेस्तत्रापि सना वयम् // इत्युदीर्य स्वधैर्येण भूपतिर्भूरिभाग्यवान् / लक्षं लक्षं ददौ तोषादनयोः पारितोषिकम् // 9101. ततो राजा त्रिंशद्वर्पानष्टौ मासान् सप्तविंशतिदिवसान् साम्राज्यं कृत्वा कृतार्थी कृतपुरुषार्थः सर्व विरसावसान विज्ञाय विज्ञशिरोमणिः प्राणान्ते दशधाराधनां विधाय खचित्ते श्रीपञ्चपरमेष्ठीप्रतिष्ठाप्रणष्टकष्टः समाधिखाधीनसाध्या * परमविधिना चरमोच्छासे त्यक्तशरीरादिममत्वस्तत्त्वपरिज्ञानवान् प्राणान् अत्याक्षीत् / सर्वज्ञं हृदि संस्मरन् गुरुमपि श्रीहेमचन्द्र प्रभुम, धर्म तद्गदितं च कल्मषमषीप्रक्षालनापुष्करम् / व्योमाग्निर्यम(१२३०)वत्सरे विषलहर्युत्सर्पि मूर्णभरो, मृत्वाऽवाप कुमारपालनृपतिः स व्यन्तराधीशताम् // ततो लोके हाहाकारो महानभूत् / सर्वत्रलोकानामिति गिरः प्रादुरासन्- . आकर्ण्य प्रतिकाननं पशुगणाश्चौलुक्यभूपव्ययम् , __क्रन्दन्तः कमणं परस्परमदो वक्ष्यन्ति निःसंशयम् / योऽभून्नः कुलवर्द्धनः स सुकृती राजर्षिरस्तं ययौ, यूयं यात दिगन्तरं झटिति रे नो चेन्मृता व्याधतः॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546. 8 कुमारपाठप्रबोधप्रबन्ध नाऽभून भविता पात्र हेमसूरिसमो गुरु / श्रीमान कुमारपालच जिनभक्तो महीपतिः / / आज्ञावर्तिषु मण्डलेष्वष्टादशवादरा दब्दान्येव चतुर्दश प्रसृमरी मारिं निवार्योजसा / कीर्तिस्तम्भनिभां चतुर्दशशतीसंख्यान् विहारांस्तथा, कृत्वा निर्मितवान् कुमारनृपतिजैनो निजैनो व्ययम् / / कर्णाटे गूर्जरे लाटे सौराष्ट्रे कच्छ-सैन्धवे / उच्चायां चैव भंभेया मारवे मालवे तथा // कौंकणे तु तथा राष्ट्र कीरे जाङ्गलके पुनः / सपादलक्षे मेवाडे दीपे (ढील्ल्यां ?) जालन्धरेऽपि च // जन्तूनामभयं सप्तव्यसनानां निषेधनम् / वादनं न्यायघण्टाया रुदतीधनवर्जनम् // किञ्चिद्गुरुमुखाच्छुत्वा किश्चिदक्षरदर्शनात् / प्रवन्धोऽयं कुमारस्य भूपतेलिखितो मया // // इति कुमारपालप्रबोधप्रबन्धः समाप्तः // 550. 551. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 पुरातनाचार्यसंगृहीत [अथ ग्रन्थलेखनप्रशस्तिः / भीमट्रीचैत्रगच्छेशा श्रीधनेश्वरसूरयः / ततः क्रमागतानौमि श्रीभुवनेन्दुसद्गुरून् // 1 // देवभद्रगणीशानां शिष्याः श्रीगच्छनायकाः। विजयचन्द्रसूरीन्द्रास्तपसा घोतिताम्बराः॥२॥ वनसेन-पनचन्द्र-खेमकीर्तिस्तथा गुरुः / हेमकुम्भमुनीन्द्रश्च श्रीयशोभद्रसरिराट् // 3 // श्रीरताकरसूरीणां नान्ना नश्यति कल्मषम् / मुनिशेखरयोगीन्द्रं धर्मदेवगुरुं वरम् // 4 // ज्ञानचन्द्राभयसिंहसूरि तपापरायणम् / हेमचन्द्रप्रभु पन्दे गुणश्रेणिविभूषितम् // 5 // भविकजनसमूहै सेव्यपादारविन्दम्, ___रविकिरणसकासं चन्द्रमाकारसौम्यम् / भवजलनिधिनावं दुःखपाशपणाशम्, जयतिलकगुरुं श्रीसूरिराजं नमामि // 6 // धर्मशेवर-माणिक्यसूरि माणिक्यसंनिभम् / / रत्नसागरसूरीन्द्रं रत्नसिंहगुरुं तथा // 7 // उपाध्यायपदे श्रीमन्मुनिरत्नगणीश्वरान् / नौमि पण्डितसाधूनां क्रमाम्बुजमहं सदा // 8 // श्रीगच्छेशक्रमाम्भोजसेवने भ्रमरास्सदा।। दयावर्द्धननामानः पण्डितास्सपरिच्छदाः // 9 // वेद-रस-वेर्द-चन्द्र गते विक्रमवत्सरे। भव्यलोकप्रबोधाय स्थिता देवलपाटके // 10 // -युग्मम् / तेषामादेशतः श्राद्धैः श्रीकुमारनरेशितुः / वृत्तं लिखापितं रम्यं गच्छोपकृतिहेतवे // 11 // पावन्मेरुर्महाशैलो यावचन्द्र-दिवाकरौ। भूयात् तावत् पुण्यवृद्धयै संघे चरित्रपुस्तकम् // 12 // . . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीतिप्रबन्धान्तर्गत कुमारपालदेवप्रबन्ध / चौलुक्यवंशेग(शध्व)जः श्रीकुमारपालदेवःएको यः सकलं कुतूहलितया म(ब)भ्राम भूमीतलं प्रीत्या यस्य पर्तिवरा समभवत् साम्राज्यलक्ष्मी खयम् / श्रीसिद्धाधिपविप्रयोगविधुरामप्रीणय(द) यः प्रजा कस्यासौ विदितो न गूर्जरपतिश्चालुक्यवंशध्वजः॥१॥ 11. तस्स प्रबन्धो लिख्यते / यथा-श्रीपत्तने श्रियां निकेतने श्रीसिद्धचक्रवती राज्यं करोति / वस पितृव्यस्य त्रिभुवनपालदेवस्य कुमारपालदेवः सुतोऽस्ति / पुत्र्यौ द्वे स्तः / एका प्रेमलदेवी, सपादलक्षाधिपतिना आनाकेन नृपतिना परिणीता / द्वितीया नामलदेवी, राज्ञा महासाधनिकेन प्रता.. पमल्लेन परिणीता / अन्यदा श्रीसिद्धराजो निरपत्यश्चिन्तयति निर्नामताम्वुधौ मजदु राज्यभूवलयोद्धृतो। . पुत्राः क्रीडावराहन्तः संपद्यन्ते कृताऽऽत्मनाम् // 2 // घटिकाऽप्येकया घट्या कुण्डीपयसि मजति / गोत्रं पुनरपुत्रस्य क्षणान्निर्नामताम्भसि // 3 // इति विचिन्त्य देवपत्तने श्रीसोमेश्वरयात्रायै चचाल / तत्र गत्वा सोमेश्वरः पूजादिमिराराधितः / स प्रत्यक्षीभूय उवाच -'स्कन्धे विहङ्गिकां विधाय इहाऽऽगमने कष्टं कथं कृतम् / तेनोकम् -'किं तेन ? राज्यार्थम्' / 'राज्यधरस्ते कुमारपालदेवो भविष्यति' / नृपो निवृत्त्याऽऽयातस्त्वेवमचिन्तयत्-'चेदमुं मारयामि तदा सोमेश्वरः सुतं यच्छति' / अतस्तं मारयितुमारेभे / साप (सोऽपि) विंशद्वर्षदेशीयः पुराच्छन्नो निस्ससार / अमन् सप्तवारं केदारयात्रामकरोत् / अन्तराऽन्तरा पत्तने छन्नमभ्येति / 62. एकदा तपश्चि(खि)वेषधरः केनापि नृपाय निवेदितः / मार्ग्यमाणो न दृष्टः / सज्जनकुलालेन कवकोठीमध्ये नीवाहे प्रक्षिप्य राजपुरुषेभ्यो रक्षितः / तनायया उक्तम् -'रक्ष रक्ष, असौ ते चित्रकूटं दास्यति / अय निःसृत्य नष्टः / 63. पुनरेकदा तपश्चि(खि)वेषधरः पत्तनं प्रविष्टः / अनादिराउलमठे प्रविष्टः / तत्र प्रमन्नेकदा श्रीहे. माचार्याणां पो(पौ)पधागारे प्रविष्टः / व्याख्याने जायमाने कमलिकोपरि भरितवेष्टनं दृष्टम् / तेन चिन्तितम् -" 'याचिप्येऽमुं जटांवेष्टनाय, पर(९) दास्यन्ति न वा इति वक्तुं न शक्नोति' / ऊर्द्ध दृष्ट्वा श्रीहेमाचार्येनि(नि)~बनमालोक्य उक्तम् -'क्षुल्लक ! राजपुत्रार्थे पढें मुञ्च' / तेन सक्रोधमुक्तम् -'अहं राउलो वा राजपुत्रो वा ?' गुरुभिरुक्तम् –'उत्स(सु)को मा भव / यदा भविष्यसि तदा राजानं भणिष्यामि' / तेन खजटामिः पदौ प्रमा र्योक्तम् -'कदा[स उष्णो वासरो भावी?' / तदा 'संवत् 1199 वर्षे मागसिरवदि 4 रखौ तव राज्यम्'पत्रिकाऽर्पिता / 'परं निकटा आपदस्ति, शीघ्रं मे पौषधागारे समागन्तव्यम्'। कु. पा.च०१४-१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112-2 चतुरशीतिप्रबन्धान्तर्गत इतः केनापि नृपा[य] तपश्चि(खि)वेषो मठस्थो निवेदितः / राज्ञा तपश्चि(खि)नो निमत्रिताः / अनादिराउलस्तपश्चि(खि)सप्तशत्या भोजनाय गतः / इतः तपश्चि(खि)नां पार्थयोः खड्गधरा नराः .स्थापिताः / तेषामिदमुक्तम्-'यस्य तपश्चि(खि)नोऽहं पादौ क्षालयन् विमुच्य उपरि यामि स [मारणीय एव' / इतस्तस्स पदक्षालने नृपश्चरणलक्षणं ललाटं चालोक्य विमुच्य 'निर्विण्णोऽहम्' / पुरोहितं तत्र ने(नि)युज्य उपरि गतः / ', तद्भाग्यात् संज्ञा सुभटानां विस्मृता / ततः कुमरिक एकं करं उदरे दत्त्वा, एक मुखे [दत्त्वा] पित्तप्रकोपव्याजा नष्टः / इतः श्रीहेमाचार्या भुक्तोत्तरं द्व(द्वा)रमुद्घाट्य ऊर्धाः सन्ति / सोऽपि पौषधागारे प्रविष्टः / उपवरकान्तः प्रक्षिप्य गुरुभिस्तालकं दत्तम् / पश्चापः कलकलमश्रुत्वा पत्तीन् हक्कयामास / भरटिका विस्मृताः। '2!! विलोकयत तम्' / अश्ववारा प्रस्ताः / श्रीहेमाचायपौषधागाररथ्यायां समायाताः। एकेन हट्टिकेन महेश्वरिणा पृष्टाः-'किमवि(व)लोक्यते ? तैरुक्तम् -'कुमरिकः / तेनोक्तम् -'श्वेताम्बराणां पौषधागारेऽस्ति' / . तत्र गताः / नतिपूर्व हेमाचार्याः पृष्टाः-'अत्र कुमरिकः कथ्यते' / 'तं न विद्मः / कोऽपि भिक्षुको द्वारं प्रेर्य प्रविष्टोऽस्यां निःश्रेण्या अधिरुह्य गतः' / ते गताः / पुनम(4)मन्तो रथ्याद्वारे समायाताः / तेन वणिजा उक्तम्'किमवलोक्यते ' 'कुमरिकः / तेनोक्तम् -'तत्र किं न प्राप्तः१, चलत दर्शयामि' / अग्रे भूतः, समायातः / उक्तम् -'कुमरिकं [कथं] नापर्य(पैय)त ? तैरुक्तम् -'विलोकयत' / सोऽपि राजपुरुषैः सह शोधितुं प्रवृत्तः / 'तालकं दृष्टम् / 'अमुमपाकुरुत, इहाऽऽस्ते' / पूज्यरुक्तम् -'असौ राजपाटकवास्तव्यस्य व्यव०. धरणिगस्य // भाण्डशाला / ततः कुञ्चिकामानीयोद्घाटयत' / राजपुत्रैरुक्तम् -'कस्तत्र गत आयातो वा?, चलत' / स कथयति-: 'मा व्रजत, अस्त्येव' / इतो राज्ञा चिन्तितम्-. मृग-मीन-सज्जनानां तृण-जल-संतोषविहितवृत्तीनाम् / लुब्धक-धीवर-पिशुना निष्कारणवैरिणो जगति // 4 // एवं चिन्तयन् निरशनो दिनत्रयमस्थात् / तृतीयदिनरात्रौ भाण्डागारिककपर्दी पौषधागारे समायातः / . परिजनं बाह्ये स्थाप्य नमस्कारं कृत्वा उपविष्टः / गुरुभिरुक्तम् -'कोऽप्यस्माभिर्भवदलाद् यदन्यायः कृतस्तत्र किम् ?' तेनोक्तम् -'न संभाव्यते / ' 'भविष्यति चेत् ?' 'तदा वारयितुं क्षमः' / उक्तम्-'कुमरिकः स्थापितः' / 'किं तेन नृपापथ्यकारिणा ? / 'असौ कालेन महाप्रभावको भावी; परं दिनत्रयं निरशनस्य जातम्' / ततो द्वारमुद्पाठ्य स्खवेषं परिधाप्य गृहं नीत्वा मासं यावच्छन्नं स्थापितः / इतः पत्रदौःस्थ्ये सति नृपेन(ण) भाण्डागारिक उक्तः-'वं याहि, मार्गसौरथ्यं कुरु' / भाण्डागारिकेणान्यकरभी शोधिता(१)। स्वयं तथैव स्थितः / बहिनीत्वा * योजनविंशति प्रान्ते मुमोच / / - 64. स भ्रमन् कान्ती [नगरी गत]स्तत्र सरसि तटे प्रासादे शिरः पूज्यमानं दृष्ट्वा पप्रच्छ -'किमेतत् शिरः पूज्यत ?' देवार्चकनोक्तम् -'अत्र सरसि तप्क(स्क)रस्य शिरः केनापि नि[]कृत्य क्षिप्तम् / तदनु तत् प्रातः घातटं (प्रात)रिदं भूते-'ति' [ज]वात् उक्त्वा पुनः प्रातक्ति / नृपेणामात्याः पृष्टास्तैश्च पण्डिताः / तैर्मासो याचितः। मुख्यपण्डितः स्वगृहे सूत्रं कृत्वा निर्ययौ / अटवीं भ्रमन्नेकस्मिन् कोटरे रात्रौ स्थितः / तत्र वृक्षे भूता [:] * सन्ति / लघुमिरुक्तम् -'ता[त] अस्माकं [क्षुधा' / ता] तेनोक्तम् -'दिनत्रयानन्तरं यास्यति' / 'कथं ?' प्रत्यासन्नपुरे [नृपेण] पण्डिताः शिरसो वाक्यं पृष्टाः, ते न जानन्ति, नरेन्द्रस्तान् सकुटुम्बान् व्यापादयिष्यति' / [] पृष्टम् -'तात ! किं कारणम् ? निर्बन्धे कृते उक्तम्-'लोभेन छुडति' / तत् पण्डितेन श्रुतम् / गृहमायातः / मासश्रा(प्रा)न्ते नृपेणाऽऽहूतस्तेन सरस्तीरे गत्वा उक्तम् -'यदि ला(लो)भेन गुडति, तदा पुनर्न वाच्यम्' / शिरस्तथैव स्थितम् / तं (तत्र) नृपेण प्रासादः कृतः / अतो मध्ये शिरः पूज्यते' / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रबन्ध 65. ततः कुडंगेश्वरप्रासादे श्रीसिद्धसेन-दिवाकरेण स्वयं लिखितां गायां ददर्श पुण्णे वाससहस्से सयंमि वामाण नवनवइ अहिए। होही कुमरनरिंदो तुह विक्कमराय ! सारिच्छो // 5 // ___एतां दृष्ट्वा श्रीहेमसूरीणां वचो निश्चिकाय / 66. एकदा कापि वृक्षतले निविष्टः / पत्रपति(१)मूख(प)केनाऽऽकृष्य द्रम्माणां शतपञ्चकं पुजीकृतं दृष्ट्वा, / जंग्राह / स अदृष्ट्वा मृतः / नृपः पश्चात्तापपरो जज्ञे / 17. इत एकदा शीतातॊ जावालिपुरप्रत्यासन्ने वाघराग्रामे गतः / तत्र तिहुणसिंहव्यवहरकगृहे गोजार्या शीतरक्षायै कम्बलमेकं याचित्वा सुष्वाप / गच्छन् तमेवाऽऽदाय गतः। 68. क्रमेण कश्चित् व्यवहारी भार्यां नीत्वा प्रौढपरिकरण पत्तनं प्रतिनिवृत्तः / तेन सार्थेन मिलितः / सार्थे स्थिते भोजनवेलायां सार्थपेन स्वदृष्टौ परिजनो भोजितः / योगी तथैव निरन्नोऽस्थात् / तद्भार्याऽपि उपविश्य . भोक्तुं तस्य क्रूरस्य दृष्टौ दातुमक्षमा सती भोज्यं त्यक्त्वा उत्थिता / एवं द्वितीयदिने, तृतीयेऽपि / चतुर्थे दिने कस्यापि ग्रामस्य प्रत्यासन्ने स्थितः / सोऽन्तर्गतः / ततस्तत्पत्नी परिवेष्य योगिनं ययौ-'भो योगिन् ! भुज्यताम् / तेनोक्तम्-'भुक्ता[:] स्मः' तयोक्तम्-'मा जानीथा यदहं भुक्ता / भुज्यतां यथाऽहमपि भुजे' / राज्ञा चिन्तितम् - 'एषा कल्पवल्ली, स तु विषद्रुः'। 69. क्रमेण पत्तने गतः / रात्रौ कान्दविकगृहे गतः / लोहटिकः समर्पितः। स दिनद्वयक्षुधितो न तृप्तः / / कान्दविकेन प्रिया उक्ता-'असौ योगी न तृप्तः, तथा परिवेषय, आकण्ठं भोजितः'। पश्चात् कम्बल्येका प्रावरणाय दत्ता। __पुन[:] भ्रमन्नेकदोजयिन्यां चतुष्पथे मोचिकाऽऽपणि पादुकासन्धानाय उपविष्टः / इतः केनाप्युक्तम् - 'यत् गूर्जराधिपति[:] मृतः' / तत् श्रुत्वा उन्मना [अ]भूदु / मोचिकेन ज्ञातम्-कोऽप्येष नृपसगीतनः / ततः पृष्टवान् -'नृपः किं वो भवति ?' तेनोक्तम् --'न किमपि, परं राज्ञो [मृत्योः] दुःखं कस्य न स्यात् ? | भ्रान्त्वा पत्तने प्रविष्टः। 610. इतः पत्तने भगिनीपतिः प्रतापमलो(ल्लो) महासाधनिकः, तेन जाकरण्येका गृहे समानीता / तथा . पणबन्धः कृतः-'यदन्याः सर्वाः प्रियाः पितृगृहे प्र(प्रे)प्या[:]। तेन तथाकृते कुमारपालभगिनी नामलदेवी पितृगृहमदृष्ट्वा समयज्ञा तस्याश्चरणयोः पपात / तयोक्तम् -'किमिदम् ?' तयोक्तम्-'मम त्वमेव पितृगृहम् तव दासीसमा स्थास्यामि' / तयोक्तम् -'स्थीयताम्' / इतः कुभरिको भगिनीमेत्य प्राह -'अहं बुभुक्षया प्रिये / मम // दशां पश्य' / भगिन्या उक्तम् -'मम भ्राता भवान् ?' / तया वेश्योक्ता --'मम धातुदालिगुरादेशी दीयताम् / तथाकृते सति नित्यं नित्यं दालिं खाणउठे गृह्णाति / इतो नृपे मृते यो यो राज्ये स्थाप्यते, स स प्रधानैरपाक(कि)यते / एवं सिद्धराजाय पाहुक एवं राज्यं कुर्वतः / एकदा प्रतापमल्लो रात्रौ वैकालिकं कर्तुं उपषिष्ठः / सा घेश्या परिवि(वे)क्यति / नामलईची दीपकरा [अवा] भुखी विद्यते / तां दृष्ट्वा प्रतापमह उवाच-१ बत (तब) भ्राता काध्यस्ति ?' तया बेश्या , 'दृष्य / तयोक्तम् -'खाणउठे प्रतिदिनं दालिं गृह्णा(ला)ति' / तत्र पू(): / तैम कम्-'राज्यप्राप्ती दैवं नन्तु पादमवधार[य]त' / तत्रायं सङ्केतः / मध्ये मल्लौ मुध्येते / यः सुखावहो न भवति, तसाङ्गानि हालयन्ति / तता प्रतापमलनोक्तम् -'कथमेवं दवनमस्करण आभरणैर्बिना कर्थ गम्यते' / तत् कूड चितम् / अध माखपारके(?) जाते प्रतापमल्लेनोक्तम् -'मम त्रयो लक्षाः प्रसाद देहि' / राहोक्तम्-'कैन कारणेन / 'मया राज्य Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112-4 चतुरशीतिप्रवाधान्तर्गत दत्तम्' / 'ख(तव)पितुवा(वा) मदीयस्य वा तत्' / ततः प्रतापमल्लेन प्रधानैः सह पर्यालोचितम्-'यदस्मात् जीवितसन्देहः; ततोऽसौ मार्य एव / आखेटकव्याजात् बाझे नीत्वा' ।इत्य(त्या)लोचे क्ष(कृ)ते प्रातर्देवो विज्ञप्त:देव ! आखेटके गम्यते / यतः परिचयं च लक्ष(क्ष्य)निपातने भयरुषोश्च तद(दि)ङ्गितयोधनम् / श्रमजयात् प्रगुणां च करोति सा तनुमतोऽनुमतः सचिवीययो (4) // 6 // इतः कालुंभारवीअपरिसरे प्रतापमले(ल)न नृपाज्ञां दत्वा, सर्वः कोऽपि वारितः। इतः कृष्णसर्ग पष्ट्वा नृपेणाश्च उत्थापितः / प्रधानरुक्तम्-'वलमानो व्यापादनीयः' / इतः कृष्णदेवो कटकं विमुच्य पृष्टौ गतः / नृपं मारितमृगं वलमान(न) प्राह-एनं त्यज, विधिनिष्टः / गतमात्र एव मारिष्यसे' / तथा प्रतोल्यो दत्ताः। अन्धकारप्रतोल्युद्घाटाऽस्ति / तस्यां प्रविश्य धवलगृहे गतः। पटी फेरिता / इतः प्रतापमलो(लो) भ्रातरमष्टा // तत एव तथा नष्टः, यथा पुनः शुद्धिरपि न जाता / ततः सर्वोऽपि व्यावृत्तः / ततो नृपः कुपितो दिने दिने कटमात् व्यापादयितुं लमः। एवं दुर्ध्यानपरस्य वर्षत्रयं जातम् / ततो राज्यसलो जातः।। 611. इत एकदा नृपस्य शरीरेऽरतिर्जाता। कथमपि निवर्तते न / इत रात्रौ राज्ञा कपी माण्डागारिक उक्तःमम देहे किञ्चिदसमाधिरस्ति' / कपी पौषधागारे समायातः / तस्यैष निश्चयः / गुरुमिरुक्तम् -'कथमुत्सूर, कृतम् ? / देवस्यारतिरुक्ता / तर्हि त्वरितं याहि, नृपमुपरितनभूमेरध[:] समानय' / ततः स त्वरितं गतः / . राज्ञोक्तम्-'कः ?'; 'कपी'; 'कथम् ?', 'देव ! विज्ञप्तिरस्ति, अधः पादमवधार्यताम्' / यावदधोभूमौ नीतस्तापदुपरि निर्घातोऽभूत् / 'किमिदम् ?' नृपस्त्व(स्तू)परि गतः पश्यति / मण्डपिकां मित्त्वा शय्योपरि तावती पतितां शिलों वीक्ष्य कण्टकितो नृपोऽवादीत्-'भो कपर्दिन् ! त्वयेदं कथं ज्ञातम् ?'; 'देव ! श्रीहेमाचार्यैरुक्तम्' / 'ते महात्मानः मम सारामित्थं कुर्वन्ति / अहं वेपि च न त[] | प्रात()टै क्ष्ये / ... 612. इतः प्रातः श्रीहेमसूरप आकारिताः / नृपस्तु भूलठनेनाययौ / ततः सिंहासने निवेश्य नमश्चके / * तैयाशीर्वादो दत्तः गौः कामधुक सवृषभा मरुदेविरम्बा कल्पद्रुमोऽरुणरुचिः स युगादिदेवः / चिन्तामणिविमलमूर्तिरथादिनाथः शत्रुञ्जये वदतु ते तव वाञ्छितानि // 7 // नृपेणोक्तम् -'प्रभो ! काऽसौ शिला 1 / उक्तं गुरुभिः-'पउतारपुत्रचाहडो यो राज्याद् दूरीकृतः स श्रीपवर्ष)ते गतः / भैरवानन्दमाराध्य तस्मात् शिलाविकुर्विणी(णी) विद्यां प्राप / सा शिला ततश्चलिता। इतो भवतामरतिरभूत्' / साऽर्द्धप्रहरे प्रा[प्ता] / नृपेनो(गो)क्तम् -'अतः परं भवद्भिर्दत्तं राज्यं पाल्यते / परं किधिदथ विज्ञपयामि / भवद्भिः स्वधर्मः सर्वथा नोपदेष्टव्यः / भवतां धर्मे श्रुते, येन सोमेश्वरेण राज्यं दत्तं स एव त्यज्यते' / 'राजन्नस्माकं धर्मोऽधिको नास्ति' / उच्यते अणवद्वियस्स धम्म माहु कहिनासु सुव कुसलो वि / कणगाउराण दुद्धं स. सकरं होइ निषो छ // 8 // . 113. एकदा नृपेणोक्ताः-'भगवन् ! मे किश्चित् कृत्यं दिशत' / ततो गुरुभिरुक्तम् -'देवपत्तने श्रीसोमेश्वरस प्रासादः पतितोऽस्ति, स समुद्रियताम्' / नृपेण द्विजास्तपखिन उक्ताः-'मम नैकेनाप्युपदेशा(शो) दत्तः / इतः प्रासादप्रारम्भे कृते श्रीहेमाचार्यैरुक्तम् -'देव ! कोऽप्यभिग्रहो गृह्यताम्' / 'कस्य ?', 'मांसम्य' / तथाकृते सत्वरं कर्मस्थाये निष्पपमाने प्रासादो निष्पन्नः / नृपेणोक्तम् -'भगवान् ] ! छिद्रं यच्छत' / 'यात्रां Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रबन्ध 212-1 विना देव ! कथं छिद्रम् 1" / 'यूयमेष्यय 1' / 'अस्माकमेतदेव प्रयोजनम्' / 'किं वाहनादि विलोक्यते 1 / 'तव मूरस्माकं चरणाः' / नृपश्चलितो यात्रायै / श्रीहेमसूरयोऽपि सहैव प्रस्थिताः / धवलकके प्राप्ते, तत्र माग्ग(ग)इयम्-एकः श्रीशत्रुञ्जयोपरि, द्वितीयो देवपत्तने / गुरुभिर्मुल्कलापितः-'देव ! वयं शत्रुञ्जये देवान् नन्तुं यासामः / द्विजैरुक्तम् -'चलिताः' / नृपेणोकम् -'देवपत्तने समेस्स(प्य)थ' / 'भवतां पूर्व पस्या(श्यामः' / मुरवस्तीर्थ नत्वा पूर्व[मेव] देवपत्तने गताः। नृपेण शम्भुं नत्वा उक्तम् -'भगवन्नभिग्रहानुग्रहं यच्छत' / / 'देव ! कथमुच्छ (सु)काः 1 यदि देवः प्रत्यक्षीभूयानुग्रहं यच्छति, तदा भव्यम्' / 'कथमेतत् भविष्यति ? / इतो द्विजैरुक्तम् -'देव ! हेमाचार्याः शिवं न नमन्ति' / 'भगवन् ! ईशः किं न नतिमईति' / 'देव! पूजां विना का नतिः 1 उपस्करेष्वानीतेषु, मत्रपूर्वा पूजां कृत्वा, उक्तम् भवबीजाकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य / ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै // 9 // इति [उदीर्य नतिः कृता / गण्डपतिनाथया(?)दिभिरुक्तम् -'एषा परमार्थतो जिनस्सैव नतिः / देव! न तेऽर्हस्य नतिः / काऽपरस्य ? / इतो रात्रौ पूजोपचारान् सजयित्वा, श्रीहेमाचार्याः सनृपा मध्ये प्रविश्य खाने स्थिताः / अर्द्धरात्रौ दीपेष्वपाकृतेषु प्रासादः कम्पितः-'भगवन् ! किमेतत् ?', 'स्थिरीभवत' / इतो जटामुकुटमण्डितशिरा भस्मोद्भूतो वृषवाहनः प्रत्यक्षोऽभूत् / नृपेन(ग) नत्वा ह(११)ष्टं-'देव ! आदिश, मया . धर्मः कः कार्यः। कथं मम कटके मारिर्निवर्तिष्यते ? / सोमे० उक्तम् निवसइ हंसी कमलि जिम जीवदया जसु चित्ति / तसु पय तुम्ह आराहणिण होस्यइ अशिव निरत्ति // 10 // भो महाराज! अमुं गुरुं लब्ध्वा सन्देहो न विधेयः' / प्रातर्नुपेण दर्शनिन आहूय रात्रिवृत्तमुक्तम् / तैर्विमृश्य प्रोक्तम्-जिनं विनाऽन्यस्य कस्य' / ततो मांसाभिग्रहः समस्तोऽभूत् / तदनु श्रावकत्वं सम्यगङ्गीचके / 614. वाग्भटदेवः सर्वसर्वेश्वरः प्रधानः / कपर्दी भाण्डागारिकः कृतः। सज्जनकुम्भकारस चित्रकूट(). पाटीसहितं दत्तम् / स तत्र राजा कृतः। - एकादश शतानि श्रीमालीवणिजां व्यापारिणः कृताः / पञ्चाणवति 95 वणिजो प्रामादिदानेन महातः(न्तः) कृताः / जिणहाश्रेष्ठेर्धवलककं ददौ / 615. एकदा वाघराग्रामात् शकटानि घृतस्य भृत्वा तिहुणसिंहव्यवहारकः पत्तनमाययौ / मण्डपिकैः स्थितौ पातितः, कथश्चिन्न छुटति / तेन राजगृहद्वारि पूत्कृतम् / नृपेणाकारितः / उपलक्ष्य प्रोक्तः-'भो. श्रेष्ठिन् ! क वससि ? / तेनोक्ते स्थाने नृप [1] प्राह --'यत् शीत माले कश्चित् योगी तब गौजायों त्वयार्पितकम्बलः सुतः, स कम्बलमन गतः, तत् स्मर्रास ) तवाशिजीता भविष्यति 9 / देव / कम्पलमात्ररस काउतिः / नृपेणोक्तम् - 'सोऽहम् / तव ना[मा] योऽन्योऽपि समायाति तस्स दाणं न' / मण्डपिकान् निर्धाट्य तं च व्यवहारकं सन्म(न्मा)न्य विसृष्टवान् / प्राक्षणानां गुलवेडं ग्रामद्वादशसहितं ददौ / योगिवेषधरस्य यया श्रेष्ठिपत्या मार्गे लानत्रयान्ते करम्बो दत्तः, तस्या नाना करम्बावसही कारिता, कालिङ्गिकं ना(प्रा?)म दत्तम् / . मूषकद्रव्यानक्रये उंदिरवसही कारिता / येन कान्दविकेन [दिन]षयान्ते भोजितः, कम्बलिदा दत्ता, तस्य ग्रामो दत्तः / उज्जयिन्यां येन मोचिकेन चरणत्राणानि दत्तान्यासन् तस्य मेवाडे प्रामचतुष्कं दत्तम् / तपखिवेषघरस्य क्षुधितस्य धरणिगश्रेष्ठिना गृहिणी उक्ता- 'अस्य भोजनं देहि' / तयोक्तम् -'कयामसो मालासापातलां दास्यति / तस्या[:] तां दत्त्वा भगिनीति मानिता / नृपस्तु मजाजैनो जातः / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीतिप्रवन्धान्तर्गत अथ हेमसूरिप्रबन्धःअथ येषां श्रीहेमसुरीणां प्रा(प्र)सादाकृपेन(ण) धर्मो ज्ञातस्तेषां संबन्धः प्रोच्यते११६. घंघकापुरे मोढज्ञातीयः श्रेष्ठिचाचउ / तस्य प्रिया पाहिणि[B] | सुत २-वृद्धः कान्हा, [लघुः] चांगदेवः 2 / अन्यदा श्रेष्टि(ठी) विपन्नः / पाहिणिलिकावादाय धवलकके किञ्चित् सगीनस * महं० धरणिग[साधारे गता। ... इतः श्रीदेवचन्द्राचार्या मत्रिणो वन्दामनाय समायाताः / पौषधागारे स्थिताः / मत्रिपनी पाहिल्या सपुत्रया सह वन्दितुमायाता / इतः पाहिण्यङ्गजो वर्षचतुष्टयमितः सिंहासने निविष्टः / गुरवः समायाताः। तं पालं वीक्ष्य पृष्टम् -'मत्रिपत्नि! एष भवत्या अङ्गजः 1 / 'भगवन् ! अस्याः म[म स] गोनायाः / ज्ञाखा वि(दि)प्रहरानन्तरं मत्रिपनी आहूय उक्ता-'एष शिशुरस्माकं दीयताम् , असौ प्रभावको भावी' / 'भगवन् ! " मम पुत्राणां मध्ये यः कोऽप्युपकुरुते तं गृही(ही)ध्वम् / परमस्य माता दूयते' / गुरुभिरुक्तम्-तव पुत्रा अस्मदीया एव' / तया मत्रिणोऽने उक्तम् / तेन सप्रश्रयं सा पृष्टा, न मन्यते। एकदा सबालका गुरवश्छन्नं मत्रिणा खम्भतीर्थे प्रहिताः / पाहिणी दुःखपरां मत्री चरणयोर्निपत्याह-'त्वं मम माता; अहं तव सुतः। अमुं पुत्र(त्र) मे देहि' / तया मानितः / क्रमेण दीक्षा जाता। 617. अधीतविद्यः सन् गुरुं आह-'भगवन् ! अहं कास्मीरे सरस्वतीमाराधयितुं यास्यामि / निर्बन्ध कृत्वा"ऽऽत्मतृतीया एकं भारवाहकमादाय सिद्धपुरे गताः / स भारवाहको'न तृष्यतिः(१)। दीक्षा दत्ता, यशचन्द्रेति नाम कृतम् / इतो स(रा)त्री देवी संमुखमायाता, प्राह-'वत्स! नाहं तवागच्छतः प्रत्यवायं सहे / तुष्टाऽस्मि / पत्तने व्रज'। दिनप्रहरैकसमये पत्तने गुरूणां पार्थे गताः / गुरवो हृष्टाः। इत एको नरः समेत्याह'पुस्तकान्यानीतास्मि(नि) संभालयत' / उत्थाय कंठालामध्ये आनीता[नि] / नरः सवृषोऽपि अदृश्यो जाता। यः सन्देहो भवति तेषु पुस्तकेषु सर्वमस्ति / इतो गुरुभिः सूरिपदे स्थापिताः / - 618. एकदा श्रीसिद्धराजसभायां गताः। तत्र द्विजैरुक्तम् -'वजितः(तिनः) सूर्य न मन्यन्ते'।