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________________ राजर्षि कुमारपाल लीन जैनोंके सामाजिक प्रभुत्वके कारण इस वर्गकी ओरसे भी इस आज्ञाका विशेष विरोध नहीं हुआ और कुमारपालको विशेष उपद्रवका सामना नहीं करना पडा। किन्तु विरोधका सर्वथा अभाव भी न था। कुछ प्रबंधकारोंके कथनसे प्रतीत होता है कि पाटणकी अधिष्ठात्री कण्टेश्वरी माताके राजपूजारियोंने कुमारपालको अपने निश्चयमें एक बार दोल कर दिया था। उन्होंने बताया था कि नवरात्रिमें नगर देवीकी पशबलि द्वारा पूजा होनी चाहिए: नही तो देवी कुपित होगी और उसके कोपसे राजा और राज्य पर भयानक आपत्ति आ जायगी / राजाने अपने महामात्य . वाग्भट्टसे, जो कुल परंपरासे जैन था, इस विषयमें सलाह मांगी। महामात्य चाहे कितना भी शूर वीर और राजनीतिज्ञ रहा हो आखिर था तो वणिग् ही। उसने सोचा-कहीं ऐसा न हो कि देवी वास्तवमें कुपित हो जाय तथा राजा और राज्य पर कोई आफत आ पडे / इससे धर्म और जाति दोनों की भारी अपकीर्ति होगी। इस तरहकी कितनी ही कल्पनाओंके वशीभूत हो, उसने चतुरतासे अस्पष्ट खर और अव्यक्त भावसे कहा कि 'देव! दीयते' अर्थात् पशुबलि तो दी जाती है। ऐसी स्थितिमें क्या किया जाय / लेकिन कुमारपाल तो क्षत्रिय था। 'प्राण जाय पर वचन न जाई' इन संस्कारोंका पार्थिव पिण्ड था। संसारके सामने ली हुई प्रतिज्ञा और जाहिर की गई आज्ञाओंका भङ्ग सच्चा क्षत्रिय कैसे होने दे / प्रतिज्ञापालन क गौरवके सामने, क्षत्रियके हृदयमें जिन्दगी और सम्पत्ति तृणके समान है। महामात्य वाग्भट्टका अदिग्ध उद्गार सुन कर कुमारपाल खिलखिला उठा और मर्मयुक्त खरसे बोला-'मनिन् वाणिगसि यदेवं श्रूषे' '-महामात्य ! वगिर हो, इससे ऐसा बोलते हो। भले ही राज्य और जिन्दगी सब नष्ट हो जायँ परन्तु ली हुई प्रतिज्ञा नहीं टूट सकती। राजाकी इस व्याकुल दशाका हेमचंद्रसूरिने अपनी अद्भुत कुशलता और व्यावहारिक बुद्धिसे एक अच्छा और सरल हल निकाल लिया / उनने 'एक पन्थ दो काज' वाली कहावत सिद्ध की। अपनी उस अद्भुत कलाका मन्त्र धीरे से उनने राजाके कानमें इंक दिया और राजा हर्षसे गद्गद् हो उठा / बलिपूजाके अवसर पर राजा थोडेसे पशुओंको साथ ले कर माता कण्टेश्वरीके मन्दिरमें पहुँचा और पूजारियोंसे कहने लगा कि-'मैं ये पशु माताको बलि चढानेके लिए लाया हूँ। इनको मैं माताके सामने जिन्दा रखता हूँ। अगर माताको इनके मांसकी अवश्यकता होगी तो वह खयं ही अपना भक्ष्य ले लेगी। आप लोगोंको भक्ष्य तैयार करनेका परिश्रम उठानेकी आवश्यकता नहीं है।' यह कह कर राजाने माताके मन्दिरमें पशुओंको भर दिया और बाहरसे ताला तगा दिया / दूसरे दिन प्रात:काल राजपरिवारके साथ राजा आया आर हजारों लोगोंकी उपस्थितिमें माताके मन्दिरका दरवाजा खोल कर देखा तो पता चला कि रात्रिको बन्द किये हुए पशु मन्दिरके अन्दर शान्तिसे जुगाली कर रहे हैं। माताने एकका भी भक्षण नहीं किया / राजाने सबके सामने उपदेश दिया कि-'माताको पशुओंके मांसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है / उसको इनकी भूख नहीं है / अगर उसको भूख होती तो इन पशुओंका निश्चय रूपसे उसने भक्षण किया होता / इससे पता चलता है कि माताके बदले ये पूजारी इन पामर पशुओंके मांसके भूखे हैं। लेकिन यह भूख अब मेरे राज्यमें नहीं मिट सकती। यह कह कर राजाने देवी-देवताओंके निमित्त होने वाली जीवहिंसाका भी समूल उच्छेद कर दिया। कुमारपालकी इस अहिंसा प्रवर्तक साधनाकी सफलता देख कर ब्राह्मण पण्डित श्रीधर एक विशेष प्रसंग पर हेमाचार्यकी स्तुति करता हुआ कहता है कि पूर्व वीरजिनेश्वरे भगवति प्रख्याति धर्म स्वयं प्रज्ञावत्यभयेऽपि मनिणि न यां कर्तु क्षमः श्रेणिकः / अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यधात् यस्यासाथ वचस्सुधां स परमः श्री हेमचन्द्रो गुरुः // अर्थात्-साक्षात् भगवान महावीर जिसको धर्मका बोध करने वाले थे और अभयकुमार जैसा प्रज्ञावान् पुत्र खयं जिसका मत्री था वह राजा श्रेणिक भी जो जीवरक्षा न कर सका वह जीवरक्षा, जिनके वचनामृतका पान करके कुमारपाल राजा अनायास ही साध सका, हेमचन्द्र बास्तवमें एक परम महान् गुरु है।
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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