________________ राजर्षि कुमारपाल कविप्रतिभासे चित्रित इस चित्रमें नामनिर्देश भले ही काल्पनिक हो परन्तु यह सारा चित्र काल्पनिक नहीं है। इसमें वर्णित घटना अनैतिहासिक नहीं है / इस घटनाके अनुरूप अवश्य ही कोई घटना घटी होगी। यह चित्र कुमारपालकी महानुभावताको उत्तम रूपमें प्रतिबिम्बित करता है। इस प्रकार मृत-ख-मोचन द्वारा प्रजाहितका कार्य करके कुमारपालने उस कीर्तिको प्राप्त किया जिसे सत्ययुगमें होने वाले रघु, नहुष, नाभाग और भरत आदि परम धार्मिक राजा भी प्राप्त नहीं कर सके / इसीसे प्रसन्न हो कर आचार्य हेमचन्द्र उसकी प्रशंसा करते हैं न यन्मुक्तं पूर्व रघु-नहुष-नाभाक-भरत प्रभृत्युर्वीनाथैः कृतयुगकृतोत्पत्तिभिरपि / विमुश्चन् सन्तोषात् तदपि रुदतीवित्तमधुना कुमारक्षमापाल ! त्वमसि महतां मस्तकमणिः॥ अपुत्राणां धनं गृह्णन् पुत्रो भवति पार्थिवः। त्वं तु सन्तोषतो मुश्चन् सत्यं राजपितामहः॥ गुजरातका वह सर्वोपरि आदर्श राजा था। वह जैसा वीर, नीतिनिपुण और दुर्धर्ष था वैसा ही संयमी, धर्मपरायण और सौम्यं भी था। उसमें अनुभवकी विशालताके साथ साथ गंभीर तात्त्विक बुद्धि भी कम न थी। वह त्यागीके साथ मितव्ययी और पराक्रमीके साथ क्षमावान् भी था। सिद्धराज और कुमारपाल गुजरातके साम्राज्यके दो ही सर्वोत्कृष्ट प्रभुत्वशाली राजा हुए -सिद्धराज और कुमारपाल / दोनोंके पराक्रम और कौशलसे गुजरातका गौरव चरम सीमा पर पहुँच गया था। प्रबंधकारोंका कहना है कि सिद्धराजमें 98 गुण थे और दो दोष थे और कुमारपालमें थे 98 दोष और 2 गुण / ऐसा होने पर भी कुमारपाल श्रेष्ठ था / सिद्धराजने गुजरातके नागरिकोंके लिए महास्थान बनाये तो कुमारपालने उनका संरक्षण करनेके लिए दुर्गोंका निर्माण कराया / सिद्धराज ने गुजरातके पराक्रमका गुञ्जन करने वाली महायात्राएं की तो कुमारपालने उन यात्राओंकी चिरस्मृतिके लिए महाप्रशस्तियोंकी रचना करवाई / सिद्धराजने गुजरातके गौरवधाम गिरनारके ऊपर महातीर्थकी स्थापना की तो कुमारपालने गुजरातके आबाल वृद्धोंको यात्रा सुलभ बनानेके लिए उस पर सीढियोंका निर्माण कराया / सिद्धराजने अगर गुजरातकी गुरुताके महालयोंका निर्माण किया तो कुमारपालने उन महालयों पर खर्णकलश और घजदंड चढा कर उन्हें सुप्रतिष्ठित किया / कुमारपाल गुजरातकी गरिमाका सर्वोपरि शिखर था। इसके समयमें गुजरातवासी विद्या और विभुतामें, शौर्य और सामर्थ्यमें, समृद्धि और सदाचारमें, धर्म और कर्ममें, उत्कृष्टता पर पहुँच गये थे। उसके राज्यमें प्रकृतिकातर वैश्य भी महान् सेनापति हुए, द्रव्यलोलुप वणिग्जन भी महाकवि हुए और ईर्षापरायण ब्राह्मण तथा निन्दापरायण श्रमण भी परस्पर मित्र हुए। व्यसनासक्त क्षत्रिय भी संयमी साधक बने और हीनाचारी शूद्र धर्मशील बने / धर्मसहिष्णुता उत्साहप्रवर्तक धर्मपरिवर्तनके पश्चात् मी धर्मसहिष्णुता जितनी उसके राज्यमें थी वैसी किसीके राज्यमें दृष्टिगोचर महीं हुई / कदाचित् भारतके प्राचीन इतिहासमें वह एक ही पहला और अन्तिम उदाहरण होगा कि हेमचंद्र जैसा जैन धर्मका महन् आचार्य शिव मंदिरमें श्रद्धालु शैवकी तरह यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया। बीतवोषकलपासचे भवान् एक एव भगवन्नमोऽस्तु ते॥