हेमाचार्यरुक्तम् __ अधाम धामधामेदं वयमेव सदा हृदि / यस्यास्तव्यसने प्राप्ते त्यजामो भोजनं सदा // 11 // पुनरेकदा तैरेवोक्तं नृपसदसि विश्वामित्र-पराशरप्रभृतयो ये चाम्वुपत्राशिन स्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः। .... आहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा / स्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भः समालोक्यताम् // 12 // श्री हे० उक्तम् - सिंहो बली द्विरद]शूकरमांसभोजी संवत्सरेण रतमेति किलैकवारम् / पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः // 13 // 619. अन्यदा द्विजैरुक्तम् - 'श्वेताम्बरा ! व्याकरणमस्माकमेव अधीयताम्' / इतः श्रीहेमचन्द्राभिधान सपादलक्षमित पञ्चाङ्गमस्पैरेव दिननिर्मितम् / पुरुषाः पुस्तकं गृहीत्वा कामीरं प्रहिताः / देव्यग्रे पुस्तकमधिवासि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रबन्ध 112-7 तम् / प्रातः शलाकाक्षेपेऽहमिति निःसृतं दृष्ट्वा पण्डितैग्नम - एकदर्शनसम्मतमिति मत्वा देवी भारती न मन्यते / पश्चादासताः / एकन मत्रिणा भ्रष्टाधिकारेणोक्तम् -'मां पयत' / स पुस्तकमादाय गतः / तथैवाईमिति नि[]मतम् / मत्रिणोक्तम् - 'सर्वदेव[मयो नमस्कारः-- अकारेण भवेत(द) विष्णु(ष्ण) रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः / हकारेण हरः प्रोक्तस्तम्यान्ते परमं पदम् // 14 // इत्याख्याय भारतीमभ्यर्च्य पुनः पत्तनमाययौ / उत्सवेन राजकुले नीतं पुस्तकम् / ततः कविभिरुक्तम् भ्रातः ! संवृणु पाणिनिप्रलपितं कातन्त्रकन्था वृथा, मा कार्षीः कटुशाकटायनवचः क्षुद्रण चान्द्रेण किम् / कः कण्ठाभरणादिभिर्वठरयत्यात्मानमन्यरपि श्रूयन्ते यदि यावदर्थमधुरा श्रीसिद्धहेमोक्तयः // 15 // राज्ञा महामानं दत्तम् / 620. एकदा सिद्धराजे धारायां गते द्विजैविज्ञप्तम् –'देव! सर्वत्र माहेश्वरेषु स्थानेषु जैनाः प्रासादाः सन्ति। चतुरदरितिषु महास्थानेषु वृद्धनगरादिपु / तथा केदारे वाराणस्याम् उज्जयिन्यो नागदहे द्वारिकायां ...... पाट के देवपत्तनेऽर्बुदाद्री सिद्धपुरे मथुरायां हस्तिनापुरे भृगुपुरादौ च / सर्वत्र जिनप्रासादाः सन्ति / जैनस्थानेषु माहेश्वरा न / यदि देवाज्ञा भवति तदा शत्रुञ्जये रैवतके च देवनाना प्रासादाः // कार्यन्ते' / राजा [दत्तः] गजादेशः श्रीपत्तनसंघस्य / प्रलोक्य द्विधा कृतम् / द्विजैरुक्तम् -'कथं नृपो मृतो दृष्टः, यदेवं राजशासनं विदार्यत ?' / तरक्तम् -'निवेदयत राज्ञः, शासनं विदारितम् ; भवतां किम् ? / तैपाय गत्वा निवेदितम् / नृपेणोक्तम् -'तत्र गतानां वार्ता' / धारां ति(वि)जित्य प्राप्तस्य प्रवेशे जाते सर्वः कोऽप्याशीर्वाददा[ना]य हेमाचार्य विना प्राप्तः / 'कथमत्र हेमाचार्या न सन्ति, यन्नायाताः ? / द्विजैरुक्तम् - 'देव ! रानादेश विदार्य केन मुखेनायान्ति ?' / इतस्तुर्ये दिने श्रीहेमाचार्यानागच्छतो वीक्ष्य नृपः प्राह - // 'कस्मा[] भ्राता चिरादन्येति ?' / इतः श्रीहे० उक्तम् -'देव ! सामग्री कुर्वतां दिना लग्नाः' / नृपणोक्तम् शीतलान्नं सुताजन्म दुर्वातदृषिता कृषिः। खजने मिलितस्थैर्य स्वादुद्दीनं चतुष्टयम // 16 // तत आचख्युः-'देव ! एषा सामग्री गलिम, "भि कानगो"यादि उक्ते, द्विजैरुक्तम् -'देव ! पच्छ्यन्ते राजशासनविदा[रणकारणम्' / राज्ञोक्तम् आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां वृत्तिच्छेदो द्विजन्मनाम् / पृथग(क)शय्या च नारीणामशस्नो वध उच्यते // 15 // 'किमहं विरूपं कारितवान् ? प्रासादकारणे पुण्यं भवति' / 'देव ! श्रृयताम् - भवताऽहं बन्धुत्वे स्थापितः / बन्धुः स यो बन्धोहितं चिन्तयति / त्वत्तः पूर्वेण नृपतिना केनापि प्रासादो न कारितः' / 'कथम् 'इदं सिद्धक्षेत्रम् , सिद्धस्थानेष्वसिद्धनिवेशो राज्यस्य क्षयहेतवे / अतः स्फाटितम्' / ततस्तत्र महेश्वरप्रासादाः स्थिताः। - 21. अथ श्रीहेमाचार्यास्त्रिभुवनस्वामिनी विद्यामाराधयितुकामा भाण्डागारिकं कपर्दिनं प्राहुः -'यन्मेहताग्रामे तिहुणसिंहः कौटुम्बिकः / तस्य पुत्राश्चत्वारः / लघोर्वधूः पमिनी / यदि साऽऽयाति तदा तस्यावाच्य Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीतिप्रवन्धान्तर्गत देशे दिनत्रयं जापे दत्ते देवी प्रसीदति / एतदति दुष्करम्' / कपर्दिनोक्तम् -'चित(न्ता) न विधेया' / माण्डाः पारिकस्तत्र गतः कौटुम्बिकगृहे / तेन सत्कृतः / प्रयोजनं दृष्टः(पृष्टम्)। भाण्डा० उक्तम् -लघुपुषवर्धू ममा पय / तेनोक्तम्-'किमिदमादिशसि?' / 'एवमेव, विचारोऽपि न कर्तव्यः' / तेनोक्तम्-'यदि भवतां विचारे समायातमिदम् , तदा एवमस्तु' / सुखासनेऽधिरोप्य पत्तने समायातः / श्रीहेमसूरिभिः परमानाहारपरैरविकृत . चित्तैस्तस्या योनौ दिनत्रयं जापः कृतः / देवी तुष्य / भाण्डागारिकस्योक्तम् -'देवी तुष्टा, नृपतियोधो याचितः / इयं (मां) स्वस्थाने प्रेषयत' / भाण्डागारिकेण सर्वाङ्गीणाभरणां सवस्त्रां सुखासनमधिरोप्य स्वयं सहायतः ।स शुन्धः, पुनः किम् / भाण्डागारिकेणोक्तम्-'इयं मदीया भगिनी, मया पित[ग]ह नीताऽऽसीत् / मम भगिनीपतिःक? / तं च संभूष्य गृहे गतः।। 622. अथ श्रीकुमारपालदेवः श्रीहेमचन्द्रमी(म्)चे-'भगवन् ! ब(य)यादिशत तदा दन्तान् पातयामि, - यैांसभक्षणं कृतम्' / गुरुभिरुक्तम् -'देव! दन्ता नेत्रे कौँ नासा-एतानि शरीरे रखानि / कथं तैर्विना शोमा / अतो दन्तनिक(क)ये प्रासादान् कारयत' / एवं 32 प्रासादा दन्तनिःक्रये कारिताः / एकदा गुरूणां नृपः स्तुतिमकरोत् / श्रीहेमचन्द्रप्रभुपादपनं वन्दे भवाब्धेस्तरणैकसेतुम् / ललाटपहानरकान्तराज्याक्षरावली येन मम व्यलोपि // 18 // ___राजा तु द्विवेलमावश्यकं करोत्येव / कटके द्रम्मलक्ष 36 ग्रासिकस्स अनादिराउल[स] जटामध्ये स्थापनाचार्यों ध्रियते / ततः कृष्ट्वा स्वर्णपट्टे स्थापिते नृपः प्रतिक्रामति / 84 राणकैः सह, मण्डलीक 72 सह, [च]तुर्भि[:] महाधरैः सह प्रतिदिनं व[दनां] ददाति, नवनवैः स्तोत्रैः स्तुतिभिर्वारके प्रतिक्रामति / नृपस देवी भोपला मुक्त्वा परस्त्रीपरिहारः / यदान(न्य)स्यां मनो याति तदा प्रायश्चित्ते 516 धर्मव्यये / 623. अथैकदा व्याख्यानानन्तरं हरिहरपण्डितेनोक्तम् - पातु वो हेमगोपाल[:] कम्बलं दण्डमुद्बहन् / इत्थमुक्त्वा स्थिते, नृपं कुपितं दृष्ट्वा, पुनरुक्तम् - षट्(इ)दर्शनपशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे // 19 // नृपस्तुष्टो लक्षं ददौ / श्रीहेमानार्यैः पृष्टम् -'कुत आयाताः 1, क यास्यथ ? पण्डितेनोक्तम् - कथाशेषे कर्णे धनिजनकृशा कासिनगरी, __ सहर्ष हेषन्ते हरिहरिति हम्मीरहरयः। सरस्वत्याश्लेषप्रवणलवणोदप्रणयिनि प्रभासस्य क्षेत्रे मम हृदयमुत्कण्ठितमः // 20 // एकदा एकेन चारणेनोक्तम् हेम तुहाला कर [मर]उं जांह अचम्भू सिद्धि / ये चंपिअ हिट्ठामुहा तांह अचम्भू रिद्धि // 21 // नृपेण सहस्रपञ्चकं द्रम्माणां दत्तम् / अन्येन उक्तम् - लच्छि वाणि मुह काणि सा पइं भागी मुह मरउं। हेमसूरि अस्थाणि जे ईसर ते पंडिमा // 22 // Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रवण 112-9 तस्य नृपपारितोषिके 10000 / पुनरेकदा पण्डितेनोक्तम् - सिरिहेमचलणचंदणतिलयं उपिच्छ कुमारपालस्म / भालयले सरलयलो पइडिओ मुत्तिमग्गु छ // 23 // तस्य षोडशसहस्रा दत्ताः / एकदा पं० सोमाईतः श्रीहेमाचार्यास्थानमागत्य [प]त्रकं समर्पयत् / 'कुतः आयाताः ?', 'खर्गात्' / पत्रकं उद्घाटितम् / स्वस्ति श्रीमति पत्तने नृपगुरुं श्रीहेमचन्द्रप्रभु ख[:]शक्रः प्रणिपत्य विज्ञपयति स्वामिन् ! त्वया सस्कृतम् / इन्दोरङ्कमृगे यमस्य महिषे स्वाहाप्रियस्य छगे विष्णो[:] मत्स्य-वराह-कच्छपकुले श्रुत्वाऽभयं तन्वताम् // 24 // तस्य दाने सहस्र 20 / पुनरेकेन पण्डितेनोक्तम् - सप्तर्षयोऽपि खनराः सततं चरन्तो मोनं क्षमा नहि मृगी मृगयोः सकाशात् / जीयात् सदा नृपगुरु प्रभुहेमसूरिरेकेन येन भुवि जन्तुवधो न्यषेधि // 25 // -तस सहस्र 12 / पद्मासनकुमारपालनृपतिर्जज्ञे स चन्द्रान्वये, जैन धर्ममदा(था)प्य पापशमनश्रीहेमचन्द्राद् गुरोः / निर्वीराधनमुज्झता विदधता तादिनिर्नाशनं, नैकेन(?) सुभटेन मोहनपतिर्जिग्ये जगत्कण्टकः // 26 // 324. एकदा नृपो घृतपुरानश्नन् त्यक्त्वा उत्थाय गोषधागारमगमत् / प्रभुं पप्रच्छ-'भगवन् ! श्रावकाणां धृतपुरा मोक्तुं युज्यन्ते / / गुरुराह-वणिजां युज्यन्त, क्षत्रियाणां न; तैस्तु तेषां [मांस] विकल्पः स्यात्' / तदा नृप आह-'मम गुरवः कलिकालसर्वज्ञाः' / 15. एकदा राजपुरुपैर्देवो विज्ञप्तः-'देव ! साधर्मिक मात्सल्यार्थमागच्छत्सु क्षीरेषु पूतरका दृश्यन्ते' / राज्ञा गुरवः पृष्टास्तैरुक्तम्-'करभीक्षीरे गोक्षीरे चैकत्र मिलिते पूनरकाः स्युः' / 'कथम् ?, 'यथा अकुलघाणके बीअ. पष्टो(१) इक्षुपीडने मण्डूका दृश्यन्ते' / पृष्टा दुग्धानेतारः / तैरुक्तम् -'देव ! करभीमपाकृत्य गौ[:] दुग्धा / ततः स्पृष्यास्पृष्ठा पूतरकाः। 626. अमारेरुद्घोपणं चकार / सारि यो मारयति स द्राम 5 दण्ड्यते / पञ्चको यस द्वारे दृश्यते सम द्राम......दण्ड्य ते। कर्णाटे गूर्जरे लाटे सुराष्ट्र कच्छ-सैन्धवे / उचायां चैव भंभेयो मारवे मालवे पुनः // 27 // कौङ्कणे च महाराष्ट्र कीरे जालिन्धरे पुनः। सपादलक्षे मेवाहे योगिन्यां काशिदेशके // 28 // जन्तूनामभयं सप्तव्यसनानां निषेधनम् / पावनं न्यायघण्टाया रुदतीधनवर्जनम् // 29 // 1. पा.प.१४-२ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112-10 चतुरशीतिप्रबन्धान्तर्गत 627. एकदा वाराणस्यां श्रीकुमारपालदेवश्चित्रकरैः पटे सिंहासनस्थं जैत्रचन्द्ररूपं योजितकरसंघटमने खरूपम्, उपरि काव्यश्लोकयुक्तमप्रैषीत् / तत्र प्रधानैर्नृपस्य पटो दर्शितः / 'किमिदम् ? / काव्यं वाचितम् श्रीजैत्रचन्द्र प्रणिपत्य भूपं, विज्ञापयत्येष कुमारपालः / - एकादशानां धुरि य[व] मुख्यो विष्णुस्तदंशाः परिरक्षणीयाः // 30 // विष्णुः शूकररूपेण छागरूपेण षण्मुखः। .. मुनयो मृगरूपेण चरन्ति जगतीतले // 31 // तदोक्तं नृपेण-भिव्यं ज्ञापितः'। गङ्गातटे जालान्येकत्र कृत्वा लक्ष 9 ज्वालयामास / तत्र जीवदया उद्घृष्य। कुडणविजेतृ-भट-अम्बडवृत्तम् / 628. अन्यदा कुखणे जालं पतन्तं श्रुत्वा महिरावण(गाधिपति मल्लिकार्जुनं प्रति दूत प्राहिणोत्-'तया' // विधेयं यथा जालं न पतति तव देशे' / तेन विज्ञापितम् -'यदावयोरेष पणः-कुडणाधिपतिर्जात्राधिपतेः स्थगिकायां पत्राणि पूरयति / तत् करोमि, अन्यत् अधिकं न जाने / अत्र जना मत्स्य-मांसरताः प्रायः, अन्नदौःस्थ्यात् / श्रीकुमारपालेन कथापितम् - यदन्नं तथा प्रक्षि(प्रेषयि)ष्ये यथा यत्तवार्थों भवति / तेनोक्तम् -'सर्वथा नैतत्। इतः श्रीकुमारपालदेवः क्रुद्धः सन् प्राहु-को बीटकं मल्लिकार्जुनस्योपरि गृहीस्स(ग्रहीष्य)ति' इति / श्रीवाहडदेवभ्रात्राऽम्बडेन बीटकं गृहीतम् / प्रौढकटकेन चलितः / तेन मार्गे घाटी रुद्धा / तत्र कटकं हताहतं // जातम् / अम्बडो निवृत्तः / कृष्णशृङ्गारः कृष्णाश्वः कृष्णगुप्तोदरः पत्तने बारे स्थितः / नृपं नन्तुं न याति / नृपेनो(णो)परिस्थितेन गुप्तोदरं दृष्टम् / पृष्टम् -'किमेतत् / / 'अब(म्योडोत्तारकः' / इतः सूर्यास्ते अम्बडो द्वारिकया प्रविश्य नृपं पाश्चात्ये नत्वा पृष्टौ स्थितः। 'अग्रे एही'ति नृपोते, 'देव! मया खखामिनः कालिमा नीता, अतो रात्री समायातः / यथुज्वलो भवामि तदा दिने समागच्छामि' / इतो नृपो पीटकमादाय उक्तवान् - 'गृहीत' कोऽपि न गृह्णाति / तदा भट्टेनोक्तम्- यदि रासभः प्रचण्डा(ण्ड)स्तदा तुरगेन कथमुपमीयते 1, * ज्वलो [बकस्तदा इंसेन कथं उपमीयते ?, यदि काको मत्तस्तदा कोकिलास्वर......स्यात् / यदि भिक्षुता सात् तदा वणिक(र) नृपप्रसादेऽपि क्षत्रियपौरुषान्वितः स्यात्' इत्युक्ते, अम्बडेनागत्य बीटकं गृहीतम् / सम्यैरुक्तम् –'अग्रेऽपि क[क] हत-विप्रहतं कृतम्, शेषमपि तथा करिष्यते' / इतो अम्बडो नृपसमीपमागत्य जगौ-'तुरगाणां पञ्चशतीमर्पय, अश्ववाराणां च'। स तान् गृहीत्वा उपरिपथेन हे[रकं] निक्षिप्य गतः / मल्लिकार्जुनं बेडायां स्थितं अश्वान् वाहयन्तं प्राह -'भो! शखं(क) कुरु' / अम्बडस्तं अङ्गाङ्गेन युद्धा " शिरोपातयत् / इतश्चारणेनोक्तम् - अंबड हूंतउ वाणिअउ, मल्लिकार्जुन हूंतउ राउ / पाडी माथउ वाढिअउं, अउडिहि देविणु पाउ // 32 // शिरश्छित्त्वा वहिआलेः किशोरसप्तशतीः शेषतुरङ्गाश्च, भाण्डागारं, कोष्ठागारं, सेडुअकं दन्तिनं, नवधडी हिरण(ण्य)स्य, चतुरस्रं कलशं, मूटक 9 मौक्तिकानां, शृङ्गारकोटिका[शाटी, सहस्रकिरणताडंकः पापक्षयो हारः, * माणिकउ पछेडउ, संयोगसिद्धि शिप्रा-एवंविधं सर्वमादाय अम्बड[:] पत्तनं गतः / नृपः संमुखमाययौ / मल्लिकार्जुनशिरसा नृपपादावपूजयत् / नृपस्तुष्टः / अम्बडस लाडदेशमुद्रां ददौ / हस्ती दत्तः / कलशच मल्लिकार्जुनजयसूचकः खगुप्तोदरे देयः / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रबन्ध : 112-11 29. इतो हस्तिनमधिरुह्य अम्बडः खगृहं गतवान् / [वाग्भ टदेवा(वो) नमस्कृतः / ............ ................ देवं नमस्कुरु / तथा कृते, कथितम् - 'इयन्ति दिनानि राजपुत्रस्त्वमभूः, अधुना व्यापारी जातः / श्रीहेमसूरीन कुलगुरून नमस्करउं (स्करोत)। पौषधागारे गतः / गुरवो नमस्कृताः। तैस्त धर्मलामो मदत्तः / आशीर्वादोऽस्तु / गृहे गत्वा उक्तम् - 'अहं पौषधागारे प्रहितः, धर्मलाभस्यापि संदेहः' / वाग्भटदेवेन गुरव उक्ताः / तैरुक्तम् -'भृगुकच्छे गतः कथं प्रासादमुद्धरिस्स(व्य)ति श्रीमुनिसुव्रतस्य ?, अनेकानन्यायान् विधास्यति' / मत्रिणा [तस्य] अग्रे उक्तम् –'मम गुरख उद्धृते प्रासादे हृष्टाः' / 'द्विवेलं उद्धृते भोक्ष्ये, परं मम भूर्ज विना न वक्तव्यम्' / चलित्वा भृगुपुरे गतः / प्रवेशे जाते मुंच(मञ्च)मुपविष्टः / 630. इतो देवीपूज(जि)का योगिनीभिरन्विता समेता / अनभ्युत्थिता समीपे [समेत्य विवेश / अम्बडेन कूर्पराहता मञ्चकाद् बहिः पपात / मृतमृता / कर्मस्थायः प्रारब्धः वर्षेसणं (ण सं) पूर्णः / शिलाकोटिघटितः प्रासादो जातः / राणकोदयनस्य मनोरथश्च [सिद्धः] / अम्बडे न] श्रीपत्तने एका विज्ञप्तिः श्रीकुमारदेवस्य, " एका गुरूणाम् , एका वाग्भटदेवस्य, एका श्रीसंघस्स-एवं 4 प्रहिताः / वाग्भटेन श्रीगुरूणां पुरतो विज्ञप्तिा] मुक्ता / 'इदं किम् ? / 'अम्बडस्य विज्ञप्तिः' / 'वर्ष गतस्याऽऽसीत् , अद्य का विज्ञप्तिः 1 / 'विलोक्रयत' / प्रतिष्टो(छो)परि आकारणं दृष्टम् / 'मत्रिन् ! एतत् सत्यम् / 'विज्ञप्तिः कथयति' / 'तर्हि चल्यताम् / नृपो गुरुभिः सह प्राचालीत् / - इतोऽर्द्धमार्गे जनः संमुख्य(ख)माययौ-यदम्बडो न शक्नोति / गुरवः संघ विमुच्य भृगुपुरे गताः / / प्रक्षीणधातुरम्बडो दृष्टः / देवीप्रासादे गत्वा ध्याने निविष्टाः / इतो मुख्यपूजिकोदरे उदरवाढिर्जाता / सा कोकूयते / परिचार्यः समागत्य प्रभुमु(मू)चुः-'अस्माकं स्वामिनी मुच्यन्ते(ताम्)। 'तथाऽम्बडोऽपि विमुच्यताम्' / 'स सकलो जा(ज)ग्धः, पीतश्च' / तāषाऽपि मृ(मि)यताम् , जीवन्ती किं करोति ? एक एव सार्थोऽस्तु'। साऽत्यर्थ पीडिता प्रभूनेत्यावदत्-'प्र(प्रा)सादं विधाय मां मुञ्चत' / 'अम्बडं मुञ्च' / 'तरू(रुत?)वेष्टितं कृत्वा घृतकुम्भ्यां प्रक्षिपत / यदेति वक्ति-ममाऽप(१)तिमा कर्षत / ततः कृष्ट्वा स्नानं कार्यम् / यदा [स] जल्पिष्यते तदा त्वमपि सज्जा भविष्यसि / दिनत्रयान्तेऽम्बडः सजो जातः / साऽपि च / इतः श्रीसंघान्वितो नृपः पादमवधारितः। गुरुभिः साकमम्बडः संमुखो(ख) ययौ / अम्बडेन दत्तकरा गुरवः प्रदक्षिणां यच्छन्ति / प्रासादं तुङ्गमालोक्य गुरुभिरुक्तम् -'मया दे[व]- गुरुं विना कोऽपि न स्तुतः; परं तव कीर्तनेन किश्चित् वक्षा(क्ष्या)मः' / 'आदिशत' किं कृतेन न यत्र त्वं [यत्रत्वं किमसौ कलिः। कलौ चेत् भवतो जन्मि(न्म) कलिरस्तु कृतेन किम् // 33 // प्रतिष्ठा जाता / आरात्रिकोत्तारणाय नृपो विज्ञप्तः / त्वमेवोत्तारय' / वाग्भटेनाप्यनुमतः / कर्तुमुद्यतः / नृपेण शृङ्खलं खकण्ठादुत्तार्याम्बडगले क्षिप्तम् / तेन याचकानां पठतां गृहसारं दत्तम् / द्वारभट्टस्य तस्मिन् शृङ्खले दत्ते नृपेणोक्तम् -'उत्तारय' / तथाकृते अम्बडेन पृष्टम् -'देव! किमुत्सुका जाताः ? / 'मया ज्ञातम् , भवान् जीवमपि दास्यसि; मम त्वया बहुकार्यमस्ति' / संघार्चादिषु जातेषु पुनः संघः पत्तनं प्राप्तः / तत्र - चैत्यबलानके तं 9 घडीसुवर्णस्य चतुरस्र कलशं ददौ / 731. अथैकदा नृपः सेवाऽऽयातं मल्लिकार्जुनसुतं प्राह -'पापक्षयादिरत्नपञ्चकस्य उत्पत्तिं वद' / 'देव ! मल्लिकार्जुनादेकविंशतितमः पूर्वजो धवलार्जुनः। तस्य पञ्चदश प्रिया आसन् / एका नरेन्द्रसुता खड्रेन Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112-12 चतुरशीतिप्रबन्धान्तर्गत परिणीता / [तां] आनीय बन्दी(न्दि)वत् मुक्ता / नृपस्तां वेत्तीव न / शेषा मान्यतमाः / सा तु दैवमेव उपालमते स्म / अन्यदा पुरे काचित् परिवाजिकागता। सा चेटीमि(भी) राजीसकाशमानीता / तयोक्तम् - "किं वेत्सि? / साऽऽह- . सेमि तं पि सुणं(ससिणं) वसुहावइन्नं, थंभेमि तस्स वि रविस्स रहं नहद्धे / . आणेमि सबसुरसिद्धगणं गणाओ, तं नत्थि भूमिवलए मह जं न सज्झं // 34 // प्रसीद, मम पतिं वसी(शी)कुरु' / तया करे सर्पपा वावि(जपि)त्वाऽपिताः / यथा तथा नृपस्य [भोजन मध्ये देयाः / शाकं कृत्वा शिप्रां भृत्वा चेव्युक्ता-'भोजनावसरोऽस्ति देवस्स नीत्वा परिवेषय' / सा शृङ्गारं कर्तुं गता। देव्या चिन्तितम् -'न ज्ञायते कदाचिदेषा वैरिणा प्रहिता स्यात् ], तदा मे पतिमारिकायाः का गतिः स्याद्' इति मत्वा अधोगवाक्षस्य समुद्रस्तत्र शिप्रां ढाला(ल)यामास / चेटी उक्ता-'तिष्ठतु' / सा काकरोत्पपात(१) / इतस्तेन // वशीकृतः समुद्रो नृपरूपं कृत्वा रात्रौ आयातः / स देव्या नृपवदुपचरितः, नित्यमेति / इतो देवी सगर्भाऽभूत् / चेटी प्राहिणोत्-'देव ! सीमन्तोन्नयनाय मुहूर्त अस्मत्स्वामिन्या गणापयत' / नृप आह-'का त्वम् ? का तब खामिनी ? अहं नामापि तस्या न जाने / कस्य सुता ?, कदा परिणीता ? / तया [यदकृत्यं कृतम् / मम किमुच्यते ? / साऽऽगत्य देवी प्राह / तयोक्तम् –'समये ज्ञास्यते' / इतः पुत्रो जातः / सूतकशुद्धेरनन्तरं बाल मादाय प्रतोलीमेत्योपविष्टा-'मम शुद्धिं यच्छत / जातायां बालः स्तनं ग्रहीष्यति' / नृपेणोक्तम् -'मम . साराऽपि न अधुना / खड्न परिणीता श्रुता, परं दृष्टाऽपि न / पुत्रस्य का वार्ता ? / प्रधानानप्रैषीत् -'एतत् मम न दूषणम् , तव, मया न सोढ[व्य]म्' / सा न मन्यते / पट्टराज्ञी प्रहिता / स्त्री स्त्रीभणितेन परिच्छिपते / सा एत्यावादीत्-'किमिदमारब्धम् ?' / तयोक्तम्-'तव कुले इदं घटते, मम तु न' / नृप[:] खयमेत्य प्राह-'तव ममाधुना दर्शनं न, पुत्रस्य का कथा , उत्थीयताम्' / 'देव ! सर्वथा न, भा(वा) पि दिव्यं विना वाच्या। प्रधानैर्दिव्यं दत्तम् / राज्ञी सुतमादाय बहिर्ययो, पौरसहितो नृपश्च / तत्र लोहमयी नौः, तस्यां समधिरोप्य दिव्यकर्ता क्षिप्यते / शुद्धे तरति, अशुद्धे छुडति / सा राज्ञी इतिकामा श्रावणिकामकार्षीत् / आदित्य-चन्द्रावने(न्द्रावनिलो?) यमश्च, धौभूमिरापो हृदयं मनश्च / अहश्च रात्रिश्च उभये(भेच) सन्ध्ये, धर्मो हि जानाति नरस्य वृत्तम् // 35 // इत्युक्त्वा नावमधिरुरोह / सपुत्रापि त्रुडिता / लोकः कलकलं यावत् करोति, तावन्नावमधिरूढा देवी स. भृङ्गारा, [शृङ्गार] कोटिसाटीपरिदधाना, सहस्रकिरणताडंकाभ्यामलङ्कतकपोला, पापक्षयेन हारेण विराजमानवक्षा. " स्थला, माणिक्यपटेनाच्छादितबाला, संयोगसिद्धिशिप्राकरा सर्वैरपि हृ(ह)ष्य / शुद्धताललाप / नृपेण मध्ये प्रवेशिता / नृपो रात्रौ तद्वेश्मनि इयाय / तयोपचरितः पृष्टवान्-'अहं सर्वथा न जाने, वं(त्वं) तु सत्येव, या समुद्रेण शोधिता'। इतः समुद्रदेवेन प्रत्यक्षीभूय आदितोऽपि खरूपमुक्तम् -'नास्या अपराधः' / नृपेण सुतस्य पालधवल इति नाम दत्तम् / सा राज्ञी पट्टराज्ञी कृता / एतानि [रत्नानि तयैव समर्पितानीति]। कुमारपालनिवारित-मृतधनाहरणवर्णनम् / * 632. अथैकदा नृपो भृगुपो भृगुकच्छं गतः। तत्र कश्चित् श्रेष्ठी अपुत्रः प्रवहणमधिरुह्य परद्वीपे गतः / इतो वार्ता विनष्टस्य जाता। राजा(ज)पुरुषैर्यहं रुद्धम् / तत्पनी सपरिवारा विलपितुं प्रवृत्ता / नृपः कोलाहलमाकर्ण्य वण्ठं प्रेक्ष्य)ष्य वृत्तं ज्ञात्वा प्रातः ख[यं तस्य गृहे गतः / तत्पत्नीमाहूयाऽऽह-'तव प्रियो यद्येति तदा भव्यम्। नैति तदा गृहसारं भुङ्क्ष्व' इत्युक्त्वा तां संबोध्य श्रीपत्तने गतः / पौषधागारमागत्य प्रभुं पप्रच्छ -'प्रभो / पुत्राः कियन्तः / / तैरुक्तम् -'11 / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रबन्ध औरसः क्षेत्रजश्चैव पुत्रिकापुत्र एव च / दत्तः क्रीतः कृत्रिमश्च तथाऽन्यौ कुण्ड-गोलको // 36 // कानीनो नवमः पुत्रो दशमो भ्रातृजस्तथा। एकादशो भवेत् पुत्रो धनग्राही महीपतिः // 37 // बस्तस पट्टकं गृह्मा(ला)ति लक्षपञ्चकं यावत् तस्स; ऊर्द्ध नृपस्य' / 'भगवन् ! मया कियता पुत्रेण / भाग्यम् 1 अतो मृतद्रव्यस्य नियमोऽस्तु' / तदा प्रभुणोक्तम् - ___ अपुत्राणां धनं गृहन् पुत्रो भवति पार्थिवः / त्वं तु सन्तोषतो मुश्चन् सत्यं राजपितामहः // 38 // ततः 'मृतखमोक्ते'ति नाम पप्रथे। सिरिभरहनिवाओ जं [न] केणावि मुक्कं रुअइमयधणं जो जं च पावाण मूलं। . निअजणवयसीमं वारए जो अ जूअप्पमुबसणचकं सो वरो मज्म होउ // 39 // इति धर्मनरेन्द्रसुताया [अ]हिंसाया वाक्यम् / इति हिंसायाः श्रीमन्नन्तकतात ! तात तनये हिंसे विहस्ताऽस्ति किं किं त्वं वेत्सि सुखान् स्वकीयदुहितुर्वैधव्यदुःखं न हि / मय्युत्तीर्णमनाः कुमारनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यधात् संसक्तः करुणास्त्रियां स्वविषयान्निर्वासयामास माम् // 40 // पूर्व पीरजिनेश्वरे भगवति प्रख्याति धर्म स्वयं प्रज्ञावत्यभयेऽपि मनिणि न यां कत्तं क्षमः श्रेणिकः। ___अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्ता जीवरक्षा व्यधात् _ यस्या सा[य] वचः सुधांशुपरमः श्रीहेमचन्द्रो गुरु // 41 // कस्याऽसौ विदितो न गूर्जरपतिः श्रीसिद्धराजादनु // 42 // * इति कविभिः स्तूयमानो राज्यं करोति स्म / इतः केनाप्युक्तम् -'देव ! स भृगुकच्छे श्रेष्ठी सभायातः / नृपणाहूय व्यतिकरं पृष्टः / स आह'देव! वाहनाने(न्ये)कपर्वतान्तराले पतितानि / तत्र वायुप्रचारो न / व्याकुलीभूतो जनः / निर्यामिकेणा(न) 5 उक्तम्-'योऽत्र पर्वतेऽधिरुह्य भारण्डपादे खं बद्धा रात्रौ तिष्ठति, प्रातस्ते उड्डीय पञ्चशैले द्वीपे यान्ति / तत्र गतो भारण्डानुडापयति / तेषां पक्षि(क्ष)वातेन वाहनानि चलन्ति / मार्ग लभन्ते / ततः श्रेष्ठी वणिक्पुत्रान् मुस्कलाप्य जनानामुपकाराय पञ्चशैले गतः / तत्र पक्षि[ण उ] डापितानि(पिताः)। ततः श्रेष्ठी पञ्चशैलाधिपतिवा(ना) उत्पन्नकरुणातिरकण वाहनिकानां तटस्थानां मेलितः / नृपेण श्रुत्वा सत्कृत्य प्रहितः // छ / कुमारपालकृतायास्तीर्थयात्राया वर्णनम् / 633. अथैकदा [न] पेण गुरवोऽभिहिताः / ......यात्रागै मुहूर्तमवलोकितम् / महदु-संवेन प्रस्थान(नं) कृतम् / सर्वत्र कुहमपु(प)न्यः प्रहिताः। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीतिप्रयन्धान्तर्गत वाहनौषधि-पाथेयसहाय(यं) वृषभादिकम् / यत् यस्य नास्ति तत् तस्मै नृपः सर्व प्रदास्यति // 43 // इतश्चारैरागत्योक्तम् -'देव ! डालदेशीयः कर्णो लक्षैत्र(स्त्रि)भिरश्वानां] गजानां चतुर्दशमिः शतैः, विंशतिलक्षपत्य(त्य)न्वितो गूर्जरात्रौ उपर्येति' / तत् श्रुत्वा नृपो व्याकुलः सन् प्रभूनाह -'भगवन् ! अन्तरायमिव * बुध्यते / यात्रा क्रियते वा परचक्रसंमुखं गम्यते / द्वयं कथं स्यात् ?' / 'देव ! स्वस्थैर्भाव्यम् / श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति महतामपि। अश्रेयसि स(प्र)वृत्तानां कापि यान्ति विनायकाः // 44 // . परमेश्वरप्रसादात् सर्व [भव्यं] भविष्यति / विषादो न विधेयः'। इतस्त्रयत्रिंशतित(यस्त्रिंशत्त)मे दिने निवृत्तिरेष्यति / .........उच्यते 25 मे दिने नृपो राजपाट्यो(व्यै) चचाल / अश्वेनापहृतो व्रजन् वटस " तरोरधो गतः / वेगवशात् शृङ्खलं शाखायां उत्सल्य लग्नम् / गले पासकः समायातः, तुरगो. गतः / नृपान्वेषका [अश्वमादाय गताः / नृपे मृते शाखया भग्नया नृपो भूमौ पपात / इतः श्रीकुमारपालदेवचर आखेटिकरूपेण नृपं पतितं गरुडो हारकुण्डलकान्त्या व्याप्तं दृष्ट्वा भीत इव समीपमायातः। सकुण्डलं नृपसि(स्य) शिरश्छित्त्वा आभरणान्यादाय, स्थाने स्थाने मुक्तैरश्वैः, निर्णीते दिने नृपमेत्य वर्धापयामास / नृपेण पारितोषिक दत्तम् / नृपशिरसः संस्कारं कृत्वा महदुत्सवेन यात्रां चक्रे। " 34. तथा एकदा आनाकः सपादलक्षाधिपतिः शाकंभरपुनि(शाकंभरिपुर्नि)वासी श्रीकुमारपालदेवभगिनीपतिः / पन्या सह क्रीडन् सारैस्तासां मारिमुच्चरति / इतः श्रीप्रेमलदेव्या पत्तने नृपाय ज्ञापितम् - यदसौ सारीणां मारिं कथयति इति च वदति- 'तव बन्धोरेषाऽनिष्टा, मम तु इष्टैव / वरं मे वैधव्यमप्यस्तु, परं [इदं वचः सो नोत्सहे' / राजा कटकमादाय चलितः / कथापितम् - 'यदस्य जिह्वां पाश्चात्ये कर्षयामि' / इतः श्रीआनाकोऽपि गुडहापुरे सपादलक्षसीमायां संमुखः समायातः / तत्र युद्धे जायमाने श्रीकुमारपाल: " स्वगजात् कलहपञ्चाननादुप्लुत्य आना[क]गजे गत्वा तं जयाभिः (ज्याभिः 1) कृष्ट्वा बबन्ध / पश्चात् सहाऽऽयाताः श्रीदेवसूरयः, हेमाचार्याश्च विज्ञप्ताः- 'मम प्रतिज्ञा जिह्वाकर्षणलक्षणा, अतः किं क्रियते ? गुरुभिरुक्तम् - 'देव ! एतन्न युज्यते / तथा कुरु, यथा टोपी कारयित्वा तत्र पाश्चात्ये जिह्वां विधाय, कृष्टत्युक्त्वा मुच्यताम् / तथा कृत्वा 'पुनर्न वाच्यम्' - इत्युक्त्वा पुन(ना) राज्ये संस्थाप्य मुक्तः / तदा श्रीकुमारपालेन तत्र देशे पाषाणमयान् घाणकान् दृष्ट्वा सर्वानमञ्जयत् / पश्चान्निवृत्त्य स्वपुरं गतः / विश्वमल्लः शाकुं(क)" भरीराज्यं करोति / 635. अत्र सिद्धराज्ञि दिवंगते गूर्जरानाशालापतयः अजयमेरुदुर्गप्रत्यासन्ने पछिरापुरे गताः / श्रीविश्वमलेन गूर्जरा[त्रायां यान्ति पटकुलानि निषिद्धानि / गृह्णा(ला)ति (1) स महादण्डेन दण्ड्यते / एकदा कोऽपि स्कन्धवाहिकः यछेरे गतः। एकं श्वेतपट्टकूलं क्रीतं नलीप्रयोगेन पत्तने राजसदसि नृपोपायने कृतम् / खरूपे ज्ञा[ते] भाण्डागारिकस्यार्पितम् / यदेतत् वसनार्थे स्थाप्यम् / अस्माकं तनयस्य // चाहडस्य न दर्शनीयम् / इतः प्रातपति(ती) राजपाट्यां निःसृतः / चाहडं प्रतीक्षन्नस्ति / चाहडेन भाण्डा० सकाशात् पटो याचितः / तेनोक्तम् - 'नृपादेशो नास्ति' / 'मम को नृपादेशः 1, समर्पय' / गृहीत्वा प्रावृत्यागच्छन् नृपेन(ण) दृष्टः। सामन्तैरुक्तम् - 'वणिक (ग) नृपेन(ण) नादेरोपितो (1) नृपाऽज्ञामपि न मन्यते' / इतो न्यग्मुखं नृपं दृष्ट्वा कुमारेणोक्तम् - 'देव ! मया तत् कृतं नास्ति येन तातः कृष्णवदनः स्यात् / परं क्षीरोदकानामेषामप्राप्तिहेतुः बीटकप्रसादं कुरु, यथा तेषां सुभिक्षं करोमि / नृपो न यच्छति / 'भोक्ष्ये मार्गे भूय' Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रबन्ध / ततो नृपेन(ण) घोटकसहस्र 24, गज 24, लक्षपत्य(त्य)न्वितः प्रहितः / बीसलदेवनृपस्तु संमुखमाययौ / सीमायां चाहडेन भमः सन् , नंष्ट्वा गतः / इतवाहडेन मंत्र (तत्र) पञ्चविंशति पुराणि ममानि / बं[बे]रे ताप्रमयं दुर्गमादाय शालापतीनां शतसप्तकं 7 गृहीतम् / इतः भट्टेनोक्तम् - जंगलउर जडहारे जगिउँ जजपुरै नराणउँ, नयणवा? नग्गउऊँ नयरूँ नरव जिहाणउँ / - सन्नपाई सरवाडे भग्ग सईभर वग्घेरउँ लाडणउँ, गो(पो?)