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________________ राजर्षि कुमारपाल ऐसी अद्भुत कल्पना और अनुपम रचना द्वारा शिवकी स्तुति करता है / गंड बृहस्पति जैसा महान् शैव मठाधीश जैनाचार्यके चरणोंमें वन्दन करके चतुर्मासीमासीत्तव पदयुगं नाथ ! निकषा कषायप्रध्वंसाद्विकृतिपरिहारव्रतमिदम् / इदानीमुद्भिद्यन्निजचरणनिर्लोटितकले ____ जलक्लिनरत्नैर्मुनितिलक ! वृत्तिर्भवतु मे // ऐसी स्तुति द्वारा एक सुशिष्यकी भांति अनुग्रहकी याचना करता है। इतिहासके सैकड़ों प्रबन्धोंमें खोजने पर वह एक ही राजा ऐसा मिलता है जो कुलपरंपराप्राप्त 'उमापतिवरलन्धप्रौढप्रताप' बिरुदमें अभिमान करता हुआ भी खरुचिखीकृत 'परमार्हत' बिरुदसे अपनेको कृतकृत्य मानता है। जिस आदरभावसे वह सोमेश्वरके पुण्यधामका जीर्णोद्धार करता है उसी आदरसे उसके पडोसमें पार्श्वनाथके जैन चैत्यकी भी स्थापना करता है। कुमारपाल गुजरातकी गर्वोन्नत राजधानी अणहिलपुरमें शंभुनाथके निवासार्थ 'कुमारपालेश्वर' और पार्श्वनाथके लिए 'कुमारविहार' नामक दो मंदिरोंका निर्माण एक दूसरेके समीप ही करता है। इससे बढ कर धार्मिक सहिष्णुताका उदाहरण मिलना कठिन है। ___कुमारपाल खभावसे ही धार्मिकवृत्ति वाला था, इससे उसमें दया, करुणा, परोपकार, नीति, सदाचार और संयमकी वृत्तियोंका विकास उच्च प्रकारका हुआ था / उसमें ये बहुतसे गुण पैतृक ही होने चाहिए। उसके प्रपिता के पिता क्षमराज ने-जो पराक्रमी भीमदेवका ज्येष्ठ पुत्र और सिद्धराजके भोगपरायण पिता / भ्राता था,-पिता द्वारा दी गई राजगद्दीका अस्वीकार कर अपने छोटे भाई कर्णको राज्य दे दिया आर स्वयं मंडूकेश्वर तीर्थमें जा कर तपखीके रूपमें शंकरकी उपासनामें लीन रहते हुए जीवन सफल बनाया। उसका पुत्र देवप्रसाद भी राजकाजकी झंझटोंसे दूर रह कर खयं पिताका अनुकरण करता रहा और जिस समय विलासी कर्णका असमयमें अवसान हुआ तो वह इतना उद्विग्न हो उठा कि सजीव देहसे चितामें प्रवेश कर गया / कुमारपाल का पिता त्रिभुवनपाल भी एक सदाचारी और धर्मपरायण क्षत्रिय था। सिद्धराजके लिए वह अत्यन्त आदरणीय पुरुष था। उसके नीतिपरायण जीवनका प्रभाव सिद्धराजके खच्छन्द जीवन पर अंकुशका काम करता था। इस प्रकार कुमारपालको अपने पूर्वजोंसे उत्तम गुणोंकी अमूल्य निधि मिली थी। हेमचन्द्र जैसे महान् साधु पुरुष के सत्संगसे वह धर्मात्मा 'राजर्षिकी लोकोत्तर पदवीके महान् यशका उपभोक्ता हुआ। हेमचन्द्रसूरिने उसके यश को अमर बनानेके लिए 'अभिधान चिन्तामणि' जैसे प्रमाणभूत शब्दकोशके सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में उसके लिए कुमारपालचौलुक्यो राजर्षिः परमार्हतः। मृतवमोक्ता धर्मात्मा मारिव्यसनवारकः // ऐसे उपनाम प्रथित कर सार्वकालिक संस्कृत वाङ्मय में उसके नाम को सार्वभौमिक शाश्वत बना दिया। . श्रमणोपासक कुमारपाल इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि कुमारपाल अपने अंतिम जीवनमें एक चुस्त जैन राजा था। उसने जैनधर्म प्रतिपादित उपासक अर्थात् गृहस्थ श्रावक धर्मका दृढ़ताके साथ पालन किया था। ऐतिहासिक कालमें कुमारपाल के सदृश जैन धर्मका अनुयायी राजा शायद ही कोई हुआ हो / जैन साहित्यमें यों तो बहुतसे राजाओंका जैन होनेका जिक्र आता है। उदाहरणके तौर पर उज्जयिनीका विक्रमादित्य, प्रतिष्ठानपुरका सातवाहन, वलभी का शिलादित्य, मान्यखेटका अमोघवर्ष, गोपगिरिका आमराज-इत्यादि राजा जैन धर्मके अनुरागी थे। लेकिन ये सब राजा अगर जैन धर्मके अनुरागी बने होंगे तो इतने ही अर्थमें कि उन्होंने जैन धर्म और उनके अनुयायियों में अपना सविशेष अनुराग या पक्षपात बताया होगा: समय समय पर जैन गुरुषोंको सबसे ज्यादा भादर प्रदान
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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