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________________ राजर्षि कुमारपाल किया होगा और उनके उपदेशसे प्रभावित हो कई एक जैन मन्दिरों आदिका निर्माण भी कराया होगा। कुछ उससे आगे बढ़ कर वर्षके अमुक दिनों या महीनों में जीवहिंसा प्रतिबंधक राजाज्ञाएँ निकाली होंगी और स्वयं भी मद्य-मांसका सेवन न करनेकी प्रतिज्ञाएँ की होंगी। लेकिन कुमारपालके समान गृहस्थ धर्मके आदर्श रूप सम्पूर्ण बारह व्रतोंका तो किसीने अंगीकार नहीं किया होगा। - उसके द्वारा अंगीकार किये गए उन द्वादश व्रतोंका सविस्तर वर्णन, जैन प्रबंधोंमें नाना उदाहरणोंके साथ दिया गया है / उदाहरणोंमें कुछ अतिशयोक्ति भले ही हो लेकिन मूल वात मिथ्या नहीं है-यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है और जो बात स्वयं हेमचन्द्र ही लिखते हैं उसमें असत्यको अवकाश ही कहाँ ? मन्त्री यशःपाल और सोमप्रभाचार्य की जिन कृतियोंका परिचय मैंने ऊपर दिया है उनके वर्णनोंसे यह प्रतीत होता है कि कुमारपालने विक्रम संवत् 1216 में हेमचन्द्राचार्यके पास सकलजनसमक्ष जैन धर्मकी गृहस्थ-दीक्षा धारण की थी। इस दीक्षाके धारण करते समय उसने मुख्य रूपसे ये प्रतिज्ञाएँ ली थीं: राज्यरक्षा निमित्त युद्धके अतिरिक्त यावत् जीवन किसी प्राणीकी हिंसा न करना, शिकार नहीं खेलना / मद्य और मांसका सेवन नहीं करना / प्रतिदिन जिन प्रतिमाकी पूजा-अर्चना करना और हेमचन्द्राचार्यका पदवन्दन करना / अष्टमी और चतुर्दशीके दिन सामायिक और पौषध आदि विशेष व्रतोंका पालन करना, रात्रिको भोजन न करना; इत्यादि इत्यादि। अमारी घोषणा ऐमी प्रतिज्ञाएँ लेनेके पश्चात् उसने अपने राज्यमें, दूसरे लोगोंको भी धर्मके मोटे नियमोंका पालन करवानेके लिए घोषणा करवाई थी। उसमें सबसे मुख्य आज्ञा थी जीवहिंसाके प्रतिबंधकी। हमारे देशमें बहुत प्राचीन कालसे दो कारणोंसे हिंसा होती आ रही है - एक है धर्मके निमित्त अर्थात् यज्ञयागादि धार्मिक कर्मकाण्ड और देवी देवताओंकी बलीके निमित्त; और दूसरी भोजनके निमित्त / कुमारपालने इन दोनों प्रकारकी जीवहिंसाका निषेध करनेके लिए राजाज्ञाएँ जाहिर की। हेमचन्द्राचार्यके द्वयाश्रय काव्यमें आए हुए वर्णनसे प्रतीत होता है कि मांसाहारके निमित्त होने वाली जीवहिंसाका निषेध तो कुमारपालने कदाचित् श्रावक धर्मके व्रतोंका अंगीकार करनेके पहले ही कर दिया था। शाकम्भरीके चाहमान राजा अर्णोराज और मालवाके परमार राजा बल्लालदेवको पराजित करनेके पश्चात् एक दिन कुमारपालने रास्तेमें किसी दीन-दरिद्र ग्रामीण मनुष्यको कसाई खानेकी ओर कुछ बकरे ले जाते देखा / उससे पूछताछ की और वस्तुस्थितिका ज्ञान होने पर, उस पामर मनुष्य और उन पशुओंकी ऐसी दशा देख कर राजाके मनमें बोधिसत्त्वके समान करुणाभाव उत्पन्न हुआ। उसके मनमें यह विचार आया कि ये लोग दुष्ट जाति वाले और कुत्तोंके समान धर्मविमुख है / ये अपने इस पापी पेटके लिए प्राणियोंका हनन करते हैं। वास्तवमें इसमें शासन करने वालेका ही दोष है। चूंकि यथा राजा तथा प्रजा। मुझे धिक्कार है कि मैं सिर्फ अपने सुखके लिए प्रजासे कर लेता हूँ लेकिन प्रजाकी रक्षाके लिए नहीं / इत्यादि विचार कर उसने अपने अधिकारियोंको आज्ञा दी कि मेरे राज्यमें जो कोई भी जीवहिंसा करे उसको चोर और व्यभिचारीसे भी अधिक कठोर दण्ड दिया जाय / आर्य प्रजामें जो लोग मांसाहारी हैं वे भी जीवहिंसाको घृणास्पद तो मानते ही हैं, क्यों कि दयामूलक धर्मकी भावना हमारी प्रजामें कई सदियोंसे रूढ हो गई है / 'अहिंसा परमो धर्मः' का सिद्धान्त भारतके सभी धर्म थोडे बहुत अंशमें खीकार करते हैं। इससे मांसाहारी मनुष्य जिह्वा इन्द्रियकी लोलुपताके कारण राजाज्ञाको मनसे भले ही अप्रिय समझते हों; तो भी प्रकट रूपसे उसका विरोध करनेकी नैतिक हिम्मत नहीं कर सकते। इसलिए वे बोल नहीं सकते / लेकिन धर्मके बहाने जीवहिंसा करने वालोंकी स्थिति अलग ही होती है। उनकी हिंसाको धर्मशास्त्रोंका, सनातन परंपराका, रूढियोंका और जनतामें व्याप्त अन्धश्रद्धाका यथेष्ट समर्थन प्राप्त होता है / इससे राजाज्ञाके विरुद्ध ये कुछ विरोध प्रकट करें तो सर्वथा अपेक्षित ही है। परन्तु गुजरातकी कुछ सामाजिक विशेषताओंके कारण तथा तत्का
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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