का लोहुँ बैंड झिरि बंबेरउँ पीपलउरे॥ पुकर मंडलकर मेडतै झरि ............... / वीसलह नारि विलवई अबल लंकदाहु चाहड म करि // 45 // ___ एवं जयपताकामादाय निवृत्तः / पत्तने गतः / नृपः संमुखं समाययौ / तावद् दुकूलानि पहुकृतानि / / सन्ति / नृपेन(ण) 'राजघरट्ट' इति विर(रु)दं दत्तम् // .. - 336. अथकदा पाउन्तारसुतश्चाहडो राज्यं त्याजितः सन्, कुमारदेवद्विष्टः सन् श्रीवीसलदेवाय संपाद[लक्षाधिपतये मिलित्वा पालीपुरे सकटकः स्थितः / इतः प्रधाना[ना]मग्रे रावा समायाः (याता)। तैरुक्तम् -'नृपः कास्ते ? / 'पौषधागारे' / प्रधानरेत्य पृष्टो द्वारपालकः- 'नृपस्य कोऽवसरः / 'सामायिकमस्ति' / एकेनाऽऽलोकितम् , गृहीतसामाइ(यि)कं पट्टकोपविष्टमवलोक्य एकेनोक्तम् –'डिता गूर्जरात्रा, यस्सा // [भ]यमधीशः / चिणहट्टिकवत् , पश्यताम्' / नृपेन(ण) श्रुतम् / पारिते [सामायिके खरूपमुक्तम् / नृपेन(ग) दूतः प्रहित:- 'एषा पल्लिकाऽस्माकम् , भवता कथमाक्रान्ता ? / संमुखं प्रेषितम् - 'पल्ली दूरेऽस्तु; पत्तनमप्यस्माकम् / इतो नृपः सन्जीकृत्य चलितः / पल्लीपरिसरे द्वयोर्मेलो जातः / इतश्चाहडेन द्विगुणान् ग्रासान् विधाय सैन्यं परावर्तितम् / ततः सन्नद्धे कटके कोऽप्युत्थापनिकां न करोति / इतो नृपेन(ण) कलहापंचाननगजाशान आधोरण उक्तः-'रे! त्वमपि परावर्तितः, यद् गजं न प्रेरयसि / 'देव ! विश्वमल्लगजारूढ-. माहडो हक्कां करोति / तस्याः श्रुत्या गजो न क्रमते' / 'गजकर्णयोः पटीं विदार्य क्षिप' / तथाकृते नृपस्त्वाह'किं जनेन मारितेन, आवयोरेव [रणोऽस्तु' / तथोक्ते चाहडः खड्गखेटकमादाय खगजस्य दन्तयोरागत्य यावकृपगजे गमनाय चरणमुत्पाटयति तावदाधोरणेन गजः पश्चात् कृतः / चाहडेऽन्तरा पतिते गजेन चरणोऽदायि / सं खण्डीभूतः / श्रीकुमारपालदेवस्तु गजं गत्वा वीसलस्य शिरश्चिच्छिदे / सकलमपि सैन्यं मिलितम् / उभयोरपि सैन्ययोः / इतश्चारणेनोक्तम् - इकह पाली माटि वीसलखउ झगडगउ करइ। कुमारपाल रणहाटि को जाणंतउ वुहुहरह // 46 // इतः श्रीहेमाचार्यैरुक्तम् प्रस्तामेकामपि जरयितुं पल्लिकां नैव शक्तः,. शाकंभर्याः पतिरतितरां कृत् प्रतापज्वरातः / आज्ञाकासाविषयविमुखश्वेदितोऽनेकधान्य (1) र्जीवत्युव्यां यदि परमसौ लङ्घनाभ्यासवृत्त्या // 47 // तत्र गणिं प्राकारकरणाय प्रासादस्य च विमुच्य स्वयं पत्तने ययौ // छ / 637. एकदा वर्षाभिग्रहेषु जनैर्गुह्यमाणेषु अनादिराउलत्रिपुरुषमठपः ग्रासद्रामलक्ष२७ एत्य प्रभुं विज्ञपयामास। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीतिप्रबन्धान्तर्गत चतुर्मास्यामासीत्तव पदयुगं नाथ ! निकषा कषायप्रध्वंसाद् विकृतिपरिहारव्रतमिदम् / पुनस्त्वस्यां श्रद्धानिजचरणनिर्लोठितकले जलक्लिन्नरन्नैर्मुनितिलक ! वृत्तिर्भवतु मे // 48 // '638. एकदा आमिगपुरोहितः प्रभूणां चरणयोर्वन्दनं न यच्छति, मदात् / राज्ञा द्रम्मलक्षत्रयग्रासाद् बहिः कृत्वा पुरान्निष्काशि(सि)तः / वर्षत्रयं भ्रान्त्वा पुनरायातः। काव्यमेकं पत्रिकायां [आ]लिख्य पौषधागारमायातः / नमस्कृत्य पत्रिका दर्शिता, वाचिता ब्रह्मण्युत्पन्नयीजा कलितकिशलया प्राच्यवल्मीकपुत्रे व्यासे बद्धालवाला स्फुटरुचिररुचिक्नशे कालिदासे / प्रौढा श्रीमुञ्ज-भोजप्रमुखनृपगुणे पुष्पिता देवसूरी आचार्ये हेमसूरौ फलमिह जगृहे भारती[श्री]लतेव // 49 // वन्दनकम् , प्रसादे......युक्तम् / पुनः स्वपदे स्थापितः // छ / 639. एकदा श्रीपत्तने कांथडिॉगी समायातः / स त्वन्यदर्शनिकैरुक्तः-'श्वेताम्बरः पुरं व्याप्तम् / नृपस्तदशगोऽस्ति / यदि त्वादृशः कल(ला)वान् काञ्चिदपूर्वा कलां दर्शयति तदा मार्गमभ्येति' / 'स्वशक्त्या // यतिष्ये' / प्रातः कदलीपत्रपडे वेसिरकडदण्ड्यां (1) पञ्चवर्षदेशीयाः स्कन्धवाहकाः, तत्राविरुद्ध द्विजैस्स्तूयमानो बधाम / इतो नृपेण श्रीहेमाचार्या उक्ताः-'प्रभो ! कलावान् योगी, तस्य मिलनाय ययादेशो भवति तदायामि' / गुरुणोक्तम्-'विशेषतः, नृपेन(ण) सर्वदर्शनसमा[नेन भाव्यम्' / नृपश्चलितः / इतो ब्राह्मणैर्योगी वर्धापितः / नृपः समभ्येति / तस्य तृतीयज्वरपाली तदाऽऽसीत् / तेन कन्थायां तृतीयं न्यस्य उत्तार्य मुक्ता / सा धडहडति / इतो ध्यानबलेनावनेश्चतुरङ्गलं अलग्नो भूत्वा स्थितः / नृपेन(ण) दृष्टः / पृष्ठे आधारः / पथात् * ध्याने पारिते नृपेन(ण) पृष्टम्-'भगवन् ! कन्थाधः कोऽपि क्षुल्लकोऽस्ति ? / उत्पाढ्य दर्शिता / मुक्ता तथैव / 'देव ! तवागमनं श्रुत्वा अत्र तृतीयज्वरो विश्राणितः / यथा वार्ताः कर्तुं शक्यन्ते' / नृपः प्राह-तर्हि कथं नोच्छिद्यते ? / योगिनोक्तम् नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि / अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् // 50 // - श्रीहेमाचार्या अपि इत्यादिशन्ति / नृपे उत्थिते जनैः पौषधागारे प्रभूणामुक्तम् / गुरुमिः शिष्याना (णा)मादेशो दत्तः / यत् नृपे आगते उपवेशनात् कंबलिका अपाकर्त्तव्या / तथाकृते नृपः करप्रमाणं चतुर्दिक्षु निरालम्बान् दृष्ट्वा आह-'मम गुरुर्देवरूपी' इत्युक्त्वा नमस्कृत्याऽऽवासे न(ग)तः // छ॥ 640. इतो रामचन्द्रेण जात्या चारणेन श्रीप्र०पार्थे व्रतमात्तम् / स सर्वविद्यो जातः / एकदा गुरुभिः सह चैत्यं व्रजन् , रत्नावली पथि पतितां दृष्ट्वा आह-- . जेसं भूतलयस्स वि कणेसु पडिएसु आसि अहिलासे / ते ......अस्स पसाया रयणे वि अणायरा जाया // 51 // शतप्रबन्धकर्ताऽऽसीत् / एकदा योगशास्त्रमधीयानो रामो “रोम्णां ग्रहणमाकारे" स्थाने “रोम्णो" इति पठन् शेषतपोधनकक्तम्-'राम ! "रोम्णां" वद इत्थं', पुनस्तथैव वक्ति / गुरुभिरुक्तम् -'किमिति “जातावेकवचनम्" 1, भवविश्यम्। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रवन्ध 112-1. 641. अथ श्रीकुमारपालनृपतेः सुतो नृपसिंहदेवो नामा पोडशवर्षदेशीयः शरीरे म(मा)यावी जातः ।वैद्याः परिकर्मणां चक्रुः, परं नालगत् / श्रीनृपो देवी च पार्श्व उपविष्टौ स्थः / इतो गुरुभिरुक्तम्-'वत्स ! किं पाधते / 'प्रभो ! एकं पाधते / यद् मत्तातो राज्यं प्राप्य कृपणो जातः / प्रासादाः पाषाणमयाः कारिता[:]। अहं तु स्वर्णमयान् कारयिष्यामि / असौ मनोरथः सहैव नेयः' / इत्युक्ते प्रभोनॆत्रेऽश्रुपातो जातः ।-'देव ! कुमारो न. जीवत्येव, यस्येत्थं मनोरथाः' / अथ कुमारसमाधिना दिवं ययौ // छ / श्रीहेमाचार्याणां शिष्यः सागरचन्द्रो रूपवान् विद्यावान् / स राज्ञा प्रभूणां पार्थात् राज्यार्ये याचितः / गुरुभिरुक्तम्-'देव! इदं न युज्यते सर्वथा / इतः सागरचन्द्रेण चतुर्विशतिनमस्काराः क्रियाग कृताः / सन्ध्यायां प्रतिक्रमणक्षणे उक्ताः / नृपेनो(गो)क्तम्-'अहो कविता ! अहो रूपम् ! . नृपः प्रतिक्रम्य धवलगृहं गच्छन् कपर्दिनं प्राह-भो भाण्डागारिक ! "गीतं न गायतितरां युवतिर्निशासु" इमां समस्यां यदि प्रातरर्वाक् पूरयसि तदा पट्टाश्वं दमि / कपर्दिना पूरिता श्रुत्वा ध्वनेमधुरतां गगनावतीर्णे भूमौ मृगे विगतलाञ्छन एष चन्द्रः। मा गान्मदीयवदनस्य तुलामितीव गीतं न गायतितरां युवतिर्निशासु // 12 // राज्ञा पट्टाश्वो दत्तः / एकदा श्रीगुरुभिः शिक्षा दत्ता सदा सदाचारवने यतेथा, मा कापि सप्तव्यसनी भजेथा। दीनेषु दौस्थ्यं परिखण्डयेथा, कीया त्रिलोकीमपि मण्डयेथा // 53 // 642. एकदा नृपे सभामुपविष्टे मालवीयाः प्रधाना नृपं नत्वा सभायामुपविशुः / इतो नृपेन(ण) खङ्गं कोशादाकृष्य पुनः क्षेप्तुमारब्धम् / न विशति / इतः प्रधानैर्मियो मुखावलोकनं कृतम् / ततः पुरोहितेनोक्तम् - सौराष्ट्रप्रभृतिक्षितीश्वरशिरःश्रेणीषु कृन्ताखपि, प्रत्याकारमुखप्रवेशविमुखस्तिष्ठन् क्रपाणोऽधुना। धाराध्वंसकृतप्रतिज्ञभवतश्चौलुक्यचूडामणे ! मन्येऽहं नरवर्मचर्मघटितां कोशश्रियं वाञ्छति // 54 // तत्कालं सैन्यानि सज्जयित्वा नृपो मालवकं प्रत्यचालीत् / वर्षत्रयवि[प्रहेण धारामाददे / नरवर्मनृपं चादाय श्रीपत्त[न]मायातः / एकदा नरवर्मेण राज्ञः किमपि महत् कार्य कृतम् / नृपस्तुष्ट उक्तवान्-वरं वृणु' / इतः सभा श्यामवक्त्रा जाता / असौ माल[व]कं याचिष्यते / इतो नरवर्मभूभुजा उक्तम्-'देव ! मम देवताऽवसरः प्रसादी-. क्रियताम् / अपरं न याचे' / तत्र वृद्धभोजनृपकरोडिः स्वर्णरत्नजटिताऽस्ति / तथा सीताया वने यान्त्या नृपदशरथेन मुद्राऽर्पिता-'बहुडी ! इयं गृह्यताम्' / सा 'बहुडी' इति ख्याता / सा च तत्रास्ति / हेममयी मण्डपिका, चिन्तामणिर्गणपतिः, इन्द्रनीलमयो नीलकण्ठः- एतानि वस्तूनि सन्ति / तत् श्रुत्वा सभा हृष्टा / न[प]स्तु श्यामो जातः / प्रधानैः पृष्टम्-'देव ! हर्षस्थाने को विषादः 1 यत्र मालवको गणितः, तत्र देवताऽवसरेण किम्? यूयं मूर्खाः, येन पूर्वजा उद्धृताः कष्टा [त्ततस्तेन सर्व कृतम्' / गुप्तेः कृष्ट्वा देवताऽवसरं मालवकं च दत्त्वा / प्रस्थि(स्थापि)तः॥ // इति नरवर्मप्रबन्धः // कु.पा.च. 14-3 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112-18 पतुरशीतिप्रवन्धान्तर्गत 643. कदाचित् कुमारपालनृपतिः सङ्घाधिपतीभूय तीर्थयात्रां चिकीर्षुमेहता महेन देवालयप्रस्थाने जाते देशान्तरायातयुगलिकया 'त्वां प्र[ति] डालदेशीयः कर्णनृपतिरुपैति' इति विज्ञप्तः / खेदतिलकितं ललाटं दधानो मधिवाग्भटेन सार्द्ध ससाध्वसं ध्वस्तसनाधिपत्यमनोरथः प्रभोरुपान्ते खं निनिन्द / अथ तस्मिन् नृपतेर्महाभये समुत्पबे किचिदवधार्य-'द्वादशे यामे भवतो निर्वृतिर्भविष्यति' इति आदिश्य विसृष्टो नृपः / किंकर्तव्यतामूढो यावदास्ते, / तावन्निश्चितवेलासमागतयुगलिकया- 'श्रीकर्णो दिवं गतः' इति विज्ञप्तः / नृपेण ताम्बूलमुत्सृजता 'कथम् ?' इति पृष्टौ तावूचतुः- 'कुम्भिकुम्भस्थलस्थः श्रीकर्णो निशि प्रयाणं कुर्वन् निद्रामुद्रितलोचनः कण्ठपीठप्रणयिना सुवर्णशृङ्खलेन प्रविष्टन्यग्रोधपादेन उल्लम्वितः पञ्चतामञ्चितवान् / तस्य संस्कारानन्तरमेव आवां प्रचलितो' - इति ताम्या विज्ञप्तः / तत्कालपौषधवश्मनि समागतो नृपः प्रशंसापरः, कथं कथमप्यपवार्य द्वासप्ततिमहासामन्तैः समं ससंघेन च प्रभुणा द्विधोपदिश्यमानवां धंधुकनगरे प्रभूणां जन्मभूमौ प्राप्तः / स्वयं कारितसप्तदशहस्तप्रमाणे . श्रीझोलिकाविहारे प्रभावनाविधित्सुर्जातिपिशुनानां द्विजानामुदितमुपसर्ग वीक्ष(क्ष्य), तान् निर्विषयताडितान् कुर्वन् , श्रीशत्रुञ्जयतीर्थमाराधयन् , 'दुक्खक्खओ कम्मक्खओ' इति प्रणिधानदण्डकं उच्चरन् , देवस्य पार्थे विविधप्रार्थनावसरे इकह फुल्लह माटि देइ जि सग्गह तणां सुह / एवड करइ कु साटि बपुरे भोलि म जिणवरह // 56 // // इति चारणमुच्चरन्तं निशम्य नवकृत्वः पठितेन नवसहस्रान् तस्मै नृपतिर्ददौ / तदनन्तरं उज्जयन्तसन्निधौ गते तस्मिन् अकस्मादेव पर्वतकम्पे संजायमाने श्रीहेमाचार्या नृपं प्राहुः-'इयं छत्रशिला युगपदागतयो[:] पुण्यवतोपरि पतिष्यति' इति वृद्धपरम्परा / तदावां पुण्यवन्तौ, यदि गीः सत्या भवति तदा लोकापवादः। ततो [प]तिरेव देवं नमस्करोतु न वय[मित्युक्ते नृपतिनोपरुध्य सङ्घन सह प्रभवः प्रहिताः / वयं छत्रशिलामार्ग परिहत्य जीर्णदुर्गे नवपद्याकरणाय वाग्भटदेव आदिष्टः / तत्पद्याकृते व्ययीकृतास्त्रिषष्टिलक्षाः // // इति तीर्थयात्राप्रबन्धः // 644. एकदा श्रीपत्तने द्वात्रिंशद्विहारकाणां प्रतिष्ठां महदुत्सवेन प्रारब्धां श्रुत्वा वटपत्र(द्र)पुरनिवासी वसाहकान्हाकः स्वयंकारितप्रासादबिम्बमादाय श्रीपत्तने प्रतिष्ठार्थमाययौ / श्री[]माचार्याः प्रतिष्ठार्थेऽभ्यर्थिताः / तैर्मानितम् / इतस्तस्मिन् दिने जनसम्म> जातः / रात्रौ घटी मण्डिता / इतो वसाहस्य भोगाघुपस्करो विस्मृतः / तेन त[माने]] गते असमये लग्नघटी वादिता / असौ समागतः। मध्ये प्रवेशं अलब्ध्वा " लमघटीं श्रुत्वा विषि(प)ण्णः / प्रतिष्ठापश्चाजनो विरलो जातः / कान्हाकोऽप्यन्तः प्रविश्य गुरूणां चरणयोर्लगित्वा बादं रुरोद-मदीयं बिम्बं प्रभो ! स्थितम्' / गुरुभिरूर्द्धमवलोकितम् / लमं तदा वहमानं विलोक्योक्तम्-'भो ! त्वं पुण्यवान् , लममधुनाऽस्ति / परिच्छदं कुरु बिम्बप्रतिष्ठायाम् / स न मन्यते / गुरुभिः प्रतिष्ठां विधाय उक्तम्-'यदि न मन्यसे तथा(दा) देवं पृच्छ, एतत् तथ्यं न वा ? / बिम्बेनोक्तम् -'भो। तव बिम्ब वर्षशतत्रयायुः / एतानि वर्षत्रयायूंषि भविष्यन्ति' / - इतः कश्चिद् व्यवहारी स्तम्भतीर्थ वाणिज्याय गतः / तत्र तेन श्रीदेवाचार्या नमस्कृताः / पृष्टम् - 'किमद्य कल्ये नृपः पुण्यकर्म तनोति ? / 'द्वात्रिंशद् विहाराणां प्रतिष्ठा जाता / तस्य उछ(त्स)वस्य किं कर्ण(वर्ण्य)ते ? / 'लग्नं वेत्सि ?', 'अमुकमनुमानम्' / 'इदं लग्नं हेमाचार्यनिरूपितं न वा 1 यदि निरूपितं तदा म[हत् [९]णं जातम्' / स पुनः पत्तनमाययौ / हेमाचार्यैः पृष्टम् -'श्रीदेवसूरयो नमस्कृताः१ / स्वरूप Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रबन्ध 112-19 मुक्तम् / 'त्वयां कारणं किमपि न पृष्टम् / / 'मया ज्ञातं यदुन्नतिम[स]हमानाः कथयन्ति' / इतः श्रीदेवाचार्याः पत्तनमायाताः / श्रीहेमाचार्यान्नमस्करणा[4] आगच्छतो दृष्ट्वा उक्तम् -'तपोधना! नृपगुरूणामयें उपवेशनमानयत' / श्रीहेमाचार्या विस्मिताः, यावद् वन्दन्ति तावदुक्तम्-'हे नृपगुरवः! इहाऽऽस्यताम् / हेमा० उक्तम् -'प्रभो! ममोपरि कथमप्रसादः 1 प्रभुभिरहं दर्शनविरुद्ध पथि संचरन् दृष्टः श्रुतो वा ? / 'कथयत, प्रतिष्ठालग्नं भवद्भिः निरूपितं न वा?' / 'निरूपितम्' / 'तत्र क्रूरकर्तरीयोगोऽस्ति / एतल्लग्नं पूर्वकृतानामपि प्रासादा-.. नामनर्थहेतुः' / 'भगवन् ! किं क्रियते ?' गुरुभिरुक्तम् -"स्तोकदोषं बहुगुणं कार्य कार्य विचक्षणैः" इति विचिन्त्य पदमी प्रासादा मूलतोऽप्यपाकृत्य नूतनास्तदा सर्वेऽपि प्रासादाः स्थिरं स्युः' / 'प्रभो! एतन्न युज्यते' / 'तर्हि भवितव्यतैव बलवती / भवतां कोऽपराधः'। 645. इत एकदा श्रीहेमाचार्याणां [शिष्यः] यशश्चन्द्रगणि[:] स्तम्भतीर्थे गतः / तत्र सुखासनारूढश्चतुष्पयं वक्रमवलोक्य पप्रच्छ -'कथमत्र वक्रम् 1" / 'अस्य जैनप्रासादस्य देवकुलिकाचतुष्कमिहास्ते तेन " कारणेन चतुष्पथं वक्रम्'। 'देवकुलिका निपात्य सरलीकृ(क्रियताम्' / तासु पात्यमानासु गोष्ठिकैः कलकल: कृतः / तथापि पातिता एव / तैर्गोष्ठिकैः श्रीदेवाचार्यभक्तैर्गुरवो विज्ञापिताः / तैस्तु हेमाचार्याणामुपालम्भो दत्तः / ते तु गणेयूँनमधिकं न मन्यन्ते / उक्तं-'प्रभो! राज्ञा 1440 प्रासादाः कारिताः / चत्वारो न्यूना ज्ञेया' / श्रीदेवाचार्येरुक्तम् तं किं पि कयं महिसासुरेण पुश्विं कयाइ दुच्चिन्न / तेण भवाणीभवणे अज्ज वि महिसा वहिज्जति // 55 // हेमा० रुक्तम्-'मृतानामुपरि शकटानि यान्तु' / इतः श्रीहेमाचार्याः पौषधागारे गताः / प्रतिक्रमणान्ते "नृपं प्राहुः- 'भवद्भिः श्रीदेवाचार्याना(णां) पौषधागारे गन्तव्यम् / किञ्चित् कुमुखिताः (?कुपिताः) सन्ति / नपस्खच्छरं भणित्वा न गतः।श्रीदेवाचायः शाकंभर्या उपरि विहारः कृतः। तत्र वीसलदेवनपतिना क्रतिसन्मानाः सन्ति / एकदा श्रीकुमारपालदेवेन प्रधानान् प्रेष्य श्रीपत्तने आकारिताः / देवकुलिकाचतुष्कव्यति-. [क] रे प्रासादचतुष्कं दत्तम् / एकः श्रीसुवर्णगिरिमण्डनः श्रीपार्श्वनाथस्य, द्वितीयस्तलहव्यां जावालिपुरीया, तृतीयो नङ्कले श्रीयुगादिदेवस्य, चतुर्थो गूदउजपुरे श्रीशान्तिनाथस्य / 646. एकदा नृपेण पृष्टाः-'एते प्रासादाः कियच्चिरं स्थास्यन्ति ?" / 'देव ! त्वज्जीवितावधिः' / 'कोऽनर्थकारी ? / 'त्वद्भातृपुत्रो अजयी'।'प्रभो! यद्येवं तर्हि हन्यते' / 'राजन् ! तिष्ठतु' / एष पर्यालोचः प्रभूणां शिष्येन(ण) पालचन्द्रेण श्रुतः / तस्याग्रे उक्तः / स नष्ट्वा गतः / / 647. इत एकदा राज्ञि पौषधागारनिविष्टे गणिना पटी एका वितत्य नृपाय दर्शिता / नृपेणोक्तम् -'कथमेषा पटी लाञ्छनाऽऽकुला दृश्यते' / 'देव! मट्ठरो रुधिरेण' / नृपः क्रुद्धः / 'स को येन मम गुरोरङ्गाद् रुधिरं कृष्टम् / / 'देव! ईदृशा उच्छृङ्खला द्विजा एव, अपरः कः' / कथकि(मि)ति पृष्ट-रोहेडकस्थाने देवं नन्तुं गताः / तत्रैकेन द्विजेन गवाक्ष्य(क्षारूढेन कक्करकः क्षिप्तः / शिरसि लमः / रुधिरं निःसृतम् / शिष्यैरप्युपेक्षितम् / मया संवृत्य मुक्ता कदाचित् ज्ञास्यते / एषा सा' / नृपः कुपितः सन् गणिं दलपतिं कृत्वा चन्द्रावती[श] धारावर्ष सह " प्रहित्य अश्वसहस्रः 12 समं प्राहिणोत् / धारावर्षस्तु टलितः-'द्विजानां सुता[ना]मुपरि किं गम्यते' / गणिना प्रामे वेष्टिते द्विजा 'वर्चसं कर्तुं नि[:]स्ताः / गणिनोक्तम् -'यथान्यायं कुरुत, तदा द्विजा न, अधुना द्विजाः'इत्यभिधाय पटी दर्शिता / 'तदा मया प्रतिज्ञातमासीत्, यद् भवतां रुधिरेण इमां रक्षयामि / इष्टदेवतां स्मरत' / वैरुक्तम्-'अधुना त्वमेवेष्टदेवता। यदु रोचते तद् विधीयताम्' / इतः कुण्डी समानीता / तत्र द्विजानामहुली Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीतिप्रवन्यान्तर्गत चारणं विधाय सा रुधिरेण भृता / तत्र पटी रजिता / द्विजा उक्ता-'गेहान् त्यक्त्वा यात' / तेषु बहिःस्थितेनु प्राकारं खण्डशः कृत्वा गेहांध इङ्गालान् वाप्य पुनः पत्तने समायातः / इतो नृपतिना उक्तम्-'क्षेमेष समायाताः१ / 'देव ! धारावर्षस्त्वदाज्ञामतिक्रम्य स्थितः' / नृपेण देशत्यागो दवः / वर्षत्रयेण पत्र 500 दत्वा पुनरायातः॥ // इति रोहेडाद्विजानां प्रबन्धः॥ 648: एकदा जाल्योधरे जिनरथयात्रायां जायमानायां द्विजैः कन्दलं कृत्वा स्थविम्ब भग्नम् / श्रावक हिजाः कुट्टिताः / यावत् ते पत्तने रावायां यान्ति, तावत् पूर्वमेव श्रावकैः प्रभवो ज्ञापिताः / इतः प्रतिक्रमणप्रान्ते गुरुभिर्नुपाय संभालितम् / प्रातर्द्विजैरायातैर्नृपेनो(गो)क्तम् -'यूयं म्लेच्छा धर्मस्थानभङ्गात्, अतो नगर त्यक्त्वा देशत्यागं यात' / तैः प्रभवो विज्ञप्ताः-'परं क्व यामः 1' / ततो गुरुभिरुक्तम् -'नरकं (नगरं ?) त्यक्त्वा " अन्यसीमायां तिष्ठत / पुरमुद्वसं कृतम् // - 149. अथ गुरवः पूर्णायुषश्चतुरशीतिवर्षायुः प्रतिपाल्य दिन 3 अनशनं दाय, नृपेऽसमाधिपरे आहुः-मा विषीद, भवतामपि षण्मासान्ते मृत्युः' / त[त] समाधिना रामचन्द्रं खपदे संस्थाप्य पञ्चपरमेष्ठिस्मृतिपरास्त्रिदिवं जग्मुः / तदनु महोत्सवपुरस्सरं संस्कारे जाते नृपे[ण] शिखां मत्वा भस्मकणः खशिरसि क्षिप्तः / लघुजनेन को उत्पाटिते गर्ता पतिता / सा हेमषड इति प्रसिद्धा जाता // // इति प्रभूणामवसानप्रबन्धः॥ . 650. श्रीहेमचन्द्रसूरयः श्रीकुमारपालदेवस्य पूर्वभवं कथयामासुः / महाराजश्रीकुमारपालदेवस...... स्थानान्तरं इति व्यतिकरान्महाराजं मुत्कलाप्य सीधु(द)पुरे यात्वा नदीसमीपे भव्यरमणप्रदेशे त्रिभुवनस्वामिनीविधामाराधयितुं प्रवृत्ताः / तृतीयदिवसप्रान्तेऽर्द्धरात्रौ देवी प्रकटीवभूव / तयाऽभिप्राये पृष्टे भणितम् - 'परमेश्वरि ! श्रीकुमारपालदेवस्य पूर्वभवं कथय / सा प्राह-'मालवकसन्धौ पर्वतमध्ये जयत(न्त)नामा भिल्लो वसति / * अन्यदा वाणिज्यकारकजेसलनामा बहीं बलीव वलीं गृहीत्वा जयन्तभिलपल्याः समीपे जलाऽऽश्रये स्थितवान् / चरेण दृष्ट्वा जयन्तस्य वृत्तान्तः कथितः / जयन्तेन सार्थों गृहीतः / केपि कापि नंष्ट्वा सार्थिका जग्मुः / जेसल वाणिज्यकारकेण मालविकराजो द्वारं षद्धम् / राज्ञाऽऽकार्य सन्मानितः / राज्ञा जगदे-'यत् स्वदीयं जगाम तद गृहाण मम पार्थात / अहमात्मीयं तस्य पार्थाद ग्रहीष्यामि / त्वया मम च पार्थे स्थेयम्। 'आदेशः प्रमाण'मिति भणित्वा स्थितः। प्रस्तावे राजा स सेनानी कृतः / जेसलवाणिज्यकारकः कटकं गृहीत्वा पल्ली मक्त्वा सर्व विनाशयामास / जयन्तः पलायांचके / तेन कोपाजयन्तपुत्रो बालको मारितः। तत उज्जयिन्या गतस्य राजप्रसादो बभूव / जयन्तः पल्लीपतिरेकाकी प्रान्त्वा गङ्गायास्तटे गतः सन् चौरिकया बालवृद्धान् मारयति / / ऋरचित्तो बभूव / कदाचित् श्रीयशोभद्रसूरयो ग्र(ग)हे चटिताः / अहं मारयिष्यामीति भणितम् / भणित पूज्यैः-'त्वया बहवो लोका विनाशिताः / अग्रेऽपि बहुपातकमर्जितम्' - इत्यादि[वचनेन] श्रीयशोभद्रसूरिभिर्बोषितः / जीववधे नियमं जग्राह / गङ्गातट परित्यज्य तिलङ्गदेशे अणघउरनगरे ईश्वरव्यवहारिणो गृहे थावरी- नामी कर्मकरी, तस्स(स्था) गृहे स्थितः / तया व्यवहारिणा च पुत्रबुद्ध्या गणितः / तत्रस्थो जीवदयां पालयति / भन्यदा श्रीयशोभद्रसूरयोऽनधपुरे समाजग्मुः / मम गुरवः समागताः / मम भाग्यं जागर्ति / सदा गुरुणां परें उपविष्टस्तिष्ठति / अन्यदा ईश्वरव्यवहारिणा पृष्टः-'अधकल्ये क यासि, गृहे न दृश्यसे' / तेनोक्तम्-'गुरुणां Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमारपालदेवप्रबन्ध पार्थे धर्म शृणोमि' / व्यवहारिणा भणितम् -'के ते गुरवः' / तेन वर्णना कृता / महामहेश्वरो व्यवहारी गुरुणा समीपे गतः / जैनधर्म श्रुत्वा सकुटुम्बो जैनो बभूव / अन्यदा देवकुलं कारितम् / श्रीयशोभद्रसरिमिः प्रति (डा) कृता / ईश्वरत्रिकालं देवपूजां करोति / चतुर्मासकदिने जयन्तः [तेन] साकं देवगृहे नीतः / तेनो. कम्-'वीतरागं न पूजयसि ? / जयन्तेनोक्तम् -'मम [पा]] किमपि द्रव्यं नास्ति येन पुष्पाणि गृहीत्वा पूजयामि' / व्यवहारिणा भणितम् -'अमूनि पुष्पाणि गृहाणि(ण) / तेनोक्तम् -'ममैभिः पुष्पैर्देवं पूजयतः किं / पुण्यम् 1" / तेन छूतेन पूर्व जितान् विंशतिकपईकान् व्ययित्वा पुष्पाणि गृहीत्वा वीतरागः पूजितः / गुरुसमीपे उपवासच कृतः। भोजनवेलायामात्माथे भोजनं परिवेष्य मुनीनां दत्तम् / आत्मानं कृतार्थ मेने / प्रस्तावे शुभध्यानेन मृत्वा चौलुक्यवंशे तिहुअणपालगृहे कुमारपालो बभूव / देवपूजाप्रभावेण राज्यं जातम् / पूर्वमवे जीवदयाप्रमावेण अमारिः कृता / एतत् कुमारपालदेवो न मानयति / श्रीहेमसूरिभिर्भणितम् -'लि(ति)लङ्गदेशे अणघउरफ्तने व्यवहारिणो गृहे थावरीनामकर्मकरी सा पृष्टव्या' - इति प्रत्ययार्थ राज्ञा आत्मीयसालको मुत्क-." लितः / तत्र गतेन तेन सर्व कर्मकर्याः श्रुतम् / तहिनादारभ्य श्रीकुमारपालदेवः परमश्रावको बभूव / जेसल वणिजारको पालकहत्याकारी राज्ञा निःका(का)सितः / खकीयपापं ज्ञात्वा कार्पटिकीभ्य कावड(ई) स्कन्धे कृत्वा केदारं नमस्कृत्य श्रीसोमेश्वरे गङ्गोदककुम्पान् ढालयति / तत्प्रभावात् कर्णराजगृहे श्रीमयणल्लदेव्याः श्रीजयसिंहदेवो बभूव / श्रीकुमारपालदेवेन सह श्रीजयसिंहदेवस्य पाश्चात्यभवाद् वैरं सजातम् / इति / कुमारपालदेवस्य श्रीहेमसूरिभिः पाश्चात्यभवो भणितः // . आज्ञावर्तिषु मण्डलेषु विपुलेष्वष्टादशवादराद् _ अब्दान्येव चतुर्दश समरां मारि निवार्योजसा। कीर्तिस्तम्भनिभान चतुर्दशशतीसयान विहारानसी क्लस्वा निर्मितवान् कुमारनृपतिजैनो निजैनो व्ययम् // 57 // एकदा श्रीकुमारपालेनोक्तम् धनमहरहर्दत्तं खीयं यथार्थितमर्थिने कृतमरिकुलं नारीशेषं खखड्गविजृम्भितः / प्रणयिनि जने रागोद्रेके रतिर्विहिता चिरं किमपरमतः कर्तव्यं नस्तनावपि नादरः॥५८॥ 651. एकदा नृपस्याऽऽयुःक्षये जाते नृपेनना(गान)शनं जगृहे / इतोऽजयपालेन एत्य परिग्रहं परावृत्य / माण्डागारे खमुद्रा दत्ता। नृपेण तृषितेन जलमांनायितम् / मृत्पात्रेणानीतम् / नृपेणोक्तम्-'शिप्रा की। 'माण्डागारे......कथं न उद्धटति' / 'देव ! अजयपालेन मुद्रा दत्ता' / नृपेणोक्तम्-'मयि सत्यप्यजयपालाबा? निम्बासं मुक्त्वा कराद् मृत्पात्रं त्यक्तम् / इतबारणेनोक्तम् कुमरड कुमरविहार, इत्ता कांई कराविया / तांह कुण करिस्यह सार, सीप न आवई सई धणी // 59 // इति निःश्वाससमं शिप्रा भमा / नृपत्रिदिवं ययौ / आयुर्वर्ष 81 / वर्ष 50 [तमे] राज्यं जातम्, तदनु वर्ष 30 [यावद् राज्यं कृतम्]॥ // इति कुमारपालप्रबन्धः समाप्तः॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीतिप्रवन्धान्त -> अथ अजयपालप्रबन्धः 59. तदनु अजयपालदेवो राज्ये निविष्टः / तेन प्रभोः शिष्यस्य पालचन्द्रस प्रीत्या रामचन्द्रमाहूयोकातानमयः पट्टो ध्मातः समानीतः राज्ञा / भवता उपविश्यते / स्वर्णपट्टानमोक्षयत् (1) / मया स्वयं मुक्ता। इह सत्वरमास्यताम् / रामचन्द्रस्तु महिषीढह सचराचरह जिणि सिरि दिन्हा पाय। तसु अस्थमणु दिणेसरह होइ त होउ चिराय // 6 // इति भणन् पट्टे निविष्टः / ज्वाला मुखे निर्ययौ / रामनिदिवं गतः / बालचन्द्र:] पट्टे निविष्टः / इतो नृपो द्विजवाक्याद् नृपकीर्तनान् पातयितुमारेभे / कृष्णवेपो महिषारूढो मुद्गरकरः, मुद्रकरैदिजैर्वृतः / बनकरणमिति नाम धारयन् कुमारपालप्रासादान् पातयति / तपोधनाः पत्तनं विहाय दिशोदिशं जग्मुः / .653. बयैकदा श्रीहेमाचार्येषु सत्सु राज्ञा उक्तम् -'प्रभो! एकस्मिन् शासने पक्षद्वयी का? / एके चतुर्दशी मन्यन्ते, एके पूर्णिमा मन्यन्ते / तत एकमेव भवति तदा रम्यम् / श्रीहेमसूरिणा पूर्णिमापक्षीया सुमतसूरप पाहय उक्ताः-'यद् नृपः कथयति, एकस्मिन् धर्मे भेदः कः / ततः पूर्णिमायां प्रतिक्रमणं समस्तमपि सर्व वयमादरयिष्यामः / यतिप्रतिष्ठां यूयं मन्यध्वम्' / तैरुक्तम् –'पर्यालोच्य प्रातर्निवेदयिष्यामः' / गुरुमिराहतो मागों मोक्तुं न युज्यते, स्थातुं च न शक्यते - रूसउ कुमरनरिंदो अहवा रूसंतु लिंगिणो सके। पुन्निमसडपइट्ठा सुमतसूरिहिं नो मुक्का // 11 // इति गाथां स्थूलाक्षरैलिखित्वा स्थापनाचार्य आलके मुक्त्वा प्रणष्टाः / प्रातराकारणे गते जनाः पत्रिकामादाय प्रभूणां दर्शयामासः। प्रभुभिरुक्तम्-'नष्टाः कियद् यास्यन्ति / अधुनैव आनाय्यन्ते, परं सन्तु। ते भयभीताः कुङ्कणे गताः / तत्र विदेशे कोऽपि नोपलक्षयति, नाऽऽयाति / अत्यन्तं दुःखिताः सन्ति / एकदा * तनुगमनिकायां गतैराकुलीतरुं दृष्ट्वा गूर्जरानां संस्मृत्य तामनु फेरकान् ददतां हृदयसकट्टः समजनि / 654. इतोऽजयपालराज्ये पूर्णिमापक्षीयः सामन्तसिंहनामा मत्री। तेन नृपो विज्ञप्तः -'देव ! पूर्वराशि सति भवान्भावठिं (1) भ्रान्तः श्रीहेमाचारस्मद्गुरवो निष्कासिताः / देवस्य राज्ये ते युज्यन्ते / यद्यादेशो भवति तदाऽनाय्यन्ते / नृपाज्ञयाऽऽहूताः / जनो वक्ति 'अमी के ? / 'भावठिका', 'वराकाः सन्तु' / इतः सामन्तसिंहो मृतः / एकदाऽऽचार्यों लञ्चिकान् परिधाय तलिकैः प्रहृतैस्तनुगमनिकायां याति / इतः कुमारगुरु महादं प्रासादगवाक्षस्थं वीक्ष्य प्राह -'कपोतो यां शाखायामधिवसति सा शुष्यतितराम्। इतः प्रलादेनोक्तम्-'आचार्य ! शृणु, एतत् सत्यमेव गते हेमाचार्य कुमतितिमिरध्वंसनरवी, ___ स्वपक्षमार्थ क[पट]पटुभिः कैश्चिवधरैः। श्रितः सामन्ताख्यः सपदि स हि पञ्चत्वमगमत्, कपोतो यां शाखामधिवसति सा शुष्यतितराम // 12 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालदेवप्रबन्ध . इत आचार्यः कृष्णमुखः खोपश्रयं ययौ / चिन्तितम् -देवताऽऽराधनं विना मनोरथानां सिद्धिर्न / अतो रेषतके गत्वा देवीं अम्बां परितोष्य हेमाचार्यसमो भविष्यामि / तत्र गतस्तपश्चरणं प्रारेभे / उपवासत्रयं तदनु तलहडिकायां पारणम् / एकः परिचर्याकरः / एवं मास 2 तपःप्रान्ते देव्यम्बा प्रत्यक्षा जाता-कार्य वद' / तेनोक्तम्-'यादृशः कुमारपालदेवस्तादृशमजयपालदेवम् , यादृशो हेमाचार्यस्तादृशं मां विधेही ति कथिते रेव्याह-'गूर्जरात्रायां न। अन्यत्र गच्छ' / तेनोक्तम् -'ममाप्यत्रैव पडप(१)मस्ति' / अम्बिकयोक्तम् -'तर्हि / याहि / तेनोक्तम् -'यदि एतत् सत्यं करोमि तदाहं...' अम्बिकया हेमाचार्यनृपमूोरधिष्ठायिकावुक्तौ'यदेष भवद्यशः समीहते' / ताभ्यां पवनयोगाद् यमलपर्वतान्तरे क्षिप्तश्चूर्णितश्च / क्षुलकेनावलोकमाने रजोद्दतिः प्रासः / तामादाय समागतः। . 155. अथ [अजयपालेन] प्रासादेषु पात्यमानेषु यमकरणं तारणदुर्गोपरि संनद्धम् / प्रातः प्रयास्यतीति श्रुत्वा वसाहआभडमुख्यः [संघः पर्यालोचितवान् -विलोकयत, श्रीकुमारपालदेवेन प्रासादाः कारिताः / अनेन " दुरात्मना पातिताः / कोऽपि न वेत्स्यति यनृपः श्रावकोऽभून्न वा / यद्येष तारणदुर्गप्रासादो रक्षितुं शक्यते तदा भव्यम् / सीलणकउतिगिआ विनाऽन्योपायो नास्ति / तस्य गृहे चलत। [गतस्तत्र] सङ्घस्तेनाभ्युत्थितः / करौ संयोज्य उक्तम्-'मयि विषये महान् प्रसादः। किं कार्यम् 1" / 'भो ! त्वं वेत्सि, पूर्वनृपेण प्रासादाः कारिताः, भनेन पातिताः / एकस्तारणदुर्गस्यावशेषोऽस्ति सोऽपि प्रातः पतिष्यति / यदि त्वया रक्ष्यते, अन्यः कोऽप्युपायो नास्ति' / 'एष भवतां प्रमादः / पूर्व ज्ञापितोऽभूवं तदैकोऽपि नापतिष्यत्' / 'यज्जातं तज्जातम् / / त्वयाऽमुं रक्षता सर्वेऽपि रक्षिताः' / सङ्कः सत्कृत्य विसृष्टः / स नृपसमीपं गतः- 'देव ! मुत्कलापयामि' / 'भो ! क यासि / 'देव! वयमुत्पन्नभक्षकाः / सर्व भक्षितम् / कापि रायतने गत्वा कृ(त्व)नामा द्रविणमादाय पुनरेप्यामः' / नृपेणोक्तम् -'यदि पत्तनं विहाय यूयमन्यत्र यात, तदाऽहं लज्जे / अवसरं दास्यामि' / 'देव! [अद्य] अवसरो भवति वा यामि' / 'तर्हि सजतां कृत्वा सन्ध्योपर्येहि' / नृपेण सर्वः कोऽप्याहूतः / प्रारब्धं प्रेक्षणम् / इतः सीलणेन इष्टिकाः समानीय पातिताः / मृत्तिकारासभानि रंगान्तः समाजग्मुः / पानीयं च / कटिकस्त्वाका-" रितः-प्रासादं कुरु' / तेन कृतः / मध्ये एकस्य देवस्य स्थापनं कृतम् / ध्वजारोपं कृत्वाने नृत्यं कृत्वा उक्तम्-'देव ! गजान्ता लक्ष्मीः, ध्वजान्तो धर्मः / अतोऽहममुं निर्माय कृतकृत्यो जातः / शयनं विधास्से' - इति मुकटीं कृत्वा सुप्तः / पुत्रेणागत्य देवकुलिका पातिता / सीलणः पटीं त्यक्त्वा उत्थितः सन् प्राह-रे ! केनेदं पातितम् ? / 'भवतो ज्येष्ठपुत्रेण' / सीलणेन स चपेटया हतः- रे ! त्वमस्यापि सदृशो न ? / एतस्यापि नृपतेहीनः ! / अनेन खपितरि मृते तस्य कीर्तनानि पातितानि / त्वया मम जीवतोऽपि पातितम् / मम मृत्युरपि न / प्रतीक्षितः' / इति श्रुत्वा नृपस्य नेत्रयो र पपात / 'सीलण ! किं कथयिष्यसि (कथयसि)१ देव ! विमृशस्त्र तथ्यमिदमतथ्यं वा / गृहस्थः कीर्तनं कारयति / यावन्मम कोऽपि भविष्यति तावदस्य सारा भविष्यति' / 'ये पतितास्ते पतिताः, शेषाः सन्तु'। एक एवावशेषोऽस्ति / यस्तव नामा / यमकरणं व्यावर्त्यताम् / इत्थं कृते प्रासादाश्चत्वार उद्गारिताः। णगढप्रासादरक्षणप्रबन्धः॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशीविप्रबन्धान्तर्गत 656. अथ राज्याद् वर्षे तृतीये पर्युषणपर्वणि थारापद्रीये प्रासादे श्रावका मिलिताः / बामस्वसाहेन उक्तम्- समयं विलोकयत / यत्र तपोधनानां सहस्रा आसन् तत्राय स कोऽपि न श्यते, यस मुखात् प्रत्याख्यानमपि क्रियते / कापि कोऽपि तपोधनः पुरमध्ये श्रुतो दृष्टो वा / एकेन कर्णे प्रविश्य उक्तम्-पर राजपुत्रवाटके धरणिगः श्रेष्ठ्यस्ति, तेन जबाबलपरिक्षीणाः खगुरवः स्थापिताः सन्ति च्छन्नम् / तदनु * वसाहस्तस्य गृहे गतः / तेनाभ्युत्थितः / पादमवधार्यताम् / 'अब सांवत्सरिकपर्वणि तपोधनान् दर्शय' / तेनोक्तम्क तपोधनाः सन्ति / तेन भूमिगृहे नीत्वा गुरवो दर्शिताः / वसाहस्तु चरणयोर्निपत्य रोदितुं प्रवृत्तः-'भगवन् / स कोऽपि नास्ति, यो अमुं दुरात्मानं नृपं शिक्षयति' / गुरुभिरुक्तम् -'शक्तिरस्ति, परं सांनिध्यकर्ता कोशी विलोक्यते' / वसाहस्तु तस्यैव श्रेष्ठिनः शिक्षां दत्त्वा ययौ / गुरवो जप्तुं प्रवृत्ताः। 657. इतस्तृतीयदिने नृपस्य कुबुद्धिर्जाता। तदीयौ धांगा-वइजलिआख्यौ पदाती स्तः। तयोर्माता सुहाग" देवी सा खैरिण्यस्ति / सा नृपेणानीयान्धकारे स्थापिताऽस्ति / इतः सन्ध्यावसरे वइजलिका पीत्वा समायातः। नृपेण हासे प्रारम्धे उक्तम्-'रे! याचख खैरम्' / तेनोक्तम्-'देव! अधुनाऽवसरयोग्यं दीयताम्' / नृपेणो कम्-'उपवरिकायां व्रज / परं वदनं नावलोकनीयम्' / स तत्र गतः। इतः पृष्ठे नृपो दीपकरः समाययौ / तेनाम्बा . दृष्य / सवित्र्या पुत्रो दृष्टः / परस्परं लज्जितौ / वइजलेन धांगाने उक्तम्-'नृपेणैवंविषं हास्यमकारि, तदहं मरिष्ये' / तेन साक्षेपमुक्तम् -'मारयिष्ये न वदसि, मरिष्ये वदसि / अमुं मारयिष्यावः' इति निश्चित्य स्थितौ / // नृपस्तु राजपाठयां निर्ययौ / सन्ध्यायां सुखासनासीनोऽन्धकारप्रतोल्यां प्रविशन् वइजलेन कपाटपन्याग्निर्गत्य घांगा केन सह स्थितेन उमाभ्यां नृपो हतः / कलकले जाते धांगाको हतः, वइजलो नष्टः / राजा तु तत्रैव पपात / जनो दिशोदिशं गतः / इतो लन्धसञ्जस्तृषितो राजा रिझन् प्रतोलीप्रत्यासन्ने तन्तुवायगृहे प्रविष्टः / गर्चायां मुखे. बाहेने (पातिते) तन्तुवायेन लकुटो क्षिप्तः खानं मत्वा / तेन विदीर्णशिराः पपाठ धांगा दोसु न वइजल्या नवि सामंतह भेउ / जं मुणिवर संताविआ तह कम्मह फल एहु // 6 // इति वदन् पीडया मृत्वा श्वभ्रं ययौ // // // इत्यजयपालप्रबन्धः॥ . * Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रतिषोध-संक्षेप शतार्थिकवि-सोमप्रभाचार्यकृत कुमार पालप्रति बोध नामकबृहत्प्राकृतग्रन्थस्य ऐतिह्यसारात्मकः संक्षेपः / प्रथमः प्रकाशः। 1. प्रन्थकारकृता प्रस्तावना। चउसु दिसासु पसरियं मोह-बलं निबिउं पयहोछ / पयडिय-धम्म-चउको चउ-देहो जयइ जिण-नाहो / तं नमह रिसह-नाहं नाण-निहाणस्स जस्स असेसु / अलि-कसिणो केस-मरो रेहइ रुक्खे भुयंगो।। तं सरह संतिनाहं पवन-चरणं पि जं चरण-लग्गा / तियस-कय-कणय-पंकय-मिसेण सेवंति नव निहिणो॥ कजल-समाण-वन्नं सिवंग-भूयं निसिद्ध-मय-मारं / परिहरिय-रायमइयं दुहा नमसामि नेमिजिणं // मन्ह पसीयउ पासो पासे जस्सोरगिंद-फण-मणिणो / दिप्पंति सत्त-दीव सत्त तत्ताई पायडिउं // सो जयइ महावीरो सरीर-दुग्गाओ भाव-रिउ-वग्गो / चिरमन्न-पाण-रोहं काउं निवासिओ जेण // : वित्यारिय-परमत्यं अणग्य-रयणासयं सुवन्न-पयं / दोगच्च-दलण-निउणं नमह निहाणं व जिण-ववर्ण / जेसि तुहि लहिं व लहिउ मंदो वि अखलिय-पएहिं / विसमे वि कब-मग्गे संचरइ जयंतु ते गुरुणो // कइणो जयंतु ते जलहिणो व उवजीविऊण जाण पयं / अन्ने वि षणा मुवणे कुणंति धन्नाण उक्करिसं। जलहि-जल-गलियस्यणं व दुलहं माणुसत्तणं लहिउं / जिणधम्ममि पयत्तो कायचो बुद्धिमंतेण // ' सग्गो ताण घरंगणं सहयरा सच्चा सुहा संपया, सोहग्गाइ-गुणावली विरयए सवंगमालिंगणं / .. संसारो न दुरुत्तरो सिव-सुहं पत्तं करंभोरुहे, जे सम्म जिणधम्म-कम्म-करणे वटुंति उद्धारया // सप्पुरिस-चरिताणं सरणेण पयंपणेण सवणेण / अणुमोयणेण य फुडं जिणधम्मो लहइ उक्करिसं // पुखं जिणा गणहरा चउदस-दस-पुषिणो चरिम-तणुणो / चारित्त-धरा बहवो जाया अन्ने वि सप्पुरिसा / / तह भरहेसर-सेणिय-संपइनिवपभिइणो समुप्पना ।पवयण-पमावणा-गुण-निहिणो गिहिणो वि सप्पुरिसा॥ तेर्सि नाम-ग्गहणं पि जणइ जंतूण पुन्न-पन्मारं / सग्गापवग्ग-सुह-संपयाउ संपाडइ कमेण // संपइ पुण सप्पुरिसो एक्को सिरि-हेमचंद-मुणिणाहो / फुरियं दूसम-समए वि जस्स लोउत्तरं चरियं // दुइओ य दलिय-रिउ-चक्क-विक्कमो कुमरवाल-भूपालो / जेण ददं पडिवन्नो जिण-धम्मो दूसमाए वि॥ केवल नाण-पलोइअ-तइलोकाणं जिणाण वयणेहिं / पुष-निवा पडिबुद्धा जिणधम्मे जं न तं चुकं // चुअमिणं जं राया कुमारवालो परूढ-मिच्छत्तो / छउमस्येण वि पहुणा जिणधम्म-परायणो विहियो॥ तुलिय-तवणिज कंती सयवत्त-सवत्त-नयण रमणिना / पलविय-लोय-लोयण-हरिस-प्पसरा सरीर-सिरी // आपालत्तणओ वि हु चारित्तं जणिय-जण-चमकारं / बावीस-परीसह-सहण-दुद्धरं तिब-तव-पवरं // गुणिस-विसमत्थ-सत्या निम्मिय-वायरण-पमुह-गंथनगणारबाह-पराजय-जाय सुकित्ति-मई जय-पसिद्धा॥ धम्म-पडिवत्ति जणणं अतुच्छ-विच्छत्त-मुच्छिाणं पि / महु-खीर-पमुह-महुरत्त-निम्मियं धम्म-वागरणं / इचाइ-गुणोहं हेमसूरिणो पेच्छिऊण छेय-जयो / सहइ अदिहे वि हु तित्थंकर-गणहर-प्पमुहे // 2 // जिणधम्मे पडिवति कुमरनारिवस्स लोइई लोगो / पत्तिया व चिरंतण-भूमिवईणं पि अविअपं // सिक-पह-कहगे वि सयं बीरजिणे सेमिरण नरवहणा / जीवरयं कारविडं न सकिओ कालसोयरिको। 5. पा. .15 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमप्रभाचार्यकृतदूसम-समए वि हु हेमसूरिणो निसुणिऊण वयणाई / सब-जणो जीव-दयं कराविओ कुमरवालेण // तनो दुवे वि एए इमंमि समए असंभव-चरित्ता / कय-कयजुयावयारा जिणधम्म-पभावण-पहाणा // दुण्ह वि इमाण चरियं भणिजमाणं मए निसामेह / वित्थरइ जेण सुकयं थिरतणं होइ जिणधम्मे // . जह वि चरियं इमाणं मणोहरं अत्थि बहुयमन्नं पि / तह वि जिणधम्म-पडिबोह-बंधुरं किं पि जंपेमि // बहु-भक्ख-जुयाइ वि रसवईए मज्झाओ किंचि भुंजतो / निय-इच्छा-अणुरूवं पुरिसो कि होइ वयणिजो // 2. अणहिलपाटकपुरवर्णनम् / बत्यि मही-महिलाए मुहं महंतं मयंक-पडिबिम्बं / जंबुद्दीव-छलेणं नहलच्छि दहुमुन्नमियं.॥ तुंगो नासा-वंसो व सोहए तियस-पवओ जत्थ / सीया-सीओयाओ दीहा दिट्ठीओ व सहति // तत्यारोविय-गुण-धणु-निभं नलाडं व भारहं अस्थि / जत्थ विरायइ विउलो वेयट्टो रयय-पट्टोव // 15 जं गंग-सिंधु-सरिया-मुत्तिय-सरियाहिसंगयं सहइ / तीर-वण-पंति कुंतल-कलाव-रेहंत-पेरंतं // तत्यत्यि तिलय-तुलं अणहिलवाडय-पुरं घण-सुवन्नं / परंत-मुत्तियावलि-समो सहइ जत्थ सिय-सालो॥ गरुओ गुजरदेसो नगरागर-गाम-गोउलाइन्नो / सुर-लोय-रिद्धि-मय-विजय-पंडिओ मंडिओ जेण // . जम्मि निरंतर-सुर-भवण-पडिम-ण्हवणंबु-पूर-सित्त छ / सहला मणोरह-दुमा धम्मिय-लोयस्स जायंति // जस्य सहति सुवन्ना कंचण-कलसा य सुर-घर-सिरेसु / गयण-म्भम-खिन्न-निसण्ण-खयर-तरुणीण पीण-यणा // . अन्भलिह-सुर-मंदिर-सिर-विलसिर-कणय-केयण-भुएहिं / नच्चइ व जत्थ लच्छी सुट्ठाण-निवेस-हरिस-वसा // जत्य मणि-भवण-भित्तीसु पेच्छिउं अत्तणो वि पडिबिंब / पडिजुवइ-संकिरीओ कुप्पंति पिएसु मुद्धाओ॥ . जम्मि महा-पुरिसाणं धण-दाणं निरुवमं निएऊण / अजहत्थ-नामओ लजिओ व दूरं गओ धणओ // जस्सि समच्छरमणा जलासया न उण धम्मिय-समूहा / कमलोवकारया सुर-रस्सिणो न उण सप्परिसा // जत्य रमणीण एवं रमणिचं पेच्छिऊण अमरीओ / लजंतीओ व चिंताइ कह वि निदं न पावंति // 45 $$ 3. चौलुक्यवंशीयराजावलीवर्णनम् / तत्यासि मूलराओ राया चोलुक्क-कुल-नह-मयंको / जणिया जणाणुकूला मूलेण व जेण नीइ-लया // जस-पुंडरीय-मंडल-मंडिय-बंभंड-मंडवो तत्तो / खंडिय-विपक्ख मुंडो चंडो चामुंडराय-निवो // ." ततो वल्लहराओ राया रइवलहो व रमणिज्जो / जेण तुरएहिं जगझंपणु त्ति कित्ती जए पत्ता // तत्तो दुल्लहराओ राया समरंगणंमि जस्स करे / करवालो छज्जइ जय-सिरीइ मयणाहि-तिलओच॥ तत्तो भीमनरिंदो भीमो व पयंड-बाहु-बल-भीमो / अरि-चक्कं अक्कमिउं पायडिओ जेण पंडु-जसो // तो कण्णदेव-निवई जस्सासिजलंमि विलसिया सुइरं / जस-रायहंस-सहिया जय-लच्छी रायहंसी च // तयणु जयसिंहदेवो पयंड-भुय-दंड-मंडवे जस्स / कित्ति-पयाव-मिसेणं चिर-कालं कीलियं मिहुणं // तम्मि गए सुर-लोयं काउं व सुरेसरेण सह मिति / कमल-वणं व दिणिदे अत्थमिए मउलियं भुवणं // तत्तो पहाण-पुरिसा निय-मइ-माहप्प-विजिय-सुर-गुरुणो / रजमणाहं दर्दु जपंति परुप्परं एवं // . ____4. कुमारपालवंशवर्णनम् / भासि सिरि-भीमदेवस्स नंदणो जणिय-जण-मणाणंदो / कय-सयल-खोणि-खेमो नामेणं खेमराओं ति // 'तस्स तणओ तिणीकय-कंदप्पो देह-सुंदरत्तेण / देवप्पसाय-नामो देव-पसायण-पहाण-मणो // तस्संगरुहो गरुओ पर-रमणि-परंमुद्दो महासूरो / तियस-सरि-सरिस-कित्ती तिहुयणपालो त्ति नामेण // तस्स सुओ तेयस्सी पसन्न-वयणो सुरिंद-सम-रूवो / देव-गुरु-पूयण परो परोवयारुजओ धीरो // दक्खो दक्खिन-निही नयवंतो सच-सत्त-संजुत्तो / सूरो चाई पडिवन-वच्छलो कुमरवालो ति // . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रतिबोध-संक्षेप एसो जुग्गो रजस्स रअलक्खण-सणाह-सवंगो / ता झत्ति ठविजउ निग्गुणेहिं पअत्तमन्नेहिं // एवं परुपरं मंतिऊण तह गिण्हिऊण संवायं / सामुद्दिय-मोहुत्तिय-साउणिय-नेमित्तिय-नराणं // , रजमि परिडविओ कुमारपालो पहाण-पुरिसेहिं / तत्तो भुवणमसेसं परिओस-परं व संजायं // .. तुट्ट-हार-दंतुरिय-घरंगण नच्चिय-चार-विलास-पणंगण / ... . निब्भर-सह-भरिय-भुवणंतर वज्जिय-मंगल-तूर-निरंतर // . साहिय-दिसा-चउक्को चउ-बिहोवाय-धरिय-चउ-वन्नो / चउ-वग्ग सेवण-परो कुमर-नरिंदो कुणइ रजं // 5. कमारपालस्य धर्मखरूपजिज्ञासा। अह अन्नया वियड्डे बहुणो बहु-धम्म-सत्थ-नाणड्डे / विप्पपहाणे हक्कारिऊण रन्ना मणियमेवं // करि-तुरय-रह-समिद्धं नरिंद-सिरि-कुसुम-लीढ-पयवीढं / लंधिय-वसण-सहस्सो संपत्तो जं अहं रज्जं // तं पुव-भवे धम्मो सुहेक्क हेऊ कओ मए को वि / कजस्स दंसणाओ जाणंति हि कारणं निउणा // ता धम्मस्स सरूवं कहेहि परिभाविऊण सत्थत्यं / जेण तमायरिऊणं करेमि मणुयत्तणं सहलं // मणुयत्तणे वि लद्धे कुणंति धम्मं न जे विमूढ-मणा / ते रोहणं पि पत्ता महग्ध-रयणं न गिण्हंति // तो वुड्ड-बंभणेहिं निवस्स वेयाइ-सत्थ-पन्नत्तो / पसु-वह-पहाण-जागाइ-लक्खणो अक्खिओ धम्मो // .. तं सोऊण निवणं फुरिय-विवेएण चिंतियं चित्ते / अहह दिय-पुंगवेहिं न सोहणो साहिओ धम्मो // . . पंचिंदिय-जीव-वहो निक्करुण-मणेहिं कीरए जत्थ / जइ सो वि होज धम्मो नत्थि अहम्मो तओ को वि॥ ता धम्मस्स सरूवं जहहियं किं इमे न जाणंति ? / किं वा जाणंता वि हु मं विप्पा विप्पयारंति // इय चिंताए निदं अलहंतो निसि-भरम्मि नरनाहो / नमिऊण अमचेणं बाहडदेवेण विन्नत्तो॥ 6. वाग्टदेवेन कुमारपालस्य हेमचन्द्रसूरिपरिचयोत्पादनम् / तत्र प्रथम हेमचन्द्रगुरुपरम्परावर्णनम् / धम्माधम्म-सरूवं नरिंद ! जइ जाणिउं तुमं महसि / खणमेक्कमेगचित्तो निसुणसु जं कि पि जंपेमि // .. आसि भमरहिओ पुन्नतल्ल-गुरु गच्छ दुम-कुसुम गुच्छो / समय-मयरंद-सारो सिरिदत्तगुरू सुरहि-सालो सो विहिणा विहरंतो गामागर-नगर-भूसियं वसुहं / वागड-विसय-वयंसे रयणपुरे पुर-वरे पत्तो॥.. / तत्थ निवो जसभद्दो भद्द-गयंदो व दाण-लद्ध-जसो / वेरि-करि-दलण-सूरो उन्नय-वंसो विसाल करो // तम्मि नरिंद-मंदिर-अदूर-देसम्मि गिहिउँ वसहिं / चंदो व तारय-जुओ मुणि-परियरिओ ठिओ एसो॥ तस्स सुहा-रस-सारणि-सहोयरं धम्म-देसणं सोउं / संवेग-वासिय मणा के वि पवजंति पवनं // अन्ने गित्य-धम्मोचियाई वारस-वयाइं गिण्हंति / मोक्ख-तरु-बीय-भूयं सम्मत्तं आयरंति परे // अह अन्नया निसाए सज्झाय-झुर्णि मुणीण सोऊण / जसमद्द-निवो संवेग-परिगओ चिंतए चित्ते / / धन्ना एए मुणिणो काउं जे सव्व-संग-परिहारं / पर-लोय-मग्गमेकं मुक्क-भवासा पयंपंति // ता एयाण मुणीणं पय-पउम-नमंसणेण अप्पाणं / परिगलिय-पाव-पंकं पहाय-समए करिस्सामि // एवं धम्म-मणोरह कलिय-मणो पत्थिवो लहइ निदं / मंगल-तूर-रवेणं पडिबुद्धो पच्छिमे जामे // कय-सयल-गोस-किच्चो समत्त-सामंत मंति-परियरिओ / करि-तुरय-रह-समेओ पत्तो सिरिदत्त-गुरु-पासे॥ मूमि-निहिउत्तमंगो भत्ति-समग्यो गुरुं पणमिऊण / पुरओ निवो निविडो कयंजली भणिउमाढत्तो // . भयवं ! धन्ना तुम्भे संसारासारयं मणे परिउं / जे चत्त-सब-संगा पर-लोयाराहणं कुणह // . सम्हारिसा अहन्ना परलोय-परंमुहा महारंभा / अनियत्त-विसय-तण्हा जे इह-भव-मेत्त-पडिबद्धा // मह जंपिउं पवत्तो सिरिदत्तगुरू नहंगणं सयलं / तव-सिरि-मुत्ता-पंतीहिं दंत-कंतीहिं. धवलंतो // मुह-ससि-पवेस-सुविणोवमाइ-दुलहं नरत्तणं लहिउं / खणमेनं प्रि पमाओ बुहेण.धम्मे न कायद्यो॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमप्रमाचार्यकृत ___[मत्र प्रन्यकारेण मूलदेवकथानकं वर्णितम् / / इस धम्म-देसणामय-रसेण सेचम्मि भूमिणाहस्स / हिययम्मि समुल्लसिओ जिणिंद-धम्माणुराय-दुमो मणियं निषेण भयवं ! कहियमिणं उभय-मव-हियं तुमए / अन्नो पिओ वि सबो जंपइ इह-मन-हि / ता समयम्मि विमुत्तुं तणं व रजं विवेय-गिरि-वजं / पडिवजिऊण धम्मं सहलं काहं मणुय-जम्मं // ता वंदिउं मुर्णिदं निय-मंदिरमागओ महीनाहो / धम्मोवएस-विसरं सुमरंतो गमइ दियहाई // . अह पावसो पयट्टो संपाडिय-पहिय-हियय-संघो / समरट्ट-मारनट्टो कयंब-संदह-अलिवट्टो // जत्य विरहग्गि-डझंत-विरहिणी-हियय-लद्ध-पसरेण / धूम-भरेण घण-मंडलेण मलिणी-कयं गगणं // नव-मेह-पिययमेणं समप्पियं जत्थ तडि-लयालोयं / कणयमयाभरणं पिव पयडंति दिसा-पुरंधीओ // . . नव-पाउस-नरखइ-रज-घोसणा-डिडिमो व सव्वत्थ / जग्गविय-विसम-बाणो वियंभिओ मेह-गजिरवो // निवडंति माणिणी-माण-खंडणे विलसमाण-सत्तीओ / जस्सि जल-धाराओ अणंग-सर-धोरणीओं // .. तस्सिं चरि-खित्तेसुं नरवइणा वावियाई धन्नाई / तेसिं दंसण-हेउं कयावि राया विणिक्खंतो॥ तम्मि समए करिसगेहिं धन्न-मज्झाओ पुवमुवखणिउं / पुंजीकएसु निप्फल-तणेसु पजालिओ जलणो॥ तत्थ जलणेण डझंत-विग्गहं गब्भ-निन्भरं भुयगिं / दहुँ संविग्गेणं रन्ना परिभावियं एयं // अहह इमो घरवासो परिहरणिज्जो विवेयवंताणं / बहु-जीव-विणास-करा आरंभा जत्थ कीरंति // एवं संविग्ग-मणो राया निय-मंदिरम्मि संपत्तो / हकारिऊण पुच्छइ एगते सावयं एगं // संपइ सिरिदत्तगुरू गुणवंतो कत्थ विहरइ पएसे / सो कहइ डिंडुयाणय-पुरम्मि मुणिपुंगवो अस्थि // तो राया रयणीए कस्स वि अनिवेइऊण निक्खंतो / तुरयंमि समारुहिऊण डिंडुयाणय-पुरे पत्तो॥ सिरिदत्तगुरुं नमिऊण तस्स कहिऊण नियय-वृत्तंतं / जंपइ संपइ काउं अणुग्गहं देहि मह दिक्खं // गुरुणा वुत्तं जुत्तं उत्तम-सत्तस्स तुज्झ नर-नाह ! / र तणं व मुत्तुं करेसि जं संजम-ग्गहणं // नहि संजमाउ अन्नो संसारुच्छेय-कारणं अस्थि / नव-जलहरं विणा किं निवडइ दवानलं को वि॥ . रन्ना अणप्पमुलं एवं एक्कावलिं समप्पेउं / जिणधम्म-निम्मल-मणा पयंपिआ सावया एवं // कारवह जिणाययणं इमीए एक्कावलीइ मुल्लेण / तेहि वि तह ति पडिवजिऊण तं शत्ति कारवियं // तं अत्यि तत्थ अन्ज वि चउवीस-जिणालयं जिणाययणं / पुत्रं व मुत्तिमंतं जसभद्द-निवस्स बं सहए। रना पुण पडिवन्ना सिरिदत्त-गुरुस्स चलण-मूलम्मि / अंतर-रिउ-वह-दक्खा दिक्खा निसियासि-धार // एगंतरोववासे जा जीवं अंबिलं च पारणए / काहं ति तेण विहिया वय-गहण-दिणे चिय पइन्ना // सुय-सागर-पारगओ रि-पयं पाविऊण जसभदो। भुवणे चिरं विहरिओ पडिबोहंतो भविय-वग्मं // . स-समय परसमय-विऊ समए तेणावि निय-पए ठविओ। निजिय-पञ्जुन्न-भडो पजुन्नो नाम वर-सूरी // मह जसभद्दो सूरी तिब-तवचरण-सोसिय-सरीरो। निय-परिवार-समेओ आरूढो उज्जयंतगिरिं॥ रेवयगिरिंद-मउडं व सुकय-लच्छी-विलास-कमलं व / भव-जलहि-जाणवत्तं व जिणहरं गणहरो पचो / नमिऊण नेमिनाहं पमजिउं निवसिऊण तस्स पुगे / पजुनसूरि-पमुहं निय-परिवारं भणइ एवं // राग-दोस-विमुक्को चिर-सेविय-नाण-दसण-चरित्तो / निच्छय-नएण तित्यं अप्प चिय वुचए जइ वि॥ तह वि हु ववहार-नयेण जो पएसो पणह-पावाण / तित्थंकराण पएहिं फरिसिओ सो परं तित्यं / इह दिक्खा-पडिवत्ती नाणुप्पत्ती विमुत्ति-संपत्ती / नेमिस्स जेण जाया तेणेसो तित्थमुजितो॥ अन्नत्य वि मेलिस्सं निस्संदेहं दुहावहं देहं / तचो वरं पसत्थे तित्थे इत्ये वि मेल्लेमि // इस भणियं पञ्चक्लइ विण-पलक्खं पबिहाहारं / वारंतस्स वि पशुबसूरिणो सपरिवारस // पउमासणोवविछो परिषर-सबर-गत-परिकम्मो / सिरि नेमिनाह-पडिमा मुहसंकय-निहिय-नयण-यो। . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनामनामेण // . छमारपासप्रतिबोध-संक्षेप संवत्य वि राग-दोस-वबिओ परम-तत्त-लीण-मणो / मुणिपुंगवो मुणियागम-सवण-समुलसिय-संवेगो।। पुष-महारिसि-मग्मो दूसम-समये वि सेविओ सम्मं / तेरस-दिणावसाणे पत्तो तियसालयं सूरी // तपो पजुबगुरु विपरंतो सयल-संघ-परिओ स / सुत्तत्थ-पयडण-परो परोवयारं चिरं कुणइ / / सर-सुहो सुइ-मुहओ वाइज्जतो समग्ग-लोएण / ठाणयपगरण-रूवो जस्सऽज वि फुरद जस-पव्हो॥10 तस्स गुणसेणसूरी सीसो वर-संजमुजओ जाओ / जस्स गुण बिय पाणा अंतररिउ-वम्ग-निग्गहणे // सीसो खमग्ग-लग्गो तस्सासी देवचंदसूरि ति / चंदेण व दिय-राएण जेण आणंदियं भुवणं // कय-सुकय-कुमुय-पोहा चउर-बठर-प्पमोय-संजणणी / संतिजिणचरित्त-कहा जुण्ह व वियंभिया क्त॥ जे ठाणएसु ठविया पजुन्न-मुणीसरेण धम्म-दुमा / काऊण ताण विवइं ते जेण लहाविआ बुडिं। बस्स चलणारविंदं चरित्त-लच्छी-विलास-वासहरं / मुणि-ममरेहिँ अमुक्कं जिणमय-मयरंद-लुद्धेहिं // सो विहरंतो मही-मंडलम्मि खंडिय-पयंड-भावरिऊ / सयल-भुवणेक्क-बंधू धंधुक्यं पुरवरं पत्तो॥ सो तत्थ पणमणत्यं समागयाणं जणाण पउराणं / संसारासारत्तण-पयासिणिं देसणं कुणइ // तं सोउं संविग्गों सरीर-सुंदेर-विजिय-सुरकुमरो / एक्को वणिय-कुमारो कयंजली भणिउमाढत्तो॥ भयवं ! भवण्णवाओ जम्म-जरा-मरण-लहरि-हीरंतं / मं नित्थारसु सुचारित्त-जाणवत्त-पयाणेण // गुरुणा वुत्तं पालय ! किं नामो कस्स वा सुओ तं सि / तो तस्स माउलेणं पयंपिकं नेमिनामेण // 7. हेमचन्द्रसूरेजन्मादिवृत्तान्तः। भयवं ! इहत्यि हत्थि व मोढकुल-विंझ-संभवो भद्दो / कय-देव-गुरु-जणच्चो चच्चो नामा पहाण-वणी॥ निम्मल-कुल-संभ्या भूरि-गुणाभरण-भूसिय-सरीरा / तस्सत्थि गेहिणी चाहिणि ति सा होइ मह बहिणी // जीए विमलं सीलं दटुं लाए चंदमा निचं / चरम-जलहिम्मि मजइ कलंक-पक्खालणत्थं व // .. ताणं तणओ एसो निरुवम-रूवो पगिढ-मइ-विहवो / भुवणुद्धरण-मणोहर-चिंचइओ चंगदेवो ति॥ गन्मावयार-समए इमस्स जणणीए सुविणए दिहो / निय-गेहे सहयारो समुग्गओ वुटिमणुपत्तो // जा पुष्फ-फला-रंभो तत्तो मुत्तूण मंदिरं मज्झ / अन्नत्थ महारामे मणाभिरामे इमो पत्तो॥ छायाए पल्लवेहि कुसुमेहिं फलेहिं तत्थ पवरेहिं / बहुय-जणाणं एसो उवयारं काउमाढत्तो॥ गम्भगए वि इमस्सि इह देसे नहमसिव-नामं पि / तह अणभिन्नो जाओ लोओ दुभिक्ख-दुक्खस्स // 'परचक्क चरड-चोराइ-विदवा दूरमुवगया सबे / न फुरति घूय-पमुहा मेह-च्छन्ने वि दिणनाहे // इय तस्स जम्म-दियहे जायाइं दिसा-मुहाइं विमलाई / देव-गुरु-वंदणेण धम्मत्थीणं मणाई व // हरिस-जणणो जणाणं सुयणो व समीरणो समुल्लसिओ / रय-पसमणं निवडियं गुरूण वयणं व गंधजलं // भवणम्मि कुसुम वुढी सुसामि-तुहि व सेवए जाया / कब-गुणो व सहियए फुरिओ गयणंमि तूर-रवो // एसो परिओसकरो बालत्तणओ वि अमय-घडिओ छ / रयणं व कराओ करं संचरिओ सयल-लोयस्स // संपर इमस्स चित्तं न रमइ अन्नत्थ वजिउं धम्मं / माणस-सरंमि मुत्तुं हंसस्स व पलल-जलेसु // गुरुणा वुत्तं जुत्तं जं कुणइ इमो चरित्त-पडिवत्तिं / जेण सो परमत्थो जणणी-दिहस्स सुविणस्स // गहिऊण वयं अवगाहिऊण नीसेस-सस्थ-परमत्यं / तित्थकरो व एसो जणस्स उवयारओ होही। तत्वो इमस्स जणयं च नामेण भणह तो तुम्मे / जहचंगदेवमेयं वय-गहणत्थं विसजेइ // मो बहु-सिणेह-जुत्तो बहुं पि भणिओ विसजा न पुचं / तत्तो पुत्तो वि दढं कउअमो संजम-गहणे // माउलय-अणुमयं गिहिऊण ठाणंतरम्मि संचलिओ / गुण-गुरुणा सह गुरुणा संपत्तो खंभतिस्थम्मि // सब पवबो दिक्खं कुणमाणो सयल-संघ-परिभोसं / सो सोम-मुहो सोमोसोमचंदो चि कयनामो // . 155 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमप्रभावार्यकतवेण वि कालेण काऊण तवं जिणागमुद्दिढं / गंभीरस्स वि सुर्य-सागरस्स पारंगयो एसो॥ सब-समय-मसंभव-गुणोह-कलिओ विमाविउ हियए / सिरिदेवचंद-गुरुणा एसो गणहर-पए उपियो / हेम-समच्छवि-देहो चंदो / जणाण जणिय-बाणंदो / तचो इमो पसिद्धो नामेणं हेमचंयोति॥ नियं सहावंउ बिय समग-लोओवयार-कय-चित्तो / सो देवयाइ वुत्तो विहरतो विविह-देसेसु // गुजर-बिसयं मुत्तुं मा कुणसु विहारमन्न-देसेसु / काहिसि परोवयारं जेणित्य ठिओ तुमं गव्यं // तो तीए वयणेणं देसंतर-विहरणाउ विणियत्तो / चिहइ इहेव एसो पडिषोहंतो भविय-वर्ग॥ . बुह-यण-चूडामणिणो भुवण-पसिद्धस्स सिद्धरायस्स / संसय-पएसु सबेसु पुच्छणिजो इमो जागो .. एअस्स देसणं निसुणिऊण मिच्छत्त मोहिय-मई वि / जयसिंहनिवो जाओ जिर्णिद-धम्माणुरत्त-मणो / तत्तो तेणित्य पुरे रायविहारो कराविओ रम्मो / चउ-जिणपडिम-समिद्धो सिद्धविहारो य सिद्धिपुरे // जयसिंहदेव-वयणा निम्मियं सिद्धहेम-चागरणं / नीसेस-सह-लक्खण-निहाणमिमिणा मुर्णिदेण // // बमभोवमेय-वाणी-विसालमेयं अपिच्छमाणस्स / भासि खणं पिन तिची चित्ते जयसिंहदेवस्स // तो जइ तुमं पि वंछसि धम्म-सरूवं जहडियं नाउं / तो मुणिपुंगवमेय पुच्छसु होऊण भत्ति-परो॥ ६.८.कुमारपालस्य हेमचन्द्रसूरिपार्वे गमनम् , हेमचन्द्रसूरेः कुमारपालं प्रति सदोषः। .. सम्मं धम्म-सरूव-साहगो साहिओ अमक्षेणं / तो हेमचंचसूर्रि कुमरनरिंदो नमइ निचं // . सम्मं धम्म-सरुवं तस्स समीवंमि पुच्छए राया / मुणिय-सयलागमत्यो मुणि-नाहो जपए एवं // . भव-सिंधु-तरी-तलं महल-कल्लाण-वलि-जलकुलं / कय-सयल-सह-समदयं जीवदयं चिय मणस धम्मं॥ आउं दीहमरोगमंगमसमं रूवं पगिहें बलं, सोहग्गं तिजगुत्तमं निरुवम्रो भोगो जसो निम्मलो। आएसेक्क-परायणो परियणो लच्छी अविच्छेदणी, होजा तस्स भवंतरे कुणइ जो जीवाणुकंपं नरो॥ नरयपुर-सरल-सरणी अवाय-संघाय-बग्ध-र्वण-धरणी / नीसेस-दुक्ख-जणणी हिंसा जीवाण सुह-हणणी॥ जो कुणइ परस्स दुहं पावइ तं घेव अणंतगुणं / लमंति अंबयाई नहि निंषतरुमि ववियंमि // जो जीव-वहं काउं करेइ खण-मित्तमत्तणो तित्तिं / छेयण-भेयण-पमुहं नरय-दुहं सो चिरं लहइ // . 5 दोहग्ग मुदग्गं जं जण लोयण-दुहावहं रुवं / जं परस-मूल-खय-खास-सास-कुट्ठाइणो रोगा॥ . चं कण्ण-नास-कर-चलण-कत्तणं जं च जीवियं तुम्छ / तं पुधारोविय-जीव-दुक्ख-रुक्खस्स फुरइ फलं॥ जो जीव-दयं जीवो नर-सुर-सिव-सोक्ख कारणं कुणइ / सो गय-पावो पावेइ अमरसीहो / कल्याणं // [भत्र जीवदयापतिपादकानि भमरसिंहादिकथानकानि ग्रन्थकारेण पर्णितानि / ].. ___9. कुमारपालस्य जीवदयाभिरुपिः। इय जीव-दया-रूवं धर्म सोऊण तुइ-चित्तेण / रमा भणियं मुणि-नाह ! साहिलो सोहणो धम्मो / एसो मे अभिरुइओ एसो चित्तमि मजा विणिविहो / एसो चिय परमत्येण घडए जुत्तीहिं न हु सेसो // मचंति इमं सधे बं उत्तम-असण-वसण-पमुहेसु / दिनेसु उत्तमाई इमाई सम्भंति पर लोए // . एवं सुह-दुक्खेसुं कीरतेसुं परस्स इह लोए / ताई चिय पर-लोए लम्भंति अणंत-गुणियाई // जो कुणइ नरो हिंसं परस्स जो जणइ जीविय-विणासं / विरएइ सोक्ख-विरहं संपाडइ संपया-भंस // सी एवं कुणमाणो पर-लोए पावर परेहितो / बहुसो जीविय-नासं सुह-विगर्म संपयोच्छेयं / / बसप्पा व लम्मा पभूपतरमित्व नस्थि संदेहो / विपनु कोरवेसुं लम्मति हि कोरवय // Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छमारपासप्रतिबोध-संक्षेप RA जो उण न हणइ जीवे जो तेसिं जीवियं सुहं विभवं / न हणइ तत्तो तस्स वि तं न हणइ को वि पर-लोए // ता मरेण व नूणं कयाणुकंपा मए वि पुख-भवे / जं लंपिऊण वसणाई रज-लच्छी इमा लद्धा॥ वा संपर जीव-दया जाव-जीवं मए विहेयथा / मसं न मक्खियवं परिहरियचा य पारद्धी // जो देवयाण पुरओ कीरह आरुग्ग-संति-कम्म-कए / जो पसु-महिसाण विणासो निवारियबो मए सो वि / / जीव-वह-दुक्कएण वि जइ आरुग्गाइ जायए कह वि / तत्तो दवानलेणं दुमाण कुसुमोग्गमो होज्जा // जो जनेसु पसु-वहो विहिओ सग्गाइ-साहण-निमित्तं / दिय-पुंगव ! सेयं चिय विवेइणोतं न काहिति // 195 बालो वि मुणइ एवं जं जीव-वहेण लन्भइ न सग्गो। किं पन्नग-मुह-कुहराओ होइ पीऊस-रस-वुढी॥ तो गुरुणा वागरियं नरिंद ! तुह धम्म-बंधुरा बुद्धी / सबुत्तमो विवेगो अणुत्तरं तत्त-दंसित्तं // . जं जीव-दया-रम्मे धम्मे कलाण-जणण-कय-कम्मे / सग्गापवग्ग-पुर-मग्ग-दंसणे तुह मणं लीणं // 10. कुमारपालस्य सर्वग्रामनगरेषु राजादेशप्रेषणेन जीवदयाप्रवर्तना। तो रक्षा रायाएस-पेसणेण सव-गाम नगरेसु अमारिघोसणा-पडह-वायण-पुवं पवत्तिया जीव-दया। 10. गुरुणा भणिओ राया-महाराय ! दुप्परिचया पाएण मंस-गिद्धी / धन्नो तुमं भायणं सकल-कलाणाणं जेण कया __ मंस-निवित्ती। ता सम्म पालेजसु मंस-निवित्तिं नरिंदं ! जा-जीवं / सम्मं अपालयंतो कुंदो व दुहं लहइ जीवो // . [अत्र कुन्दकथानकवर्णनं परिकथितम् / ] जो पुण नियममखंडं पालिज अवज-वजणुजुत्तो / सो पुरिसो पर-लोए सोक्खमखंडं लहइ नूणं // / जो य न करेज नियमं निद्धम्मो जो कयं च भंजिन्जा / सो मंस-भोग-गिद्धो नरयाइ-कयत्थणं सहइ // __ता महाराय ! जुत्तं तुमए कयं जं सत्तण्हं महावसणाणं दुवे पारद्धी मंसं च परिचत्ताणि / सेसाणि वि सबाणत्थ-निबंधणाणि परिहरियवाणि / तत्थ११. हेमचन्द्रसूरिकृतो तपरिहारविषयोपदेशः / तदनुसारेण कुमारपालस्य यूतपरित्यागः, राज्येऽपि तनिषेधः। जं कुल-कलंक-मूलं गुरु लज्जा-सच्च-सोय-पडिकूलं / धम्मत्थ-काम-चुक्कं दाण-दया-भोग-परिमुक्कं // पिय-माय-माय सुय-भज मोसणं सोसणं सुह-जलाणं / सुगइ-पडिवक्ख-भूयं तं जूयं राय ! परिहरसु / / जय-पसत्तो सत्तो समत्त-वित्तस्स कुणइ विद्धंसं / हारिय-असेस-रजो इह दिहतो नलो राया। [भत्र प्रन्थकारेण पूतविषये नलचरितं प्रथितम् / ] एयं सोऊण भणियं रना-भयवं ! न मए अक्खाइ-जूएण कीलामेत्तं पि कायवं / गुरुणा वुत्त-महाराय ! जुत्तं तुम्हारिसाणं विणिजियअक्खाणं अक्ख-जूय-वजणं / मंतीहिं विन्नत्तो राया-देव ! देवेण ताव 'सयं परिवत्तं एवं, अओ सम्बत्थ रजे निवारिजउ ति / रत्ना वुत्तं-एवं करेह / 'आएसो पमाणं' ति भणंतेहिं तेहिं तहेव कवं / 12. सूरिकृतः परस्त्रीगमनत्यागोपदेशः / राज्ञस्तत्स्वीकारः। ___ गुरुणा भणियं-सबाणत्यनिषंधणं परि-हरसु पर-रमणि-सेवणं / जओकुल कलंकिउ मलिउ माहप्पु, मलिणीकय सयण-मुह, दिन्नु हत्थु नियगुण-कडप्पह, जगु शंपिओ अवजसिण, वसण-विहिय सन्निहिय अप्पह / रह वारिउ भडु तिणि दक्किउ सुगइ-दुवारु / उभय-भवुन्भड-दुक्ख-करु कामिउ जिण परदार // सहस-नमिर नरेसर-चूड़ा-बिजमाण-चलणो वि / पर महिलमहिलसंतो पज्जोओ बंधणं पत्तो॥ . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " सोमामाचार्वत [अत्र ग्रन्थकता पारदार्यविषया प्रद्योतकशा कविता।] रखा पुतं-मयव ! मूलाको विय मए परिस्थीयो / दूरं भयंकरीओ भुयंगमीओ व पत्तायो॥ पररमणि पसत्त-मणो पाएण जणोन को वि मह रज्जे / गुरुणा भणियं-धनो सि जो परिस्थी-नियोति। कमलाण सरं रयणाण रोहणं तारयाण जहा गयणं / परदार-निवित्ति-वयं वनंति गुणाण तह ठाणं // यह गुरुणा वागरियं-वेसा-वसणं नरिंद ! मुत्तबं / दविणस्स विणासयरं जं कमल-वणस्स तुहिणं // नीररासि महणं व कालकूडं जणेइ खयरोगं / कवलेइ कुलं सयलं जं राहु-मुहं व ससि-बिंबं॥ धूमो छ चित्त-कम्मं जं गुण-गणमुबलं पि मलिणेइ / जं दोसाण निवासो वम्मिय-विवरं व भुयगाणं // बेसा-वसणासत्तो तिवग्ग-मूलं विणासिउं अत्थं / पच्छा पच्छायावेण लहइ सोयं असोओ॥ [अत्र वेश्याव्यसनविपाकप्रतिपादिका अशोककथा कथिता।] रन्ना भणियं-भयवं! वेसासु मणं अहं पि न करिस्सं / गुरुणा भणियं-भवउ उत्तम-पुरिसस्स जुत्तमिणं // 13. सूरिकृतो मद्यपाननिषेधोपदेशः, राज्ञस्तस्यापि परिहरणम् / ___ संपयं मज-वसणदोसे सुणसुनञ्चइ गायइ पहसइ पणमइ परिभमइ मुयइ वत्थं पि / तूसइ रूसइ निक्कारणं पि मइरा-मउम्मत्तो // जणाणं पि पिययमं पिययमं पि जणणिं जणो विभावंतो / मइरा-मएण मत्तो गम्मागम्मं न याणेइ // न हु अप्प-पर-विसेसं वियाणए मज-पाण-मूढ-मणो / बहु मन्नइ अप्पाणं पहुं पि निन्भच्छए जेण // वयणे पसारिए साणया विवरब्भमेण मुत्तंति / पह-पडिय-सवस्स व दुरप्पणो मज-मत्तस्स // धम्मत्थ-काम-विग्धं विहणिय-मइ-कित्ति-कंति-मज्जायं / मजं सवेसि पि हु भवणं दोसाण किं बहुणा // जं जायवा स-सयणा स-परियणा स-विहवा स-नयरा य / निच्चं सुरा-पसत्ता खयं गया तं जए पयर्ड। [अत्र मद्यपानदोषदर्शिका यादवनाशकथा वर्णिता।] . एवं नरिंद ! जाओ मजाओ जायवाण सव-क्खओ / ता रन्ना नियरज्जे मज्जपवित्ती वि पडिसिद्धा // 115 514. सूरेश्चौर्यव्यसनपरिहारोपदेशः, राज्ञस्तनिवारणम् / मृतधनापहरणस्यापि निवेधः। इण्डिं नरिंद ! निसुणसु कहिज्जमाणं मए समासेणं / वसणाण सिरोरयणं व सत्तमं चोरियावसणं // पर-दव हरण-पाव-दुमस्स धण-हरण-मारणाईणि / वसणाई कुसुम-नियरो नारय-दुक्खाइं फल-रिद्धी // जग्गंतो सुत्तो वा न लहइ सुक्खं दिणे निसाए वा / संका-छुरियाए छिज्जमाण-हियओ धुवं चोरो॥ चोरियाए दक्खं उबंधण-सलरोवण-प्पमहं / एत्थ विलहेइ जीवो तं सब-जणस्स पञ्चक्खं॥ दोहग्गमंगछेयं पराभवं विभव-भंसमन्नं पि / जं पुण परत्थ पावइ पाणी तं केत्तियं कहिमो // हरिऊण परस्स धणं कयाणुतावो समप्पए जइ वि / तह वि हु लहेइ दुक्खं जीवो वरुणो व परलोए / [चौर्यकर्मफलविषयं वरुणकथानकमत्र कथितम् / ] .. रचा मणियं-भयवं ! पुर्व पि मए अदिन्नमनधणं / न कयावि हु गहियव्वं निय-रज्जे इप कओ नियमो / जो उण कयाइ कस्स वि कयावराहस्स कीरए दंडो / सो लोय-पालण-निमित्तमध्ववत्या हवइ इहरा // जं च स्यंतीण धणं महंत-पीडा-निबंधणत्तेण / बहु-पाव-बंध-हेउं अओ परं तं पि वजिस्सं // . गुरुणोक्तम्न यन्मुक्तं पूर्व रघु-नघुष-नाभाग-भरतप्रभृत्यु:नाथैः कृतयुगकृतोत्पत्तिभिरपि / विमुञ्चन् सन्तोषात्तदपि रुदतीवित्तमधुना कुमारक्षमापाल ! त्वमसि महतां मस्तकमणिः॥ 5 इस सोमप्पह-कहिए कुमारनिष-हेमचंवपडिबद्धे / जिण-धम्म-प्पडिबोहे समविवो पागलायो। ___ णाचार्यश्रीखोमप्रमाविरपिये कमारमालप्रतिबोधे प्रथमः मा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 कुमारपालप्रतियोध-संक्षेप अथ द्वितीयः प्रस्तावः / 000000000 215 6615. कुमारपालं प्रति सूरिप्रदत्तो देवपूजोपास्तिविषयकोपदेशः। अन्नं च सुणसु पत्थिव ! जीव दया-लक्खणो इमो धम्मो / जेण सयं अणुचिन्नो कहिओ अ जणस्स हिअहेउं / सो अरहंतो देवो असेस-रागाइ-दोस-परिचत्तो / सबन्नू अवितह-सयल-भाव-पडिवायण-पहाणो // रागाइ-जुओ रागाइ-परवसं रक्खिउं परं न खमो / नहि अप्पणा पलित्तो परं पलित्तं निवारेइ // धम्माधम्म-सरूवं सक्कइ कहिउं कहं असहन्न / रूप-विसेसं वोत्तुं अस्थि किमंधस्स अहिगारो॥ परमत्थं अकहंतो वि होइ देवो ति जुत्तिरित्तमिणं / गयणस्स वि देवत्तं अणुमन्नह अन्नहा किं न // जो अरहंतं देवं पणमइ झाएइ निच्चमच्चेइ / सो गय-पावो पावेइ देवपालो व कलाणं // . [अत्र देवोपासनानिरूपकाणि देवपालादिकथानकानि कथितानि / ] 16. कुमारपालकारित-कुमारविहारादि-जिनमन्दिरवर्णनम् / जंपइ कुरमनरिंदो-मुणिंद ! तुह देसणामयरसेण / संसित्त-सब-तणुणो मह नट्ठा मोह-विस-मुच्छा // मुणियं मए इयाणिं जं देवा जिणवरा चउच्चीसं / जे राग-दोस-मय-मोह-कोह-लोहेहिं परिचत्ता॥ . नवरं पुवं पि मए भद्दग-भाव-प्पहाण-चित्तेण / पडिहय-पाव-पवेसं लदु तुम्हाण उवएसं // सिरिमाल-वंस-अवयंस-मंति-उदयण-समुद्द-चंदस्स / मइ-निज्जिय-सुरगुरुणो धम्म-दुम-आलवालस्स // नयवंत-सिरो-मणिणो विवेय-माणिक्क रोहणगिरिस्स / संचरिय-कुसुम-तरुणो बाहडदेवस्स मंतिस्स // जय-पायड-वायडकुल-गयणालंकार-चंद-सूराणं / गग्ग-तणयाण तह सबदेव-संबाण सेठ्ठीणं // दाऊण य आएसं कुमरविहारो कराविओ एत्थ / अट्ठावओ व रम्मो चउवीस-जिणालओ तुंगो // कणयामलसार-पहाहि पिंजरे जम्मि मेरुसारिच्छे / रेहंति केउदंडा कणय-मया कप्प-रुक्ख च // स्तम्भैः कन्दलितेव काञ्चनमयैरुत्कृष्टपट्टांशुकोलोचैः पल्लवितेव तैः कुसुमितेवोचूलमुक्ताफलैः / / सौवर्णैः फलितेव यत्र कलशैराभाति सिक्ता सती श्रीपार्थस्य शरीरकान्तिलहरीलक्षेण लक्ष्मीलता // पासस्स मूलपडिमा निम्मविया जत्थ चंदकंतमई / जण-नयण कुवलउल्लास-कारिणी चंद-मुत्ति छ / अन्नाओ वि बहुयाओ चामीयर-रुप्प-पित्तलमईओ / लोयस्स कस्स न कुणंति विम्हयं जत्थ पडिमाओ॥ संपइ देह-सरूवं मुणिऊण समुलसंत-सुह-भावो / तित्थयर-मंदिराई सव्वत्थ वि कारविस्सामि // तत्तो इहेव नयरे कारविओ कुमरवाल-देवेण / गरुओ 'तिहुणविहारों' गयण-तलुत्तंभण-खंभो // 255 कंचणमय-आमलसार-कलस-केउप्पहाहि पिंजरिओ। जो भन्नइ सच्चं चिय जणेण 'मेरु' ति पासाओ / जर्सि महप्पमाणा सव्वुत्तम-नीलरयण-निम्माया / मूल-पडिमा निवेणं निवेसिया नेमिनाहस्स // कुसुमोह-अच्चिया जा जणाण काउं पवित्तयं पत्ता / गंगा-तरंग-रंगत-चंगिमा सहइ जउण व // वटुंताण जिणाणं रिसह-प्पमुहाण जत्थ चउवीसा / पित्तलमय-पडिमाओ काराविया देवउलियासु // एवमइक्वंताणं तह भावीणं जिणाण पडिमाओ / चउवीसा चउवीसा निवेसिया देवउलियासु // इय पयडिय-धय-जसडंचराहिं बाहत्तरीइ जो तुंगो / सप्पुरिसो व कलाहिं अलंकिओ देवकुलियाहि // अन्नवि चउच्चीसा चउवीसाए जिणाण पासाया / कारविया ति-विहार-प्पमुहा अवरे वि इह बहवो // जे उण अन्ने भन्नेसु नगर-गामाइएसु कारविया / तेसिं कुमरविहाराण को वि जाणइ न संखं पि // 15. कु. पा. च. 16 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 सोमप्रभाचार्यकत१७. गुरुतत्वोपदेशः। बह गुरुणा वागरियं देव-सरूवं जहद्वियं तुमए / मुणियं, नरिंद ! संपइ गुरु तत्तं तुज्य अक्खेमि // भत्यमिएसु जिणेसुं सूरेसु व हरिय-मोह-तिमिरेसु / जीवाइ-पयत्थे दीवओ व पयडइ गुरु चेय // गुरुदेसणा-वरत्त-वर-गुण-गुच्छं विणा गहीराओ / संसार-कूव-कुहराउ निग्गमो नत्थि जीवाणं // गुरुणो कारुन-घणस्स देसणा-पय-भरेण सित्ताण / भविय-दुमाणं विज्झाइ झत्ति मिच्छत्त-दावग्गी // . जो चत्त-सच्च-संगो जिइंदिओ जिय-परीसह-कसाओ / निम्मल-सील-गुणड्डो सो चेय गुरू न उण अन्बो / / नरय-गइ-गमण-जुग्गे कए वि पावे पएसिणा रना / जं अमरत्तं पत्तं तं गुरु-पाय-प्पसाय-फलं // [अत्र प्रदेशिराजादीनां कथा अनुसन्धेयाः।] 18. गुरुसेवाफलविषये सम्प्रतिपोदाहरणम् / चिंतामणि-कप्पडुम-कामदुहाईणि दिव-वत्थूणि / जण-वंछियत्थ-करणे न गुरूणि गुरु-प्पसायाओ॥ 10 जो पेच्छिऊण पावंति पाणिणो मणुय-तियस-सिद्धि-सुहं / करुणा-कुल-भवणाणं ताण गुरुणं कुणह सेवं // दमगो वि पुव-जम्मे जं महिवइ-निवह-नमिय-पय-कमलो / जाओ संपइराओ तं गुरु-चलणाण माहपं // . __ [भत्र सम्प्रतिनृपकथा परिकथिता।] 19. सम्प्रतिनृपतेरिव कुमारपालस्य रथयात्रोत्सवकरणम् / / इय संपइनिव-चरियं निसामियं हेमसूरि-पहु-पासे / राया कुमारवालो तहेव कारवइ रहजतं // तं जहानचंत-रमणि-चक्कं विसाल-अलि-थाल-संकुलं राया / कुणइ कुमारविहारे सासय-अट्ठाहिया महिमं // नट्ठ-कम्ममह वि दिणाई सयमेव जिणवरं ण्हविउं / गुरु-हेमचंद-पुरओ कयंजली चिढइ नरिंदो // अट्ठम-दिणम्मि चित्तस्स पुण्णिमाए चउत्थ-पहरम्मि / नीहरइ जिण-रहो रवि-रहो व आसाओ पयर्डतो // ण्हविय-विलितं कुसुमोह-अच्चियं तत्थ पासजिण-पडिमं / कमरविहार-दवारे महायणो ठवह रिद्धीए.॥ तूर-रव-भरिय-भवणो स-रहस-नचंत-चारु-तरुणि-गणो / सामंत-मंति-सहिओ वच्चइ निव-मंदिरम्मि रहो // राया रहत्थ-पडिमं पटुंसुय-कणय-भूसणाईहिं / सयमेव अचिउं कारवेइ विविहाई नट्टाई॥ तत्थ गमिऊण रयणि नीहरिओ सीहवार-बाहिमि / ठाइ पवंचिय-धय-तंडवम्मि पड-मंडवम्मि रहो // 1. तत्थ पहाए राया रह-जिण-पडिमाइ विरइउं पूयं / चउविह-संघ-समक्खं सयमेवारत्तियं कुणइ // तचो नयरम्मि रहो परिसक्का कुंजरेहिं जुत्तेहिं / ठाणे ठाणे पड-मडवेसु विउलेसु चिट्ठतो // . किञ्चप्रेङ्खन्मण्डपमुलसद्ध्वजपटं नृत्यदधूमण्डलं चञ्चन्मञ्चमुदञ्चदुच्चकदलीस्तम्भं स्फुरत्तोरणम् / विष्वग्जैनरथोत्सवे पुरमिदं व्यालोकितुं कौतुकालोका नेत्रसहस्रनिर्मितिकृते चक्रुर्विधेः प्रार्थनाम् // एवं अट्ट-दिणाई रह-जतं जणिय-जण-चमक्कारं / कुणइ जहा कुमरनियो तहेव आसोय-मासे वि // अंपा निय-मंडलिए एवं तुन्भे वि कुणह जिणधम्म / ते निय-निय-नयरेसुं कुमरविहारे करावंति // 1 // विरयंति वित्थरेणं जिण-रह-जत्तं कुणंति मुणि-भत्ति / तत्तो समग्गमेयं जिणधम्म-मयं जयं जायं // ... अब-दिणम्मि मुर्णिदो कुमरविहारे कुमारवालस्स / चउ-विह-संघ-समेओ चिहइ धम्मं पयासतो // बहु-विह-देसेहितो धणवंतों तत्थ आगओ लोओ / प{सुय-कणय-विभूसणेहिं काऊण जिणपूयं // Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रतिबोध-संक्षेप कणय-कमलेहिं गुरुणो चलण जुयं अचिऊण पणमेइ / तत्तो कयंजलि-उडो नरवइणो कुणइ पणिवायं // . तो पत्थिवेण भणियं-किमत्यमेत्थाऽऽगओ इमो लोओ ? / एक्केण सावएणं भणियमिणं सुण महाराय !.. पूर्व वीरजिनेश्वरेऽपि भगवत्याख्याति धर्म स्वयं प्रज्ञावत्यभयेऽपि मत्रिणि न यां कर्तुं क्षमः श्रेणिकः / अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्ता जीवरक्षा व्यधालब्ध्वा यस्य वचःसुधां स परमः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः // तत्पादाम्बुजपांशुभिः प्रथयितुं शुद्धि परामात्मनस्तद्वक्वेन्दुविलोकनेन सफलीकतुं निजे लोचने / तद्वाक्यामृतपानतः श्रवणयोराधातुमत्युत्सवं भक्त्युत्कर्षकुतूहलाकुलमना लोकोऽयमत्रागतः / / ता नरनाह ! कयत्था अम्हे, अम्हाण जीवियं सहलं / जहिं नमिओ मुणिंदो पञ्चक्खो गोयमो व इमो॥ जिणधम्मे पडिवत्ती दूसम-समए असंभवा तुज्झ / देसंतर-हिएहिं सोउं दिहा य पञ्चक्खं // संपइ वचिस्सामो सुरह-देसम्मि तित्थ-नमणत्थं / अन्न-समयम्मि होही मग्गेसु किमेरिसं सुत्थं 1 // 295 1.. 20. कुमारपालस्य तीर्थयात्राकरणम् / रन्ना भणियं - भयवं! सुर-विसयम्मि अस्थि किं तित्थं / तो गुरुणा वागरियं-पत्थिव! दो तत्थ तित्थाई // जत्थ सिरि-उसभसेणो पढम-जिणिदस्स गणहरो पढमो / सिद्धिं गओ तमेकं सत्तुंजय-पचओ तित्थं // पीयं तु उजयंतो नेमिजिणिदस्स जंमि जायाई / कलाणाई निक्खमण-नाण-निवाण-गमणाई // रना भणियं-भयवं ! अहं पि तित्थाण ताण नमणत्थं / वच्चिस्सामि अवस्सं, गुरुणा भणियं इमं जुनं // जं तित्थ-वंदणेणं सम्मत्त-थिरत्तमत्तणो होइ / तप्पूयणेण जायइ अथिरस्स धणस्स सहलतं // अन्नेसि पि जणाणं सद्धा-वुड्डी कया हवइ बाढं / सेवंति परे वि धुवं उत्तम-जण-सेवियं मग्गं // इय गुरु-वयणं सोउं राया पसरिय-अतुच्छ-उच्छाहो / सम्माणिउं विसजइ देसंतर-संतियं लोयं // सोहण-दिणे सयं पुण चलिओ चउरंग-सेन्न-परियरिओ। चउ-विह-संघ-जुएणं गुरुणा सह हेमचंदेण // ठाणे ठाणे पट्टेसुएहिं पूयं जिणाण सो कुणइ / किं तत्थ होइ थेवं जत्थ सयं कारओ राया // तत्तो कमेण रेवय-पवय-हिढे ठियस्स नयरस्स / गिरिनयरस्सासन्ने गंतुं आवासिओ राया // 21. उज्जयन्तासन्न-गिरिनगरवर्णनम् / तत्थ नरिंदेण दसार-मंडवो भुवण-मंडणो दिट्ठो / तह अक्खाडय-सहिओ आवासो उग्गसेणस्स // विम्हिय-मणेण रन्ना मुणि नाहो पुच्छिओ किमेयं ति / भणइ गुरू गिरिनयरं ठाणमिणं उग्गसेणस्स // पारवईए पुरीए समुद्दविजयाइणो दस दसारा / आसि असि-भिन्न अरिणो जायव-कुल-विंझ-गिरिकरिणो // तत्य दसमो दसारो वसुदेवो तस्स नंदणो कण्हो / सो आसि तत्थ राया ति-खंड-महि-मंडलस्स पहू // . पुत्तो समुद्दविजयस्स आसि कुमरो अरिट्टनेमि त्ति / बावीसइमो तित्थंकरो ति चारित्त-कय-चित्तो // . अविसय-तण्हो कण्होवरोहओ उग्गसणे-राय-सुयं / राइमई परिणेउं सो चलिओ रहवरारुढो // करि-तुरय-रहारूढेहिं कण्ह-पमुहेहिं पवर-सयणेहिं / सहिओ समागओ उग्गसेण-निव-मंदिरासन्नं // 'सोऊण करुण-सदं जा दिदि देइ तत्थ ता नियइ / रुद्धे पसु सस-सूअर-उरम्भ-हरिणाइणो जीवे // तस्सद्द-जग्गिय-दओ किमिमे रुद्ध ति पुच्छए कुमरो / तो सारहिणा भणियं-कुमार! सुण कारणं एत्य // . हणिउं इमे वराए इमाण मंसेण भोयणं दाही / तुज्झ विवाहे वेवाहियाण सिरि-उग्गसेण-निवो / तो भणियं कुमरेणं घिद्धी ! परिणयणमेरिसं जत्थ / भव-कारागार-पवेस-कारण कीरए पावं // भोगे भुयंग-भोगेध भीसणे दूरओ लहुं मुत्तुं / संसार-सागरुत्तरण-संकमं संजमं काहं / / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 सोमप्रभाचार्यकृततो वनरियं इमिणा इत्तो सारहि ! रहं नियत्तेसु / चालेसु मंदिरं पइ तेणावि तहेव तं विहियं // दई कुमरमुर्वितं रविं व नलिणी विसट्ट-मुह-कमला / जा आसि पुत्वमिहि तु पिच्छिउं तं नियत्तं सा // राइमई खेय-परा परसु-नियत्त व कप्प-रुक्ख-लया / मुच्छा-निमीलियच्छी सहस ति महीयले पडिया // 10 सत्थी-कया सहीहिं बाह-जलाविल-विलोयणा भणइ / हा! नाह! किमवरद्धं मए जमेवं नियत्तो सि॥ जइ वि तुमए विमुक्का अहं अहन्ना तहा वि मह नाह ! / तुह चलण चिय सरणं ति निच्छिउं सा ठिया घाला // दाऊण वच्छरं दाणमुजयंते पवन-चारित्तो / चउ-पन्नासदिणंते लहइ पहू केवलं नाणं // तो नगरागर-गामाइएसुं पडिबोहिऊण भविय-जणं / सो वास-सहस्साऊ इहेव अयले गओ मुक्खं // रना भणियं भयवं ! अन्ज वि तक्काल-संभवं किमिमं / चिट्ठइ दसार-मंडव-पमुहं तो जंपियं गुरुणा // m तक्काल-संभवं जं तं न इमं किं तु थेव-काल-भवं / तमिमं पुण जेण कयं कहेमि तं तुज्झ नर-नाह ! // 22. पादलिप्तसूरिवर्णनम् / गुरुनागहत्धि-सीसो बालो वि अ-बाल-मइ-गुणो सुकई / कइया वि कंजियं घेत्तुमागओ कहइ गुरु-पुरओ // . अंबं तंबच्छीए अपुफियं पुष्पदंत-पंतीए / नव-सालि-जियं नव-बहूइ कुडएण मे दिन्नं // गुरुणा भणिओ सीसो वच्छ ! पलित्तोसि जं पढसि एवं / सीसो भणइ पसायं कुरु मह आयार-दाणेण // एवं ति भणइ सूरी तो पालित्तो जणेण सो वुत्तो / जाओ य सुय-समुद्दो आयरिओ विविह-सिद्धि-जुओ॥५. काऊण पाय-लेवं गयणे सो भमइ नमइ तित्थाई / सुणइ सुरह-निवासी भिक्खू नागजुणो एवं // $$23. नागार्जुनभिक्षुवर्णनम् / सो पत्थइ पालित्तं पयच्छ ! निय-पाय-लेव-सिद्धिं मे / गिण्ह मह कणय-सिद्धिं, तत्तो पालितओ भणइ // निकिंचणस्स किं कंचणेण किं चत्थि मे कणय-सिद्धी / तुह पाय-लेव-सिद्धिं च पाव-हेउ त्ति न कहेमि // तो कय-सावय-रूवेण भिक्खुंणा आगयस्स गिरिनयरे / गुरुणो गुरु-भत्तीए जलेण पक्खालिया चलणा // पय-पक्खालण-सलिलस्स गंधओ ओसहीण नाऊण / सत्तुत्तरं सयं तेण पाय-लेवो सयं विहिओ // ... " तबसओ गयणे कुक्कुडो व उप्पडइ पडइ पुण भिक्खू / तो कहइ जहावित्तं गुरुणो तेणावि तुटेण // . भणिओ भिक्खू तंदुल-जलेण कुरु पाय-लेवमेयं ति / कुणइ तह चिय भिक्खू जाया नह-गमण-लद्धी से // पालित्तयस्स सीसोव कुणह नागवणो तओ भतिं / नेमि-चरियाणुगरणं सब पि कयं इमं तेण // तं सोउं भति-परो नरेसरो नेमिनाह-नमणत्थं / गिरिमारुहिउं वंछइ तो भणिओ हेमसूरीहिं॥ मर-घर ! विसमा पना अओ तुमं चिट्ठ चडउ सेस-जणो / लहहिसि पुन्नं संबो व भावओ इह ठिो वि तुम // ". तो रन्ना पट्टविया पहुणो पया पहाण-जण-हत्थे / तत्थ ठिएणावि सयं गुरु-भत्तीए जिणो नमिओ // भह जिण-महिमं काउं अवयरिए रेवयाओ सयल-जणे / चलिओ कुमारवालो सत्तुंजय-तित्थ नमणत्थं // 24. कुमारपालस्य शत्रुञ्जयतीर्थयात्राकरणवर्णनम् / बचो तत्य कमेणं पालित्ताणंमि कुणई आवासं / अह कुमरनरिंदो हेमसूरिणा जंपिओ एवं // बालित्ताणं गामो एसो पालित्तयस्स नामेण / नागजुणेण ठविओ इमस्स तित्थस्स पूजत्थं // हा-पइहाण-भरुपच्छ-मन्नखेडाइ-निवइणो जं च / धम्मे ठविया पालित्तएण तं कित्तियं कहिमो // ससुंजयमारूढो राया रिसहस्स कुणइ गुरुभत्तिं / सो पासायं दद्दूण विम्हिओ जंपिओ गुरुणा // Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रतिबोध-संक्षेप बाहड-महत्तमणं उद्धरिओ एस तुह पसाएण / तिहुयण-भरणुवरिउ व पुंजिओ सहइ तुज्झ जसो // तो उत्तरि सतुंजयाओ निय-नयरमागओ राया / उजिंते नेमिजिणो न मए नमिओ ति घरेह // पह सहा-निसन्चो सुगमं पज्जं गिरिम्मि उजिंते / को कारविउं सक्को ?, तो भणिओ सिद्धवालेण // प्रष्ठा वाचि प्रतिष्ठा जिनगुरुचरणाम्भोजभक्तिर्गरिष्ठा श्रेष्ठाऽनुष्ठाननिष्ठा विषयसुखरसास्वादसक्तिस्त्वनिष्ठा / पंहिष्ठा त्यागलीला खमतपरमतालोचने यस्य काष्ठा धीमानाम्रः स पद्यां रचयितुमचिरादुजयन्ते नदीष्णः॥ मुक्तं त्वयोक्तमित्युक्त्वा पद्यां कारयितुं नृपः / पुत्रं श्रीराणिगस्यानं सुराष्ट्राधिपतिं व्यधात् // यां सोपानपरम्परापरिगतां विश्रामभूमीयुतां स्रष्टुं विष्टपसृष्टिपुष्टमहिमा ब्रह्मापि जिलायितः / मन्दस्त्रीस्थविरार्भकादिसुगमा निर्वाणमार्गोपमां पद्यामाम्रचमूपतिर्मतिनिधिनिमपियामास ताम् // इय सोमप्पह-कहिए कुमारनिव-हेमचंद-पडिबद्धे / जिणधम्म-प्पडिबोहे समथिओ बीय-पत्थावो // 1 // .. इत्याचार्यश्रीसोमप्रभविरचिते कुमारपालप्रतियोधे द्वितीयः प्रस्तावः // अथ तृतीयः प्रस्तावः $$ 25. कुमारपालाय हेमसूरिप्रदत्तो दानोपदेशः / अह जंपइ मुणिनाहो जीव-दया-लक्खणस्स धम्मस्स / कारण-भूअं भणियं दाणं पर-दुक्ख-दलणं ति // नो तेसिं कवियं व दक्खमखिलं आलोयए सम्महं. नो मिल्लेह घरं कमंकवडिया दासि व तेसिं सिरी। 155 सोहग्गाइ-गुणा चयंति न गुणाऽऽबद्ध व तेसिं तणुं, जे दाणंमि समीहियत्थ-जणणे कुवंति जतं जणा // . दाणं पुण नाणा-ऽभय-धम्मोवटुंभ-भेयओ तिविहं / रयणत्तयं व सग्गा-पवग्ग-सुह-साहणं भणियं // नाणं तत्थं दु-भेयं मिच्छा-नाणं च सम्म-नाणं च / जं पाव-पवित्ति-करं मिच्छा-नाणं तमक्खायं // तं च इमं वेजय-जोइसत्थ-रस-धाउवाय-कामाणं / तह नट्ट-सत्थ-विग्गह-मिगयाण परूवगं सत्थं // जंजीव-दया-मूलं समग्ग-संसार-मग्ग-पडिकूलं / भाव-रिउ-हियय-सूलं तं सम्मं नाणमुद्दिढें // तं पुण दुवालसंगं नेयं सबन्नुणा पणीयं ति / मोक्ख-तरु-बीय-भूओ धम्मो चिय वुच्चए जत्थ // किश्चसम्मत्त-परिग्गहियं सम्म-सुयं लोइयं तु मिच्छ सुयं / आसअउ सोआरं लोइय-लोउत्तरे भयणा // नाणं पितं न नाणं पाव-मई होइ जत्थ जीवाणं / न कयावि फुरइ रयणी सूरंमि समुग्गए संते // नाणं मोह-महंधयार-लहरी-संहार-सूरुग्गमो, नाणं दिट्ठ-अदिट्ठ-इट्ठ-घडणा-संकप्प-कप्प-डुमो / नाणं दुञ्जय-कम्म-कुंजर-घडा-पंचत्त-पंचाणणो, नाणं जीव-अजीव-वत्थु-विसरस्सालोयणे लोअणं // नाणेण पुन्न-पावाइं जाणिउं ताण कारणाई च / जीवो कुणइ पवित्तिं पुन्ने पावाओ विणियत्तिं // पुने पवत्तमाणो पावइ सग्गा-पवग्ग-सोक्खाई / नारय-तिरिय-दुहाण य मुचइ पावाओ विणियत्तो // जो पढइ अउच्वं सो लहेइ तित्थंकरत्तमन्न-भवे / जो पुण पढावइ परं सम्म-सुयं तस्स किं भणिमो // जो उण साहेज भत-पाण-चर-वत्थ-पुत्थयाईहिं / कुणइ पढताणं सो वि नाण-दाणं पयट्टेइ // नाणमिणं दिताणं गिण्हंताणं च मुक्ख-प(व?)रदारं / केवल-सिरी सयं चिय नराण वच्छत्थले लुङद // Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमप्रभाचार्यकृतसम्मं नाणेण वियाणिऊण एगिंदियाइए जीवे / तेसिं तिविहं तिविहेण रक्खणं अभय-दाणमिणं // जीवाणममय-दाणं यो देइ दया-वरो नरो निचं / तस्सेह जीवलोए कत्तो वि भयं न संभवइ // जं नवकोडी-सुद्धं दिजइ धम्मिय-जणस्स अविरुद्धं / धम्मोवग्गह-हेउं धम्मोवटुंभ-दाणमिणं // तं असण-पाण-ओसह-सयणा-ऽऽसणवसहि-वत्थ-पत्ताई / दायचं बुद्धिमया भवन्नवं तरिउकामेण // तं दायग-गाहग-काल-भाव-सुद्धीहिं चउहिं संजुत्तं / निवाण-सुक्ख-कारणमणंत-नाणीहिं पन्नत्तं // . जो देइ निजरत्थी नाणी सद्धा-जुओ निरासंसो / मय-मुक्को जुग्गं जइ-जणस्स सो दायगो सुद्धो॥ जो देइ धण-खेत्ताई जइ जणाणुचियमेअ-विवरीओ / सो अप्पाणं तह गाहगं च पाडेइ संसारे // जो चत्त-सब-संगो गुत्तो विजिइंदिओ जिय-कसाओ / सज्झाय-झाण-निरओ साहू सो गाहगो सुद्धो॥ कम्म-लहु-तणेण सो अप्पाणं परं च तारेइ / कम्म-गुरू अतरंतो सयं पि कह तारए अन्नं // पुवुत्त-गुण-विउत्ताण जं धणं दिजए कु-पत्ताण / तं खलु धुब्बइ वत्थं रुहिरेणं चिय रुहिर-लितं // दिन्नं सुहं पि दाणं होइ कु-पत्तंमि असुह फलमेव / सप्पस्स जहा दिन्नं खीरं पि विसत्तणमुवेइ // तुच्छं पि सु-पत्तंमि उ दाणं नियमेण सुह-फलं होइ / जह गावीए दिन्नं तिणं पि खीरत्तणमुवेइ // दिनेण जेण जइया जइ-जण-देहस्स होइ उवयारो / भत्तीए तम्मि कालेयं दिज्जइ काल-सुद्धं तं // अप्पाणं मन्नंतो कयत्थमेगंत-निजरा-हेउं / जं दाणमणासंसं देइ नरो भाव-सुद्धं तं // महया वि हु जत्तेणं बाणो आसन्न-लक्खमहिगिच्च / मुक्को न जाइ दूरं इय आसंसाए दाणं पि॥ . मोक्खत्थं जं दाणं तं पइ एसो विही मुणेयवो / अणुकंपा-दाणं पुण जिणेहिं कत्थ वि न पडिसिद्धं // पत्तंमि भत्ति-जुत्तो जीवो समयंमि थोयमवि दिंतो / पावेइ पावचत्तो चंदणपाल व कलाणं // [अत्र दानविषये चन्दनबालादीनां कथानकान्यनुसन्धेयानि / ] 15 55 26. कुमारपालस्य हेमचन्द्रसूरि प्रति स्खभिक्षाग्रहणप्रार्थना, राजपिण्डग्रहणे सूरेनिषेपण। एवं सोउं मुणि-दाण-धम्म-माहप्पमुल्लवइ राया / भयवं! गिण्हह मह वत्थ-पत्त-भत्ताइयं भिक्खं // तो वजरइ मुर्णिदो इमं महाराय ! राय-पिंडो त्ति / भरहस्स व तुह भिक्खा न गिहिउं कप्पइ जईणं // [राजपिण्डविषये भरतचक्रिकथाऽत्रानुसन्धेया।] इय गुरु-वागरियं भरह-चरियमायन्निउं मुणइ राया / जइ मह भिक्खा न मुणीण कप्पए राय-पिंडो ति // तत्तो भरहो व अहं पि भोयणं सावगाणं वियरेमि / गुरुणा वृत्तं जुत्तं अणुसरिउं उत्तम-चरितं // . 27. कुमारपालस्य सत्रागार-पौषधशालादिकरणम् / अह कारावइ राया कण-कोट्ठागार-पय-घरोवेयं / सत्तागारं गरुयाएँ भूसियं भोयण-सहाए / तस्सासन्ने रन्ना कारविया वियड-तुंग-वरसाला / जिण-धम्म-हत्थि-साला पोसह-साला अइविसाला // तत्थ सिरिमाल-कुल-नह-निसि-नाहो नेमिनाग-अंगरुहो / अभयकुमारो सेट्ठी कओ अहिट्ठायगो रबा // इत्यंतरंमि कवि-चक्कवट्टि-सिरिवाल-रोहण-भवेण / बुहयण-चूडामणिणा पयंपियं सिद्धवालेण // देव-गुरु-पूयण-परो परोवयारुजओ दया-पवरो / दक्खो दक्खिन्न-निही सच्चो सरलासओ एसो // किञ्च- . क्षिप्त्वा तोयनिधिस्तले मणिगणं रत्नोस्करं रोहणो रेवाऽऽवृत्य सुवर्णमात्मनि दृढं षट्दा सुवर्णाचलः / . 11 मामध्ये च धनं निधाय धनदो बिभ्यन् परेभ्यः स्थितः किं स्यात् तैः कृपणैः समोऽयमखिलार्थिभ्यः स्वमयं ददन् / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपाळप्रतिबोध-संक्षेप का जुतं देव ! कयं तुमए जं इत्थ धम्म-ठाणंमि / अभयकुमारो सेट्ठी एसो सवेसरो विहिओ // षय-कूर-मुग्ग-मंडग-वंजण-वडयाइ-कय-चमक्कारं / सक्कार-पुत्वगं सावयाण सो भोयणं देइ // पत्याई पसत्थाई कुटुंब-नित्यारणत्यमत्थं च / एवं सत्तागारं कयं नरिंदेण जिण-धम्मे // इप जीव-दया-हेउं संसार-समुह-संतरण-सेउं / दाणं मोक्ख-निदाणं कहिऊण गुरू भणइ एवं // 28. सूरिप्रदत्तः शीलवतोपदेशः। जीव-दयं काउमणो मणुओ सीलं नरिंद ! पालिज / जम्हा जिणेहिं भणिओ मेहुण-सन्नाइ जीव-वहो // ... रमणीण संगमे होइ मेहुणं तं धणं विणा न हवे / होइ धणं आरंभाओ तत्य पुण नत्यि जीव-दया // अगणिय-कजा-ऽकजा निरग्गला गलिय-उभय-लोय-भया / मेहुण-पसत्त-चित्ता किं पावं जं न कुवंति // जलणो वि जलं जलही वि गोपयं पवओ वि सम-भूमी / भुयगो वि होइ माला विसंपि अमयं सुसीलाण // आणं ताण कुणंति जोडिय-करा दास व सखे सुरा मायंगाहि-जलग्गि-सीह-पमुहा वटुंति ताणं वसे / हुजा ताण कुओ वि नो परिभवो सग्गाऽपवग्ग-सिरी ताणं पाणि-तलं उवेइ विमलं सीलं न लुपंति बे॥ विप्फुरइ ताण कित्ती लहंति ते सग्ग-मोक्ख-सुक्खाई / सीलं ससंक-विमलं जे सीलवई व पालंति // [अत्र शीलवते शीलवत्यादिकथानकान्यनुसन्धेयानि / ] इय सील-धम्ममायन्निऊण भव-जलहि-तारण-तरंडं / संविग्ग-मणो राया गिण्हइ नियमं गुरु-समीवे // भट्टमि-चउद्दसी-पमुह-पव-दियहे सुनिच्चमेव मए / कायवं बंभवयं भयवं ! मण-वयण-काएहि // F29. तपोव्रतविषयकोपदेशः। अह वागरियं गुरुणा-जीव-दया-कारणं तवं कुजा / छजीव-निकाय-वहो न होइ जम्हा कए तम्मि // जह कंचणस्स जलणो कुणइ विसुद्धिं मलावहरणेणं / जीवस्स तहेव तवो कम्म-समुच्छेय-करणेण // * ' कम्माइं भवंतर-संचियाइं तुर्दृति किं तवेण विणा / डमंति दावानलमंतरेण किं केण वि वणाई // अगणिय-तणुपीडेहिं तित्थयरेहिं तवो सयं विहिओ / कहिओ तह तेहिं चिय तित्थयरत्तण-निमित्तमिमो॥ कुसुम-समाओ तियसिंद-चक्कवट्टित्तणाइ-रिद्धीओ / जाणसु तव-कप्प-महीरुहस्स सिव-सुक्ख-फलयस्स // पारसवरिसाइं तवो पुव्व-भवे रुप्पिणीइ जह विहिओ / तह कायचो नीसेस-दुक्ख-खवणत्थमन्नेहिं // [अत्र तपोवते रुक्मिण्यादीनां कथा अनुसन्धेयाः।] एवं तव-माहप्पं मुणिऊण तवो नरिदं ! काययो / सो पज्झो छम्भेओ अभिंतरओ य छन्भेओ // तं जहा'अणसणमुणोयरिया वित्ती-संखेवणं रस-चाओ / काय-किलेसो संलीणया य बज्झो तवो होह // पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ / झाणं च उस्सगो वि य अभिंतरओ तवो होइ // ' रना भणियं अट्ठमि-चउद्दसी-पमुह-पच्च-दियहेसु / जिण-कल्लाण-तिहीसु य सत्तीइ तवं करिस्सामि // एवं पारस-भेयं तव-धम्मं अक्खिउं गुरूं भणइ / वारसविहं नराहिव ! सुण संपइ भावणा-धम्मं // 30. शुभभावनोपदेशः। सुह-भावणा-परिगओ जीवदयं पालिङ खमइ जीवो / सो असुह-भावणाए गहिओ पावं न किं कुणइ / / वंझं बिति जहित्थ सत्थ-पढणं अत्यावषोहं विणा सोहग्गेण विणा मडप्प-करणं दाणं विणा संभमं / सन्मावेण विणा पुरंधि-रमणं नेहं विणा भोअणं एवं धम्म-समुजयं पि विबुहा ! सुद्धं विणा भावणं // // Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमप्रभाचार्यकृतसचम-नरय निमित्वं कम्मं बद्धं पसन्नचंदेण / असुहाइ मावणाए सुहाइ पुण केवलं पतं // [भावनाविषयेऽत्र प्रसन्नचन्द्रादीनां कथानकाम्यनुसन्धेयानि।] मह पुच्छइ कुमर-नराहिराउ, मण-मक्कड-नियमण-संकलाउ / कह कीरहि बारह भावणाउ, तो अक्खइ गुरु घण-गहिर-नाउ // 30. भावना-खरूप-वर्णनम् / ते जहा-चलु जीविउ.जुवणु धणु सरीरु, जिम्व कमल-दलग्ग-विलग्गु नीरु / अहवा इहत्थि जं किं पि वत्थु, तं सव्वु अणिञ्चु हहा घिरत्यु // पिय माय भाय सुकलत्तु पुत्तु, पहु परियणु मित्तु सिणेहजुत्तु / पहवंतु न रक्खइ को वि मरणु, विणु धम्मह अन्नु न अस्थि सरणु // राया वि रंकु सयणो वि सत्तु, जणओ वि तणउ जणणि वि कलत्तु / इह होइ नडु व कुकम्मवंतु, संसार रंगि बहुरुक्षु जंतु // एकलउ पावइ जीवु जम्मु, एकल्लउ मरइ विढत्त-कम्मु / एकलउ परभवि सहइ दुक्खु, एकलउ धम्मिण लहइ मुक्खु // जहिं जीवह एउ वि अन्नु देहु, तहिं किं न अन्नु धणु सयणु गेहु / जं पुण अणन्नु तं एक-चित्तु, अजेसु नाणु दंसणु चरितु // . वस-मंस-रुहिर-चम्मऽट्ठि-बद्ध, नव-छिड़ झरंत मलावणद्ध / असुइ-सरूव-नर-थी-सरीर, सुइबुद्धि कह वि मा कुणसु धीर // मिच्छत्त-जोग-अविरइ-पमाय, मय-कोह-लोह-माया कसाय / पावासव सवि इमे मुणेहि , जइ महसि मोक्खु ता संवरेहि।. जह मंदिरि रेणु तलाइ वारि, पविसइ न किंचि ढक्किय दुवारि / पिहियासवि जीवि तहा न पावु, इय जिणिहि कहिउ संवरु पहाव परवसु अन्नाणु जं दुहु सहेइ, तं जीयु कम्मु तणु निजरेइ / जो सहइ सवसु पुण नाणवंतु, निजरइ जिइंदिउ सो अणंतु // जहिं जम्मणु मरणु न जीवि पत्तु, तं नत्यि ठाणु वालग्ग-मत्तु / उड्डा-ऽहो-चउदस-रज-लोगि, इय चिंतसु निचु सुओवओगि // सुह-कम्म-निओगिण कहवि लद्ध, बहु पावु करेविणु पुण विरुद्ध / जलनिहि-चुय-रयणु व दुलह बोहि, इय मुणिवि पमत्तु म जीव होहि // धम्मु त्ति कहंति जि पावु पाव, ते कुगुरु मुणसु निद्दय-सहाव / पइ पुन्निहि दुल्लहु सुगुरु पत्तु, तं वजसु मा तुहु विसय-सत्तु // इय बारह भावण सुणिवि राउ, मणमज्झि वियंभिय भव-विराउ / रजु वि कुणंतु चिंतइ इमाउ, परिहरिवि कुगइ-कारणु पमाउ // इप सोमप्पह-कहिए, कुमार-निव-हेमचंद-पडिबद्धे / जिणधम्म-प्पडिबोहे पत्थावो वणियो तालो। // इत्याचार्यश्रीसोममभरिचित कुमारपालप्रतिबोचे तृतीयः प्रखापः // Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 सुमारपालप्रतिबोध-संक्षेप अथ चतुर्थः प्रस्तावः। . १.हेमसूरिकृतो द्वादशवतोपदेशः। बह वागरियं गुरुणा जीव-दयं धम्ममिच्छमाणेण / सिव-मंदिर-निस्सेणी विरई पुरिसेण कायचा // सोदिय-वसगाणं समत्व-पावासवा नियत्ताणं / जं अविरयाण जीवाण कहवि न वट्टइ जीव-दया // (अविरयाण कहमवि वट्टइ सम्म न जीवदया-पाठान्तरम् / ) जह कह वि सच-विरई मुणि-धम्म सरूवमक्खमो काउं / ता देसओ वि विरइं गिहत्य-धम्मोचियं कुबा // पुत्र-परिकम्मिय-चित्त-कम्म-जुग्गा जहा भवे भित्ती / तह विहिय-देस-विरई काउमलं सच-विरई पि // - भणियं च-. 'एसा वि देस-विरई सेविजइ सच-विरइ-कजेण / पायमिमीए परिकम्मियाण इयरा थिरा होई॥ पंच उ अणु-वयाइं गुण-वयाई हवंति तिन्नेव / सिक्खावयाइँ चत्तारि देस-विरई दुवालसहा // तत्र३२. प्राणातिपातविरत्युपदेशः। संकप्प-पुत्वयं जं. तसाण जीवाण निरवराहाण / दुविह-तिविहेण रक्षणमणुष्वयं बिंति तं पढम // चिर-जीवी वर-रुवो नीरोगो सयल-लोग-मण-इहो / सो होइ सुगइ-गामी सिवो व जो रक्खए जीवे // - [अत्र शिवकथानकमनुसन्धेयम्।] 34. मृषावादविरत्युपदेशः। . जं गो-भू-कन्ना-कूडसक्खि-नासापहार-अलियस्स / दुविह-तिविहेण वजणमणुष्वयं चिंति के बीयं // . भुयगो व अलियवाई होइ अवीसास-भायणं भुवणे / पावइ अकित्ति-पसरं जणयाण वि जणइ संता॥ सचेण फुरइ कित्ती सच्चेण जणम्मि होइ वीसासो / सग्गा-ऽपवग्ग-सुह-संपयाउ जायंति सच्चेण // - कुरुते यो मृषार्वादविरतिं सत्यवागवतः / मकरध्वजवन्द्रमुमयत्रापि सोऽश्नुते // __ [अत्र मकरध्वजदृष्टान्तोऽनुसन्धयः।] 35. अदत्तादानविरत्युपदेशः। घं चोरंकारकरस्स खत्त-खणणाइणा पर-धणस्स / दुविह-तिविहेण वजणमणुवर्य बिति तं तइयं // जो न हरइ पर-दवं इहावि सो लहइ न वह बंधाई / पर-लोए पुण पावइ सुर-नर-रिद्धीयो विउलायो॥ एकस्स चेव दुक्खं मारिजंतस्स होइ खणमेकं / जावज्जीव सकुडंषयस्स पुरिसस्स धण-हरणे // दई परस्स बज्मं जीयं जो हरइ तेण सो हणिओ / दव-विगमे जओ जीयमंतरंग पि जाइ खयं // जं खत्त-खणण-बंध-गहाइ-विहिणा परस्स धण-हरणं / पञ्चक्ख-दिट्ठ-दोसं तं चिट्ठउ दूरओ ताव // पर-वंचणेण घेत्तुं दितस्स वि पर-धणं पर-भवम्मि / पर-गेहे चिय वचइ दत्तस्स व वणिय-पुत्तस्स // [भत्र वणिकपुत्रदत्तकथाऽनुसन्धेया।] 5 36. परवारविरत्युपदेशः। जं निय-नियभंगेहिं दिवाणं माणुसाण तिरियाणं / परदाराणं विरमणमणुष्वयं विति तं तुरियं // घउ-विह-कसाय-मुक्को चउ-गइ-संसार-भवण-निविण्णो / जो धरह चउत्प-वयं सो लहइ चउत्प-पुरिसत्व 5. पा. च.१५ "5 . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमप्रभाचार्यकृतनिवडिय-सुहडभावाण ताण को वहउ एत्य समसीसि / पर-रमणि-संकडे निवडिया वि न मुयंति ने मेरे // इणमेव धम्म-धीय इणमेव विवेय-कणय-कसवट्टो / इणमेव दुक्करं जं कीरइ परदार-विरह-वयं // यः पालयति निर्व्याज परस्त्रीविरतिव्रतम् / परोह च स श्रेयः पुरन्दर इवाश्नुते // . [अत्र पुरन्दरकथाऽनुसन्धेया।] 58 37. परिग्रहषिरत्युपदेशः। दुपय-चउप्पय-धण-धन्न-खेत्त-घर-रुप्प-कणय-कुप्पाण / जं परिमाणं तं पुण अणुवयं पंचमं विति // जीवो भवे अपारे गरुय-परिग्गह-भरेण अक्कतो / दुह-लहरि-परिक्खित्तो बुहुइ पोओ.जलहिम्मि // धम्मारामखयं खमा-कमलिणी-संघाय-निग्घायणं, मजाया-तडि-पाडणं सुह-मणो-हंसस्स निवासणं / बुद्धि लोहमहण्णवस्स खणणं सत्ताणुकंपा-भुवो, संपाडेइ परिग्गहो गिरिनई-पूरो व वहृतो॥ लोह-परिचत्त-चित्तो जो कुणइ परिग्गहस्स परिमाणं / सो परमवे परिग्गहमपरिमियं लहइ नागो छ / [अत्र नागकथानकमनुसन्धेयम् / ] 38. दिग्वतोपदेशः। दससु दिसासु जं सयल-सत्त-संताण ताण-कय-मइणो / गमण-परिमाण-करणं गुणवयं विंति तं पडम // जीवो धणलोभ-ग्गह-गहिय-मणो जत्थ जत्थ संचरइ / विद्दवइ पाणिणो तत्थ तत्य तत्चायपिंडो॥ संतोस-पहाण-मणो दिसासु जो कुणइ गमण-परिमाणं / सो पावइ कल्लापां इत्य वि जम्मे सुबंधु // [अत्र सुबन्धुकथानकमनुसन्धेयम् / 39. भोगोपभोगव्रतोपदेशः। बीयं गुण-वयं पुण भोयणओ कम्मओ य होइ दुहा / तं भोयणओ भोगोवभोग-माणं विहेयवं // सइ.भुजइ त्ति भोगो सो पुण आहार-पुप्फमाईओ / उवभोगो य पुणो पुण उवभुजइ भुवण-विलयाई // असणस्स खाइमस्स य विरई कुज्जा निसाइ आ जीवं / महु-मज-मंस-मक्खण-पमुहाण य सबहा नियमं // पनरस-कम्मादाणाई कोट्टवालाइणो नियोगा य / तं कम्मओ पणीयं तत्थ करिजा बुहो जयणं // पुरुषः पालयन् भोगोपभोगव्रतमादृतः / जयद्रथ इवाभीष्टं लभतेऽत्रापि जन्मनि // [अत्र जयद्रथकथानकमनुसन्धेयम् / ] 40. अनर्थ-दण्डविरत्युपदेशः। दोस-भुयंग-करंडो अणत्थ-दंडो अणत्य-दुमसंडो / जं तस्स विरमणं तं वनंति गुण-वयं तइयं // तणु-सयण-घराईणं अत्थे जं जंतु-पीडणं दंडो / सो होइ अत्थ-दंडो अणत्य-दंडो उ विवरीओ // पावोवएस-अवज्झाण-हिंसदाण-प्पमाय-भेएहिं / चउहा अणत्थ-दंडो अणंत-नाणीहिं निहिट्ठो॥ करिसण-वणिज्ज-हय-वसण-छेय-गोदमण-पमुह-पावाण / जो उवएसो कीरइ परस्स पावोवएसो सो // वरिसंतु घणा मा वा, मरंतु रिउणो, अहं निवो होज / सो जिणउ, परो भजउ, एवं चिंतणमवज्झाणं // हल-मुसलु-क्खल-सगडग्गि-खग्ग-धणु-बाण-परसु-पमुहाणं / हिंसा-निबंधणाणं समप्पणं हिंसदाणमिणं // जं मज-विसय-विकहाइ-सेवणं पंचहा पमाओ सो। अह व घय-दुद्ध-तेल्लाइ-भायण-च्छायणाऽऽलस्सं // कय-परपीडमसंबद्ध-भासणं वजरंति मोहरिनं / तं पुण अणत्थ-दंडस्स पढममंगं ति मोत्तवं // होइ वयणं सुसंधं महुरो सदो तह त्ति जं भणियं / आणं कुणंति तियसा वि तस्स जो चयइ मुहरतं / बजिय-अणत्य-दंडो खंदो जाओ निवो पुरिस-चंदो / मोहरियं काउं किंचि रुह-जीवो दुहं पत्तो // [भत्र रुद्रजीवडष्टान्तोऽनुसन्धेयः।] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रतिबोध-संक्षेप 41. सामायिकवतोपदेशः। जं समणस्स व सावज-जोग-वजणमरत्त-दुट्ठस्स / तं सम-भाव-सरूवं पढमं सिक्खा-वयं चिंति // जो राग-दोस-रहिओ गहिउं सामाइयं न खंडेइ / सो सावओ वि साहइ सागरचंदो पर-लोयं // [अत्र सागरचन्द्रदृष्टान्तोऽनुसन्धेयः।] 5 42. देशावकाशिकव्रतोपदेशः।। जं पुच्च-गहिय-सयल-बयाण संखेव-करणमणुदियहं / देसावगासियं तं मणंति सिक्खावयं वीयं // जीवो पमाय-बहुलो पमाय-परिवजणे हवइ धम्मो / ता कीरइ पइदियह संखेवस्सावि संखेवो॥ सच्छंद-पयाराई जहा अणत्थे पडंति डिंभाई / अनिजंतिय-वावारा जीवा निवडति तह नरए / तेणावाय-परंपर-विसम-विस-प्पसर-5मण-निमित्तं / निर्व्हि रक्खा-कंडयं व सिक्खावयं एयं / / अणुवित्तीए वि हु ओसहं व जो कुणइ वयमिणं मणुओ। पवणंजउ व पावइ सो इह लोए वि कसा // - [भत्र पवनञ्जयकथानकमनुसन्धेयम्।] 43. पौषधव्रतोपदेशः। आहार-देह-भूसण-अबंभ-वावार-चाय-रुवं जं / पवेसु पोसहं तं तइयं सिक्खा-वयं बिति // अहमि-चउद्दसी-पमुह-पव-दियहेसु जो कुणइ एयं / पावइ उभय-भवेसुं सो रणसूरु व कलाणं // [अत्र रणशूरकथानकमनुसन्धेयम् / / 5६४४.अतिथिसंविभागवतोपदेशा। साहूण संविभागो जो कीरइ मत्त पाण-पमुहेहिं / तं अतिहि संविमागं तुरियं सिक्खावयं विति // जो अतिहि-संविभागं परिपालइ पवर-सत्त-संजुत्तो / नरदेवी व सउन्नो इहावि सो लहइ कमाणे // . . [भत्र नरदेवकथानकमनुसन्धेयम् / ] एवं नरिंद ! तुह अक्खियाई एयाई बारस-चयाइं / रत्ना मणियं भयवं! अणुग्गहो मे फओ तुमए / पंच-मह-वय-मारो धुवं गिरिंदो व दुबहो ताव / तं जे वहंति सम्मं ते दुक्कर-कारए वंदे // ते वि हु सलाहणिज्जा न कस्स परिमिय-परिंग्गहा-मा / सक्कंति पालिङ जे इमाई पारस-चयाई वि. गुरुणा भणियं आणंद-कामदेवाइणों पुरा जाया / जेहिं परिपालियाई इमाई सावय-वयाई इ॥ इण्हि तु वर-गिहत्यो इहत्थि नामेणं छइओ सेही / परिमिय-परिग्गहो विहिय-पाव-चावार-परिहारो॥ जो अहिगय-नव-तत्तो संतोस-परो विवेय-रयण-निही / देव गुरु-धम्म-कज्जेसु दिन-निय-भुय-वित्त-धमो // सो अम्ह पाय-मूले पुवं पडिवविऊण भावेण / बारस-वयाइं एयाइं पालए निरइयाराई // रबा मणियं एसो आसि धणड्डो ति मज्झ मोरयो / साहम्मिउ त्ति संपइ बंधु व विसेसओ जाओ। मयवं ! अहं पि काहं सावय-धम्मस्स पारस-विहस्स / परिपालणे पयत्तं वसुहा-सामित्त-अणुरूवं // तो गुरुणा वागरियं नरिंद ! तुममेव पुन्नवंतो सि / जो एरिसो वि सावय-वयाण परिपालणं कुणसि // इय सोमप्पह-कहिए कुमार-निव-हेमचंद-पडिबद्धे / जिण-धम्म-पडिबोहे पत्यावो वनिओ तुरियो // // इत्याचार्यश्रीसोमप्रभाविरचिते कुमारपालप्रतियोधे चतुर्थः प्रस्खाया। m .. // Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमप्रभाचार्यकृतअथ पञ्चमः प्रस्तावः। 45. कषायजयोपदेशः। अह गुरुणा वागरियं जो जीवदयं समीहए काउं / तेण कसायाण पराजयम्मि जत्तो विहेयशो // जम्हा कसाय-विवसो किञ्चमकिच्चं च किंपि अमुणतो / निद्दय-मणो पयट्टइ जीवो जीवाण पीडासु // तो कोह-माण-माया-लोमा चउरो चउबिहा हुंति / एक्विक्कसो अणंताणुबंधि-पमुहेहिं मेएहि // कलाकज-विचारण-चेयन्न-हरस्स विसहरस्सेव / कोवस्स कोऽवगासं मइमं मण-मंदिरे दिज्जा 1 // 46. क्रोधजयोपदेशः। सुहु जलणो जलंतो वि दहइ तं चेव जत्थ संलग्गो / कोह-जलणाउ जलिओ सठाणमन्नं परभवं च // जिण-पवयण-मेह-समुभवेण पसमामएण कोंव-दवं / विज्यवइ जो नरो होइ सिव-फलं तस्स धम्म-वर्ण / कोवेण कुगइ-दुक्खं जीवा पावंति सिंह-वग्ध छ / होउं खमा-परा पुण लहंति सग्गा-ऽपवग्ग-सुहं // . [अत्र सिंहव्याघ्रकथानकमनुसन्धेयम् / ] 47. मानजयोपदेशः। अट्ठ-मय-हाणेहिं मत्तो अंतो-निविठ्ठ-संकु छ / कस्स वि अनमंतो तिहुयणं वि मन्नइ तणं व नरो॥ मय-वट्टो उड-मुहो गयणम्मि गणंतओ रिक्खाई / अनिरिक्खिय-सुह-मग्गो भवावडे पडइ किं चोचं // . राया-ऽमच्चाईणं पि सेवओ माणवजिओ चेव / लहइ मण-वंछियत्यं पुरिसो माणी पुण अणत्यं // माणी उव्वेय-करो न पावए कामिणीण काम-सुहं / इत्थीण कामसत्थेसु कम्मणं महवं जम्हा // मोक्ख-तरु बीय-भूओ माण-स्थडस्स नत्थि धम्मो वि / धम्मस्स जो समए विणउ चिय वन्नियो मूलं // 5 // जाइ-कुलाइ-मएहिं नडिओ जीवो वि विडंबणं लहइ / तेहिं पुण वजिओ गोषणो व सुह-मायणं होई // [अथ गोधनकथानकमनुसन्धेयम् / 58 48. मायाजयोपदेशः। धम्म-वण-अलण-जाला मोह-महा-मयगलाण [जा] साला / कुगइ-बहू-वर-माला माया सुह-मइ-हरण-हाला // थेव-कए कवड-परो निविडं निवडतमावया-लक्खं / लक्खइ न जणो लगुडं पयं पियंतो बिडालोच॥ . माया-वसेण कवड-प्पओग-कुसला अकिञ्चमायरिठं / पत्ता इहेव सयमेव लजिउं नाइणी निहणं // [अत्र नागिनीकथाऽनुसन्धेया।] 5 49. लोभजयोपदेशः। जो कोह-माण-माया-परिहार-परो वि वनइ न लोहं / पोओ व सागरे सो भवम्मि बुडइ कु-कम्म-गुरू॥ 50 ससि-कर-धवला वि गुणा निय-आसय-वाह-कारए लोहे / आवदंति जल-कणा लोहम्मि व जलण-संसत्ते // इह लोयम्मि किलेसे लहिउं लोभाउ सागरो गरूए / पर-लोए संपत्तो दुग्गइ-दुक्खाई तिक्खाई॥ __ [अत्र सागरदृष्टान्तोऽनुसन्धेयः।] इय हेमसूरिमणि-पुंगवस्स सुणिऊण देसणं राया / जाणिय-समत्त-तत्तो जिण-धम्म-परायणो जाओ // Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालप्रतिबोध-संक्षेप 50. कुमारपालदिनचर्यावर्णनम् / तो पंच-नमुक्कार सुमरंतो जग्गए रयणि सेसे / चिंतइ अय दो वि हिय[२] देिव-गुरु-धम्म-पडिवति / / काऊण काय-सुद्धिं कुसुमामिस-बोच-विविह-पूयाए / पुजइ जिण-पडिमानो पंचहिं दंडेहिं वंदे // निचं पञ्चक्खाणं कुणइ जहासति सत्त-गुण-निलओ / सयल-जय-लच्छि-तिलओ तिलयावसरम्मि उवविसह। करि-कंधराधिरूढो समत्त-सामंत-मंति-परियरिओ / वचइ जिणिंद-भवणं विहि-पुष्वं तत्थ पविसेइ // बह-प्पयार-पूयाइ पूइउं वीयराय-पडिमाओ / पणमइ महि-निहिय-सिरो थुणइ पवित्तेहिं योत्तेहिं // गुरु-हेमचंद-चलणे चंदण-कप्पूर-कणय-कमलेहिं / संपूईऊण पणमइ पञ्चक्खाणं पयासेइ // गुरु-पुरओ उवविसिउं पर-लोय-सुहावहं सुणइ धम्मं / गंतूण गिहं वियरइ जणस्स विनत्तियावसरं // विहियग्ग-कूर-थालो पुणो वि घर-चेइयाई अञ्चेइ / कय उचिय-संविभागो भुंजेइ पवित्तमाहारं // भुत्तुत्वरं सहाए वियारए सह बुहेहिं सत्थत्यं / कइया वि निव-नियुत्तो कहइ कहं सिद्धवाल-कई // [अत्र कविसिखपालकथिता अपभ्रंशभाषाबद्धा जीव-मना-करण-संलापकथा ज्ञातव्या] बन-दिणेऽन्न-विबुहेण य जंपियं देव किंपि पुच्छिस्सं / रन्ना भणियं पुच्छसु बुहो पयट्टो मणिउमेव // [भत्र कश्चिदन्यविबुधकथितं विक्रमादित्यकथानकं विश्वेयम् / / तो राया बुहवग्गं विसजिउं दिवस-चरम-जामम्मि / अत्थाणी मंडव-मंडणम्मि सिंहासणे ठाइ // सामंत-मंति-मंडलिय-सेडिपमुहाण दंसणं देइ / विनत्तीओ तेर्सि सुणइ कुणइ तह पडीयारं // कय-निधिवेय-जण-विम्हियाइं करि-अंक-मल्ल-जुद्धाई / रजहिइ ति कइया वि पेच्छए छिन्नवंछो वि / / भट्ठमि-चउदसि-वजं पुणो वि भुंजइ दिणहमे भाए / कुसुमाइएहिं घर-चेइयाइं अचेइ संझाए / निसि निविसिऊण पट्टे आरत्तिय-मंगलाई कारवइ / वारवहू-निवहेणं मागह-गण-गिजमाण-गुणो // 'तो निरं काउमणो मयण-भुयंगम-विस-प्पसम-मंतं / संथुणइ थूलभद्द-प्पमुह-महामुणि-चरियमेवं // [.अत्र स्थूलभद्रकथाऽनुसन्धेया। नमस्कारमाहात्म्ये च नन्दनकथा वाच्या।] परमेष्ठिनमस्कारं स्मरन् भूपतिरभ्यधात् / नमस्कारस्य माहात्म्यं दृष्टप्रत्ययमेव मे // तथा हिखयं सकलसैन्येन दिग्यात्राः कुर्वतोऽपि मे / असिध्यत [यतो] नार्थोऽनर्थः प्रत्युत कोऽप्यभूत् // 5.. 'अधुना तन्नमस्कार स्मरतो मम शत्रवः / वणिजैरपि जीयन्ते दण्डेशैरम्बडादिभिः // खचक्र परचक्र वा नानथै कुरुते क्वचित् / दुर्भिक्षस्य न नामापि श्रूयते वसुधातले // ततस्तं संस्मरत्नेवं निद्रां भजति पार्थिवः / रात्रिशेषे तु जागर्ति मागधोक्तैर्जिनस्तवैः // ततः पञ्चनमस्कारधर्मस्मरणपूर्वकम् / वन्दित्वा पार्थिवो देवान् भवोद्विमोऽग्यधादिदम् // हहा / विषयपकौषममस्तिष्ठति मादृशः / धन्यो दशार्णभद्रः स राज्यं तत्याज यः क्षणात् // [अत्र दशार्णभद्रकथानकमनुसन्धेयम्।] एवं कुर्वन्नहोरात्रकृत्यानि परमार्हतः। कुमारपालदेवोऽयं राज्यं पालयति क्षितौ // 15 सिष्टार्थोऽयं पाठः / जिनमण्डनगणिविरचित-कुमारपालप्रबन्धे तु 'चिंतह य दोवि हियए' (पृ. १०.प्र.) इत्येवपक्षम्यते। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 सोमप्रभाचार्यकृतनृपस्स जीवाभयदानडिण्डिमै-महीतले नृत्यति कीर्तिनर्तकी / समं मनोमिस्तिमि केकि-तितिरिस्तुमोरण-कोड-मृगादिदेहिनान् // घूतासवादीनि नृणां न्यषेधीदिहैव सप्त व्यसनानि भूपः / दुष्कर्मतो दुर्गतिसंभवानि परत्र तेषां त्वमितानि तानि // पदे पदे भूमिभुजा निवेशितैर्जिनालयैः काञ्चनदण्डमण्डितैः / निवारिता वेत्रधरैरिवोद्धतैः स्फुरन्ति कुत्रापि न केऽप्युपद्रवाः // स्तुमत्रिसन्ध्यं प्रभुहेमसूरेरनन्यतुल्यामुपदेशशक्तिम् / अतीन्द्रियज्ञानविवर्जितोऽपि यः क्षोणिमर्तुळधित प्रबोधम् // सत्त्वानुकम्पा न महीभुजां स्यादित्येष क्लृप्तो वितथः प्रवादः / जिनेन्द्रधर्म प्रतिपद्य येन श्लाघ्यः स केषां न कुमारपालः॥ विचित्रवृत्तान्तसमेतमेतयोश्चरित्रमुत्कीर्तयितुं क्षमेत कः / तथापि तस्यैव .... तार्थिना समुद्धृतो बिन्दुरिवाम्बुधर्मया // इति सोमम भकथिते कुमारनृप-हेमचन्द्रसम्बद्धे / जिनधर्मप्रतिबोधे प्रस्तावः पञ्चमः प्रोक्तः // 15 // / इत्याचार्यश्रीसोमप्रभविरचिते कुमारपालप्रतिबोधे पञ्चमः प्रस्तावः / Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // कुमारपालप्रतिबोधप्रशस्तिः // सूर्याचन्द्रमसौ कुतर्कतमसः कर्णावतंसौ क्षिते (यों धर्मरथस्य सर्वजगतस्तत्त्वावलोके दृशौ / निर्वाणावसथस्य तोरणमहास्तम्भावभूतामुभा वेकः श्रीमुनिचन्द्रसूरिरपरः श्रीमानदेवप्रभुः // तयोर्बभूवाजितदेवरिः शिष्यो बृहद्गच्छनभःशशाङ्कः / जिनेन्द्रधर्माम्बुनिधिः प्रपेदे घनोदकः स्फूर्तिमतीव यस्मात् // श्रीदेवसूरिप्रमुखा बभूवुरन्येऽपि तत्पादपयोजहंसा / येषामबाधारचितस्थितीनां नालीकमैत्रीमुदमाततान // विशारदशिरोमणेरजितदेवसूरेरभूत्, क्रमाम्बुजमधुव्रतो विजयसिंहरिः प्रभुः / मितोपकरणक्रियारुचिरनित्यवासी च यश्चिरन्तनमुनिव्रतं व्यधित दुषमायामपि // ___ तत्पहपूर्वाद्रिसहस्ररश्मिः सोमप्रभाचार्य इति प्रसिद्धः / . श्रीहेमसूरेश्व कुमारपालदेवस्य चेदं न्यगदचरित्रम् // सकविरिति न कीर्ति नार्थलाभं न पूजामहमभिलषमाणः प्रावृतं वक्तुमेतत् / किमुत कृतमुभाभ्यां दुष्करं दुःषमायां जिनमतमतुलं तत्कीर्तनापुण्यमिच्छुः // धर्मे निर्मलतामवाप्सुमतुलां श्रीहेमचन्द्रप्रभौ भक्तिं व्यजितमद्भुतां भणितिषु द्रष्टुं परामौचितीम् / श्रोतुं चित्रकथाश्चमत्कृतिकृतः काव्यं च लोकोत्तरं कर्तुं कामयसे यदि स्फुटगुणं तद्वन्थमेतं शृणु // प्राग्वाटान्वयसागरेन्दुरसमप्रज्ञः कृतज्ञः क्षमी __ वाग्ग्मी सूक्तिसुधानिधानमजनि श्रीपालनामा पुमान् / यं लोकोत्तरकाव्यरञ्जितमतिः साहित्यविद्यारतिः श्रीसिद्धाधिपतिः 'कवीन्द्र' इति च 'भातेति च व्याहरत् // पुत्रस्तस्य कुमारपालनृपतिप्रीतेः पदं धीमता मुत्तंसः कविचक्रमस्तकमणिः श्रीसिद्धपालोऽभवत् / तं तद्वसताविदं किमपि यच्चायुक्तमुक्तं मया तद्युष्माभिरिहोच्यतामिति बुधा वः प्रावलिः प्रार्थये // हेमसूरिपदपङ्कजहंसैः श्रीमहेन्द्रमुनिपैः श्रुतमेतत् / / वर्द्धमान-गुणचन्द्रगणिभ्यां साकमाकलितशास्त्ररहस्सैः // यावन्निहिताखिलसन्तमसौ नभसि चकास्तो रविचन्द्रमसौ / तावत् हेम-कुमारचरित्रं साधुजनो वाचयतु पवित्रम् // Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 सोमप्रभाचार्यकृतविमलमतिसुधार्विनेमिनागाङ्गजन्माऽभवदभयकुमार श्रावकः श्रेष्ठिमुख्यः। अब निजकरपमप्राप्तधर्मार्थपमा विजितपदकपमा तस्य पनीति पनी // तत्पुत्रा गुणिनोऽभवन् भुवि हरिश्चन्द्रादयो विश्रुताः श्रीदेवीप्रमुखाश्च धर्मधिषणापात्राणि तत्पुत्रिकाः / तत्त्रीत्यर्थमिदं व्यधायि तदुपट्टरागच्छष्टात्ममि(१), भूयिष्ठानि च पुस्तकानि........ सोऽलेखयत् // शशि-जींधि-सूर्यवर्षे शुचिमासे रविदिने सिताष्टम्याम् / जिनधर्मप्रतियोधः क्लृप्तोऽयं गूर्जरेन्द्रपुरे // प्रस्तावपश्चकेऽप्यत्राष्टौ सहस्राण्यनुष्टुभाम् / एकैकाक्षरसंख्यातान्यधिकान्यष्टमिः शतैः // संवत् 1458 वर्षे द्वितीयभाद्रपदशुदि 4 तिथौ शुक्रदिने श्रीस्तम्भतीर्थे बृहद्ध(वृद्ध)पौषधशालायां भा० श्रीजयतिलकसूरीणां उपदेशेन श्रीकुमारपालप्रतिबोधपुस्तकं लिखितमिदम् // कायस्थज्ञातीय महं मडलिकसुत घेतालिखितम् / चिरं नन्दतु // छ / उ० श्रीजयप्रभगणिसष्य(शिष्य) उ० श्रीजयमन्दिरगणिसष्य(शिष्य) महा. श्रीकल्याणरत्नसूरिगुरुभ्यो नमः // पं० व(वि)चारत्नगणि // Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्-हेमचन्द्राचार्यविरचितत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितान्तर्गत-महावीरचरितस्थं कुमारपालचरितवर्णनम् / [द्वादशसर्गात् समुद्धृतम्] पृच्छति स्माभयोऽथैवं कपिलर्षिप्रतिष्ठिता / प्रकाशमेष्यति कदा प्रतिमा पारमेश्वरी // 36 // खाम्याख्याति स्म सौराष्ट्र-लाट-गूर्जरसीमनि / क्रमेण नगरं भावि नामाऽणहिलपाटकम् // 37 // आर्यभूमेः शिरोरत्नं कल्याणानां निकेतनम् / एकातपत्राद्धर्म तद्धि तीर्थ भविष्यति // 38 // चैत्येषु रत्नमय्योईप्रतिमास्तत्र निर्मलाः / नन्दीश्वरादिप्रतिमाकथां नेष्यन्ति सत्यताम् // 39 // भासुरवर्णकलशश्रेण्यलङ्कतमौलिभिः / रोचिष्यते च तचैत्यैर्विश्रान्ततपनैरिव // 4 // श्रमणोपासकस्तत्र प्रायेण सकलो जनः / कृतातिथिसंविभागो भोजनाय यतिष्यते // 41 // परसंपधनीर्ष्यालुः संतुष्टश्च खसंपदा / पात्रेषु दानशीलश्च तत्र लोको भविष्यति // 42 // श्राद्धाश्च धनिनस्तत्रालकायामिव गुह्यकाः / वप्स्यन्ति द्रविणं सप्तक्षेत्र्यामत्यन्तमाईताः // 43 // परख-परदारेष सर्वः कोऽपि परानखः। भावी तस्मिन् पुरे लोकः सुषमाकालभरिव // 44 // अस्मन्निर्वाणतो वर्षशतान्यमय ! षोडश / नवष्टिश्च यास्यन्ति यदा तत्र पुरे तदा // 45 // कुमारपालो भूपालचौलुक्यकुलचन्द्रमाः / भविष्यति महाबाहुः प्रचण्डाखण्डशासनः // 46 // स महात्मा धर्म-दान-युद्धवीरः प्रजां निजाम् / ऋद्धिं नेष्यति परमां पितेव परिपालयन् // 47 // ऋजुरप्यतिचतुरः शान्तोऽप्याज्ञादिवस्पतिः / क्षमावानप्यधृष्यश्च स चिरं क्ष्मामविष्यति // 48 // स आत्मसदृशं लोकं धर्मनिष्ठं करिष्यति / विद्यापूर्णमुपाध्याय इवान्तेवासिनं हितः॥४९॥ शरण्यः शरणेच्छूनां परनारीसहोदरः / प्राणेभ्योऽपि धनेभ्योऽपि स धर्म बहु मंस्यते // 50 // पराक्रमेण धर्मेण दानेन दययाऽऽज्ञया / अन्यैश्च पुरुषगुणैः सोऽद्वितीयो भविष्यति // 51 // स कौबेरीमा तुरुष्कमैन्द्रीमा त्रिदशापगाम् / ___याम्यामा विन्ध्यमा वार्घि पश्चिमां साधयिष्यति // 52 // अन्यदा वज्रशाखायां मुनिचन्द्रकुलोद्भवम् / आचार्य हेमचन्द्रं स द्रक्ष्यति क्षितिनायकः // 53 // तद्दर्शनात् प्रमुदितः केकीवाम्बुददर्शनात् / तं मुनि वन्दितुं नित्यं स भद्रात्मा त्वरिष्यते // 54 // तस्य सूरेर्जिनचैत्ये कुर्वतो धर्मदेशनाम् / राजा सश्रावकामात्यो वन्दनाय गमिष्यति // 55 // तत्र देवं नमस्कृत्य स तत्त्वमविदन्नपि / वन्दिष्यते तमाचार्य भावशुद्धेन चेतसा // 56 // स श्रुत्वा तन्मुखात् प्रीत्या विशुद्धां धर्मदेशनाम् / अणुव्रतानि सम्यक्त्वपूर्वकाणि प्रपत्स्यते // 57 // स प्राप्तबोधो भविता श्रावकाचारपारगः / आस्थानेऽपि स्थितो धर्मगोठ्या खं रमयिष्यति // 58 // अन्नशाकफलादीनां नियमांश्च विशेषतः / आदास्यते प्रत्यहं स प्रायेण ब्रह्मचर्यकृत् // 59 // साधारणस्त्रीन परं स सुधीर्वर्जयिष्यति / धर्मपत्नीरपि ब्रह्म चरितुं बोधयिष्यति // 6 // मुनेस्तस्योपदेशेन जीवाजीवादितत्त्ववित् / आचार्य इव सोऽन्येपामपि योधि प्रदास्यति // 61 // . येऽर्हद्धर्मद्विषः केऽपि पाण्डुराहृद्विजादयः / तेऽपि तस्याज्ञया गर्भश्रावका इव भाविनः // 12 // 5.पा.च.१८ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 हेमचन्द्राचार्यकृत-कुमारपालचरितवर्णनम् अपूजितेषु चैत्येषु गुरुष्वप्रणतेषु च / न भोक्ष्यते स धर्मज्ञः प्रपन्नश्रावकवतः // 63 // अपुत्रमृतपुंसां स द्रविणं न अहिष्यति / विवेकस्य फलं ह्येतदतृप्ता ह्यविवेकिनः // 64 // पाण्डुप्रभृतिभिरपि त्यक्ता या मृगया न हि / स स्वयं त्यक्ष्यति जनः सर्वोऽपि च तदाज्ञया // 65 // हिंसानिषेधके तस्मिन् दूरेऽस्तु मृगयादिकम् / अपि मत्कूट-यूकादि नान्त्यजोऽपि हनिष्यति // 66 // तस्मिन् निषिद्धपापर्डावरण्ये मृगजातयः / सदाऽप्यविघ्नरोमन्था भाविन्यो गोष्ठधेनुवत् // 67 // जलचर-स्थलचर-खेचराणां स देहिनाम् / रक्षिष्यति सदा मारिं शासने पाकशासनः // 68 // ये चाजन्मापि मांसादास्ते मांसस्य कथामपि / दुःस्वप्नमिव तस्याज्ञावशान्नेष्यन्ति विस्मृतिम् // 69 // दाशाहन परित्यक्तं यत् पुरा श्रावकैरपि / तन्मद्यमनवद्यात्मा स सर्वत्र निरोत्स्यति // 7 // . स तथा मद्यसन्धानं निरोत्स्यति महीतले / न यथा मद्यभाण्डानि घटयिष्यति चयपि // 71 // मद्यपानां सदा मद्यव्यसनक्षीणसंपदाम् / तत्राज्ञात्यक्तमद्यानां प्रभविष्यन्ति संपदः // 72 // नलादिभिरपि मापै—तं त्यक्तं न यत् पुरा / तस्स खवैरिण इव नामाप्युन्मूलयिष्यति // 73 // पारापतपणक्रीडाकुक्कुटायोधनान्यपि / न भविष्यन्ति मेदिन्यां तस्योदयिनि शासने // 74 // स प्रायेण प्रतिग्राममपि निःसीमवैभवः / करिष्यति महीमेतां जिनायतनमण्डिताम् // 75 // प्रति ग्राम प्रति पुरमा समुद्रं महीतले / रथयात्रोत्सवं सोऽर्हत्रतिमानां करिष्यति // 76 // दायं दायं द्रविणानि विरचय्यानृणं जगत् / अङ्कयिष्यति मेदिन्यां स संवत्सरमात्मनः // 77 // . प्रतिमां पांशुगुप्तां तां कपिलर्षिप्रतिष्ठिताम् / एकदा श्रोष्यति कथाप्रसङ्गे स गुरोर्मुखात् // 78 // पांशुस्थलं खानयित्वा प्रतिमा विश्वपावनीम् / आनेष्यामीति स तदा करिष्यति मनोरथम् // 79 // तदैव मन उत्साहं निमित्तान्यपराण्यपि / ज्ञात्वा निश्चेष्यते राजा प्रतिमा हस्तगामिनीम् // 8 // ततो गुरुमनुज्ञाप्य नियोज्यायुक्तपूरुषान् / प्रारप्स्यते खानयितुं स्थलं वीतभयस्य तत् // 81 // सत्त्वेन तस्य परमाहतस्य पृथिवीपतेः / करिष्यति च सांनिध्यं तदा शासनदेवता // 82 // राज्ञः कुमारपालस्य तस्य पुण्येन भूयसा / खन्यमानस्थले मङ्ख प्रतिमाऽऽविर्भविष्यति // 83 // तदा तस्यै प्रतिमायै यदुदायनभूभुजा / ग्रामाणां शासनं दत्तं तदप्याविर्भविष्यति // 84 // . नृपायुक्तास्तां प्रतिमा प्रत्नामपि नवामिव / रथमारोपयिष्यन्ति पूजयित्वा यथाविधि // 85 // पूजाप्रकारेषु पथि जायमानेष्वनेकशः / क्रियमाणेष्वहोरात्रं सङ्गीतेषु निरन्तरम् // 86 // तालिकारासकेषूच्चैर्भवत्सु ग्रामयोषिताम् / पञ्चशब्देष्वातोयेषु वाद्यमानेषु संमदात् // 87 // पक्षद्वये चामरेषूत्पतत्सु च पतत्सु च / नेष्यन्ति प्रतिमां तां चायुक्ताः पत्तनसीमनि // 88 // -त्रिभिर्विशेषकम् // सान्तःपुरपरीवारश्चतुरङ्गचमूवृतः / सकलं सचमादाय राजा तामभियास्यति // 89 // खयं रथात् समुत्तार्य गजेन्द्रमधिरोद्य च / प्रवेशयिष्यति पुरे प्रतिमां तां स भूपतिः // 9 // उपस्वभवनं क्रीडाभवने संनिवेश्य ताम् / कुमारपालो विधिवत् त्रिसन्ध्यं पूजयिष्यति // 91 // प्रतिमायास्तथा तस्या वाचयित्वा स शासनम् / उदायनेन यद् दत्तं तत् प्रमाणीकरिष्यति // 92 / / प्रतिमायाः स्थापनार्थ तस्यास्तत्रैव पार्थिवः / प्रासादं स्फटिकमयममायः कारयिष्यति // 93 // प्रासादोऽष्टापदस्पेव युवराजः स कारितः / जनयिष्यति संभाव्यो विस्मयं जगतोऽपि हि // 94 / / स भूपतिः प्रतिमया तत्र स्थापितया तया / एधिष्यते प्रतापेन ऋद्ध्या निःश्रेयसेन च // 95 // देवभत्स्या गुरुभक्त्या त्वपितुः सदृशोऽभय।। कुमारपालो भूपालः स भविष्यति भारते // 96 // Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्राचार्यरचितत्रिषष्टिशलाकापुरुपचरितप्रशस्तिः / शिष्यो जम्वुमहामुनेः प्रभव इत्यासीदमुष्यापि च श्रीशय्यंभव इत्यमुष्य च यशोभद्राभिधानो मुनिः / संभूतो मुनिभद्रयाहुरिति च द्वौ तस्स शिष्योत्तमी संभूतस्य च पादपद्ममधुलिट् श्रीस्थूलभद्रायः // 1 // वंशक्रमागतचतुर्दर्शपूर्रनकोशस्य तस्य दशपूर्वधरो महर्षिः / नामा महागिरि रिति स्थिरतागिरीन्द्रो ज्येष्ठोऽन्तिषत् समजनिष्ट विशिष्टलन्धिः // 2 // शिष्योऽन्यो दशपूर्वभृन्मुनिवृषो नाम्ना सुहस्तीत्यभूदु यत्पादाम्बुजसेवनात् समुदितप्राज्यप्रबोधर्दिक / चक्रे संप्रतिपार्थिवः प्रतिपुर-ग्रामाकरं भारतेऽस्मिन्न॰ जिनचैत्यमण्डितमिलापृष्ठं समन्तादपि // 3 // अजनि सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध इत्यभिधाऽऽर्यसुहस्तिमहामुनेः / शमधनो दशपूर्वधरोऽन्तिषद् भवमहातरुभञ्जनकुञ्जरः // 4 // महर्षिसंसेवितपादसन्निधेः प्रचारभागालवणोदसागरम् / महान् गणः कोटिक इत्यभूत् ततो गाप्रवङ्गाहो हिमवद्भिरेरिव // 5 // तस्मिन् गणे कतिपयेष्वपि यातवत्सु साधूत्तमेषु चरमो दशपूर्वधारी / उद्दामतुम्बवनपत्तनवज्रखानि-वज्रं महामुनिरजायत वज्रसूरिः // 6 // दुर्भिक्षे समुपस्थिते प्रलयवद्धीमत्वभाज्यन्यदा भीतं न्यस्य महर्षिसमभितो विद्यावदातः पटे / योऽभ्युद्धृत्य कराम्बुजेन नमसा पुर्यामनषीन्महापुर्या मङ्गु सुभिक्षधामनि तपोधाम्नामसीनां निषिः // 7 // तस्माद् वज्राभिधा शाखाऽभूत् कोटिकगणद्रुमे / उच्चनागरिकामुख्यशाखात्रितयसोदरा // 8 // तस्यां च वज्रशाखायां निलीनमुनिषट्पदः / पुष्पगुच्छायितो गच्छश्चन्द्र इत्याख्ययाऽभवत् // 9 // धर्मध्यानसुधासुधांशुरमलग्रन्थार्थरत्नाकरो भव्याम्भोरुहभास्करः स्मरकरिप्रोन्माथकण्ठीरवः / गच्छे तत्र बभूव संयमधनः कारुण्यराशिर्यशोभद्रः सूरिरपूरि येन भुवनं शुभैर्यशोभिर्निङः // 10 // श्रीमन्नेमिजिनेन्द्रपावितशिरस्यद्रौ स संलेखनां कृत्वाऽऽदौ प्रतिपन्नवाननशनं प्रान्ते शुभध्यानमाक् / तिष्ठन् शान्तमनास्त्रयोदश दिनान्याश्चर्यमुत्पादयन्नुच्चैः पूर्वमहर्षिसंयमकथाः सत्यापयामासिवान् // 11 // श्रीमान् प्रद्युम्नसरिः समजनि जनितानेकभव्यप्रबोधस्तच्छिष्यो विश्वविश्वप्रथितगुणगणः प्रावृडम्मोदवद्या। प्रीणाति स्माखिलक्ष्मां प्रवचनजलधेरुद्धृतैरर्थनीरैरातत्य स्थानकानि श्रुतिविषयसुधासारसध्यश्च विष्वक् // 12 // सर्वग्रन्थरहस्यरत्नमुकुरः कल्याणवल्लीतरुः कारुण्यामृतसागरः प्रवचनव्योमाङ्गणाहस्करः / चारित्रादिकरत्नरोहणगिरिः क्ष्मां पावयन् धर्मराट् सेनानीर्गुणसेनसूरिरभवच्छिष्यस्तदीयस्ततः // 13 // शिष्यस्तस्य च तीर्थमेकमवनेः पावित्र्यकृजङ्गमं स्याद्वादत्रिदशापगाहिमगिरिविश्वप्रबोधार्यमा / कृत्वा स्थानकवृत्ति-शान्तिचरित प्राप्तः प्रसिद्धि परां सूरि रितपःप्रभाववसतिः श्रीदेवचन्द्रोऽभवत् // 14 // Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्राचार्यकृत-कुमारपालचरितवर्णनम् आचार्यों हेमचन्द्रोऽभूत् तत्पादाम्बुजषट्पदः / तत्प्रसादादधिगतज्ञानसंपन्महोदयः // 15 // जिष्णुश्चेदि-दशार्ण-मालव-महाराष्ट्रापरान्तं कुरून् सिन्धूनन्यतमांश्च दुर्गविषयान् दोर्वीर्यशक्त्या हरिः। चौलुक्यः परमाईतो विनयवान् श्रीमूलराजान्वयी तं नत्वेति कुमारपालपृथिवीपालोऽब्रवीदेकदा // 16 // पापर्द्धि-यूत-मथप्रभृति किमपि यन्नारकायुर्निमित्तं / तत् सर्व निर्निमित्तोपकृतिकृतधियां प्राप्य युष्मांकमाज्ञाम् / खामिन्चा निषिद्धं धनमसुतमृतस्याथ मुक्तं तथाई चैत्यैरुलंसिता भूरभवमिति समः संप्रतेः संप्रतीह // 17 // पूर्व पूर्वजसिद्धराजनृपतेर्भक्तिस्पृशो याञया / __साझं व्याकरणं सुवृत्तिसुगमं चक्रुः भवन्तः पुरा / मद्धेतोरथ योगशास्त्रममलं लोकाय च द्याश्रय च्छन्दो-ऽलङ्कति-नामसनमुखान्यन्यानि शास्त्राण्यपि // 18 // लोकोपकारकरणे स्वयमेव यूयं सज्जाः स्थ यद्यपि तथाऽप्यहमर्थयेऽदः / मादृगजनस्य परिबोधकृते शलकापुंसां प्रकाशयत वृत्तमपि विषष्टेः // 19 // तस्योपरोधादिति हेमचन्द्राचार्यः शलाकापुरुषेतिवृत्तम् धर्मोपदेशैकफलप्रधानं न्यवीविशञ्चागिरां प्रपञ्चे // 20 // जम्बूद्वीपारविन्दे कनकगिरिरसावश्नुते कर्णिकात्वं यावद् यावच्च धत्ते जलनिधिरवनेरन्तरीयत्वमुचैः।। यावद् व्योमाध्वपान्यौ तरणि-शशधरौ प्राम्यतस्तावदेतत् काव्यं नामा शलाकापुरुषचरितमिसंस्तु बैनं परिभ्याम् // 21 // Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह परिशिष्टम् / Page #223 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रहान्तरागत-उद्धरणरूप पद्यानामकाराद्यनुक्रमणिका / 12 अकरे करकर्ता च अकारे च भवेद् विष्णू० अकुर्वाणोऽपि पापानि अक्खयमणंतमउलं अक्खीणजीवखाणी अक्षुद्रो रूपसौम्यौ अज्झत्थ विसोहीए अज्ञानतिमिरान्धानाम् अज्ञानामपि बालानाम् अट्ठ उ गोअरभूमी अट्ठावयमुर्जिते ... अट्ठावयसमेए ... अणसणमूणोयरिया अणिदियगुणं जीवं अणुमाणुहेउसिद्धं अणुमित्तो वि न कस्स अत्यनिवेसा तश्चिय सरा अत्थस्स ऊहबुद्धी अस्थि अणंता जीवा अयि त्ति निवियप्पो अदत्तदानेन भवेद् दरिद्री अधामधाम धामेदम् अधीती पण्डितः प्रायः अधीत्य चतुरो वेदान् अधीत्य सर्वशास्त्राणि अनन्तगुणितं तस्माद् अनन्तदर्शनज्ञान * अनन्तदुःखं संसारे अनादिभवसंस्कार अपायानामुपायाः स्युः अपुत्राणां धनं गृहन् 42 अप्पा उद्धरिओ चिय 63 अप्येकाङ्गपरिग्रहम्य अन्भुट्ठाणं अंजलि | अंबं तंबच्छीए | अभयंताण वि नजर अभिमुखागतमार्गण | अमओ अ होइ जीवो | अमेध्यमध्ये कीटस्य 69 अमोघवचनः कल्पः 82 अम्हे थोडा रिउ घणा 104 | अयशःपटहं दत्त्वा 104 | अयुतानि गवामष्टौ अये! भेक-च्छेको भव ___ 72 अर्थानामर्जने दुःखम् अवद्यमुक्के पथि यः 81 / अविणासी खलु जीवो 103 | अविहियसवपलंबा अशेषमपि दुःकर्म अश्वः शस्त्रं शास्त्रम् असरीरा जीवगणा असत्यं त्रिषु लोकेषु असत्यं वचनं ब्रूते असन्तोषमविश्वास असन्तोषवतां सौख्यम् असारसंसारमहीरहस्य | असारः संसारः सरलकदली. अस्सावगपडिसेहो अहंकारे सति प्रौदे अहिंसा प्रथमो धर्मः 97 अहो मृढजना धर्मम. ... ... 22, 96 अहो लोभस्य साम्राज्यम् ... 8 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 68 54 गा५५ 80 53 सय ..29 भाकण्ये प्रतिकाननं पशुगणा. बागमेन च युक्त्या च बाचेलुक उदेसिय आजन्म कलिताजिम आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणाम् आज्ञावर्तिषु मण्डलेषु आतङ्ककारणमकारण आत्मन् ! देवस्त्वमेव आत्मवत् सर्वजीवेषु आदौ मयैवायमदीपि आधारो यत्रिलोक्या: आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता ... आभिग्गहियं अणभिग्गहियं ... आभिग्गहियं किल आयरिय उवज्झाए आयाणे परिभोगे... आर्तरौद्रमपध्यान आर्ते तिर्यग्ग (2) तिस्तथा आलू तह पिंडालू आलोयगपडिकमणे आहारपोसहो खलु ... आहारसरीरिंदियपजत्ती ... इकह फूलह माटि इत्यालप्य विलुप्य भूप इत्युदीर्य स्वधैर्येण इमां समक्षं प्रतिपक्ष इह लोके गृहस्थोऽपि इंदियकसायजोए उक्खित्तमाइचरणा उच्चारे पासवणे... उजवलगुणमभ्युदितम् दीरितोऽर्थः पशुनापि एर्वशीगर्भसंभूतः... एए होही उद्धारकारया एकत्रासत्यजं पापम् एकमूर्वित्रयो भागाः उतरणरूपपद्यानामनुक्रमणिका ... 110 / एकरात्रोषितस्यापि ... 64 एकत्रिधा हरि सदा 59 एकं मित्रं भूपतिर्वा . 108 एकादशशतानीमाः एका भार्या सदा यस्य .., 33,111 एकोऽपि नियमो येन ... 23, 97 एकह पाली माटि 109 एगिदिय पंचिंदिय एता हसन्ति च रुदन्ती च ... | एय अउब (वी ? ) जोई ... एलापूगफलाई साहूणं | एवं अट्ठविहं पि य एवं चउग्गईए परि० एवं व्रतस्थितो भक्त्या एह न होइ धर धार सार एहिरेयाहिरी चक्र | ओसप्पिणी अणंता अंतोमुहुत्तमित्तं पि कथाशेषः कर्णो धनजन० ... 43 कन्यागोभूम्यलीकानि 75 कमलहस्तो भवेद् ब्रह्मा ... 79 करचलुयपाणिएण वि ... 25, 107 | कर्णाटे गूर्जरे लाटे कलङ्कं कुरुते कश्चित् / कवलाण य परिमाणं | काके शौचं सुतकारेषु | काजु करेवा माणुसह का त्वं सुन्दरि मारिरस्मि कामराग-नेहरागो | कार्य विष्णुः क्रिया ब्रह्मा 61 काले अभिग्गहो पुण | काले गणदेहाण | कालो जहा अणाई 05. काहूं मनि विभंतडी | किमिन्द्रियाणां दमनः 62 किं कृतेन न यत्रत्वम् 71,85 + v WWM 6 ..... 25,101 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रहास्तरागत . किं पुषयरं कम्म कुमरड ! कुमर विहार कुमरपाल मचिंति करि कुमारपालभूपस्य कुमारपाल मत चिंत कुम्भखारीसहस्र द्वे कुर्याद् वर्षसहस्राणि कुलक्रमेण कुर्वन्ति कुलीनाः सुलभाः प्रायः कुलं पवित्रं जननी कृतार्था ... कूटद्रव्यमिवासारम् कृतकृत्योऽस्मि भूपाल! कृत्वा तन्मयमात्मानम् कृषि-वाणिज्य-गोरक्षाम् .. के केऽप्युक्तिवशो व्यधाद् केवलनाणुप्पत्ती कैवर्तीगर्भसंम्भूतः को नाम कीलिकाहेतोः ... कोऽपि कापि कुतोऽपि कोहाईणमणुदिणं कोऽहं पुणो कंमि कालंमि ... कौंकणे तु तथा राष्ट्र क मांसं क शिवे भक्तिः क्षत्रियोऽसि नराधीश! क्षमातुल्यं तपो नास्ति क्षान्त्यादिकगुणैर्युक्तः क्षितिजलपवनहुताशन० क्षितिरित्युच्यते क्षान्तिः क्षेत्रं यत्रं प्रहरणवधूः खरो द्वादशजन्मानि गड फुट्ट येयण गई गण्डू पदः किमधिरोहति गयणं जहा अरूवी गया जि साजण साथि गिरिकन्न किसलयपत्ता गूढ़सिरसंधिपवं कु. पा.च. 19 78, गूर्जराणामिदं राज्यम 110 गृहिणोऽपि हि धन्यास्ते गोलाइ असंखिज्जा 108 गोलो असंखनिगोओं घोलवडां वाइंगण | चइऊणं संकपयं | चराचराणां जीवानाम् चराचरं जगत् सर्वम् चतुःपा च तुर्यादि. चतुर्मासीमासीत् तव चतुर्मुखो भवेद् ब्रह्मा चिखादयति यो मांसम् . चित्तमन्तर्गतं शुद्धम् चित्तं तिकालविसयं चित्तं रागादिभिः क्रान्त० . चित्तं वेयण सन्ना चित्रकूटमिदं भद्रे ! चिदानन्दमयं यस्य चूयहलं परिपक्कं विहलिय.... छउमत्थअणुवलंभा छउमत्थाणं सन्ना जइया होही पुच्छा जगदाक्रममाणस्य जणवय संमय ठवणा जन्तूनामभयं सप्त जन्तून् हन्मि न वच्मि जन्मन्येकत्र दुःखाय जम्मे विजं न हू जम्हा चित्ताईया | जलक्रीडान्दोलनादि. ___59 जह आहारो भुत्तो जह कणगस्स 3 कीति 6,49 जं अवसरेण न हुयं 77 जं नाम किंचि तित्थं 29 जमि उ पीलिजते 73 जं लहइ अन्नतित्थे 74 जं साभिसेयनिक्खमण. . ... ::::::::::::::::::::::: 80 ... 96 ::::::::::::: 104 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 84 | : :: :: :: :: :: :: :: :: 0,96 जा जयमाणस्स जातिलाभकुलेश्वर्य० ... जिणभुषणाइं जे उदरति ... जित्वा प्राग निखिलानिला०.... जित्वा सत्वरमाजितः . ... जिनमतनगरेऽस्मिन् ... जीवस्स अत्तजणिएहिं जीवस्स एस धम्मो जीवस्स य कम्मस्स य जीवाई नवपयत्ये जीवो अणाइनिहाणो जीवोऽयं विमलस्वभाव.. जेण कुलं आयत्तं तं ... जो चिंतेइ सरीरे नत्यि ... जो पुण हिंसाययणेसु झानं विष्णुः सदा प्रोक्तम् ... सत्तायगोलकप्पो० तस्वानि व्रतधर्मसंयमगति० व (ज) त्य य एगो सिद्धो ... तपःशीलसमायुक्तम् तम्हा य सा विसुद्धं वस्सत्थमणे मंगलय. तावकीनकटकैरथोद्धता तावद् भ्रमन्ति संसारे तित्थयरा रायाणा साहू ... तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गः ते गच्छन्ति महापदम् त्यतदाराः सदाचाराः त्यतातरौद्रध्यानस्य त्यक्त्वा कुटुम्बवासम् त्रियु विपुलो गम्भीर त्रैलोक्यशेषभावनाम् धूला मुहमा जीवा दवे भावे य तहा दशस्वपि कृता दिक्षु दंपती पितरः पुत्राः :::::::::::::::::::::::::::::::::: उद्धरणरूपपद्यानामनुक्रमणिका 81 | दानशीलतपोभावैः | दानं चतुर्विधाहार० 49 दिगवते परिमाणं यत् 55/ दीक्षा मिक्षा गुरोः | दीपे म्लायति तैलपूरणविधिः 92 दीपो हन्ति तमःस्तोमम् .... दीयते मार्यमाणस्य 77 दीसइ विविहचरियं | दीहं वा हस्सं वा दुर्भिक्षादेयमनसंग्रहपरः देवासुरमनुष्येषु देसे सबे य तहा देहिंदियाइरिते दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्य. ... 81 | घृतं च मांसं च सुरा च .... 62 गताद् राज्यविनाशनम् ... धनधान्यस्य दातारः ... | धनधान्यादिसंपत्सु धनेषु जीवितव्येषु | धनं धान्यं स्वर्ण-रुप्य० .... धन्यां सतीमुत्तमवंशजाताम् ... धर्मशीलः सदा न्यायी .... ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयम्। 87 ध्रुवं प्राणिवधो यो | ध्वान्तं ध्वस्तं समस्तम् | न कोपो न लोभः न तेषां ब्राह्मणी माता . 65 ननु इंदियाइ उवलद्धि० .... 75 नमोऽस्तु युगादिदेवाय . न य हिंसामित्तेणं न यन्मुक्तं पूर्वैरघुनहुष. ... 74 न यान्ति वायवो यत्र नवमे प्राणसंदेहा 83 नवहिं जियवहकरणं 72 नवि अस्थि माणुसाणं 69 नवि सं सुवमभूमी ..... 0 ::: :: :: :: :: :: :: :: : 22,56 85 104 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रहान्तरागत 6 . . . . 48 ... 4,46 न विद्यया केवलया न विश्वसिति कस्यापि न श्री: कुलक्रमायाता न स्वर्णादीनि दानानि नंदी सूरी अजे नाकारणरुषां संख्या नाणी कम्मस्स खयह नानाशस्त्रजुषः कथं गतरुप.... नाभवद् भविता कथम् नाभिः स्वरः सत्त्वमिति नाभूद् भविता चात्र निच्छिन्नसबदुक्खा निद्रा मोहमयी जगाम निरञ्जनं निराकारम् निर्जराकरणो बायात् निष्किञ्चनेन दयितेन निसाविराममि विबुद्धएणं नृपाः कूटप्रयोगेण नेत्रान्तपादकरताल्प. नैतस्याः प्रसूतिद्वयेन नोदकमपि पातव्यम् पइवग्गणं अणंता पाकुष्ठिकुणित्वादि पञ्चक्खं गहगहिओ पञ्चमे दहते गात्रम् पञ्चलक्षणसंपूर्णः पणयाललक्खजोयण. पत्तेयतरं मुत्तुं पंचवि पत्थेण व कुइएण पयोदपटलैश्छन्ने परद्रव्यं यदा दृष्ट्या परप्रत्यायनासारैः परा मनसि पश्यन्ती परं ज्योतिः परब्रह्म पर्जन्य इव भूतानाम् पक्षण्हं मोहसमा... मंचुंबरि चउविगई 42 | पाणिदया तवनियमा 72 पाणेहिं संसत्ता पडिलेहा | पातु वो हेमगोपालः | पात्रदाने फलं मुख्यम् प्राप्तुं पारमपारस्य | पायच्छित्तं विणओ * पावयणी धम्मकही 65. पावं छिंदइ जम्हा 95 पाहित्थी सवि वंकडी पित्रोः सन्तापकः कधिद 111 पिशाचमुद्गलप्रेत०... . पिऊण पाणियं सरवरमि पुढाउहिहिं फेरु फिर | पुढवी आउ वणस्सह 68 पुण्यपापविनियुक्त | पुग्ने वाससहस्से ... पुष्पेषु जातिर्नगरेषु कान्ती | पूआकरणे पुन्नं एगगुणं 48 पूर्वपरीक्षितः सर्वो. पृथिव्यामप्यहं पार्थ! पेढालस्य सुतो रुद्रः प्रकाशयन्ति भूयांसि प्रकृतिः परिणामः स्यात् / .... प्रजापतिः सुतो ब्रह्मा प्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचया प्रणमामि महावीरम् प्रतिदिनप्रयनसुलभे प्रतिदिनमयनलभ्ये प्रत्यक्षतो न भगवान् प्रथमे जायते चिन्ता प्रभुः स्वयं यदि भवेत् प्रशान्तं दर्शनं यस्य प्रसन्नस्यास्तसङ्गस्य प्राप्तः श्रीरेष कस्मात् ___28 प्राणित्राणप्रकारैः 79 प्राणित्राणे व्यसनिनाम् ... 74 | प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन ... P Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13,103 63 20,62 47 40 फुसाइ अणंते सिद्धे . ... अलीउ भूयवइ जं करह ... भाइकामु न होइ याहि . ... पालखीमूढमूर्खाणाम् बाह्यानपि हि यः सङ्गाना सुभुक्षितः किं न करोति पापम् ब्रह्मचर्यतपोयुक्ताः ... ब्रह्मचर्येण सत्येन ... ... ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलपियः... मूमः किंचन काश्यपीधवं! ... भक्ष्याभक्ष्याणि वस्तूनि भद्देसु अभयपावएसु भवन्ति भूरिभिर्भाग्यः भवबीजाङ्करजनना. ... भावेह अणिञ्चत्तं जुषण... ... भुजंगगृहगोधाखुमुख्याः ... भुञ्जीमहि वयं भैक्ष्यम् ... भूमि कामगवि स्वगोमय० भोगिदष्टस्य जायन्ते मोगोपभोगयोः संख्या .. ... भ्रातः ! संवृणु पाणिनि! ... मणपरमोहिपुलाए मंताण मंतो परमो इमु त्ति मण्डूकीगर्भसंभूतः मद्यमांसं नवनीतम् मद्ये मांसे मधुनि च मन्मनत्वं काहलत्वम् महत्त्वहेतोर्गुणिभिः श्रुतानि ... महत्त्वादीश्वरत्वाञ्च महुमजमंसमंखणथीसंगे ... महाक्रोधो महामानः महावीर्य महाधैर्यम् मानप्रन्थिर्मनस्युच्चैः माया नास्ति जटाकपाल. मायायां पटवः सर्वे मार्यमाणस्य हेमाद्रिम् मिच्छत्तं वेयतिगं... . सरणरूपपद्यानामनुक्रमणिका 84 मिच्छा भवेउ.सबत्था 30 मुत्तो अजिंदियत्तो मुद्रानुगतमुद्रानुरुगदा० मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्र! मूला तह भूमिरुहा मूले कंदे खंधे तया य यजमानो भवेदात्मा यत्र जीवः शिवस्तत्र यत्र तत्र समये यथा तथा यथा चित्तं तथा वाचः यदा न कुरुते पापम् यदि प्राणिवधे धर्मः यदेका स्थविरो वेत्ति ... 20,63 | यदेवमनुजाः सर्वे... | यत्रलाङ्गलशस्त्रामिम् | यद्वत्काष्ठमयो हस्ती यया कर्माणि शीर्यन्ते यस्तपस्वी व्रती मौनी | यस्माद् विघ्नपरम्परा विघटते... | यस्यात्ममनसोभिन्न यस्याधारेण जीवन्ति या कौबेरीमातुरुष्क० | यः सबाह्यमनित्यं च 72 यः स्वदारेषु संतुष्टः 73 याचको वञ्चको व्याधिः या देवे देवताबुद्धिः 68 यानपात्रमिवाम्भोधौ 62 या पूर्व नवमीमहेषु 73 या लोभाद् या परद्रोहान. ... 62 यावन्ति पशुरोमाणि 62 | यूकालक्षशतावलीवल.' 69 येन त्रिःसप्तकृत्वो० ये रात्रौ सर्वदाहारम् 69 ये लुब्धचित्ता विषयार्थ० ... 71 ये शान्तदास्ताः श्रुति०' ... 18 | येषां कम्पितमन्तरात्मभिरपि... 68 10 . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रहान्तरागत 9,50 90 येषां वित्तः प्रतिपदमियम् . पेस्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादि. यो दद्यात् काश्चनं मेहम् बो मां सर्वगतं ज्ञात्वा .... व्याषिद्धा रदती मुखं च ... रक्तवर्णो भवेद् ब्रह्मा रवेरेवोदयः श्लाघ्यः रसोद्भवाश्च भूयांसः राजप्रतिग्रहदग्धानाम् राजा लुठति पादाने राज्ञः प्रतिग्रहो घोरः . राया अमञ्च सेट्टी रुद्ध प्राणप्रचारे वपुषि लच्छि वाणि मुहकाणि लज्जां गुणौघजननीम् / छाछि वाणि मुहकाणि / लेवडमलेवडं वा ... - लोइया वेइया चेव / लोए अच्छिज्ज अमिजो लोए असंखजोयणमाणे लोए वेए समये निचो लोगागासपएसे ... वक्षोऽथ कुक्षि खनासिका० ... पचोभिरुच्यते सर्वैः बजेमि त्ति परिणओ वसहीसयणासणभत्त० वसुदेवसुतो विष्णुः वाक्येनैकेन तद् वच्मि ... वायात्रसाराः परमार्थ विंगई विगईभीओ विदलयति कुबोधम् बिना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यः / विनीतः स्थूललक्षश्वा० विमानोचानवाप्यादौ विरतिः स्थूलहिंसादे विवदन्ति परमं प्रम यत् .... :::::::::::::::::::: . 50 विवेकः संयमो ज्ञानम् ... 65 विश्वामित्रपराशरप्रभृतयः ... 66 वुच्छिन्ने विय तित्थे वृषभान् दमय क्षेत्रम् वैरिवारणदन्ताये... 62 शक्तौ हनुमान यदबन्धयत् ... शमसंवेगनिर्वेदा० शय्या शाद्वलमासनम् . शय्या शैलशिलागृहम् ... शंका कांक्षा विचिकित्सा . ... शाकिनी मांसभक्षी च ... 1, 39 शास्त्रं सुनिश्चितधिया शीतांशुवपुभारसंभृतरसं शुक्रशोणितसंभूतम् शुनकीगर्भसंभूतः... शूरोऽपि शीलसंपन्न: राङ्गारमदनोत्पादम् .. ... शैलाः सर्वे गण्डशैलानुकारा... शौचमाध्यात्मिकं त्यक्त्वा ... श्रीचौलुक्य! स दक्षिणतय ... श्रीवीरे परमेश्वरे भगवत्या. श्रीसूरीश्वर ! हेमचन्द्र | भवतः श्रीहेमसूरिप्रभुपादपद्मम् ... श्रयते सर्वशास्त्रेषु... ' ... श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति ... श्रोतव्ये च कृतौ करें श्वानगर्दभचाण्डाल. श्वानचर्मगता गङ्गा 65 षण्ढत्वमिन्द्रियच्छेदम् / सउ चित्तहं सही... 65 सकदेव भुज्यते यः . स कौबेरीमा तुरुष्क० सङ्कल्पमात्रादपि सिद्धकार्वा ... ... सगडद्दहसमभोमे... 71 सज्जाठाणं पमुत्तुणं 6. सत्तावरी विराली... :::::::::::::::::::::::::::::::::::: .... . : 3,46 41 4 : :: ... .53 : Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानन्त०. ... . 9,58 9 . 61 104 - 94 सत्यवाक् परलक्ष्मीमुछ सत्यं शौचं तपः शौचम् ... सदा सर्वानृतं त्यक्त्वा सदा सर्व परद्रव्यम् सद्यः संमूञ्छितानन्त० सन्तोषः स्थूलमूलः . सप्तर्षयोऽपि गगने सततम् समोसरण भचउम्गह सम्यक्त्वमूलानि पब्बाणु० सर्वजातिषु चाण्डालाः . .. सर्वज्ञता नास्ति मनुष्य सर्वज्ञो जिवरागादि० . सर्वज्ञं हृदि संस्मरन् / सर्वदेवैः परित्यक्तम् / सर्वस्मिन्नणिमादि पजलने सर्वाङ्गसुन्दरः किन्तु सर्वाभिलाषिणः सर्व सर्वेणातीतकालेन सबभूअप्पभूयस्स . ... सवाई जिणेसरभासियाई सवा य कंदजाई ... सधे जीवा वि इच्छंति सधो न हिंसियवो जह सस्सकडाई मझे संकोअविकोएहि ... संनिधौ निधयस्तस्मै संनिहीगिहमित्ते य संपत्ती नियमः शक्ती संमोहयन्ति मदयन्ति संवाहणं दंतपहोयणाय. .. संसइयं मिच्छत्तं जा संसजइ धुवमेयं... संसत्तमसंसत्ता ... संसार ! तव निस्तार.. संसारार्णवसेतवः सामग्गि अभावाओ 7. उतरणरूपपद्यानामनुक्रमणिका .... 92 | सारंगी सिंहशावं स्पृशति ... 61 सावजजोगपरिवजणट्ठा . 60 साहसि जूतउं हल वहा साहारणपत्तेया वणसइ 73 सिझंति जत्तिया खलु 69 सिद्धं जीवस्स अत्थित्तं . 95 सिंहो बली द्विरदशूकर __ 103 सुकलत्रस्य संपत्तिः | सुखशय्यासनं वस्त्रम् . ... सुखासेव्यं तपो भीम ! सुरगणमुहं समग्गं 64,70 सृजति तावदशेषगुणाकरम् ... 110 सो होइ सुसुहावेई | सौनिकव्याधकैवर्त० 47 स्थाने निवासः सुकलम् 87 स्थितिमासाद्य सिद्धात्मा | स्थूलेषु सर्वसत्वेषु स्थैर्य प्रभावना भक्तिः ६०मानं मनोमलत्यागः सानोपभोगरहितः स्वर्गस्थाः पितरो वीक्ष्य स्वयं कृतार्थः पुरुषार्थ. | स्वयंभुवं भूतसहस्र० स्वस्ति श्रीमति पत्तने खानदाहेऽपि कुर्वन्ति स्वापदि तथा महान्तः स्वामिभक्तो जनोत्साही हनुलोचनबाहुनासिका | हरिरिव बलिबन्धकरः हरिणीगर्भसंभूतः... हंसवाहो भवेद् ब्रह्मा हिअमिअ अफरुसवाई हिंसकोऽनृतवादी च हीनं संहननं तपोऽति. 8 हेम तुहारा कर मरउं | हेमसूरि मू करि किसिउं ... :::::::::::::::::::::::::::::::::::: Je . . . 23,108 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. कुमारपालचरित्रसङ्ग्रहान्तर्गतविशेषनाम्नां अकाराद्यनुक्रमणिका। 3 135 आवर the bo | आम्र [नृप] अच्छचोली [प्राम] आम्रभट [मंत्री] 26-28 अच्छाबिली [प्राम] 44 | आर्यसुहस्ती सूरि [पूर्वधर] अजयपाल [नृप] 108,110 आलिग [प्रधान] 15,16,43,44,53,89 अजयपुर [नगर] | आलिगवसहिका 85,95 अजितदेव सूरि | आवश्यकचूर्णि [प्रथ] अणहिल [गोप] आशाक [भिल्ल] अणहिल,-पत्तन,-पुर,-वाडयपुर 1,9,21, आशापल्ली [ग्राम] 24,28,36,38,39,42,64,114 अपरान्त [देश] 140 | ईश्वरवणिक् 11, 44 अभय [मंत्री] अभयकुमार [सा०] 126,127,136 उच्चनागरिका [शाखा] अभयसिंह सूरि 112 उचा [नगरी] अमलखामी 32 उज्जयन्त [तीर्थ 20,62,116,115.125 अमृतसागर [सरोवर उज्जयिनी [नगरी] 5,7,11,13,14,47,51 अम्बड [दण्डनायक] उज्जिन्त [तीर्थ] अम्बिकादेवी उड्डीयान [देश] अर्धाष्टम [देश] 54 18,86 अर्बुद [गिरि] उदयण [अमात्य] 3, 11, 15, 18, 19, 25, उदयन .. 26,45, 53, 57, 76, 86, अवन्ती,-"न्तिका [नगरी] 2,3,43-45 ऊदा 87, 92, 100, 107, 121 अष्टादशमण्डल [देश] उदयनचैत्य,-विहार 45,101 अंजणसिला 106 उदयपाल [नृप] आ आचारागनियुक्ति [ग्रंथ] 104 उदयमती [राझी]. 20, 38 आछउली [भाम] 10 | उदायन (उदयन) [नृपति] उन्दिरवसति 131 95 आणंद [सा०] आनाक [प] 98,99 उलं()गलपुर 91,92 बाभड [श्रेष्ठी] 96,106 धाम [सूरि] ऋषिशृंग [पर्वत] आमिग [पुरोहित] 19,23 श्राम्बड़ [ सचिव ] 17,45,56,57,100-102, ओढर [श्रावक] 91, 12 108 ओढरवंश 39 17,53 111 128 93 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडु [वणिक्] कड्या पाण] . 152 विशेषनामानुक्रमणिका / कान्ती,-पुरी [नगरी] 12,46,89 कच्छ [ देश] 37, 111 का(क)न्यकुब्ज [देश] कच्छप [नृप] 33 | कान्हडदेव [नृप] कण्टेश्वरी [देवी] 21,94,95,100 कामदेव [सा०] कण्ठाभरण [व्याकरण] कामन्दकी [शास्त्र] 28 कण्णदेव (कर्णदेव) [नृपति] 114 कामरूप [देश] 7,14,51 3,11,45 | कामलता [राजकुमारी] कामसत्थ [शास्त्र] 138 कमाली-सिद्धपुर [प्राम] 3,7,11,14,45,51 कामाक्षा,-क्षीदेवी 7,14,51 कन्यकुब्जपुर 6, 14, 50 कालंबिणी [नदी] कन्यकुब्जेश कालुम्बिनी [नदी] कपर्दी [भांडागारिक] 106 कालुंभार [वन] कपर्दी [अमात्य] 23,26,28,30,100,107 काशि। [नगरी] कपर्दी [सा०] 6,22,28,29,50 कासी कपिल [ब्रह्मर्षि] | काश्मीर। [देश] कपिलकोट [प्राम] 37 . 54,87 कास्मीर करणमेरुप्रासाद . 99 | कीर [देश] करम्बावसति | कीर्तपाल,-र्तिपाल [राजकुमार] . 2,9,55 करम्भचैत्य कीर्तिराज [नृप] करोटक र 3,10,44 कुष्ण [देश] 17,28,31 कुडंगेश्वर [ मन्दिर] 5,13,14,40 कर्ण,-०देव,-भूपति 1,2,9,10,24,37,40,43, कुमर,-ड ) 1-16, 18,21-24,26-30,32, 57,96 कर्णमेरुप्रासाद कुमरपाल |33,35,43-47,49,50-52, कुमरप्पालु 54,55, 57,69,70,72,75, कर्णविहार कुमरवाल 85,89,90,92-96, 98-102, कर्णाट [देश] 32,33,38,54,111 कुमर 108, 110-115, 118, 125 कर्णादित्य [राजकुमार] कुमार,-पाल | 124, 128, 133-135,,138, कर्णावती [नगरी] 19, 39, 45, 86, 101 कुमारपालदेव J140 कर्मग्रन्थ [शास्त्र] 84 | कुमर [माण्डलिक] . कलहपश्चानन [गज] 16, 99 कुमरगिरि 14 कलि [युग] 96 कुमरविहार / 110,121,122 कलिकालसर्वज्ञ [बिरुष] 35,92,95,102 / कुमारविहार / कल्याणकटक,-पुर [नगर] 4,12,32,35,46 कुमारप्राम काफरग्राम कुमारपाल [नाणक] काञ्चीपुरी [नगरी] कुमारपालेश्वर [प्रासाद, चैत्य] 5,13,47 कातन [व्याकरणग्रंथ] कुरु [ देश] 55,140 कादम्बिनी [नदी] 17 कुशावर्त्त [देश] करौटक [माम] 106 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6,48 106 कुमारपालचरित्रसंग्रह कृतपुण्यफ [राजा] 85 गूर्जर,-श्वरा . 1,3,4,12-15.17 कृष्णनृप 89 | गूर्जरधरित्री,-देश / 20,30-32,35,36, 46,98,99, 111, कृष्ण, देव, भट, भटदेव 2,7,9,14,15,43, गूर्जरात्रा गूर्जर 51,52,54 कूटशैल गूर्जरराज,-राधीश,-रेश,-ऐश्वर [नृप] 8,16, केकेयी [राज्ञी]. 20,29,30,38. कोटिक [गण] गूर्जरेन्द्रपुर [नगर, पाटन] 130 कोडिसिला गोमती [दासी] कोलम्ब गौर्जर र]. 4,5,13,46,47 कोलम्बपत्तन गौडदेश कोलम्बस्वामी [शिव] गौडदेशीय कोलापुर। कोल्लापुर कौणिक [नृप] कोकण [देश] 56,101,111 | चंगदेव [सा०] कोंकणदेशीय . चच [सा०] क्षमराजाप] क्षेमराज [नृप] 1,2,9,36-38,43 चण्डप्रद्योताना 24 | चन्द्र [कुल; गच्छ] 137, 139. खस [देश] 54 चन्द्रयश [गणि] खंभतित्थ [नगर] चन्द्रादित्य [राजकुमार] 36 खिल्लरप्राम |चाचिग [व्यवहारी] 18,19,86,87 खेमकीर्ति [गुरु] चान्द्र [व्याकरण] खेमराअ [नृप] 114 चाउडा 35-3. 3,11,45 घण्टसिला चापोत्कट [वंश] गग्ग 121 चामुण्डराज / [नृप] 37,114 94 गजेन्द्रपदकुण्ड [तीर्थ गर्जनपुर [नगर] गङ्गा [नदी] गंगातट [प्रदेश] गिरिनयर [तीर्थ गुज्जर [देश] गुजरराउ [गूर्जरराज] गुणचन्द्र [गणि] गुणचन्द्र [सूरि] गुणसेण सूरी गुणसेन सूरि कु. पा. च. . 39,105 | चामुण्डराय चामुण्डा [देवी] 32,93,114 |चारण [जाति] 54,89 | चालुकवा (चालुक्यपति) 123,124 चाहड [मंत्री] 114,118 चाहड [मंत्रीपुत्र ] चाहड [राजकुमार 135 चाहड [सुभट] 108 चाहिणि चाहिणीदेवी [श्राविका] 115,139 चाहुमान [पंश] 18,86 29 27 102 15, 45 57,117 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54,111 25,100 40 विशेषनामानुक्रमणिका पांगदेव 18, 19, 86, 87 | जाङ्गल [देश] चित्रकूटदुर्ग,-कूटनग, 3-6,10,16, 29, | जालंधर [देश] -कूट, गिरि,शैल, 44,47-49,53,54 जांबाक [वणिक] जीर्णप्राकार (जीर्णदुर्ग) [खान] चित्राङ्ग [नृप] 1,6,14,47-49 जैनेन्द्र [व्याकरण] ज्ञानचन्द्र [मुनि] चूडामणि [शान]. ..... चेदि [देश] झोलिकाविहार चैत्रगच्छ चालुक्य . ) [वंश] 16,25,30,32,35,36, | ठाणयपगरण [प्रन्थ ] चोलुक 41, 52, 55, 56, 98-. चौलुक्य J. 100,107,110,114,140 | डाहलदेश चौलुक्यचक्रवर्ती .92 डाहलदेशीय 89 24,100 ho डांगुरिक माम] डांगुरिका 6 [माम] . 3,10,44 131 25,106 डिंडुयाणय [पुर] . .. 2.43 छह [ श्रेष्ठी] छत्तसिला / छत्रशिला छाडक [श्रेष्ठी] जगझंपणु जगड [ श्रेष्ठी] जम्बु केवळी] जम्बुद्दीव [ क्षेत्र] जयकेशी [ नृप] जयचन्द्र [नृप] जयतचन्द्र [नृप] जयता,-क [नृप] जयतिलक [मुनि] जयनाम [ राजकुमार] जयपुर [नगर] जयसिंह जयसिंघदेव प्र जयसिंहदेव जयसिंहमेरु [प्रासांद] जसभर [नृप] जसमित्र असवा [ नृप] तिलंग [ देश] .54,91 तिहुणविहार [चैत्य] .114 121 तिहुयणपाल [नृप] 114 तुम्बवन 139 91,139 तुरुष्क [जाति] 114,140 | त्रिपुरुष [जटाधारी] 38,91 | त्रिपुरुष [प्रासाद] 93,94 | त्रिपुरुषमठ | त्रिभुवनदेव,-पाल [नृप] . 1,9,10,31,33, 91,92 43,55,92 112 | त्रिभुवनपालविहार | त्रिषष्टिचरित 14,50,91 | त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितr ai 21,57,93 2,9,38,39, 43,91,92 | दक्षिण [देश] 54. 114, 118 दहक [राजकुमार] -7,15,51, दत्त [नृप] 105 115,116 दधिस्थलिक , .. 105 दधिस्थली . [प्राम] 1,9,10,4 // 2,43 दधिस्थलीका ) - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह 50 37,114 / नंदीसूरि नागश्रेष्ठी दयावर्द्धन [गुरु] दशपुर [ देश] 5,14,47 नरवीर [ सार्थवाह] दशरथ [ नृप] 31 | नर्मदादेवी 27,101 शार्ण [देश] 55 नर्मदातट [प्रदेश] 89 इसारमंडव 123 नल [नृप] दीप (दिल्ली) [नगरी] 111 नवद्वीपक [देश] 7,14,50 दीपक [द्विज] 89 नवनन्द [नृप] दुद्धिलिका [प्राम] नहुष [नृप] 22,96 दुर्लभराज दुलहरा नागजुण [भिक्खु] 124 देवचन्द्र नागपुर [नगर] 29,30,87 देवचन्द्र सूरि 19,23,86,98,117,118,139 | देवचन्द्राचार्य नागहत्थि [गुरु] 124 देवप्पसाय [चैत्य] 114 नागार्जुन [भिक्षु] देवेन्द्र सूरि नागेन्द्रपत्तन [नगर] देवपत्तन [नगर] 1,20,38,62,91 नाभाक [नृप] 26,96 देवपाल [राजकुमार] . 43 नायक 32 देवप्रसाद [राजकुमार] 2,9,43 नारद 96 देवभद्र [गणि] 117,126,136 देवबोध [योगी] नेमिनाग / देवबोधि [द्विज] देवलपाटक [प्राम] 124 112 | पइट्ठाण [नगर] व्याश्रय [ महाकाव्य] 105 41,140 पउमनाहतित्य पजुन्नसूरि 116,117 धणमित्त 105 | पञ्जुनकूड धनदेव [श्रेष्ठी] पतीयाणाग्राम धनेश्वर, सूरि 1,38,39,112 पत्तन [अणहिल्लपुर पत्तन] 1,2,7,9,10,14,17,18, धन्धुक 20,22, 23, 26,27, 36-38,40, धन्धुकपुर / [नगर] 18,24,86, 42, 43,51, 53,55, 57,59,86, धन्धुक्त 107,117 89,90,98,100-102,108,138 धन्धुक्तक पद्मचन्द्र [मुनि] धम्मवियड 105 पद्मनाभ [जिन] धर्मदेव [मुनि] 112 पद्मनृप धर्मशेखर [सूरि] पद्मपुर [नगर] धारिणी [राज्ञी] 92 पद्मावती [राज्ञी] 31,54 धारू [श्रेष्ठिनी] 107 / पनी [श्राविका] 112 नेमि ? [सा०] 89,90 112 92 21 54 112 54 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 विशेषनामानुक्रमणिका परमभाषक [विरुद] 85 | प्राग्वाटान्वय 1.0,115 परमार [वंश] 37 प्रीमलदेवी ) परमाईत [विरुद] 85,108,133,138,140 प्रेमलदेविका / [राजकुमारी ] 2,7,9,14,45 परशुराम [विप्र] 2,40, | प्रेमलदेवी / परशुराम [श्रेष्ठिपुत्र] फूलहड [गोप] पराशर [ऋषि] 19,58,89 पर्वत [ देश] 54 बकुलदेवी [गणिका] पल्लीकोट [नगर] 99 बप्पभटि,-हट्टि [सूरि] 3,45 पंगुराज [बिरुद] 93 | वर्करी,करी [गणिका] 6,49 पंचनद [देश] 54 | बर्बर,-०बरक [मिल] 2,39,43 पंचासर,-प्राम 35,36 बलचंड पाटलापद्रक [नगर] 44 बलि [नृप] पाटलीपुत्र [नगर] 1,14,50 बंबेरानगर 102 पाणिनि [वैयाकरण] | बारवई [नगरी] 123 पाण्डव [नृप] 89 बालचंड,-चन्द्र [चर्मकार ] 7,14,51 पाण्डुर [द्विज] 137 बालचन्द्र [सूरि] 108 पादलिप्तपुर 100 | बाहड, देव [मंत्री] 45,100,102,108,115, पादलिप्ताचार्य 1.4,105 121,125 पामारनरिंद . 29 बाहडपुर 100,101 पालित्त [सूरि] बाहुलोड [नगर] - 38,42 पाहिणी [श्राविका] 15,1086 | बीज [राजकुमार पांचाल [देश] बुद्धिल्लिकाघट्ट [पार्वतीयस्थान] पुग्नतल [गच्छ] 115 | वृहस्पति [गण्ड] पुरिमतालपुर वृहस्पति [विप्र] 102 62,63 पुष्प [नृप] बोसरि, सिरि [विप्र] 2,3,5,10,11,14,43,47 पुर्णतल्ल [गच्छ] ब्रह्मकवि पेटलापद्र [नगर] | ब्राह्मणवाहक [वेश] 3,10 प्रभास,-तीर्थ [पसन] 1,2,9,29,38,43 | भगवद्गीता [अन्य] प्रतापमल्ल [राजवंशीय] 106,108,110 भद्र [वादी] प्रतिष्ठानपुर [नगर] भद्रबाहु,-स्वामी [चतुर्दशपूर्वधर] 104,139,105 प्रघुमसूरि 139 भद्रिलपुर [नगर] . 92 प्रहादन [नृप] 106 भद्रेश्वर सूरि 1,1,39 महादनपुर [नगर] | भरत [चक्रवर्ती] 22,26,96 प्रभव [पूर्वधर] | भरतक्षेत्र 91 प्रमिला [राजकुमारी] 51 / भरहेसर [चक्रवर्ती ] 124 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2,9,43 भृगुकच्छ [नगर] 89 भोजराज, . . कुमारपालचरित्रसंग्रह भरुयच्छ [नगर] 124 महिपाल,-व्हीपाल [नूप] .,15,51,97 भंभेरी 111 महीपाल [राजकुमार] भारत [देश] 5,138,139 महुअक [नगर] भारती [बिरुद] 28 महेन्द्र [मुनि] भारह [देश] 114 मंडवगढ [नगर] मीम,-देव,-नरिंद [ नृप] 1,9,37,114,38,97 मागध [ देश, जन] 55 भुवनादित्य [राजकुमार] | मानदेव [सूरि] 135 भुवनेन्दुगुरु [मुनि] 112 |माणिक्य सूरि भूतानन्द [योगी ] | माणिभद्र भूयराज,-जा 35,36 माण्डव्य [ ऋषि] मारव [देश] भृगपुर 17,25,101 मालव,-क 7 2,9,18,37,43,57, भैरवानन्द [योगी] | मालवमंडल 91,99,111,140 मालवीय भोपलदेवी,-लदेवी [राक्षी] 2,3,5,9,14,43, | माहन [गोत्र] 103 44,47 | मुनिचन्द्र [सूरि] 135 मुनिरन गणि [मुनि ] 112 मण्डिक [नृप] मुनिशेखर [मुनि 112 मदनपाल [राजवंशीय ] 1,38,39 | मुंज [नृप] मधुर | मुंजाल [मंत्री] मध्यमापुरी 5,47,48 मूलभूपति, राय,राज [नृप] 33,37,41,90, मनखेड [नगर] 124 ..114,140,97 मम्माणी,-यखनी 25,101 मूषकविहार मयणल्लदेवी,-लादेवी [राशी] 38,40,42 मेघघोष [राजा] 105 मरदेश / मरुमण्डल ___4,12,45,46 मेडतक [ देश] 99 मरुदेशीय 11 मेवाड . 99,111 मलयगिरि [सूरि] 88,89 मेरु [गिरि] 29 मल्लिकार्जुन [नृप] 15,55,56 मोडवासक मल्लिनाट,-०थ [जनपद ] 4,13,46 | मोहडवासक 18,43 महणल्लदेवी मोढकुल महागिरि [पूर्वधर] 139 मोढज्ञातीय महापुरी [नगरी] 139 मोढवसति महाभारत [ग्रंथ] 59,65,87 मोढवसहिका महाराष्ट्र [ देश] .54,140 मोढवासक [प्राम] महावीरचरित [अन्ध] 98 मोढवंश महितट,-हीतट [प्रदेश] 7,15,51 मोढवंशीय . 11 38 मेदपाट ? [देश] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनामानुक्रमणिका यमुना [नदी] 93 लक्षराज [नृप] बन्द गणि] 18,27,57,101 लक्ष्मीश्री [साध्वी] 3,10,44 वशोधन [प्राम] लाखाक [नृप] यशोभद्रं सूरि 91,92,112,139 लाट [ देश] 2,10,28,44,54,137 यशोवर्मा [नृप] | लीलादेवी [राजकुमारी] याज्ञवल्क्यस्मृति [अन्य] | लीलू [राजकुमारी] यूकावसति,-विहार 22,95 योगराज [नृप] 36 | वउलदेवी [गणिका] योगशास्त्र [प्रन्थ] 21-23,86,93,97,140 .15,16 वन [शाखा] 137,139 रघु [नृप] 22,96 | वज्रसूरि रमपाल [राजवंशीय] 7,15 वनसेन [मुनि] 112 रबसागर सूरि 112 वजस्वामी [पूर्वधारी] 104,105 रमसिंह [मुनि] 112 वटपद्रक [नगर] 3,11,45 रमाकर सूरि 112 वढियार [देश] रमादित्य [राजकुमार] वनराज [नृप] रयणपुर [नगर] | वराहगुप्तक [राजपुत्र] 49 वर्धमान [गणि] 31,32 राकाङ्क वर्धमानपुर 25 राज [राजकुमार / 36,37 | वल्लभराज,-हराअ [नृप] 37,114 राजगृह [नगरी] 7,14,50,76 | वशिष्ठ [ऋषि] राजघरट्ट [बिरुद] 102 | वागड [देश] राजपितामह [बिरुद] 27,55,57,101 वाग्भट्ट,-देव [ महामात्य] 15,24,25-28,30, राजविहार 42 31,53,101,106,107. राणिग [नृप] 125 वाग्भटपुर 26,27,31 रामचन्द्र [नृप] 5,14,28,47,63,108 वाणारसी [नगरी] 14,16,55,93 रामदेवप्रशस्ति 54 वामनस्थली [नगरी] 1,39 रामसैन्य [नगर] 98 वामराशि [विप्र] 22,102 रायविहार [चैत्य] 118 वामराशि भरडक रावण [नृप] वायडकुल 121 हंद्रमहालय [प्रासाद] 42 वायडीय [मंदिर वाराणसी [नगरी] [पर्वत] 1,25,39,63,88,100, रैवत,-क वाराहगुप्त 107,116,123,124 रैवताचल विक्कमराय 5,6,11,14,19,26, रैवतादेवता 88,107 विक्रम,-नृप,-मादित्य 47,61 राका गच्छ] देवय Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 55 105 शुक [मुनि] विन्ध्याचल [गिरि] 26 28 कुमारपालचरित्रसंग्रह विप्रह,-राज [नृप] 29,30 शाकम्भरी [देश] 29,98,99 विचारचतुर्मुख [विरुद 28 शान्तिचरित [प्रन्थ] 139 विजयचन्द्र [मुनि . 112 शान्तिपर्व [प्रन्थ-अध्याय] विजयपाल [नृप] 7,14,51 शालिमद् [श्रेष्ठी] विजयसिंह सूरि शिवपुराण [प्रन्थ] विजया [राज्ञी] शील[गुणसूरि विदेह [क्षेत्र] शुभकेशी [मुनि] 38 विद्याप्राभृत [अन्थ-विभाग] विनीता [नगरी] 102 श्यामल [महामात्र] विन्ध्य . श्रावकप्रज्ञप्ति [अन्य] 75,103 15,54,57 श्रीकान्त [नृप] विमलवाहण [नृप] 105 श्रीदेवी 36,136 विमलाचल [शत्रुञ्जय] श्रीपर्वत [देश] विश्वामित्र [ऋषि] 19,58,89 | श्रीपाल [कवि] 106,135 विश्वेश्वर [कवि] | श्रीमाल [वंश] वीतभय,-पत्तन,-पुर 24,76,98,138 श्रेणिक [नृप] 89,95 वीतरागस्तव [स्तोत्र-मन्थ] वीसल,-"देव [नृप] 29,30 सउंराक [कुलाल] 100 वुद्धल्लिका [स्थान] | सज्जन [कुलाल] 6,3,5,10,14 वैभारपर्वत,-"गिरि सजन [दंडनायक] 7,14,50 1,39,40,47 वैरसिंह सत्तुंजय [महातीर्य] 123-125 व्याघ्र [भरटक] संतिजिणचरित [अन्थ] व्याघ्रराज [सेवक] सपादलक्ष [देश] 22,29,30,54,99, व्यास [ऋषि] 102,111 | सपादलक्षीय शकुनिकाविहार / संपइ / [नृप] 21,113,152,139,140 शकुनीचैत्य 26,27,101 संप्रति / | संभूत [पूर्वधर] शक्रावतार [तीर्थ] 139 | समर [नृप] 100 शतानन्द [नृप] | सर्वार्थ,-थ्योगी,-सिद्धि शत्रुञ्जय [तीर्थ] 20,24-26,40,62,100,104, 4,11,45,46 सबदेव [श्रेष्ठी] 121 105,107 संबदेव शत्रुञ्जयकल्प [अन्य] 104 संसुर [नृप] शम्भलीश. [नृप] 6,48,49 श्यं भव [पूर्वधर] | सागर [वंश] . 139 साजण 29 शलाकापुरुषचरित [अन्य]. सामन्तसिंह [नृप] शाकटायन [व्याकरण] 41 / सामन्तमण्डलीसत्रागार [विरुद] 36 92 25 14. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 विशेषनामानुक्रमणिका - 89 114 सामल [महामात्र] 16,99 : सोमनाथ) 1,2,4,9,13,19,21,22, सिन्धु [देश] 15,54,57,76,140 सोमेश 28,38,42,43,61,63 सिद्धपाल,-वाल [कवि] 106,125,126, सोमेश्वर 133,135 सोमपत्तन (प्रभासपत्तन) . 62 सिद्धपुर [नगर] 42,118 सोमदेव [ मुनि] सिद्धनरेन्द्र,-नृप,-भूपति ) [विरुद] 2,3,7, सोमप्पह,-भ,-प्रभाचार्य [सूरि] 120,131, सिद्धभूपाल,-भूभा ,-राज / 9-11, 14, 15, 134,135 सिद्धराजेन्द्र,-राद,-सिद्धराय 22,40-43,45, सोमादित्य [राजकुमार] सिद्धाधिप 51, 89, 118, | सोल,-°क [गन्धर्वराट्] 16,17, सिद्धेश्वर सोलाक 52,53 सिद्धविहार[चैत्य] 118 सोला [ मंत्रिपुत्र] सिद्धसेनदिवाकर [सूरि] 5,13,47 | सौराष्ट्र [देश] 100,101,137 सिद्धहेमचन्द्र,-वागरण [प्रन्थ] 2,9,41,41,118 सौराष्ट्रिक सिद्धेश्वराचार्य | सौवीर [देश] 54,76 सिरिदत्त [गुरु] 115,116 स्तम्भतीर्थ [नगर ] 3,11,22,44,53,87,95 सिरिप्पभा [आर्या] 105 स्थानकवृत्ति [प्रन्थ] 139 सिरिमाल [वंश] 121,126 सीता [राज्ञी] 4,46 स्थूलभद्र [पूर्वधर] सिंधु [नदी] | स्थूलभद्रचरित्र [पंथ ] . सुप्रतिबुद्ध [पूर्वधर] 139 सुमति [सूरि] 29 | हम्मीर [ नृप] सुमंगला 115 हरिश्चन्द्र मुरसेण [नृप] | हंस [वणिक्] 107 54 सुरह 1,23,25,36, | हिमाचल [पर्वत] सुराष्ट्र,-ट्रा,-ष्ट्रामण्डल 39,54,123, | हेमकुमारचरित्र [प्रन्थ] 135 सुराष्ट्रादेश 124,125 हेमकुम्भ [मुनि] सुस्थित [ पूर्वधर] | हेमखड [स्थान] सुहस्ती [पूर्वधर] 139 सूरसेन हेमडसेवड सूरि दुप्पसह [मुनि] 105 | हेम 2,3,9,11,17-25,27,28, सेणिय [नृप] 113 हेमगुरु सेतुबन्ध 31-23,35,40-42,44,45, 54 | हेमचंद सेरीसकग्राम 53,57,61-63,65,86-90, 89 | हेमचंद्र सेवड हेमड 92, 93, 95, 96,98,101. | हेमचन्द्रप्रभु 104,106-114,118,120, मैन्धव [ देश]. 111 हेमचन्द्राचार्य 122,124,125,133-134, मैन्धवा,-देवी 27,101 हेमसूरि 135,140 सैरन्ध्रि [राज्ञी] 97 हेमाचार्य सोमचंद्र [मुनि] 117 | हेमव्याकरण [प्रन्थ ] 185 139 हेमगर्ता " Page #242 -------------------------------------------------------------------------- _